हमारे शहर दिल्ली के उत्तरी-पूर्वी जिले में सरेआम हिंसा हुई, कई जानें गईं, घर-दुकान जलाए गए, धार्मिक स्थलों को नुकसान पहुँचाया गया....| इस दौर में आम नागरिकों ने ज़रूरत का सामान पहुँचाने, कॉलेज के विद्यार्थियों ने लोगों के फॉर्म भरवाने से लेकर रिलीफ कैंप में सामान बाँटने, डॉक्टरों ने इलाज करने, काउंसलिंग के कैंप लगाने और वकीलों ने ज़रूरतमंद लोगों को कानूनी मदद पहुँचाने में अपनी-अपनी भूमिका निभाई| ऐसे में शिक्षकों के रूप में हम अपनी क्या भूमिका देखते हैं?
1. विशेषकर उत्तरी-पूर्वी और पूर्वी दिल्ली जिलों के बच्चों के दिलो-दिमाग़ पर इस हिंसा का क्या असर पड़ा होगा? प्रभावित बच्चों की ज़ुबानी -
“व्हाट्सएप पर मेसेज आता था कि दूसरी तरफ से हमला होने वाला है, गोलियों और नारों की आवाज़ें आती थीं, बड़े लोग रात-भर पहरे दे रहे थे, दुकानें जल और लुट रही थीं, दूध और बाकी सामान नहीं मिल रहा था .. हमारी 13 भैंस चुराकर ले गए, कुत्ते को आग में फेंक दिया, अंडे की रेहड़ी जला दी .. अगर हमारे पड़ोसी हमें न बचाते तो .. उन्हें ऐसा करके क्या मिला ? ..”
क्या हम अपने विद्यार्थियों के ऐसे अनुभवों और प्रश्नों के लिए तैयार हैं? क्या हमें उन्हें चुप करा देना चाहिए या उनके मन के दर्द, डर और सवालों को निकलने देना चाहिए? कहीं ऐसा करते हुए हमारे अपने पूर्वाग्रह आड़े तो नहीं आ जाएँगे? उदाहरण के तौर पर, हिंसा से बेघर हुए लोगों के लिए मुस्तफाबाद रिलीफ कैंप में DCPCR (बाल अधिकार संरक्षण आयोग) ने बच्चों के लिए भी कैंप लगाया जिसमें कई दिनों तक AIIMS के डॉक्टरों द्वारा प्रभावित बच्चों और युवाओं की पोस्ट-ट्रॉमा काउंसलिंग की गयी| साथ ही कला (ड्राइंग, पेन्टिंग) और कहानियों के ज़रिए बच्चों को अपनी बात कहने-सुनाने का मौका मिला| स्कूलों में हमें इस काम को आगे बढ़ाना होगा ताकि एक तरफ़ बच्चों के मन की घुटन निकल सके और दूसरी तरफ़ वे अपने कड़वे अनुभवों के आधार पर किसी पूरे समूह के खिलाफ़ ग़लत धारणा न पाल लें| आख़िर यह बात हमसे बेहतर कौन जानता है कि जब कुछ शिक्षकों के आधार पर पूरे शिक्षक समुदाय को कामचोर कह दिया जाता है तो हमें कैसा लगता है|
2. हमारी एक और बड़ी ज़िम्मेदारी होगी - जिन बच्चों के परिवार हिंसा के दौरान गाँव वापस चले गए या किसी अन्य कारण से जिनकी पढ़ाई छूट गई, उनका दस्तावेज़ीकरण करना और उन तक पहुँचने की कोशिश करना| हम चुपचाप अपने बच्चों को गुमशुदा नहीं होने दे सकते| हिंसाग्रस्त इलाके में करीब 10–12 किशोरों ने बताया कि वे अब स्कूल छोड़ देंगे| इसमें घर-परिवार की ज़रूरत के साथ-साथ समाज पर से भरोसा उठने की भी झलक थी|
3. हिंसा के बाद उत्तरी-पूर्वी जिले की एक शिक्षिका ने बताया -
“अब हिन्दू-बहुल मोहल्लों में जो थोड़े-बहुत मुसलमान परिवार और मुस्लिम-बहुल इलाकों में जो कुछ हिन्दू परिवार रहते थे, वे भी घर बदल लेंगे| ऐसा हो भी रहा है कि लोग औने-पौने दामों में अपने प्यार व मेहनत से बनाये घर बेचकर जा रहे हैं| हालाँकि, कई गली-मोहल्लों में हिन्दुओं और मुसलामानों ने एक-दूसरे को मिलकर बचाया लेकिन साज़िश्नुमा हिंसा का डर जल्दी पीछा नहीं छोड़ता|”
