Tuesday, 24 July 2012

एन . जी .ओ : क्या हकीकत, क्या फ़साना !


एन . जी .ओ : क्या हकीकत, क्या फ़साना !


एक दिन अचानक मेरे एक अफसर का फ़ोन आया यूँ तो उनका फ़ोन पहले भी आता रहा है पर इस बार ये फ़ोन काफी दिनों बाद आया था और चूँकि वो अब दूसरे नगर निगम का हिस्सा हैं तो ये कुछ चौंकाने  वाला भी था ,पहली बार तो इसी सोच में फ़ोन ख़तम हो गया कि क्या बात होगी ,उसके तुरंत बाद ही उनका फ़ोन दूसरी बार भी आ गया इस बार मुझे समझ आ गया कि बात कुछ जरुरी है और मैंने फ़ोन उठा लिया. औपचारिकतायें निभाने के पश्चात उधर से आवाज आई कि तेरी बहुत शिकायत आ रही हैमें कुछ परेशां हुआ कि कौन और क्यों मेरी शिकायत कर रहा है. खैर मैंने अपनी परेशानियों को जाहिर न करते हुए उनसे पुछा कि कौन और क्या शिकायत कर रहा है. उसके बाद जो उन्होंने मुझे बताया वो काफी चौंकाने वाला है .........उन्होंने बताया कि टेक महिंद्रा से मिस मेरे पास आई थी और कह रही थी - "आपके कहने पर हमने Rको बेस्ट टीचर अवार्ड दिया है और वो तो बहुत ही केजुअल है ऐसे  वो टीचर बहुत अच्छा  है पर  हमारी किसी भी मीटिंग में नहीं आता है और न हमसे कभी बात करता है." (ये बात मुझे पहली ही बार सुनने को मिली कि किसी के कहने पर मुझे अवार्ड मिला है मेरा इस अवार्ड के लिए प्रस्ताव देना भी एक हद तक अपने विभाग में जिस तरह से अवार्ड दिया जाता है उसके प्रति विरोध ही था चूंकि  टेक महिंद्रा अवार्ड के बारे में शिक्षकों के बीच ये धारणा है कि ये बिना किसी सिफारिश के दिया जाता है )  मैंने उन्हें बताया कि मैं सिर्फ उनकी एक ही मीटिंग में नहीं गया.  उस समय मैं अपनी पार्टनर के साथ उनके साक्षात्कार के लिए दिल्ली से बाहर गया था. खैर  इस उलाहने के साथ कि उन्होंने मुझे ये अवार्ड दिलवाया  है उन्होंने मुझे निर्देश दिया कि मैं डॉ से बात करूं और उन्हें बताऊँ  कि क्या बात हुई  ......... मैंने एक घंटे  बाद डॉ को फ़ोन किया  पर उन्होंने फ़ोन काट  दिया. इसके  बाद मैंने तीन  चार  घंटे  बाद उन्हें फिर  फ़ोन किया.  फ़ोन पर उनको  मैंने बोला  कि मुझे आपसे  बात करने  के लिए सर ने  बोला  है.  इसके  बाद एक समझाने  का दौर  चला. उन्होंने मुझे समझाना  शुरू किया (या  इसे  आप  धमकाना  भी कह सकते  हैं ) कि मेरा उनके सभी  कार्यक्रमों  में जाना  जरुरी  है और यदि मैं उन कार्यक्रमों में उपस्थित नहीं होता हूँ  तो उन्हें मेरे अवार्ड के बारे में फिर से सोचना पड़ेगा. मैंने उन्हें बताया कि मेरे पास  सिर्फ एक ही बार मेसेज  आया है और उस बार चूँकि मैं व्यस्त  था तो मैंने आपके ऑफिस  में सुचना  दे दी  थी. इस पर डॉ. A  का कहना  था कि जरुरी काम  तो सबको  होते  हैं पर सबको  तो मैं छोड़  नहीं सकती  और आप  अपने  जरुरी  कामों  को कुछ समय के लिए छोड़  भी सकते  हैं. हमने