पिछले दो सालों से भारत में
WHO के सहयोग से MR टीकाकरण का राष्ट्रीय अभियान चलाया जा रहा है| भारत सरकार के
स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा जारी दस्तावेज़ों के अनुसार
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खसरा तथा रुबैला के प्रति सुरक्षा प्रदान करने के लिए यह टीका स्कूलों तथा
आउटरीच सत्रों में दिया जा रहा है|
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इस अभियान के अंतर्गत 9 माह से 15 वर्ष तक के आयु वर्ग के बच्चों को यह टीका
लगाया जाना है|
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यह दोनों ही वायरस द्वारा फैलने वाले रोग हैं| बच्चों में खसरे के कारण
विक्लांगता तथा असमय म्रत्यु हो सकती है, वहीँ रुबैला एक संक्रामक रोग है जिसके
लक्षण खसरे जैसे होते हैं| यदि कोई महिला गर्भावस्था के शुरूआती चरण में इससे
संक्रमित हो जाए तो कंजेनिटल रुबैला सिंड्रोम (CRS) हो सकता है जो उसके भ्रूण तथा
नवजात शिशु के लिए घातक सिद्ध हो सकता है|
दिसम्बर 2018 में शिक्षा
निदेशालय द्वारा जारी एक सर्कुलर के अनुसार इस अभियान को दिल्ली के स्कूलों में 16
जनवरी 2019 से शुरु किया जाना था| लेकिन डीपीएस स्कूल के कुछ छात्रों ने इस टीकाकरण
अभियान को दिल्ली उच्च न्यायालय में चुनौती दी| याचिका पर सुनवाई करते हुए दिल्ली
उच्च न्यायालय ने फैसला दिया कि अभिभावकों की लिखित रज़ामंदी ज़रूरी है| गौरतलब है
कि यह अभियान अधिकतर राज्यों में चलाया जा चुका है और रिपोर्टों के अनुसार सिवाय केरल
के इसे कहीं और वैधानिक चुनौती नहीं दी गयी है|
इस टीकाकरण अभियान के
स्कूली संदर्भ को लेकर हम कुछ शंकाएं और आपत्तियां साझा कर रहे हैं -
स्वास्थ्य से संबंधित शंकाएं
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यह स्पष्ट नहीं है कि सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी किस आपात स्थिति के चलते सरकार
ने MR टीकाकरण शुरु किया है|
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क्योंकि कोई भी राष्ट्रीय अभियान जनता के पैसे से चलाया जाता है इसलिए यह
जानना ज़रूरी है कि वे कौन-से घोषित पैमाने (व्यापकता, गंभीरता, संक्रमण दर आदि)
हैं जिनके आधार पर किसी बीमारी को राष्ट्रव्यापी टीकाकरण अभियान के लिए चिन्हित
किया जाता है|
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दिल्ली सरकार के शिक्षा निदेशालय द्वारा 20/12/18 को जारी सर्कुलर में इस
टीकाकरण के 95% संतुष्टि दर का उल्लेख किया गया है| इसके क्या मायने हैं?
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जब खसरा का टीका पहले ही सार्वभौमिक टीकाकरण कार्यक्रम (UIP) के तहत बच्चों को
शिशु अवस्था में लगाया जाता है और रुबैला के घातक परिणाम गर्भवती महिला के होने
वाले बच्चे पर पड़ते हैं, तब यह स्पष्ट नहीं है कि MR टीके को 9 महीने से 15 साल तक
के उम्र के बच्चों को क्यों लगाया जा रहा है| यह सवाल इसलिए भी महत्वपूर्ण हो जाता
है क्योंकि मेडिकल विज्ञान में एक मत यह भी है कि सामान्यत: रुबैला एक ऐसा रोग है
जो बचपन में लगभग सभी को होता है और इसके प्राकृतिक रूप से हो जाने से हमारा शरीर
इससे लड़ने की पर्याप्त प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेता है| इस मत के अनुसार, बचपन
में ही रुबैला का टीका लगाने के कारण यह स्वत: विकसित होने वाली प्रतिरोधक
प्रक्रिया रुक जाएगी तथा भविष्य में यह बीमारी गम्भीर रूप भी ले सकती है| इसी राय
के अनुसार रुबैला की रोकथाम के लिए टीका 12-13 साल की उम्र के बाद ही लगाना बेहतर होगा|
स्कूलों को केंद्र बनाने से
संबंधित कुछ शंकाएं और सवाल
चूँकि इस अभियान में
शिक्षकों और स्कूलों की वैधता का प्रयोग किया जा रहा है इसलिए हम अपनी भूमिका को
लेकर सतर्क रहना ज़रूरी समझते हैं|
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जब आज तक बच्चों से जुड़े तरह-तरह के टीकाकरण व अन्य स्वास्थ्य अभियान
अस्पतालों, स्वास्थ्य केन्द्रों, आशा कर्मियों आदि के माध्यम से अंजाम दिए जाते
रहे हैं तो आख़िर किन कारणों से MR टीकाकरण को स्कूलों में करवाया जा रहा है? स्कूलों
में बच्चों की उपलब्द्धता को टीकाकरण के लिए आसानी से मिलने वाले मजबूर प्रतिभागी (कैप्टिव
ऑडियंस) की तरह देखा जा रहा है|
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टीकाकरण के बाद जो निगरानी और मॉनीटरिंग शिक्षकों द्वारा की जाएगी, क्या यह
मूलत: स्वास्थ्य विभाग की ज़िम्मेदारी नहीं थी जो शिक्षकों को आउटसोर्स कर दी गयी
है?