इस बँटवारे का सीधा असर हमारे स्कूलों पर भी पड़ेगा| जब इलाक़े ही एक धर्म-बहुल के हो जायेंगे तो स्कूलों में बच्चों का साथ पढ़ना भी खत्म हो जाएगा| सरकारी स्कूल तो वैसे भी वो जगह हैं जहाँ सभी धर्म-जातियों के बच्चे साथ रहना और एक-दूसरे के जीने के तरीक़े की इज्ज़त करना सीखते आए हैं| दो साल पहले वज़ीराबाद के एक प्राथमिक विद्यालय में विद्यार्थियों को धर्म के आधार पर अलग-अलग सेक्शन में बाँटने की ख़बर आई थी| तब माता-पिता व स्थानीय लोगों ने इसका विरोध करके इस बँटवारे को खत्म करवाया था| लेकिन इस हिंसा के बाद मोहल्लों का जो बँटवारा होगा, वो अपने-आप हमारे स्कूलों को भी बाँट देगा|
2011 में लंदन में हुए दंगों के बाद जब वहाँ के शिक्षक बच्चों के साथ काम कर रहे थे तब उन्होंने भी कुछ ऐसा ही कहा था कि सबसे ज़रूरी यह है कि बच्चे ghetto (एकरूपी व वंचित माहौल) में न रहें। अगर वे सिर्फ अपनी ही तरह के रंग, नस्ल (भारत के संदर्भ में जाति, धर्म) और वर्ग के लोगों के साथ रहेंगे तो दूरियाँ और गलतफहमियां बढ़ेंगी| ऐसे में मिश्रित स्कूलों की और ज़रूरत है जहाँ बच्चे साथ पढ़ें और उनका चीज़ों को देखने-समझने का दायरा बढ़े| www.theguardian.com
4. ऐसे में हमें स्कूलों और शिक्षा में भाईचारा बचाने और बहनापा बढ़ाने के नए तरीक़े इजाद करने होंगे| अपने-अपने विषय को एकता और धर्मनिरपेक्षता के मूल्यों से सींचना होगा| उदहारण के तौर पर, एक शिक्षिका ने बताया कि कैसे कक्षा 12 की छात्राओं को चाँदनी चौक में दिगंबर जैन मंदिर, गौरी-शंकर मंदिर, सीसगंज गुरुद्वारा, बैप्टिस्ट चर्च और जामा मस्जिद ले जाने से उन्हें विभिन्न धर्मों को क़रीब से जानने व पूर्वाग्रहों को तोड़ने का मौका मिलता है| जैसे विज्ञान की शिक्षा ने सदियों तक महिलाओं पर मढ़े गए इस मिथक का पर्दाफ़ाश किया कि नवजात का लिंग माँ तय करती है, उसी तरह हमें अपनी कक्षाओं और समाज में कई साम्प्रदायिक और जातिगत मिथकों को भेदना होगा|
5. लेकिन यह तो तभी हो पाएगा जब हम शिक्षक ख़ुद साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों और नफ़रत के शिकार न हों| अगर किसी समाज में लोग हर बात और घटना को ‘धर्म’ के चश्मे से देखने और समझने लगें तो समझ लेना चाहिए कि ऐसा समाज साम्प्रदायिक होता जा रहा है| साम्प्रदायिक राजनीति का काम ही है लोगों को यह समझा देना कि (क) उनकी धार्मिक पहचान ही सबसे ज़रूरी पहचान है और (ख) उनकी इस पहचान को ‘दूसरे’ से खतरा है| वो दूसरा कोई भी हो सकता है और भारत इस ‘दूसरे से ख़तरे’ की राजनीति का शिकार होने वाला न पहला देश है और न आखिरी|
