30 जून -1 जुलाई को चेन्नई में आयोजित सम्मेलन के उद्देश्यों की लड़ाई के लिए अपील
शिक्षा में मुनाफाखोरी खत्म करो, समान स्कूल व्यवस्था लागू करो।
शिक्षा अधिकार कानून 2009 का धोखा-
संविधान बनाने वालों ने आज से 62 साल पहले 0-14 वर्ष (यानि 8 वीं कक्षा) तक के सभी बच्चों को शिक्षा का हक देने का वादा पूरा करने के लिए सरकार को 10 साल दिये थे। सरकार ने 60 साल लगा दिये और दिया भी तो बेकार, घटिया और गैर-बराबरी का अधिकार। उस समय 8वीं पढ़ा व्यक्ति कई सरकारी नौकरियां पा सकता था पर क्या आज आठवीं पास व्यक्ति के लिए सरकार के पास कोई भी नौकरी है? ये तो ऐसा ही हुआ कि किसी ने आपसे दस रूपये 1950 में उधार लिय जब उसमें पूरे परिवार का गुजारा हो जाता था और वापिस 2009 में किये जब दस रूपये में एक व्यक्ति का एक वक्त का खाना भी नहीं आता। ये लोगों व संविधान बनाने वालों के साथ सरासर धोखा है और उनके सपनों के साथ घटिया मजाक है।
मेहनतकश मजदूर वर्ग को यह कानून यह कहकर फुसला और बांट रहा है कि हर प्राइवेट स्कूल की पहली कक्षा में 25 प्रतिशत दाखिले वंचित और कमजोर तबकों के बच्चों को देने का प्रावधान है। अगर किसी इलाके में 100 बच्चे वंचित तबकांे से हैं और प्राइवेट स्कूल की पहली कक्षा में 50 सीटें हैं तो सिर्फ 12-13 बच्चों को ही तो उसमें दाखिला मिलेगा, बाकी 88 बच्चों का क्या होगा? फिर प्राइवेट स्कूल अक्सर इन बच्चों के साथ भेदभाव करते हैं, इनकी अलग क्लास बनाते हैं, छुट्टी के बाद कम पढ़े लोगों से पढ़वाते हैं। ऐसा कानून किस काम का जिससे बराबरी न मिले, सम्मान न मिले?
जब देश के 100 में से 80 स्कूल सरकारी हैं और हर 100 में से 75 विद्यार्थी सरकारी स्कूलों में पढ़ते हैं तो क्या बिना सरकारी स्कूलों को मजबूत किये सबको अच्छी शिक्षा दी जा सकती है?
कानून में ही सरकार ने मान लिया है कि सरकार के सारे स्कूल एक समान नहीं होंगे- कुछ साधारण होंगे तो कुछ खास। यह कैसा कानून है जो कुछ बच्चों को सामान्य स्कूलों में तथा कुछ को विशेष स्कूलों में पढ़ने का हक देता है?
क्या है न्याय एवं बराबरी का रास्ता?
दुनिया में जितने देशों ने अपने सभी बच्चों के लिए बढि़या शिक्षा का बन्दोबस्त किया है वे केवल समान स्कूल व्यवस्था के बल पर ही कर पाये हैं। वहां शिक्षा मुफ्त है और सभी बच्चे, चाहे किसी के भी हों (अफसर या मजदूर के) पड़ोस के एक ही स्कूल में जाते हैं। इससे स्कूल पर दबाव पड़ता है कि वहां अच्छी पढ़ाई हो। हमारे देश में भी आजादी के कई सालों बाद तक सरकारी स्कूलों में न सिर्फ किसान मजदूर के बच्चे पढ़ते थे बल्कि सरकारी अफसरों के बच्चे भी वहीं पढ़ते थे। इसलिये तब सरकारी स्कूलों की स्थिति ठीक थी।
पढ़ाई का पूरा खर्च सरकार उठाये क्योंकि यह देश के हर बच्चे का मौलिक अधिकार है।
शिक्षा को कारोबार नहीं बनने दिया जाये और सभी स्कूल सरकारी खर्च से चलें। जो सरकार काॅमनवेल्थ खेलों पर, बड़े-बड़े हवाई अड्डों पर, पूंजीपतियों-उद्योगपतियों की टैक्स माफी पर और अनगिनत घोटालों पर लोगों के लाखों करोड़ रूपये लुटा सकती है, उसे यह कहने पर शर्म आनी चाहिए कि उसके पास बच्चों की शिक्षा के लिए पैसे की कमी है।
0 से 18 साल तक के बच्चों की शिक्षा और स्वास्थ्य का पूरा बन्दोबस्त करना सरकार की जिम्मेदारी है।
हमारी शिक्षा कैसी हो?
शिक्षा मातृभाषा में दी जाये और उसके साथ अंग्रेजी पढ़ाई जाये।
शिक्षा अच्छा इंसान बनाने वाली हो, विदेशी कम्पनियों के बाजार के लिए खरीददार और दलाल बनाने वाली न हो।
सच्चा-ईमानदार, खुद्दार बनाने वाली हो, बेईमान, लालची बनाने वाली न हो।
जनता के साथ खड़ा होना सिखाने वाली हो, लोगों को लूटना-दुत्कारना सिखाने वाली न हो।
न कमजोर को दबाना सिखाये, न ताकतवर से दबना।
सहयोगी बनाये न कि एक-दूसरे को पछ़ाड़ने वाले भाव जगाये।
समझदार बनाये न कि अंधविश्वासी।
समानता का आदर्श सिखाये न कि अन्याय का पक्षधर बनाये।
सांस्कृतिक विविधता का सम्मान करना सिखाये, न कि संकीर्ण बनाये।
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