Tuesday, 1 October 2019

साथी कौशलेन्द्र प्रपन्ना की सांस्थानिक हत्या: शिक्षकों के साथ खड़े होने की सज़ा



कौशलेन्द्र प्रपन्ना टेक महिंद्रा फाउंडेशन में बतौर वाइस प्रिंसिपल के रूप में पांच सालों से काम कर रहे थे| यह टेक महिंद्रा लिमिटिड की CSR (कॉर्पोरेट सोशल रेस्पोंसिबिलिटी) इकाई है| पीपीपी (सार्वजनिक निजी साझेदारी) के मॉडल के तहत, पिछले कुछ वर्षों से टेक महिंद्रा एमसीडी स्कूलों के शिक्षकों के सेवाकालीन प्रशिक्षण के सत्र आयोजित कर रहा है। इसके लिए निगम ने अपने कुछ स्कूलों व प्रशिक्षण केंद्रों को एक तरह से टेक महिंद्रा को सौंप दिया है।

25 अगस्त 2019 के दिन कौशलेन्द्र का एक लेख जनसत्ता में छपा, जिसका शीर्षक था, ‘शिक्षा: न पढ़ा पाने की कसक(यह लेख संलग्न है)| परिवारजनों के अनुसार, लेख छपने वाले दिन कौशलेन्द्र को कंपनी से फ़ोन आता है और मीटिंग के लिए हेड ऑफिस बुलाया जाता है| वहां उन्हें ज़लील किया जाता है और धमकी दी जाती है, हमारा प्रोजेक्ट बंद करवाओगे क्या? पूर्वी एमसीडी से बहुत दबाव है| अपना दाना-पानी ढूंढ लो|’ ऐसा क्या लिखा था इस लेख में कि पूर्वी एमसीडी और कंपनी इतना तिलमिला गई?

हालांकि कंपनी ख़ुद अखबारों में छपने वाले कौशलेन्द्र के लेखों को तमगे की तरह भी इस्तेमाल करती आई थी - इन्हें केंद्रों के डिस्प्ले बोर्ड्स पर शान से प्रदर्शित किया जाता था - लेकिन इस दिन उनके लेखों को सबूत बनाकर कौशलेन्द्र को मुजरिम करार दिया गया| उन पर मानसिक दबाव बनाकर उनसे तुरंत इस्तीफ़ा लिया गया| इस मानसिक प्रताड़ना और स्वाभिमान पर लगी चोट के चलते 5 सितम्बर शिक्षक दिवसके दिन कौशलेन्द्र को दिल का दौरा पड़ा और 14 सितम्बर को उनका देहांत हो गया| कॉर्पोरेट व राजनीतिक सत्ता के आपराधिक गठजोड़ ने कौशलेन्द्र की बलि ले ली| उनके पीछे उनकी पत्नी और 8 महीने का बेटा है|

क्या कौशलेन्द्र का यह दावा हम शिक्षकों का सच नहीं है कि आजकल शिक्षक चाह कर भी स्कूलों में पढ़ा नहीं पा रहे हैं। पठन- पाठन के अलावा, शिक्षकों के पास ऐसे कई दूसरे सरकारी काम होते हैं..जनगणना, बालगणना, बैंक में बच्चों के खाते खुलवाना, आधार लिंक करवाना, डाइस का डाटा भरना, दफ्तरी आंकड़े इकट्ठे करना आदि| इससे उनकी शिक्षा में कुछ नए प्रयोग करने की प्रक्रिया थम सी जाती है’ ?

इन उदाहरणों से कौशलेन्द्र उस बाज़ारवादी राजनीति पर चोट कर रहे थे जो दशकों से सरकारी शिक्षकों व सार्वजनिक व्यवस्था को नाकारा साबित करके अपनी दुकान चला रही है| ये पहले शिक्षकों को नाकारा साबित करते हैं और फिर सरकार को अपने ‘क्षमता निर्माण कार्यक्रम’ बेचते हैं| हमारे स्कूलों में चल रहे मिशन बुनियाद जैसे कार्यक्रम इसी राजनीति का एक उदाहरण हैं| ऐसे में जब कौशलेन्द्र ने शिक्षकों के हक़ में एक लेख लिखा तो इन तत्वों को अपना स्वार्थ ख़तरे में पड़ता नज़र आया| साफ़ है कि इन निजी संस्थाओं और सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था के हितों के बीच स्थाई राजनीतिक टकराव है|

