Friday, 24 February 2023

पूंजीवाद के एनजीओ एजेंट, ख़बरदार! मेहनतकशों के बच्चे आ रहे हैं !

 मेहनतकश के बच्चों की पढ़ाई पर हमला बंद करो!

20 जनवरी के द हिन्दू में छपे लेख 'Flip the page to the chapter on middle school' में रुक्मिणी बनर्जी, प्रथम फाउंडेशन की सीईओ, लिखती हैं, "असर डाटा दिखाता है कि अति-महत्त्वाकांक्षी पाठ्यचर्या और भारतीय स्कूल की आयु-आधारित कक्षा व्यवस्था के कारण बहुसंख्यक बच्चे अपने स्कूल करियर में 'पीछे छूट' जाते हैं... स्कूलों की अकादमिक विषयवस्तु बच्चों को कॉलेज डिग्री के लिए तैयार करने पर आधारित है। जबकि सच यह है कि सैकेंडरी पास करने वाले हर बच्चे के लिए न तो कॉलेज डिग्री उपयुक्त है और न संभव।" 
 
23 जनवरी 2023 के द इंडियन एक्सप्रेस के 'आइडिया एक्सचेंज' में प्रथम फाउंडेशन के सह-संस्थापक एवं अध्यक्ष, माधव चव्हाण ने कहा, "पाठ्यपुस्तकों के ज्ञान की चिंता न करें..यह छलनी (filteration) व्यवस्था एक समस्या है.. हम इसे अति-महत्त्वाकांक्षी पाठ्यचर्या कहते हैं.. पाठ्यचर्या मुश्किल पर मुश्किल होती जा रही है.." 
 
एनजीओ की चिंता: सरकारी स्कूल बहुत ज़्यादा पढ़ा रहे हैं, इनमें पढ़ाई को कम करो 
'प्रथम' के इन दोनों पदाधिकारियों की चिंता यह है कि स्कूल 'बहुत ज़्यादा' पढ़ा रहे हैं और स्कूली पाठ्यचर्या बहुत 'महत्त्वाकांक्षी' है। इसलिए इनका सुझाव है कि स्कूलों की पढ़ाई को कम करना होगा। ज़ाहिर सी बात है कि न ही इनका सुझाव निजी विद्यालयों के लिए है और न ही वो इनकी बात मानेंगे। इनका इशारा सरकारी स्कूलों की तरफ है जिनमें देश के अधिकतम ग़रीब घरों के बच्चे पढ़ते हैं।
5 सालों तक दिल्ली के सरकारी स्कूलों की प्राथमिक शिक्षा में अपनी मनमर्ज़ी चलाने के बाद 'प्रथम' कक्षा VI-VIII में अपनी दुकान लगाने की बात कर रहा है। माधव चव्हाण उस छंटनी की 'चिंता' जता रहे हैं जो बच्चों को स्कूलों से बाहर करती है लेकिन उस छंटनी का क्या जो उन्हें उच्च शिक्षा से बाहर करती आई है। स्कूलों की पढ़ाई हल्की करके तो यह छंटनी और तेज़ होगी।
वैसे भी रुक्मिणी बनर्जी का कहना है कि हर बच्चा कॉलेज जाकर करेगा क्या। इस बात में यह तथ्य निहित है कि क्योंकि इस व्यवस्था में कुछ ही नौकरियाँ ऐसी हैं जिनके लिए पढ़े-लिखे युवा चाहिए, इसलिए सबको शिक्षित नहीं किया जाएगा। चाहे उच्च शिक्षा हो या नौकरियाँ, कुछ सैकड़ों सीटों के लिए लाखों युवा अप्लाई करते हैं। अगर यूँ ही बच्चे पढ़ते रहे तो शिक्षित बेरोज़गार/अर्ध-बेरोगज़ार युवाओं की भीड़ बढ़ती चली जाएगी और इनका ग़ुस्सा सड़कों पर आंदोलन बनकर फूटेगा।
बाज़ार की भी यही चिंता है कि अगर सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले सभी बच्चे अच्छा पढ़-लिख जाएँगे तो आगे चलकर सस्ती मज़दूरी कौन करेगा। पढ़ा-लिखा मज़दूर तो पक्की नौकरी, छुट्टी, इलाज और पेंशन माँगेगा। इसलिए इस व्यवस्था के लिए देश के सभी बच्चों को पढ़ाना ख़तरनाक होता जा रहा है।
ऐसे में इन 'समाजसेवी' संस्थाओं का कहना है कि सब बच्चों को पढ़ने से रोकना होगा।
सबको साक्षर बनाना होगा, लेकिन शिक्षित नहीं। पूंजीवादी व्यवस्था को कुछ ही शिक्षित युवा चाहिए, बाकियों को सिर्फ़ साक्षरता तक रोकना होगा ताकि ये आदेश समझकर मशीन तो चला सकें लेकिन उससे ज़्यादा कुछ न माँग सकें।
 
