पिछले 4 सालों में दिल्ली के सरकारी स्कूलों
की दसवीं व बारहवीं की नियमित कक्षाओं में पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या में
क्रमश: 43,540 व 53,431 की कमी आई
है (स्रोत:
शिक्षा निदेशालय की वार्षिक रपटें)I यह कमी दसवीं में 24% और बारहवीं में 32% है| यानी, दसवीं में हर चौथे व बारहवीं में हर तीसरे
विद्यार्थी को निकाल दिया गया है| एक
तरफ बड़ी संख्या में विद्यार्थी कक्षा 9, 10, 11 में नियमित स्कूलों से बाहर
हो रहे हैं, और दूसरी
तरफ दिल्ली सरकार ओपन स्कूलिंग (NIOS) के
साथ हाथ मिलाकर स्कूल छोड़ने वाले बच्चों का भला करने की वाहवाही लूट रही है| प्रजा फाउंडेशन की रिपोर्ट (White Paper, State of Public (School)
Education in Delhi, Praja.org, Dec 2017) के अनुसार
2016 में दिल्ली में 85,000
बच्चे स्कूलों से बाहर हुए| आख़िर
अगर दिल्ली सरकार अपने स्कूलों में इतने कामयाब सुधार लाने का प्रचार कर रही है तो
फिर विद्यार्थियों की संख्या बढ़ने के तो छोड़िये स्थिर रहने के प्रमाण भी क्यों
नहीं मिल रहे हैं?
स्कूलों से
बाहर होते बच्चे
दरअसल दिल्ली सरकार के स्कूलों में
विद्यार्थियों के लिए कक्षा 12 तक की शिक्षा पूरी करना मुश्किल होता जा रहा है| 2018-19 में कक्षा 9 से 12 तक
में फेल हो जाने वाले कुल विद्यार्थियों में से 66% (1 लाख से ज़्यादा) को सरकारी
स्कूलों में पुन:दाखिला नहीं दिया गया (RTI 15.11.18, वकील अशोक अग्रवाल)| अपने परिणाम सुधारने के लिए
दिल्ली सरकार ने स्कूलों को निर्देश दिए कि कक्षा 9,10,11
में फ़ेल होने वाले विद्यार्थियों को नियमित स्कूल छोड़कर पत्राचार/ओपन में दाखिला
लेने के लिए ‘प्रोत्साहित’ किया जाए| दिल्ली
सरकार ने‘फेल ना करने की नीति’ को ख़त्म करने का फ़ैसला लेकर विद्यार्थियों के
एक हिस्से को पाँचवीं कक्षा से ही स्कूलों से बाहर करने का इंतेज़ाम भी कर दिया है|
हम इस कड़वी सच्चाई से वाकिफ़ हैं कि सरकारी
स्कूलों में दाखिले आसान नहीं मुश्किल हुए हैं| शिक्षा अधिकार अधिनियम के तहत 6 से 14 साल की
उम्र के बच्चों का दाखिला करना अनिवार्य है लेकिन सरकार के अपने आदेश नित नए
कागज़ों - आधार कार्ड, पते का
सबूत, बैंक
अकाउंट आदि की मांग करते रहे हैं| यहाँ तक कि
प्रवेश के लिए 'अंतिम
तिथि' की ग़ैर-क़ानूनी शर्त थोप दी जाती
है| 2017 में
दिल्ली सरकार ने दाखिले की प्रक्रिया को ऑनलाइन करके अभिभावकों की मुश्किलों को कई
गुना बढ़ाया थाI हमारे
स्कूलों में जो बच्चे आ रहे हैं उनके अभिभावकों का इन्टरनेट कैफ़े जाकर फॉर्म भरने
में बेशक़ीमती समय और पैसा लगा, गलतियां
ठीक करवाने में जो मुश्किलें आईं वो अलग| कितने ही
बच्चे तकनीकी समस्याओं के चलते बिना दाखिले के लौट गए|
परिणामों को साम-दाम-दंड-भेद से बढ़ाकर दिखाने
का खेल खेला जा रहा है| बच्चों
को अलग-अलग स्तर के और दोयम दर्जे के टेस्ट दिए जा रहे हैं ताकि पास होने वाले
बच्चों की संख्या बढ़कर दिखाई दे| शिक्षकों
को मौखिक और लिखित धमकियां दी जा रही हैं जिसके चलते वो परीक्षा परिणामों को लेकर
अनैतिक दबाव में हैं| बार-बार
बच्चों के टेस्ट लेकर न केवल पढ़ने-पढ़ाने का समय बर्बाद किया जा रहा है बल्कि
परिणाम-केन्द्रित शिक्षा का ऐसा संदर्भ तैयार किया जा रहा है जिसमें शिक्षा के
बौद्धिक मूल्यों की जगह बचपन से ही कोचिंग, प्रतियोगितावाद और बाज़ार की दुनिया के लिए
