समय-समय पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति द्वारा राजसत्ता यह
स्पष्ट करती है कि देश में शिक्षा के क्या उद्देश्य होंगे, स्कूल-कॉलेजों का ढाँचा
कैसा होगा, शिक्षा
पद्धतियाँ कैसी होंगी, शिक्षा पर ख़र्च का स्वरूप कैसा होगा आदिI 1968 व 1986 के बाद देश के इतिहास में
तीसरी राष्ट्रीय शिक्षा नीति लाई जा रही है। ऐसे दस्तावेज़ सिर्फ़ भविष्य को लेकर
सरकार की मंशा ही नहीं जताते, बल्कि पहले से लागू फ़ैसलों पर वैधानिकता की मुहर
लगाने का काम भी करते हैं। इस नीति के संदर्भ में यह बात पहले से लागू जनविरोधी
फैसलों के लिए सच जान पड़ती है| मई के अंत में राष्ट्रीय शिक्षा नीति का प्रारूप आया
जो भविष्य में हर स्कूल, कॉलेज, शिक्षा संस्थान, विद्यार्थी, शिक्षक, यहाँ तक कि पूरे समाज को
प्रभावित करेगा। (हालाँकि इसके अंदर के कुछ प्रस्तावों की समय-सारणी की असंगतता से स्पष्ट होता है कि इसे 2018 के अंत में ही तैयार कर
लिया गया था!) इसलिए इस
प्रारूप पर गहरे और निरंतर सोच-विचार की ज़रूरत हैI मानव संसाधन विकास मंत्रालय
ने भी इस पर सुझाव माँगे हैं, जिसकी अंतिम तिथि, कम समय को लेकर विरोध होने
पर, पहले 30 जून से बढ़ाकर 31 जुलाई कर दी गई थी और फिर 15
अगस्त कर दी गईI इसी तरह, प्रारूप को महज़ हिंदी व
अंग्रेज़ी में जारी किया गया है और अन्य भाषाओँ की अनदेखी होने की आलोचना के
फलस्वरूप इसके सारांश को बाद में संविधान की 8वीं अनुसूची की अन्य भाषाओँ में जारी
किया गया। इसमें भी भारत की अनेक जनभाषाओं को तो नज़रंदाज़ कर दिया गया लेकिन
संस्कृत जैसी मुट्ठीभर लोगों व विशिष्ट वर्ग की भाषा का पूरा ख़याल रखा गया।
हालाँकि हम
जानते हैं कि शिक्षा के विभिन्न आयाम व स्तर एक-दूसरे से जुड़े हुए हैं और इन्हें
अलग-थलग करके नहीं देखा जा सकता, फिर भी यहाँ हमने इस नीति के प्रारूप के स्कूली
शिक्षा वाले हिस्से पर अपना ध्यान केंद्रित किया है।
3 से 6 साल के बच्चों का स्कूलीकरण
यह नीति 3 से 6 साल की उम्र के बच्चों को
शिक्षा का अधिकार देने की बात तो करती है लेकिन मौजूदा स्वरूप में इसमें 3-6 साल के बच्चों के लिए ख़ुशी
से ज़्यादा खतरे की खबर है (भाग 1, अध्याय 1)I इस उम्र के बच्चों की
वास्तविक ज़रूरतें होती हैं: अच्छा पोषण, सुरक्षा, स्नेह, खेल और दुनिया को अपने ढंग
और गति से जानने की आज़ादी। लेकिन इस नीति का पूरा ज़ोर इस उम्र को भी अनुशासित
स्कूली ढाँचे में उतार लेने पर हैI इस उम्र की शैक्षिक ज़रूरतें अलग किस्म की होती हैं| छोटी उम्र के बच्चों की देखभाल और शिक्षा (ईसीसीई) के
विशेषज्ञों का कहना है कि स्कूलों का टॉप-डाउन, परिणामवादी
माहौल इस उम्र के बच्चों के स्वास्थ्य एवं विकास के खिलाफ होगा| उदाहरण के तौर पर, जैसे कक्षा 10 की पूरी पढ़ाई एक बोर्ड
परीक्षा पार करने में झोंक दी जाती है, वैसे ही 6 साल से
नीचे के बचपन को भी कक्षा 1 में प्रस्तावित 3 माह के ‘स्कूल
तैयारी मॉड्यूल’ (2.11) के लिए ढाल दिया जाएगा|
‘स्कूल काम्प्लेक्स’ (अध्याय 7) में
प्री-प्राइमरी चलाने का प्रस्ताव इतने छोटे बच्चों को लम्बी दूरी तय करने पर मजबूर
करेगा जिसके चलते या तो कई बच्चे इन कक्षाओं तक पहुँच ही नहीं पाएँगे या पास के
प्राइवेट प्ले-स्कूलों में दाखिला लेने पर मजबूर हो जाएँगेI गली-महल्लों में आँगनवाड़ियां होने के कारण बच्चों का आना-जाना सुलभ होता है
और माता-पिता का जुड़ाव भी अधिक होता है जो कि स्कूल कॉम्प्लेक्स के औपचारिक माहौल
में संभव नहीं होगा|
घर से दूरी के चलते आज जो प्राइवेट
प्ले-स्कूलों का बाज़ार खड़ा है उसे न केवल वैधानिकता मिलेगी बल्कि फलने-फूलने का
पूरा मौका मिलेगा और आँगनवाड़ी व्यवस्था ख़तरे में पड़ेगीI
जबकि ज़रूरत इस बात की थी कि लाखों आँगनवाड़ियों को
बढ़िया पोषण और संसाधनों से समृद्ध किये जाने के ठोस प्रस्ताव दिए जातेI राज्य आँगनवाड़ी महिलाओं को
कर्मचारियों का दर्जा दे ताकि उन्हें न्यूनतम वेतन, सामाजिक सुरक्षा और पेंशन
आदि के लिए बार-बार सड़कों पर न उतरना पड़े, जैसा कि पंजाब, दिल्ली, बिहार आदि में होता आ रहा
हैI ऐसी
परिस्थितियों में इस नीति का यह दावा करना कि प्रशिक्षित नर्सरी शिक्षक रखे जाएँगे, मौजूदा कर्मियों की स्थिति को लेकर कई सवाल खड़े करता हैI
स्कूलों से बाहर धकेलती शिक्षा नीति
सर्वप्रथम तो दस्तावेज़ का यह दावा ही झूठा है कि अब
प्राथमिक कक्षाओं में नामांकन लगभग 100% है (अध्याय 7)| दिल्ली में ही हज़ारों बच्चे आज भी स्कूलों से बाहर हैं, ऊपर से प्राथमिक कक्षाओं तक में दाखिले की शर्तें कठोर होती जा रही हैं| उदाहरण के तौर पर, दिल्ली के सरकारी स्कूलों में न
सिर्फ आधार कार्ड बल्कि दिल्ली की रिहाइश के पक्के सबूत की शर्त के चलते सैकड़ों बच्चों
को दाखिला नहीं मिलता, लेकिन सरकारें 100% नामांकन के प्रचार
के नीचे इस सच्चाई को दबा रही हैं|
