Saturday, 25 May 2019

शिक्षा के सामने राष्ट्रवाद का ख़तरा

एक शिक्षक की कलम से 


जब मैं छोटा था, चौथी-पाँचवीं में, तब मेरे दिलो-दिमाग़ पर अपने 'भविष्य' को लेकर तीन ख़याल छाये थे - क्रिकेट खिलाड़ी बनना, फ़ौज में जाना और (प्राइवेट) जासूस बनना। ज़ाहिर है कि इसमें मेरे परिवेश-काल की मुख्य भूमिका थी। मेरे पिता ख़ुद फ़ौज में थे, स्कूल व फ़ौजी इलाक़ों के पुस्तकालयों के माध्यम से बच्चों-किशोरों के लिए लिखे गए रोमांचकारी (अंग्रेज़ी व हिंदी कॉमिक, दोनों प्रकार के) क़िस्से-कहानियों की दुनिया से मेरा परिचय हो रहा था और पुरुष क्रिकेट टीम के मैच व खिलाड़ी शहरी-मध्यवर्गीय जीवन नहीं तो कमसकम चर्चा के केंद्र में स्थापित हो चुके थे। हमारी मित्रमंडली भी एक तरफ़ तो मनगढ़ंत ख़ुफ़िया रास्तों, ठिकानों और रहस्यों को बुन-बुन कर रोमांचकारी खेलों में मग्न रहती थी, वहीं दूसरी तरफ़ स्कूल व आस-पड़ोस के नुक्क्ड़-मैदानों पर घंटों क्रिकेट मैचों में ख़ुद को मशग़ूल रखती थी। उस वक़्त यह सब मुमकिन भी था क्योंकि एक तो खेल के मैदानों, खुले स्थानों की कोई कमी नहीं थी और दूजे बड़ों व शासन-प्रशासन की रोकटोक भी नहीं। इस तरह के अस्पष्ट विचार उस सवाल की प्रतिक्रिया में ही बने होंगे जिसमें, हमारे वर्गीय संदर्भ में, बच्चों से उनके 'बड़े' होने व अभिलाषा के बारे में नियमित रूप से पूछा जाता था/है। 
जब मैं नौवीं-दसवीं में आया तो मुझमें प्राथमिक शिक्षक बनने की इच्छा जागृत हुई। इसका कोई एक कारण बताना मुश्किल है। मुझे याद है कि उस समय के हमारे शिक्षक निश्चित ही बढ़िया थे। मेरे स्कूल में एक समृद्ध व सुलभ पुस्तकालय था जिससे हम दोस्त पुस्तकें जारी करके पढ़ते और आपस में चर्चा भी करते। यह कुछ-कुछ कॉमिक की दुनिया से साहित्य की ओर एक क़दम था। हालाँकि, यह सच है कि कॉमिक की दुनिया का स्वाद आजतक भी छूटा नहीं है! उस ज़माने में रेडियो पर बीबीसी सुनना आम बात थी और हम दोस्त अंतर्राष्ट्रीय ख़बरों पर अक़्सर कुछ बातचीत करते ही थे। हम इस मामले में ख़ुशक़िस्मत थे कि वो झूठी-उत्तेजक रिपोर्टिंग करने वाले कूपमंडूक निजी चैनलों का दौर नहीं था। दूरदर्शन का संयमित सरकारी मंच हो या बीबीसी सरीखे अधिक विश्वसनीय प्रसारण, अंतर्राष्ट्रीय ख़बरें हमें गुटनिर्पेक्ष आंदोलन से लेकर साम्राज्यवादी ताक़तों के विरुद्ध अफ़्रीकी-एशियाई एकजुटता के मूल्यवान अस्तित्व का एहसास कराती थीं। (हालाँकि ये भी सच है कि देश के भीतर वो समय, सांस्कृतिक व अन्य रूपों से, साम्प्रदायिक, लैंगिक, जातिगत, कई क़िस्मों के दमन-शोषण पर पर्दा डालने का युग भी था। फिर चीन की तथाकथित जनवादी सत्ता का हिंसक चेहरा तियानेनमेन चौक के दमन ने हमारे विश्वासों के लिए असहज रूप से उघाड़ कर रख दिया था।) 
इस बीच, खेलना-कूदना रुका नहीं था, बल्कि बढ़ा ही था। अब हम, मोहल्ले-कॉलोनी की टीम में खेलने के साथ-साथ स्कूल का भी प्रतिनिधित्व करते थे, जिसके लिए कभी दूसरे शहर भी जाना होता था। मगर इन सब के बावजूद, क्रिकेट खिलाड़ी बनने वाली बात दिल से निकल चुकी थी। हो सकता है कि इसका एक यथार्थवादी कारण वो सख़्त मैच व दौरे भी रहे हों जिनसे हमें अपने नौसीखिया हुनर व प्रतियोगिता के कठिन स्तर का पता चला। उस दौर में मैं क्रिकेट सम्राट नाम की एक पत्रिका पढ़ा करता था जिसमें खेल के इतिहास का भी विवरण होता था। उसमें इंग्लिश क्रिकेट के उस ऐतिहासिक पक्ष के बारे में पढ़ने को मिलता था जिसमें अमेचर (amateur, जिन्हें मैं हमेशा 'शौक़िया' मानता रहा) बनाम प्रोफ़ेशनल (professional, जिन्हें मैंने पेशेवर समझा) टीमों के बीच मुक़ाबला होता था। शायद इसे ही पढ़कर मुझे लगने लगा - और आज तक लगता है - कि क्रिकेट जैसे (किसी भी) इश्क़िया शौक़ को पैसा कमाने का ज़रिया बनाना कितना ओछा है। मेरे लिए शौक़िया खिलाड़ी पेशेवर खिलाड़ी से श्रेष्ठ धरातल पर था। इसलिए आज मैं उन शुद्धतावादी/दक़ियानूसी लोगों में से हूँ जिन्हें खिलाड़ियों की आईपीएल-नुमा नीलामी से घृणा होती है। ख़ैर, यह समझ में आने लगा कि खेल कर पैसे कमाना कोई तर्कसंगत या समाजहित का काम नहीं है। ये तो मौज-मस्ती और आनंद की गतिविधि है, प्रतियोगिता और पूँजी का (राष्ट्रवाद के बचकाने मिश्रण के साथ) निवेश करके जिसे फूहड़, अस्वस्थ तथा हिंसक बना दिया गया है। इसलिए अपने शिक्षण जीवन में मैंने विद्यार्थियों को खेलने-कूदने को ख़ूब प्रेरित करना चाहा है, लेकिन विभागीय प्रतियोगिताओं के प्रति मेरा उदासीनता का ही नहीं बल्कि आलोचना-बहिष्कार का रवैया रहा है। जब कोई छात्रा आगे की कक्षाओं या कॉलेज स्तर पर नियमित खिलाड़ी के रूप में खेलते हुए मिलती है तो उसके लड़की होने के कारण तो ख़ुशी होती है मगर उसकी सहज मानवीय संवेदनाओं पर अतिक्रमण होने की संभावना को लेकर चिंता भी होती है। यह प्रश्न स्वाभाविक तौर पर मन में स्थापित रहा कि क्या वयस्कों के खेलने-कूदने को काम के रूप में लेना एक सामाजिक अपराध, विलासिता नहीं। यह यक़ीनन एक ख़ूबसूरत चीज़ है, मगर उत्पादक भी नहीं है और समाज के लिए उपयोगी भी नहीं।   
ख़ैर, कुछ और बड़ा होने पर दो बार फ़ौज में शामिल होने के लिए दूसरे चरण की परीक्षा देने ज़रूर गया, मगर तब तक यह भी समझ आ गया था कि मुझे वो ज़िंदगी नहीं बितानी है जिसमें आराम और मौसम से बेमेल कपड़े (वर्दी) पहनने पड़ते हैं, वक़्त-बेवक़्त उठना-जागना पड़ता है, निरर्थक काम करने पड़ते हैं और मन हो या न हो, दूसरों को सैल्यूट करना पड़ता है। उन साक्षात्कारों में जाने के पीछे दो-तीन कारण थे - दोस्तों का साथ, घूमना-फिरना (एक तरह का रोमाँच) व बेरोज़गारी की स्थिति में परिवार को बहलाना। इस बीच न सिर्फ़ विश्वशांति के पक्ष में और युद्ध के मूल्य के ख़िलाफ़ विचारों से परिचय बढ़ता गया था, बल्कि जॉर्ज बर्नार्ड शॉ जैसे मनीषी के उस कथन ने भी बहुत प्रभावित किया जिसमें वो ऐलान करते हैं कि सैनिक से सोचने की उम्मीद नहीं की जाती। और अगर सोचने-विचारने पर ही पाबंदी हो तो मानव जीवन का क्या मज़ा!
