Thursday 19 March 2020

दिल्ली के हिंसा प्रभावित इलाक़े में कुछ बातचीत



फ़रवरी के अंतिम सप्ताह के दौरान उत्तर-पूर्व दिल्ली में हुई मुस्लिम-विरोधी हिंसा की रपटों में जहाँ नफ़रत से उपजी जघन्य क्रूरता के मंज़र सामने आये, वहीं आपसी सौहार्द्य व इंसानियत की मिसालें भी देखने-सुनने को मिलीं। उदाहरण के तौर पर, दोनों समुदायों के लोगों ने एक-दूसरे के धार्मिक स्थलों को बचाया, तो एक सिख व्यक्ति द्वारा कई मुसलमानों की जान-माल बचाने और एक हिन्दू युवक द्वारा मस्जिद से हनुमान की मूर्ति व भगवा झंडा हटाने की प्रेरणादायक ख़बरें भी आईं। 

इन्हीं मिसालों से प्रेरित होकर और इनकी खोज में हम कुछ शिक्षक कुछ दिन पहले मुस्तफ़ाबाद गए थे। वहाँ हम ईदगाह में आयोजित राहत-शिविर गए और शरण लिए कुछ लोगों से बात करने की कोशिश की। यह क़ाबिले-गौर था कि शिविर के पास ही एक सिख संस्था की ओर से राहत सामग्री पहुँचाई व वितरित की जा रही थी। यह हमारे लिए बहुत हिम्मत देने वाला दृश्य था। 
शिक्षक होने के नाते हमारी मुख्य चिंता हिंसा से प्रभावित बच्चों को लेकर थी। हमने अपने सवाल भी इसी चिंता के इर्द-गिर्द रखने का सायास फ़ैसला किया था। इसका एक कारण यह भी था कि हम हर पृष्ठभूमि के व्यक्ति से एक समान विषय पर बात करना चाह रहे थे और संवाद की हल्की-से-हल्की ज़मीन को भी बचाकर रखना चाहते थे। इन उद्देश्यों के मद्देनज़र हमने यह निर्णय लिया था कि हम लोगों, विशेषकर अभिभावकों से यह जानने की कोशिश करेंगे कि हिंसा के अनुभव के बाद जब बच्चे स्कूल लौटेंगे तब उनकी नज़र में स्कूलों की क्या ज़िम्मेदारी बनती है, यानी स्कूल और शिक्षक मिलकर बच्चों को कैसा माहौल दें|        | 
शिविर में एक व्यक्ति से बात करके पता चला कि वो अपने तीन छोटे बच्चों के साथ शिव विहार से किसी तरह जान बचाकर आये थे। यह सवाल पूछने पर शिव विहार से आए उस व्यक्ति ने बहुत ही कड़वे लहजे में कहा,  'हिन्दू - मुस्लिम बच्चों के स्कूल अलग कर दो| जब मोहब्बत ही नहीं रही तो साथ रहकर क्या करेंगे? बच्चे साथ रहेंगे तो फिर कुछ बात हो जाएगी, अनहोनी हो सकती है। बच्चे सुरक्षित नहीं है |" ज़ाहिर है कि हम इस जवाब के लिए तैयार नहीं थे| हालाँकि हिंसा झेल चुके इस व्यक्ति की मनोदशा से सहानुभूति रखते हुए हमने उन्हें लोगों द्वारा एक-दूसरे की जान बचाने के उदाहरण भी साझा किए| हमने इस ओर भी इशारा किया कि दोनों समुदायों के लोगों को काम तो साथ ही करना है जिसके जवाब में उन्होंने बस 'ऊपर वाले' की ओर इशारा करते हुए ठंडी आह भरी|  शिविर में मौजूद एक अन्य स्थानीय व्यक्ति से जब हमने यही सवाल किया तो उन्होंने बच्चों को धर्म के आधार पर बांटकर अलग-अलग स्कूलों में पढ़ाने के विचार को फ़ौरन ख़ारिज किया| अपनी सोच को आधार व विस्तार देते हुए उन्होंने कहा, "काम-काज तो साथ ही करना है और मिलजुल कर रहते ही आए हैं।"
शिविर के बाहर निकलकर एक बैटरी रिक्शा वाले भैया से बात हुई तो उन्होंने बताया कि कैसे हिंसा के बाद से उनकी दैनिक कमाई एक-चौथाई हो गई है। इसके बावजूद उन्होंने इलाक़े में आपसी भाईचारा व प्यार के रिश्ते के पक्ष में बोलते हुए हिंसा में बाहरी तत्वों के शामिल होने की बात की। स्कूल और शिक्षकों की भूमिका पर सवाल पूछने पर उन्होंने बच्चों को डर व सदमे से उबारने की ज़रूरत रेखांकित की। उन्होंने भी अलग-अलग स्कूलों के विचार को पूरी तरह ख़ारिज किया। 
