Tuesday, 26 November 2019

फ़ीस बढ़ोतरी के ख़िलाफ़ चल रहे जेएनयू विद्यार्थियों के संघर्ष को सलाम !!



लोक शिक्षक मंच हॉस्टल फ़ीस बढ़ोतरी के ख़िलाफ़ चल रहे जेएनयू विद्यार्थियों के संघर्ष को एक मिसाल की तरह लेते हुए उन्हें बधाई देता है। शिक्षा के महँगे होते जाने, इसके व्यावसायीकरण और सरकार की जन तथा शिक्षा विरोधी नीतियों के इस दौर में इस आंदोलन ने जनता के सामने शिक्षा के हक़, राज्य के दायित्व और फ़ीस के मुद्दों पर मंथन करने का जुझारू मौक़ा प्रदान किया है। सार्वजनिक स्कूली व्यवस्था के संदर्भ में भी हमने देखा कि सीबीएसई की बोर्ड परीक्षाओं की फ़ीस भी रातों-रात बेतहाशा बढ़ाकर मेहनतकश तबक़ों से आने वाले देश के लाखों-करोड़ों बच्चों की शिक्षा पर हमला बोला गया। इसके ख़िलाफ़ स्कूली विद्यार्थियों ने सड़कों पर उतर कर अपना विरोध दर्ज किया लेकिन सरकार के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगी। हालाँकि, आज फ़ीस बढ़ोतरी के अलावा भी सरकार द्वारा वंचित-शोषित वर्गों के बच्चों की शिक्षा के हक़ को कुचलने के कई पैंतरे आज़माये जा रहे हैं। एक तरफ़ सिलेबस को कम और हल्का करके सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की शिक्षा को कमज़ोर किया जा रहा है, दूसरी तरफ़ वोकेशनल शिक्षा के नाम पर इन स्कूलों के विद्यार्थियों को जबरन ऐसे कोर्सों में धकेला जा रहा है जो सिर्फ़ ग़ैर-अकादमिक हैं उच्च-शिक्षा के रास्ते बंद करते हैंबल्कि समाज संसार में व्याप्त शोषण को पहचानने में मदद करने की बजाय उसे स्वीकार करने की ट्रेनिंग देते हैं। वहीं, आंदोलनों जन-दबाव से हासिल किये गए वज़ीफ़ों की राह में प्रशासनिक तकनीकी जटिलताओं और कठोर/अन्यायपूर्ण शर्तों के रोड़े अटकाये जा रहे हैं। नतीजतन, एक विश्वास में वक़्त, दिहाड़ी गँवाकर, धक्के खाकर और अतिरिक्त पैसे लगाकर शर्तें पूरी करने के बाद भी विद्यार्थियों के एक बड़े वर्ग को केवल वज़ीफ़े प्राप्त करना दुष्कर होता जा रहा है, बल्कि उल्टे उनके खातों की रक़म काटी जा रही हैज़ब्त की जा रही है। साफ़ है कि इन तौर-तरीक़ों से देश की आवाम के शिक्षा के सपने को छला जा रहा है और असमानता को बरक़रार रखने की कोशिश की जा रही है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति महज़ इन चालबाज़ियों का उद्घोष है। यह आरोप लगाना धूर्ततापूर्ण है कि समाजशास्त्र, साहित्यअफ़्रीकी अध्ययन, दलित  स्त्री विमर्श जैसे कोर्सों पर करदाताओं का पैसा ख़र्च करना फुज़ूलख़र्ची है। यह कुत्सित दलील उन मुट्ठीभर लोगों को जो प्रत्यक्ष कर देते हैं देश के मालिकों की तरह स्थापित करने की कोशिश है। इसमें इस सच्चाई को भी झुठलाया जाता है कि यही वर्ग जाने कर की कितनी चोरी करता है और असल में तो सभी संसाधन सिर्फ़ जनता की मेहनत श्रम की देन हैं, बल्कि इनको खड़ा करने चलाने में परोक्ष कर की चक्की में तो सबसे ग़रीब से सबसे बड़ा योगदान वसूला जाता है। रही बात इन विषयों की, तो राष्ट्र के नाम पर कॉर्पोरेट राज्य पर काबिज़ जातियों के हित साधने वाले लोगों के दुष्प्रचार इस बात पर पर्दा डालते हैं कि इस तरह का ज्ञानशास्त्र  अध्ययन आज दुनियाभर के बेहतरीन शिक्षा संस्थानों के अभिन्न अंग हैं जोकि हमें अपनी दुनिया को शोषित वर्गों पहचानों की पैनी नज़र से देखना सिखाकर संवेदनशील संघर्षशील बनाने में मदद करते हैं। यही नज़र दुनिया को सुंदर और न्यायसंगत बनाने की औज़ार भी बनती है। शोषक वर्ग इसी से आतंकित है। ज्ञान विषयों की सार्थकता सार्वजनिक ख़र्च को लेकर अगर कोई जायज़ सवाल उठता भी है तो हम यह पूछना चाहेंगे कि तथ्यों, तर्कों संवैधानिक मूल्यों से परे विषयों तथा कर्मकांडी आयोजनों को आख़िर किसकी भलाई के लिए जनकोष से पोसा जा रहा है। उसे हमारे बच्चों की शिक्षा पर ख़र्च तो नाजायज़ लगता है लेकिन देशी-विदेशी कंपनियों को ठेके देकर हज़ारों करोड़ की भयावह मूर्तियाँ बनवाने और चंद परजीवियों के लिए बुलेट ट्रेन चलाने को देश के गौरव की तरह प्रचारित किया जाता है। 

