फ़िरोज़
5 जनवरी 2019 को द हिन्दू में छपी एक ख़बर के अनुसार कर्नाटक सरकार के प्राथमिक व उच्च-माध्यमिक शिक्षा विभाग ने मिड-डे-मील को लेकर विद्यार्थियों व शिक्षकों की राय लेने का फ़ैसला किया है। इसकी नौबत इसलिए आई क्योंकि मध्याह्न भोजन के कार्यक्रम में भूमिका निभाने वाली संस्था अक्षय पात्र ने खाने में लहसुन व प्याज़ इस्तेमाल करने से इंकार कर दिया है। बताया गया कि नवंबर 2018 में ही विभाग ने एक नोटिस जारी करके उक्त संस्था को बच्चों के खाने में लहसुन-प्याज़ इस्तेमाल करने के लिए कहा था। ख़बर के अनुसार राज्य के खाद्य आयोग को ये शिकायतें मिली थीं कि कई विद्यार्थी, भोजन के स्वाद में कमी का कारण बताकर, या तो कम मात्रा में खाना ले रहे थे या फिर इसे पूरी तरह छोड़ रहे थे। अक्षय पात्र - जोकि ISKCON (इंटरनेशनल सोसाइटी फ़ॉर कृष्ण कांशसनेस) नामक अंतर्राष्ट्रीय धार्मिक प्रचार संस्था से नियोजित है - ने साफ किया है कि वो केवल 'सात्विक' भोजन ही पकाती-परोसती है। केंद्रीय खाद्य टेक्नोलॉजिकल शोध संस्थान (CFTRI) ने विभाग को अपने एक पुराने शोध पर आधारित रपट भेजी है जिसमें पाया गया है कि कैसे प्याज़ व लहसुन अनाज में मौजूद लौह तथा जस्ता (ज़िंक) को शरीर द्वारा ग्रहण करने में सहायक होते हैं। वीणा शत्रुघ्न ने, जोकि एक क्लिनिकल न्यूट्रिशनिस्ट हैं और राष्ट्रीय न्यूट्रिशन संस्था की उप-निदेशक रह चुकी हैं, बताया कि यह संभव है कि प्याज़ व लहसुन से शाकाहारी भोजन में लौह को जज़्ब करने की क्षमता बढ़ती है। उनके अनुसार यह इसलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि भारत में 50-70% बच्चे अनीमिया से ग्रस्त हैं। उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि सेहत के लिए इन अवयवों के कई अन्य फ़ायदे भी हैं, जिनमें वयस्कों में कोलेस्ट्रॉल कम करना और इनका एंटी-ऑक्सीडेंट होना शामिल है। इन बातों के अलावा, उन्होंने यह भी जोड़ा कि खाने की महक व उसके स्वाद से भी खाने की गुणवत्ता बढ़ती है।
यहाँ इस तथ्य पर ग़ौर करना ज़रूरी होगा कि अक्षय पात्र को राज्य के विभिन्न शहरों में लगभग साढ़े चार लाख विद्यार्थियों का मध्याह्न भोजन सप्लाई करने का ठेका मिला है। बंगलुरु में ही यह संस्था 1,212 स्कूलों के 1.83 लाख बच्चों का भोजन तैयार कर रही है। बीते नवंबर में इस संस्था को ठंडे दूध के बदले गर्म दूध सप्लाई करने का आदेश भी मिला था जिसका कि इसने कुछ स्कूलों में एक प्रयोग के तहत पालन भी किया है। लेकिन संस्था ने लहसुन-प्याज़ वाले आदेश मानने से मना कर दिया है। इस संदर्भ में यह तथ्य भी महत्वपूर्ण है कि लहसुन-प्याज़ राज्य के अधिकतर समुदायों के खानपान की संस्कृति का अभिन्न अंग है। दूसरी तरफ़ 2015-16 के राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे के अनुसार कर्नाटक में 5 वर्ष से कम उम्र के 36% बच्चे क़द के हिसाब से अविकसित हैं, 26% क्षीण हैं, 10% अति क्षीण हैं और 35% वज़न के हिसाब से अविकसित हैं। हालाँकि, CFTRI ने यह भी कहा कि मैसूरु के 270 स्कूलों में 2017 के अपने एक सर्वे में उसने पाया कि अक्षय पात्र द्वारा तैयार भोजन का औसत कैलोरिफ़िक मूल्य स्कूल में तैयार भोजन के मूल्य से अधिक था। साथ ही, अक्षय पात्र का यह भी दावा है कि उसके द्वारा तैयार भोजन मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा तय किये गए मानकों पर खरा उतरता है। अब या तो सरकार को संस्था के खानपान के आग्रहों को मानना होगा या मध्याह्न भोजन की वैकल्पिक व्यवस्था करनी होगी।