एक तरफ़ यह नीति 18 साल तक के सभी बच्चों को
शिक्षा का अधिकार देने का प्रस्ताव रखती है और दूसरी तरफ कक्षा 8 के बाद बच्चों को स्कूल
छोड़ने के रास्ते दिखाती है (भूमिका; अध्याय 3)I 'एक्ज़िट पॉइंट’ का प्रस्ताव कहता है कि
कक्षा 9 से 12 के बीच स्कूल छोड़ने पर
बच्चे सर्टिफिकेट प्राप्त कर सकते हैंI इन सर्टिफिकेट से बच्चों को क्या हासिल होगा? आज तक भी तो बच्चों को
स्कूल छोड़ने पर रिपोर्ट कार्ड मिल ही जाती थीं! दरअसल यह उनके स्कूल छोड़ने को
लुभावना बनाने की एक चाल हैI क्या हम नहीं जानते कि इस देश में करोड़ों बच्चे -
खासकर दलित, आदिवासी, मुस्लिम पृष्ठभूमियों से
आने वाले और गरीब, लड़कियाँ, विकलाँग - पढ़ाई बीच में
अपनी मर्ज़ी या शौक़ से नहीं, मजबूरी में छोड़ते हैं? आर्थिक असुरक्षा के चलते
उन्हें कम उम्र से ही घर-बाहर की जिम्मेदारियाँ उठानी पड़ती हैं, लड़कियों को घर बिठा लिया
जाता है, एक बार फेल
होने पर दूसरा मौका नहीं मिल पाता, हाई स्कूल घर से बहुत दूर
होते हैं, कुपोषण के चलते
वे कमज़ोरी या किसी गम्भीर बीमारी से ग्रस्त हो जाते हैं आदिI यह नीति बड़ी चालाकी से इन
विषमताओं से उपजने वाली व्यवस्थाजनक नाइंसाफ़ी को ‘मर्जी’ का जामा पहनाने की कोशिश कर
रही हैI
दूसरी तरफ़ आज
स्कूलों में बच्चों का नाम काटने की होड़ लगी पड़ी है; कभी न्यूनतम उपस्थिति की
शर्तों के चलते और कभी कम अंक प्राप्त करने वाले बच्चों को निकालकर स्कूल का
रिजल्ट बढ़ाने के सरकारी दबाव के चलते I यह समझना बहुत मुश्किल नहीं
है कि ग्रामीण और शहरी मज़दूर वर्ग से आने वाले ज़्यादातर बच्चे अपने परिवारों से
स्कूल जाने वाली पहली पीढ़ी के विद्यार्थी हैं। ऐसे में ज़रूरत इस बात की है कि वे
नियमित स्कूल आ सकें और ज़्यादा-से-ज़्यादा भावनात्मक और अकादमिक मदद पा सकेंI इसके बदले यह शिक्षा नीति
उन्हें ‘एक्ज़िट’ होने का रास्ता दिखाती हैI क्या विश्वविद्यालयों में
सेमेस्टर सिस्टम और एक्ज़िट पाइंट्स जैसे बदलावों ने विद्यार्थियों का कोई भला किया
है जो अब इन्हें स्कूलों में भी लागू किया जायेगा?
हाल में दिल्ली के ही सरकारी विद्यालयों की कक्षा 9 में फेल होने वाले
विद्यार्थियों ने विरोध प्रदर्शन के दौरान बताया कि कैसे उनके स्कूल
आधी-आधी पाली में चलते हैं और शिक्षकों की भारी कमी हैI पर जिस व्यवस्था को आठवीं
से ऊपर पढ़ने वाले बच्चों की संख्या बढ़ानी नहीं घटानी हो वो ही इन कमियों को आड़े हाथों
लेने के बदले ओपन स्कूलिंग को मज़बूत करने की बात करेगी, जैसा कि इस दस्तावेज़
में किया भी गया है (3.11)I मतलब साफ़ है कि कक्षा 9 से 12 के बच्चों को शिक्षा का
कागज़ी अधिकार मिलेगा और कुछ नहींI यह शिक्षा नीति आर्थिक चुनौतियों के सामने न केवल
घुटने टेकती है बल्कि हमारी आँखों में धूल झोंकने की कोशिश भी करती हैI
बच्चों को
स्कूलों से बाहर धकेलने की एक और चाल का नाम है ‘स्कूल कॉम्पलेक्स’ (3.1 व अध्याय 7)I छोटे और पड़ोसी स्कूल बंद
करके बड़े, केंद्रीकृत
स्कूल कॉम्पलेक्स बनाने का विचार उसी कड़ी का हिस्सा है जिसके तहत केंद्र सरकार
राज्यों के अधिकार हड़प रही है और हर सामाजिक हित वाले ढाँचे को बर्बाद कर रही हैI नीति का ड्राफ्ट कहता है कि
यह सुनिश्चित करने के लिए कि स्कूलों को बंद करने से बच्चों की पढ़ाई न छूटे, उन्हें साइकिल, यातायात भत्ता आदि दिया
जाएगा। लेकिन यह भारत के पहाड़ी, वनीय, रेगिस्तानी जैसी दुर्गम
भौगौलिक परिस्थितियों व विशेष ज़रूरतों वाले बच्चों के प्रति अज्ञानता और
असंवेदनशीलता दर्शाता हैI पड़ोस का सरकारी
स्कूल हर बच्चे का मौलिक हक़ है जिसके लिए बच्चों की संख्या की शर्त नहीं लगाई जा
सकती|
इससे बड़ी नाकामी और धूर्तता क्या हो सकती है कि जब सरकारी स्कूलों
में विद्यार्थियों की संख्या कम होती जा रही है
तब स्कूलों को बंद
करने की नीति को ही समाधान के रूप में पेश किया जा रहा है! ऐसे तो सरकारें अपनी
नाकामी को ही अपनी कामयाबी साबित कर देंगी। स्कूलों का विलय सीधे-सीधे घटिया स्तर
के निजी स्कूलों के बाज़ार के फलने-फूलने की ज़मीन तैयार कर रहा है। आखि़र ये कॉम्पलेक्स
किसकी सहूलियत के लिए बनाए जाएंगे; बच्चों की या प्रशासन की? जबकि ऐसे
किन्हीं शोधों का उल्लेख नहीं किया गया है जिनमें स्कूलों को बंद करने की नीतियों के परिणामों का अध्ययन हो|
जितना ज़रूरी
कक्षा 12 तक शिक्षा का
अधिकार है उतना ही मौलिक रेगुलर कॉलेज शिक्षा का अधिकार हैI हर राज्य में पर्याप्त
सरकारी कॉलेज अथवा विश्वविद्यालय हों जहाँ दाखिला पाने के लिए विद्यार्थियों को
ऑनलाइन फॉर्म भरने, गला-काट अंक लाने या कोई एंट्रेंस परीक्षाएं देने की
आवश्यकता न होI हर विद्यार्थी
जिसने कक्षा 12 पूरी कर ली हो, बिना किसी फीस के अपनी
इच्छानुसार कोर्स में दाखिला ले सकेI युवाओं को वजीफें तथा उच्च
शिक्षा भत्ता मिलने से उच्च शिक्षा वास्तविकता बनेगीI
खोखली और शिक्षा विरोधी पाठ्यचर्या
