29 अगस्त को, मेजर ध्यानचंद के जन्मदिन पर मनाये जाने वाले राष्ट्रीय खेल दिवस के अवसर पर सभी स्कूलों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा फ़िट 'इंडिया'' नाम के कार्यक्रम के उद्घाटन का सीधा प्रसारण विद्यार्थियों व शिक्षकों को दिखाने की व्यवस्था करनी पड़ी। इस बारे में, कम-से-कम दिल्ली में, प्रशासनिक आदेश 27 अगस्त को जारी किया गया था। लोक शिक्षक मंच ऐसे कार्यक्रमों को स्कूलों पर थोपने की निंदा करता है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि निज़ाम ने स्कूलों की दैनिक गतिविधियों को ताक पर रखकर इस तरह के अनिवार्य प्रसारण को स्कूलों पर थोपा है। एक तरफ़, ऐसे आयोजनों को करने में स्कूलों के संसाधन झोंक दिए जा रहे हैं, समय बर्बाद किया जा रहा है व शिक्षकों-विद्यार्थियों की ऊर्जा का बेजा इस्तेमाल हो रहा है, दूसरी तरफ़, प्रचारी जुनून में कई व्यावहारिक समस्याओं व बच्चों के कष्ट को अनदेखा किया जा रहा है।
रही बात देशभर के बच्चों व सभी लोगों के फ़िट' रहने की, तो कोई भी इस उद्देश्य से असहमत नहीं हो सकता है। इस दिशा में बेहतर यह होता कि सरकार स्कूलों में खेल के मैदान व अवसर उपलब्ध कराने की ठोस प्रतिबद्धता दिखाती। उल्टे, राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रारूप में प्रस्तावित किया जा रहा है कि स्कूलों पर मैदान जैसे इनपुट्स की क़ानूनी बाध्यता नहीं होनी चाहिए। साथ ही, विकास की पूँजीपरस्त व फूहड़ अवधारणा के चलते स्कूलों के बचे-खुचे खुले स्थलों व मैदानों को तेज़ी से घेरा जा रहा है, कंक्रीट से पाटा जा रहा है, टाइलयुक्त किया जा रहा है। रिहाइशी बस्तियों में भी उन्मुक्त खेल के स्थल व पार्क सिकुड़ते जा रहे हैं, विकास की बलि चढ़ाये जा रहे हैं। सेहत का एक अनिवार्य रिश्ता साफ़ हवा-पानी और पौष्टिक भोजन से भी है। यह मानना मुश्किल है कि हमारी राजनैतिक व आर्थिक व्यवस्था देश के आवाम की सेहत की इन बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए खड़ी की गई है। फिर वयस्कों के नियमित, सम्मानजनक रोज़गार के बिना कौन-से परिवार के बच्चे सेहतमंद रह सकते हैं? जिस नीति में वोकेशनल शिक्षा के नाम पर कोमल उम्र से ही मेहनतकश वर्ग के बच्चों को उनके बचपन से दूर, एक निष्ठुर बाज़ार के हवाले करने की ज़िद हो, वो बच्चों को सेहतमंद बनाने का नहीं, बल्कि उनकी सेहत छीनने का ही काम करेगी। यह कैसी विडंबना है कि कुछ समय पहले ही सरकार ने लेबर कानून में बदलाव करके ख़तरनाक उद्योगों की संख्या को कम किया और उसमें 14 वर्ष के बच्चों को काम करने के लिए खोल दिया है।
असल में तो इस कार्यक्रम ने खेल व खेल दिवस पर एक परछाई डालने का ही काम किया है। जब बच्चों को खेलकूद या पढ़ाई या अपनी मर्ज़ी की गतिविधि में मशग़ूल होना चाहिए था, तब उन्हें जबरन एक कमरे में बंद करके टीवी पर प्रसारित कार्यक्रम और प्रधानमंत्री को देखने-सुनने के लिए मजबूर किया गया। खेल के लिए प्रोत्साहित करने का यह कैसा विडंबनापूर्ण तरीक़ा है! आज खेलों को भी एक व्यावसायिक तमाशे, प्रतियोगितावादी झूठे राष्ट्रीय अभिमान व कुलीनों के महँगे शौक़ के रूप में परोसा जा रहा है। आज से कुछ साल पूर्व तक जिन मैदानों व स्टेडियम में आप बच्चों को बेरोकटोक ले जा सकते थे, आज उन्हें सुरक्षा, सदस्यता नियमों व विशिष्ट दर्जों की बंदिशों में बाँधकर हमारी पहुँच से बाहर कर दिया गया है। वो कौन लोग हैं जो खेलने की सोच ही नहीं पाते, जिन्हें खेलने क्या आराम तक की फ़ुर्सत नहीं मिलती, लड़कियों के खेलकूद में कौन-सी बाधायें हैं; खेल जैसी नैसर्गिक चीज़ में इतनी असमानता क्यों है; कुछ खेल अश्लीलता की हद तक महँगे और अपव्ययी क्यों हैं और इन्हें सरकारों का प्रश्रय क्यों मिलता है, ऐसे तमाम सवालों से कन्नी काटकर खेलों से सेहत के रिश्ते की बात करना बेईमानी है। यह स्पष्ट है कि फ़िट इंडिया का जुमला खेल की संस्कृति के पक्ष में इन चलनों व चुनौतियों पर कोई वार नहीं करता है। बल्कि इस अभियान का संदेश यह है कि सेहतमंद रहना या न रहना पूरी तरह व्यक्ति की अपनी इच्छा व कोशिश तथा निजी दारोमदार का मामला है, इसमें सरकार की भूमिका नहीं है और वह अपनी ज़िम्मेदारी से बरी है। दूसरी ओर, यह राजनैतिक सत्ता के उस अनैतिक दुरुपयोग का ताज़ा उदाहरण है जिसके तहत स्कूलों को क्षुद्र राजनैतिक स्वार्थों के लिए और उनमें पढ़ रहे बच्चों को निर्लज्जता से 'बंधक श्रोताओं'' की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। इस अमर्यादित क़वायद में देश के संघीय ढाँचे की धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं। चिंता की बात यह भी है कि न सिर्फ़ राज्य सरकारें व उनके शिक्षा विभाग इस असंवैधानिक अतिक्रमण को नहीं रोक रहे हैं, बल्कि दिल्ली जैसे राज्यों में तो मुख्यमंत्री, शिक्षामंत्री ख़ुद अपनी सत्ता का दुरुपयोग करके स्कूलों को घटिया प्रचार के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं।
लोक शिक्षक मंच सभी शिक्षक साथियों, विशेषकर शिक्षक यूनियनों से, अपील करता है कि स्कूलों व शिक्षा के लोकतांत्रिक व बौद्धिक चरित्र पर हमलों के रूप में इस्तेमाल किये जा रहे इन केंद्रीकृत आयोजनों का पुरज़ोर विरोध करें। साथ ही, मंच शिक्षा विभागों व सरकारों से यह माँग करता है कि ऐसे सभी केंद्रीकृत व शिक्षा-विरोधी कार्यक्रमों को अनिवार्य बनाकर स्कूलों पर थोपना बंद किया जाये।
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