और जासूसी? उसका ख़याल जाने कब और कैसे ज़हन से धीरे-धीरे काफ़ूर होता गया। शायद यह एहसास हो गया था कि या तो वो फ़िल्मों-अफ़सानों की एक कृत्रिम दुनिया है, या फिर उसके असली रूप को भी पहचान के झूठ की तरह जीना पड़ता है। हाँ, यह याद है कि नौवीं या दसवीं में एक दिन प्राथमिक कक्षा में 'शिक्षक' के रूप में ग़ुज़ारने का अनुभव इतना प्यारा रहा कि इस भूमिका को अपनाने का ख़याल मन में कहीं बस गया। यह बात अलग है कि आगे जाकर कई सालों तक मैंने यह जानने की कोशिश नहीं की कि इसके लिए कौन-सा अध्ययन करना पड़ता है। परिवार की आर्थिक स्थिति सुरक्षित होने और उस वक़्त तक कम-से-कम मध्यवर्ग के लिए उच्च-शिक्षा सुलभ-सार्वजनिक रूप से उपलब्ध होने के कारण मैं, बहुत-कुछ भेड़चाल में, बिना योजना के पढ़ता गया। बेरोज़गारी के बोझिल होते काल के दौरान जब समझ आया कि शिक्षक बनने के लिए अमुक कोर्स करना पड़ता है तब भी, जाने-अनजाने, एक ऐसा कोर्स किया जो प्राथमिक शिक्षण के लिए योग्य नहीं बनाता था। ग़नीमत थी कि मैं उस अंतिम बैच का हिस्सा था जिसे अयोग्य डिग्री के आधार पर भी प्राथमिक शिक्षक की नौकरी मिल गई!
अब प्राथमिक शिक्षण करते हुए लगभग बीस वर्ष होने को आ रहे हैं। इस बीच मेरे पढ़ाये कई छात्र-छात्रायें बड़े होकर कामकाज की दुनिया में प्रवेश कर चुके हैं। ये बात अलग है कि उनमें से अधिकतर अपने बचपन से ही काम का वो बोझ उठाते रहे हैं जो मैंने शायद वयस्क जीवन में भी नहीं उठाया। फिर उनमें से अधिकतर की उच्च-शिक्षा या तो पूरी ही नहीं हुई या फिर कामकाज के साथ अनियमित, दूरस्थ व्यवस्था के हत्थे चढ़ गई। अपने हर बैच के साथ, जिसे हम पहली से पाँचवीं तक पढ़ाते हैं, लगभग हर साल, मैं एक ब्यौरा रखते आया हूँ। उनकी अभिलाषा का। शुरु-शुरु में यह रोचक लगता था और मैं इसे बच्चों के मनोवैज्ञानिक विकासक्रम के रूप में देखता था। फिर धीरे-धीरे यह साफ़ होता गया कि इसमें इन बच्चे-बच्चियों की आर्थिक-पारिवारिक पृष्ठभूमि, इनका समाजशास्त्र काम कर रहा है। अब, धीरे-धीरे, यह एक रोचक नहीं, बल्कि पीड़ादायक प्रयोग होकर रह गया है। चाहे वो अपने बचपन में पढ़ने व 'बनने' की अभिलाषा के बारे में कुछ भी अभिव्यक्त (यक़ीन?) करें, नियमित कॉलेज में दाख़िला लेकर पढ़ने वाली छात्रायें अपवाद ही हैं। और इस नियमित-अनियमित उच्च-शिक्षा को पूरा करने वाली उससे भी कम। सैकड़ों में से दो शिक्षक का नियमित कोर्स कर पाई हैं और एक अब भी डॉक्टरी के कोर्स की तैयारी में लगी हुई है। पहली दो से अब मुलाक़ात होती है तो उसमें इक बिरादराना एहसास भी होता है। हम पेशे के कर्म और विचार की चुनौतियों से जुड़ी बातें भी करते हैं, कुछ पर्चों, पुस्तक-पुस्तिकाओं का आदान-प्रदान भी होता है। उनसे मिलकर, एक पक्षपात भरी अतिरिक्त ख़ुशी होती है। 
हाल ही में पता चला कि मेरी पसंदीदा छात्राओं में से एक पुलिस में कांस्टेबल के पद पर भर्ती हो गई है। उसके बारे में जो भी ख़याल था और उसे जितना भी जानता था, उस लिहाज़ से यह चौंकाने वाली ख़बर थी। वो बेहद नर्म मिज़ाज की और भोले क़िस्म की इंसान थी। है। दो अन्य छात्रायें भी उसी तरह की नौकरी की तैयारी कर रही हैं। उनसे मिलकर उन्हें छेड़ता भी रहता हूँ कि अब उन्हें विद्यार्थियों, ग़रीबों पर लाठियाँ बरसानी होंगी, रेहड़ी-पटरी वालों से पैसे उगाहने पड़ेंगे। वो हमेशा ऐतराज़ करती हैं कि वो ये सब करने के लिए पुलिस में नहीं जा रही हैं। मैं उन्हें सत्ता की वास्तविकता की दलील देता हूँ। सच कहूँ, तो उनके पुलिस में जाने के विचार से मन ख़ुश नहीं है। लगता है कि न सिर्फ़ वो विचारों के जगत से दूर हो जाएँगी बल्कि उनकी कोमलता भी कुचली जाएगी। शायद उनके लड़की होने के कारण मुझे ज़्यादा परेशानी होती हो। वैसे, जब कभी क्लास में भी आजीविका के रूप में वयस्क जीवन के संभावित कामों की चर्चा होती है, शासन, पुलिस व सशस्त्र बलों को लेकर मैं अपनी तरफ़ से उनके सामने आलोचनात्मक तर्क रखता हूँ। अक़्सर ये तर्क इन विद्यार्थियों के लिए अजनबी भी नहीं होते हैं क्योंकि मुझसे कहीं ज़्यादा इन्होंने अपने जीवन की वर्गीय अवस्था में सत्ता की हिंसा का स्वाद चखा होता है। 
शिक्षण में आने का एक आकर्षण मेरा यह अनुमान भी था कि इसमें पहनने की ही आज़ादी नहीं है, बल्कि फ़ौजनुमा अनुशासन से मुक्ति भी है और विचारों के जगत में खुलकर विचरने की गुंजाइश भी है। मेरे लिए यह फ़ौज के नज़दीक से देखे निर्जीव व रूढ़िबद्ध अनुशासन के विरुद्ध एक प्रकार की प्रतिक्रिया भी थी। फिर विश्वविद्यालयी जगत में पढ़ने-लिखने का जो दृश्य देखा था, ख़ुद जो उदार अनुभव किया था, उसने शिक्षण के कर्म को, शिक्षा के संस्थान को, एक आज़ाद-ख़याल, रूमानी शक्ल दे दी। यही तस्वीर मन में बैठी हुई थी। इतना सब बयान करने के पीछे कुछ हालिया संदर्भ हैं जो हमारे लिए परेशानी का सबब होने चाहिए। 17 फ़रवरी 2019 को द हिंदू में छपी एक ख़बर के अनुसार पाकिस्तान के सिंध प्रान्त में एक स्कूल का रजिस्ट्रेशन सज़ा के तौर पर इसलिए रद्द कर दिया गया क्योंकि उसके एक जलसे में कुछ विद्यार्थी एक भारतीय गाने पर नाच रहे थे और भारत का राष्ट्रीय ध्वज फहरा रहे थे। रिपोर्ट के अनुसार स्कूल पर भारतीय संस्कृति को प्रोत्साहित करने का इल्ज़ाम लगाया गया। सिंध प्रान्त के निजी स्कूलों के निरीक्षण और रजिस्ट्रेशन करने वाले निदेशालय के अधिकारी को यह कहते हुए उद्धृत किया गया कि शिक्षा संस्थानों में भारतीय तहज़ीब को प्रोत्साहित करना पाकिस्तान की राष्ट्रीय गरिमा के विरुद्ध है और इसे किसी भी परिस्थिति में बर्दाश्त नहीं किया जा सकता है। इन दो देशों के इतिहास के चलते, यह कहना मुश्किल है कि भारतीय गाने को कैसे परिभाषित किया जायेगा। उस राष्ट्रीय गरिमा के बारे में भी मुतमईन नहीं हुआ जा सकता जो बच्चों के द्वारा मासूम गानों और दूसरे मुल्क़/लोगों के प्रति प्यार के इज़हार से ही घायल हो जाती है। हमें आगे की ख़बर का पता नहीं है मगर इस स्कूल और इसके शिक्षकों को सलाम भेजने का मन करता है। 