इस नीति में सबसे ज़्यादा ज़ोर दो चीज़ों पर है - कक्षा 8 से पहले शिक्षा के गहरे
उद्देश्यों की जगह बच्चों को महज़ भाषा पढ़ना-लिखना और हिसाब-किताब सिखाने की चिंता
(अध्याय 2) और कक्षा 8 के बाद बच्चों को वोकेशनल
कोर्स में भेजने का उतावलापन (4.6.6 व अध्याय 20)I और ऐसा हो ही नहीं सकता कि जिस शिक्षा व्यवस्था का उद्देश्य ज़्यादा-से-ज़्यादा
बच्चों को वोकेशनल शिक्षा में भेजना हो, वो प्राथमिक या माध्यमिक स्तर पर भी बच्चों को गहन चिंतन वाली शिक्षा
देगी इसलिए शिक्षा का खोखलापन निचली कक्षाओं से ही शुरू हो जाएगा| उदाहरण के तौर पर, इस प्रारूप में राष्ट्रीय
स्तर पर कक्षा 3 की कसौटी उसकी पाठ्यचर्या नहीं सिर्फ आधारभूत
पढ़ना-लिखना रखी गई है, यानी कि शिक्षा आगे की तरफ नहीं पीछे की ओर धकेली जा
रही हैI एनजीओ द्वारा
बनाए गए व निरंतर होने वाले टेस्टों के आधार पर ही यह साबित किया जाता है कि
बच्चों के पास आधारभूत कौशल नहीं हैं और ये केवल साक्षरता के लायक हैंI करीब 20 साल पहले अमरीका में
लागू की गई नो चाइल्ड लेफ्ट बिहाइंड (NCLB) की नीति इसी तर्ज पर आधारित थी और दिल्ली में कार्यान्वित मिशन बुनियाद
भी इसी का उदाहरण है| ऐसे अध्ययनों की कमी नहीं है जो इस
नीति के विनाशकारी परिणाम साबित करते हैं| 2012 में जब शिकागो
शिक्षक यूनियन ने ऐसी कॉर्पोरेट मूल की नीतियों के खिलाफ आंदोलन किया तब अभिभावकों
ने भी उनके साथ मिलकर अपने बच्चों पर थोपे जा रहे टेस्टिंग के चलन को खारिज किया|
अगर प्रारंभिक साक्षरता व हिसाब-किताब ही शिक्षा का
मुख्य उद्देश्य है तो फिर एक सुविचारित पाठ्यचर्या व प्रशिक्षित शिक्षकों की ज़रूरत
ही क्या है? ये काम तो
ट्यूशन केंद्रों व कम शिक्षित, अप्रशिक्षित ट्यूटर्स द्वारा ही, वो भी सस्ते में, हो जायेगा। असल में यह नीति
यही प्रस्तावित कर रही है (2.5, 2.6, 2.7) मगर केवल सरकारी स्कूलों
में पढ़ने वाले बच्चों के लिए जोकि देश के शोषित-वंचित तबक़ों से आते हैं।
यह मज़दूर वर्ग पर सबसे बड़ा हमला है कि अब सरकारी
स्कूल उनके बच्चों को सस्ते मज़दूर बनना ही सिखायेंगेI नहीं तो क्या आज तक बच्चे
मकैनिकल/रिटेल/कंप्यूटर/ब्यूटी आदि के कोर्स स्कूल के बाद आईटीआई/पॉलिटेक्निक आदि
में नहीं सीखते आए थे जो अब ये कोर्स कक्षा 9 से सिखाए जाने लगे हैं? स्कूलों का दायित्व तो यह
है कि वो बच्चों को अकादमिक शिक्षा दें I यह बिना कारण नहीं है कि इस नीति में प्राथमिक स्तर पर परिवेश/पर्यावरण
अध्ययन और आगे की कक्षाओं के संदर्भ में विज्ञान और सामाजिक विज्ञान का ज़िक्र न के
बराबर है लेकिन वोकेशनल शिक्षा हर स्कूल और कॉलेज के लिए अनिवार्य कर दी गयी है| यहाँ तक कि यह भी कहा गया है कि 2025 तक 50% कॉलेज युवाओं
को भी वोकेशनल शिक्षा में शामिल किया जाएगा| और ये 50%
विद्यार्थी कौन-से तबके से होंगे? हालांकि वोकेशनल शिक्षा को
सरकारी और निजी सभी तरह के स्कूलों के लिए अनिवार्य करने का प्रस्ताव दिया गया है
लेकिन हमारे पास यह मानने का कोई कारण नहीं है कि बड़े निजी स्कूलों, विदेशी बोर्ड के स्कूलों और सरकारी स्कूलों सभी में एक ही तरह के कोर्स
पढ़ाए जाएंगे| आज सरकारी स्कूलों में वोकेशनल या
एंटरप्रेनेयूरशिप कोर्स के नाम पर मेहंदी लगाना, सैलून में
काम करना, कपड़ा काटना आदि सिखाया जाता है, जबकि यह तय है कि विशिष्ट निजी स्कूलों में इसके नाम पर फ़ैशन डिज़ाइनिंग
और पायलट ट्रेनिंग की तैयारी कराई जाएगी|
क्या यह विद्यार्थियों की रुचि
नहीं होनी चाहिए कि वे क्या विषय पढ़ना चाहते हैं? स्कूलों में
वोकेशनल कोर्सों की वास्तविकता पर नज़र डालें तो समझ आता है कि अक्सर कक्षा 11 में बच्चों को भुलावे में
रखकर, धमकाकर या
शर्मिंदा करके, ज़बरदस्ती ये कोर्स दिए जाते हैं I आखिर क्यों विद्यार्थी वोकेशनल विकल्प लेने से
कतराते हैं? क्योंकि वे इन विषयों की सीमाओं को
जानते हैं| जब वोकेशनल विकल्प के बच्चे रेगुलर कॉलेजों में
दाखिले के लिए आवेदन डालते हैं तो उन्हें धक्का लगता है कि उनके नंबर काट लिए जाते
हैं और वो उच्च अकादमिक शिक्षा के लिए अयोग्य हो जाते हैंI
जिस उम्र में
विज्ञान और सामाजिक विज्ञान युवाओं के दिमाग में खलबली पैदा कर सकते थे, उसी उम्र में इन विषयों को
उनकी दुनिया से गायब किया जा रहा हैI यहाँ तक कि भाषा शिक्षण को पढ़ने और बोलने की धाराप्रवाहिता (fluency) तक सीमित करना, भाषा की फूहड़
समझ पर आधारित है| ऐसी भाषा शिक्षा का उद्देश्य बच्चों को महज़
बाज़ारी जरूरतों (functionality) के लिए तैयार करना है| साथ ही, ये उन्हें अपनी दुनिया समझने और विचार
व्यक्त करने की ताकत से महरूम कर देगा|
दरअसल स्कूल इन बच्चों को वोकेशनल शिक्षा भी नहीं
देंगे, वे दे ही नहीं
सकते क्योंकि स्कूल जिस व्यवस्था का हिस्सा हैं वो स्वयं श्रम का सम्मान नहीं करती I वोकेशनल शिक्षा तो केवल