तैयार करने वाले बहुविकल्पीय प्रश्नों ने लेनी शुरु कर दी है|
डाऐन रैविच जैसे स्कॉलर्स के अध्ययन व हमारा
अनुभव भी यह पुष्ट करता है कि परिणाम-आधारित मूल्याँकन के इस दर्शन व व्यवस्था में
एक समस्या यह भी है कि इससे तमाम तरह की विसंगतियाँ जन्म लेती हैं; जैसे -
विषयवस्तु की गहराई में न जाना, टेस्ट
नियंत्रित संकीर्ण शिक्षण-अध्ययन, परीक्षा-पत्रों
से लेकर परिणामों तक को तैयार करने में एक छल व अमर्यादित चालाकी, प्रतियोगितावाद व उससे उपजती श्रेष्ठता-हीनता
का भेदभाव, अपमान-पुरस्कार
के बाह्य प्रेरकों पर निर्भरता आदिI
स्कूलों
में वर्गीकृत होते बच्चे
दिल्ली सरकार के स्कूलों में थोपी गई चुनौती
(2016) व मिशन
बुनियाद (2018) नाम की
योजनाओं के तहत पहले छठी से नौवीं तक, और बीते
वर्ष तीसरी से ही, सभी
कक्षाओं के विद्यार्थियों को हिंदी-अंग्रेज़ी-गणित के 'मूलभूत
कौशलों' का परीक्षण
करने वाले टेस्टों के आधार पर अलग-अलग वर्गों में बाँटा व चिन्हित किया गया है। यह एक ऐसी व्यवस्था है जो नस्लीय
रंगभेद (अपार्थेड) व जातिगत भेदभाव के ढाँचों तथा विचार की याद दिलाती है। इस
बँटवारे और बच्चों को चिन्हित करने की नीति के त्रासद व गहरे रूप से घातक असर हमने
ख़ुद शिक्षकों और विद्यार्थियों के परस्पर व्यवहार, भाषा आदि में देखे हैं| कम उम्र के
बच्चों में एक ओर कुछ ने इसे अपनी श्रेष्ठता के अलगाव के प्रतीक के रूप में लिया
है तो अन्यों को इससे निराशा, हीनता
व बहिष्करण का एहसास हुआ है| दोनों ही परिस्थितियों में बच्चों का
अमानवीकरण हुआ है|
एक अन्य दृष्टि से भी यह मिशन शिक्षा के
उद्देश्यों को हल्का करके स्कूलों को मात्र साक्षरता या ट्यूशन केंद्र बनाने की
कवायद है| शिक्षा की
जटिलताएं समझने वाले जानते हैं कि बच्चे ‘भाषा’संकल्पनाओं
व जीवंत अनुभव के साथ ही सीखते हैंI मिशन
बुनियाद की तर्ज पर भाषा को संदर्भविहीन करने का साफ़ मतलब है भाषा की शिक्षा से
ज्ञान और चिंतन को खत्म करना| साक्षर
बनाने के नाम पर जो धोखा बच्चों के साथ किया जा रहा है वह सोचने-समझने वाले
दिमागों को खाली बर्तनों में तब्दील करने की साज़िश है|
मिशन बुनियाद के दौरान शिक्षकों को ट्रेनिंग
मैन्युअल देकर उन्हें कार्यान्वित करने के निर्देश दिए गए| प्रत्येक
स्कूल की प्रत्येक कक्षा की प्रत्येक गतिविधि पर नज़र रखने के लिए नए-नए यांत्रिक
उपाय इजाद किए जा रहे हैं| इन
योजनाओं को लागू करने में शिक्षकों का अपना अध्ययन और स्वायत्तता आड़े न आ जाए
इसलिए स्कूलों में मेंटर टीचर्स और टीचर्स डेवलपमेंट कोऑर्डिनेटर की फ़ौज खड़ी की गई
है जिनसे सूक्ष्म निगरानी रखना, सरकारी
योजनाओं को लागू करवाना, शिक्षकों
के व्यवहार को संचालित करना और उनमें आकाओं
का डर बिठाना आदि अपेक्षित है|
दरअसल ऐसे ‘मिशन’ दुनियाभर में वैश्विक
पूंजीवादी संस्थाओं के एजेंडे को पूरा करने के लिए चलाए जा रहे हैं ताकि ‘साक्षर
लेकिन अशिक्षित मज़दूर’ तैयार किए
जा सकें| दिल्ली
सरकार ने भी इस मिशन में अपना पूरा दम झोंककर इन वैश्विक पूंजीवादी संस्थाओं के
प्रति अपनी वफ़ादारी साबित की है|
बच्चों के साथ-साथ स्कूलों का वर्गीकरण भी
बढ़ा है| सरकार ने
पहले अपने 54 स्कूलों को‘मॉडल ‘घोषित
करके सरकारी स्कूलों की असमान परतों में एक विशिष्ट परत का इज़ाफ़ा किया (और बहुत
सफाई से इनके संचालन में NGOs की पीपीपीवादी