दूसरी तरफ़, पिछले कुछ समय से हमारे देश में यह निर्देश कार्यान्वित हो रहे हैं कि स्कूलों में स्थानीय मूल के उन सशस्त्र सेना बलों के जवानों/अफ़सरों की मूर्तियाँ लगाई जायें जिनकी मौत सैनिक कार्रवाइयों में हुई है। इसका उद्देश्य स्कूली बच्चों में देशभक्ति की भावना जागृत करना बताया गया है। गोया अपने मुल्क़ से प्यार कोई ऐसी कृत्रिम चीज़ है जो नैसर्गिक रूप से नहीं पनपती है, बल्कि जिसे सायास (ज़ोर-ज़बरदस्ती से भी) निर्मित करना पड़ता है। (वैसे, भक्ति, किसी की भी हो, मूल रूप से शिक्षा के उसूलों के विरुद्ध है; और प्यार एक आदर्श है, मगर इसे जबरन नहीं किया जा सकता है।) इस आदेश का मुख्य केंद्र न सिर्फ़ केंद्र सरकार के अधीन संचालित स्कूल रहे हैं, बल्कि दूर-दराज़ के उन आदिवासी इलाक़ों के स्कूल भी हैं जिनके समुदायों-बच्चों को राष्ट्र जैसी हस्ती से सबसे ज़्यादा बेग़ानापन और हिंसा झेलनी पड़ी है। यह क्रूर नहीं तो विचित्र ज़रूर है कि जिनका घर-बार, जल-जंगल-ज़मीन, जीवन-संसार छीना जा रहा है, उन्हें ही इस निर्मम व्यवस्था के प्रति निष्ठा-क़ुर्बानी का पाठ पढ़ाया जा रहा है। 
उधर राजस्थान के शिक्षा मंत्री ने राज्य में नए कोर्स तैयार करने के लिए गठित समितियों को यह आदेश दिया है कि वो सेना व सशस्त्र सेना के कर्मियों की बहादुरी व बलिदान को स्कूली पाठ्यचर्या का हिस्सा बनायें। (द हिंदू, 18 फ़रवरी, 2019) इधर 16 मई को इंडियन ऐक्सप्रेस में आई एक ख़बर के अनुसार राजस्थान बालाकोट हवाई हमले को पाठ्यचर्या में स्थान देने वाला देश का पहला राज्य बन गया है। इसमें विंग कमांडर अभिनंदन की भूमिका का भी ज़िक्र है। ऐसा नहीं है कि इस तरह के पाठ या हिस्से पहले की किताबों में शामिल नहीं रहे हैं। वीर अब्दुल हमीद पर, संभवतः राही मासूम रज़ा द्वारा लिखित, एक पाठ बरसों से हिंदी की किताब का हिस्सा रहा है। मगर आज का संदर्भ अलग है। उस वक़्त किताबों में इस पाठ के साथ प्रेमचंद की ईदगाह भी थी और टैगोर का क़ाबुलीवाला भी। फिर दलगत तात्कालिक राजनैतिक दबाव की वो परिस्थितियाँ भी नहीं थीं जो आज शिक्षा के अंदर भी एक विचारशून्यता के मूल्य का निर्माण कर रही हैं। उस ज़माने में न सिर्फ़ भारत की सरकार ने परमाणु हथियार होने का ऐलान नहीं किया था, बल्कि हमें एहसास था कि हमारे देश की नैतिकता-युक्त, शाँति और देशों के बीच बराबरी के आग्रहों पर टिकी नीति दुनियाभर से परमाणु हथियार ख़त्म करने की दिशा में प्रतिबद्ध है। वो पोखरण के विध्वंस के जश्न में डूबी भक्ति का नहीं, देश के नैतिक रुख़ के गर्व का दौर था। ज़ाहिर है कि ये एहसास उस वक़्त भी सबके लिए सच नहीं था और आज भी नहीं है। देश और भक्ति की जिस परिभाषा से दुनियाभर के अति-राष्ट्रवादी संचालित होते हैं, उसमें यही देशभक्ति है। अगर आपकी देश की परिभाषा ग़लत होगी तो फिर उसके प्रति वफ़ादारी का तरीक़ा भी ग़लत कैसे नहीं होगा? ये देशभक्ति देश और इसके लोगों से प्यार में नहीं, दूसरों के प्रति नफ़रत से प्रेरित, निर्मित होती है। घृणित हिंसा इसका अपरिहार्य फल है।                  
मगर हम शिक्षण में बच्चों को मूक आदेशपालक, अनुशासित रोबोट या घृणा करने वाले देशभक्त तैयार करने नहीं आये थे। यह कोई मेरा निजी ऐलान नहीं है, बल्कि दुनियाभर में कहीं भी, किसी भी इज़्ज़तदार व बौद्धिक रूप से स्वाभिमानी शिक्षा व्यवस्था में इसकी संकल्पना नहीं की गई है, न ही ऐसी तैयारी सिखाई जाती है। ये जरासीम हमारे स्कूलों, हमारी पाठ्यचर्या, हमारी किताबों में, शिक्षा के बाहर से, डर और दंड के ज़ोर पर, प्रविष्ट कराये जाते हैं। मगर डर और दंड भी तो शिक्षा के लिए अजनबी, दुश्मन तत्व होने चाहिए। हमारी कक्षाओं में साहस का पाठ पढ़ाया जायेगा तो उसमें मख़दूम मोहिउद्दीन की नज़्म का वो सवाल भी पूछा जायेगा कि आख़िर जाने वाला सिपाही कहाँ जा रहा है, क्या ये उसको भी ख़बर है। साहस का ज़िक्र आएगा तो उन निहत्थे लोगों को सम्मान और प्यार से याद किया जायेगा जो अपने से कहीं ताक़तवर और निर्मम शक्ति से बिना किसी व्यावहारिक उम्मीद के लड़ रहे थे तथा जिनको पता था कि वो वतन से दूर, बेजनाज़ा और गुमनाम मरेंगे। वीरता सिर्फ़ जंग में मिलने वाली कोई पौरुषय वस्तु नहीं, बल्कि ये तो इंसाफ़ और बराबरी के हक़ में अपने ही निज़ाम, अपने ही लोगों से, देशद्रोही क़रार दिए जाने, झूठे मुक़दमों में बरसों जेलों में ठूस दिए जाने, क्रूर यातनायें सहने और फ़र्ज़ी मुठभेड़ों में मार दिए जाने की संभावनों के बीच, तमाम तरह के संघर्षों में प्रकट होने वाली चीज़ है। इसके एवज़ में कोई पुरस्कार नहीं मिलेगा, कोई फूल नहीं चढ़ाएगा, किसी को पेंशन नहीं मिलेगी, कोई स्मारक नहीं बनेगा, शायद कोई जानेगा भी नहीं कि आप कौन थे, किस लिए लड़े और क्यों व कैसे मौत के घाट उतार दिए गए। वीरता बेशक इंसान का एक ख़ूबसूरत पहलू है और इसलिए इसे शिक्षा का अभिन्न हिस्सा भी होना ही चाहिए। मगर हम अपने विद्यार्थियों को सिखाते आये हैं कि बदला लेने की कामना एक श्रेष्ठ भाव नहीं है, कि जान बचाने वाला लेने वाले से बेहतर होता है और जान देने वाला जान लेने वाले से अधिक बहादुर। 
हमें यह भी जानना चाहिए कि भारतीय सेना अकादमी का कोड ऑफ़ वारियर (योद्धा की संहिता) हमेशा कमज़ोर की रक्षा करने, सत्यनिष्ठ, मानवीय, सुसंस्कृत और दयालु रहने का प्रण सामने रखता है। युद्ध को रक्त-पिपासा बनाकर पेश करने और अपने निजी स्वार्थों के लिए लोगों के बीच बदले-नफ़रत की भावना को उकसाने वाले ख़ुद सेना और सैनिक के इतिहास की बेहतर धारा से अज्ञानता के स्तर तक अपरिचित हैं। हमारे स्कूल, हमारी कक्षाएँ नफ़रत और अज्ञानता का स्थल नहीं हो सकतीं। विभिन्न देशों की राजनैतिक-सांस्कृतिक सत्ता पर क़ाबिज़ होती मूढ़, घृणा फैलाने वाली और हिंसक ताक़तों की विनाशकारी प्रगति के सामने हमारी ये ज़िम्मेदारी आज और भी बढ़ चुकी है।    

