फ़िरोज़
10 दिसंबर 2015 को, जोकि विडंबनीय संयोग से अंतर्राष्ट्रीय मानवाधिकार दिवस था, सर्वोच्च न्यायालय ने हरियाणा पंचायती राज (संशोधन) अधिनियम को वैध करार देने वाला फैसला सुनाया। इस अधिनियम के अनुसार गाँव, तहसील व जिला स्तरों पर होने वाले पंचायती राज चुनावों में प्रत्याशियों को कुछ नई शर्तों को पूरा करना होगा। राजबाला व अन्य बनाम हरियाणा राज्य व अन्य के इस मुक़दमे में तीन महिला वादियों द्वारा न्यूनतम शैक्षिक अर्हता, घर में पक्का शौचालय होना व बिजली आदि बिलों की मुकम्मल अदायगी की शर्तों को चुनौती दी गई थी। इस फैसले को लोकतंत्र के लिए खतरनाक मानते हुए, लोक शिक्षक मंच ने 23 दिसंबर को दिल्ली विश्वविद्यालय के केंद्रीय शिक्षा संस्थान के प्रांगण में इसपर एक चर्चा आयोजित की जिसमें शिक्षकों, विद्यार्थियों व शोधार्थियों के अलावा शिक्षा आंदोलन से जुड़े अन्य कार्यकर्ताओं ने भी शिरकत की। यहाँ हम इस चर्चा से उभरे भिन्न बिन्दुओं व सवालों के अतिरिक्त इस विषय पर अन्य लेखों में व्यक्त चिंताओं और अपनी समझ को भी समाहित कर रहे हैं।
न्यायालय ने इन शर्तों को संविधान के अनुच्छेद 14 का उल्लंघन नहीं माना और न ही इन्हें अतार्किक या मनमाना ठहराया। एक न्यायाधीश ने तो इसे पूरे देश में ही लागू करने की वकालत की। यह क़ाबिले-ग़ौर है कि जहाँ 2003 में एक संविधान पीठ ने चुनाव लड़ने को अनुच्छेद 326 के तहत एक संवैधानिक हक़ क़रार दिया था, वहीं 2010 में एक अन्य संविधान पीठ ने वोट डालने और चुनाव लड़ने दोनों को ही 1951 के क़ानून के तहत महज़ एक वैधानिक अधिकार माना था। हालिया निर्णय में न्यायालय ने निम्नलिखित आधारों पर चुनौती को खारिज किया -
1) 73वें संविधान संशोधन के तहत विधान सभा को पंचायती राज चुनावों के लिए शर्तें तय करने के क़ानून बनाने का अधिकार प्राप्त है।
2) जब तक मौलिक अधिकारों का उल्लंघन नहीं होता है तब तक सक्षम शक्ति द्वारा बनाए गए क़ानून को सिर्फ इस बिना पर अनुचित नहीं ठहराया जा सकता कि वो मनमाना है।
3) शिक्षा के आधार पर वर्गीकरण को अतार्किक नहीं कहा जा सकता। पंचायती राज इकाइयों के उद्देश्य पूरे करने के लिए शिक्षा संबंधी शर्त लगाना ज़रूरी है। बल्कि, न्यायालय के अनुसार, केवल शिक्षा ही इंसान को सही-ग़लत और अच्छे-बुरे में फ़र्क़ करना सिखाती है।4) यह देखते हुए कि चुनाव वैसे भी कितने खर्चीले हैं, न इस बात की तफ्तीश करने की ज़रूरत है कि बिल नहीं जमा कर पाने से कितने लोग चुनाव नहीं लड़ पाएँगे और न ही इस शर्त से कुछ वास्तविक असर पड़ेगा। वैसे भी जो चुनाव लड़ना चाहता है, उसे बिल जमा करके लड़ने की आज़ादी तो है ही।
5) खुले में शौच करने के अस्वस्थ चलन के संदर्भ में यह तार्किक ही है कि पंचायती राज के प्रतिनिधि खुद एक बेहतर उदाहरण प्रस्तुत करें और अपनी इकाई के उद्देश्य को आगे बढ़ाएँ।
आलोचकों ने, जिनमें कानूनविद प्रमुखता से शामिल हैं, निम्नलिखित आधारों पर इस फैसले पर सवाल खड़े किये हैं -
1) इसमें 1966 के उस ICCPR (नागरिक व राजनैतिक अधिकारों का अंतर्राष्ट्रीय प्रणपत्र ) के भाग 25 की अवहेलना की गई है जिसपर भारत ने भी 1979 में हस्ताक्षर किये थे।
2) कई पंचायतों के प्रतिनिधित्व से महरूम रह जाने की संभावना पर विचार नहीं करने की भूल की गई है।
3) इस विडंबना को नज़रंदाज़ किया गया है कि स्वच्छ्ता की पंचायती ज़िम्मेदारी निभाने के लिए एक स्तर तक शिक्षित होना ज़रूरी है मगर केंद्रीय स्तर पर दायित्व उठाने के लिए ऐसी कोई अनिवार्यता नहीं है। या यूँ कहें कि निचले पदों के लिए अधिक ऊँची योग्यता की शर्त विरोधाभासी है।
4) स्कूली औपचारिक शिक्षा को समझदारी का पर्याय मान लिया गया है।
5) बिल अदा नहीं करने को दिवालियापन समझने की भूल की गई है। (70% सांसदों पर 10,000 से लेकर 30 करोड़ रुपये के ऋण बकाया हैं!)
