प्रति,
शिक्षा मंत्री
भारत सरकार
विषय: स्कूली स्तर पर सत्र 2020-21 के शैक्षिक अनुभव और संबंधित चिंताएँ
महोदय,
लोक शिक्षक मंच आपके सामने स्कूलों की विशेषकर उच्च कक्षाओं के विद्यार्थियों के संदर्भ में बीते सत्र से जुड़े कुछ अनुभव, चिंताएँ, सवाल और माँगें रखना चाहता है। सत्र 2019-2020 दिल्ली के सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिए ख़ासा परेशानियों का साल रहा। कोरोना महामारी और आर्थिक तंगी ने उनके घर-परिवारों पर तो हमला किया ही, लेकिन शिक्षा व्यवस्था ने उनके साथ जो अन्याय किए उसे भी दर्ज किए जाने की ज़रूरत है।
जब पूरा समाज कोरोना की पहली लहर से जूझ रहा था तब विद्यार्थियों को यह महसूस करवाया गया कि अगर वे ऑनलाइन पढ़ाई से नहीं जुड़ पा रहे हैं तो इसमें उन्हीं का दोष है। उनके पास ऑनलाइन पढ़ाई के यन्त्र नहीं थे, सुचारु इंटरनेट नहीं था, घर में कोई अकादमिक सहायता नहीं थी, फ़िर भी उन पर ऑनलाइन कक्षाएँ थोपी गईं। उन्हें अटेंडेंस भेजने के लिए इतना मजबूर किया गया कि कई परिवारों ने क़र्ज़ लेकर सस्ते स्मार्ट फ़ोन खरीदे। जब कुछ विद्यार्थियों ने हिम्मत करके कहा कि उन्हें ऑनलाइन पढ़ाई समझ नहीं आ रही तो उनकी आवाज़ों को दबा दिया गया। शायद इसलिए कि ऑनलाइन पढ़ाई के मॉडल में करोड़ों का निवेश हो चुका था और उसकी सफलता का बखान लिखा जा चुका था।
इसी तरह, भले ही सत्र 2020-21 में अधिकतम बच्चों की पढ़ाई नहीं हुई पर न केंद्र और न राज्य सरकारों ने ज़ीरो सत्र के विकल्प के बारे में गंभीरता से सोचा। अगर समय रहते सत्र 2020-21 को बढ़ा दिया जाता या ज़ीरो सत्र घोषित कर दिया जाता तो न केवल विद्यार्थियों को लंबे काल के मानसिक तनाव से बचाया जा सकता था, बल्कि शैक्षिक नुकसान को भी कम किया जा सकता था। शिक्षा के उद्देश्यों को पूरा करना तो दूर, इस साल शिक्षा को ही अन्याय का गढ़ बना दिया गया।
इससे बड़ी विडंबना क्या होगी कि विद्यार्थियों को उस पाठ्यचर्या पर मूल्यांकित किया जाए जो उन्हें पढ़ाई ही नहीं गई हो! विद्यार्थी साल भर बोलते रह गए, 'हमें कुछ समझ नहीं आ रहा, हम कुछ सीख नहीं पा रहे, हम ठीक से स्कूल भी नहीं आ पा रहे', लेकिन व्यवस्था ने उनकी एक न सुनी। कक्षा VIII तक के बच्चों को परीक्षा के तनाव से नहीं गुज़रना पड़ा, लेकिन उनके अकादमिक नुकसान की भरपाई कैसे होगी? कक्षा IX-XII में बच्चों की सैद्धांतिक समझ का विकास होता है, लेकिन इस साल ऐसा कुछ नहीं हुआ। उन्हें जनवरी 2021 से स्कूल तो बुलाया गया, लेकिन एक-के-बाद-एक आवधिक परीक्षण के हत्थे चढ़ा दिया गया। न शिक्षक सिखा पा रहे थे, न विद्यार्थी सीख पा रहे थे, लेकिन आंकड़ों में विद्यार्थी पेपर पर पेपर देकर अंतिम परीक्षाओं का 'अभ्यास' कर रहे थे। इस बात को स्वीकार किए जाने की ज़रूरत है कि बोर्ड परीक्षाओं का रद्द होना सिर्फ़ इसलिए सही नहीं है क्योंकि कोरोना महामारी चल रही है, बल्कि इसलिए भी सही है क्योंकि सभी बच्चे तैयारी के मामले में बराबर पटल पर नहीं थे। यह भी स्वीकारा जाना चाहिए कि पूर्व-योजना की कमी के चलते अधिकतम विद्यार्थियों को शैक्षिक नुकसान से नहीं बचाया जा सका।