Thursday, 23 May 2019

ख़बरों में शिक्षा :चुनौती कार्यक्रम को उच्च-न्यायालय में चुनौती

पिछले कुछ समय से हमने दिल्ली सरकार द्वारा सुधार के नाम पर अपने स्कूलों में तरह-तरह के आदेश लागू करते देखा है। इनमें से कई आदेश तकनीकी और शिक्षा की ख़तरनाक रूप से भ्रामक संकल्पना पर आधारित हैं। वैश्विक पूँजीवाद के अजेंडे और केंद्र सरकार की नीति का अनुसरण करते हुए इनमें न सिर्फ़ शिक्षा के दर्शन की खुली अवहेलना की गई है, बल्कि अकादमिक विमर्श तथा चिंतन का मज़ाक उड़ाया गया है। शिक्षा के अंदरूनी अनुशासन का यह मखौल ख़ुद को व्यवहारिकता के बखान पर खड़ा करके जनता में स्वीकार्यता पाने की कोशिश करता है। शिक्षा की जिस फूहड़ और असभ्य समझ को लोकप्रियता पाने के लिए इस्तेमाल किया जा रहा है उसके दो उदाहरणों के रूप में बच्चों को 'मौलिक कौशलों' के टेस्टों के आधार पर बाँटकर अलग-अलग स्तरों पर पढ़ाना तथा कक्षाओं तक में कैमरे लगाना शामिल है। जहाँ पहले 'प्रयोग' के पीछे शिक्षा की बाज़ारवादी राजनीति करने वाले एनजीओ सक्रिय हैं, वहीं दूसरा हथकंडा निरंकुश होती राज्य-सत्ता के नए प्रबंधकीय प्रशासन की निशानी है। लोक शिक्षक मंच ने प्रति-शिक्षा के इन उपायों का लगातार विरोध किया है। इस बीच गुजरात सरकार ने घोषणा की है कि शिक्षकों पर हर पल निगरानी रखने के लिए उन्हें जीपीएस युक्त फ़ोन दिए जायेंगे, जिसे उन्हें ड्यूटी के अलावा समय-स्थान में भी ऑन रखना होगा। इस संदर्भ में हम दिल्ली के सरकारी स्कूलों पर थोपी गई नीतियों को दी गई दो अदालती चुनौतियों से जुड़ी ख़बरें साझा कर रहे हैं ताकि हम यह याद रखें कि हमारे विरोध के आधार काल्पनिक नहीं हैं बल्कि संवैधानिक मूल्यों के उल्लंघन की चिंता से जुड़े हैं। और हमारे लिए यह सीख की बात भी है और प्रेरणा की भी कि बच्चों की गरिमा और अधिकारों की रक्षा के लिए अदालत का दरवाज़ा खटखटाने वाले याचियों में एक माता-पिता का संगठन है और दूसरा क़ानून के छात्रों का समूह.................................. 



चुनौती कार्यक्रम को उच्च-न्यायालय में चुनौती 
         (प्रीतमपाल सिंह, नई दिल्ली, मई 15, द इंडियन ऐक्सप्रेस)

बुधवार को दिल्ली हाई कोर्ट ने दिल्ली सरकार के स्कूलों में 'चुनौती 2018 योजना' के तहत विद्यार्थियों को उनकी अधिगम क्षमता के आधार पर बाँटने के पीछे कारण जानना चाहा। 
वह एक याचिका की सुनवाई कर रहा था जिसमें चुनौती कार्यक्रम को - जिसे कि विद्यार्थियों के ड्रॉप-आउट दर पर लगाम लगाने और शिक्षा की गुणवत्ता सुधारने के उद्देश्य से, कमज़ोर विद्यार्थियों पर ख़ास ध्यान केंद्रित करते हुए, लागू किया गया था -  रद्द करने की माँग की गई है।
न्यायाधीश सी हरि शंकर ने दिल्ली सरकार व उसके शिक्षा निदेशालय को प्रति-हलफ़नामा दायर करने को कहा। 
पेरेंट्स फ़ोरम फ़ॉर मीनिंगफ़ुल एजुकेशन ने, अधिवक्ता पी एस शारदा के माध्यम से, कोर्ट में यह इल्ज़ाम लगाते हुए दस्तक दी थी कि यह नासमझी भरी योजना शिक्षा अधिकार अधिनियम, विकलाँगों के अधिकार अधिनियम और राष्ट्रीय शिक्षा नीति के तहत बच्चों की शिक्षा को कारगर बनाने के लिए लाये गए क़ानून के भी ख़िलाफ़ है। 
न्यायालय ने यह टिप्पणी करते हुए कि उसके सम्मुख प्रस्तुत यह विषय 'बेहद गंभीर' है और तत्काल सुनवाई की माँग करता है, मामले की अगली तारीख़ 28 मई की रखी है।   
याचिका के अनुसार, "योजना के अंतर्गत अधिगम क्षमता जाँचने के लिए एक मन-गढ़ंत उथली परीक्षा आयोजित की जाती है।"याचिका में कहा गया कि "परीक्षण व बँटवारे को प्रत्येक स्कूल के प्रधानाचार्य की मनमर्ज़ी पर छोड़ दिया जाता है। अवैज्ञानिक, अवैध, तदर्थ परीक्षाओं से तैयार अविश्वसनीय परिणामों के आधार पर बच्चों को 'प्रतिभा' (बेहतर) और 'निष्ठा' (कमतर) के रूप में चिन्हित किया व बाँटा जाता है।" उसने आगे इल्ज़ाम लगाया कि "इस तरह चिन्हित व निशक्त कर दिए जाने के बाद बच्चों को एक ही स्कूल में अलग-अलग समूहों या अनुभागों में बिठाया जाता है।"
याचिका में कहा गया कि क्षमता-आधारित बँटवारे के तथाकथित उद्देश्यों को प्राप्त करने के लिए योजना को 2018 के मनमाने आदेशों के अधीन घोषित किया गया था और यह "समेकित शिक्षा" के मूलभूत तत्व के विरुद्ध है। 
उसने कहा कि अपने निर्माणात्मक दिनों में ही बाँटे गए विद्यार्थियों को हर ग़ुज़रते पल नीची नज़रों से देखा जाता है और अंततः उन्हें तुच्छ प्रकार से एक खूँटे से बाँध दिया जाता है। याचिका में कहा गया कि "बँटवारे से उत्पन्न यह भेदभाव एक अपरिवर्तनीय वर्गभेद; वर्ग-घृणा; ख़ुशी का ह्रास; हीन भावना और दोस्ती का विच्छेद पैदा कर रहा है।"
याचिका में कहा गया कि "इस पागलपन के प्रयोग ने उससे कहीं ज़्यादा तबाही मचाई है जितना इसने इलाज करना चाहा है। इससे पहले कि बहुत देर हो जाये, इसे रोकना होगा। सीखने के कम-स्तरीय परिणामों को जायज़ ठहराने के लिए बच्चों को गिनी-पिग्स बनाने की इजाज़त नहीं दी जा सकती है।"


याचिका स्कूलों में सीसीटीवी लगाने पर ऐतराज़ करती है 
सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली सरकार से जवाब माँगा  
(द हिंदू, 11 मई, 2019)
विधिक संवाददाता, नई दिल्ली 

दिल्ली सरकार द्वारा कक्षाओं में डेढ़ लाख सीसीटीवी कैमरे लगाने की नीति को चुनौती देती हुई एक याचिका पर शुक्रवार को सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली सरकार से जवाब माँगा। 
नैशनल लॉ यूनिवर्सिटी में क़ानून के तृतीय वर्ष के छात्र अंबर टिक्कू ने कहा कि कैमरे "किशोरावस्था के विद्यार्थियों की फ़ूटेज को किसी भी अजनबी को सीधे प्रसारित करेंगे"। 
सुश्री टिक्कू ने, जिनका प्रतिनिधित्व अधिवक्ता जय देहाद्रई और सृष्टि कुमार ने किया, कहा कि यह नीति विद्यार्थियों की निजता के मौलिक अधिकार का उल्लंघन है। 
नीति को लागू करने पर रोक लगाने के सवाल पर सर्वोच्च न्यायालय ने नोटिस जारी किया। मामले की अगली सुनवाई छः हफ़्ते बाद होगी। 
याचिका में दिल्ली सरकार के 11 सितंबर 2017 के उस निर्णय को रद्द करने की माँग की गई है जिसमें कक्षाओं में सीसीटीवी कैमरे लगाने और उनका सीधा प्रसारण बच्चों के माता-पिता को भेजने की बात की गई है। 
याचिका में दावा किया गया है कि ये निर्णय उच्चतम न्यायालय के उस फ़ैसले के सीधे उल्लंघन में हैं जिसमें संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत निजता के अधिकार को निर्विवादित रूप से मान्य ठहराया गया है। 
याचिका में कहा गया कि, "यूज़र पहचान संख्या और पासवर्ड रखने वाले किसी भी व्यक्ति को सीधा प्रसारण उपलब्ध कराना किशोरियों की सुरक्षा तथा सलामती को ख़तरे में डालता है....और यह हिंसक ढंग से पीछा करने व अश्लील ताँकझाँक की घटनाओं को सीधे बढ़ावा देगा।"
याचिका में इल्ज़ाम लगाया गया है कि सीसीटीवी में दर्ज डाटा को सुरक्षित रखने के लिए कोई क़दम नहीं उठाये गए हैं। 
याचिका में कहा गया है कि "इस डाटा के हैक किये जाने की संभावना है और यह बच्चों के साथ-साथ शिक्षकों की निजता तथा सुरक्षा के लिए भी एक गंभीर ख़तरा है।" 

Friday, 10 May 2019

A push into the abyss


Our intention is to draw the attention of the people of India during the ongoing electoral exercise to the state of public schools so that relevant questions may be put to the candidates and political parties contesting elections and an informed debate may get going amongst us citizens, especially those working in and concerned about the public school system. We focus on some of the gravely damaging policy measures adopted by the government, in many cases both at the centre as well as at the level of the states. In doing this, we hold the values of equality, liberty and justice as the guiding principles around which the public school system of our democratic republic should be built.
Though much of our experience and analysis is rooted in Delhi, we are under no illusions, in spite of the recent projections and claims in the media about the ‘transformation’ of Delhi government schools, that the larger policy trajectory is any different from the centre. Nevertheless, we would also like to underline at the outset, and as this statement will show, the last five years have seen an unprecedented assault by the centre toimpose its politics upon the schools run by states, in utter disregard of democratic norms of federalism and the constitutional position of school education as a concurrent subject.   