6) घरों में पक्के शौचालय नहीं होने के लिए लोगों को दोषी नहीं ठहराया जा सकता।
7) 50% से अधिक आबादी को चुनाव लड़ने के लिए अयोग्य सिद्ध करके 73वें संविधान संशोधन के ज़मीनी लोकतंत्र के उद्देश्य को ख़ारिज कर दिया गया है।
8) यह क़ानून बदले, सज़ा और बहिष्करण की बुनियाद पर रचा गया है, न कि कमज़ोर के सशक्तिकरण की नीयत से।
इस फैसले ने एक बार फिर हममें से उन लोगों को जो प्राथमिक कक्षाओं से लेकर विश्वविद्यालयों तक किसी भी स्तर पर शिक्षक हैं, अपने कर्म की राजनैतिक ज़िम्मेदारी और अहमियत का एहसास दिलाया है। अपनी कक्षाओं में विद्यार्थियों के साथ राज्य-निर्धारित सामान्य पाठ्यचर्या के इतर, समाज में घट रही राजनैतिक प्रक्रियाओं पर निरंतर एक समझदारी से बातचीत करना हमारे कर्म का अनिवार्य हिस्सा होना चाहिए। अगर हम अकादमिक-राजनैतिक रूप से पर्याप्त रूप से तैयार हों तो इसके लिए हम पाठ्यचर्या में शामिल सामग्री का भी बखूबी इस्तेमाल कर सकते हैं। (उदाहरण के लिए, इस फैसले के ही संदर्भ में, NCERT की कक्षा चार की हिंदी की पाठ्य-पुस्तक में रामधारी सिंह दिनकर की 'पढ़क्कू की सूझ' नाम की कविता समझदारी और औपचारिक पढ़ाई के बीच के संबंधों पर सवाल खड़े करने व बहस करने का बढ़िया विषय/मौक़ा उपलब्ध करा सकती है।) यह फैसला इस मायने में और खतरनाक है क्योंकि इसने एक तरफ जनसामान्य में प्रकट विरोध पैदा नहीं किया है और दूसरी तरफ ख़ास वर्गों में स्वागत से लेकर मूक सहमति तक उत्प्रेरित की है। इन कारणों से भी बौद्धिक तबके की यह ज़िम्मेदारी बढ़ जाती है कि वो अपना विरोध सार्वजनिक पटलों पर - लिखकर, विमर्श आयोजित करके, संगठित होकर - दर्ज करे और लोगों को इसके प्रति-लोकतान्त्रिक चरित्र के बारे में समझाए। ऐसे क़ानूनों का विरोध नहीं करने से भी फासीवादी ताक़तों के पक्ष में विचारधारात्मक माहौल बनता है। (उम्मीद की जानी चाहिए कि जहाँ क़ानून के स्तर पर इसे चुनौती दी जाएगी, वहीं ज़मीनी स्तर पर व्यापक जनदबाव बनाकर इसे पलटवाने और इसके विस्तार को रोकने की मुहिम भी छेड़ी जाएगी।)
इस फैसले के कुछ दिनों बाद ही खबर आई कि हरियाणा सरकार इस क़ानून को नगरपालिकाओं के स्तर तक लागू करने की योजना बना रही है। राजस्थान सरकार तो ऐसा क़ानून पहले ही ला चुकी थी, जिसे अलग चुनौती दी गई है। साफ़ है कि सत्ता इन क़ानूनों के वैध ठहराए जाने को और दमनकारी क़ानून बनाने के प्रोत्साहन की तरह लेती है। तो यह तय है कि इस फैसले के बाद अन्य राज्यों में, अन्य स्तरों पर, ऐसे क़ानून बनाने की प्रक्रिया रफ़्तार पकड़ेगी। जहाँ एक तरफ इस लोकतंत्र के शीर्ष के व सबसे ताक़तवर पदों को हम वैश्विक पूँजी की निरंकुश सत्ता के हितों की साधना में लिप्त देख रहे हैं, वहीं इस फैसले को हम इस लोकतंत्र के सबसे निचले स्तर के व सबसे कमज़ोर पदों के जनवादी चरित्र पर कुठाराघात की तरह से देख सकते हैं। यानी इस पहले से ही जीर्ण लोकतंत्र को 'ऊपर' और 'नीचे' दोनों तरफ से और खोखला बनाने की कवायद अंजाम दी जा रही है। ऐसे में जबकि खासतौर से देश के सुविधासम्पन्न वर्ग के एक हिस्से में लोकतंत्र के प्रति एक खीज और तानाशाही के प्रति एक ललक व्यक्त की जाती रही है, इस