अपने काम को परोपकारी बताकर समाज में नाम कमाने वाले ये एनजीओ अपने कर्मचारियों के साथ खड़ा होना तो दूर उनके साथ मूलभूत मानवता का व्यवहार भी नहीं करते| कौशलेन्द्र के साथ जो हुआ वो साबित करता है कि इनका प्रमुख मकसद अपना व्यावसायिक हित साधना होता है, न कि शिक्षा और समाज के प्रति सरोकार| कौशलेन्द्र को भी यह कहकर अपमानित किया गया कि उनके लेख से कंपनी का क्लाइंट नाराज़हो गया था और कंपनी के बिज़नस को खतरा था!

और इस दफ़ा ये क्लाइंट था पूर्वी MCD! जिसे अपने ही शिक्षकों को सम्मान और बल देती यह आवाज़ बर्दाश्त नहीं हुई क्योंकि कौशलेन्द्र ने व्यवस्था की वो नाकामी इंगित कर दी थी जिसे दिल्ली के मेहनतकश तबके के बच्चे रोज़ जीते हैं| चुनाव के दौर में एमसीडी ने इस आलोचना को आड़े हाथों लिया .. ‘इसी दिल्ली में नगर निगम के स्कूलों में इस तरह की सुविधाएं अब भी एक सपना ही हैं| इन विद्यालयों में शौचालय और पीने का पानी तक नहीं होता| गन्दगी में ही बच्चे बैठते हैं| आईसीटी लैब है लेकिन शिक्षक नहीं|

आज शिक्षा केवल राज्य और नागरिकों के बीच प्रतिबद्धता का मामला नहीं है, बल्कि इसमें एनजीओ व कॉर्पोरेट संस्थाएं स्वंतंत्र और ताक़तवर इकाई बन चुके हैं| राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2019 के मसौदे में तो सीधे तौर पर RIAP (रेमेडियल इंस्ट्रक्शनल एड) और NTP (ट्यूटर प्रोग्राम) प्रस्तावों में अप्रशिक्षित व अयोग्य व्यक्तियों द्वारा पढ़ाने के नाम पर एनजीओ और वालंटियर्स को स्कूलों में हस्तक्षेप करने का खुला निमंत्रण है| शिक्षा व्यवस्था में एनजीओकरण को लेकर हमारे अनुभव और तमाम अध्ययन यह बताते हैं कि चाहे वो नन्हीं कली प्रोग्राम हो या टीच फॉर इंडिया या प्रथम, ये अपने संसाधनों और तामझाम के बल पर मोहित करते हैं| लेकिन इन निजी संस्थाओं के चरित्र, उद्देश्य व अंजाम के प्रति भोले बने रहना हमारी सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था व लोकतंत्र के लिए घातक होगाI इतिहास गवाह है कि ये ताकतें सार्वजनिक व्यवस्था को भी बाज़ारवादी और असुरक्षित बनाकर अपने पैर पसारती हैं|  

कौशलेन्द्र का लेख यह सच भी उजागर करता है कि आज प्रधानाचार्य और शिक्षक निरंतर डर और दबाव में काम कर रहे हैं| चाहे एमसीडी हो या दिल्ली सरकार के स्कूल, शिक्षकों की गरिमा, अकादमिक स्वायत्तता और बौद्धिक स्वतंत्रता पर आघात किए जा रहे हैं | इस कॉर्पोरेट संस्कृति का असर हम अपने स्कूलों में भी महसूस कर रहे हैं जहाँ शिक्षण का काम बौद्धिक से ज़्यादा प्रशासनिक बनता जा रहा है| फ़रमानों के दौर में हमें सोचने, बोलने, आलोचना करने और प्रश्न उठाने से डराया जा रहा है| मज़दूर के तौर पर हमारे अधिकार हाशिए पर हैं और यूनियनें कमज़ोर और दिशाहीन हैं|

कौशलेन्द्र के साथ जो अमानवीय व्यवहार हुआ उसकी आलोचना तक को दबाने की कोशिश की गईI नैशनल हेराल्ड में ऑनलाइन छपे एक लेख को तो दबाव डालकर उतरवा तक लिया गयाI आज अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और कार्य-स्थल पर गरिमा के अधिकार पर हमले तेज़ हो रहे हैं। अगर हमारी शिक्षा व्यवस्था इन मूल्यों को सुरक्षित नहीं रख सकती तो क्या फिर बच्चों को नैतिकता का पाठ पढ़ाना व महान आदर्शों की परंपरा का ढोल पीटना महज़ एक ढकोसला नहीं है?

