Tuesday, 26 January 2016

कविता: तुम्हें पता है

शिप्रा 
प्राथमिक शिक्षिका 

तुम्हें पता है
मैं जब छोटी थी तो मिथुन की तरह डांस करती थी
रामखिलावन अंकल की दुकान से पाँच किलो की थैली भरी सब्जी उठा लेती थी
और तुम्हें पता है क्या
ज्ञानी अंकल की दुकान का पूरा एक ग्लास कुल्फी फ़लूदा गड़प कर लेती थी
साथ में अब्दुल अंकल के एक पत्ता मूली के पकोड़े भी
वो भी हरी मिर्च और हरी चटनी के साथ
और क्या तुम जानते हो
मैं एक ऐसे कोने में रहती थी
जहां मंदिर मस्जिद गुरद्वारा चर्च सब सौ मीटर की दूरी पर ही साथ साथ बने थे
और मजे की बात आज भी वहीं हैं
एक और मजे की बात
वो सब दुकानें भी वहीं है
और मैं नहीं तो क्या
कोई और बचपन उन सब लज़ीज़ लाजवाब चीजों का लुत्फ उठा रहा है
उसी मासूमियत के साथ
मेरे इलाक़े में वही प्यार है
मेरे इलाक़े में वही अमन है

इसे अपनी राजनीति का आखाडा मत बनाओ । 

27 जनवरी को यूनाइटेड फ्रंट ऑफ एम सी डी इम्पलॉयीज़ के बैनर तले हड़ताल के स्वागत व समर्थन में


लोक शिक्षक मंच यूनाइटेड फ्रंट ऑफ एम सी डी इम्पलॉयीज़ के बैनर तले नियमित समय पर वेतन दिए जाने की माँग पर 27 जनवरी की हड़ताल के आह्वान का स्वागत व समर्थन करता है और शिक्षक साथियों से इसे पूरी तरह सफल बनाने की अपील करता है। साथ ही हम दिल्ली के सभी जन पक्षधर संगठनों से अपील करते हैं कि वो इसमें दिल्ली नगर निगम के कर्मचारियों को सहयोग दें और 27 जनवरी को होने वाली हड़ताल के  समर्थन में सुबह 11 बजे जन्तर मंतर पर सभा में शामिल हों।  



इस संदर्भ में शिक्षकों की ओर से पहले क़दम के तौर पर इस दिन चॉक-डाउन हड़ताल का पालन होना तय हुआ है, हमें याद करना होगा कि यह उस 'टूल डाउन' का ही स्वरूप है जिसे कि औद्योगिक मज़दूरों के आंदोलनों ने पूँजी के शोषण के विरुद्ध अपने संघर्षों में रचा है। असल में मज़दूरों ने टूल-डाउन या सिट-इन कार्यस्थल पर डटे रहकर काम ठप्प करने की रणनीति को अंजाम देने के लिए इस्तेमाल किया जिससे कि उनकी जगह दूसरे मज़दूरों को रखकर, उनकी हड़ताल को तोड़ा न जा सके। एक अन्य मायने में यह भारत की आज़ादी की लड़ाई में अपनाए गए असहयोग आंदोलन में भी निरूपित हुआ। सिट-इन या टूल-डाउन का इतिहास लगभग सौ वर्ष पुराना है और ज़ाहिर है कि अपने संगठित रूप में यह औद्योगिक इकाइयों व पूँजीवादी व्यवस्थाओं में उपजा। 1906 में संयुक्त राज्य अमरीका में जनरल इलेक्ट्रिक के मज़दूरों का अपने साथियों की बर्खास्तगी के विरोध में उत्पादन ठप्प कर देना हो या 1968 के छात्र विद्रोह की कड़ी में फ्रांसीसी मज़दूरों द्वारा बड़े स्तर पर हड़ताल करके कारखाने अपने कब्ज़े में लेना हो या फिर 2012 में मारुती सुजुकी मज़दूरों का ठेकाकरण व काम की शोषणकारी परिस्थितियों के खिलाफ और यूनियन बनाने के अधिकार के लिए हड़ताल करने का उदाहरण हो, इतिहास हड़ताल की ताक़त व ज़रूरत का गवाह है।

                            हमें यह भी याद रखना चाहिए कि यह हड़ताल न किसी नीति से उपजे असंतोष के कारण हो रही है, न कर्मचारियों की बर्खास्तगी के विरुद्ध, न काम के घंटे बढ़ाए जाने या छुट्टियाँ कम किये जाने के विरुद्ध और न ही कोई सुविधा वापस लेने या छँटनी के विरुद्ध। यह निगम द्वारा अपने कर्मचारियों से बेगार लेने के विरुद्ध है। आंदोलन के प्रथम चरण के स्तर पर यूनियन का यह निर्णय लेना कि शिक्षकों को विद्यार्थियों की हाज़िरी लेनी है, मिड-डे-मील बँटवानी है और उनकी सुरक्षा का भी ध्यान रखना है, एक ज़िम्मेदारी व समझदारी भरा उदाहरण प्रस्तुत करता है। फिर भी हमारे सामने इस चुनौती से निपटने की भी बौद्धिक-राजनैतिक तैयारी होनी चाहिए कि एक तो हम अपने विद्यार्थियों की वर्गीय परिस्थिति के संदर्भ में अपनी लड़ाई को उनकी लड़ाई से जोड़े रखें और दूसरे इस हक़ीक़त को उनके माता-पिता व परिवारों के साथ एकजुटता बढ़ाने के काम लायें। कोई भी हड़ताल हमारी एक पेशागत इकाई के रूप में पहचान व एकजुटता को गहरा करने में मददगार होती है और शायद यही वजह है कि सत्ता हड़तालों से इस क़द्र घबराती है कि क़ानून बनाकर उन्हें प्रतिबंधित कर देती है। मगर नर्सों, शिक्षकों, सफाईकर्मियों, डॉक्टरों, मालियों, मज़दूरों, इंजीनियरों आदि की इस संयुक्त हड़ताल में यह संभावना है कि यह हमें अपने पेशे मात्र से एक बड़ी और अधिक मानवीय पहचान तथा पक्षधरता देगी। इस अर्थ में यह हड़ताल ऐतिहासिक हो सकती है बशर्ते हम इसका स्वागत व इस्तेमाल मेहनतकशों के बीच आपसी रिश्ते व एकजुटता बनाने के लिए कर पायें। 
वेतन का भुगतान नहीं होने की स्थिति सिर्फ हमारे व्यक्तिगत अस्तित्व से नहीं जुड़ी है। हमें आशंका है कि कल इसी को पूरी सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को ही खारिज करके ध्वस्त करने के लिए इस्तेमाल किया जाएगा। एक ओर यह दलील दिए जाने तथा शिक्षकों द्वारा इसका विरोध नहीं करने का खतरा है कि क्योंकि निगम वेतन नहीं दे पा रहा है इसलिए स्कूलों को निजी हाथों में दे दिया जाए जोकि समय पर वेतन दे सकेंगे। फिर उन्हें इस 'क़ाबिल' बनाने को स्कूलों के परिसरों को ही व्यावसायिक उपयोग की अनुमति दे दी जाए। दूसरी तरफ हमारी रचनाशीलता व जनपक्षधरता के तत्वों के बिना अगर हड़ताल लम्बी चलती है तो एक वर्ग हमारे संघर्ष को जायज़ मानते और उससे सहानुभूति रखते हुए भी धीरे-धीरे निजी स्कूलों का रुख़ करने को मजबूर होगा। चाहे वह सार्वजनिक स्कूलों का निजीकरण हो या फिर उसमें पढ़ने वाले बच्चों का निजी स्कूलों की तरफ पलायन, दोनों ही स्थितियाँ हमारे तथा हमारे विद्यार्थियों के पक्ष में नहीं हैं। 
        अब जबकि हम कई महीनों बिना वेतन के काम करते रहे हैं, हममें से कुछ ने ज़रूर अभाव का समय ग़ुजारा होगा। बहुतों ने यार-दोस्तों से उधार लिए होंगे जोकि सहज आत्मीयता के दायरे में होने के कारण ब्याज के छल से मुक्त रहे होंगे। निःसंदेह इन दोनों अनुभवों ने हमें आगे के संघर्षों के लिए और मज़बूत और मानवीय भी बनाया होगा।   
लोक शिक्षक मंच इस हड़ताल का वृहद राजनैतिक चेतना व गठबंधन विकसित होने की संभावना के संदर्भ में स्वागत करता है और इसे सफल बनाकर, सभी माँगों को मनवाने तथा सर्व-कर्मचारी एकजुटता क़ायम रखने का संकल्प लेता है।    

Friday, 22 January 2016

प्रैस विज्ञप्ति: क्रांतिकारी युवा संगठन के साथी शहनवाज़ के पुलिसिया उत्पीड़न व साम्प्रदायिक बदसलूकी के खिलाफ