Further weakening of the RTE Act

While commentators and activists have drawn attention to the manner in which the pro-people elements of laws such as the FRA, RTI, PESAetc have been diluted in the recent past, our observations tell us that the RTE Act (2009) may also be added to this sorry list. While the RTE Act itself didn’t promise much and is rightly criticized as having been used as a tool to divert attention towards EWS admissions in private schools while doing nothing to move towards a robust common school system, even the meager rights it promised to children in the age group 6-14 are being snatched away. This is being done by diluting its provisions of section 16 (popularly known as the NDP or No Detention Policy) to bring back the pass-fail system in elementary grades; hindering admissions and entitlements (section 31) by introducing hurdles in the form of structures of e-governance and digitalization at various stages; and denying admissions on the bases of sections 12 (children failing to produce relevant documents of address proof to fulfill theneighbourhood criteria) and 25 (‘seats’ being declared full to maintain the lawfully mandated PTR). In spite of the RTE Act bestowing the right to complete elementary education for a child who may have exceeded 14 years of age, such children are being denied admission to a relevant class on the ground that their right is no longer protected by the law due to their age
We don’t buy the argument of NDP having lowered academic standards. We believe that NDP, with extra academic support, can go a long way in ensuring that students learn as per their age and are not pushed out of the school. The argument becomes especially untenable when it comes from a regime which not only de-values academic rigor in schools by diluting course content and promoting market-oriented vocational courses but also proposes two unequal levels of exams at the secondary level.
The only thing which links these seemingly disparate trends is the certain and powerful lobbying by private profit interests almost controlling and dictating government’s education policies. Thus the criticisms of the RTE’s ‘input’ requirements by the lobby of private schools and forces which identify themselves as entrepreneurs and which see even the weak norms of infrastructure put by the law as unnecessary and irrelevant to schooling and as fetters to entrepreneurship in the business of private schooling. This push to replace the focus from legally mandated norms for schools by ‘outcomes’, is ably aided by the NitiAyog’s declaration to fix public and policy attention around schools to measurable outputs. This has brought us to the corporate model of results, competition, grading, ranking, all at the cost of a focus on enriching experiences, deepening processes and other democratic concerns around which any self-respecting public school system must be built.                                                                        
Another layer of exclusive schools (for example, Schools of Excellence in the case of Delhi) has been established which not only deepens inequalities in the provisioning of public education but whose special category status is also used to place it beyond the ambit of the RTE Act. 
It is as if various clauses of the RTE Act, like the ones about PTR (pupil teacher ratio), neighborhood criteria, age-appropriate admissions, learning levels etc, are being selectively and mischievously used to scuttle the main objective of the law itself, which must have been to ensure the fundamental right of schooling till at least the completion of the elementary stage.

Inventing new tools of denial

A mother tells a teacher how she was worn down by doing several futile and inexplicable rounds of Aadharcentres and the school for getting a detail in her daughter’s enrollment corrected. As a result the parents found it extremely difficult to get their daughter readmitted in Class IX since her name had been stuck off as they had left for their native village due to some family emergency. This was her second daughter among four girls and two boys and she proudly recalled this particular child’s studiousness. She tells the teacher that having found no way out to get her readmitted in her former(regular) school, something the child herself so desired, they decided to marry her off. She was not yet 18. No checklist of school data will capture this planned cruelty perpetrated by an insensitive technocratic system whose vice-like grips our schools and children are increasingly being put into.
A 12 year old boy couldn’t attend school in Class VI because his parents were not able to open a bank account in his name. He was told that his thumb impression did not match with his Aadhaar record at the outsourced service centre of the bank.
Families of students who had already passed grade 5 found it too cumbersome and costly to fulfill the formalities (which included having an Aadhaar with the local address, a bank account and address proof) required for admission to the next grade. Some of these children ended up re-enrolling in and repeating grade 5 in a primary school where the process of admission was much more unconditional.      
As practitioners, we have, often helplessly, witnessed children being denied admission and due rights such as uniform and various scholarships for not possessing Aadhaar and Bank Accounts. In spite of the law and the Supreme Court’s ruling declaring Aadhaar non-mandatory for children below 14, governments continue to bring out admission forms and online programs and software which require Aadhaar numbers and bank accounts to be filled in mandatorily. Indeed, what used to be a simple and convenient matter of visiting the school for availing uniforms, or money in lieu of them, and other scholarships, has now been turned into a veritable nightmare and no less than a cross-country hurdle for hapless working class parents and kids which requires them to enroll at Aadhaarcentresand open and then maintain bank accounts before accessing any entitlement. The juggernaut of Aadhar has caught imagination of the parents. The non availability of Aadhar (or Bank Account) has become a self-deterrent which is making parents assume in many cases that unless they get the Aadhar of the child made she will not get admission in school leading to waste of her crucial study years. All this is besides the harassment they undergo owing to multiple, costly, time consuming and de-moralizing visits they have to undertake in order to keep track of these ‘transfers’ and to get their names, dates of birth, addresses etc corrected from time to time. That they are often charged exorbitant bribes not only at Aadhaarcentres (even within banks!) but at the banks’ GrahakSewaKendras (outsourced centreswhere they are increasingly being forced to carry on all their petty transactions for a fee) is a tragicomic irony considering the fact that one of the primary claims made in support of this bio-metric identification document and the DBT into people’s accounts was its promise of removing the weight of corruption from people’s lives.On top of it, in many instances families are finding regular deductions being made from these ‘welfare accounts’ when they are not able to maintain minimum deposits. True to the neo-logistic streak under neo-liberalism, there is nothing direct in the DBT policy for working class families being served by our schools.
The enforcement of DBT for providing students due benefits for entitlements like uniforms, stationery, books and for transferring scholarship money into their bank accounts has become a means to not only restrict children's access itself to schools but also led to depriving many children of the benefits in whose name coercive and debilitating procedures have been imposed upon children and their families. For example, we came across numerous cases in Delhi where children had been denied admission in government schools on the ground that they did not have a bank account or Aadhaar card or the details on their Aadhaar differed (as they naturally would among a people unfamiliar with the nuances of spellings in Hindi, let alone in English), even if minutely, from their school record or other details. As a result, most of these children, who come from working class backgrounds, were literally pushed out of school and were languishing at home. Not surprisingly, many among them were girls and it was not rare for their distraught parents, particularly mothers, to utter spontaneous acerbic comments on the BetiBachao, BetiPadhao slogan. Moreover, a result of the, as it turns out, an ironically named DBT has also been the mass denial of uniforms to children not possessing Aadhaar and bank accounts in our schools. It has become a common sight to see children being forced to attend school without uniform. And where you do find them wearing uniforms without exception, it is certain that their families have been coerced to avail them from their pockets, either in advance of the scholarship amount or even in its absence. We witness students of Classes IX – XII feeling forced to buy second hand books, or books of private publishers, avoiding getting noticed in class for not having a book for months or throughout the year. What good has replacement of the exercise of providing books to students with DBT for textbooks hasbrought?What State has achieved by linking government school education and benefits to opening of bank accounts is a backward flow of cash from working class homes to banks (as it had happened in the case of demonetization); right from the process of opening bank accounts, maintaining minimum balance in these accounts and most importantly thousands-lakhs of children not receiving their dues. This new age digital corruption continues to rob the masses under the garb of 'transparency'.  
       