उसी जगह पर एक चाय वाले भैया से बात हुई जिन्होंने 3 महीनों पहले ही यह ठेला शुरू किया था| वो आगरा से अपनी छोटी फैक्ट्री बंद करके आए थे क्योंकि इनकी सारी पूँजी अपनी बीवी के इलाज में लग चुकी थी| उन्होंने भी बताया कि हिंसा से उनकी आमदनी बुरी तरह प्रभावित हुई है और पहले के 300 रुपये प्रतिदिन के मुक़ाबले अब वो मुश्किल से 120 रुपये कमा पा रहे हैं। बातों-बातों में इन्होने बता दिया कि वो आरएसएस से जुड़े हैं और इसलिए उनके विचार हमें नाराज़ कर सकते हैं। इलाक़े में हुई हिंसा की व्याख्या करते हुए जहाँ उन्होंने सीएए व एनआरसी के ख़िलाफ़ चल रहे आंदोलन पर दोष मढ़ा, वहीं हमारे तठस्थ रहने पर उन्होंने ग़रीब की आजीविका पर असर होने और राजनीतिक दलों की भूमिका को अनाम रूप से स्वीकार भी किया। उन्होंने मुसलमानों पर 'अविश्वास' जताते हुए धार्मिक आधार पर अलग-अलग स्कूलों पर हामी जताई लेकिन हमारे यह याद दिलाने पर कि बहुत सी जगह तो लोग साथ-साथ रह ही रहे हैं, उन्होंने अनमने ढंग से यह माना कि जहाँ हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्ध खराब नहीं हुए हैं ,वहां 'चल सकता है'| यह रोचक था कि द्विराष्ट्र-सिद्धांत के तर्क के ख़िलाफ़ हमारे यह याद दिलाने पर कि भारत में सिर्फ़ यही दो समुदाय नहीं हैं, बल्कि सिख, ईसाई आदि भी हैं, उन्होंने बाक़ियों के स्वतंत्र अस्तित्व को एक सिरे से नकारने की कोशिश की! 
इस तरह से उस दिन हम कुछ सीखकर और एक चुनौती लेकर वापस लौटे। इस छोटे से अनुभव ने हमारे सामने साम्प्रदायिक हिंसा के एक प्रमुख परिणाम और उद्देश्य की हक़ीक़त को बयान किया। वो यह कि हिंसा की सफलता यही है कि वो हिंसा करने वालों के अपवाद-विचार को हिंसा झेलने वाले के मन-मस्तिष्क में भी सामान्य की तरह स्थापित कर देती है। ऐसे में हम शिक्षकों के सामने यह सवाल खड़ा होता है कि क्या हमारे स्कूल समाज की अच्छी-बुरी परिस्थितियों से महज़ तालमेल बिठाने, उनके सामने घुटने टेकने के लिए हैं, या फिर स्कूलों, शिक्षकों व शिक्षा की ज़िम्मेदारी समाज में फैल रही नफ़रत और अतार्किकता के ख़िलाफ़ व सद्भाव और विचारशीलता के पक्ष में काम करना है। एक बहुत-ही शुरुआती तर्क के रूप में भी यह तो कहा ही जा सकता है कि अगर किसी भी समुदाय के कुछेक व्यक्तियों को साझे-सार्वजनिक स्कूलों के विचार-व्यवहार में समस्या नज़र आती है तो न तो यह शेष सब के लिए चीज़ें तय करने का आधार हो सकता है और न ही ख़ुद उनके बच्चों के लिए उचित विकल्प माना जायेगा। आज निश्चित ही हम शिक्षकों के सामने यह ज़िम्मेदारी मुँह बाये खड़ी है कि हम अपने आसपास, विशेषकर स्कूलों के पड़ोस-समुदायों से विचारों का संवाद व नागरिक अधिकारों की लड़ाई का साथ बनाकर रखें। अन्यथा समाज में पसरी तमाम तरह की खाइयाँ और वीभत्स होती जाएँगी। और इन खाइयों में ख़ुद हमारे गिरने को भी रोका नहीं जा सकेगा।         

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