आपको   अवार्ड दिया है और आप  हमारे कार्यक्रम में नहीं आते. उनसे बात करते हुए मुझे दो  बातें  अचानक याद  हो आई. पहली तो यह कि दो  तीन महीने  पहले इनका  फ़ोन आया था कि क्या मैं इनकी  पत्रिका  के संपादक  मंडल  में रहूँगा. मैंने जबाब  दिया था कि फिलहाल  मेरे पास टाइम  नहीं हैबाद में आपको  सोचकर  बता दूंगा  और उसके बाद मैं इस बात को भूल  गया. दूसरी जो बात मुझे याद  आई वो एक शिक्षक  मित्र  के विद्यालय की घटना  है. उनके विद्यालय में 'नन्ही कली'  नाम  से एक एन . जी .ओ. (महेन्द्रा ट्रस्ट व नंदी फौन्डेशन) का कार्यक्रम चल  रहा है उसी  की घटना  वो एक दिन सुना  रहे  थे  कि 'नन्ही कलीमें सभी  लड़कियों  को स्कूल  के लिए कपडे  और अन्य सामान दिया गया है. अब एक कक्षा  के बाहर उसी  संस्था की एक कार्यकर्ता  डेरा जमाये  हुए थी कि कहीं  कोई लड़की  भाग  न जाए.  अब चूँकि प्राथमिक  कक्षाओं  के बच्चे बहुत  बड़े  नहीं होते  हैं तो एक लड़की  नज़र  बचा  कर निकल रही थी और  कार्यकर्ता ने पकड़ लिया और उसे उलाहना दे दिया कि सामान लेते वक्त तो तुमने ले लिया और अब ट्यूशन से भाग रही हो ........... डॉ की बात से भी मुझे इसी तरह का अपमान महसूस हुआ कि अवार्ड लेते वक़्त तो ले लिया और अब इसके कार्यक्रम में आ  नहीं  रहे हो ........ उन्होंने बताया कि उस मीटिंग के बाद भी दो मीटिंग और  हो चुकी है और मैं उनमे जानबूझ के नहीं आया. मैंने साफ़ तौर पे उन्हें बताया कि मेरे पास सूचना नहीं थी.  इस पर  उनका कहना था कि सारे पत्र मेरी टेबल से जाते हैं और सूचना  ना मिली हो ऐसा नहीं हो सकता. खैर मैं पता करके आपको एक घंटे बाद फ़ोन करती हूँ .....ये घटना25 जून की है और आज तक (17 जुलाई ) उनका कोई फ़ोन नहीं आया.
इसके बाद मैंने अपने एक मित्र से बात की जिसे मेरे ही साथ ये अवार्ड मिला है. उसका कहना था कि ऐसी कोई मीटिंग नहीं हुई है और इसकी पुष्टि उन्होंने उनकी जानकार एक और शिक्षिका  से कर ली. ........इस बात से मैं काफी परेशान हुआ कि टेक महिंद्रा के लोगों  ने झूठ क्यों बोला. मैंने ये बात काफी लोगों को  बताई और जानने की कोशिश की कि  उन्होंने मुझे फ़ोन क्यों करवाया ............इसका जवाब मेरी एक मित्र ने दिया जो कि किसी समय नंदी फौन्डेशन मुंबई में काम कर चुकी हैं. उनका कहना था कि उन्हें ये निर्देश दिए जाते थे कि शिक्षकों  और प्रिंसिपल को धमकाना जरुरी होता है और इस काम के लिए उनके ऑफिसर से जान पहचान को इस्तेमाल करो और ऑफिसर  को बोलो कि उन्हें फ़ोन करके धमकाए .......
अब हमारे सामने सवाल है कि ये किस तरह की भलाई है जिसमें लोगों से झूठ बोलना पड़ेउन्हें अनैतिक  तरीके का इस्तेमाल करके अपमानित करना पड़े,और ये किस तरह का अवार्ड है जिसमे पालतू बने बिना आप अच्छे शिक्षक नहीं हो सकते हैं 