Compromising content or privileging a faux product over process

A class IX student came up to her teacher in the staff room and, having been encouraged to ask questions, asked why those whom we love, depart early from our life. No checklist of ranking assessment for schools will be able to capture this relationship and possibility between a student and a teacher or the ethos which engenders this space in a school. 
We have witnessed an exact inversion of focus upon access and academic worth in our schools. Instead of making the former easier and the latter uncompromising, we see regular processes of admissions and chances of continuing in academic streams getting tougher, while all kinds of compromises are being made with the content, whether it be reduction of chapters and syllabi (an exercise with its own politically motivated objectives), foisting de-intellectualised vocational courses, offering on-line courses or proposing two levels of exams at the secondary level. Of course, much of this deliberate academic dilution and withdrawal of equal rights from under-privileged children is sought to be camouflaged by the ostensible objectives of improving enrolment ratios, ensuring retention and a formal completion of varied stages in formal education. It is another matter that most of these stratagems are not only pushing working class children out of the regular system but shortchanging them by compromising the content and very objectives of their education.
Since last two years students of middle wing in Delhi government schools (and primary wing in MCD schools) have been segregated on the basis of a functional literacy tool and made to focus upon basic reading and arithmetic skills at the cost of subjects like literature, science and social science. This reduction of education to functional literacy is not a far off threat but a practiced reality in our schools.
As a cruel but inevitable blow back of the limitation of the RTE Act, a mass level expelling of children has been taking place at and after grade 9 where students have failed are being pushed out of regular schools and ‘counseled’ to take admission in NIOS or PatracharVidyalaya. This basically means dropping these students from school’s roll call in order to improve schools’ results and leaving these students on their own. Often, the high fee and opaqueness of these systems results in making these students  ‘disappear’ from the education fora altogether. 
All this has converged well with the purpose of de-intellectualizing school curricula. As a result, not only are students being forced into vocational steams after secondary grades but even being allotted such courses from earlier grades itself. There is not even an attempt to present it as being motivated by any Gandhian theorization of work and learning. Its politics is in fact betrayed by its being confined to public schools and, ipso facto, working class children. There is a real danger that this policy trend threatens to reinforce and reproduce the caste-class and gender hierarchies/inequalities in the larger society children of our schools come from. Education will then no longer serve as even a notionally just and fair means to transforming society. A further evidence of this is the slow but sure complementary disappearance of Science as a stream from the senior secondary grades of many public schools. It is as if everything was so blatantly unfair that there was no need for a hidden curriculum or the corresponding necessity to unearth and analyse it.
We are witnessing an increasing trend of instituting English as a medium of teaching from primary grades itself in our public schools. While this educationally indefensible and harmful policy orientation is being justified on the basis of making public schools attractive to the aspirations of the working classes, it is instead leading to an increasing alienation of the experience of schooling and learning from the process of understanding and the situated realities, including linguistic, of large number of children. The consequences of such a policy practice are not restricted to a compromised pedagogy alone but include a growing segregation across and within our schools. Not only are newer layers of exclusive schools being opened in the name of English medium teaching, there is a steady increase in the number of already functioning ‘normal’ schools which offer separate and exclusive sections dedicated to the English medium. Moreover, a disparate and ill-conceived system ensures that there are cases of children being perforce shifted, for no fault of theirs, from one medium to another at different stages of their schooling. While we recognise the justice-based demands and need for teaching English as a language and subject in all public schools from early grades, something entailed by the spirit of the three-language formula too, we are disturbed by the trend of practically abandoning the principle of mother-tongue education in favour of the unthoughtful, harmful and populist implementation of English medium schooling. A similar dishonesty prevails and has only been strengthened in the context of the third language which is offered as a subject in the post-primary grades in our schools. Instead of respecting both children’s interests and linguistic identities as well as deepening the spirit of national understanding/dialogue through the learning of diverse languages of India, children in our public schools continue to be presented with a fait accompli of studying a centrally prescribed third language as a subject from grade six.        
   
Emerging tools of governance                       
          
Ironically, this whole trend towards dumbing down our schools and students is accompanied with an exercise which keeps the teachers engaged with superficial and superfluous tasks under the duress conditions of ranking which involve submitting to performance parameters having no bearing upon the lived reality and ideals of an academic institution. Consequently, it is not the education department officials (who themselves could not be said to have been adequately or professionally prepared) nor university academics or the SCERT which is engaged in providing feedback to or assessing our schools, but this task is increasingly being outsourced to private bodies which not only have no academic pretensions but whose free market ideological commitment orients them not to strengthen public schooling but in fact to the spread of the market of private schooling.
Primary schools in Delhi itself have enforced Aadhaar based biometric attendance on students! Others have made it mandatory for teachers to record each student’s attendance on tabs/computers and upload it on a daily basis. While this invidious tracking of children and CCTV cameras is being pushed in the name of accountability and transparency, it has ironically been made next to impossible for research scholars, journalists etc to visit and report truthfully and deeply on schools.
An allied aspect of this insensitive push towards digitalization is that children and teachers are all being forced to subject their bodies and minds to the surveilling and data capturing gaze of the state.It is apparent that the demands to capture the attendance of each student online and transfer it to a central data base can have no respect for the dignity of children or trust towards school and teachers. This distrust and disrespect extends to forms of managerial governance which mimic the worst forms of a market model and include the indignity of coercive biometric attendance and the installation of CCTV cameras in classrooms, corridors and premises. It even celebrates the idea of relaying direct feed of classroom/school visuals to the smart phones of students’ families. The haughty claims of this proposal are unencumbered not only by any concerns for the sanctity of children’s individual identities and academic spaces but also oblivious to these families’ socio-economic realities.  
This securitization, surveillance and data generation and capture has been sought to be sold to the people in the name of transparency, while schools have virtually been turned out of bounds for even the community with which schools are supposed to be in a democratic relationship. More than ever before, children in our schools today need to be made aware of their privacy rights and the corporate and state threats facing their privacy. Instead, the whole paraphernalia of managerial performativity and the presentation of the glaring charms of technology as a panacea is immuring the young to the dystopian possibilities within the forces controlling and driving our tastes, habits, lives and the polity itself.That this is something being claimed as an educational revolution/reform is a testimony to the sorry state of discourse we find ourselves in around schooling and public education.
Consequently, teachers are being assessed through ACRs on the basis of the results of their classes, oblivious of the fact that such parameters are only going to lead to unethical practices and narrow concerns.The threat of show cause notices to teachers for home exam results has been leading to another dangerous trend; pushing teachers to become tutors teaching exam oriented tricks to students instead of dealing with an in-depth understanding and demands of the discipline. It is our students who are going to suffer this crazy obsession with results, particularly those coming from first generation school goers and challenging social or personal circumstances. It is clear that under this result-rank discourse there is an attempt to blame and punish the student and the teacher alone, at the same time obfuscating the responsibility of the State and the role of the wider social system in the functioning of our schools.  
Leadership managerialism is being imposed on our schools through the new forms of training for posts of principals. This is transforming schools from academic institutions into managerial places. The fetishes of ranking and managerialism of schools are feeding into each other. The use of these tools of accountability implies that there is nothing wrong with the government’s policies and all accountability rests coercively at the bottom. What gives away the paucity of wisdom driving the education policy is the fact that the responsibility of conducting the exercise of Ranking schools in itself the deeply problematic idea due to its market provenance, has been thrust upon Child Rights bodies and perforce conducted under the aegis of the QCI, a registered society set up under the department of Industrial Policy and Promotion, Ministry of Commerce and Industry. It was thus only to be expected that these ranking exercises would not go deep into the schools’ life but remain restricted to a ticking of checklists.
Teachers are increasingly under performance/result and multi-tasking stress. Whether it be the endless orders to collect and upload students’ and their families’ personal details or act as proxy employees for government’s all kinds of non-academic campaigns, ranging from Measles-Rubella vaccination to voter enrollment, teachers are finding that not only has section 27 (restriction of non-teaching duties) of the RTE Act proved to be an empty promise, the diversion of their time and labour into coercive, academically unproductive and purely bureaucratic-technocratic tasks is growing apace.  
The usefulness of filling in troves of school data for the MHRD under the UDISE format is not at all clear to us. The purpose of this laborious exercise becomes all the more suspect when we find that some of the fields marked in the format are either unfairly close ended or suggest the submission of factually compromised information whose only benefit seems to be to throw positive light upon the government’s score card. The irony is that, in spite of such an ubiquitous collection of data, RTI applications asking for collated data are either denied or passed on to hundreds of schools, thereby not only costing huge wastage of public money and resources but also harassing the applicant and frustrating the pursuit to bring facts before the public.  
We are caught gasping in a vortex which is turning the intellectually challenging and socially responsible profession of teaching into a digital clericalism.