शिक्षकों के पक्ष में संवेदनशील लेखन करने वाले कौशलेन्द्र प्रपन्ना के लिए न्याय की लड़ाई में आज हम शिक्षकों को भी खड़े होने की ज़रूरत है| हमारी मांगें –

·         टेक महिंद्रा द्वारा साथी कौशलेन्द्र की पत्नी और बेटे को मुआवज़ा दिया जाए|
·         कौशलेन्द्र के साथ हुए मानसिक उत्पीड़न की कानूनी जांच हो|
·         दोषी पाए जाने पर टेक महिंद्रा और पूर्वी एमसीडी के संबंधित अफसरों पर सख्त कार्यवाही हो|  
·         एमसीडी टेक महिंद्रा के साथ अपने अनुबंध को तुरंत रद्द करेI
·         शिक्षा में सभी पीपीपी (पब्लिक प्राइवेट पार्टनरशिप) अनुबंधों को ख़ारिज किया जाएI  


शिक्षा : न पढ़ा पाने की कसक 
कौशलेन्द्र प्रपन्ना

साभार : जनसत्ता                                                    25 अगस्त 2019

हमारे शिक्षक पढ़ाने पर जोर देते हैं, कक्षाओं में पढ़ाना भी चाहते हैं, फिर भी उनमें न पढ़ा पाने की कसक बनी रहती है। कक्षाएं पढ़ाने की सामग्रियों से भरी हुई हैं और सीसीटीवी लगाए जा रहे हैं। ये नई और ताजा गतिविधियां दिल्ली के सरकारी स्कूलों में तेजी से पांव पसारती नजर आ रही हैं। बेशक अकादमिक धड़ों ने कक्षाओं में कैमरे लगाने का विरोध किया हो, लेकिन सरकार के इस आदेश पर अमल हो रहा है। दावा किया गया है कि अभिभवाक अब बच्चों की गतिविधियों, उपस्थिति और कक्षा की तमाम जानकारियां भी ले और देख सकेंगे। इसमें इतनी-सी राहत दी गई है कि अभिभावकों को पूरी तो नहीं, किंतु कुछ-कुछ फुटेज मुहैया कराई जाएगी।

