Friday, 22 January 2021

अँधेर नगरी: उनकी अनुकम्पा से बेहाल होती जनता का आँखो-देखा हाल

   एक शिक्षक की एक ग़ैर-शैक्षणिक ड्यूटी की कहानी 

मैं उत्तरी दिल्ली नगर निगम के स्कूल में शिक्षक हूँ। दिसंबर 2020 के तीसरे सप्ताह में मुझे प्रिंसिपल ने सूचित किया कि निगम की ओर से मेरी एक ग़ैर-शैक्षणिक ड्यूटी आई है। आधिकारिक आदेश के नाम पर व्हाट्सऐप पर एक सूची आई थी जिसमें शिक्षकों के नाम, फ़ोन नंबर व इंजीनयरों के नाम-नंबर दिए गए थे। शिक्षकों के नाम से कोई लिखित आदेश जारी नहीं किया गया और न ही सूची के साथ संलग्न आदेश से स्पष्ट हो रहा था कि यह ड्यूटी आपदा प्रबंधन के तहत लगाई जा रही है। ग़ैर-शैक्षणिक ड्यूटी पर तैनाती का ये निर्लज्ज आदेश 5 महीनों से वेतन नहीं दिए जाने की भीषण परिस्थितियों के बीच में आया। फिर शिक्षा का अधिकार अधिनियम कहता है कि चुनाव, जनगणना व आपदा प्रबंधन के अतिरिक्त शिक्षकों से कोई ग़ैर-शैक्षणिक काम नहीं लिया जा सकता है। कई लोगों द्वारा यह चेतावनी पहले-ही दी गई थी कि क्योंकि 'आपदा प्रबंधन' प्रशासन की परिभाषा पर निर्भर करेगा इसलिए इसमें शिक्षकों के दोहन की संभावना सबसे अधिक होगी। कोरोना-'लॉकडाउन' के संदर्भ में शिक्षकों पर थोपे गए तरह-तरह के कामों ने इस आशंका को सच ही साबित किया है। आपदा प्रबंधन के बहाने प्रशासन को एक ऐसी निरंकुश ताक़त प्राप्त हुई है जिसका इस्तेमाल वो मनमर्ज़ी से कर रहा है और जिसे वो आसानी से छोड़ेगा नहीं। जब तक हम संगठित होकर इसका विरोध नहीं करेंगे। इसके लिए शिक्षक संगठनों को सामने आना होगा। 
 
हमारे स्कूल में एक अन्य पुरुष शिक्षक की भी यही ड्यूटी आई थी, हालाँकि उन दिनों शहर में नहीं होने की वजह से वो इसमें शामिल नहीं हुए। हमारे पड़ोसी स्कूलों के कुछ शिक्षकों की भी यह ड्यूटी आई थी। इसके लिए हमें निगम के एक कनिष्ठ इंजीनयर के साथ/अधीन काम करना था। काम हमारे वार्ड से इतर के वार्ड के क्षेत्र का था। उक्त इंजीनयर ने मुझे फ़ोन करके तय जगह पहुँचने के लिए कहा। उन दिनों मैं न सिर्फ़ स्कूल में दाख़िलों के काम में लगा हुआ था, बल्कि अपनी कक्षा के 2-4 विद्यार्थियों को स्कूल में, 11-12 बजे के उपरांत, लगभग 2 घंटे पढ़ा भी रहा था। इसके अलावा, उन दिनों हमारे स्कूल में ऑडिट के चलते काफ़ी काम बढ़ भी गया था। मैंने फ़ोन के अलावा, उक्त स्थल पर पहुँचकर इंजीनयर महोदय को अपनी स्थिति से अवगत कराया। कुल मिलाकर, अपवाद के किसी दिन को छोड़कर, मैं स्कूल की कुछ-न-कुछ ज़िम्मेदारी निभाने के बाद ही इस ग़ैर-शैक्षणिक ड्यूटी के लिए जाता था। इसका एक कारण इंजीनयर महोदय का सहयोग भी था। वैसे भी, हम शिक्षकों से जो काम लिया जा रहा था उसके लिए स्मार्टफ़ोन की ज़रूरत थी। मेरे स्मार्टफ़ोन न रखने पर उन्होंने शुरु में ज़्यादा आपत्ति नहीं की, हालाँकि जैसे-जैसे उन पर काम का दबाव बढ़ता गया, वैसे-वैसे उनके लिए पहले की तरह उदार रहना मुमकिन नहीं रह गया।  

स्थल पर पहुँच कर पता चला कि हमें प्रधानमंत्री स्वनिधि योजना के तहत रेहड़ी-पटरी वालों के ऑनलाइन फ़ॉर्म भरने हैं। दो-चार दिन तो हम निगम के उसी छोटे से स्थानीय दफ़्तर में बैठकर लोगों का इंतज़ार करते थे और आने वालों के काग़ज़ात देखकर व उनसे जानकारी लेकर उनकी अर्ज़ियाँ भरते थे। उसके बाद हम विभिन्न स्थलों (जैसे, साप्ताहिक बाज़ार, चौराहे आदि) पर गए व 3-4 दिन एक अन्य दफ़्तर में बैठे। इस बीच मैं स्कूल जाता रहता था और इंजीनयर द्वारा दी गई सूची के अनुसार लोगों को फ़ोन करके काग़ज़ों सहित तय स्थलों पर पहुँचने का अनुरोध करता रहता था। यह काफ़ी बोझिल काम था और 10-15 फ़ोन करके बात समझाने में ही 40-45 मिनट लग जाते थे। उसके बाद अक़सर उन्हीं नंबरों से लोग वापस फ़ोन करते थे जिससे कि और परेशानी होती थी क्योंकि इतने नंबरों को याद रख पाना या फ़ीड करना संभव भी नहीं था और उचित भी नहीं। ये सूचियाँ ताज़ा होकर बदलती भी रहती थीं। इस प्रसंग में सबसे चिंताजनक बात यह है कि न सिर्फ़ प्रशासन/सरकारों ने यह मान लिया है, बल्कि हमसे मनवा भी लिया है कि हम अपने यंत्रों, अपने डाटा, अपने वक़्त का उपयोग उनके दिए सरकारी/सार्वजनिक काम के लिए करेंगे। एक तरफ़ शिक्षकों से डाटा-ऑपरेटर्स व बैंक कर्मचारियों का काम लिया जा रहा है - निःसंदेह, यह बैंक/वित्तीय संस्थाओं के कर्मचारियों के काम को आउटसोर्स करना, छीनना तथा उनके पेशागत भूमिका को कमज़ोर करना भी है - और दूसरी तरफ़ शिक्षण के बौद्धिक व स्वायत्त काम को तकनीकी के हवाले करके शिक्षकों की पेशागत प्रासंगिकता ख़त्म करने की कोशिश हो रही है। 
मौखिक रूप से हमें इतवार, क्रिसमस आदि को भी आने के लिए कहा गया। मैंने इसके लिए मना किया तो उन्होंने मासूमियत से मुझसे पूछा कि क्या मैं ईसाई हूँ! आख़िरकार, मैं नहीं ही गया और उन्होंने भी ज़ोर नहीं डाला। ड्यूटी के तदर्थ (औपचारिक/अनौपचारिक व वैधानिक/अवैधानिक) स्वरूप का इस बात से भी पता चलता है कि किन्हीं शिक्षकों के कई दिनों या बिलकुल ही नहीं आ पाने पर कोई विभागीय निर्देश जारी नहीं किया गया और इंजीनयर महोदय भी हमारी अनुपस्थिति को लेकर, असंतोष व्यक्त करने के अलावा, काम चलता रहे के उपाय करके सहयोग-सहानुभूति का रवैया अपनाते थे। 