इस बीच भोजन के अधिकार अभियान व जन स्वास्थ्य अभियान से जुड़े 145 विशेषज्ञों, नागरिकों व स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने इस मुद्दे पर मुख्यमंत्री व मानव संसाधन विकास मंत्रालय को पत्र लिखा है। इसमें उन्होंने प्रोटीन की दृष्टि से अंडों को शामिल करने की माँग के अलावा विकेन्द्रीकृत रसोइयों में स्वयं-सहायता समूहों द्वारा स्थानीय संस्कृति के हिसाब से उचित भोजन उपलब्ध कराने की माँग भी रखी है।
अक्षय पात्र के धार्मिक आग्रह के चलते यह स्थिति केवल कर्नाटक में ही नहीं, बल्कि ख़बरों के अनुसार पुड्डुचेरी में भी पैदा हुई है। यहाँ इस संस्था को 300 सरकारी स्कूलों के 50,000 विद्यार्थियों का भोजन तैयार करने का ठेका मिला है। अक्षय पात्र द्वारा अंडे नहीं परोसने की नीति के कारण बच्चों की पोषण संबंधी ज़रूरतें पूरा नहीं होने का इल्ज़ाम लगाते हुए राज्य की माकपा इकाई द्वारा यह माँग की गई है कि शिक्षा विभाग पूर्व की तरह अपनी केंद्रीय रसोई में ही खाना बनाने की व्यवस्था को जारी रखे।
इस पूरे प्रसंग ने एक बार फिर शिक्षा में धर्मनिर्पेक्षता के सवाल के महत्व को हमारे सामने साफ़ कर दिया है। चाहे वो खाना बनाने और बाँटने जैसी 'ग़ैर-आकादमिक' या 'परोपकारी' भूमिका ही क्यों न हो, यह उदाहरण स्पष्ट करता है कि क्यों किसी भी धार्मिक संस्था को राज्य द्वारा चलाये जा रहे सार्वजनिक स्कूलों से पूरी तरह से दूर रखा जाना चाहिए। जो बात अक्षय पात्र और मध्याह्न भोजन पर लागू होती है, वही बात इस तरह की अन्य संस्थाओं व बाक़ी पहलुओं पर भी लागू होगी। हो सकता है कि कोई अन्य संस्था खाने में अपनी आस्था के आग्रह इस्तेमाल न करे, मगर परोसने में किसी आस्था-विशेष के व्यवहार का प्रदर्शन करे या विद्यार्थियों से भी इसकी अपेक्षा करे, उन्हें विशिष्ट आचरण प्रस्तुत करने के लिए 'प्रेरित' करे। यह सामाजिक-सांस्कृतिक भेदभाव को ही दावत देना है। दूसरी महत्वपूर्ण बात धार्मिक आस्था से भी जुड़ी है और परोपकारिता का जामा पहने हुई निजी संस्थाओं के चरित्र से भी। चूँकि ऐसी संस्थाएँ अपनी छवि व वैधता अपने 'उदार' व 'निःस्वार्थ' कामों के बल पर निर्मित करती हैं, इसलिए इनकी धार्मिकता के अतिरिक्त भी इनकी मंशा पर सवाल खड़े करना मुश्किल हो जाता है। इस अतिरिक्त ताक़त के बल पर न सिर्फ़ इनके सात ख़ून माफ़ हो जाते हैं, बल्कि जनविरोधी कृत्यों तक को पुण्य की चादर से ढँक दिया जाता है। तीसरे, जैसा कि इस उदाहरण से भी स्पष्ट है, धार्मिक शक्तियों को स्कूलों में जगह देने का सीधा मतलब है अतार्किकता व अवैज्ञानिकता को बढ़ावा देना और विद्यार्थियों के तमाम हक़ों को ताक़ पर रखना। ज़ाहिर है कि इन सब कारणों के चलते सभी धार्मिक क़िस्म की संस्थाओं को सार्वजनिक स्कूलों के सभी कार्यकलापों व ज़िम्मेदारियों से प्रतिबंधित करना लाज़िमी हो जाता है।