Campaigns and Slogans: Turning schools into sites of propaganda

In the last few years, we have seen reports from various states of children being used as agents of the government’s ODF scheme, in the process being dehumanized into participating in shaming people going outto defecate/urinate in the open by blowing whistles at them. Given the fact that the ODF campaign has not only involved the issuing of threats of disconnecting electricity supply or cancelling rations by the administration but also led to the murder in Rajasthan of a man protesting the filming of women of his neighborhood by the administration, this is a sure recipe for numbing children’s sensitivities and socializing them into vigilantism. On the other hand, teachers have been asked to submit signed statements/declarations that they and their family members use toilets at home and do not practice open defecation.
That most teachers’ unions have let go this obnoxious and humiliating order without lodging any protest tells us about the demoralization and the level of apoliticisation among the general mass of practitioners. The question whether and to what extent this state of affairs can be attributed to the politics of the last five years may not be answered in an easy manner, but we are surely facing a moral crisis in our public school system and as a nation when teachers find themselves voiceless and without self-respect. It adds to the long list of our cruel ironies this must come to pass at the very hands of those forces which otherwise extol the virtues and merits of the traditional figure of the guru.                 
The SwachhtaAbhiyan saw the enforcement of coercive directives upon ill-prepared and under-resourced schools. Much of this coercion was ultimately transferred by authorities eager to please their bosses, onto the shoulders of teachers and the students. The fact that teachers were called upon not only to take an oath of Swachhta themselves but enforce one upon their students, even at the primary grades, degraded the meaning and sanctity of the idea of taking a conscious and conscientious oath, apart from turning schools and their assemblies into meek spaces for ruling-party and the ‘supreme’ leader’s propaganda. Children were marched into rallies for the campaign and schools forced into organizing endless and repetitive shallow events around the theme. Funds for the campaign were provided but in a sporadic manner and without increasing any posts or fulfilling the extant ones lying vacant. This reduced the whole exercise to a propagandist, cosmetic and coercive spectacle, thereby belittling public schools and exposing children to a false narrative. It has been no less than a crime against our schools and children.
While these centralizing instruments have been imposed through an administrative exercise of control, we have found an unprecedented invasion of the partisan and ruling party/leader, politics in our schools, under the pretext of direct and compulsory telecasts of various addresses/programs of the Prime Minister (and to a lesser extent, the Chief Minister). As a deeply worrying aspect of forcing schools to follow the marching orders of a centralized drumbeat, school platforms were shamelessly hijacked for the self promotion of the PM and the sanctity of PTM and SMC meetings in schools was abused for electoral propaganda by the CM in Delhi. Schools have been compelled not only to observe days specially designated by the central government but also to follow a centrally imposed plan in doing so and made to upload photos/videos to prove their obedience. It is as if schools and teachers have been reduced to captive public spaces in the service of vested political ambitions and petty ideologies.
We have seen the BetiBachao, BetiPadhaoslogan being thrown around in the media, used for public campaigns; as practitioners we have no idea of its substantive contributions, whether for the girl students in our schools or those girls who have been left or pushed out of public schools. That more than half of the expenditure on this so-called scheme has gone to publicity indicates that this slogan also belongs to the category of a jumla.
Open  spaces in many schools are disappearing for building new blocks or have been defaced by laying them over with tiles and concrete, thereby damaging children’s right to play in their very schools. This assault on childhood is taking place in the name of an adult model of development and is happening in an ironic parallel with the Khelo India campaign. It should be common sense by now that merely providing grants for libraries and sports equipments without having filled posts of librarians, games teachers etc or while taking away the very spaces meant for these engagements, in favour of a single-minded focus on demeaning minimum levels of learning, is not benefitting our students or enabling an ethos in schools for these pursuits. Whatever little there was of environmentally appropriate and light and child-friendly open spaces in our schools, it is being devoured under the onslaught of a destructive architecture of ‘development’ which intends to put to ‘fruitful’ and exhibitionist use all available spaces.

Recounting the woes

Testing and personalized publicity functions in schools have taken away precious teaching time, cost valuable public resources and exposed public schools and children of vulnerable age to blatant propaganda. That this has happened in total disregard of the sanctity of the school schedule and calendar shows the hollowness of the alleged concerns for lowering learning levels and accountability of schools.
What is sorely needed is to establish the autonomy and credentials of bodies like the NCERT and NCPCR at the national level and SCERTs and SCPCRs at the state level. Currently, given the whole discourse about a learning crisis in our schools which is guided by vested interests, these institutions, meant to uphold academic standards and children’s rights (often under attack by the state itself), have either turned away from addressing pressing concerns or even been complicit in rights violations by supporting and defending some of the governments’ unfair and illegal orders and policies. As a result, schooling and teaching are being hollowed out of all meaning an autonomous, self respecting and academically committed person cherishes in her/his work.
A false narrative of merely universal enrollment at the elementary level is being projected. The socio-economic realities which have always disabled children’s access to and retention in schools have been exacerbated by the introduction of technological forms of gatekeeping to keep and push working class-caste children out of academic empowerment, if not schools themselves. The compulsive use of ICT for forms of administration andteaching, is having a tyrannical impact on the culture and functioning of our schools. Under the rhetoric of digitalization, smart schools, smart classes and smart learning, what we are experiencing is the dullness and control of e-governance. This great disruption in the life of our schools is producing new barriers to access, intellectual rigour and equity. We have yet to find it serving the interests or rights of our students in any substantial manner. What it definitely does serve are the needs of government control and the market interests of manufacturers of ICT instruments and products, while at the same time inflicting great and irreparable ecological and health costs.
There is a state of enduring socio-economic emergency, including long-impacting nutrition deprivation, coupled with conditions of gross resource neglect in schools. This means that at one level the touted learning crisis is an obvious outcome of the inequity and at another level an example of mischievously barking up the wrong tree of learning outcomes. But we also reject the focus on learning outcomes not only as ill-conceived but as unworthy of a wholesome and serious school system. The school examples of Wazirabadin Delhi and Bihar in which children were segregated into different sections along communal and casteist lines, along with the refusal of the mid-day-meal NGO, Akshaypaatr (funded by the denominational organization, ISKCON) in Karnataka to use onion-garlic in preparing children’s meals and denial of eggs as an option in mid-day-meals in various states, show the toxic effects of infusing religious ideology into our polity and through it into our schools and the already fragile, precarious lives of our students.
While around a lakh schools all over the country continue to function miraculously with single teacher, lakhs other at the primary level in a planned manner have neither an office staff, nor a Nursery Aaya or a sanitation employee. Meanwhile, ad-hocism prevails and grows in the appointment of teachers and other staff in schools. When seen in the light of multiplying, tedious and increasingly useless tasks required of teachers, it is easy to see why our schools are facing an emergency to even carry out their daily routines in a decent manner. The more exclusive schools like the KVS are catering under administrative orders to conform and comply. The monochromatic lens of language and cultureimposed on our schools means that they will not be places for a thousand flowers to bloom but factory floors churning out uniformly measured, dead and single hued products.
The discourse of falling learning levels is used to say much in disparagement about teachers’ competencies and for pushing a narrow idea of the objectives of public schooling. This ‘concern’ for standards is then diverted into implementing narrow assessment tools for students and instituting concomitant reward and punishment mechanisms for teachers. This false focus also helps in conveniently ignoring the sorry state of teacher education, especially but not restricted to the mushrooming of private institutions across the country. Much anecdotal evidence continues to reach our ears of private management institutions whose sole motive is profit-making and which show an utter disregard for maintaining even a minimum of infrastructural and academic resources, including faculty. Sadly, the picture of public teacher education institutions does not inspire confidence either. We find that while new institutions are not being established, those already in existence are being left to die a slow but planned academic death.   
A charity model promoted by philanthro-capitalism has been hitched to the CSR model and PPP not just in the administration of schools but even in teaching. The policy of outsourcing has reached the academic character and responsibilities of our schools via a demeaning and academically shallow intervention of texts, testing and teaching by NGOs, likePratham, TFI etc. The central government itself has gone ahead to introduce the Vidyanjali scheme which has promoted and established the idea that any ‘decently educated’ and ‘well-intentioned’ person could be not just allowed but welcomed to contribute by teaching in public schools. (It is another matter that, thankfully, this has turned out to be another failure of this regime.)Such a compromise with the role and credentials of teaching as a profession also falls foul of the provisions of the RTE Act itself but is made to be circumvented by defining these personnel in classrooms not as teachers but as 'volunteers', assistants etc. This near-capture of policy-making space and powers in the state by market-oriented, academically suspect and politically unaccountable private entities has led directly to the interjection of toxic and obnoxious programs such as the Chunauti and Buniyaad in Delhi government and MCD schools which have not only segregated students on the basis of narrow assessment tools into variously labelled ability-based groups but also mandated teaching them at different levels, using worksheet-styled, ‘simple’ texts by sidelining the NCERT textbooks and the NCF itself.     
Our experience with and close observations of the trajectory of policy measures enforced upon public schools over the last few years lead us to see them in line with the larger trend of attacks on public institutions in general. We have increasingly witnessed that the governance tools, administrative styles and policy perspectives being imposed on our schools are derived and inspired from the world of corporate management. On the one hand, this is an absolute betrayal of an understanding of the nature and objectives of education in general and public education in particular. On the other, it presents a direct assault on the rights of children from working classes to access a schooling which would not only enable them to aspire and participate in the world of work on an equal footing but also develop thattransformatory consciousnessin them which is needed to organize and agitate for liberty, equality and justice. Instead, we have more than sufficient reasons to be alarmed at the course of the policy direction which threatens to abuse these very possibilities and responsibilities that our public schools owe to the people of India.   
The debilitating effects of children’s socio-economic impoverishment upon their educational prospects are clearly evident in the forced and sudden displacement faced by their families due to their insecure employment and habitation. We have seen this cruel state of affairs lead to abrupt exits of students from schools and the descent of otherwise cheerful young lives into desperation and helplessness. The lack of health allied to such precarious conditions is also seen in students’ prolonged absenteeism, drop out and in some cases, even tragic deaths. It is obvious to us that a meaningful right to education cannot be ensured without providing for other robust social-welfare interventions by the state in favour of the working-classes.