इस काम के दौरान मैंने मुख्यतः चार-पाँच चिंताजनक बातों पर ग़ौर किया, जिन्हें मैं यहाँ साझा कर रहा हूँ। 

1. इस योजना के तहत आवेदन करने आ रहे कुछ लोगों को इस बात का भी अंदाज़ा नहीं था कि ये एक ऋण योजना है। हालाँकि, ऐसे लोग 5-10 प्रतिशत ही रहे होंगे और यह शायद आवेदन के प्रारंभिक चरण के बारे में ज़्यादा सही था। शायद इस योजना की जानकारी उन्हें 'पैसे मिल रहे हैं', 'खाते में पैसे आयेंगे', 'मोदी दे रहा है' आदि रूपों में मिली हो। जिन दो दफ़्तरों व एक चौराहे पर मैंने काम किया वहाँ एक छोटा-सा बैनर ज़रूर लगा था जिसकी आख़िरी लाइन में 'लोन' शब्द का इस्तेमाल हुआ था। मगर अपने आकार व डिज़ाइन के चलते वो ज़्यादा ध्यानाकर्षित नहीं करता था। फिर, यह ज़रूरी नहीं था कि आवेदन के लिए आ रहे सब लोग पढ़ना जानते ही हों। सबसे महत्वपूर्ण यह था कि इस योजना के लिए काम पर लगाए गए लोगों को भी योजना के बारे में कोई प्रशिक्षण नहीं दिया गया था। और क्योंकि हम सब शिक्षक इस ड्यूटी में ठगा-सा महसूस कर रहे थे और यह काम हमारे पेशे के चरित्र के ख़िलाफ़ था, इसलिए भी हमारे सामने न्यूनतम मौखिक निर्देशों के बाहर जाकर काम करने की कोई वजह नहीं थी। 

2. जिन 80-90 प्रतिशत आवेदनकर्ताओं को यह स्पष्ट था कि यह एक ऋण योजना है, उन्हें भी इसकी शर्तों की कोई जानकारी नहीं थी। बैनर पर आवेदन करने के लिए ज़रूरी शर्तों की जानकारी तो दर्ज थी, मगर ऋण की शर्तों की कोई जानकारी स्थलों पर सार्वजनिक नहीं की गई थी। जैसे कि ऊपर ज़िक्र आया, आवेदकों की मदद के लिए लगाए गए हम शिक्षकों को ही इस बारे में कोई जानकारी नहीं दी गई थी। ऋण जैसी वित्तीय व व्यावसायिक प्रक्रिया के लिए अदायगी की शर्तों की पूर्व जानकारी होना न सिर्फ़ आवेदकों का अधिकार है, बल्कि उन्हें यह जानकारी देना संबद्ध संस्थाओं का कर्त्तव्य भी है। ऐसे में, एक राष्ट्रीय-स्तर की ऋण योजना में इस मौलिक बात की अनदेखी होना बेहद गंभीर सवाल खड़े करता है। मैंने कुछ आवेदकों से बातों-बातों में यह जानने की कोशिश की कि उन्हें इस ऋण की शर्तों की जानकारी है या नहीं। पूरे 8-10 दिनों के अंतराल पर लगभग 50 लोगों से यह सवाल पूछने पर मुझे मुश्किल से दो-तीन लोग ऐसे मिले जिन्हें थोड़ी-बहुत जानकारी थी या जानकारी होने/जुटा लेने का विश्वास था। 