बच्चों को सोचने और प्रश्न उठाने वाली शिक्षा से दूर करने का मुखौटा है, ताकि वे आगे चलकर ऐसे सवाल
न पूछ पाएँ कि नौकरियों की तंगी क्यों हैं, उनकी मज़दूरियाँ कम क्यों हैं, मुनाफ़ा कहाँ जाता है, बुलेट ट्रेन ज़्यादा ज़रूरी
है या देश-भर की स्वास्थ्य सुविधा। ऐसी शिक्षा
युवाओं की बड़ी आबादी को भविष्य की असुरक्षित और स्थायी संकट से ग्रस्त ज़िंदगी के
लिए मानसिक रूप से ढालने का काम करेगी| शिक्षा को नौकरीशुदा बनाने के जिस तर्क पर ये सारा ख़्वाब बेचा जा रहा है
उसकी पोल इस बात से खुल जाती है कि जब आईटीआई किए हुए युवाओं को 10–12,000 की अस्थाई नौकरी से ज़्यादा कुछ नहीं मिलता है तो फिर 9वीं-10वीं के वोकेशनल
कोर्सों के बाद किशोरों का क्या हश्र होगा| हाँ, इससे बाज़ार में श्रम की कीमत और घटेगी|
ज़रूरत है ऐसी शिक्षा की जो युवाओं को काम-धंधों के
जाति और लिंगभेद पर आधारित इतिहास को समझने, शारीरिक और मानसिक श्रम के
बँटवारे पर प्रश्न उठाने और पूँजीवाद के खिलाफ़ साझे संघर्ष खड़े करने के लिए तैयार
करे I
पाठ्यचर्या की चर्चा में दो
और महत्वपूर्ण बदलाव प्रस्तावित हैं –
इसमें भारतीय परम्पराओं’ का महिमामंडन कुछ इस प्रकार है जैसे ये कोई बनी-बनाई इकाई
हो जिसके अंदर कोई जातीय-लैंगिक-वर्गीय-क्षेत्रीय-धार्मिक विरोधाभास या द्वंद्व
नहीं हैं| ‘भारतीयता’ की ऐसी परिभाषा वर्तमान परिस्थितियों में बहुसंख्यकवाद को मज़बूत करेगी| इसी सोच के तहत लड़कियों के शिक्षा से वंचित होने के पीछे पितृसत्ता एवं
धर्म की भूमिका को नज़रअंदाज़ किया गया है| महिलाओं के
अस्तित्व को परिवार व्यवस्था और मातृत्व के खांचे में रख कर देखा गया है (6.2)|
हालांकि दिल्ली में तो
कक्षा 6 से 8 की पाठ्यचर्या पहले ही कम की जा चुकी है, लेकिन ‘बोझ कम’
करने और ‘अनिवार्य बिंदुओं’ (essential learning) के नाम पर पाठ्यचर्या को कम करने का काम
जब राष्ट्रीय स्तर पर अंजाम दिया जाएगा तो यह अंदाज़ा लगाना मुश्किल नहीं है कि
पाठ्यचर्या के सामंती तथा ब्राह्मणवाद विरोधी तत्व घटाए जाएंगे और राष्ट्र की
अंधभक्ति और वर्चस्वशाली संस्कृति के तत्व बढ़ाए जाएंगे| हल्की
पाठ्यचर्या को स्वीकार्य बनाने के लिए बोर्ड परीक्षाओं को सरल करना प्रस्तावित गया
है और इसका सीधा असर यह पड़ेगा कि अलग-अलग वर्ग (निजी/सरकारी स्कूलों) से आने वाले
बच्चों के लिए अलग-अलग स्तर की परीक्षाएँ होंगी, जैसे गणित A
और B|
शिक्षक वर्ग से छिनती सुरक्षा तथा स्वायत्तता
स्कूलों का विलय, स्कूल कॉम्प्लेक्स और
वोकेशनल कोर्सों को शामिल करने के नतीजतन शिक्षकों के नियमित पदों की संख्या में
भारी कमी आएगी। इससे शिक्षकों की सांगठनिक और लड़ने की ताक़त और कमज़ोर पड़ेगी।
हालांकि शिक्षकों के दस लाख पद खाली हैं लेकिन इस वास्तविकता को पलटने के लिए कोई
ठोस योजना नहीं सुझाई गई हैI यह रोचक है कि
जिस नीति में बीसियों डेडलाइंस उल्लिखित हैं उसमें नियमित भर्तियों के लिए किसी
समय-सीमा का ज़िक्र नहीं है| जिस दौर में ठेकाकरण बढ़ रहा
है, सरकारी स्कूलों
का विलय किया जा रहा है, निजी मैनेजमेंट के हाथों में सौंपा जा रहा है, उस दौर में स्थाई
नियुक्तियाँ जुमला जान पड़ती हैंI पक्की भर्तियों की लड़ाई ज़मीन पर लोगों को ख़ुद लड़नी
होगी, ये ऊपर से किसी
नीति की भेंट नहीं आयेंगी I
इस नीति में सुझाए गए कई उपायों का आधार 'लर्निंग क्राइसिस' का हौवा है| विश्व बैंक, ’प्रथम’ जैसी संस्थाओं ने बच्चों के ’नहीं सीखने’ के संकट को बहुत गंभीर समस्या बनाकर पेश किया है| अव्वल तो स्कूली पाठ्यचर्या में सीखने जैसी प्रक्रिया को
बच्चों की आर्थिक-सामाजिक असुरक्षा एवं आपातकाल की स्थितियों से काटकर नहीं देखा
जा सकता|
यह विडम्बना ही है कि एक
तरफ तो बच्चों के नहीं सीख पाने के संकट की चिंता जताई जा रही है और दूसरी तरफ अप्रशिक्षित लोगों को
स्कूलों में पढ़ाने का काम दिया जायेगा (2.5, 2.6, 2.7,
2.8)| भले ही स्कूलों में शिक्षा अधिकार कानून एवं समग्र
शिक्षा अभियान के तहत पीछे छूट गए बच्चों को कक्षा के स्तर तक लाने के लिए
प्रशिक्षित व्यक्तियों को औपचारिक रूप से रखने का प्रावधान लागू है लेकिन इस नीति
में इसको मज़बूत करने की बात तो दूर इसका ज़िक्र भी नहीं है| बल्कि यह एनजीओ व कॉर्पोरेट संस्थाओं के अप्रशिक्षित लोगों को नैशनल ट्यूटर्स प्रोग्राम, वालंटियर्स, रेमेडियल इंस्ट्रक्शनल एड्स
प्रोग्राम आदि के नाम पर स्कूलों में
घुसाएगा| यहाँ तक कि सेना जैसे रेजीमेंटेड
पृष्ठभूमि के अधिकारियों का उल्लेख भी योग्य वालंटियर्स के रूप में किया गया है| ऐसे तदर्थ
व कामचलाऊ उपायों से ‘गंभीर’ चिंताएँ
हल नहीं होतीं| इससे भविष्य में न शिक्षण को अकादमिक काम
समझा जाएगा और न शिक्षकों को पेशागत बुद्धिजीवी| बल्कि ये
शिक्षण को झोलाछाप पेशे में बदलने की कवायद है|