घुसपैठ करा दी), और फिर ‘schools of excellence’ के नाम से
5 नए स्कूलों की VVIP परत बिछा दी|
स्कूलों
में तैयार होते सस्ते मज़दूर
बाज़ारवाद के तार 'कौशल
विकास' की उस
योजना से भी जुड़े हैं जिसके नाम पर सरकारी स्कूलों में अब नौवीं से ही
विद्यार्थियों को वोकेशनल कोर्सों की तरफ़ धकेला जा रहा है। फिर ग्यारहवीं में बड़ी
संख्या में, विद्यार्थियों
को, उनकी पसंद या इच्छा के विपरीत वोकेशनल स्ट्रीम दी जा रही है। यह सरकारी
स्कूलों के आकादमिक चरित्र पर एक सीधा हमला हैI इस तरह के कोर्सों का स्कूलों के अंदर एक
जेंडर-आधारित बँटवारा भी है और इन्हें केवल सरकारी स्कूलों पर ही थोपा जा रहा है
जहाँ विद्यार्थियों की अधिकांश संख्या मज़दूर, दलित, पिछड़ी, अल्पसंख्यक
व विकलांग पृष्ठभूमि से आती है| यह
वंचित जातियों व वर्गों के बच्चों के शैक्षिक-सामाजिक बहिष्करण का एक नया उपाय है।
मामला केवल मेहनतकश वर्ग के बच्चों को
वोकेशनल शिक्षा की तरफ धकेलने का नहीं है बल्कि मज़दूर-विरोधी वोकेशनल शिक्षा देने
का भी है जो उस वोकेशन के तकनीकी ज्ञान तक सीमित होगी और उसके
सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक पहलूओं से वंचित होगी| इस वोकेशनल शिक्षा में मालिकों और
उपभोक्ताओं को सर्वोच्च रखना सिखाया जा रहा है ताकि विद्यार्थी आदर्श सेवक बनें|
यह शिक्षा उन्हें काम-धंधों के जाति और लिंगभेद पर आधारित इतिहास को समझना, शारीरिक
और मानसिक श्रम के बंटवारे पर प्रश्न उठाना और पूंजीवाद के खिलाफ़ मज़दूर संघर्षों
के पाठ नहीं सिखाएगी| मानव संसाधन विकास मंत्रालय द्वारा स्कूलों में NSQF (National Skills
Qualifications Framework) नाम
से चलाए जाने वाले कार्यक्रम में भी यही नीति प्रतिपादित होती है| इसके बारे में अनिल सदगोपाल अपने
लेख Skill
India or Deskilling India (EPW, August 2016) में लिखते हैं कि भविष्य में अकुशल
कामों के लिए भी NSQF
सर्टिफिकेट
को अनिवार्य कर दिया जाएगा और क्योंकि अनेक कारणों से बच्चे कक्षा 8 से पहले ही स्कूल
छोड़ने पर मजबूर होंगे इसलिए वे यह सर्टिफिकेट नहीं प्राप्त कर पाएंगे| नतीजा यह होगा कि वे अकुशल मज़दूर
घोषित कर दिए जाएंगे जिनका शोषण करने के लिए Make In India के पास पूरी छूट होगी|
दिल्ली सरकार ने इस नीति को अपने स्कूलों में
तेज़ी व पूरी ताक़त से लागू किया है। आज हमारे स्कूलों में निजी संस्थाएं आकर निचली
कक्षा से ही बच्चों के aptitude (अभिरुचि)
टेस्ट लेती हैं, और बिना
शिक्षकों की सक्रिय प्रतिभागिता के बच्चों को टेस्टों के आधार पर बांटकर वोकेशनल
काम-धंधों के लिए प्रोत्साहित करती हैं|
दिल्ली सरकार ने कोई नए कॉलेज तो नहीं खोले
हैं और न ही शिक्षकों को तैयार करने वाले किसी भी स्तर के संस्थान खड़े किए हैं, मगर 'विश्व-स्तरीय' कौशल विकास केंद्र ज़रूर खोले हैं जिसका
प्रचार भी बख़ूबी व गर्व से किया है। शिक्षक ट्रेनिंग भी विश्वविद्यालयों और SCERTs के क्षेत्र
से निकालकर NGOs
के
हाथों में दी जा रही है| इससे ज़्यादा हास्यास्पद क्या होगा कि जब पूरी
अर्थव्यवस्था संकट से गुज़र रही है, सरकारी क्षेत्रों को सिकोड़ा जा
रहा है, छोटे
स्व-नियोजित व्यवसायों पर एक-के-बाद-एक चोट की जा रही है तब बच्चों को यह कहकर
‘मौलिक कौशल’ सिखाए जा रहे हैं कि लोग इसलिए बेरोजगार हैं क्योंकि उनके पास कौशल
नहीं हैं| तो फिर स्कूलों की ज़रूरत ही क्या
रह जाती है?