3. सबसे चिंताजनक अनुभव था इस योजना में ज़ोर-ज़बरदस्ती या बहला-फुसलाकर आवेदन करवाने के अवलोकन। एक शाम हमें एक साप्ताहिक बाज़ार में दुकानदारों के नाम-फ़ोन नंबर पूछकर लिखने व योजना में उनके आवेदन करने/न करने की स्थिति का ब्यौरा दर्ज करने के लिए बुलाया गया था। जब मैं पहुँचा तो मुझे 'सशक्त' करने के लिए बताया गया कि अगर कोई 'सहयोग' करने से मना करे तो मैं उन्हें बताऊँ और फिर वो पुलिस तक को बुला लेंगे! (हालाँकि, इसमें दबंगई का इज़हार ज़्यादा था, इरादा कम।) मैंने पाया कि मेरे सहयोगी यह कहकर दुकानदारों पर दबाव डाल रहे हैं कि आवेदन नहीं करने पर उन्हें साप्ताहिक बाज़ार में दुकान नहीं लगाने दी जाएगी। मैंने हैरान-परेशान होते हुए उनसे पूछा कि भला कौन-से संविधान व क़ानून के तहत हम ऐसा कह सकते हैं। उन्होंने सादगी से कहा कि उन्हें सुपरवाइज़र ने ऐसा कहने के लिए कहा है। अच्छी बात ये हुई कि जब मैंने ऐसा बोलने से इंकार करते हुए ही जानकारी दर्ज करनी जारी रखी तो उन्होंने भी अपना रवैया बदल लिया। इस सर्वे के बीच में जब हम सुपरवाइज़र से मिले तो अपनी आपत्ति व्यक्त करते हुए मैंने वही सवाल उनसे भी पूछा। ग़नीमत थी कि उन्होंने मेरी बात स्वीकार की, मगर ऊपर से आ रहे दबाव के सामने अपनी बेबसी भी ज़ाहिर की। उन्होंने बताया कि कैसे कमिश्नर स्तर से उन लोगों पर रोज़ योजना में आवेदकों की बढ़ती संख्या दिखाने के निर्देश आ रहे हैं। बाद के दिनों में उन्होंने मुझे अपने फ़ोन पर रपट भेजने, फ़ोटो खींचने आदि से जुड़े कई संदेश दिखाए। अधिक चिंताजनक यह था कि उस दिन साप्ताहिक बाज़ार में मुठ्ठीभर लोगों ने ही हमसे पूछा कि हम कौन हैं और उनसे ये जानकारी क्यों माँग रहे हैं। अधिकतर लोग हमारे निगम के परिचय के बाद आसानी से जानकारी दे देते थे। वैसे, क्योंकि यह प्रक्रिया, हमारे क्षेत्र में जाने से पहले-से ही, कुछ दिनों से चल रही थी, इसलिए उनके लिए यह शायद उतना नया न भी रहा हो। पूरे बाज़ार में चंदेक लोग ही थे जिन्होंने या तो अपना नाम व जानकारी देने से मना कर दिया या फिर साफ़ कह दिया कि उन्हें कोई फ़ॉर्म नहीं भरना है/ऋण नहीं लेना है। उनके इंकार को सुनकर मुझे ख़ुशी हुई और मैंने उन्हें इसकी बधाई भी दी। बहुत-से दुकानदारों की बात सुनकर यह साफ़ पता चला कि वो स्वेच्छा या ख़ुशी से नहीं, बल्कि एक दबाव में यह आवेदन कर रहे थे। ऐसा लगा कि सुपरवाइज़र जैसे निगम के कर्मियों का जो लेन-देन या संबंध बाज़ारों के प्रधानों आदि से होता है उसके चलते भी दुकानदार एक पारस्परिकता व हफ़्ता/'बीमा-सुरक्षा' की तर्ज पर इसे औपचारिकता की तरह निभा रहे थे। बहुतों के लिए दस हज़ार की रक़म के कोई मायने नहीं थे। दो-चार लोग ऐसे भी थे जिन्होंने फ़ॉर्म को भरने, ऋण लेने और बाज़ार लगाने के बीच के जायज़/नाजायज़ संबंध पता चलने पर रोष प्रकट किया और 'प्रधान' से बात करने की मंशा जताई। वेबसाइट पर तो यह ऐलान है ही कि समयानुसार ऋण अदायगी के बाद इस योजना के आवेदकों को और बड़े ऋण मिल सकेंगे। यह भी कहा गया कि इस योजना के आवेदकों का उनकी पटरी के स्थल पर दावा पक्का हो जायेगा, उन्हें कोई हटा नहीं सकेगा। पूरी प्रक्रिया किस अपारदर्शी तरीक़े से अंजाम दी जा रही थी इसका पता उस आवेदक के सवाल से चलता है जिसने मुझे किनारे पाकर पूछा कि कहीं यह कोई निजी-फ़्रॉड लोन योजना तो नहीं है! 

4. चूँकि आवेदकों के फ़ॉर्म नेट पर भरे जा रहे हैं, वो भी किसी और के द्वारा, इसलिए उन्हें ख़ुद इस बात की कोई ठोस जानकारी नहीं है कि कोई सूचना क्यों माँगी गई है। वो सिर्फ़ ऐसे निरीह लाभार्थी की भूमिका निभा रहे हैं जिसे उपकृत किया जा रहा है। नेट पर आवेदन के चलते उनके पास अपने भरे फ़ॉर्म की कोई प्रति तक नहीं है। ऑनलाइन प्रक्रिया अंग्रेज़ी में है जिसके चलते भी आवेदकों के जानने-समझने की संभावना न्यून हो जाती है। 

5. आवेदन के लिए न सिर्फ़ बैंक खाते का आधार से जुड़ा होना अनिवार्य है, बल्कि फ़ोन नंबर का भी। जबकि अधिकतर आवेदकों के खाते यह शर्त पूरी करते थे, मगर फ़ोन लिंक करवाने के लिए उन्हें तयशुदा स्थल के चक्कर काटने पड़े। कभी-कभी दो-तीन चक्करों के बाद भी यह प्रक्रिया पूरी नहीं होती थी, मगर उन्हें यही आभास होता था/कराया जाता था कि उनके पास इसे छोड़ने या इससे बच निकलने का कोई विकल्प नहीं है। एक ऐसे ऋण के लिए जिसकी न उन्हें ज़रूरत थी और न ही वो लेना चाहते थे, उन्हें बेशक़ीमती वक़्त और पैसा बर्बाद करना पड़ रहा था। जब देश की बड़ी आबादी को अनर्गल दस्तावेज़ी प्रक्रियाओं में लगाए रखा जायेगा तो उन लोगों के रोज़गार और आमदनी को तो नुक़सान होगा ही, अनुत्पादक कामों के चलते अर्थव्यवस्था भी प्रभावित होगी।  

योजना के बारे में नेट पर पता करने पर मालूम हुआ कि इसे 1 जून 2020 को घोषित किया गया था। शहरी विकास एवं आवास मंत्रालय द्वारा संचालित इस योजना के तहत मार्च 2022 तक 50 लाख रेहड़ी-पटरी वालों को दस लाख तक के ऋण प्रदान किये जाने का लक्ष्य है। ज़ाहिर है कि योजना की रूपरेखा व लाभ-घाटे को देखते हुए उस हद तक आवेदन प्राप्त नहीं हो रहे हैं, जिसके मद्देनज़र इसे कामयाब घोषित करके वाहवाही लूटने के लिए विभिन्न विभागों सहित शिक्षकों तक को ज़ोर-ज़बरदस्ती के काम में झोंक दिया गया। हालिया घोषित आँकड़ों के अनुसार, इस योजना में लगभग 35 लाख आवेदन किये गए हैं, जिनमें से क़रीब 18 लाख मंज़ूर हुए हैं, 13.5 लाख को ऋण मिल चुका है तथा कोई 2 लाख अयोग्य पाए गए हैं। योजना में आवेदन करने के लिए शहरी निकाय द्वारा जारी रेहड़ी-पटरी पहचान पत्र होना ज़रूरी है मगर क्योंकि अधिकतर शहरों में ये प्रक्रिया पूरी नहीं की गई है इसलिए निकायों को निर्देश दिए गए हैं कि वो या तो इन्हें जारी करें या एक त्वरित प्रक्रिया के तहत आवेदक को रिक्वेस्ट फ़ॉर लेटर ऑफ़ रिकमेन्डेशन (LoR) जारी करके ऋण के लिए योग्य बनायें। ऋण लेने के लिए यह ज़रूरी है कि आवेदक मार्च 2020 के पहले से रेहड़ी-पटरी लगा रहा हो, मगर मैंने पाया कि कुछेक लोगों के कार्यस्थल की ताज़ा फ़ोटो को इस काग़ज़ी सबूत के एवज़ में इस्तेमाल किया गया। शायद यह 'जानकार' लोग रहे हों या हो सकता है कि इनके आवेदन आगे जाकर नामंज़ूर हो गए हों। फ़ोन पर कुछ लोगों ने यह भी बताया कि सब कुछ मंज़ूर होने के बाद भी बैंक ने उन्हें ऋण देने में असमर्थता जता दी। 