सीसीटीवी कैमरों को लेकर न सिर्फ बच्चे बल्कि शिक्षकों के मन में भी भय और आशंकाएं हैं। हालांकि सूचना संचार तकनीक (आइसीटी) के उपयोग से किसी को भी गुरेज नहीं हो सकता। आइसीटी ने निश्चित ही हमारी जिंदगी को प्रभावित किया है। उसमें शिक्षा को अलग नहीं किया जा सकता। कई जगहों पर पुराने काले बोर्ड बदले जा चुके हैं। जहां नहीं बदले हैं वहां आने वाले दिनों में बदल दिए जाएंगे। दिल्ली के सरकारी स्कूलों की कक्षाओं में सफेद बोर्ड, स्मार्ट बोर्ड, रंगीन दीवारें, पंखों पर चित्रकारी जैसी उम्मीद की जा सकती है। लेकिन अन्य राज्यों के सरकारी स्कूलों को न तो दिल्ली के पैमाने से देखना उचित होगा और न ही देखा जाना चाहिए। दिल्ली के सरकारी स्कूलों को देख कर कुछ-कुछ भ्रम इसलिए हो सकता है, क्योंकि इन स्कूलों को खासतौर पर तैयार किया जा रहा है। पर सच्चाई यह है कि इसी दिल्ली में नगर निगम के स्कूलों में इस तरह की सुविधाएं अब भी एक सपना ही हैं। इन विद्यालयों में शौचालय और पीने का पानी तक नहीं होता। गंदगी में ही बच्चे बैठते हैं। आइसीटी लैब है, लेकिन शिक्षक नहीं हैं। सामान्य शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे का एक पूरा अध्याय आइसीटी पर ही केंद्रित है। लेकिन कक्षाओं की स्थिति इससे उलट है। देश के अन्य राज्यों में सरकारी स्कूलों में सामान्य कक्षा कक्ष और अध्यापकों आदि की कमी है। ऐसे में हमारा प्रशिक्षित शिक्षक कैसे अपने बच्चों को सम्यक तौर पर सीखने-सिखाने की सकारात्मक प्रक्रिया को अंजाम दे सकेगा, यह विचारणीय है।
शिक्षक, शिक्षा और बच्चों के मध्य वह कड़ी है जो कमजोर हो, अप्रशिक्षित हो, अपने पेशे से निराश हो तो वह किसी भी तरीके से शिक्षा और बच्चों के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति का मसौदा हिंदी में छह सौ पचास और अंग्रेजी में चार सौ पचास पेज का है, जिसे देखने-पढ़ने के लिए धैर्य और समय की आवश्यकता है। पर हकीकत यह है कि इसे जितने शिक्षकों को भेजा गया, उनमें से ज्यादातर ने तो इसे देखा तक नहीं, पढ़ना तो दूर की बात है। ऐसे में सवाल तो यह है कि अगर एक शिक्षक, शिक्षा-शिक्षण के पेशे से जुड़ा कर्मी शिक्षा नीति जैसे मसले पर अपनी राय नहीं रखता है तो वह कैसे अपने कर्म में सफल होगा? यह चिंताजनक है। हमारे शिक्षक यह तो चाहते हैं कि पाठ्यपुस्तकों में बदलाव हो, शिक्षा नीति में परिवर्तन हो लेकिन स्वयं लिख कर सक्षम मंच तक अपनी बात रखने से बचते हैं। आखिर क्या कारण हैं कि शिक्षक अपने शैक्षणिक समाज में होने वाले राजनीतिक और नीतिगत फैसलों में भागीदारी नहीं कर पाते?
संभवत: पहली वजह तो यही कि उनका व्यवस्था पर से भरोसा उठ चुका है। वे यह मान चुके हैं कि उनकी कोई नहीं सुनने वाला। यदि वे अपनी बात रखते भी हैं तो क्या उन्हें किसी भी नीतिगत प्रक्रिया मेंशामिल किया जाएगा? हालांकि एनसीईआरटी (राष्ट्रीय शैक्षिक और अनुसंधान परिषद) जैसी संस्थाएं शिक्षकों को अपनी समितियों में भाग लेने और अपनी रचनात्मक क्षमता और कौशल के योगदान के लिए आमंत्रित करती रहती हैं। पर सबसे बड़ी समस्या तब आती है जब मालूम होता है कि स्कूल के बाद या स्कूल के समय के अतिरिक्त समय और श्रम देने होंगे। इससे शिक्षक बचना चाहते हैं और ऐसे अवसरों को खो देते हैं। हालांकि जब तक सक्षम और कुशल शिक्षक पूरी दृढ़ता के साथ सही मंच पर अपनी बात नहीं रखेंगे तब तक स्थितियां नहीं बदलेंगी।
इसमें कोई दो राय नहीं कि वास्तव में शिक्षकों के पास शिक्षण के अलावा बहुत से ऐसे स्कूली काम होते हैं जिन्हें करना उनकी बाध्यता है। इनमें जनगणना, बाल गणना, बैंक में बच्चों के खाते खुलवाना आदि। इसके साथ ही साथ विभागीय अन्य कामों की कोई सूची नहीं बनाई जा सकती जो शिक्षकों को ही करने पड़ते हैं। हालांकि इन कामों के लिए सीधे-सीधे शिक्षकों से कहा नहीं जाता, लेकिन प्रधानाचार्य ऐसे काम शिक्षकों को ही बांट देते हैं। मसलन, डाइस (एकीकृत जिला सूचना प्रणाली) की रिपोर्ट तैयार करने में शिक्षकों की भूमिका को नजरअंदाज नहीं कर सकते। इस साल का ही एक उदाहरण लें। जून के दूसरे हफ्ते में तकरीबन कई प्रधानाचार्यों को कारण बताओ नोटिस भेज कर पूछा गया कि क्यों नहीं अब तक स्कूली आंकड़े भेजे गए? बात ये थी कि प्रधानाचार्य
कार्यशाला में थे और शिक्षकों की छुट्टियां चल रही थीं। तब आंकड़े कौन देता? इसे भी समझना होगा। समय पर आंकड़ों की मांग की जाती तो संभव है स्कूलों की छुट्टियां होने से पूर्व प्रधानाचार्य इस काम को करवा पाते। लेकिन सूचनाओं और आंकड़ों की मांग की पूरी कड़ी होती है। स्कूल निरीक्षक, प्रधानाचार्य और फिर स्कूली शिक्षक। यदि पहले पायदान पर देरी हुई या भूलवश सूचना प्रसारित होने में लापरवाही हुई तो उसका असर अंतिम परिणाम पर पड़ना स्वभाविक है। ऐसे में फंदे का कसाव कहीं न कहीं शिक्षक को महसूस होता है।