गैर-अकादमिक
होती पाठ्यचर्या
शिक्षा के शिथिलीकरण की कड़ी में दिल्ली सरकार
कुछ और कार्यक्रम भी चला रही है; जैसे
हैप्पीनेस करिकुलम (खुशी की पाठ्यचर्या; कक्षा
-VIII), क्लीनलिनेस करिकुलम (स्वच्छता की पाठ्यचर्या)
व अब entrepreneurship curriculum (निजी धंधे
की पाठ्यचर्या; कक्षा IX-XII)| किसी भी
तरह के गहन शिक्षा-सिद्धांत व अकादमिक प्रक्रिया को अपनाए बिना इन पाठ्यचर्याओं
द्वारा हर बच्चे के स्कूली दिन के 40-50 मिनट ऐसे राजनीतिक कार्यक्रमों की बलि चढ़ा
दिए गए हैं जो मूल रूप से बच्चों की चेतना को कुंद करने का काम करते हैं; जैसे खुशी, संतुष्टि, न्याय के
सवालों को आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक धरातल व संदर्भ से काटकर देखने को प्रेरित करना| यह ज़रूर है
कि ऐसे सतही व ग़लत विचारों को अमलीजामा पहनाकर सरकार के प्रचारतंत्र ने तालियाँ
बंटोरने में सफलता हासिल की है| विद्या
ज्योति जैसी आध्यात्मवादी संस्था को
प्रारंभिक शिक्षक तैयार करने वाले ज़िला-स्तरीय संस्थानों में अहम भूमिका दी जा रही
है| यह तय है
कि ऐसी संस्थाएँ व कोर्स स्कूलों में ख़तरनाक रूप से रूढ़िवादी व विज्ञान-विरोधी
विचारों को बढ़ावा देने का माध्यम बनेंगे।
प्रोपगंडा
के केंद्र बनते स्कूल
दिल्ली सरकार ने साझा मंच नाम के एनजीओ के
साथ मिलकर SMC के चुनाव करवाने और मासिक बैठकें
करवाने की प्रक्रिया शुरु की| लेकिन इसके
साथ-साथ शुरु हुआ SMC पर केंद्रीकृत एजेंडा थोपना और SMC को गैर-आकादमिक उदेश्यों के लिए
इस्तेमाल करना| उदाहरण के
तौर पर, दिल्ली
सरकार ने आठवीं तक फेल न करने की नीति को बच्चों के परिणामों के लिए दोष देते हुए
स्कूलों को एक निर्देश जारी किया जिसमें विद्यालय प्रबंधन समिति की बैठक में
अभिभावकों को यह समझाने के लिए कहा गया कि कैसे उनके बच्चों के खराब परिणामों का
मुख्य कारण यह नीति है| अब इन
बैठकों में शिक्षकों और अभिभावकों के बीच स्वच्छन्द बात-चीत के अवसर नहीं रह गए
हैं, बल्कि
इन्हें सरकारी कार्यक्रमों जैसे मिशन बुनियाद, आधार, GST, छोटी बच्चियों के लिए प्रोविडेंट
फण्ड आदि बेचने के मौके बना दिया गया है|हमारे
समाज में आज भी अभिभावक अपने बच्चों के भले-बुरे के लिए शिक्षक की सलाह पर विश्वास
करते हैं और शायद इसलिए ही सरकारें स्कूलों और शिक्षकों का इस्तेमाल सेल्सपर्सन्स की
तरह करने लगी हैं| हाल में 28 जनवरी 2019 को दिल्ली सरकार के
स्कूलों में आयोजित मेगा पीटीएम के अवसर को खुले तौर पर दलगत प्रचार के लिए
इस्तेमाल किया गया| स्कूलों
में 'दिल्ली
सरकार द्वारा 11,000 कमरों
का निर्माण' का ऐलान करते
जो बोर्ड्स लगाये गए थे वो कोई जनहित संबंधित घोषणा नहीं थी, बल्कि आत्म-प्रचार था, वो भी एक ऐसे काम का जो अभी शुरु भी नहीं हुआ