लोक शिक्षक मंच आज दिनाँक 22 जनवरी 2016 को दिल्ली पुलिस द्वारा क्रांतिकारी युवा संगठन के साथी शहनवाज़ के राजनैतिक अधिकारों का हनन करके हिरासत में लिए जाने और साम्प्रदायिक बदसलूकी किये जाने का सख्त विरोध करता है। शहनवाज़ को दिल्ली पुलिस ने आज सुबह तब डिटेन कर लिया जब वह अपने पुराने विद्यालय - राजकीय बाल उच्चतर माध्यमिक विद्यालय, वेस्ट पटेल नगर - के बाहर सरकारी व निजी स्कूलों के संदर्भ में शिक्षा में व्याप्त असमानता पर एक डॉक्यूमेंट्री बनाने के लिए रिकॉर्डिंग कर रहा था। यह शर्मनाक और नाकाबिले-बर्दाश्त है कि शहनवाज़ को न सिर्फ अपना पहचान-पत्र दिखाने व उसके पुराने स्कूली शिक्षकों द्वारा पहचानने पर भी नहीं छोड़ा गया बल्कि पटेल नगर थाने में ले जाकर उसको मज़हबी पहचान की बिना पर घृणास्पद सम्बोधनों, टिप्पणियों व धमकियों का निशाना बनाया गया। अंततः पुलिस को KYS के कार्यकर्ताओं के दबाव में शाम होते-होते शहनवाज़ को छोड़ना पड़ा।
यह घोर चिंता का विषय है कि जहाँ एक ओर नरसंहारों के आरोपियों/दोषियों को क़ानून का इस क़द्र संरक्षण प्राप्त है कि वो संवैधानिक पदों तक पर आसीन हैं वहीं देश के मेहनतकश वर्गों के लोकतान्त्रिक अधिकारों तथा समानता के पक्ष में काम करने वाले युवाओं को प्रताड़ित करने के लिए 'सुरक्षा' के छद्म बहाने गढ़ लिए जाते हैं और उनके साधारण व मौलिक अधिकारों तक को कुचल दिया जाता है। इस प्रकरण से हमें एक बार फिर लोकतान्त्रिक अधिकारों पर राज्य के बढ़ते दमन तथा राज्य तंत्र में फैलाई जा रही साम्प्रदायिक असहिष्णुता व हिंसा का उदाहरण मिलता है। हमें यक़ीन है कि KYS व हम अन्य जनवादी संगठनों के साथी ऐसी फासीवादी कार्रवाइयों की चुनौती के प्रति दोगुने हौसले के साथ समानता व इंसाफ के हक़ में डटे रहेंगे।
हम माँग करते हैं कि शहनवाज़ के अधिकारों व गरिमा का हनन करने वाले पुलिसकर्मियों के खिलाफ निष्पक्ष जाँच हो तथा दोषी पाये जाने पर उनके विरुद्ध उचित कार्रवाई हो। हम यह भी माँग करते हैं कि पुलिस को सख्त हिदायत दी जाए कि वो लोकतान्त्रिक कायकर्ताओं व कलाकारों का उत्पीड़न करना बंद करे और हर नागरिक के साथ अपनी बोलचाल तथा अपने व्यवहार में क़ानून व सभ्य मर्यादा का पालन करे।      

Monday, 11 January 2016

कविता: नेल पॉलिश वाली बच्ची

राजेश आज़ाद
प्राथमिक अध्यापक 
स्कूल में पाँचवीं कक्षा की एक बच्ची से
डाँटते हुए पूछा मैंने
उसके नाखूनों पर लगे
नेल पॉलिश का कारण
वो थोड़ा शरमाई-सकुचाई
फिर बोली, ये नेल पॉलिश नहीं
चूड़ी पर सितारे लगाने के बाद
लगी रह जाती है गोंद नाखूनों पर ।
इस सितारे लगाने के मिलते हैं
उसे एक बॉक्स के बीस रुपए
एक बॉक्स चूड़ियाँ बनाने में
लग जाता है पूरा दिन ।
फिर पूरे आत्मविश्वास के साथ
उसने बताया  
चुड़ियाँ बनाने के बाद वो होमवर्क
करके ही सोती है ।
आँखें उसकी कमजोर हैं
कक्षा में बोर्ड पे लिखा
दिखता है उसे धुंधला
उसे लगता है कि देखती है टीवी ज्यादा ।
बीस रुपए में से पाँच की
खाती है रोज़ वो चीज
दस रुपए स्कूल आने पर खर्च करती है
और बाकी के पाँच रुपए
वो जमा कर रही है
अपने जन्मदिन के लिए
खरीदेगी एक जींस
देगी अपने दोस्तों को पार्टी
और सर को एक चॉकलेट । 