क्या यह सच नहीं है कि हमारे व्हाट्सएप ग्रुप हमारे अपने ही धर्म और जाति समूह से जुड़े होते हैं, इसलिए एक ही तरह की जानकारी हम तक पहुँच पाती है? बीबीसी के एक ताज़ा अध्ययन के अनुसार 72% भारतीय सही जानकारी और फेक न्यूज़ के बीच फ़र्क नहीं कर पाते हैं| अब ये हम पर है कि हम भी आम लोगों की इस भीड़ का हिस्सा बनें या फ़ेक न्यूज़ की दीवार में दरार डालने वाले शिक्षक| क्योंकि शिक्षक तो परिभाषा से ही बौद्धिक कर्मी होना चाहिए नाकि कुँए का मेंढक| दिल्ली शिक्षा निदेशालय की एक शिक्षिका के शब्दों में- जिन दिनों यह हिंसा चल रही थी मैंने देखा कि क्लास के बच्चों के व्हाट्सएप्प ग्रुप पर एक छात्रा ने मरने-मारने वाला मेसेज भेजा, जो ज़रूर उसे भी कहीं से मिला ही होगा| मैं बहुत परेशान हो गयी कि परीक्षा के दिनों में उनसे कैसे बात करूँ| तब मैंने उन्हें एक चिट्ठी भेजी| मैंने लिखा,
“सही और गलत का फ़र्क पहचानने के लिए तुम इन संदेशों की भाषा को ज़रूर समझना..। आख़िर, प्रेम और नफ़रत की भाषा में फ़र्क करना तुम बच्चों से बेहतर और किसे आता होगा? जब भी तुम्हें लगे कि किसी संदेश में दूसरे धर्म के लोगों के प्रति नफ़रत झलक रही है तो चौकन्नी हो जाना, क्योंकि नफ़रत इंसानियत और प्रेम को नहीं, हैवानियत को पैदा करती है …! अगर तुम्हें लगे कि दूसरे धर्म के लोगों से तुम्हें डराया जा रहा है और वह संदेश उनके प्रति नफ़रत और डर का भाव तुम्हारे भीतर भर रहा है, तो उस संदेश से तुरंत दूर हो जाना|”
6. हमारे पास सावित्रीबाई फूले, गिजुभाई, बेगम रुकैया जैसे शिक्षकों और शिक्षाविदों की विरासत है| हम साथ मिलकर -
i. अपने स्कूलों में धर्मनिरपेक्षता के मूल्य को मज़बूत करने की हर कोशिश करेंगे| जैसे एक कक्षा में टीचर अपने विद्यार्थियों में भेदभाव नहीं करती, वैसे ही देश में सरकार अपने नागरिकों को पढ़ाने, नौकरियाँ देने, पुलिस सुरक्षा पहुँचाने आदि में भेदभाव नहीं कर सकती| लोगों के लिए लोकतंत्र तभी ज़िन्दा होता है जब वे अपने सामने पुलिस, अदालतों, टीचरों, डॉक्टरों आदि को निष्पक्षता से काम करते हुए देखते हैं|
ii. अपने पूर्वाग्रहों को पहचानने और तोड़ने की कोशिश करेंगे| हर गाली, लिंग-जाति-धर्म पर टिपण्णी की जड़ में पूर्वाग्रह छिपे होते हैं| हमें उनके राजनीतिक-सामाजिक इतिहास का विश्लेषण करना होगा| हम फैक्टचेक वेबसाइट्स की मदद भी ले सकते हैं पर सबसे ज़्यादा ज़रुरत साथ पढ़ने और चर्चा करने (स्टडी सर्किल) की संस्कृति बनाने की हैं|
iii. विद्यार्थियों को मतभेदों को सम्मान और शान्ति से सुलझाना सिखाएंगे| अगर हमारे स्कूलों में बच्चे आपस-में लड़ पड़ते हैं तो हमारी पहली प्रतिक्रिया उनका झगड़ा छुड़ाने की होती है| उसके बाद हम उन्हें समझाते हैं कि कोई भी कारण इतना बड़ा नहीं हो सकता जो मार-पिटाई को सही ठहराए| हम उन्हें सचेत करते हैं कि छोटी-छोटी हिंसा ही आगे चलकर बड़ी हिंसा की ज़मीन तैयार करती है|
पूर्वाग्रहों, नफ़रतों और हिंसा के खिलाफ़ एकजुट शिक्षक
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Would be happy to collaborate..
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