Wednesday, 11 July 2012

शिक्षा का अधिकार

शिक्षा का अधिकार 

मैंने उन्हें अदब से दिया 
शिक्षा का अधिकार 
पर वो बदकार मांगते हैं 
के. जी. से  पी.जी तक का अधिकार 

मैंने उन्हें अदब से दिया 
निजी विद्यालयों में भी पढने का अधिकार 
पर वो मांगते हैं 
समान स्कूल व्यवस्था का अधिकार 

वो कमर कसकर हैं तैयार 
रोकने शिक्षा का व्यापार
और हम भी हैं  तैयार 
लेकर पुलिस ,सेना और हथियार .

राजेश 
( भोपाल में 11 से 15 जून की कार्य शाला में लिखा गया )

नहीं होगी सुलह

नहीं होगी सुलह 

मित्रों में नहीं दे सकता इजाज़त
तुम्हें भौतिक  सुख  के साथ 
(और उसी की ताकत पर )
परोपकार का संतोष कमाने की 

तुम्हारी दुनिया में होता होगा 
ऐश -ओ -आराम लूट का माल और 
पुण्य ,भलाई का साथ 

मेरी दुनिया में दोनों का ही 
कोई मूल्य नहीं 
सिवाय इनकी कुरूपता के 

भोगो अपना घटिया अस्तित्व 
रखो या बाँटो अपनी खैरात 
नहीं होगी सुलह हमारे बीच 

- फ़िरोज़ अहमद -

Friday, 6 July 2012

चेन्नई सम्मेलन के उद्देश्यों की लड़ाई के लिए अपील


30 जून -1 जुलाई को चेन्नई में आयोजित सम्मेलन के उद्देश्यों की लड़ाई के लिए अपील

शिक्षा में मुनाफाखोरी खत्म करो, समान स्कूल व्यवस्था लागू करो।



शिक्षा अधिकार कानून 2009 का धोखा-

संविधान बनाने वालों ने आज से 62 साल पहले 0-14 वर्ष (यानि 8 वीं कक्षा) तक के सभी बच्चों को शिक्षा का हक देने का वादा पूरा करने के लिए सरकार को 10 साल दिये थे। सरकार ने 60 साल लगा दिये और दिया भी तो बेकार, घटिया और गैर-बराबरी का अधिकार। उस समय 8वीं पढ़ा व्यक्ति कई सरकारी नौकरियां पा सकता था पर क्या आज आठवीं पास व्यक्ति के लिए सरकार के पास कोई भी नौकरी है? ये तो ऐसा ही हुआ कि किसी ने आपसे दस रूपये 1950 में उधार लिय जब उसमें पूरे परिवार का गुजारा हो जाता था और वापिस 2009 में किये जब दस रूपये में एक व्यक्ति का एक वक्त का खाना भी नहीं आता। ये लोगों व संविधान बनाने वालों के साथ सरासर धोखा है और उनके सपनों के साथ घटिया मजाक है।

मेहनतकश मजदूर वर्ग को यह कानून यह कहकर फुसला और बांट रहा है कि हर प्राइवेट स्कूल की पहली कक्षा में 25 प्रतिशत दाखिले वंचित और कमजोर तबकों के बच्चों को देने का प्रावधान है। अगर किसी इलाके में 100 बच्चे वंचित तबकांे से हैं और प्राइवेट स्कूल की पहली कक्षा में 50 सीटें हैं तो सिर्फ 12-13 बच्चों को ही तो उसमें दाखिला मिलेगा, बाकी 88 बच्चों का क्या होगा? फिर प्राइवेट स्कूल अक्सर इन बच्चों के साथ भेदभाव करते हैं, इनकी अलग क्लास बनाते हैं, छुट्टी के बाद कम पढ़े लोगों से पढ़वाते हैं। ऐसा कानून किस काम का जिससे बराबरी न मिले, सम्मान न मिले?

जब देश के 100 में से 80 स्कूल सरकारी हैं और हर 100 में से 75 विद्यार्थी सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं तो क्या बिना सरकारी स्कूलों को मजबूत किये सबको अच्छी शिक्षा दी जा सकती है?

कानून में ही सरकार ने मान लिया है कि सरकार के सारे स्कूल एक समान नहीं होंगे- कुछ साधारण होंगे तो कुछ खास। यह कैसा कानून है जो कुछ बच्चों को सामान्य स्कूलों में तथा कुछ को विशेष स्कूलों में पढ़ने का हक देता है?

क्या है न्याय एवं बराबरी का रास्ता?



दुनिया में जितने देशों ने अपने सभी बच्चों के लिए बढि़या शिक्षा का बन्दोबस्त किया है वे केवल समान स्कूल व्यवस्था के बल पर ही कर पाये हैं। वहां शिक्षा मुफ्त है और सभी बच्चे, चाहे किसी के भी हों (अफसर या मजदूर के) पड़ोस के एक ही स्कूल में जाते हैं। इससे स्कूल पर दबाव पड़ता है कि वहां अच्छी पढ़ाई हो। हमारे देश में भी आजादी के कई सालों बाद तक सरकारी स्कूलों में न सिर्फ किसान मजदूर के बच्चे पढ़ते थे बल्कि सरकारी अफसरों के बच्चे भी वहीं पढ़ते थे। इसलिये तब सरकारी स्कूलों की स्थिति ठीक थी।