दीगर बात है कि उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में स्पष्ट कहा है कि शिक्षकों से अतिमहत्त्वपूर्ण कार्यों को छोड़ कर गैर शैक्षणिक कार्य न कराए जाएं। लेकिन इस आदेश के बावजूद यह गैर शैक्षणिक कार्यों का सिलसिला जारी है। चुनाव ड्यूटी में लगे शिक्षकों को मतपेटी हासिल करने और जमा करने के दौरान किस प्रकार की बदइंतजामी का सामना करना पड़ा और कितने दिन वे शिक्षक स्कूलों में अपनी सेवा नहीं दे सके, अगर इस तथ्य पर नजर डालें तो आंखें खुल जाएंगी। बैकों में बच्चों के खाते खुलवाने, बैंक खाते से आधार नंबर जोड़ने के काम में भी शिक्षकों का अच्छा खासा रचनात्मक समय जाया होता है।

विद्यालयों में शिक्षकों के समय का बड़ा हिस्सा पहचान उपस्थिति मशीन के सामने बच्चों को खड़ा कराने, उपस्थिति दर्ज कराने, मिड डे मिल बांटने में चला जाता है। ऐसे में बच्चों को पढ़ाने का वक्त ही नहीं मिल पाता। ऐसे में शिक्षक जिस शिद्दत से पढ़ाने में रमा है उसे किसी और के हाथ सौंप कर या खाली छोड़ कर दफ्तरी आंकड़े जुटाने में लगना होता है। इन सब के बावजूद ऐसे हजारों शिक्षक हैं जो पढ़ाना अपना पहला और प्राथमिक कर्तव्य समझते और मानते हैं। उनकी कक्षाएं जाकर देखें तो पाएंगे कि इन शिक्षकों की कक्षाएं और बच्चे किस स्तर पर सीख रहे हैं। इनके बच्चों के नतीजे भी संतोषजनक होते हैं। लेकिन अफसोस कि ऐसे शिक्षक अपनी ऊर्जा और रचनात्मकता के साथ स्वयं ही जूझ रहे होते हैं। उन्हें ही किसी भी कीमत पर अपनी पेशेगत पहचान बरकरार रखने और अस्तित्व के खतरे से लड़ना होता है।
 

14 comments:

Rajnish kumar said...

कौशलेन्द्र जी ने कुछ भी गलत या नया नहीं कहा, जिसे आम लोग नहीं जानते। फिर भी दिल्ली MCD एवं कम्पनी को यह लेख क्यों नागवार क्यों लगा यह समझ से पड़े है। कौशलेन्द्र जी के परिवार को न्याय मिलनी ही चाहिए।

आलोक कुमार मिश्रा said...

एक बेहतरीन लेखक और संवेदनशील मनुष्य की इस सांस्थानिक हत्या के मामले में न्याय दोषियों को सजा देकर और पाँच करोड़ का मुआवजा देकर किया जाना चाहिये ।

Gaurav said...

Agree

Amar Mishra said...

Hope we will get the justice. I know Kaushlendra always writing for devlop the education. How any well known organisation not ab le to support their employee. Need punish concern person who involve to create the situation and company will compensate Kaushledra Family.

vibha singh said...