Saturday, 9 January 2016

एनजीओ की सरकारें या सरकारों के एनजीओ

वर्ष 2013 के बाद से, जब लोक शिक्षक मंच द्वारा लिखित और किशोर भारती द्वारा प्रकाशित स्कूलों का एनजीओकरण – नवउदारवाद का एक और चेहरा’ पुस्तिका छपी थी, देश के प्रशासन के स्तर पर और खुद हमारे कार्यक्षेत्र व अनुभवों में कई ऐसी चीज़ें घटी हैं जिनपर बात करना ज़रूरी है। केंद्र में भाजपा के नेतृत्व में एन डी ए सरकार के गठन के बाद ख़ुफ़िया एजंसियों की चुनिंदा (लीक की गईं) रपटों को आधार बनाकर कुछ राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय नामी-गिरामी एनजीओ - ग्रीनपीस, अनहद आदि - के खिलाफ सरकार द्वारा व्यापक अभियान चलाया गया। इनके कामों पर तरह-तरह से रोक लगाने की कोशिशें भी जारी हैं। इन बदले की भावना से प्रेरित कार्रवाइयों का उद्देश्य सत्ताधारी दल द्वारा प्रशासनिक मशीनरी का दुरुपयोग करके राजनैतिक विरोध को उत्पीड़ित करना और पर्यावरण से लेकर मानवाधिकारों के अपराधों के विरुद्ध काम कर रहे चुने हुए कार्यकर्ताओं/संस्थाओं (एनजीओ) को कुचलना है। हम यह बात इसलिए दर्ज कर रहे हैं क्योंकि एनजीओ की राजनीति से विरोध रखने के बावजूद हम सरकार द्वारा प्रायोजित इन कार्रवाइयों का संदर्भ व चरित्र समझते हुए न सिर्फ इन कार्रवाइयों का स्वागत नहीं करते हैं बल्कि इनके प्रति अपनी असहमति भी जताते हैं। निश्चित ही शिक्षा सहित लगभग सभी सार्वजनिक क्षेत्रों में कॉरपोरेट व संघी विचारधारा के एनजीओ की बढ़ती भूमिका सरकार के खतरनाक इरादों को और स्पष्ट कर देती है और हमें इस बात का कोई भ्रम नहीं पालने देती है कि सरकार को एनजीओ के साम्राज्यवादी-पूँजीवादी चरित्र से कोई ऐतराज़ या समस्या है। 
राज्य के स्तर पर चाहे वो पीपीपी की नीति हो या सीएसआर (कॉरपोरेट सोशल रिस्पांसिबिलिटी) का मॉडल, केंद्र से लेकर दिल्ली सरकार और नगर निगम के स्तर तक हम अपने स्कूलों में एनजीओ के माध्यम से पूँजी की बढ़ती कब्जेदारी देख रहे हैं। जहाँ दिल्ली के तीनों निगमों के स्कूलों में काम कर रहे एनजीओ की संख्या में इज़ाफ़ा हुआ है, वहीं दिल्ली सरकार के स्कूलों में भी इन्हें पहली बार बड़ा प्रवेश दिया गया है। दक्षिणी दिल्ली नगर निगम ने अपने लाजपत नगर के एक स्कूल को दो वर्षों के लिए आर्क फाउंडेशन नाम के एनजीओ को सौंप दिया है और इस संबंध में अखबारों में लगातार ये प्रचारी खबरें छपवाई हैं कि एनजीओ के हाथों में जाने के बाद नामांकन में ज़बरदस्त बढ़ोतरी हुई है। इसके विपरीत हमको नामांकन संबंधी आरटीआई अर्जियों के जवाब नहीं भेजे गए हैं। इन दोनों तथ्यों से हमारा यह विश्वास पुख्ता होता है कि हमारे साथी-सूत्र की यह बात सच है कि एनजीओ को स्कूल देने का फैसला पहले ही कर लिया गया था - नामांकन का हवाला देना तो एक बहाना था - तथा अगले सत्रों में और स्कूल ऑउटसोर्स किये जाएँगे। दिल्ली सरकार ने तो न सिर्फ टीच फॉर इंडिया नामक एनजीओ को 25% पाठ्यकर्म कम करने जैसे विशुद्ध अकादमिक काम में भूमिका प्रदान की, बल्कि 54 स्कूलों में 'प्रथम' को बच्चों के (गणित व भाषा) सीखने के स्तर को मापने और उसमें 'सुधार' लाने के लिए समय व सामग्री के सुनियोजित हस्तक्षेप की जगह दी है, सीएसफ - जिसका परिचय कहता है कि कॉरपोरेट व धर्मार्थ क्षेत्रों में निवेश के निर्णय लेना ही उनका मज़बूत पक्ष है - से जुड़े क्रिएटनेट एजुकेशन नाम के एनजीओ को शिक्षा निदेशालय व एस सी ई आर टी, दिल्ली  के साथ स्कूलों के प्रधानाचार्यों के 'नेतृत्व विकास' पर काम करने को कहा है और 'साझा' नामक एनजीओ को स्कूल प्रबंधन समितियों को अधिक प्रभावी बनाने की ज़िम्मेदारी दी है। साथ ही, एक ओर जहाँ बच्चों और शिक्षा के विरुद्ध 'नो डिटेंशन नीति' को हटाने का विधेयक पारित किया गया है वहीं दूसरी ओर देशभर में हो रहे मज़दूरों के हक़ों के हनन की तर्ज पर शिक्षकों के वेतन को कम करने का निजी-प्रबंधन हितैषी विधेयक भी पारित करके दिल्ली सरकार ने अपनी राजनीति और स्पष्ट कर दी है। उधर नगर निगम के स्कूलों में एक तरफ तेज़ी से टीच फॉर इंडिया को दखल दिया गया है और दूसरी तरफ स्कूलों को बंद करने, 'मर्ज' करने और उनके प्रांगणों को कोचिंग सेंटर व व्यावसायिक संस्थाओं के इस्तेमाल के लिए देने के खतरनाक निर्णयों की घोषणाएँ भी हुई हैं। यहाँ तक कि दिल्ली नगर निगम अपने स्कूलों में बैंकों को एटीएम लगाने के लिए जगह देने पर भी विचार कर रही है। इस दौरान, दलगत कारणों से निगम व राज्य सरकार के बीच हो रही खींचातानी के चलते, निगम शिक्षकों को कई महीनों से वेतन का भुगतान नहीं किया गया है। यह आशंका निराधार नहीं है कि शिक्षकों को वेतन नहीं दे पाने की स्थिति को स्कूलों के निजीकरण और एनजीओकरण के पक्ष में इस्तेमाल किया जाएगा। जब बढ़ते सकल घरेलू उत्पाद, शिक्षा पर लगे उपकर, बंद होते स्कूल और अन्य कर्मचारियों की तरह शिक्षकों के बढ़ते ठेकाकरण के बावजूद शिक्षकों की तनख्वाहें देने में असमर्थता जताई जा रही हो तो इसे वित्तीय संकट नहीं बल्कि राजनैतिक नीयत के धरातल पर ही समझना तथा लड़ना होगा।  
इस बीच केंद्र सरकार के स्तर पर जहाँ बेहद कृत्रिम व पूर्व-नियोजित अफसरशाही ढंग से नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति बनाने की कवायद चलाई गई है, वहीं तमाम संस्थानों में अकादमिक रूप से घटिया व विचारधारात्मक रूप से दक्षिणपंथी/फासीवादी व्यक्तियों की नियुक्तियाँ करके, नॉन-नेट वज़ीफ़े पर कुठाराघात करके और आन्दोलनरत विद्यार्थियों का प्रशासनिक दमन व पुलिसिया उत्पीड़न करके सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद करने की योजनाबद्ध प्रक्रिया को और खतरनाक रूप दिया गया है। देशभर में हुए विरोध के बावजूद हाल ही में सम्पन्न विश्व व्यापार संगठन के नैरोबी सम्मेलन में उच्च-शिक्षा को विश्व-व्यापार के हवाले करने के निर्णय को वापस न लेना और साम्राज्यवादी-पूँजीवादी हितों के मुताबिक़ वार्ताओं को गोपनीय बनाए रखना व घुटने टेक देना सरकार की इसी पक्षधरता को प्रकट करता है। 
इन सबके बावजूद हमारे पास उत्साहित होने और प्रेरणा लेने के कारण भी हैं। पिछले वर्षों की तुलना में लोक स्तर पर और विभिन्न सामाजिक समूहों में, विशेषकर दलित कार्यकर्ताओं, लेखकों व चिंतकों के बीच, एनजीओ की राजनीति तथा परिघटना पर सवाल खड़े होने शुरु हुए हैं। अक्टूबर 2015 में हरियाणा के सिरसा ज़िले की दलित पृष्ठभूमि की छात्रा ज्योति द्वारा अपनी कॉलेज की पढ़ाई जारी रखने के लिए तीन साल तक यात्रा पर आने वाले खर्चे के लिए एक एनजीओ की 63,000 रुपये की पेशकश को सरकार से बस-पास के हक़ की माँग के पक्ष में ठुकराना इसी चेतना का बेहतरीन उदाहरण है। इसी तरह भारत की स्थापित पत्रकारिता व प्रिंट माध्यम में भी अंतर्राष्ट्रीय पूँजी के 'परोपकारी' निवेश पर गंभीर सवाल खड़े किये जा रहे हैं। 17 अक्टूबर 2015 के ईपीडब्लू में जाह्नवी सेन का 'कमोडिफिकेशन ऑफ़ गिविंग बैक इन अ निओ-लिबरल वर्ल्ड' और 6 दिसंबर 2015 के द हिन्दू में जी सम्पथ का 'द आर्ट ऑफ़ प्रॉफिटेबल गिविंग' इसी कड़ी के दो ताज़ा उदाहरण हैं। स्कूलों के संदर्भ में हमारा अनुभव भी बताता है कि शिक्षकों तथा विद्यार्थियों के बीच हम इस मुद्दे को ले जा पाने और इस पर एक समझ बनाने में कुछ हद तक सफल हुए हैं। 
इस दौरान हम 'नन्हीं कली' कार्यक्रम को न सिर्फ अपने स्कूलों में औपचारिक प्रवेश मिलने से रोकने में सफल रहे हैं, बल्कि इस विषय पर अन्य शिक्षक साथियों के साथ चलते रहे संवाद के कारण ही इसके प्रबंधकों द्वारा 'मदद' के नाम पर स्कूल में अनौपचारिक घुसपैठ करने की योजना को भी नाकाम किया गया है। 2014 में भोपाल गैस त्रासदी की 30वीं वर्षगांठ के अवसर पर हमारे द्वारा इलाक़े में बाँटे गए पर्चों से बौखलाकर 'नन्हीं कली' प्रबंधकों ने अपने एक प्रायोजित एनजीओ के माध्यम से स्कूल प्रशासन के समक्ष लोक शिक्षक मंच के एक शिक्षक साथी के खिलाफ मनगढ़ंत आरोप लगवाए। हमने एक तरफ स्कूल प्रशासन द्वारा खुली जाँच को आमंत्रित किया और दूसरी तरफ अभिभावकों, पुराने विद्यार्थियों तथा अन्य स्थानीय लोगों के बीच एनजीओ की इस घिनौनी-झूठी कारस्तानी का पर्दाफाश करने का अभियान चलाया। इसका असर यह हुआ कि जहाँ जाँच में आरोप बेबुनियाद पाये गए, वहीं लोगों में एनजीओ के प्रति अविश्वास और बढ़ गया। यही वजह है कि इस इलाक़े में आज बहुत कम छात्राएँ इस कार्यक्रम में भाग ले रही हैं - तथा इसमें नामांकित छात्राओं की संख्या में लगातार गिरावट आ रही है - और प्रबंधकों को मजबूरी में अपनी मुफ्त किट भी लड़कों (छात्रों) व यहाँ तक कि वयस्कों में 'बाँटनी' पड़ रही हैं! इसी तरह हम मैजिक बस जैसे उस एनजीओ को, जो आज से पहले स्कूल में बिना इजाज़त और बे-रोकटोक काम कर रहा था, आर टी आई व राजनैतिक संवाद के बल पर मिले स्कूल प्रशासन व शिक्षक साथियों के सहयोग से बाहर करने में कामयाब हुए हैं। इन हौसला बढ़ाने वाली सफलताओं के बावजूद हमें स्थिति की गंभीरता का भली-भाँति अंदाज़ा है। आखिर आज हालत यह है कि कोलगेट की तरह कोई भी कम्पनी बिना किसी औपचारिक प्रक्रिया अपनाए या इजाज़त लेने की ज़हमत उठाए बिना हमारे स्कूलों में आकर नियमित दिनचर्या में अनिधिकृत परन्तु आदेशपरक लहजे में हस्तक्षेप करके, बच्चों की सूची बनवाकर उन्हें (व शिक्षकों को) मुफ्त टूथपेस्ट-ब्रश बाँटकर आसानी से अपने धंधे के पक्ष में सामाजिक-नैतिक वैधता निर्मित कर सकती है। टीवी पर भी कोका कोला, उषा और एनडीटीवी जैसे नामी कॉरपोरेट ब्रांडों द्वारा 'ग़रीब बच्चों की शिक्षा' प्रायोजित करने के परोपकारी प्रचार देखे जा सकते हैं। सोशल मीडिया पर तो ऐसे देशी-विदेशी प्रचारों की भरमार ही है जोकि संभावित मध्यमवर्गी पाठकों/दर्शकों व दानदाताओं को 'ग़रीब' बच्चों को गोद लेने और उनकी शिक्षा प्रायोजित करने को आमंत्रित करते हैं। स्वयं सरकार के स्तर पर केंद्र से लेकर राज्यों तक कॉरपोरेट घरानों से अपील की जा रही है कि वे सार्वजनिक स्कूलों को 'गोद' लेकर चलाएँ। गुजरात में तो मिड-डे-मील को स्थानीय रईसों द्वारा प्रायोजित कराकर देश के बच्चों को सदाशयी सामंती वर्गों के परोपकार के अधीन करने की नीति लागू की जा चुकी है। कहना मुश्किल है कि इस 'गोद' लेने/देने की भाषा में किसने किसका अनुसरण किया है। अंततः चाहे जबरन व प्रत्यक्ष हिंसा से संसाधन कब्जाने का मामला हो, चाहे भूमि-अधिग्रहण व श्रम क़ानूनों में संशोधनों के ज़रिये लूट बढ़ाने के उदाहरण हों या फिर सामंती-वैश्विक पूँजी की छद्म-परोपकारिता के हथकंडे हों, इन प्रक्रियाओं में हम पृथ्वी पर समस्त सामाजिक जीवन को मुनाफे के लिए नियंत्रित करने व ग़ुलाम बनाने की कवायद देख रहे हैं।  
 एक शब्द निजता की उस चिंता के बारे में भी कहना ज़रूरी है जिसे हमने 'नन्हीं कली' के विरुद्ध लड़ते हुए व रपट लिखते हुए रेखांकित किया था। इस बिंदु पर भी पिछले दो-तीन वर्षों में परेशान होने के कारणों में इज़ाफ़ा ही हुआ है। निजता, 'सूचित सहमति' ('इंफॉर्म्ड कंसेंट'), आज़ादी और आत्म-सम्मान के जिन उसूलों को हमने एनजीओ के माध्यम से निजी पूँजी द्वारा धड़ल्ले से रौंदे जाते देखा था आज हम राज्य द्वारा भी उनका मखौल उड़ाए जाने के गवाह हैं। कहीं स्कूलों में 'आधार' में नामांकित हुए बिना बच्चों को प्रवेश नहीं दिया जाता तो कहीं इस बिना पर विद्यार्थियों का वज़ीफ़ा रोक लिया जाता है और इस तरह उन्हें जबरन 'आधार' में नामांकित होने को मजबूर किया जाता है। दिल्ली सरकार से पास हुए विद्यार्थियों के फोन नंबर रहस्यमयी ढंग से निजी संस्थानों को मिल जाते हैं जो फिर फोन कर-करके विद्यार्थियों को अपनी दुकानों में प्रवेश लेने का निरंतर दबाव बनाते हैं। ज़ाहिर है कि बच्चों का डाटाबेस, जिसे संरक्षित रखने के भरोसे ही राज्य की इकाइयों को सौंपा जाता है, व्यावसायिक स्वार्थों के हवाले किया जा रहा है। जब देश का प्रधानमंत्री ही, सर्वोच्च-न्यायालय के कई आदेशों की लगातार अवमानना करते हुए, जे ए एम (जिसमें ए का अर्थ 'आधार' है) के अपने मनमाने और अवैधानिक सूत्र का ढोल पीटता जाए तो ऐसे में बाक़ी प्रशासन तक जानबूझकर भेजे जाने वाले अलोकतांत्रिक संदेश को अच्छी तरह समझा जा सकता है। रही बात सर्वोच्च न्यायालय की, तो हाल ही में हरियाणा सरकार द्वारा पारित घोर अलोकतांत्रिक पंचायती राज (संशोधन) अधिनियम को वैध ठहराकर उसने भी बहुत उम्मीद न रखने का साफ़ संदेश दे दिया है। घोर सामाजिक-आर्थिक उत्पीड़न व विषमता की परिस्थितियों तथा देशभर में विभिन्न राज्यों में बंद किये जा रहे लाखों सार्वजनिक स्कूलों की परिघटना से आँखें मूँदते हुए न्यायालय ने यह साफ़ कर दिया कि अगर कोई स्कूल नहीं जा पाती है, पढ़ाई जारी नहीं रख पाती है, पढ़ाई 'पूरी' नहीं कर पाती है तो यह राज्य की नहीं बल्कि उसकी अपनी व्यक्तिगत असफलता है, उसका स्वयं का दोष है।         