पढ़ाई का पूरा खर्च सरकार उठाये क्योंकि यह देश के हर बच्चे का मौलिक अधिकार है।

शिक्षा को कारोबार नहीं बनने दिया जाये और सभी स्कूल सरकारी खर्च से चलें। जो सरकार काॅमनवेल्थ खेलों पर, बड़े-बड़े हवाई अड्डों पर, पूंजीपतियों-उद्योगपतियों की टैक्स माफी पर और अनगिनत घोटालों पर लोगों के लाखों करोड़ रूपये लुटा सकती है, उसे यह कहने पर शर्म आनी चाहिए कि उसके पास बच्चों की शिक्षा के लिए पैसे की कमी है।

0 से 18 साल तक के बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य का पूरा बन्दोबस्त करना सरकार की जिम्मेदारी है। 
हमारी शिक्षा कैसी हो?

शिक्षा मातृभाषा में दी जाये और उसके साथ अंग्रेजी पढ़ाई जाये।

शिक्षा अच्छा इंसान बनाने वाली हो, विदेशी कम्पनियों के बाजार के लिए खरीददार और दलाल बनाने वाली न हो।

सच्चा-ईमानदार, खुद्दार बनाने वाली हो, बेईमान, लालची बनाने वाली न हो।

जनता के साथ खड़ा होना सिखाने वाली हो, लोगों को लूटना-दुत्कारना सिखाने वाली न हो।

न कमजोर को दबाना सिखाये, न ताकतवर से दबना।

सहयोगी बनाये न कि एक-दूसरे को पछ़ाड़ने वाले भाव जगाये।

समझदार बनाये न कि अंधविश्वासी।

समानता का आदर्श सिखाये न कि अन्याय का पक्षधर बनाये।

सांस्कृतिक विविधता का सम्मान करना सिखाये, न कि संकीर्ण बनाये।

Thursday, 5 July 2012

In the name of critical thinking


In the name of critical thinking
Manoj K. Chahil
Some days ago I was sitting with one of my friends in the canteen and having lunch with her sharing some light moments. We were in the middle of our lunch when another friend joined us. All three of us are research scholars at Delhi University. We were still in the mood of light joking. Meanwhile, the friend who had just come asked me “Tell me, on which side are you?” First, I didn’t understand what she meant, so I asked her to clarify. She remarked that her question was in the context of the recent cartoon controversy. After understanding her emotions and intention I replied that I was on Mayawati’s side. Her response to my answer was unexpected. She expressed wonder that in spite of being an educated person I held this opinion. When I asked her to define ‘educated’ she clarified that it meant a person like me who was a research scholar. The debate between us went for around an hour and it ended without any conclusion except for me being labeled as ‘casteist’.  But there were some serious issues which came out of this discussion and provoked me to study the ongoing cartoon controversy in a more detailed manner. One main point which came out is that how one sees the cartoon. My friend said, “Arey! It clearly says that Ambedkar is sitting on the snail which represents the constitution and both Pandit Nehru and he are using their whips to increase the pace of its making.” Prior to this she also asked me a question as to how does one look at a cartoon? My response was that it varies from person to person as to how one sees this and it’s an individual matter. I proposed to look at the cartoon from another perspective (which one calls Dalit perspective in this controversy) that Dr. Ambedkar is moving the snail ahead and Pandit Nehru who is standing behind is whipping Dr. Ambedkar. The response of my friend on this was, “You people are trying to make an issue out of nothing and you are against critical thinking.”  The question which arises here is that is this critical thinking? To affirm one’s perspective alone and ignore another’s is that critical thinking? And if so then, what is the difference between the earlier textbooks (NCF 2000) and the current ‘progressive’ textbooks (NCF 2005)? The earlier textbooks were full of facts and students had to rote memorize them. If here also we have to provide only information to the children by textbooks without leaving any scope for understanding and reflection then I don’t think it is critical thinking. Those who are contemptuous of the dalit voices against the cartoon are acting as if there is no space for multiple perspectives and construction of knowledge in this case, a stand contrary to NCF 2005 itself.
Some critics say that Dalits are opposing the cartoon because Pandit Nehru belongs to a higher caste and he is portrayed as whipping Dr. Ambedkar who belongs to a lower caste. We cannot ignore this reading of the cartoon as well. Suppose for a moment we believe that there is no whip in Pandit Nehru’s hand or he is missing from the picture, even then is there not a possibility that the message received by both dalit and non-dalit students is that Ambedkar being a Dalit was not capable and that’s why the process of constitution making was getting delayed?
Shankar Pillai made lots of cartoons and he received great acclaim. He was perhaps the greatest cartoonist of his time as a result of which his cartoons are being incorporated in present textbooks. An important question which needs to be answered here is that why a great painter like Maqbool Fida Hussain not been included in the chapter on arts and aesthetics? Why don’t the supporters of so called ‘critical thinking’ raise their voice there? They can’t because it hurts the sentiments of the majority and such intellectuals also would like to keep mum due to fear of a backlash. Why are some people intent on imposing this ‘critical thinking’ on Dalits only?