Kaushlendra ji be apne lekh me Jo kuch bhi likha,wo ham sabki pida this. Kisi bhi seminar ke dauran Jo hum sabhi apni vyatha sunate the,wo likha,seminar ke feed back me hum Jo likhte the,uska Saransh likha.
Unhone aisa kuch bhi nahi likha jisme sachchai na ho.sab kuch Sach likha.
Unko Jalil Karne walon ke khilaf Janch jarur ho,aur sachchai tabhi samne aayegi jab Jaanch Committee alag group ke feedback forms check karenge aur jinhone bhi kuch sachchai likhi hai,unke vidyalayon me jakar unse aamne samne baat ki Jaye.
Sachchai apne aap samne as jayegi.

Siddhi said...

Let digital media power spread this message virally and Justice be given. Culprits should be reprimanded to set an example and create a society supporting freedom of speech. Victim's family should be given all monetarily support and strength to survive worldly affairs.

Unknown said...

Justice for Kaushlendraji.

Unknown said...

कौशलेंद्र जी के परिवार को न्याय मिलनी चाहिए

Anshu pathak said...

कौशलेंद्र जी को और उनके परिवार को न्याय मिलनी चाहिए। सत्य बोलने की सजा इतनी कठोर होगी , उन्होंने नहीं सोचा होगा। परंतु यह भी सत्य है कि आज के माहौल में सच का गला घोंटा जाता है।
इस पूरे प्रकरण की जांच हो और जो भी दोषी है, उसे सख्त सजा हो क्योंकि ये हत्या का मामला है।
उनकी पत्नी को मुआवजा मिले ताकि वो एक सम्मान जनक जिंदगी गुजार सकें।

मैं इस घटना की कड़ी निन्दा करती हूं। मैं टेक महिंद्रा फाउंडेशन द्वारा शिक्षा सम्मान से सम्मानित शिक्षिका हूं। यह भी एक कारण है कि इस फाउंडेशन के द्वारा सच को प्रताड़ित करने की खबर से बहुत आहत हूं।

इस घटना की जांच हो और दोषी को सजा मिले।

सुकरात said...
This comment has been removed by the author.
सुकरात said...

https://janchetna-janmukti.blogspot.com/2019/09/blog-post.html

dr. vandana mishra said...

Need Justice for his family.

Seema Sharma said...

कौशलेंद्र इस तरह चला जाएगा आज तक विश्वास नहीं कर पा रही हूं । उसका कोई भी लेख इस प्रकार का नहीं था कि उसे इस प्रकार प्रताड़ित करके दुनिया से ही निकाला दे दिया जाए । कौशलेंद्र को इंसाफ मिलना ही चाहिए और दोषियों को सजा । सच बोलने की इतनी बड़ी सजा की एक संवेदनशील व्यक्ति को असमय ही मौत के मुंह में पहुंचा दिया जाए । उन सभी गुरुजनों से प्रार्थना है कि जिन्होंने कौशलेंद्र को सच बोलने का रास्ता दिखाया वे आज आगे आए ताकि कौशलेंद्र को इंसाफ दिलाने की मुहिम सफल हो सके। टेक महिंद्रा जैसे असंवेदनशील NGO को सबक जरूर मिलना चाहिए ।
शिक्षा जगत के विद्वानों से अनुरोध है कि टेक महिंद्रा के खिलाफ मिलकर आगे आए। यही कौशलेंद्र के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी।

Sureshdubey said...

कौशलेंद्र का असामयिक निधन उनके परिवार के लिए तो बहुत बड़ा नुकसान है किंतु उनका निधन संपूर्ण शिक्षा जगत के लिए निसंदेह बहुत बड़ा झटका है मैं पिछले कई वर्षों से कौशलेंद्र के संपर्क में हूं और उनके सभी आर्टिकल तथा उनका ब्लॉग हमेशा पढ़ती रही हूं अपने आर्टिकल के माध्यम से कौशलेंद्र शिक्षा जगत में होने वाले नए परिवर्तनों से अवगत कराते रहे थे और जहां व्यवस्था में खामियां होती थी उन पर भी अपनी आवाज उठाते थे अगर हम लोगों ने आज आवाज नहीं उठाई तो फिर कोई कौशलेंद्र नहीं होगा सभी शिक्षा जगत के विद्वानों से अनुरोध है कि टेक महिंद्रा के खिलाफ मिलकर आगे आए यही कौशलेंद्र के प्रति हमारी सच्ची श्रद्धांजलि होगी ।