Sunday, 3 January 2016

'WTO/GATS and the Global Politics of Higher Education: Antoni Verger

लोक शिक्षक मंच ने नैरोबी में 15 से 19 दिसंबर तक आयोजित विश्व व्यापार संगठन के दसवें मंत्री-स्तरीय सम्मेलन से पहले, सरकार द्वारा उच्च-शिक्षा को WTO को सौंपने के प्रस्ताव के विरुद्ध अखिल भारत शिक्षा अधिकार मंच के आह्वान पर छः महीने चले अभियान में सक्रिय रूप से हिस्सा लिया था। इसमें हमने रिहायशी इलाक़ों व कॉलेज-विश्वविद्यालयों के परिसरों में हस्ताक्षर अभियान चलाने के साथ पोस्टर-प्रदर्शनी भी आयोजित की थी। राष्ट्रीय अभियान 7 से 14 दिसंबर तक जंतर-मंतर पर आयोजित आठ दिवसीय अखिल भारत प्रतिरोधक शिविर के रूप में एक मुक़ाम पर पहुँचा। लोक शिक्षक मंच ने इसमें भी सक्रिय भागीदारी निभाई। अपनी राजनैतिक समझ मज़बूत करने की दृष्टि से अभियान के दौरान हमने विभिन्न पुस्तिकाओं, पर्चों, अखबारों-पत्रिकाओं में व नेट पर छपे लेखों आदि का भी साझा अध्ययन किया। इसी क्रम में वर्ष 2010 में प्रकाशित Antoni Verger की किताब 'WTO/GATS and the Global Politics of Higher Education' भी प्रस्तावित की गई जोकि एक साथी द्वारा अम्बेडकर विश्वविद्यालय के पुस्तकालय से उपलब्ध भी करा दी गई। हालाँकि पुस्तक का गहन अध्ययन आवश्यक होगा मगर फिलहाल, समय व उपयोगिता को ध्यान में रखते हुए मंच ने अपने स्टडी सर्कल के लिए इसके नौवें अध्याय, 'National Case Studies: Argentina and Chile', को पढ़कर चर्चा करना तय किया। इस अध्याय पर एक स्टडी सर्कल की एक बैठक सर्दियों की छुट्टियों से पहले हुई थी जिसमें, विभिन्न कारणों से, कुछ साथी नहीं आ पाए थे। छुट्टियाँ पड़ने पर कई साथी शहर से बाहर चले गए या किन्हीं आवश्यक कारणों से अन्यत्र व्यस्त हो गए। इस उद्देश्य से कि मंच के सभी साथी इस अध्ययन में शामिल हो पाएँ और अन्य साथियों को भी इससे परिचित कराया जा सके, हम उक्त अध्याय को संशोधित व संक्षिप्त करके (अनुवाद के सहारे) साझा कर रहे हैं। आशा है कि यह हमारी समझ को पुख्ता करने और नए सवाल खड़े करने में मदद देगा।                                                                                                                                        
                                                                                                                                              संपादक समिति  