One more thing which came out in the debate is the issue of the language of a cartoon. People say that a cartoon uses language of symbols. But can students of class 11th and 12th make sense of these symbols? Yogendra Yadav says that there is a separate chapter in the textbook which talks about how to read cartoons. I find that I can’t make sense of many cartoons and therefore I wonder whether it is possible for all students of this age group to make sense of cartoons and particularly that which the cartoonist intended. Here I would like to draw attention to a debate on the Rajya Sabha Channel where scholars like Krishna Kumar, Kancha Ilaiah, Mushirul Hasan, Irfaan (cartoonist) and Yogendra Yadav participated. School children also participated in this debate and I was totally surprised after listening to their responses. It seemed that the students had more understanding than the experts who were there! All the experts were ranged against Kancha Ilaiah who represented the lone voice against the cartoon and they co-opted the responses given by the students. It was made to appear by the clearly one-sided presentation that this cartoon controversy was needless. It is significant that all the students who participated in the debate were from a ‘reputed’ private school of Delhi and we know that such schools serve a very small and privileged section of the society. We can also make inference as to how many Dalit students study there and if they do then which class they come from. Perhaps it was a matter of dignity for the Channel or something else, but it was certainly queer that there was not a single student participant from any government school in the said debate. And we are talking of a fully state established and funded channel here! Were these textbooks made only for private schools? If we honestly want to know about the opinions of students or children about these textbooks then one should go to the area where Dalits live and ask them if there is any effect or not. Similarly, we need to take the question to the students from government schools also. Since one dominant group claims to have the correct understanding of cartoons so it is trying to tell everyone that there is nothing offensive in the cartoon and in fact it is a groundbreaking pedagogic tool which needs to be appreciated by all.
Some people think that children read these cartoons in daily newspapers and on internet, so there should not be any problem if they are included in textbooks. Here, we have to understand the difference between ‘choice’ and ‘compulsion’. At this point of time half of the schools of our country don’t have any extra reading material other than textbooks. The majority of the students of this nation do not have access to any sources which may help and prepare them to familiarize with such mode of representation. Obviously, those who are assuming the commonness of access to such means of communication are either not in touch with the ground realities or they are trying to represent their particular reality as the nation’s reality.
The opposition to the cartoon is being seen as an attack on the academic community and the inappropriate intervention of the parliament. It is true that this debate got politicized and the incident that took place in Pune was deplorable. (And it was indeed condemned by almost all the dalit intellectuals opposing the cartoon.) But is NCERT higher than parliament? Do the elected representatives of the people have no right to question as to what is being taught in the classroom? There is no doubt that the present textbooks are far better than the earlier ones and they provide greater space to children for critical thinking. But it doesn’t imply that there is no possibility of improvement and these are complete in themselves. It would have been better if the institution had taken the objections in the right spirit in the beginning itself and carried out an honest dialogue to understand the sentiments behind the protest and removed the cartoon if found problematic after due deliberation. We need to understand that Dalits have been given no reason by the so called mainstream leadership of this nation to identify with them and therefore it is difficult for them to tolerate even apparent insult to Dr. Ambedkar who is for them the icon because of his liberationary role and not because of lineage or background.
A teachers’ manual needs to be developed which includes this and other cartoons so that teachers become more aware and they can arrange debates at their own level. We also need to institutionalize conditions and resources in schools which motivate all children and encourage them to read newspapers and magazines. Finally, one doesn’t know how much representation of Dalits was there in the textbook committees of NCERT but it is necessary to make sure, in the context of this debate, that there should be proper representation of Dalits in all public work of this kind.

Manoj K. Chahil is a research scholar at Department of Education, University of Delhi.

सत्य विहार, बुरारी में जन सभा की फोटो