है| शिक्षकों
के बीच भी यह बेचैनी बढ़ने लगी है कि उनका इस्तेमाल दलगत प्रोपगंडा के लिए किया जा
रहा है|
एक स्कूल की SMC के MLA प्रतिनिधि ने VIP संस्कृति का परिचय देते हुए एक
कर्मचारी के काम में कमी पाए जाने के बहाने पर बिना किसी उचित प्रक्रिया का पालन
करे उसे तुरंत नौकरी से निकालने की धमकी दी, वहीं
एक अन्य स्कूल में एक SMC सदस्य
द्वारा महिला शिक्षिकाओं को दुपट्टा ओढ़ने की हिदायत दी गईI अगर SMC और
शिक्षकों के बीच संबंध केंद्रीकृत एजेंडा से निर्धारित होंगे तो समुदाय
प्रतिभागिता के सही मूल्य कार्यान्वित नहीं हो पाएँगे|
डाटा
उत्पादन के केंद्र बनते स्कूल
सरकारी स्कूलों की बदलती भूमिका का एक और
पहलू यह है कि इन्हें विभिन्न तरह के डाटा इकट्ठा करने के केन्द्रों में तब्दील
किया जा रहा है| उदाहरण के
तौर पर यह सरकार स्कूलों को निर्देश देती है कि बच्चों के परिवारों के सभी सदस्यों
की तरह-तरह की निजी जानकारियाँ (जैसे, वोटर कार्ड, आधार कार्ड, फ़ोन नम्बर, शैक्षिक
योग्यता, मकान का
मालिकाना स्वरूप आदि) इकट्ठी करें। अदालत में इस बारे में सवाल पूछे जाने पर इसके
उद्देश्य के रूप में सरकार ने विभिन्न योजनायें बनाने का गोलमोल जवाब दिया, लेकिन उस थर्ड पार्टी का खुलासा नहीं कर पायी
जिसे इस पूरे डाटा को सौंपा जाना है। अदालती चुनौती के चलते ही सरकार ने माँगी गई
जानकारी को घटा दिया लेकिन प्रिंसिपल व शिक्षकों पर ज़बरदस्त प्रशासनिक दबाव बनाकर
तथा उनसे बिना भरपाई के ओवरटाइम कराकर बहुत-सा डाटा प्राप्त करके उसे अपलोड भी करा
दिया है। फिर बच्चों के माता-पिता के उन फ़ोन पर जोकि उन्होंने जागरूकता की कमी व
विश्वास के चलते स्कूल से साझा किए थे, बच्चों के
जन्मदिन की बधाई के संदेश आते हैं जिनमें शिक्षा मंत्री अपने नाम से उन्हें यह
शुभकामना देते हैं कि वो बड़े होकर देश के लिए आम आदमी पार्टी जैसा अच्छा काम करें! प्रतिदिन
स्कूलों में आंकड़ों का आपातकाल खड़ा किया जाता है और जो शिक्षक डाटा समय पर नहीं दे
पाते उनकी पेशी की जाती है| डाटा
की यह भूख बढ़ती जा रही है जो न केवल शिक्षकों पर गैर-अकादमिक कार्यों का बोझ बढ़ा
रही है बल्कि स्कूलों को डाटा व्यवसाय के स्थल भी बना रही है| स्कूलों से
बच्चों की महत्वपूर्ण व्यक्तिगत जानकारियाँ मांग ली जाती हैं लेकिन न उनके कारण
बताए जाते हैं, न यह बताया
जाता है कि यह डाटा किन हाथों में जा रहा है और न यह कि इनसे क्या निष्कर्ष निकाले
जाएंगे| इस डाटा
उत्पादन को उसी कड़ी में समझने की ज़रूरत है जिसमें दुनियाभर की नवउदारवादी सरकारें
नागरिकों के आँकड़ों को
अपने प्रचार और लोगों की एक-एक बात पर नज़र रखने और नियन्त्रण करने के लिए इस्तेमाल