 अर्जन्टीना का अनुभव 

अर्जन्टीना की उच्च-शिक्षा पर अभी भी 1918 के उन सुधारों का असर है जोकि कॉरदोबा विश्वविद्यालय के विद्यार्थियों के आंदोलन से शुरु हुए थे और जिनकी वजह से विश्वविद्यालयों की राजनैतिक स्वायत्ता तथा उच्च-शिक्षा तक लोगों की अधिक व्यापक पहुँच हासिल की गई थीं। यह लोकतांत्रिक सिलसिला फौज के द्वारा हुकूमत हथियाने तक चलता रहा जब, 1955 में, निजी विश्वविद्यालयों को अधिकृत किया गया। हालाँकि, इन्हें आज भी सार्वजनिक फंडिंग प्राप्त करने की इजाज़त नहीं है। इसके बाद, 1976 में फौजी तानाशाही के दोबारा सत्ता कब्जाने पर, विश्वविद्यालय में मुफ्त प्रवेश को खत्म कर दिया गया और ट्यूशन फीस लागू की गईं। जब 1983 में लोकतंत्र की बहाली हुई तो नई सरकार के पहले फैसलों में ट्यूशन फीस समाप्त करना शामिल था। 1989 में सत्ता में आई नव-उदारवादी सरकार ने क़ानून बनाकर विश्वविद्यालयों को नियंत्रण-मुक्त करने के नाम पर बाज़ार की प्रतिस्पर्धात्मकता व अनुदान-विहीनता के हवाले करना शुरु कर दिया। विश्वविद्यालयों द्वारा इस क़ानून का ज़बरदस्त विरोध हुआ जिसके पीछे एक प्रमुख कारण इसका आर्थिक मामलों के मंत्रालय द्वारा विश्व-बैंक तथा अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष के दबाव में संरचनात्मक समायोजन कार्यक्रम (structural adjustment program) के तहत तैयार किया जाना था। इस विरोध का असर यह हुआ कि सरकार को ट्यूशन फीस हटानी पड़ी और कुछ अन्य निजीकरण-वादी फैसले वापस लेने पड़े। 2001 के आर्थिक संकट के बाद नव-उदारवादी नीतियाँ काफी अलोकप्रिय साबित हुईं। बाद की सरकार ने WTO के बनिस्बत Mercosur (कॉमन मार्केट ऑफ द साउथ) के दक्षिण-दक्षिण सहयोग का रुख किया और 2006 में एक नया क़ानून लाकर पिछले क़ानून को पलट दिया। वर्तमान क़ानून साफ़ कहता है कि सभी स्तरों पर शिक्षा में वित्त उपलब्ध कराना राज्य की ज़िम्मेदारी है और हर प्रकार व स्तर की शिक्षा के लिए राज्य-सेवाओं को मुफ्त मुहैया कराना होगा।  
अर्जन्टीना में केवल एक विदेशी विश्वविद्यालय की 'वाणिज्यिक उपस्थिति' (GATS की भाषा में 'प्रकार 3') है। कई विदेशी विश्वविद्यालयों की अर्ज़ियाँ प्रमाणन समिति द्वारा रद्द की जा चुकी हैं। निजी संस्थाओं की बहुत-ही मामूली संख्या का कारण यह है कि सार्वजनिक विश्वविद्यालय पुख्ता रूप से स्थापित हैं और ट्यूशन मुफ्त है। हालाँकि विदेशी संस्थाओं के साथ चलाए जाने वाले (twinning) कोर्स अधिक सामान्य हैं। इसके अतिरिक्त विदेशी विद्यार्थियों की उपस्थिति (GATS की भाषा में 'प्रकार 3') भी मामूली है और उनसे फीस लेने या नहीं लेने का निर्णय भी हर विश्वविद्यालय के अख्तियार में है। दूसरी तरफ, 1995 के क़ानून के तहत, विदेश में पढ़ने वाले अर्जन्टीनियाई विद्यार्थियों के कोर्स को प्रमाणित करने का प्रावधान है। जहाँ बढ़ती संख्या में अर्जन्टीनियाई नागरिक दूरस्थ प्रणाली (GATS की भाषा में 'प्रकार 1') से विदेशी संस्थाओं के कोर्स कर रहे हैं, वहीं अर्जन्टीना के अपने संस्थान कोर्स का निर्यात नहीं करते हैं। 
अर्जन्टीना WTO/GATS के तहत शिक्षा में 'उदारीकरण के प्रस्ताव' देने को राज़ी नहीं है। इसके विपरीत इसने Mercosur में शिक्षा के क्षेत्र को मुख्यतः प्रकार 2 व 3 के लिए खोला है। प्रकार 1 को इसके अनियंत्रित उप-क्षेत्र होने की वजह से शामिल नहीं किया गया। मगर GATS व Mercosur में ज़मीन-आसमान का फ़र्क़ यूँ है कि एक अमीर देशों के सेवा निर्यातकों को लाभ पहुँचाने वाला विश्व व्यापार समझौता है जिसका कोई शैक्षिक जनादेश नहीं है जबकि दूसरा दक्षिण अमरीकी देशों की राजनैतिक एकजुटता की प्रक्रिया है जिसमें एक शैक्षिक एजेंडा भी शामिल है। 
हालाँकि उरुग्वे दौर की वार्ताओं की शुरुआत (1986) में अर्जन्टीना ने सेवा क्षेत्र को WTO के तहत मुक्त बाजार के लिए खोलने का पुरज़ोर विरोध किया, लेकिन इस दौर के समाप्त होते-होते (1994) उदारीकरण का रुख अपनाकर, वह शिक्षा-रहित छह सेवा क्षेत्रों को खोलने का फैसला कर चुका था। दोहा दौर की वार्ताओं के शुरु होने के बाद (2001 से), आर्थिक संकट से उपजे विरोध के संदर्भ में, अर्जन्टीनियाई सरकार ने, व्यापार मंत्रालय के माध्यम से शिक्षा से जुड़े समूहों से सलाह करने की प्रक्रिया अपनाई। हालाँकि इसका उद्देश्य आंदोलन के नेतृत्व को शासन के साथ मिलाकर राजनैतिक स्थायित्व हासिल करना भी था। फिर भी, यह कहा जा सकता है कि 2002 के बाद गठित सरकार ने व्यापार मंत्रालय को जिस तरह अन्य ज़मीनी संगठनों से सलाह करने की औपचारिक ज़िम्मेदारी दी, उससे नीति पर अधिक लोकतान्त्रिक असर डालने की संभावना बढ़ गई। 
व्यापार मंत्रालय की अगुवाई में पहला विचार-विमर्श 2002 में हुआ। अन्य व्यापार वार्ताकारों की तरह अर्जन्टीनियाई व्यापार मंत्रालय का भी यही मानना है कि GATS से शिक्षा को कोई नुकसान नहीं होगा। उसका कहना है कि शिक्षा से जुड़े समूह GATS का विरोध इसलिए करते हैं क्योंकि वो 'अनजान के डर' से ग्रसित हैं और निजीकरण व उदारीकरण में फ़र्क़ नहीं समझते। पहले चरण में सार्वजनिक विश्वविद्यालय परिषद, निजी विश्वविद्यालय कुलपति परिषद और शिक्षा मंत्रालय के उच्च-शिक्षा प्रभाग से बात-चीत की गई। इन सभी ने, अलग-अलग कारणों से, शिक्षा के उदारीकरण के प्रस्तावों से अपना विरोध जता दिया। सार्वजनिक विश्वविद्यालयों ने इस मंत्रणा से पहले, क्षेत्र के मुख्तलिफ देशों के सार्वजनिक विश्वविद्यालयों के कुलपतियों की बैठक में पोर्तो अलेग्रे पत्र नाम की घोषणा पर दस्तखत किये थे। इसमें कहा गया था कि GATS शिक्षा के सार्वजनिक हित के चरित्र के उसूल को नकारता है और यह शिक्षा के लिए घातक होगा। इस पत्र के आधार पर न सिर्फ अर्जन्टीनियाई सार्वजनिक विश्वविद्यालय परिषद ने GATS में शिक्षा शामिल किये जाने को अस्वीकृत कर दिया बल्कि यह कहते हुए कि बाजार के मूल्य नहीं होते, भूख होती है व इसकी इच्छाओं को सिर्फ मुनाफे से संतुष्ट किया जा सकता है जिसका कि शिक्षा से कोई लेना-देना नहीं है, मंत्रणा में हिस्सा लेने से मना कर दिया। उस समय शिक्षा मंत्रालय के उच्च-शिक्षा प्रभाग ने इस विषय पर कोई ठोस राय क़ायम नहीं की थी मगर उसने एकजुटता दिखाते हुए अर्जन्टीना के विश्वविद्यालयों का साथ दिया तथा बाद में इस मुद्दे पर सार्वजनिक बहसें आयोजित करायीं व दस्तावेज़ प्रकाशित किये। 2003 में जब अर्जन्टीना ने WTO में सेवाओं संबंधी अपना प्रथम प्रस्ताव पेश किया तो शिक्षा उसमें शामिल नहीं थी।
                                2006 में जब व्यापार मंत्रालय ने एक बार फिर विचार-विमर्श आयोजित किया तो, WTO के प्रति अन्य पक्षों का विरोध जानते हुए, इस बार केवल शिक्षा मंत्रालय को ही बुलाया गया। इस बार भी शिक्षा मंत्रालय ने मोंटेवीडियो घोषणा नाम के अपने सार्वजनिक बयान का हवाला देते हुए यह साफ कर दिया कि शिक्षा को मुक्त-बाजार वार्ताओं में शामिल नहीं किया जा सकता और इसके बारे में कोई समझौता नहीं हो सकता। भले ही इस रुख से बनी टकराव की स्थिति से व्यापार मंत्रालय के अधिकारी द्वारा 'राजनैतिक स्तर पर निबट लेने' की धमकी दी गई, लेकिन अंततः फैसला शिक्षा मंत्रालय के पक्ष में ही हुआ। 
यह उल्लेखनीय है कि व्यापार मंत्रालय ने दोनों ही मंत्रणाओं से अर्जन्टीना के सबसे बड़े शिक्षक संगठन, CTERA (अर्जन्टीनियाई शिक्षा मज़दूर परिसंघ, जोकि प्राथमिक व उच्च-माध्यमिक शिक्षकों का संगठन है) को बाहर रखा लेकिन 2004 के बाद से GATS के विरुद्ध देश-व्यापी अभियान चलाकर इसने वार्ताओं में मंत्रालय की स्थिति प्रभावित करने में कामयाबी पाई। परिसंघ ने GATS को लेकर अपनी स्पष्ट समझ 2004 के एजुकेशन इंटरनेशनल (EI) के सम्मेलन में शिरकत करने के बाद बनाई। शिक्षा को सामाजिक अधिकार, न कि बाजार की वस्तु, मानने की घोषणा करते हुए परिसंघ ने यह मान्यता भी व्यक्त की कि आर्थिक वर्चस्व का मतलब सांस्कृतिक वर्चस्व होता है और इसलिए, सांस्कृतिक कट्टरपंथी नहीं होते हुए भी, वे शिक्षा में GATS के प्रवेश को सांस्कृतिक तथा राष्ट्रीय मूल्यों के लिए विनाशकारी मानते हैं। यह रोचक है कि परिसंघ ने व्यापार मंत्रालय के बदले शिक्षा मंत्रालय पर दबाव बनाए रखने की रणनीति अपनाई। परिणाम यह हुआ कि शिक्षा मंत्रालय वार्ताओं में वीटो-धारक की भूमिका निभा पाया। अपनी लड़ाई में परिसंघ ने तीन दस्तावेज़ों का सहारा लिया - 2004 की ब्राजीलिया घोषणा जिसमें अर्जन्टीना व ब्राज़ील के शिक्षा मंत्रालयों के साथ अर्जन्टीनियाई परिसंघ और ब्राज़ील के सबसे बड़े शिक्षक संगठन ने GATS में उदारीकरण की सुपुर्दगी के खिलाफ संयुक्त फैसला लिया; 2005 की मोंटेवीडियो घोषणा जिसमें Mercosur देशों के शिक्षा मंत्रियों ने कहा कि वो शिक्षा को सार्वजनिक हित की वस्तु मानते हुए राज्य की उस ज़िम्मेदारी को रेखांकित करते हैं जोकि उदारीकरण के वायदों से खतरनाक रूप से सीमित हो जाएगी; और परिसंघ के दबाव के परिणामस्वरूप भी बना 2006 का राष्ट्रीय शिक्षा अधिनियम जिसका 10वां भाग निर्देशित करता है कि राज्य किसी भी ऐसे द्वि या बहुपक्षीय मुक्त बाजार समझौतों में दाखिल नहीं होगा जिनमें शिक्षा को मुनाफा कमाने वाली गतिविधि की तरह देखा जाता हो या जिनमें सार्वजनिक शिक्षा के बाज़ारीकरण को प्रोत्साहित किया गया हो।    
इस संदर्भ में कि समझौतों की मेज़ पर अपने हाथ मज़बूत करने के लिए व्यापार वार्ताकार अपने देश के अधिक-से-अधिक आक्रामक हितों और कम-से-कम सुरक्षा हितों की सूची चाहते हैं, शिक्षा मंत्रालय के दबाव व रुख के चलते अर्जन्टीनियाई वार्ताकारों ने खीज व्यक्त की कि उन्हें एक ऐसे तर्क का बचाव करना पड़ रहा था जो उनकी दृष्टि में आधारहीन चिंताओं व दार्शनिक-संकल्पनात्मक आग्रहों में स्थित था। 2002 के मुकाबले, जब अर्जन्टीना के समक्ष सिर्फ कोरिया ने ही माँग रखी थी, वार्ताकारों के लिए 2006 अधिक निराशाजनक था क्योंकि इस समय 'बड़े खिलाडियों' की तरफ से बहुपक्षीय माँग आई थी जिसे कि बहुमूल्य मोल-भाव के लिए इस्तेमाल किया जा सकता था। 
यह भी ध्यान में रखने योग्य है कि अर्जन्टीना में GATS के संदर्भ में शिक्षा पर व्यापक राजनैतिक बहस चली है - यह उन थोड़े से देशों में शामिल है जहाँ राष्ट्रीय विधायिका ने इस पर बहस की है। इसी कड़ी में, 2003 के चुनावों में मेनेम (Menem) ने जहाँ एक ओर शिक्षा को GATS में शामिल करके आर्थिक संकट से उबरने का प्रस्ताव रखा, वहीं किर्शनर (Kirschner) ने इसका विरोध करके 1990 के दशक की नव-उदारवादी नीतियों को पलटने का तरीका अपनाया।  
 चिली का अनुभव 