सरकारों की कोशिशें 
'ज़्यादा बच्चों के पढ़ जाने' की समस्या को सुलझाने के लिए दिल्ली और केंद्र सरकार ने कई कदम उठाए हैं:
1.पहले साल-दर-साल पूंजीवादी संस्थाओं ने यह साबित किया कि सरकारी स्कूलों के बच्चे 'ज़्यादा' पढ़ने-पढ़ाने के लायक नहीं हैं। जैसे 15 साल के सतत मीडिया प्रचार की मदद से प्रथम फाउंडेशन के 'असर' सर्वे ने यह ख़तरनाक भ्रम फैला दिया कि अधिकतम बच्चे सीख ही नहीं पा रहे हैं। 'कक्षा III के बहुत से बच्चे कक्षा I की किताब और कक्षा V के बहुत से बच्चे कक्षा III की किताब नहीं पढ़ पा रहे हैं।' फिर सरकारों ने इन सर्वेक्षणों को झट से अपना लिया और इनके आधार पर नीतियाँ बना दीं।
2. सरकारी स्कूलों के बच्चों को 'नालायक' साबित करने के बाद उनकी किताबें हटाकर उन्हें साक्षरता और अंकगणित प्रोग्राम में धकेल दिया गया। पिछले 4-5 सालों से दिल्ली के सरकारी स्कूलों में कक्षा VIII तक के बच्चे न भाषा में गहरे उतर पा रहे हैं और न ही ढंग से विज्ञान, सामाजिक विज्ञान और गणित पा रहे हैं। वो केवल अधकचरी हिंदी और जमा-घटा सीख रहे हैं। यही है दिल्ली सरकार का 'क्रांतिकारी' मिशन बुनियाद और केंद्र सरकार का 'युगान्तरकारी' मिशन निपुण भारत। राष्ट्रीय शिक्षा नीति ने तो फाउंडेशनल लिटरेसी एंड न्यूमरेसी (FLN) प्रोग्राम को स्कूली शिक्षा की पाठ्यचर्या के केंद्र में ही रख दिया है। (2.2, राशिनी 2020)
विडंबना यह है कि सरकार को बच्चों के न सीखने की चिंता तो है लेकिन उनके न सीख पाने के कारणों की कोई चिंता नहीं है। ग़रीबी और ग़रीबी से जुड़ी मजबूरियों के कारण जो बच्चे नियमित स्कूल नहीं आ पाते या बीमार रहते हैं या जिनके घर पर कोई पढ़ाने वाले नहीं हैं; उन्हें ही कम पढ़ाकर और दण्डित किया जा रहा है। वंचित समूहों के बच्चों के शैक्षिक स्तर को ऊपर उठाने के बजाय उनकी शिक्षा के पैमाने और उद्देश्यों को ही नीचे लाया जा रहा है। यानी नींव भी कच्ची और इमारत भी कच्ची रखी जा रही है।
3. कक्षा 8 के बाद ज़्यादातर छात्रों को उच्च शिक्षा से दूर रखने के लिए उन पर वोकेशनल कोर्स थोपे जा रहे हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 ने कक्षा 6 से ही बच्चों में वोकेशनल शिक्षा के नाम पर नौकरी का डर बिठाना शुरु कर दिया है। नीति का इरादा है कि 2035 तक कॉलेज आने वाले आधे युवाओं को वोकेशनल डिग्री में भेजा जाए ताकि ये अकादमिक शिक्षा की तरफ न जाएँ। (4.2, 4.26, 16.4, राशिनी 2020)
4. मज़दूरों के बच्चों को हर रोज़ ईएमसी (उद्यमी मानसिकता पाठ्यचर्या) पीरियड में यह सिखाया जा रहा है कि सरकार से नौकरी माँगना तो कमज़ोरों, कामचोरों और नाकाबिलों की निशानी है। सरकार की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है बल्कि सब अपने लिए खुद ज़िम्मेदार हैं। चाहे ठेला लगाओ या मेहंदी लगाओ पर 'नौकरी लेने वाले नहीं, नौकरी देने वाले बनो'।
5. ज़्यादा से ज़्यादा बच्चों को 'ओपन' का रास्ता दिखाया जा रहा है। पिछले 5 सालों में दिल्ली के सरकारी स्कूलों के कक्षा 9 से 12 के करीब 9.5 लाख बच्चे ऐसे थे जिनकी पढ़ाई स्कूल पूरा करने से पहले ही छूट गई। राष्ट्रीय शिक्षा नीति तो कहती है कि शिक्षा का अधिकार जाए भाड़ में, बच्चों को तो कक्षा 3, 5, 8 में भी ओपन स्कूलिंग में भेजा जाए। जितने छंटते चले जाएँ, उतना बढ़िया है। (3.5, राशिनी 2020)
6. सरकारों द्वारा कक्षा 10 और 12 की बोर्ड फ़ीस को कई गुना बढ़ाना और वजीफों को लगातार घटाना भी इसी छंटनी प्रक्रिया का एक तरीका है।
7. कहीं विद्यार्थी अपनी बिगड़ती हालत को लेकर जागृत और ग़ुस्सा न हो जाएँ इसलिए दिल्ली सरकार के हैप्पीनेस प्रोग्राम जैसे कोर्स चलाए जा रहे हैं। इसमें बच्चों को सिखाया जा रहा है कि 'जो मिले उसमें खुश रहो'। इसी तरह देशभक्ति पाठ्यचर्या सरकारी स्कूलों के बच्चों की आलोचना शक्ति को कुंद करके उन पर एक पराई मध्यवर्गीय देशभक्ति थोपती है।
8. ऐसा नहीं है कि सरकारी स्कूलों के सभी बच्चों को ज़्यादा पढ़ने से रोका जा रहा है। 1% सरकारी स्कूलों को चमकाने की ज़रूरत तो सरकारों को भी है ताकि वे अपना विज्ञापन जारी रख सकें। इसलिए दिल्ली सरकार ने एसओएसई (एक्सीलेंस स्कूल) और केंद्र सरकार ने पीएम-श्री विद्यालयों का ढोल पीटा है जिनमें प्राइवेट कोचिंग संस्थाओं की मदद से कुछ डॉक्टर, इंजीनियर, वकील, आईएएस प्रत्याशी 'निकाले जाएँगे'। 
 