कर रही हैंI
शिक्षा-विरोधी
एजेंडे के तहत बढ़ता शिक्षा बजट
बजट का बढ़ना नये कमरों के बनने, एक ही परिसर में नया ब्लॉक खड़ा
करने व पुराने भवनों के पुनर्निर्माण में तो नज़र आता है मगर यह भी सभी स्कूलों या
इलाक़ों की ज़रूरत के अनुसार नहीं हुआ है| इसके
अलावा, नये
स्कूलों को खड़ा करने की विफलता और सरकार की नित नई घोषणाएँ बताती हैं कि इस बढ़े
हुए बजट का उपयोग ग़ैर-ज़रूरी कामों और निजी समूहों को लाभ पहुँचाने के लिए
हुआ है| यह ग़ौरतलब
है कि मीडिया में भी उन चंदेक स्कूलों की ख़ूब वाहवाही वाली रिपोर्टिंग हुई है जहाँ
‘विश्वस्तरीय’ स्वीमिंग पूल बना दिए गये हैं, बिना इसकी तफ़्तीश किये कि अधिकतर
स्कूलों में तो खेल के मैदान ही विलुप्त होते जा रहे हैं और पाँच प्रतिशत से भी कम
स्कूलों की पाँच-सितारा सुविधाओं को कितने बच्चे इस्तेमाल कर पा रहे हैं तथा असल
में कौन चाँदी काट रहा है| जहाँ
CCTV
पर
670 करोड़ खर्च किया जा रहा है व शिक्षकों को टैब खरीदवाने पर अनुमानित 75 करोड़ का
बजट दिया गया है, वहीं कक्षा
9 से 12 तक के बच्चों की सीबीएसई फ़ीस माफ़ करने की आवश्यकता महसूस नहीं की गई| PPP के सूत्र
के तहत कुछ स्कूलों के मैदानों को खेल की निजी कोचिंग अकादमियों को छुट्टी के
दिनों में अपने सेंटर चलाने के लिए सौंप दिया गया है| इस योजना को स्वीकार्य बनाने के लिए सरकार ने
कहा है कि ये खेल अकादमियाँ 50% सीटें सरकारी स्कूल के बच्चों के लिए मुफ़्त रखेंगी
और बाक़ी बच्चों से फ़ीस लेकर मुनाफ़ा कमाने के लिए स्वतंत्र रहेंगीI
एक तरफ़ बोलचाल की अंग्रेज़ी सिखाने के नाम पर
ब्रिटिश काउंसिल जैसी संस्थाओं को स्कूलों में छात्र-छात्राओं को कोर्सों में
नामांकित करने के अवसर प्रदान किये गये हैं जिससे न केवल अंग्रेज़ी विषय के बारे
में आकादमिक विचार के बदले एक बाज़ार की ज़रूरत के भाव का संप्रेषण हुआ है, बल्कि स्कूलों को अनैतिक रूप से निजी
संस्थाओं के कारोबार के लिए इस्तेमाल किया गया है| ‘ग़रीब’ बच्चों की मदद करने के नाम पर सरकारी स्कूलों
के विद्यार्थियों की प्रतियोगितावादी कोचिंग के लिए बड़े-बड़े सेंटर्स के साथ समझौते
करके उन्हें फ़ायदा पहुँचाया गया है और स्कूलों की नियमित पढ़ाई की गंभीरता को भी
परोक्ष रूप से कमतर किया गया हैI इसी
तर्ज पर दिल्ली सरकार ने उच्च-शिक्षा के लिए ऋण उपलब्ध कराने में मदद करने के नाम
पर बैंक के समक्ष गारन्टर की भूमिका निभाने की नीति की घोषणा करके एक तरफ़ अपनी‘उदारता’ दिखाने की कोशिश की है, वहीं दूसरी
तरफ़ नव-उदारवादी एजेंडे के तहत उच्च-शिक्षा को बाज़ार व निजी मुनाफ़े के जायज़ विषय
के रूप में स्थापित करने का काम भी किया हैI यानी, एक तीर से दो निशाने!