आज देश की जनता को 'विश्वगुरु महाशक्ति' जैसे शब्दों के जाल में फंसाकर सार्वजनिक क्षेत्रों को ध्वस्त करने और वंचित जन के हक़ों को रौंदने की नित नयी तरकीबें ईजाद की जा रही हैंइनके षड्यंत्रों हमलों के बरक़्स हमें यह माँग रखनी होगी कि जो समाज बच्चों को शिक्षित होकर देश का नाम रौशन करने का पाठ पढ़ाता है वो उनकी शिक्षा को परिवारों की आर्थिक स्थितियों और सरकारों की जन-विरोधी नीतियों के रहम--करम पर नहीं छोड़ सकता। वैसे भीइंसाफ़ की तरफ़ बढ़ रहे समाज राज्य व्यवस्था का तकाज़ा तो यह है कि शिक्षा क्या, वो किसी भी मौलिक अधिकार की प्राप्ति के लिए उस सदस्य से कोई शुल्क ले जो आजीविका अर्जित करने की अवस्था या स्थिति में नहीं है।   


जेएनयू के साथ हो रही घटनाएँ यह भी दिखाती हैं कि आलोचना प्रतिरोध खत्म करने के लिए आज सरकारें किस हद तक जा सकती हैं; एक-एक करके कैसे सार्वजनिक संस्थानों की अपनी बौद्धिक  कार्यकारी स्वतंत्रता की धज्जियाँ उड़ाई जा सकती हैं| और जेएनयू यह सिखा रहा है कि फ़ीस माफ़ी की लड़ाई में कैसे खून-पसीना लगेगा| क्योंकि लड़ाई सीधे अंतर्राष्ट्रीय कॉर्पोरेट संस्थाओं, पूँजीवादी सरकारों, इनके मीडिया के गठबंधन और इनकी चाकरी में लगे दमनकारी पुलिसिया तंत्र सशस्त्र बलों से है|

जेएनयू के विद्यार्थियों के इस ताज़ा आंदोलन का पुरज़ोर समर्थन करते हुए लोक शिक्षक मंच सरकार की कार्पोरेट-परस्त मज़दूर-किसान-बहुजन के बहिष्करण की नीतियों का विरोध करने के अपने संकल्प को दोहराता है। इस आंदोलन से जुड़े सभी संगठनों लोगों को बढ़ी हुई फ़ीस के ख़िलाफ़ संघर्ष को स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालय तक की सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को मज़बूत करनेऔर मुफ़्त शिक्षा के अधिकार की लड़ाई में बदलते हुये आगे बढ़ना होगा। मुफ़्त और सार्वजनिक शिक्षा की लड़ाई मानव अधिकार और लोकतंत्र को सार्थक बनाने की लड़ाई है।    

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