ऋण अदायगी की शर्तों को दर्शाती एक तालिका वेबसाइट पर उपलब्ध है मगर उसे समझना मेरे लिए सरल नहीं था। एक बैंक की वेबसाइट पर इस ऋण योजना संबंधित उपलब्ध जानकारी केंद्रीय वेबसाइट पर दी हुई जानकारी से थोड़ी अलग लगी। कुछ दोस्तों की मदद ली मगर एक स्पष्ट और समान व्याख्या नहीं मिली। हाँ, इतना ज़रूर साफ़ हुआ कि ब्याज लगेगा और 100 रुपये प्रतिमाह का कैशबैक महीने में 200 ऐसे कैशलेस लेनदेन करने पर ही मिलेगा जिनकी न्यूनतम राशि 25 रुपये हो। यह सोचना मुश्किल नहीं है कि कितने रेहड़ी-पटरी वाले इस शर्त को पूरा कर पाएँगे। फिर, अधिकतर को तो इसकी ख़बर ही नहीं है। बैंक की वेबसाइट पर दी जानकारी के अनुसार ऋण अदा न कर पाने की स्थिति में ऋण से अर्जित सामग्री ज़ब्त कर ली जाएगी। बहुत संभव है कि ज़मीनी स्तर पर ऐसे में उनकी रेहड़ी पटरी सहित आंशिक अथवा संपूर्ण सामग्री यह कहकर छीन ली जाये कि ये सारी चीज़ें ऋण से प्राप्त की गई हैं। फिर, अगर इस योजना के प्रावधान इतने-ही लुभावने हैं तो फिर ये प्र्चारी सरकार उन्हें लोगों तक पहुँचा क्यों नहीं रही है?

तो यह है नये भारत की एक बानगी। अपारदर्शी योजना, अवैध ड्यूटी, महीनों से वेतनहीन शिक्षक व अन्य कर्मचारी, नितांत निजी चीज़ों (यहाँ ऋण, पर अन्यत्र विवाह, प्यार, धर्म भी) पर प्रशासनिक ज़ोर-ज़बरदस्ती, रोज़गार देने के नाम पर रोज़गार छीनने की धमकी, प्रधानमंत्री के नाम पर घोषित हर योजना-स्कीम को येन-केन-प्रकारेण सफल सिद्ध करने की धूर्तता-दबंगई और सर झुकाये, ज़बान सिले बैठी आवाम। तो हम गणतंत्र दिवस कौन-से गण और किस तंत्र के नाम पर मनाते हैं? 

Tuesday, 19 January 2021

School Curriculum in NEP 2020: An anti-education and anti-people agenda

 The following note was written, as the first draft of a critique on NEP 2020's proposals on school curriculum, sometime in October-November of last year, as a contribution for an anti-NEP 2020 booklet being brought out by All India Forum for Right to Education (AIFRTE). We are putting up this section on the blog for wider public dissemination since the final publication of the said booklet has been delayed. We acknowledge AIFRTE's and its booklet committee's stimulus for this note and the inputs of the committee members that went into drafting it. This note would not have come into existence without AIFRTE's booklet exercise and organisationally collective intellectual labour. Indeed, to the extent AIFRTE agrees with the analysis in this note, the authorship too may be said to belong to it. We also wish to put it on record that this is not an exact replication of the final section on curriculum which will/does appear in AIFRTE's booklet, as this draft was later edited in order to reduce its length and fit it into the planned size of the booklet.     

  


The curricular structure as envisaged in NEP 2020 is divided into four stages, vis the foundational, preparatory, middle and secondary, but we may identify the following three emphases in the first two, the third and the fourth stages, respectively: foundational literacy and numeracy, 'Indian ethos' and culture (pegged heavily on a distorted study of language) and vocational courses. For the children of Bahujans and working classes, the curricular conception of NEP 2020 stands on two legs, one reducing academic rigour, the other increasing hegemonic indoctrination. Both are interconnected and intended to serve the interests of both the global masters as well as the national rulers.   
At one level, the curricular focus of NEP 2020 can be said to be foundational literacy and numeracy and vocationalisation. At another level, there is a consistent and strong emphasis upon 'Indian ethos' and values. In all cases, there is a clear design to centrally control all aspects of curriculum, including textbooks, daily activities, yearly calendars, report cards etc. On the one hand, the policy trespasses dangerously against states' autonomy to organise schools, which is their right and responsibility as per the federal character of the constitution. On the other, it also takes the unprecedented and dictatorial step of intruding into the classroom and professional space by decreeing, all in the name of various centrally-proposed and dictated activities, programs, courses etc, lesson-plans and pedagogy to be adopted by teachers! The overall intent of the curriculum envisaged in the policy is to a) capture and command the curriculum centrally; b) dilute, de-academise and dumbify the content; and c) differentiate and segregate the content unequally between children from different classes. The following is an exemplification of the above-stated critique. 

The declaration of curricular objectives is focused on students' becoming 'good, successful, innovative, adaptable, and productive human beings in today's rapidly changing world.' (4.23) This presents the larger changes taking around us as fait accompli to which students must learn to adapt in order to achieve success, which equals goodness. Obviously, there is no place for a transformatory role of education or agency of students and young people in such a curriculum. The prioritisation of fundamental duties over rights (which are conspicuously absent throughout the text) is only a logical corollary of such a curriculum. 