देश के बहुत-से स्कूलों व उच्च-शिक्षा संस्थानों में भी इस ग़ैर-प्रतिनिधित्वकारी संस्कृति का वर्चस्व देखा जा सकता है। चाहे वो कैंटीन्स का मेन्यू हो या छात्रावासों में माँसाहारी-शाकाहारी भोजन के लिए अलग-अलग मेज़ों-थालियों चिन्हित करने की सफल-असफल कोशिशें या (केवल) महिला छात्रावासियों के भोजन में अंडे तक का निषेध या कुछ विद्यार्थियों में उनके आहार को लेकर एक ऐसा संकोच व डर बैठाना कि वो अपने 'सामान्य' या पसंदीदा भोजन को कभी स्कूल/कॉलेज लाने या सार्वजनिक रूप से खाने की तो क्या, सबके सामने उसका नाम तक लेने की जुर्रत न करें, ये सभी उदाहरण हमारे शैक्षिक संस्थानों के लोकतांत्रिक स्वरूप और प्रभुत्वशाली सांस्कृतिक समूहों की 'उदारता' की सच्चाई बयान करते हैं। ऐसे में कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए कि कहीं सरकारें मध्याह्न भोजन में विकल्प के रूप में भी बच्चों को अंडे दिए जाने की इजाज़त नहीं देती हैं और कहीं अक्षय पात्र नाम की मिड-डे-मील बनाने व वितरित करने वाली संस्था, बच्चों द्वारा स्वाद की शिकायत को लेकर खाना छोड़ने या न्यूट्रिशनिस्ट/डॉक्टर्स की सलाह की परवाह किये बग़ैर, 'सात्विक' भोजन की अपनी परिभाषा व उसके प्रति निष्ठा के चलते भोजन तैयार करने में लहसुन-प्याज़ का इस्तेमाल करने से साफ़ इंकार कर देती है। उनका यह साहसी इंकार निःसंदेह इस यक़ीन से बल पाता होगा कि अपने रसूख़ के चलते उन्हें अपने अंतःकरण की आज़ादी की इस क़ाबिल-ए-तारीफ़ हिफ़ाज़त में अपना ठेका खो देने का जोखिम उठाने की परवाह भी नहीं करनी पड़ेगी। ज़ाहिर है कि ''न खाऊँगा और न खाने दूँगा" का ये अनोखा नियम जोकि नैतिकता को सर के बल खड़ा करता है लेकिन उसे नैतिकता व क़ानून दोनों का जामा पहनाने की कोशिश करता है, किन्हीं लोकतांत्रिक या तार्किक मूल्यों के आधार पर नहीं, बल्कि प्रशासनिक-राजनैतिक सत्ता व सांस्कृतिक वर्चस्व की ताक़त की बदौलत ही टिक पाता है। निष्कर्ष साफ़ है। इस निज़ाम को पलटना होगा। इस दौरान हमें अपनी कक्षाओं में, अपने शैक्षिक परिसरों में खान-पान से जुड़ी विविधता और आज़ादी को अपने उदाहरणों, अपनी हल्की-फुल्की टिप्पणियों में शुमार करके 'सामान्य' बनाने की कोशिशें करनी होंगी। खाने से जुड़े अघोषित प्रतिबंधों को ख़ुद भी लाँघकर एक स्वस्थ पैमाने को सहज रूप से प्रस्तुत करना होगा और अपने विद्यार्थियों व अन्य साथियों को भी उनकी अस्मिता, उनकी सांस्कृतिक-राजनैतिक अभिव्यक्ति का आत्मविश्वास लौटाना होगा। तभी हमारे शैक्षिक परिसर, कम-से-कम एक अहम मायने में, समानता, स्वतंत्रता, न्याय और बंधुत्व के वो मूल्य पेश कर पायेंगे जिनकी सौगंध हम रस्मन खाते-खिलाते रहते हैं।
(लेखक दिल्ली के एक सरकारी स्कूल में शिक्षक हैं और विभिन्न सामाजिक-राजनैतिक क्षेत्र में सक्रिय हैं)
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