Wednesday, 1 May 2019

पर्चा: लड़ने के सिवाय कोई चारा नहीं है !!!



क्या आपके बच्चों को सरकारी स्कूल में दाखिला लेने में कोई मुश्किल आई या आ रही है? क्या स्कूल के लिए उसका आधार कार्ड बनवाने  या बैंक खाता खुलवाने के लिए आपको धक्के खाने पड़े या पड़ रहे हैं? क्या आपके बच्चे की पढ़ाई या वज़ीफ़ा इसलिए रुक गया क्योंकि उसके पास आधार या बैंक खाता  नहीं था? या नाम या तारीख के मामूली बेमेल होने से वज़ीफ़ा नहीं मिला?
                          
स्कूलों में दाखिले
आधार और बैंक खातों के बिना भी तो पढ़ाई हो सकती है, दाख़िले और वज़ीफे मिल सकते हैं| सरकारी स्कूल का फ़र्ज़ तो यह है कि वो बिना किसी शर्त और भेदभाव के पड़ोस के हर बच्चे को पढ़ाए| तो फिर क्यों कागज़ मांग-मांगकर हमारे बच्चों के दाखिलों और पढ़ाई में रोड़े अटकाए जा रहे हैं? हम ही जानते हैं कि इन कागजों को बनवाने में हमारा कितना पैसा लूटा जाता है और कितनी दिहाड़ी मारी जाती है| हमारा वक़्त भी बर्बाद होता है और दुत्कार अलग सुननी पड़ती है|  
अगर कोई स्कूल किसी भी वजह से बच्चे को दाखिला देने से मना करता है तो आप
·         2009 के शिक्षा अधिकार कानून का हवाला दें (6 से 14 साल के बच्चों के लिए)
·         फिर भी स्कूल दाखिला न दे तो कहें कि वो लिखकर दें कि वे बच्चे को दाखिला क्यों नहीं दे रहे 
·         अपने स्कूल की स्कूल मैनेजमेंट कमिटी से बात करें
·         एमएलए (विधायक) के ज़रिए सरकार पर दबाव डालें
·         विधान सभा मेट्रो स्टेशन के पास शिक्षा विभाग में डीडीई (स्कूल ब्रांच) से बात करें  
·         कश्मीरी गेट बस अड्डे की पांचवी मंजिल पर DCPCR में शिकायत करें (इसकी ज़िम्मेदारी है बच्चों के अधिकारों से जुड़ी शिकायतों पर कार्रवाई करना| फ़ोन नं : 011 2386 2685)

अपने इलाके में समितियां बनाकर हम शिक्षा विभाग और सरकार तक पर दबाव डाल सकते हैं|

सरकार की ज़िम्मेदारी है कि सभी बच्चों को बिना शर्त दाखिला मिले| चाहे हमारे बच्चों के पास जन्म प्रमाणपत्र, आधार कार्ड, बैंक खाता, दिल्ली के पते का सबूत हो या न हो| यह धमकी देना भी बंद करना होगा कि दाखिले की आख़िरी तारीख निकल गयी है| कानून के हिसाब से आठवीं क्लास तक के दाखिले साल-भर चलने चाहिए| (इस साल क्लास 9-12 के दाखिले 30 अगस्त 2019 तक चलेंगे|)
कई बार यह कहकर भी दाखिला देने से मना कर दिया जाता है कि सीटें भर गई हैं| यह तो सरकार का काम है कि वो नए स्कूल खोले, क्लास बनाये और टीचरों का इंतज़ाम करे| सरकार की नाकामी की सज़ा हमारे बच्चे क्यों भुगतें?
हमें बताया जाता है कि आधार और बैंक खातों के बिना बच्चे का नाम कंप्यूटर पर नहीं चढ़ पाता| फिर कंप्यूटर पर ऐसे प्रोग्राम ही क्यों डाले गए हैं? कभी स्कूल में बच्ची सामने खड़ी है पर कंप्यूटर नहीं मानता, कभी हम राशन की लाइन में खड़े हैं पर मशीन नहीं पहचानती| ये डिजिटल इंडिया तो हमारे जी का जंजाल हो गया है|
हमारे बच्चों के स्कूल की पढ़ाई बढ़िया ढंग से पूरी हो
हमारे कितने ही बच्चे नौवीं के बाद स्कूल छोड़ने पर मजबूर हैं| क्या सरकार की यही जिम्मेदारी है कि जो बच्चे परीक्षा में अच्छे अंक नहीं ला पाएं उन्हें ओपन (NIOS) या पत्राचार में भेज दे? वैसे भी हमारे बच्चे बड़ी मुसीबतें झेल कर पढ़ते हैंI जिन बच्चों को स्कूल की ज़्यादा ज़रूरत है, क्या स्कूल छुड़ाकर उनकी पढ़ाई सुधर जाएगी? ओपन की फीस भी ज़्यादा है और इसमें धक्के भी बहुत खाने पड़ते हैं| कई बच्चों, खासकर लड़कियों, की पढ़ाई भी छूट जाती है| अगर किसी तरह बच्चे बारहवीं पूरी कर भी लें तो उन्हें कॉलेज ओपन से करना पड़ता है जहाँ न क्लासें लगती हैं, न किताबें हैं और न टीचर|

स्कूलों के अंदर हमारे बच्चों को क्या पढ़ाया जा रहा है?
अब 9वीं क्लास से स्कूलों में हमारे बच्चों को सामान बेचना (रिटेल), गाड़ियाँ ठीक करना, ब्यूटी पार्लर जैसे काम सिखाए जा रहे हैं| क्या सरकार ने स्कूलों में पढ़ाना छोड़कर हमारे बच्चों को सिर्फ़ मज़दूर बनाने का फ़ैसला कर लिया है? इन कोर्सों को पढ़ने के बाद तो कॉलेजों में भी दाखिले नहीं मिलते|
हमारे बच्चे तो पहले से ही ये काम करने को मजबूर थे और आईटीआई वगैरह में भी ये कोर्स पढ़ते आए हैं| तो फिर सरकार क्यों स्कूलों में भी विज्ञान-इतिहास जैसे विषयों की पढ़ाई छोड़कर इन कोर्सों पर ज़ोर दे रही है? स्कूलों का काम तो बच्चों को समझदार बनाना और इंसाफ़ के लिए लड़ना सिखाना होना चाहिए था| उल्टे हमारे बच्चों को कम मजदूरी पर 10-12 घंटे काम करने के लिए तैयार किया जा रहा है| हमें ऐसी पढ़ाई नहीं चाहिए जो हमारे बच्चों को मालिकों के सामने हाथ-मुंह बांधकर खड़ा रहना सिखाए|  
सरकारी स्कूल तो पहले ही प्रतिभा और सर्वोदय जैसी ऊँच-नीच में बंटे हुए हैंI अब तीसरी क्लास से ही बच्चों को निष्ठा-प्रतिभा समूहों में बांटकर अलग-अलग पढ़ाया जा रहा है| उनकी किताबें और परीक्षाएं भी अलग-अलग होती हैं| यह भेदभाव हैI इससे तो कुछ बच्चों के मन में कमज़ोर होने का और कुछ में घमंड का एहसास पैदा होता है| ऐसे बांटने से उनकी दोस्तियाँ भी खराब होती हैं| अगर उन्हें आज से ही बाँट दिया जाएगा तो कल उनमें एकता नहीं बन पाएगी| और मालिक लोग तो चाहते भी यही हैं|
हमारा बरसों से सरकारी स्कूलों के साथ एक रिश्ता है और हम जानते हैं कि सरकारी स्कूल ही जनता के स्कूल हैं| हमारा भला सरकार के चंद पांच-सितारा स्कूलों या प्राइवेट स्कूलों में गरीब बच्चों के लिए मुट्ठीभर सीटों की मारामारी में नहीं है| हमें एकजुट होकर सरकारी स्कूलों में हर बच्चे के लिए बराबर शिक्षा की लड़ाई को मज़बूत करना होगा|  
तालीम बच्चों का हक है, दाखिला हम लेकर रहेंगे !
पढ़ाई में भेदभाव और हमारे बच्चों के भविष्य के साथ खिलवाड़ करना बंद करो !

लोक शिक्षक मंच
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