इसी चिंता के नाम पर शिक्षकों के ऊपर ’नहीं पढ़ाने/नहीं पढ़ा सकने’ के लाँछन ने ज़ोर पकड़ा जिसका इलाज भी कॉर्पोरेटवादियों के पास तैयार था - टेक्नोलॉजी की मदद से
निगरानी रखना, बने-बनाए लेसन प्लान देना, छोटी कक्षाओं से ही केंद्रीकृत परीक्षा-पत्र दिए जाना आदि| इस नीति में तो ऊपर से टाइम-टेबल निर्धारित
करके यह तक तय करने की बात की गई है कि शिक्षक किस दिन, किस घंटे, क्या और कैसे पढ़ायें। ऐसी
मशीनी, केंद्रीकृत व
पूर्व-निर्धारित व्यवस्था में शिक्षक विवेकशील, प्रबुद्ध कर्ता नहीं, सिर्फ़ डिजिटल क्लर्क बनकर
रह जायेंगे।
इस प्रारूप में
शिक्षकों के लिए और भी कई चिंताजनक सुझाव हैं। नेशनल टेस्टिंग एजेंसी जैसी
केंद्रीकृत संस्थाओं के पास सभी परीक्षाओं का अख्तियार होगा और MCQ
आधारित
कंप्यूटर टेस्टों को अनिवार्य करके बौद्धिक स्वायत्तता कमज़ोर की जाएगी (4.9)I मेरिट आधारित मूल्याँकन से
शिक्षकों की तरक़्क़ी व वेतन आदि तय करने की बात की गई है (अध्याय 5)I इसका मतलब है कि शिक्षकों
को मिलने वाली प्रोन्नति और वेतन वृद्धि के लिए वरिष्ठता तथा सामाजिक न्याय के
उसूलों को दरकिनार करके तथाकथित मेरिट मात्र के मापदंडों को प्रस्तावित किया गया
है। शिक्षकों की ACR के नए स्वरूप में शिक्षा के इस बाज़ारवादी प्रबंधन की
झलक देखी जा सकती है। क्या सरकार द्वारा ख़ुद
ही ऊँच-नीच में बाँटे गए स्कूलों व अलग-अलग परिस्थितियों की कक्षाओं में पढ़ा रहे
शिक्षकों के काम को उनके विद्यार्थियों के परिणामों के आधार पर एक ही तराज़ू में
तौलना कहीं से भी न्यायोचित है? एक संभ्रांत इलाके के स्कूल और एक विषम इलाक़े के
स्कूल में काम करने वाले शिक्षकों की पेशागत तरक़्क़ी आदि के लिए इस तरह से
फ़ैक्ट्री मॉडल के उत्पादन का मूल्याँकन करना शिक्षा की फूहड़ समझ दर्शाता है और
शिक्षकों के साथ अन्यायपूर्ण भी है।
हम जानते हैं
कि निजी कंपनियों में इस तरह के मूल्याँकन का मतलब होता है कि सवाल खड़े करने, अपनी सोच रखने और आकाओं की
जी-हुजूरी न करके ईमानदारी से काम करने वालों पर सत्ता के कोप की तलवार लटकती रहती
है। क्या हम अपने स्कूलों और कॉलेजों में भी यही माहौल चाहते हैं? निजी स्कूलों में पढ़ाने
वालों के साथ होने वाले शोषण और उनकी नाज़ुक व लाचारी की परिस्थितियों की तो बात ही
नहीं की गई है। इससे भी नीति निर्माताओं की पूँजी-परस्त प्रतिबद्धता ज़ाहिर होती
है।
स्कूलों में
पहले से ही कॉर्पोरेट एनजीओ द्वारा बनाए जा रहे प्रोग्राम और मॉड्यूल पढ़ाने और
उनके अप्रशिक्षित वालंटियर्स को स्कूलों में पढ़ाने का काम देने पर इतना ज़ोर है कि
शिक्षकों की स्वायत्तता कमज़ोर होती जा रही है। ई-गवर्नेंस, आईटी व डिजिटलीकरण को थोपकर
शिक्षकों के शिक्षण को ऊपर से निर्धारित किया जा रहा है और अन्य कामों को बढाया जा
रहा है। आज स्कूलों को
बेशर्मी से दलगत, ग़ैर-आकादमिक व शिक्षा-विरोधी उद्देश्यों/कार्यक्रमों
का केंद्र बनाया जा रहा है और इसमें शिक्षकों के श्रम, उनकी पेशागत भूमिका को
इस्तेमाल किया जा रहा है। नीति में इसके प्रति कोई चिंता दिखाई नहीं देती है, जिसका मतलब है कि इन
विकृतियों में तेज़ी ही आएगी।
हमारे स्कूलों
की एक सच्चाई यह भी है कि एक ओर ई-गवर्नेंस, डिजिटलीकरण के पेशवाई
फ़रमानों के तहत शिक्षकों का ग़ैर-शैक्षणिक काम बढ़ाया जा रहा है, दूसरी ओर लाखों स्कूलों में
आईटी कर्मचारी का कोई पद ही नहीं है। सूचना प्रौद्योगिकी के ज़रिये शिक्षकों से
तमाम तरह के आँकड़े इकट्ठे करवाकर भी, जोकि प्रशासनिक दबाव के
कारण अक़्सर ग़लत भी होते हैं, आज सरकार या तो इन आँकड़ों को सार्वजनिक ही नहीं कर
रही है या फिर उनकी बाज़ीगरी करके अपने पक्ष में और हक़ीक़त से परे तस्वीर पेश करती
है। इस रवैये का परिणाम यह है कि तमाम ज़मीनी हक़ीक़त के बावजूद सरकार यह मानने के लिए
तैयार ही नहीं है कि उसकी इन नीतियों से बच्चों और उनके परिवारों को पढ़ाई, समय, मेहनत और पैसे का बेइंतहा
नुक़सान उठाना पड़ रहा है। मगर नीति इस वास्तविकता से अनजान ही नज़र नहीं आती है, बल्कि उस तकनीकी को ही
रामबाण की तरह पेश करती है जिसके तले बच्चों के हक़ कुचले जा रहे हैं (अध्याय 19)। जिस नीति में लोगों की
परेशानियाँ ही दर्ज न हों, उससे उन परेशानियों के इलाज की उम्मीद करना बेकार है।
हाँ, ऐसी अज्ञानता व
असंवेदनशीलता से बनाई गई नीतियों से हमारे मर्ज़ ज़रूर बढ़ते जायेंगे।
स्कूल से लेकर
विश्वविद्यालय तक सभी शिक्षकों का प्रोबेशन काल 3 साल का होगा और उनके ठेके
को बढ़ाने/नहीं बढ़ाने के फैसले केवल ‘मेरिट’ के आधार पर किए जाएँगे (5.4)। इस तरह यह नीति अमरीका
जैसे पूँजीवादी देशों की तर्ज पर शिक्षकों को विभिन्न प्रकार के ठेकों पर रखने का
रास्ता साफ़ कर रही है। एक ही संस्थान में, एक ही क़ाबिलियत, एक ही अनुभव के शिक्षकों की
अलग-अलग कार्यपरिस्थितियां व वेतन होंगे। स्कूली शिक्षक बनने के लिए बारहवीं के
बाद चार साल का कोर्स करना होगा (अध्याय 15)। शिक्षा के बढ़ते निजीकरण व