The proposal of a National Curricular and Pedagogical Framework for Early Childhood Care and Education (NCPFECCE, 1.3) makes the intention to even control and design pedagogy, something which falls in the domain of higher education institutions and professional and academic bodies, starkly clear. This is a clear attempt to preempt research based, disciplinarian development and practices of pedagogy. That this conception includes 0-3 year-old children hints at the Orwellian designs of total control over child-rearing practices and cultural influences in early childhood. Given the obvious slant of the curriculum, as envisaged in the policy, towards an uncritical and glorificatory conception of 'ancient India' and 'Indian ethos', it is inconceivable that this is a well-intentioned, leave alone an innocent proposal. Apart from this, the proposals for a pre-primary preparatory class and making children school ready as per the logic of foundational literacy and numeracy is a direct encouragement to a sort of coaching for the initial stages of curriculum termed foundational and preparatory. The curricular conception of foundational literacy and numeracy is itself built upon weak grounds and fails to learn any lessons from the discredited NCLB (No Child Left Behind, a standards and target-setting Act promulgated in 2001 in the USA). The targeting of universal FLN standards (by grade 3) by 2025 is an open invitation to disaster as it ignores the invalidity of borrowing an approach from the world of business, industry and corporate offices which is so ill-suited to the complex, humane and engaging world of education (2.2). Such targeting of outcomes is sure to produce distortions like 'teaching to test', manipulation, gaming, exclusion, dilution of content etc. Moreover, the centering of MHRD's (MoE, post policy) role in deciding ECCE curriculum and pedagogy is also patently anti-federal (1,9).      

That 'experiential learning' is meant to be used as a Trojan horse to infiltrate biased content and regressive values in the curriculum is clear not only from the contradiction with its stated association with 'learning outcomes' and 'competency-based learning' (4.6) but also from more sincere references to its use 'for imbibing the Indian ethos through integration of Indian art and culture in the teaching and learning process at every level' (4.7). The open call to reduce curriculum (4.5) complements the emphasis on experiential, joyful and activity-based learning. The two together are intended to serve the objective of dumbing down the content and processes of education, which is so essential to the attainment of the next objective, that is to indoctrinate into a hegemonic world-view. The soup of FLN, experiential learning, flexibility, fun-activity etc is, on the one hand, an attack on academic rigour and content standards, and, on the other, a ruse to impose centrally controlled, designed and surveilled curricular programs and classroom processes.  

The obvious implications of the particular presentation of the 3-language formula and multilingualism in the policy will be that state-run schools in north India will keep on teaching Hindi, Sanskrit and English; other states may provide their respective languages, English and Hindi/Sanskrit; and elite private schools across the country will offer their students Hindi, Sanskrit and English and/or a Foreign Language. To probe the claims of choice, it must also be asked as to whether students in state-run schools will get a chance to study foreign languages as students of elite private schools do. The policy does not commit to linguistic curricular fairness to students from all sections and schools. A close look at the language part of the curricular design proposed by NEP 2020 provides a clear idea of its biases. While Sanskrit gets independent and repeated attention, other languages, including those accepted as classical, are given short shrift. Thus, while textbooks for Sanskrit will be prepared even for the foundational stages, it will continue to be offered as part of the 3-language formula and included at all levels, no such large-heartedness is shown to any other language. Moreover, while exposure to other languages may take place through digital means, making no such suggestion for Sanskrit alone indicates that actual recruitment in schools will focus on it. All this becomes especially ironical when the policy declares its intent to ensure that these languages, which are actually spoken by millions and have a thriving tradition of literature, 'stay alive and vibrant', without saying a word about the near dead nature of a language which, if at all it survives, does so on rather generous and biased state-support! 

NEP 2020 does a huge disservice to the idea of India and her students by the petty-mindedness it brings to the exercise and intent of the proposals. It stoops down to retorting to the infamous slander against Sanskrit by Macaulay, by asserting that Sanskrit 'possesses a classical literature that is greater in volume than that of Latin and Greek put together...(4.17)' Such pettiness is once again evident in excluding, for obvious and non-academic reasons, Chinese/Mandarin and Arabic from the list of curricular foreign languages, which is limited to 3 east Asian and 5 European languages and ignores whole continents. Such a narrow conception is again evident in limiting Knowledge of India (4.27) to 'ancient India', an empty eulogy and unsubstantiated glorification of Indian ethos and languages (4.15, 4.29 etc) which caricatures learning about languages and cultures to memorising stock phrases (4.16). Of course, this shorthand prescription does not apply to Sanskrit! It is ironic that a policy which talks of millenia of development in local ECCE practices skips a whole millenia and more of Indian history as an exercise in blackout or censorship. This selective amnesia with facts and history is a treason against reason and the rights of students and must not be countenanced in a policy on education. This intellectually lazy approach is extended to the matter of values, where not only are 'traditional Indian values' put before Constitutional values but particularistic manners and variedly interpretable cultural practices such as courtesy, patriotism, patience, swachchhata, nishkam karma, sewa, are listed as values to be developed in all students (4.28). Not surprisingly, the constitutional and modern values of justice, liberty, equality and fraternity come last in this listing, almost as an afterthought. In keeping with the strain of narrow-mindedness, it is proclaimed, "All curriculum and pedagogy, from the foundational stage onwards, will be re-designed to be strongly rooted in the Indian and local context and ethos in terms of culture, traditions, heritage, customs...ancient and contemporary knowledge...(4.29)", thereby putting a question mark on the universal elements of education and the research-based disciplinarian elements of pedagogy which are shared across countries. Such a narcissistic approach to curriculum which denies the universal character of certain knowledge systems and belittles the contribution of the rest of the world to knowledge and human values will only lead to narrow-minded and intellectually impoverished young people. Perhaps, that is precisely the intention. 

While reading, writing and speaking are unmindfully listed as 'subjects' in reference to the curriculum for the foundational stage (4.2), the leaving out of Environmental Studies as a subject fits in with the reduction of environmental awareness to 'water and resource conservation' (4.23), without any mention of that profit-oriented exploitation of humans and resources inherent in capitalism which is responsible for environmental degradation and climate crisis. Similar obfuscation of reality is reflected when the policy shies away from naming caste, communalism, patriarchy etc for curricular themes. This curricular approach in NEP 2020 is designed to produce a blinkered and ostrich-like mentality among students. As with EVS in the earlier part, science too is conspicuously absent from the focus on later stages of the curriculum. In all, there seems to be no space in the policy's layout of curricular structuring for an engagement with either the objectivity and temper of sciences or the empathy and depth of arts. Almost all the space and attention is occupied by a shallow and distorted conception of language and culture which in turn serve vested interests.     