मेहनतकश का जवाब 
डॉक्टर के बच्चे को डॉक्टर, वकील के बच्चे को वकील, अफ़सर के बच्चे को अफ़सर और मज़दूर के बच्चे को मज़दूर बनाए रखने के लिए वर्ण व्यवस्था एड़ी-चोटी का ज़ोर लगाए हुए है। लेकिन इस पूंजीवादी संतुलन' को मेहनतकश वर्ग के बच्चे 'बिगाड़ने' में लगे हैं:
- दो साल ऑनलाइन पढ़ाई के नाम पर अपने साथ हुए मज़ाक के बावजूद स्कूल लौट आए हैं।  
- 4-5 साल मिशन बुनियाद में जकड़े जाने के बावजूद अपनी नियमित पाठ्यचर्या पढ़ना चाहते हैं।  
- सरकारी स्कूलों में बढ़ती फ़ालतू गतिविधियों और झूठी पाठ्यचर्याओं के बावजूद अपने विषयों को ज़िन्दगी से जोड़ रहे हैं।
- उधार लेकर सीबीएसई को बोर्ड परीक्षा की फ़ीस भर रहे हैं। 
- स्कॉलरशिप न मिलने के बावजूद दसवीं-बारहवीं पूरी कर रहे हैं।  
- सीयूईटी के एलिटिज़्म के बावजूद रेगुलर कॉलेज के सपने देख रहे हैं।
- ग़रीबी, महंगाई, बेरोज़गारी, घरेलू कामों के बावजूद ओपन से कॉलेज कर रहे हैं। 
 
ऐसा ही रहा तो वो दिन दूर नहीं जब ये सरकारी स्कूलों के बच्चे आंदोलन भी करेंगे, पहुँच जाएँगे 'प्रथम' जैसे एनजीओ के दफ़्तरों के बाहर और कहेंगे, "मज़दूरों के बच्चों से बहुत करा ली सस्ती मज़दूरी। अब अपने बच्चों के प्राइवेट स्कूलों को बनाओ साक्षरता के केंद्र, कमज़ोर करो उनकी पाठ्यचर्या, सिखाओ उन्हें वोकेशनल स्किल्स और बनाओ उन्हें सस्ते मज़दूर।"

2 comments:

Anonymous said...

बहुत अच्छा !बार-बार लिखने की जरूरत है! मेरा भी मानना है 15 साल से प्रथम हर बार नई बोतल में उन्हीं बातों को भर भर के सरकार और मीडिया को देता रहता है .अफसोस! शिक्षा मंत्रालय एनसीईआरटी के प्रोफेसर और शिक्षक क्या कर रहे हैं! इसके खिलाफ आवाज क्यों नहीं उठाते? देश का दुर्भाग्य के लेखक, हिंदी का बुद्धिजीवी पागलों की तरह इस तमाशे को देखता रहता है और इसके खिलाफ नहीं खड़ा होता।

Anonymous said...

प्रेमपाल शर्मा दिल्ली, मोबाइल 99713 99046