इसमें कोई शक नहीं है कि इसी दौरान संभ्रांत वर्ग के बच्चों का तबका लैपटॉप, प्राइवेट ट्यूशन, संसाधनपूर्ण माहौल की मदद से आगे बढ़ रहा था। जब ये बच्चे देशी-विदेशी एंट्रेंस परीक्षा के लिए तैयार हो रहे थे, तब मेहनत-मज़दूरी करने वालों के बच्चे थोड़ा-सा भी सीख पाने व वास्तविक पढ़ाई के लिए तरस रहे थे। असल में ऑनलाइन कक्षाएँ समस्या का हल नहीं, बल्कि ख़ुद एक समस्या है जो देश की शैक्षिक गैर-बराबरी को बनाए रखने के लिए थोपी जा रही है।
जहाँ सरकारों का काम होना चाहिए सामाजिक गैर-बराबरियों को कम करना, वहाँ शिक्षा मंत्रालय और सीबीएसई ने इन्हें बढ़ाने का काम किया। महामारी और घरबन्दी के साल में जब मज़दूर परिवारों को खाने तक के लाले पड़ रहे थे, तब सीबीएसई ने कक्षा X और XII के विद्यार्थियों पर 2100 या 2400 रु या अधिक की बोर्ड परीक्षा फ़ीस थोप दी। सीबीएसई के इस निर्णय के चलते इन परिवारों के सर पर यह डर मंडराने लगा कि दसवीं/बारहवीं तक पहुँचने के बाद भी कहीं उनके बच्चों की पढ़ाई छूट न जाए। इसलिए उन्हें क़र्ज़ लेकर या सामान बेचकर फ़ीस का इंतज़ाम करना पड़ा। पिछले साल न तो केंद्र सरकार और न ही राज्य सरकार ने बोर्ड परीक्षा फ़ीस माफ़ की। यह शर्मनाक था कि इस देश के बच्चों को अपनी स्कूली शिक्षा खरीदनी पड़ी, जबकि किसी भी सभ्य समाज में यह उनका मौलिक अधिकार होता।
दसवीं कक्षा के मूल्यांकन के लिए बनाई गई रिजल्ट समिति में 7 शिक्षकों का पारिश्रमिक 12,500/- रु प्रति स्कूल बनता है, जबकि एक-एक स्कूल से लाखों रु की फ़ीस इकट्ठी की गई थी। इसका हिसाब सीबीएसई कब देगी? हम इस माँग में विद्यार्थियों के साथ खड़े हैं कि कक्षा X और XII की बोर्ड परीक्षा फ़ीस बच्चों को तत्काल वापस की जाए।
नीति-निर्माता इस बात के भी दोषी हैं कि दशकों से चली आ रही शिक्षा व्यवस्था के केंद्र में सीखना-सिखाना नहीं है, बल्कि परीक्षा प्रणाली और बाज़ारी मूल्य हैं। तभी तो सीबीएसई कक्षा XII की बोर्ड परीक्षाएं रद्द करने के फैसले को आखिरी मौक़े तक लटकाती रही, चाहे बच्चों को इसकी कोई भी कीमत चुकानी पड़ती। मंत्रालयों से जारी वक्तव्यों से यह साफ़ समझ आता है कि सरकार के लिए कक्षा XII की परीक्षा का कोई आंतरिक मूल्य नहीं है, बल्कि उसके लिए यह परीक्षा इसलिए ज़रूरी है क्योंकि यह यूनिवर्सिटी में दाखिलों के लिए चौकीदारी का काम करती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 के बिंदु 4.42 से साफ़ है कि उच्च-शिक्षा संस्थानों में दाखिले के लिए प्रवेश परीक्षा आयोजित करने का काम NTA (नेशनल टेस्टिंग एजेंसी) को दिया जा चुका है।
सच यह है कि क्योंकि लाखों बच्चे कॉलेज पढ़ना चाहते हैं और सरकार ने पर्याप्त कॉलेज नहीं बनाए हैं इसलिए 'मेरिट लिस्ट' बनाकर विद्यार्थियों की छंटनी की जाती है। चाहे यह मेरिट लिस्ट बोर्ड परीक्षा के अंकों के आधार पर बने या एंट्रेंस परीक्षा के आधार पर, इसका उद्देश्य छंटनी करना ही होता है। दूसरा बड़ा सच यह है कि 'सरकारी स्कूलों से आने वाले बच्चे' सबसे पहले छांट कर बाहर कर दिए जाते हैं। आख़िर कितने सरकारी स्कूलों के बच्चे कोचिंग, महंगी फ़ीस और ऑनलाइन