1973 के जनरल पिनोशे (Pinochet) के तख्ता-पलट से पहले चिली में उच्च-शिक्षा राज्य की ज़िम्मेदारी थी और कोई ट्यूशन फीस नहीं थी। फौजी तानाशाही ने, जिसे दुनिया की प्रथम नव-उदारवादी सरकार समझा जाता है, निजीकरण को बढ़ावा देते हुए बड़ी संख्या में निजी विश्वविद्यालय खोलने का रास्ता आसान कर दिया, सार्वजनिक वित्तीय-समर्थन घटाया गया (जिसके परिणामस्वरूप सार्वजनिक संस्थानों को ट्यूशन फीस लागू करनी पड़ी), विश्वविद्यालयों को खंडित किया गया और मज़दूर हितों को आघात पहुँचाया गया। यहाँ तक कि (1990 में) फौजी हुकूमत का अंतिम महत्वपूर्ण निर्णय भी शिक्षा में निजीकरण को बढ़ाने वाला क़ानून पारित करना था। हालाँकि चिली में अधिक प्रचलित वर्गीकरण 'पारम्परिक' विश्वविद्यालयों (2004 में जिनकी संख्या 25 थी, जिनमें सार्वजनिक व निजी दोनों शामिल हैं, और जो प्रतिस्पर्धा सूत्रों के आधार पर राज्य से वित्तीय-समर्थन प्राप्त करते हैं) तथा 'ग़ैर-पारम्परिक' विश्वविद्यालयों (2004 में जिनकी संख्या 39 थी और जिनमें सभी 1981 के उदारीकरण के बाद खोले गए निजी प्रकार के थे) के बीच है।  
                1990 के बाद चुनावों की प्रक्रिया से सत्ता में आई सरकारों ने नव-उदारवादी नीतियों को ही जारी रखा है। जहाँ नव-उदारवादी विचारकों का मानना है कि इन नीतियों के चलते ही उच्च-शिक्षा में बहुत कम स्तर पर राजकीय खर्च करके भी उच्च-शिक्षा में चिली का नामांकन प्रतिशत बहुत ऊँचा हुआ है, वहीं यह भी सच है कि चिली के अधिकतर विश्वविद्यालय अनुसंधान नहीं करते हैं तथा अच्छे पुस्तकालयों जैसी ज़रूरी सुविधाओं से भी महरूम हैं। चिली के शिक्षा नीति-निर्माताओं का मानना है कि बाजार शिक्षा की गुणवत्ता को खुद-ब-खुद सुनिश्चित कर देगा और राज्य की भूमिका सिर्फ नागरिकों को जानकारी उपलब्ध कराकर उनके चयन (चॉयस) को विस्तार देने की है।
अर्जन्टीना की तुलना में चिली में उच्च-शिक्षा का अंतर्राष्ट्रीयकरण कहीं विकसित है। देख-रेख के मापदंडों की शिथिलता के चलते विदेशी संस्थानों के लिए यह एक आकर्षक बाजार है। लगभग 8% विद्यार्थी विदेशी संस्थानों में पढ़ रहे हैं (GATS की भाषा में 'प्रकार 3') और ग़ैर-पारम्परिक विश्वविद्यालय बड़े स्तर पर यूरोपीय संस्थानों से जुड़े (twinning) कार्यक्रम चलाते हैं।         
2006 के एक क़ानून के तहत चिली ने विदेशी संस्थाओं को भी उच्च-शिक्षा संस्थानों में गुणवत्ता की जाँच करने को अधिकृत कर दिया। लातिनी अमरीकी देशों में, मैक्सिको के अतिरिक्त, चिली ने सबसे अधिक मुक्त व्यापार समझौतों पर दस्तखत किये हैं और इनमें से प्रायः सभी में शिक्षा सेवाएँ शामिल हैं। इस प्रकार, GATS में शिक्षा का कोई वायदा किये बग़ैर, चिली की शिक्षा व्यवस्था का वैश्विक स्तर पर लगभग पूरी तरह उदारीकरण हो चुका है। 
यह अपेक्षित है कि WTO के सदस्य मुक्त व्यापार के फायदों में यक़ीन रखें और अंतर्राष्ट्रीय व्यापार को संचालित करने के लिए इसे सबसे बेहतर व्यवस्था मानें। 1980 के दशक से लेकर, बिना शर्तों व हर्जाने की माँग करे, लगातार उदारीकरण के एकतरफा फैसले लेकर चिली ने अपने को मुक्त व्यापार के पक्के समर्थक के रूप में पेश किया है। एक तरफ देश के भीतर उपजे किसी भी विरोध का हिंसात्मक दमन किया गया, दूसरी तरफ इन निर्णयों की सामाजिक कीमत फौजी हुकूमत के काल में जज़्ब कर ली गई। फिर 1989 में बर्लिन की दीवार के गिरने पर इन्हें थोपा भी गया व इन्हें अंतर्राष्ट्रीय वैधता भी मिल गई। सरकार ने स्वयं सेवा क्षेत्र के उद्योगों को एक ऐसे दबाव-समूह बनाने में मदद की जोकि GATS के अंदर-बाहर सभी समझौतों में मध्यस्थ/संभाषी की भूमिका निभाता है। 
हालाँकि उरुग्वे दौर में चिली ने शिक्षा को सेवा समझौतों के पटल पर नहीं रखा, इसका कारण सतर्कता बरतना और आगे के मोल-भाव में अपना हाथ मज़बूत रखना ही था। दोहा दौर में भी चिली ने शिक्षा को शामिल नहीं किया है लेकिन इसके वार्ताकारों का साफ़ मानना है कि इसका कारण रणनीतिक है - द्विपक्षीय समझौतों में उदारीकरण चरम पर है - और उन्हें सरकार की तरफ से पूरी छूट व शक्ति प्राप्त है कि अगर वो चाहें तो सम्पूर्ण शिक्षा को WTO के पटल पर रख सकते हैं। 
GATS वार्ताओं व द्विपक्षीय समझौतों के संदर्भ में अर्जन्टीना के विपरीत चिली में न सिर्फ शिक्षा से जुड़े किसी भी वर्ग से सलाह नहीं ली गई है, बल्कि शिक्षा मंत्रालय को भी विश्वास में नहीं लिया गया है। दूसरी ओर शिक्षा मंत्रालय भी इस विषय में सहमत या उदासीन ही रहा है। इसका एक कारण तानाशाही के समय से ही शिक्षा में उदारीकरण की नीति का अपनाया जाना और विभिन्न द्विपक्षीय समझौतों के माध्यम से इस नीति को निरंतर आगे बढ़ाना रहा है जिससे कि GATS का तुलनात्मक असर इतना अप्रत्याशित या कुप्रभावी महसूस नहीं होता है। अलबत्ता उदारीकृत माहौल में चिली के शिक्षा संस्थानों की गुणवत्ता को लेकर संयुक्त राज्य व यूरोपीय संघ की आशंकाओं को ध्यान में रखते हुए गुणवत्ता जाँचने की संस्थाओं को इन द्विपक्षीय वार्ताओं में ज़रूर शामिल किया गया। 
1990 के दशक से ही शिक्षा मंत्रालय व गुणवत्ता परखने वाली संस्थाओं द्वारा विश्व-बैंक जैसी व्यापार-संबंधी संस्थाओं के अधिकारियों को आमंत्रित करके शिक्षा के कार्यकर्ताओं के लिए उच्च-शिक्षा के व्यापार व वैश्वीकरण के विषयों पर सेमिनार आदि आयोजित किये जाते रहे हैं। ऐसे में यह कोई हैरानी की बात नहीं है कि उच्च-शिक्षा के नीति-निर्माताओं व अधिकारियों में इस विषय पर एक प्रयोजनवादी समझ हावी है और वो व्यापार की प्रक्रिया को अपरिवर्तनीय तथा शिक्षा के चरित्र की बहस को व्यर्थ मानते हैं। शिक्षा में व्यापार को एक अवसर की तरह देखते हुए वो इसमें पेशागत विकास, गुणवत्ता में बेहतरी तथा विकसित देशों की नीतियों से सीखने की संभावना व्यक्त करते हैं और प्रस्तावित करते हैं कि विश्वविद्यालयों को व्यापार तथा वैश्वीकरण का अनुसरण करना चाहिए। पारम्परिक व ग़ैर-पारम्परिक दोनों ही तरह के विश्वविद्यालय सांगठनिक स्तर पर सेवाओं के निर्यात को बढ़ाना अपना दायित्व घोषित करते हैं। इन आग्रहों, निर्णयों व कार्रवाइयों के आलोक में यह साफ़ हो जाता है कि चाहे वो चिली के शिक्षा मंत्रालय द्वारा अर्जन्टीना की ही तरह मोंटेवीडियो घोषणा पर दस्तखत करने का मामला हो या फिर दो विश्वविद्यालयों द्वारा GATS-विरोधी पोर्तो अलेग्रे पत्र पर हस्ताक्षर करने का उदाहरण हो, स्थानीय राजनैतिक आंदोलनों की अनुपस्थिति में ऐसे 'भले कथनों' में नीति प्रभावित करने की ताक़त नहीं होती है। 
चिली के शिक्षक संगठन - विशेषकर CDP (Colegio de Profesores) नाम का सबसे बड़ा संगठन जोकि EI का सदस्य है - शिक्षा को GATS व अन्य व्यापार वार्ताओं में शामिल करने के मुखर आलोचक रहे हैं। CDP ने अर्जन्टीना के CTERA के साथ EI द्वारा चलाए गए कई GATS-विरोधी कार्यक्रमों में शिरकत की है। इसने अपने सदस्यों को इस विषय पर जागरूक रखा है और बहस को प्रोत्साहित किया है। मगर न ही इन्हें सफलता मिली है और न ही इन्हें व्यापार संबंधी विमर्श में जगह दी गई है। व्यापार वार्ताकार इनके प्रभाव को कमतर आँककर और इनकी माँगों को छुद्र स्वार्थ व 'काल्पनिक समस्याओं' पर केंद्रित बताकर इनके विरोध की वैधता को खारिज करते रहे हैं। 

तुलना और निष्कर्ष  


मुक्त व्यापार समझौतों की वार्ताओं में इन दोनों देशों की अलग-अलग स्थिति घरेलू राजनीति से प्रभावित हैं। इसके अतिरिक्त, खासतौर से अर्जन्टीना के संदर्भ में, क्षेत्रीय व अंतर्राष्ट्रीय घटनाओं तथा संस्थाओं ने भी प्रक्रिया पर असर डाला है। 
1990 के दशक में व्यापार नीतियों से लेकर समझौतों की प्रक्रियाओं में प्रयुक्त शैली तक में दोनों ही देशों का रुझान एक-सा था। जहाँ 2001 के आर्थिक संकट के बाद अर्जन्टीना में राजनैतिक दबाव व समझ में लोकतान्त्रिक बदलाव आया, वहीं चिली में चुनावों की बहाली के बाद भी मुक्त बाज़ार का विचारधारात्मक वर्चस्व बरक़रार रहा है और शिक्षा में व्यापार को लेकर तकनीकी समझ हावी बनी रही है। दोनों ही देशों के व्यापार वार्ताकार शिक्षा के क्षेत्र को, विशेषकर दूसरे देशों से रियायतें मिलने के बदले, व्यापार के लिए खोलने को तत्पर हैं। साथ ही, दोनों में व्यापार मंत्रालयों ने शिक्षा को लेकर तिजारती रवैया अपनाया है। फ़र्क़ यह है कि एक में यह निर्विरोध रहा है जबकि दूसरे में इसे शिक्षाकर्मियों ने चुनौती देकर कार्यान्वित नहीं होने दिया है। यह महत्वपूर्ण है कि ये शिक्षक संगठन ही हैं जिन्होंने दोनों देशों में GATS व शिक्षा के बाज़ारीकरण के खिलाफ आवाज़ बुलंद रखी है। 
अर्जन्टीना के शिक्षक संगठन (CTERA) को इसमें अधिक सफलता इसलिए मिली है क्योंकि उसने राष्ट्रीय व क्षेत्रीय स्तर पर ऐतिहासिक घोषणाओं और देश के क़ानून को स्पष्ट तौर पर मुक्त-व्यापार विरोधी रूप देने में महत्वपूर्ण भूमिका अदा की है। इसके अलावा, अर्जन्टीना में 2001 के आर्थिक संकट के बाद चुनी गई सरकारों ने भी पिछली नीतियों से साफ़ दूरी बनाने तथा सामाजिक-शांति व राजनैतिक स्थायित्व बनाए रखने के लिए CTERA जैसे प्रगतिशील संगठनों को साथ लेने की कोशिश की है। चिली में शिक्षक संगठन (CDP) को ये परिस्थितियाँ नहीं मिली हैं और उन्हें मुक्त-व्यापार को लेकर शिक्षा मंत्रालय तथा विश्वविद्यालयों तक में फैली आम-सहमति का सामना करना पड़ा है। 