Unmindful of its disastrous implementation in universities and its unsuitability to the social reality of large sections of students, the policy suggests the adoption of a semester system even for schools. This is to be seen with the intent to break down the curriculum into disconnected capsules and distort any meaningful engagement with subject matter and disciplines. What such a disjointed curriculum would readily provide space for is the government's propaganda programs like "Ek Bharat, Shreshtha Bharat initiative" and "Fit India movement" (4.16 and 4.8, respectively). For example, proposals like 'week of language' activity (4.16) are highly likely to be used, as the commands to upload photos and videos of compliance have been showing us, to directly control the daily routine of schools. We have already been seeing how schools have become convenient captive spaces for the government's partisan and propaganda events mandatorily entailing collective oath-taking, runs, live telecasts of PM's speeches etc. NEP 2020 paves the curricular way to cement such anti-education interventions in schools. The hype about giving students the choice to select subjects at the secondary stage is proved hollow by the policy's affirmation that the suggested curricular structure does not require any infrastructural changes. Moreover, nothing in the policy indicates that multiple subject resources and teachers would be made more available than before in order to realise the choices of students. In fact, when the policy actually derides the idea and value of inputs, it is certain that the much touted subject-choice will meet the same result as the 3-language formula, only with starker and wider disparity across different classes of schools. The design of vocational courses, in its reference to ten bagless days, holiday periods, bagless days throughout the year etc, again in the name of experiential learning, is also intended to achieve a hollowing-out of the curriculum.  

Board exams present a similar logic. They will be made 'easy' enough for all students 'going to school and making a basic effort .... to pass and do well' (4.37), but segregate students for assessment at two unequal levels in all subjects (4.38). The falsity of the purported logic of reducing stress, increasing flexibility etc for students vis-a-vis the Board exams is immediately proved in the proposal to institute centralised tests for assessing learning outcomes and tracking students at grades 3, 5 and 8 (4.40). All this boils down to a consistent recipe for diluting academic standards and segregating students into unequal tracks. Thus, bodies like PARAKH (NAC) and platforms like SAS and NAS will use 'learning outcomes' to push schools and boards to 'shift their assessment patterns towards meeting the skill requirements of the 21st century in consonance with the stated objectives of this Policy (4.41).' The policy could not have been more upfront about its meaning of the '21st century skills', a term otherwise left elusive and conveniently undefined in the policy. The gloss of '21st century skills' which is being put upon the minimalist and decontextualised parameters and tools of assessment that India's schools and teachers are being forced to adopt cannot hide the shadow of PISA (which the GoI has signed into) looming over these national centres of assessment and their agenda to make education subservient to the global market economy and finance capital order.


The policy's proposals around school textbooks, always an important part and signifier of curriculum, provide a textbook summary of the whole import of NEP 2020. Their content will be reduced, character will be centralised/nationalised but segregated as per the class background of students and schools and they will not be free (4.31 and 4.32). Indeed, privately published textbooks will be encouraged, in the name of additional material and the new PPP (public-philanthropic partnerships), thereby catering to the needs and demands of elitist private schools, whereas public distribution of textbooks will be discontinued to ease 'logistical burden' and 'conserve the environment' (4.3)! This concern about protecting the environment is unsurprisingly missing in the context of the much more harmful effects of a growing digitalisation and that proliferation of e-devices which this policy itself promotes unabashedly. 


There is a special section on 'gifted students with special talents' (4.43 to 4.46) which is telling, especially in the context of no special attention having been paid in NEP 2020 to children from marginalised and deprived sections or children with special needs or the girl child. This special focus also fits in with the larger discourse of 'merit' consistently and aggressively pushed by the policy. This promise of one-sided attention and material support is not only antithetical to the norms of social justice but also goes against the pedagogic responsibility of schools and teachers towards those students who may be struggling academically, mostly for reasons of material, social and cultural capital. Its ramifications are plain to see when we realise that the policy is proposing the minimalism of foundational literacy and numeracy and an intellectually compromised and indoctrinaire education for the masses, and special academic support for the 'meritorious' few.                 

Sunday, 17 January 2021

दाख़िलों के आइने में हमारे समाज के सच की खोज: एक स्कूल का अनुभव (भाग-1 )

                                                                                                                                                                                                                                                                                                                              फ़िरोज़ 

प्राथमिक शिक्षक 

 भाग-1 

                                                     वो माँगते साबुत काग़ज़, हम दिखाते अपनी चिथड़ी सच्चाई                                                                                                                                                                         

मैं नगर निगम के एक बालिका विद्यालय में पढ़ाता हूँ। यह स्कूल उत्तरी दिल्ली के एक गाँव के नज़दीक स्थित है लेकिन इसमें पढ़ने वाली अधिकतर छात्राएँ आसपास की कॉलोनियों से आती हैं। इन बस्तियों में ज़्यादातर लोग मूल रूप से उत्तराखंड, बिहार और उत्तर-प्रदेश से हैं। स्थानीय परिवारों की बच्चियों के अलावा, अधिकतर विद्यार्थी अमूमन इन्हीं पृष्ठभूमियों से हैं। कुछ मध्य-प्रदेश, छत्तीसगढ़, हिमाचल, पंजाब व पश्चिम बंगाल से भी हैं। वैसे, पिछले 10-12 वर्षों में यह इलाक़ा सांस्कृतिक रूप से अधिक विविध हुआ है (दक्षिण व उत्तर-पूर्व से आने वाले लोग बस गए हैं) तथा आर्थिक रूप से 'विकसित' (फ़्लैट्स व मध्यवर्गीय रिहाइशी परिसर बन गए हैं), फिर भी स्कूल में पढ़ने वाली छात्राएँ इन दोनों तरह की पृष्ठभूमियों से नहीं आती हैं। गाँव के नाम का प्राथमिक बालिका स्कूल गाँव के अंदर स्थित है, जबकि गाँव के प्राथमिक बाल स्कूल और हमारे स्कूल का प्राँगण साझा ही है। जिस कॉलोनी के नाम के बालिका स्कूल की बात मैं कर रहा हूँ उसका बाल स्कूल इसी के भवन में दूसरी पाली में चलता है। यह गाँव यमुना के निकट है और इसके कई पुराने परिवार, गाँव के 'मुख्य' हिस्से के भूपति व 'बाहरी' हिस्से के खेतीहर मज़दूर/किसान, खेती से जुड़े हैं। स्कूल में पढ़ने वाली छात्राओं के परिवार रेहड़ी-पटरी लगाने, रिक्शा-ऑटो चलाने, घरेलू कामगार व कारख़ाना मज़दूर जैसे कामकाज में हैं। पहले यह स्कूल सह-शिक्षा संस्थान हुआ करता था और 20 साल पूर्व इसमें पढ़ने वाले विद्यार्थियों की संख्या 2,500 से ज़्यादा रहती थी। लगभग दस साल पहले इसका लैंगिक विभाजन करके इसे दो पालियों में बाँट दिया गया। पिछले 8-10 सालों से विद्यार्थियों की संख्या में प्रतिवर्ष औसतन 50 तक की गिरावट आ रही है और पिछले सत्र के अंत में छात्राओं के स्कूल में क़रीब 1,200 व छात्रों के स्कूल में 600 विद्यार्थी नामाँकित थे। 3 साल पूर्व इसमें पूर्व-प्राथमिक स्तर की दो कक्षाएँ जुड़ गई हैं, हालाँकि उनके लिए न तो किसी प्रशिक्षित शिक्षक की नियुक्ति हुई है और न ही किसी आया की। इन कक्षाओं में लड़कों का भी प्रवेश होता है मगर प्रथम कक्षा में पहुँचने पर उन्हें स्कूल बदलना पड़ता है। 