इस बिना पर दिल्ली सरकार द्वारा शिक्षा के
बजट में कई गुना बढ़ोतरी किये जाने को हम एक सबक़ की तरह लेते हैं। यह दिखाता है कि
नव-उदारवादी पैंतरे के तहत यह मुमकिन है कि मीडिया व जनता को भरमाने के लिए शिक्षा
का घोषित बजट बढ़ा दिया जाये और नव-उदारवाद के अजेंडे को भी आगे बढ़ाया जाये।
नव-उदारवाद
की प्रयोगशाला बनते स्कूल
शिक्षा पर नव-उदारवाद के इस कसते शिकंजे के
प्रमुख कर्ता-धर्त्ता हैं एनजीओ जिन्हें दिल्ली सरकार ने अपने दफ्तर और नीति
निर्माण में प्रमुख स्थान दिया है| एक
तरफ़ प्रथम नाम के एनजीओ के टेस्ट इस्तेमाल करके बच्चों के कौशल जांचे जा रहे हैं, एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों को
हाशिये पर डाल कर इनके द्वारा तैयार की गई हल्की व घटिया स्तर की सामग्री (प्रगति
किताबों) को स्कूलों पर थोपा जा रहा है और दूसरी तरफ सेन्टर स्क्वायर फाउंडेशन नाम
की कॉर्पोरेटवादी संस्था को बाल अधिकार संरक्षण आयोग (DCPCR) के साथ स्कूलों की ग्रेडिंग
रिपोर्ट बनाने की भूमिका दी गई है| यह
वही संस्था है जिसका मुक्त-बाज़ारवादी घोषित मन्त्र ही यह है कि सरकारों को स्कूल
नहीं खोलने-चलाने चाहिए, बल्कि बच्चों को निजी स्कूलों में पढ़ने के लिए वाउचर देने
चाहिए (फंड चिल्ड्रन, नॉट
स्कूल्स)। दुनियाभर में ऐसी ताक़तों द्वारा प्रायोजित शोधों व कार्यक्रमों में
क्राइसिस ऑफ़ लर्निंग (अधिगम का संकट यानी बच्चे ‘सीख’ नहीं रहे हैं) का जो हौवा
खड़ा किया गया है उसका एक उद्देश्य सार्वजनिक स्कूली व्यवस्था को बदनाम करके नाकारा
व विफल घोषित करना है ताकि शिक्षा के बाज़ार का रास्ता साफ़ किया जा सके। यानी, पहले यही संस्थाएं सर्वे करवाकर
सरकारी स्कूलों, विशेषकर
शिक्षकों, को नाकारा
साबित करती हैं, फिर अपनी
किताबें, ट्रेनर्स, टेस्ट लाकर सरकार से पैसे
बंटोरती हैं, फिर सरकारी
स्कूलों को निजी हाथों में सौंपने के रास्ते तैयार करती हैं| यह तर्क देना मक्कारी है कि
परिणामों के लिए शिक्षक एकाकी रूप से ज़िम्मेदार हैं, जबकि
बच्चों के सीखने और परिणामों पर उनकी आर्थिक-सामाजिक व स्कूलों की परिस्थितियाँ भी
प्रभाव डालती है और इन दोनों की ही ज़िम्मेदारी राज्य पर है।
जहाँ दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग में प्रथम
के वरिष्ठ पदाधिकारी को औपचारिक रूप से महत्वपूर्ण भूमिका प्रदान की गई है, वहीं इसी संस्था की एक अन्य नामी हस्ती को
केंद्र सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय की बैठकों में बुलाया जाता रहा है।
इससे स्पष्ट है कि केंद्र और दिल्ली सरकार को चलाने वाले हाथ अलग नहीं हैं|
निजी संस्थाओं को महत्वपूर्ण अधिकार व
भूमिकाएँ देकर, सरकार ने SCERT जैसे सार्वजानिक संस्थानों को
कमज़ोर किया है| मुख्यमंत्री व शिक्षा-मंत्री
बुद्धिजीवियों की आलोचना को ख़ारिज करके एक सतही समझ को लोकप्रियता का जामा पहनाकर
महिमामंडित करते रहे हैं|
महत्वपूर्ण बात यह है कि सरकारी स्कूलों को
नव-उदारवाद की प्रयोगशाला बनाया जा रहा है| आज इन स्कूलों में मेहनतकश वर्ग के बच्चे पढ़
रहे हैं और उनके समय को कई तरीकों से बर्बाद किया जा रहा है और उनकी शिक्षा से
अकादमिक हिस्सा कम किया जा रहा है| स्कूलों
का भविष्य इस बात पर निर्भर होता चला जा रहा है कि वे दक्षता से डाटा इकट्ठा करें, इसे कंप्यूटर पर चढ़ाएं, नित नई शिक्षा-विरोधी नीतियों और
योजनाओं को कार्यान्वित करें और इनकी रिपोर्ट सरकार को भेजें| इसके लिए