                      दोनों देशों की  व्यवस्था की तुलना करें तो एक विचित्र स्थिति नज़र आती है। चिली, जिसमें कि अन्य व्यापार समझौतों के तहत पहले ही शिक्षा में काफी उदारीकरण हो चुका है, GATS की वार्ताओं में ज़्यादा मोल-भाव करने की स्थिति में नहीं है, जबकि अर्जन्टीना के हालात ठीक उलट हैं। इसी तरह चिली के वार्ताकारों का अनालोचनात्मक रवैया इस वास्तविकता को नज़रंदाज़ करता है कि चिली की शिक्षा व्यवस्था की अस्थिर, अनियंत्रित स्थिति GATS में प्रवेश से और चरमरा सकती है। इसके विपरीत अर्जन्टीना की शिक्षा व्यवस्था की बेहतर गुणवत्ता व नियंत्रण इसके GATS में प्रवेश को कम खतरनाक बनाते हैं, जबकि उसका रुख राजनैतिक-सैद्धांतिक आग्रहों पर टिका है -  वार्ताकार जिन्हें 'दार्शनिक' कहकर शिकायत करते हैं। इस तरह हम कह सकते हैं कि जहाँ अर्जन्टीना ने 1918 के कॉरदोबा (Cordoba) घोषणापत्र की आत्मा के प्रति अपनी वफादारी निभाई है, वहीं चिली दोहा (Doha) के काल्पनिकता के सम्मोहन से बँधा रहा है। 
  