सरकारी संस्थानों में भी बेतहाशा महँगी होती उच्च-शिक्षा के दौर में देश का एक बड़ा
वर्ग अब शिक्षण कोर्स करने के लिए और भी असमर्थ कर दिया जाएगा। इससे हमारे स्कूलों
में शिक्षकों व विद्यार्थियों के बीच वर्गीय दूरी और बढ़ेगी।
दमघोटू केन्द्रीकरण
प्रारूप का भाग
4 राष्ट्रीय
शिक्षा आयोग नाम के एक नए ढाँचे की प्रस्तावना को समर्पित है जोकि शिक्षा के सभी पहलुओं
को निर्धारित करेगा। यह केन्द्रीकरण न केवल देश के संघीय चरित्र और विविधता के
विरुद्ध है बल्कि इससे निरंकुश सत्ता के हाथ और मजबूत होंगे। एक तरफ शिक्षा के लिए
बजट घटाया जा रहा है, दूसरी तरफ शिक्षा संस्थानों पर तानाशाही अंकुश बढ़ाया
जा रहा है। जबकि CABE (केंद्रीय शिक्षा सलाहकार
बोर्ड) में सभी
राज्यों के शिक्षा मंत्री होते हैं, यह राज्यों को सलाह देती है
और इसकी रपटें संसद में पेश की जाती हैं,
RSA (राष्ट्रीय
शिक्षा आयोग) द्वारा आदेशों को सख्ती से लागू तक करवाया जाएगा, इसमें कुछ ही राज्यों के
शिक्षा मंत्री बारी-बारी से शामिल होंगे और संसद के प्रति इसकी कोई जवाबदेही नहीं
होगी। बिना किसी संवैधानिक दर्जे के, यह असंवैधानिक और मनमानी
ताकतों से लैस होकर काम करेगा। यही नहीं, न्यायपालिका की स्वतन्त्रता के सिद्धांत को धता बताते हुये
यह प्रस्तावित किया गया है कि आयोग की कार्यकारिणी इसकी कार्रवाई के लिए
न्यायपालिका से भी सहयोग प्राप्त करेगी (23.7)! चूँकि इसके लिए अफसरों एवं
टेक्नोक्रेट्स की कई परतों का एक ’मज़बूत सचिवालय’ बनाया जाएगा, इसके मायने हैं कि स्कूलों
को तरह-तरह की रपटें जमा करने, निर्देशित कार्यक्रम आयोजित करने व निजी संस्थानों से
सहयोग करने की सरकारी धमकियों में और तेज़ी आएगी।
स्कूली शिक्षा
राज्यों और नगर निगमों के कार्यक्षेत्र का मामला है और केंद्र सरकार को कोई हक़
नहीं है कि वो राज्यों को स्कूल बंद करने की नीति लागू करने पर मजबूर करे। स्कूलों
में भी हम देखते हैं कि कैसे प्रशासन के केंद्रीकृत होते जाने से बच्चों के
दस्तावेज़ों में जायज़ सुधारों के लिए भी हमारे हाथ बंध गए हैं और बच्चे तथा
माता-पिता किस तरह धक्के खा रहे हैं। वहीं हम यह भी जानते हैं कि प्रशासनिक केंद्र
जितनी दूर और ऊँचा होता है, उतना ही हम पर दिखावे, लीपापोती और जी-हुज़ूरी का
दबाव बनाया जाता है।
राष्ट्रीय शिक्षा आयोग द्वारा समस्त शिक्षा व्यवस्था
के हर महत्वपूर्ण निर्णय का संकेन्द्रीकरण किया जाएगा। उदाहरण के लिए, यह आयोग तय करेगा कि कौन-सी उथल-पुथल मचाने वाली तकनीकी (disruptive
technology) को स्कूलों में नैतिकता व समसामयिक घटनाओं की चर्चा में
शामिल किया जाए (19.7)! इसमें ज़िला अधिकारी (डीएम) की अध्यक्षता में ज़िला शिक्षा
परिषद नाम की इकाइयों का प्रस्ताव भी शामिल है| यह स्कूलों
को गैर-अकादमिक और केंद्रीकृत अफ़सरशाही के और भी अधीन ले आएंगी|
निष्कर्ष
ऐसा क्यों है
कि वैश्विक पूँजी केन्द्रीकरण को पसन्द करती है और ’कार्यकुशलता’ के बहाने इसकी वकालत करती
है? सत्ता के
केन्द्रीकरण से पूँजीवादी ताकतों के लिए किसी भी देश के अंदर मौजूद विविधता और
लोकतांत्रिक दबावों को दरकिनार करना आसान हो जाता है, जिसे आजकल व्यापार की
सुगमता (ease of doing business) के नाम से प्रचारित किया जाता है। दलालों के लिए एक
केंद्रीय सत्ता से तोलमोल करके, अपनी पहुँच, नियंत्रण और मुनाफा बढ़ाना
ज़्यादा आसान होता है। इसलिए जबकि विरोध प्रर्दाशन में मजदूरों की मांग होती है कि
कोई भी बातचीत सबके सामने हो, ‘मालिक’ चाहते हैं कि वो बन्द कमरों
में, कुछ-एक
नुमाइन्दों से बात करें।
ऐसा नहीं है कि
ऐसी नीतियों का ज़ोर केवल दिल्ली या भारत में ही हैI अंतर्राष्ट्रीय और बड़ी-बड़ी
कंपनियों के हितों को साधने के लिए दुनियाभर में शिक्षा के चरित्र और सार्वजनिक
शिक्षा व्यवस्था पर शिकंजा कसा जा रहा हैI विश्व व्यापार संगठन (WTO) में GATS समझौते पर सहमति जताकर भारत
सरकार वैश्विक पूँजीवादी शक्तियों से यह वादा कर चुकी है कि
क) शिक्षा को समाज कल्याण या जन-अधिकार का मामला
मानने के बदले विदेशी पूँजी के निवेश और मुनाफ़े के लिए खोल दिया जायेगा, और
ख) सरकार ऐसे कोई क़ानून या नियम लागू नहीं करेगी जिनसे
निजी व सरकारी शिक्षा संस्थानों के बीच कोई भेदभाव हो, क्योंकि ऐसा करना मुक्त
बाज़ार में ’बराबर की
प्रतिस्पर्धा’ के सिद्धांत के
विरुद्ध होगा। राष्ट्रीय शिक्षा नीति का यह प्रारूप यही ऐलान करता है (18. 6), जिसका मतलब है कि सरकारी
शिक्षा संस्थानों व इनके विद्यार्थियों के लिए सब्सिडी, वज़ीफ़े, अनुदान आदि ख़त्म कर दिए
जायेंगे। मगर हाँ, विश्वविद्यालयों में कौन से विषयों पर शोध किये
जायेंगे यह सरकार व उद्योग जगत तय करेंगे (अध्याय 14)! ज्ञान के निर्माण के लिए तो
स्वतंत्र व निरपेक्ष माहौल चाहिए, दबाव तथा प्रलोभन की चारदीवारी की क़ैद में किसके