प्रक्रिया के जाल से निकलकर रेगुलर कॉलेज में दाखिला ले पाते हैं? जब तक कॉलेज-विश्वविद्यालयों सहित तमाम उच्च-शिक्षा संस्थानों में प्रवेश के लिए सरकारी स्कूलों से पढ़कर आने वाले बच्चों को 'deprivation points' (उनकी विषम परिस्थितियों को दर्ज करने वाले अतिरिक्त अंक) दिए जाने के प्रावधान नहीं बनाए जाते और उच्च-शिक्षा के पर्याप्त सरकारी संस्थान नहीं बनाए जाते, तब तक इस अतिकेंद्रित और दमघोंटू परीक्षा व्यवस्था की नाइंसाफ़ी से निजात नहीं पाई जा सकती।
न व्यापक समाज ने कोरोना महामारी से सीख लेते हुए मौलिक बदलावों की तरफ़ कदम बढ़ाया है और न हमारी शिक्षा व्यवस्था ने काम-चलाऊ बंदोबस्त से ज़्यादा कुछ किया है। इस महामारी के नाम पर किए गए 'लॉकडाउन' में हमने देखा कि जब वहाँ संक्रमण का एक भी केस नहीं था तब लक्षद्वीप जैसी जगहों के स्कूलों को भी जबरन बंद कराकर वहाँ के बच्चों की शिक्षा को छीन लिया गया। सत्ता के केंद्रीकरण में सबको एक ही लाठी से हाँकने वाले नासमझी के फ़ैसले लिए जाते हैं। लोकतंत्र की क़स्में खाते हुए भी, आख़िर क्यों हम राज्यों, स्थानीय निकायों, ज़िलों, पंचायतों, स्कूलों को उनके संदर्भों व ज़रूरतों के अनुसार निर्णय नहीं लेने देते, बल्कि सबको एक ही नियम में बाँधना चाहते हैं? बढ़ते पर्यावरण संकट के चलते कोरोना जैसी महामारियों के आने की संभावना बढ़ेगी। ऐसे संदर्भ में तथा शिक्षा के संवैधानिक अधिकार होने के बावजूद, हमारी शिक्षा नीति छोटे स्कूलों को बंद/विलय करने और दूर-दूर स्थित चंदेक बड़े स्कूल कॉम्प्लेक्स खोलने पर तुली है। जबकि आज ज़रूरत है कि हर बच्चे तक शिक्षा पहुँचे और हर पड़ोस में सरकारी स्कूल हो जो संकट के समय में बच्चों की ज़रूरतों पर खरा उतर सके।
हमारी माँगें -
1. सीबीएसई यह डाटा सार्वजनिक करे कि सत्र 2020-21 में कितने विद्यार्थी 10वीं, 12वीं की बोर्ड परीक्षा फ़ीस नहीं भर पाए थे। परीक्षा फ़ीस ख़त्म होने तक सीबीएसई ख़ुद ऐसा वार्षिक डाटा सार्वजनिक करने की नीति बनाए।
2. सत्र 2020-21 में जो बच्चे फ़ीस नहीं दे पाए थे या किसी अन्य कारण से समय रहते कक्षा X या XII में सीबीएसई रजिस्ट्रेशन नहीं करा पाए थे, उन्हें भी अपने सहपाठियों के साथ क्लास पास करने का मौका दिया जाए।
3. कक्षा X और XII की पूरी बोर्ड फ़ीस बच्चों को वापस की जाए।
4. कक्षा XII तक की शिक्षा को नीतिबद्ध तरीके से पूर्णतः निःशुल्क किया जाए ताकि पैसों की कमी के चलते किसी बच्चे की स्कूली पढ़ाई न छूटे।
5. ऑनलाइन पढ़ाई को थोपना बंद किया जाए।
6. स्कूल विलय की नीति को तत्काल ख़त्म किया जाए।
7. सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों को विश्वविद्यालयों व उच्च-शिक्षा के अन्य संस्थानों में दाखिलों के लिए deprivation points देने की नीति बनाई जाए।
8. पर्याप्त सरकारी कॉलेजों का निर्माण किया जाए ताकि सभी विद्यार्थियों को नियमित उच्च-शिक्षा का अधिकार प्राप्त हो।
CC :
शिक्षा मंत्री, दिल्ली सरकार
निदेशक, सीबीएसई
निदेशक, राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग
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