लेख: एक लोकतंत्र विरोधी क़ानून की मुख़ालफ़त में

 फ़िरोज़ 
10 दिसंबर 2015 को, जोकि विडंबनीय संयोग से अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस था, सर्वोच्च न्यायालय ने हरियाणा पंचायती राज (संशोधन) अधिनियम को वैध करार देने वाला फैसला सुनाया। इस अधिनियम के अनुसार गाँव, तहसील व जिला स्तरों पर होने वाले पंचायती राज चुनावों में प्रत्याशियों को कुछ नई शर्तों को पूरा करना होगा। राजबाला व अन्य बनाम हरियाणा राज्य व अन्य के इस मुक़दमे में तीन महिला वादियों द्वारा न्यूनतम शैक्षिक अर्हता, घर में पक्का शौचालय होना व बिजली आदि बिलों की मुकम्मल अदायगी की शर्तों को चुनौती दी गई थी। इस फैसले को लोकतंत्र के लिए खतरनाक मानते हुए, लोक शिक्षक मंच ने 23 दिसंबर को दिल्ली विश्वविद्यालय के केंद्रीय शिक्षा संस्थान के प्रांगण में इसपर एक चर्चा आयोजित की जिसमें शिक्षकों, विद्यार्थियों व शोधार्थियों के अलावा शिक्षा आंदोलन से जुड़े अन्य कार्यकर्ताओं ने भी शिरकत की। यहाँ हम इस चर्चा से उभरे भिन्न बिन्दुओं व सवालों के अतिरिक्त इस विषय पर अन्य लेखों में व्यक्त चिंताओं और अपनी समझ को भी समाहित कर रहे हैं।    
न्यायालय ने इन शर्तों को संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं माना और न ही इन्हें अतार्किक या मनमाना ठहराया। एक न्यायाधीश ने तो इसे पूरे देश में ही लागू करने की वकालत की। यह क़ाबिले-ग़ौर है कि जहाँ 2003 में एक संविधान पीठ ने चुनाव लड़ने को अनुच्छेद 326 के तहत एक संवैधानिक हक़ क़रार दिया था, वहीं 2010 में एक अन्य संविधान पीठ ने वोट डालने और चुनाव लड़ने दोनों को ही 1951 के क़ानून के तहत महज़ एक वैधानिक अधिकार माना था। हालिया निर्णय में न्यायालय ने निम्नलिखित आधारों पर चुनौती को खारिज किया -
1) 73वें संविधान संशोधन के तहत विधान सभा को पंचायती राज चुनावों के लिए शर्तें तय करने के क़ानून बनाने का अधिकार प्राप्त है। 
2) जब तक मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं होता है तब तक सक्षम शक्ति द्वारा बनाए गए क़ानून को सिर्फ इस बिना पर अनुचित नहीं ठहराया जा सकता कि वो मनमाना है। 
3) शिक्षा के आधार पर वर्गीकरण को अतार्किक नहीं कहा जा सकता। पंचायती राज इकाइयों के उद्देश्य पूरे करने के लिए शिक्षा संबंधी शर्त लगाना ज़रूरी है। बल्कि, न्यायालय के अनुसार, केवल शिक्षा ही इंसान को सही-ग़लत और अच्छे-बुरे में फ़र्क़ करना सिखाती है।4) यह देखते हुए कि चुनाव वैसे भी कितने खर्चीले हैं, न इस बात की तफ्तीश करने की ज़रूरत है कि बिल नहीं जमा कर पाने से कितने लोग चुनाव नहीं लड़ पाएँगे और न ही इस शर्त से कुछ वास्तविक असर पड़ेगा। वैसे भी जो चुनाव लड़ना चाहता है, उसे बिल जमा करके लड़ने की आज़ादी तो है ही। 
5) खुले में शौच करने के अस्वस्थ चलन के संदर्भ में यह तार्किक ही है कि पंचायती राज के प्रतिनिधि खुद एक बेहतर उदाहरण प्रस्तुत करें और अपनी इकाई के उद्देश्य को आगे बढ़ाएँ। 
 आलोचकों ने, जिनमें कानूनविद प्रमुखता से शामिल हैं, निम्नलिखित आधारों पर इस फैसले पर सवाल खड़े किये हैं -
1) इसमें 1966 के उस ICCPR (नागरिक व राजनैतिक अधिकारों का अंतर्राष्ट्रीय प्रणपत्र ) के भाग 25 की अवहेलना की गई है जिसपर भारत ने भी 1979 में हस्ताक्षर किये थे। 
2) कई पंचायतों के प्रतिनिधित्व से महरूम रह जाने की संभावना पर विचार नहीं करने की भूल की गई है। 
3) इस विडंबना को नज़रंदाज़ किया गया है कि स्वच्छ्ता की पंचायती ज़िम्मेदारी निभाने के लिए एक स्तर तक शिक्षित होना ज़रूरी है मगर केंद्रीय स्तर पर दायित्व उठाने के लिए ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है। या यूँ कहें कि निचले पदों के लिए अधिक ऊँची योग्यता की शर्त विरोधाभासी है। 
4) स्कूली औपचारिक शिक्षा को समझदारी का पर्याय मान लिया गया है। 
5) बिल अदा नहीं करने को दिवालियापन समझने की भूल की गई है। (70% सांसदों पर 10,000 से लेकर 30 करोड़ रुपये के ऋण बकाया हैं!)
6) घरों में पक्के शौचालय नहीं होने के लिए लोगों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता। 
7) 50% से अधिक आबादी को चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य सिद्ध करके 73वें संविधान संशोधन के ज़मीनी लोकतंत्र के उद्देश्य को ख़ारिज कर दिया गया है। 
8) यह क़ानून बदले, सज़ा और बहिष्करण की बुनियाद पर रचा गया है, न कि कमज़ोर के सशक्तिकरण की नीयत से।     
इस फैसले ने एक बार फिर हममें से उन लोगों को जो प्राथमिक कक्षाओं से लेकर विश्वविद्यालयों तक किसी भी स्तर पर शिक्षक हैं, अपने कर्म की राजनैतिक ज़िम्मेदारी और अहमियत का एहसास दिलाया है। अपनी कक्षाओं में विद्यार्थियों के साथ राज्य-निर्धारित सामान्य पाठ्यचर्या के इतर, समाज में घट रही राजनैतिक प्रक्रियाओं पर निरंतर एक समझदारी से बातचीत करना हमारे कर्म का अनिवार्य हिस्सा होना चाहिए। अगर हम अकादमिक-राजनैतिक रूप से पर्याप्त रूप से तैयार हों तो इसके लिए हम पाठ्यचर्या में शामिल सामग्री का भी बखूबी इस्तेमाल कर सकते हैं। (उदाहरण के लिए, इस फैसले के ही संदर्भ में, NCERT की कक्षा चार की हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में रामधारी सिंह दिनकर की 'पढ़क्कू की सूझ' नाम की कविता समझदारी और औपचारिक पढ़ाई के बीच के संबंधों पर सवाल खड़े करने व बहस करने का बढ़िया विषय/मौक़ा उपलब्ध करा सकती है।) यह फैसला इस मायने में और खतरनाक है क्योंकि इसने एक तरफ जनसामान्य में प्रकट विरोध पैदा नहीं किया है और दूसरी तरफ ख़ास वर्गों में स्वागत से लेकर मूक सहमति तक उत्प्रेरित की है। इन कारणों से भी बौद्धिक तबके की यह ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है कि वो अपना विरोध सार्वजनिक पटलों पर - लिखकर, विमर्श आयोजित करके, संगठित होकर - दर्ज करे और लोगों को इसके प्रति-लोकतान्त्रिक चरित्र के बारे में समझाए। ऐसे क़ानूनों का विरोध नहीं करने से भी फासीवादी ताक़तों के पक्ष में विचारधारात्मक माहौल बनता है। (उम्मीद की जानी चाहिए कि जहाँ क़ानून के स्तर पर इसे चुनौती दी जाएगी, वहीं ज़मीनी स्तर पर व्यापक जनदबाव बनाकर इसे पलटवाने और इसके विस्तार को रोकने की मुहिम भी छेड़ी जाएगी।)
                             इस फैसले के कुछ दिनों बाद ही खबर आई कि हरियाणा सरकार इस क़ानून को नगरपालिकाओं के स्तर तक लागू करने की योजना बना रही है। राजस्थान सरकार तो ऐसा क़ानून पहले ही ला चुकी थी, जिसे अलग चुनौती दी गई है। साफ़ है कि सत्ता इन क़ानूनों के वैध ठहराए जाने को और दमनकारी क़ानून बनाने के प्रोत्साहन की तरह लेती है। तो यह तय है कि इस फैसले के बाद अन्य राज्यों में, अन्य स्तरों पर, ऐसे क़ानून बनाने की प्रक्रिया रफ़्तार पकड़ेगी। जहाँ एक तरफ इस लोकतंत्र के शीर्ष के व सबसे ताक़तवर पदों को हम वैश्विक पूँजी की निरंकुश सत्ता के हितों की साधना में लिप्त देख रहे हैं, वहीं इस फैसले को हम इस लोकतंत्र के सबसे निचले स्तर के व सबसे कमज़ोर पदों के जनवादी चरित्र पर कुठाराघात की तरह से देख सकते हैं। यानी इस पहले से ही जीर्ण लोकतंत्र को 'ऊपर' और 'नीचे' दोनों तरफ से और खोखला बनाने की कवायद अंजाम दी जा रही है। ऐसे में जबकि खासतौर से देश के सुविधासम्पन्न वर्ग के एक हिस्से में लोकतंत्र के प्रति एक खीज और तानाशाही के प्रति एक ललक व्यक्त की जाती रही है, इस तरह के क़ानूनों और फैसलों से हम न सिर्फ विधायिका व न्यायपालिका के लोकतान्त्रिक चरित्र के बारे में बल्कि खुद संविधान के दायरे के बारे में एक बार फिर से सोचने को मजबूर होते हैं। एक साथी के शब्दों में, यह हमें इसलिए विचलित करता है क्योंकि इस व्यवस्था में भी जिसे 'प्रतिनिधिवाद' के चलन के कारण लोकतंत्र की जगह 'सभातंत्र' कहना ज़्यादा सटीक होगा, पंचायती स्तर पर हमारे सामने प्रत्यक्ष-लोकतंत्र की एक बीज-रूपी संभावना उपलब्ध थी। इस फैसले ने उस संभावना पर चोट करके निर्वाचन व्यवस्था को और अधिक अलोकतांत्रिक बना दिया है।
 फिर इस संदर्भ में कि हरियाणा को एक 'विकसित' राज्य समझा जाता है और, खुद न्यायालय के आग्रह ही नहीं बल्कि आँकड़ों के अनुसार भी, उक्त स्तरों पर चुनाव लड़ने वालों में अधिकतर लोग पहले से ही 'शिक्षित' रहे हैं, यह सवाल उठना लाज़मी है कि आखिर ऐसे क़ानून लाने का असल मक़सद क्या है। क्या वोट डालने तक के हक़ को संकुचित करने की ज़मीन तो नहीं तैयार की जा रही? बहरहाल, लोगों के अपनी राजनैतिक समझ व पक्षधरता के अनुसार वोट डालने के हक़ को तो इसने पहले ही संकुचित कर दिया है। जैसा कि हरियाणा के ही एक शिक्षक का कहना था, 'शिक्षित' व अन्य प्रकार से योग्य प्रतिनिधि चुनने के लिए तो लोग पहले ही स्वतंत्र थे! इसके लिए क़ानून बनाने की क्या ज़रूरत थी? इस सवाल का एक संभावित जवाब ढूँढने में शायद हरियाणा में नई सरकार बनने के बाद से साथियों के बेतहाशा बढ़े हुए बिजली बिलों के अनुभव व इसे लेकर खासतौर से किसानों के विरोध-प्रदर्शनों से कुछ मदद मिल सकती है। ज़ाहिर है कि एक ओर जहाँ सरकारें अपने स्कूल बंद कर रही हैं व उन्हें निजी संस्थाओं के हवाले कर रही हैं और दूसरी तरफ बिजली जैसी सेवाओं का निजीकरण करके उन्हें कॉरपोरेट पूँजी के मुनाफे का एकाधिकारवादी ज़रिया बना रही हैं, चुनाव के संबंध में शिक्षा योग्यता व बिल अदायगी की शर्तें लगाना राजनैतिक सत्ता का ही परोक्ष निजीकरण करना है। 
एक शिक्षिका साथी ने हरियाणा में (पंचायत, शिक्षा और महिलाओं की स्थिति को लेकर) किये गए अपने शोध के परिणाम व अनुभवों को साझा करते हुए यह रेखांकित किया कि फैसले में 'शिक्षा' को महिमामंडित करने वाली जिस सतही व सरलीकृत समझ को आधार बनाया गया है वह हरियाणा (भारत) के समाज की ब्राह्मणवादी-जातिवादी-पितृसत्तात्मक सामंती व्यवस्था की हक़ीक़त से पूरी तरह झुठलाई जाती है। इसी तरह कुछ साथियों का यह मत भी रखने पर कि शिक्षा के महत्व को पूरी तरह ख़ारिज करना ठीक नहीं होगा, अन्य साथियों ने उनका ध्यान आपत्ति के इस बिंदु पर दिलाया कि एक तो उपयोगी होते हुए भी इसे अनिवार्य बनाना अनुचित है और दूसरे ज़रूरत पड़ने पर विशेषज्ञों से सलाह लेने की व्यवस्था को तो लोकतंत्र में (राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री तक) एक सहज-स्वस्थ स्थान प्राप्त होना चाहिए। असल में औपचारिक शिक्षा की ऐसी अलोकतांत्रिक शर्तें लगाना - याद रखना चाहिए कि आठवीं के बाद तो राज्य भी पढ़ने का कोई औपचारिक संवैधानिक हक़ नहीं दे रहा है और जो व्यवस्था है भी उसमें आप कहाँ तक पढ़ पाएँगे यह आपकी आर्थिक/वर्गीय स्थिति पर निर्भर करता है - मूलतः राजनैतिक कर्म को तकनीकी-प्रशासनिक भूमिका में सीमित-परिवर्तित करने के आतंकी-राज के विचार का द्योतक है।
रही बात घरों में पक्के शौचालय बनाने की शर्त की, तो यह भारत के ब्राह्मणवादी शासक वर्ग की उस हीनता-ग्रंथि का भी सबूत है जो संसारभर में सर्वश्रेष्ठ व जगतगुरु होने के दावों से अपने-आप को ढँकने की कोशिश करती है, एक सरकारी अभियान का अनैतिक प्रायोजन और निर्लज्ज इस्तेमाल भी है तथा लोगों के नितांत निजी मामलों में अनैतिक पुलिसिया दखलंदाज़ी भी है। आखिर राज्य को यह हक़ कहाँ से मिल गया कि वो किसी इंसान पर यह क़ानूनी अथवा नैतिक दबाव भी डाले कि वो अमुक जगह ही शौच करे? (कहाँ न करे यह तो सार्वजनिक चिंता का जायज़ विषय हो सकता है।) महिलाओं के बहु-बेटी वाले रूप की संभावित बेपर्दगी को गाँव-घर की इज़्ज़त का सवाल बनाकर घरों में पक्के शौचालयों के निर्माण को प्रेरित करने वाले सरकारी प्रचार इस आग्रह की ज़मीन को बखूबी प्रकट करते हैं। इस व्यवस्था में क़ानून बनाने वाले हों या उसपर मुहर लगाने वाले, उनसे इस संवेदनशीलता और सैद्धांतिकता के अनुसार काम करने की उम्मीद तो हम वैसे ही नहीं पाल सकते कि इस देश में बेघर भी रहते हैं, खानाबदोश भी और शायद कुछ खुले आसमानों के नीचे रहने वाले अपनी मर्ज़ी के आवारागर्द भी तथा इन सभी के लोकतान्त्रिक अधिकार स्थाई व निजी घरों में रहने वालों से किसी भी तरह कम नहीं होने चाहिए। (बल्कि न्याय की दृष्टि से तो ज़्यादा ही होने चाहिए।)
 शिक्षा से जुड़े होते हुए, उससे अपनी रोज़ी-रोटी भी कमाते हुए व उसको जनाधिकार का मुद्दा मानकर उसके आंदोलनों में भाग लेते हुए भी, एक ओर हम गाँधी से लेकर इवान इलिच और नील जैसे राजनैतिक-प्रयोगधर्मियों की औपचारिक-शिक्षा की आलोचनाओं को नज़रंदाज़ नहीं कर सकते और दूसरी ओर राज्य-समाज द्वारा 'शिक्षित' न किये गए (या रूमानी तबियत अथवा राजनैतिक विरोध/असहमति के प्रभाव से राज-समाज की वर्तमान औपचारिक व्यवस्था में 'शिक्षित' होना नहीं चाहने वाले) व्यक्तियों के राजनैतिक अधिकारों को सीमित करने के प्रयासों का पुरज़ोर विरोध करते हैं। यह क़ानून और इसे वैधता देने वाला फैसला अपार्थीड (रंगभेद) की तर्ज पर दोयम दर्जे की नागरिकता का निर्माण करते हैं। हमारा मानना है कि एक लोकतान्त्रिक देश में सभी लोगों को, बिना-शर्त, सम्पूर्ण नागरिकता व समान राजनैतिक हक़ हासिल होने के मूल्य से कोई समझौता नहीं किया जा सकता।   
हबीब जालिब को याद करते हुए हमें गाना होगा -
इस खुले झूठ को 
ज़हन की लूट को 
मैं नहीं मानता 
मैं नहीं जानता