तरह के क़ानूनों और फैसलों से हम न सिर्फ विधायिका व न्यायपालिका के लोकतान्त्रिक चरित्र के बारे में बल्कि खुद संविधान के दायरे के बारे में एक बार फिर से सोचने को मजबूर होते हैं। एक साथी के शब्दों में, यह हमें इसलिए विचलित करता है क्योंकि इस व्यवस्था में भी जिसे 'प्रतिनिधिवाद' के चलन के कारण लोकतंत्र की जगह 'सभातंत्र' कहना ज़्यादा सटीक होगा, पंचायती स्तर पर हमारे सामने प्रत्यक्ष-लोकतंत्र की एक बीज-रूपी संभावना उपलब्ध थी। इस फैसले ने उस संभावना पर चोट करके निर्वाचन व्यवस्था को और अधिक अलोकतांत्रिक बना दिया है।
फिर इस संदर्भ में कि हरियाणा को एक 'विकसित' राज्य समझा जाता है और, खुद न्यायालय के आग्रह ही नहीं बल्कि आँकड़ों के अनुसार भी, उक्त स्तरों पर चुनाव लड़ने वालों में अधिकतर लोग पहले से ही 'शिक्षित' रहे हैं, यह सवाल उठना लाज़मी है कि आखिर ऐसे क़ानून लाने का असल मक़सद क्या है। क्या वोट डालने तक के हक़ को संकुचित करने की ज़मीन तो नहीं तैयार की जा रही? बहरहाल, लोगों के अपनी राजनैतिक समझ व पक्षधरता के अनुसार वोट डालने के हक़ को तो इसने पहले ही संकुचित कर दिया है। जैसा कि हरियाणा के ही एक शिक्षक का कहना था, 'शिक्षित' व अन्य प्रकार से योग्य प्रतिनिधि चुनने के लिए तो लोग पहले ही स्वतंत्र थे! इसके लिए क़ानून बनाने की क्या ज़रूरत थी? इस सवाल का एक संभावित जवाब ढूँढने में शायद हरियाणा में नई सरकार बनने के बाद से साथियों के बेतहाशा बढ़े हुए बिजली बिलों के अनुभव व इसे लेकर खासतौर से किसानों के विरोध-प्रदर्शनों से कुछ मदद मिल सकती है। ज़ाहिर है कि एक ओर जहाँ सरकारें अपने स्कूल बंद कर रही हैं व उन्हें निजी संस्थाओं के हवाले कर रही हैं और दूसरी तरफ बिजली जैसी सेवाओं का निजीकरण करके उन्हें कॉरपोरेट पूँजी के मुनाफे का एकाधिकारवादी ज़रिया बना रही हैं, चुनाव के संबंध में शिक्षा योग्यता व बिल अदायगी की शर्तें लगाना राजनैतिक सत्ता का ही परोक्ष निजीकरण करना है।
एक शिक्षिका साथी ने हरियाणा में (पंचायत, शिक्षा और महिलाओं की स्थिति को लेकर) किये गए अपने शोध के परिणाम व अनुभवों को साझा करते हुए यह रेखांकित किया कि फैसले में 'शिक्षा' को महिमामंडित करने वाली जिस सतही व सरलीकृत समझ को आधार बनाया गया है वह हरियाणा (भारत) के समाज की ब्राह्मणवादी-जातिवादी-पितृ सत्तात्मक सामंती व्यवस्था की हक़ीक़त से पूरी तरह झुठलाई जाती है। इसी तरह कुछ साथियों का यह मत भी रखने पर कि शिक्षा के महत्व को पूरी तरह ख़ारिज करना ठीक नहीं होगा, अन्य साथियों ने उनका ध्यान आपत्ति के इस बिंदु पर दिलाया कि एक तो उपयोगी होते हुए भी इसे अनिवार्य बनाना अनुचित है और दूसरे ज़रूरत पड़ने पर विशेषज्ञों से सलाह लेने की व्यवस्था को तो लोकतंत्र में (राष्ट्रपति-प्रधानमंत्री तक) एक सहज-स्वस्थ स्थान प्राप्त होना चाहिए। असल में औपचारिक शिक्षा की ऐसी अलोकतांत्रिक शर्तें लगाना - याद रखना चाहिए कि आठवीं के बाद तो राज्य भी पढ़ने का कोई औपचारिक संवैधानिक हक़ नहीं दे रहा है और जो व्यवस्था है भी उसमें आप कहाँ तक पढ़ पाएँगे यह आपकी आर्थिक/वर्गीय स्थिति पर निर्भर करता है - मूलतः राजनैतिक कर्म को तकनीकी-प्रशासनिक भूमिका में सीमित-परिवर्तित करने के आतंकी-राज के विचार का द्योतक है।