कोरोना-'लॉकडाउन' की बंदी के संदर्भ में पिछले सत्र की औपचारिक समाप्ति के बाद यह सत्र 1 अप्रैल को ही शुरु हो गया था, मगर स्कूलों में दाख़िले जुलाई में जाकर शुरु हुए। सच तो यह है कि न शिक्षा विभाग ने इस बारे में कोई सलाह जारी की और न ही मुझ जैसे शिक्षकों का इस विसंगति की तरफ़ ध्यान गया। जबकि ऑनलाइन पढ़ाई की व्यवस्था सत्र के लगभग शुरुआती दिनों से ही लागू कर दी गई थी, मगर शायद 'लॉकडाउन' की निष्ठुर पाबंदियों व स्कूलों में चल रहे राशन वितरण के काम के संदर्भ में दाख़िलों का सवाल दब गया। जिस तरह कोरोना-'लॉकडाउन' की आड़ में नियमित स्वास्थ्य सेवाओं को ठप्प करके लाखों-करोड़ों आपदाओं को बेहाल छोड़ दिया गया, उसी तरह दाख़िलों, नियमित कक्षाओं व मुफ़्त शिक्षा के रूप में शिक्षा के अधिकार को तथा मिड-डे-मील के रूप में बच्चों के भोजन के अधिकार को भी दरकिनार कर दिया गया। आपातकाल के बिना किसी औपचारिक ऐलान के मौलिक अधिकारों को इस तरह कुचल देना सत्ता की नज़र में इनकी औक़ात को बयान करता है। 

ख़ैर, मुझे अपने स्कूल में दाख़िलों में काम करने का मौक़ा मिला और मैं यहाँ उससे जुड़े कुछ अवलोकन व विश्लेषण साझा कर रहा हूँ। इस काम का यह मेरा पहला अवसर नहीं था, मगर कक्षायें न होने के कारण जिस फ़ुरसत के साथ इस बार हम इसे कर पा रहे थे, उसने और कोरोना-'लॉकडाउन' से उपजी आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों ने इस बार इसे एक अभूतपूर्व अनुभव बना दिया। यहाँ पहले मैं कुछ आँकड़ों को पेश करूँगा और उसके बाद के हिस्से में कुछ ख़ास प्रसंग। 

1. जुलाई से शुरु होकर दिसंबर अंत तक कुल 528 दाख़िले हुए। यह संख्या पिछले कुछ वर्षों के मुक़ाबले में असामान्य नहीं है और पिछले साल से तो कम ही है (2016-17 में 513, 17-18 में 483, 18-19 में 527 और 19-20 में 624)। जो बात नई थी वो ये कि दाख़िलों में निरंतरता बनी रही, वर्ना सामान्य सालों में न सिर्फ़ शुरुआती 2-3 महीनों (अप्रैल-जुलाई) में कभी-कभी एक दिन में ही 30 के आसपास तक प्रवेश हो जाते हैं, बल्कि सितंबर आते-आते दाख़िले थम-से जाते हैं। इस बार किसी भी दिन 15-18 से अधिक दाख़िले नहीं हुए और दिसंबर की 30 तारीख़ को भी 9 दाख़िले किये गए। पिछले वर्ष की ऊँची संख्या को आर्थिक संकट व दिल्ली सरकार के स्कूलों की छठी कक्षा में सुलभ ढंग से प्रवेश पाने के उपाय के रूप में भी देखा जा सकता है। 
साफ़ है कि एक तो इलाक़े से पलायन के चलते 'लॉकडाउन' की परिस्थितियों में उन मज़दूर परिवारों की संख्या में भारी कमी आ गई थी जो सामान्यतः अपने बच्चों को हमारे स्कूल में दाख़िल करवाते हैं, दूसरी तरफ़ अपनी बच्चियों को निजी स्कूल से निकालकर हमारे स्कूल में दाख़िल करवाने की प्रक्रिया धीरे-धीरे परन्तु लगातार जारी रही। कुछ परिवार निजी स्कूलों की निष्ठुर व्यावसायिकता के आगे जल्दी मजबूर हो गए, वहीं कुछ अधिक लंबे समय तक जूझते रहे। दाख़िला करवाने आ रहे अधिकतर माता-पिता निजी स्कूलों को कोस रहे थे, हालाँकि इससे यह निष्कर्ष निकालना मुश्किल होगा कि वो निजी स्कूली शिक्षा के ख़िलाफ़ राजनैतिक रूप से किसी निर्णायक नतीजे पर पहुँच गए हैं। 