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जिस तरह पिछले दिनों स्कूलों को आधार, बैंक खाते, वोटर कार्ड बनवाने जैसे गैर-शैक्षणिक
कामों के लिए इस्तेमाल किया गया है, इस टीकाकरण अभियान को भी उसी कड़ी में देखने की
ज़रूरत है| ऐसे अनेक कार्यक्रमों व अभियानों को स्कूलों के माध्यम से अंजाम दिया जा
रहा है जो स्कूलों की शैक्षिक पहचान को नेपथ्य में धकेल रहे हैं|
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ऐसे अभियानों में स्थानीय प्रशासन द्वारा अनैतिक तौर-तरीक़े अपनाने की आशंका को
भी ख़ारिज नहीं किया जा सकता हैI इसका एक चिंताजनक उदाहरण मेघालय के एक स्कूल की
खबर से मिलता है जिसके अनुसार प्रशासन ने केवल इस कारण विद्यार्थियों के परीक्षा
परिणाम रोकने के आदेश दिए क्योंकि उन्होंने (अथवा उनके अभिभावकों ने) इस टीकाकरण
में भाग नहीं लियाI (School results withheld due to poor MR vaccination, The
Hindu, November 23, 2018)
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हम शिक्षकों के पास ऐसा कोई मेडिकल ज्ञान तथा प्राधिकार नहीं है जिसके तहत हमसे
प्रार्थना सभा तथा SMC मीटिंग में इस वैक्सीन का प्रचार करवाया जा रहा है|
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शिक्षा अधिकार अधिनियम के तहत शिक्षकों को टीकाकरण प्रोग्राम में हिस्सा लेने
के लिए बाध्य करना गैर-शैक्षणिक कार्य की श्रेणी में आता है| क्या ऐसे कार्यक्रमों
को स्कूलों में आयोजित करने से पढ़ाई की नियमित प्रक्रिया बाधित नहीं होगी?
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प्रधानाचार्य मिड-डे-मील का वितरण तो सुनिश्चित कर सकते हैं लेकिन प्रत्येक
बच्चे का पेट भरा हो इसे शिक्षक कैसे सुनिश्चित करेंगे? इसी तरह, हर बच्चे के बारे
में शिक्षक यह जानने की स्थिति में नहीं होते हैं कि उन्हें टीकाकरण को लेकर
आशंकित रहने वाली कोई पूर्व मेडिकल अवस्था है या नहींI
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कक्षा 9 और 10 के विद्यार्थियों के लिए मिड-डे-मील की व्यवस्था SMC फण्ड से
करने का निर्देश दिया गया है| SMC फण्ड के इस इस्तेमाल को लेकर ऐसे केंद्रीकृत
निर्णय SMC की स्वायत्तता को चोट पहुंचाते हैं|
बच्चों की अच्छी सेहत के
लिए सार्वजनिक स्वास्थ्य कार्यक्रम की ज़रूरत के सम्पूर्ण पक्षधर होते हुए, हम इस
अभियान के मॉडल के प्रति आश्वस्त नहीं हैं| विभिन्न राज्यों से आई चिंताजनक ख़बरों
(जिनमें कुछ घटनाओं के फलस्वरूप लोगों की आशंकाएं व्यक्त हुई हैं), मेडिकल विज्ञान
में ही इसको लेकर असहमति तथा सरकारों द्वारा स्कूलों तथा शिक्षकों के गैर-अकादमिक
इस्तेमाल के बढ़ते चलन के संदर्भ में हमें ऐसे अभियानों पर गंभीरता से विचार करने
की ज़रूरत है|
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