रही बात घरों में पक्के शौचालय बनाने की शर्त की, तो यह भारत के ब्राह्मणवादी शासक वर्ग की उस हीनता-ग्रंथि का भी सबूत है जो संसारभर में सर्वश्रेष्ठ व जगतगुरु होने के दावों से अपने-आप को ढँकने की कोशिश करती है, एक सरकारी अभियान का अनैतिक प्रायोजन और निर्लज्ज इस्तेमाल भी है तथा लोगों के नितांत निजी मामलों में अनैतिक पुलिसिया दखलंदाज़ी भी है। आखिर राज्य को यह हक़ कहाँ से मिल गया कि वो किसी इंसान पर यह क़ानूनी अथवा नैतिक दबाव भी डाले कि वो अमुक जगह ही शौच करे? (कहाँ न करे यह तो सार्वजनिक चिंता का जायज़ विषय हो सकता है।) महिलाओं के बहु-बेटी वाले रूप की संभावित बेपर्दगी को गाँव-घर की इज़्ज़त का सवाल बनाकर घरों में पक्के शौचालयों के निर्माण को प्रेरित करने वाले सरकारी प्रचार इस आग्रह की ज़मीन को बखूबी प्रकट करते हैं। इस व्यवस्था में क़ानून बनाने वाले हों या उसपर मुहर लगाने वाले, उनसे इस संवेदनशीलता और सैद्धांतिकता के अनुसार काम करने की उम्मीद तो हम वैसे ही नहीं पाल सकते कि इस देश में बेघर भी रहते हैं, खानाबदोश भी और शायद कुछ खुले आसमानों के नीचे रहने वाले अपनी मर्ज़ी के आवारागर्द भी तथा इन सभी के लोकतान्त्रिक अधिकार स्थाई व निजी घरों में रहने वालों से किसी भी तरह कम नहीं होने चाहिए। (बल्कि न्याय की दृष्टि से तो ज़्यादा ही होने चाहिए।)
शिक्षा से जुड़े होते हुए, उससे अपनी रोज़ी-रोटी भी कमाते हुए व उसको जनाधिकार का मुद्दा मानकर उसके आंदोलनों में भाग लेते हुए भी, एक ओर हम गाँधी से लेकर इवान इलिच और नील जैसे राजनैतिक-प्रयोगधर्मियों की औपचारिक-शिक्षा की आलोचनाओं को नज़रंदाज़ नहीं कर सकते और दूसरी ओर राज्य-समाज द्वारा 'शिक्षित' न किये गए (या रूमानी तबियत अथवा राजनैतिक विरोध/असहमति के प्रभाव से राज-समाज की वर्तमान औपचारिक व्यवस्था में 'शिक्षित' होना नहीं चाहने वाले) व्यक्तियों के राजनैतिक अधिकारों को सीमित करने के प्रयासों का पुरज़ोर विरोध करते हैं। यह क़ानून और इसे वैधता देने वाला फैसला अपार्थीड (रंगभेद) की तर्ज पर दोयम दर्जे की नागरिकता का निर्माण करते हैं। हमारा मानना है कि एक लोकतान्त्रिक देश में सभी लोगों को, बिना-शर्त, सम्पूर्ण नागरिकता व समान राजनैतिक हक़ हासिल होने के मूल्य से कोई समझौता नहीं किया जा सकता।
हबीब जालिब को याद करते हुए हमें गाना होगा -
इस खुले झूठ को
ज़हन की लूट को
मैं नहीं मानता
मैं नहीं जानता
1 comment:
we also need to place the making essential of certain school qualification for contesting elections against the fact that haryana has been among the first states to do away with the no detention policy. and obviously, since secondary/senior secondary schools are not available in all villages, their residents are faced with the extra-challenge of proving their 'desire for education' and eligibility for elections, much like those who must present an extra proof of their patriotism/loyalty.
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