दिल्ली सरकार के स्कूलों में प्रत्येक शिक्षक को टैब दिया जा रहा है कि वे कुशलता
का ऐसा मॉडल प्रस्तुत करें कि नए- नए विक्रेताओं की लाइन लग जाए| अगर केंद्र तथा विभिन्न राज्य सरकारों की
नीतियों पर नज़र डालें तो स्पष्ट होता है कि एफिशिएंसी के नाम पर एक तरफ सरकारें
शिक्षा में बजट से खिलवाड़ कर रही हैं और दूसरी तरफ सार्वजनिक व्यवस्था व उसके
कर्मचारियों पर दोषारोपण करके अपनी नीतियों का ठीकरा फोड़ती हैं| मंत्रियों और अफसरों के ‘अघोषित
इंस्पेक्शन, शिक्षकों
को निलंबित करने, नए टेस्ट
शुरु करने’ आदि से
सम्बन्धित बयान आते रहते हैं| प्रत्यक्ष
रूप से नियंत्रण के बजाए ऐसे परिणाम आधारित मूल्यांकन के खाके तैयार किया जाते हैं
जो वस्तुपरक होने का दावा करते हैं| दरअसल यह
ऑडिटिंग और जवाबदेही बढ़ाने का स्वांग नवउदारवादी सरकारों का अपनी नाकामियां और
विफलताएं ढांपने का तरीका है| अब तो यह
स्पष्ट होता चला जा रहा है कि नव-उदारवादी सरकारों के शासन में स्कूल न केवल
पूंजीवाद की आवश्यकतानुसार श्रमिकों की फ़ौज तैयार करेंगे बल्कि सरकारी स्कूलों का
इस्तेमाल स्थानीय तथा विशेषकर वैश्विक पूंजी के विभिन्न उपयोगों के लिए किया जाएगा| यह सारा खेल सार्वजनिक शिक्षा को मज़बूत करने
का नहीं है बल्कि कुशल शासन का ऐसा मॉडल प्रस्तुत करने का है जो वैश्विक पूंजी के
काम आए| आगे-पीछे
सभी राज्यों और केंद्र सरकार को यह करके दिखाना ही होगा नहीं तो एजेंट्स
बदल दिए जाएंगे|
लोक शिक्षक मंच शिक्षा के इस बदलते स्वरूप को
और गहराई से समझने और इसके खिलाफ़ संघर्ष को मज़बूत करने के लिए एक पुस्तिका लाने के
लिए प्रयासरत है| अगर आप पुस्तिका की प्रति प्राप्त करना चाहें तो हमें lokshikshmanch@gmail.com पर अपना संपर्क भेज सकते हैं|
2 comments:
देर आए, दुरुस्त आए, एकदम दुरुस्त आए। तहेदिल मुबारक।
अब इस रपट का व्यापक प्रचार-प्रसार होना चाहिए। लेकिन इसके पहले दो काम करने हैं। पहला, इसकी भाषा जहां भी मुमकिन हो सरल कर देनी चाहिए, संस्कृत से निकले शब्दों की जगह आम बोल-चाल के शब्दों का इस्तेमाल करने की सचेत कोशिश हो तो बेहतर होगा।
एक बात और। जहां आपने सस्ते मज़दूर बनाने की नीति का ज़िक्र किया है वहां मेरे EPW (अगस्त 2016) में छपे आलेख का संदर्भ दें तो दिल्ली सरकार के नवउदारवाद की पोल और खुलेगी चूंकि मेरा आलेख केंद्र की इसी नीति को Make in India की नीति से जोड़ता है और महा-निष्कासन (महा-बेदखली) को सस्ते मज़दूरों की फौज खड़ा करने से। 18 फरवरी की हुंकार रैली के परचे में इसे मोदी सरकार के मुख्य एजेंडे के रूप में पेश किया गया है। इससे साफ़ है कि केंद्र बनाम दिल्ली सरकार का आपसी झगड़ा फर्जी है, पूंजीवाद के वैश्विक फलक पर दोनों एक-दूसरे के नक्शेकदम पर चलते हैं।
एक बार फिर मुबारक। इंकलाब ज़िंदाबाद।
अनिल सद्गोपाल
यह आशा और विश्वास की बात है कि नवउदारवाद की आंधी में जिस तरह से स्कूली और उच्च शिक्षा को तहस-नहस किया जा रहा है, उस पर लोक शिक्षक मंच की गहरी नज़र है. और ज्यादा अच्छी बात यह है कि मंच के पास शिक्षा के समुचित दर्शन के आधार पर एक समुचित नज़रिया है. खेद की बात यह है कि बहुत से अपने को संविधानवादी और समाजवादी कहने वाले लोग दिल्ली की वर्तमान सरकार के शिक्षा की जड़ों में पूंजीवादी ज़हर डालने वाले 'सुधारों' का गुणगान करते हैं. इससे यही सिद्ध होता है कि पूंजीवाद अपने नेता और जनता ही नहीं, बुद्धिजीवी भी बनता हुआ चलता है! हम मंच के संघर्ष के साथ हैं.
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