हितों को साधता, कैसा ज्ञान पैदा किया जायेगा, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल
नहीं है। जिस आर्थिक नीति के तहत यह शिक्षा नीति लाई जा रही है
उसमें शिक्षा को हल्का व विकृत करना तथा सरकारी स्कूल-कॉलेजों को बंद करना तय है। इसी
कड़ी में स्कूलों के विलयन के समान उच्च-शिक्षा में भी संस्थानों की संख्या को घटाकर
13,000 तक लाने का स्पष्ट प्रस्ताव दिया गया है।
प्रारूप में कहीं भी 'आधार', वज़ीफ़ों के लिए बैंक खातों की अनिवार्यता
थोपने व विद्यार्थियों को सामग्री न देकर राशि देने जैसी राज्य की नीतियों के घातक परिणामों
को दर्ज तक नहीं किया गया है। जबकि इन नीतियों ने
मेहनतकश वर्गों के करोड़ों विद्यार्थियों के प्रवेश व शिक्षा जारी रखने
के अधिकार में गंभीर रोड़े अटकाए हैं और उनके परिवारों को परेशान करके उनसे भारी
क़ीमत वसूली है। इसी तरह, यह अविश्वसनीय है कि शिक्षा की राष्ट्रीय नीति के दस्तावेज़
में राष्ट्रीय व राज्यों के बाल अधिकार संरक्षण आयोगों
को मज़बूत करने की बात तो छोड़िये, उनका कोई ज़िक्र तक नहीं है, जबकि ये संस्थाएँ बच्चों के शिक्षा के अधिकार की पालक
की भूमिका निभाने के लिए बनाई गई थीं।
प्रारूप की भूमिका में
शिक्षा की प्रेरक दृष्टि के संदर्भ में संविधान का कोई ज़िक्र तक नहीं किया गया है| इसी तरह ‘भारतीय विरासत’ एवं ‘प्राचीन भारतीय शिक्षा व्यवस्था’ की चर्चा से जाति-विरोधी आंदोलनों को सिरे से गायब कर दिया गया है और ‘नैतिकता एवं राजनीतिक व्यवस्था’ वाले हिस्से में
शोषण व न्याय के सवालों को दरकिनार किया गया है| सांस्कृतिक
मान्यताओं को नैतिकता के पर्याय के रूप में पेश करते हुये सार्वभौमिक मूल्यों को
भारतीय मूल्य के रूप में देखा गया है। ज्ञान का ऐसा ‘भारतीयकरण’ न सिर्फ संकीर्ण है बल्कि भ्रामक भी है|
दस्तावेज़ का विरोधाभासों से भरा होना भी इसके
निर्माताओं की वैचारिक तैयारी की कमी दिखाता है। जैसे, एक तरफ़ पाठ्यचर्या के बोझ
का रोना रोया गया है, मगर दूसरी तरफ़ प्रारंभिक वर्षों से ही तीन भाषाओँ के
संपर्क, कक्षा 6-8 में एक-वर्षीय कोर्सों की
भरमार (जिससे भाषाएँ 4 तक पहुँच सकती हैं) और कक्षा 9-12 में 40 से अधिक कोर्स पेपर
प्रस्तावित किये गए हैं (अध्याय 4)। बच्चों के सीखने के स्थापित व मान्य सिद्धांतों को अनदेखा करते हुए ये
प्रस्ताव एक सतही व अंततः घटिया स्तर की स्कूली शिक्षा की ओर ले जायेंगे। ऐसे में कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए
कि जगह-जगह पर भारतीय भाषाओँ व ज्ञान परंपराओं की 'समृद्धि' व 'वैज्ञानिकता' का बखान करती यह नीति उनमें
शामिल स्त्री-विरोधी
व जातिगत भेदभाव
के तत्वों पर ऐसे ही चुप्पी साध जाती है जैसे 'डिजिटल युग' का गुणगान करते हुए इसके
निजता, बराबरी, बहिष्करण, निगरानी, नियंत्रण व प्रति-बौद्धिकता आदि से जुड़े ख़तरों को अहमियत नहीं देती है। इसी तरह खेलों और कला संबंधित जुमलों पर विश्वास करना इसलिए मुश्किल है
क्योंकि इस दस्तावेज़ में विद्यालयों के लिये अनिवार्य ‘इनपुट’ (मैदान,
लैब, संगीत कक्ष आदि) की ज़रूरत को ही ख़ारिज किया गया है|
असल में इस नीति के माध्यम से सरकार द्वारा पहले-से
ही लागू तमाम अवैध और शिक्षा-विरोधी
फ़ैसलों को वैधानिकता
प्रदान की जाएगी। इनमें कम उम्र से ही विद्यार्थियों को टेस्टों के अंबार से
ग़ुज़ारना, उन्हें चिन्हित
करके विभाजित करके पढ़ाना, स्कूलों का एनजीओकरण करना, पाठ्यचर्या व मापदंडों को
कमज़ोर करना तथा शिक्षण को ग़ैर-पेशागत व ग़ैर-आकादमिक बनाना शामिल है। शिक्षा की एक केंद्रीकृत, अति-नियंत्रित, ग़ैर-बौद्धिक व सपाट व्यवस्था निरंकुश राज्य, वर्चस्वशाली संस्कृति तथा
वैश्विक पूँजी के हितों को सुहाती है। इस नीति में शिक्षा की यही
संकल्पना प्रस्तावित की गई है।
संसद में सर्व-सम्मति से
पारित शिक्षा अधिकार क़ानून राज्य द्वारा स्कूल खोलने के लिए किसी आबादी या रिहाइश
में बच्चों की न्यूनतम संख्या की शर्त नहीं रखता है। वैसे भी, किसी मौलिक अधिकार को इस तरह सीमित नहीं किया जा सकता है।
यह सुनिश्चित है कि स्कूल विलयन व कॉम्प्लेक्स की नीतियाँ इस पहले-से ही कमज़ोर
क़ानून की रही-सही धज्जियाँ भी उड़ा देंगी। इसकी तुलना हम श्रमिक सुरक्षा क़ानूनों
में लाये जा रहे उन संशोधनों से कर सकते हैं जिनमें क़ानूनी संरक्षण प्राप्त करने
के लिए किसी इकाई में मज़दूरों की एक न्यूनतम संख्या की शर्तों को और कड़ा किया जा
रहा है।
राष्ट्रीय एकता के नाम पर ’एक देश, एक चुनाव, एक टैक्स....’ जैसे केंद्रीकृत निज़ाम लागू
करने वाले ’समान स्कूल
व्यवस्था’ का न केवल
ज़िक्र तक नहीं करते हैं, बल्कि निजी स्कूलों की ’अच्छाई’ के गुण गाते हुए इस विचार
को पूरी तरह दफ़्न करने की कोशिश करते हैं। आखि़र वो कौन सी सत्ता है जिसे विविधता
से तो डर लगता है मगर असमानता बहुत भाती है?
इस दस्तावेज़ में ’21वीं शताब्दी के कौशल’, ‘राष्ट्रीय विकास’ और ‘उच्च-गुणवत्ता’ जैसी शब्दावली का बहुतायत में लेकिन बिना परिभाषित इस्तेमाल भी
नव-उदारवाद के उस पैंतरे का उदाहरण है जिसमें जुमलों की आड़ में मेहनतकश लोगों से
ख़ुद उनकी कड़वी हक़ीक़त छुपाने की कोशिश की जाती है।
इस नीति में प्रत्येक
विद्यार्थी की उसके समस्त छात्र जीवन के दौरान ट्रैकिंग का प्रस्ताव है जिसके लिए
आधार जैसी तकनीकी का प्रयोग किया जाएगा| यह राज्य की नागरिकों पर बढ़ती सूक्ष्म निगरानी का वीभत्स उदाहरण है|
हम एक बेहद असमान और
अन्यायपूर्ण व्यवस्था में जी रहे हैं I ऐसे में हम शिक्षा से यह
उम्मीद करते हैं कि वो इस व्यवस्था को बदलने और समानता, इंसाफ़, भाईचारे जैसे मूल्यों को
हासिल करने का ज़रिया बनेगी I इसके लिए पूरी तरह से सरकारी खर्चे पर चलने वाली
मुफ़्त और समान स्कूल व्यवस्था एक कारगर उपाय हैI इसके बदले सरकारी स्कूलों
के बीच में तरह-तरह की ऊँच-नीच खड़ी की जा रही है (जैसे प्रतिभा, केन्द्रीय विद्यालय, मॉडल, स्कूल ऑफ़ एक्सीलेंस आदि)I यह दस्तावेज़ इस बारे में
केवल मौन ही धारण नहीं करता है, बल्कि निजी क्षेत्र की तारीफ़ और निजी स्कूलों पर लगी
छिटपुट व दिखावे की कानूनी पाबंदियों पर भी अफ़सोस जताकर उन्हें पूरी छूट देने की
वकालत करता हैI इस कड़ी में यह
प्राइवेट स्कूलों को कानूनी बंदिशों के अधीन लाकर नियंत्रित करने के
बदले उनकी स्व-घोषणाओं
को ही पर्याप्त अंकुश मानता है| हम देखते हैं
कि उच्च शिक्षा संस्थानों में NAAC जैसी
संस्था केंद्रीकृत, सतही पैमानों पर कॉलेजों को रैंक करती
हैं, उसी तरह स्कूलों की रैंकिंग भी बढ़ेगी| प्रत्यायन (accreditation) के ज़रिए निजी स्कूलों की
अपनी मनमानी करने की छूट मिल जाएगी वहीं सरकारी स्कूलों को रैंकिंग की दौड़ में,
लेकिन संसाधनों व स्वायत्तता के बिना, खुद को
साबित करना होगा (अध्याय 8)I क्या हमें अपने आस-पास वो
प्राइवेट स्कूल दिखते हैं जिनकी परोपकारिता के क़सीदे यह नीति बार-बार पढ़ती है? एक तरफ़ ‘सीखने की विभिन्न राहों’ (3.11) के बहाने ओपन स्कूलिंग को मज़बूत करने और यहाँ तक कि कक्षा 3, 5 व 8 के लिए मुक्त व दूरस्थ शिक्षा के कोर्स रचने के प्रस्ताव दिये गए
हैं, वहीं ‘स्कूलों के विभिन्न
प्रकारों’ (3.12) को फलने-फूलने की इजाज़त देने के बहाने निजी
स्कूलों को शिक्षा अधिकार कानून की इनपुट संबंधी शर्तों से मुक्त करने की ज़रूरत
बताई गई है। ज़ाहिर है कि इन प्रस्तावों का मक़सद देश की मेहनतकश आवाम के बच्चों को
नियमित स्कूली शिक्षा से बाहर करना और शिक्षा के निजीकरण का रास्ता साफ़ करना है।
शिक्षा के अपने अंदरूनी सरोकार भी होते हैं जो काल, स्थान से परे जाकर भी उद्देश्यों व मूल्यों को बुनते हैं। शिक्षा का एक आंतरिक तर्क, नैतिकता और गरिमा भी है, जबकि आज इसे निजी हितों को साधने के लिए बाह्य व जन-विरोधी तत्वों की चाकरी के लिए ढाला जा रहा है। हम शिक्षा और इसको लेकर बनने वाली राष्ट्रीय नीतियों से उम्मीद करते हैं कि वह विद्यार्थियों को सामाजिक तथा आर्थिक असमानता व अन्याय को चुनौती देने और पलटने के लिए तैयार करेगी। इसके विपरीत आज की नीतियों में सगर्व घोषित किया जा रहा है कि शिक्षा विद्यार्थियों को उद्योग जगत व वैश्विक बाज़ार के सस्ते श्रमिक व उपभोक्ता बनने के लिए (असल में पूंजीपतियों के मुनाफ़े बढ़ाने के लिए) तैयार करेगी। एक ऐसी शिक्षा जो खुद सत्ता को सलाम ठोकना सिखाती है, आखिर किस तरह की नैतिकता व आदर्शों की उम्मीद दिला सकती है?
शिक्षा के अपने अंदरूनी सरोकार भी होते हैं जो काल, स्थान से परे जाकर भी उद्देश्यों व मूल्यों को बुनते हैं। शिक्षा का एक आंतरिक तर्क, नैतिकता और गरिमा भी है, जबकि आज इसे निजी हितों को साधने के लिए बाह्य व जन-विरोधी तत्वों की चाकरी के लिए ढाला जा रहा है। हम शिक्षा और इसको लेकर बनने वाली राष्ट्रीय नीतियों से उम्मीद करते हैं कि वह विद्यार्थियों को सामाजिक तथा आर्थिक असमानता व अन्याय को चुनौती देने और पलटने के लिए तैयार करेगी। इसके विपरीत आज की नीतियों में सगर्व घोषित किया जा रहा है कि शिक्षा विद्यार्थियों को उद्योग जगत व वैश्विक बाज़ार के सस्ते श्रमिक व उपभोक्ता बनने के लिए (असल में पूंजीपतियों के मुनाफ़े बढ़ाने के लिए) तैयार करेगी। एक ऐसी शिक्षा जो खुद सत्ता को सलाम ठोकना सिखाती है, आखिर किस तरह की नैतिकता व आदर्शों की उम्मीद दिला सकती है?
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