2. 528 में से 170 (32%) दाख़िले 5वीं में, 86 (16%) चौथी, 82 (15.5%) तीसरी, 66 (12.5%) दूसरी, 65 (12%) पहली और 54 (10%) पूर्व-प्राथमिक कक्षाओं में हुए। परिणामतः, इन कक्षाओं में, पूर्व-प्राथमिक को छोड़कर, क्रमशः 11, 6, 5, 3 और 2 सैक्शंस हैं। हमारे स्कूल के स्तर पर यह स्थिति अभूतपूर्व नहीं है क्योंकि हर साल लगभग यही स्थिति रहती है। हाँ, ये पिछले कई सालों के चलन की विसंगति को बढ़ाती ज़रूर है।
पाँचवीं कक्षा में बड़ी संख्या में होने वाले दाख़िलों के पीछे मुख्यतः तीन कारण गिनाये जा सकते हैं - अभिभावकों में यह धारणा कि शुरुआती वर्षों की पढ़ाई निजी स्कूल में कराने से 'बच्चों की नींव' बेहतर होगी; अभिभावकों के लिए निजी स्कूलों की फ़ीस व अन्य व्यावसायिक माँगों को लंबे समय तक पूरा न कर पाना (जिसके चलते पाँचवीं में निगम स्कूलों में प्रवेश दिलाकर आगे की पढ़ाई दिल्ली सरकार के स्कूल में सुनिश्चित करना) और; छोटे बच्चों के लिहाज़ से निगम स्कूलों का कई रिहाइशी बस्तियों से दूर होना। अभिभावकों की टिप्पणियों से यह पता चल रहा था कि इस बार इन सामाजिक-आर्थिक परिस्थितियों में निजी स्कूलों में चल रही/नहीं चल रही ऑनलाइन पढ़ाई तथा उसके ख़र्चे व निरर्थकता का वीभत्स आयाम और जुड़ गया।

3. अधिकतर स्कूलों के चलन के विपरीत हम अपने स्कूल में अभिभावकों द्वारा घोषित जाति के आधार पर विद्यार्थियों की सामाजिक पृष्ठभूमि दर्ज कर लेते हैं, हालाँकि वज़ीफ़ों के लिए दस्तावेज़ी सबूत उपलब्ध कराने पर ही उनका नाम सूचीबद्ध किया जाता है। यह प्रक्रिया स्कूल के असल सामाजिक चरित्र, उसकी पहुँच को उजागर करने में मदद करती है। साथ ही, इससे यह भी स्पष्ट होता है कि समाज के वंचित वर्गों से आने वाले कितने प्रतिशत विद्यार्थियों को दस्तावेज़ी कारणों से उनके हक़ नहीं मिल पाते हैं। सामाजिक न्याय के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार करने वालों को ये आँकड़े बताते हैं कि अभी तो इसका उद्देश्य अंश मात्र भी पूरा नहीं हुआ है। इस बार हुए दाख़िलों में से 118/472 (25%) अनुसूचित जाति व 158 (33%) पिछड़े वर्ग की पृष्ठभूमियों से थे। (यह गणना तब की गई थी जब 472 दाख़िले हो चुके थे।) यानी, प्रवेश लेने वालों में से लगभग 60% बच्चियाँ इन वर्गों से थीं। वहीं, इनमें से 10% के पास भी जाति प्रमाणपत्र नहीं था।  
इन वर्गों के अनुपात के संदर्भ में यक़ीनन यह एक बड़ी संख्या है, मगर स्कूल नामाँकन के पिछले आँकड़ों के हिसाब से ये कुछ कम ही ठहरती है। इसके दो कारण हो सकते हैं - पलायन करने पर मजबूर हुए परिवारों में से अधिकतर इन वंचित पृष्ठभूमियों से थे और निजी स्कूलों में पढ़ने वालों (व अंततः वहाँ से नाम कटवाकर प्रवेश लेने वालों) में से अधिकतर इन पृष्ठभूमियों से नहीं थे। नतीजतन, पिछले वर्षों के मुक़ाबले, प्रवेश में वंचित वर्गों से आने वाली बच्चियों का अनुपात कुछ कम हो गया। फिर भी, यह ऊँची संख्या इस दलील को सही साबित करती है कि हमारी सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था में मुख्यतः समाज के वंचित वर्गों के बच्चे-बच्चियाँ पढ़ रही हैं और सामाजिक रूप से सशक्त वर्गों ने अलगाववादी रवैया अपना लिया है।         
            
4. इसी तरह, इस साल दिसंबर के अंत तक मुस्लिम पृष्ठभूमि की 26 छात्राओं ने प्रवेश लिया, जोकि कुल प्रवेश का 5% भी नहीं है। जबकि स्कूल में इस पृष्ठभूमि की छात्राओं का अनुपात 10% से ऊपर रहता आया है, यह आँकड़ा पिछले वर्षों की तुलना में काफ़ी कम है। 
इसका एक कारण शायद पूर्वाग्रह और घृणा का वो माहौल रहा हो जिसे कोरोना के शुरुआती दिनों में मीडिया में मुसलमानों के ख़िलाफ़ निर्मित किया गया था। दूसरा कारण उसी सामाजिक-आर्थिक विपन्नता में स्थित हो सकता है जिसे हमने तीसरे बिंदु में जातिगत संदर्भ में पाया था - 'लॉकडाउन' के चलते वंचित जातियों और मुसलमानों का पलायन इसलिए अधिक हुआ होगा क्योंकि अस्थायी व असंगठित क्षेत्र में, जिसमें रोज़गार ध्वस्त हुआ, इन पृष्ठभूमियों के लोग ज़्यादा हैं। 

5. शुरु के लगभग 400 दाख़िलों में हम जन्मतिथि व नाम को लेकर प्रस्तुत किये जा रहे दस्तावेज़ों की विसंगतियाँ अलग से दर्ज कर रहे थे। पिछले कुछ सालों से डिजिटल/इलेक्ट्रॉनिक प्रक्रियाओं की जकड़बंदी के चलते न सिर्फ़ दस्तावेज़ों में दर्ज जानकारी का महत्व वीभत्स रूप से बढ़ गया है, बल्कि दाख़िलों, आगे की पढ़ाई, वज़ीफ़ों आदि के लिए ये एक मुसीबत बनते जा रहे हैं। कुछ स्कूलों द्वारा क़ानून के विरुद्ध जाकर जन्मतिथि प्रमाणपत्र या/और आधार 'कार्ड' जैसे दस्तावेज़ों को दाख़िले के लिए अनिवार्य करने के पीछे एक कारण यह भी है। हालाँकि, हमने दस्तावेज़ों को अनिवार्य नहीं किया, मगर नामों व तिथियों में सुधार के आवेदनों के अनुभव से सबक़ लेते हुए तथा अभिभावकों को कारण समझाते हुए, हमने दस्तावेज़ होने पर उन्हें पेश करने को अनिवार्य ज़रूर किया। उदाहरण के तौर पर, हम माता-पिता के दस्तावेज़ को देखकर और फिर उनसे पूछकर उनका नाम लिखते थे। यह सब करते हुए हमारा सतत प्रयास रहता था कि हम लोगों को, ख़ासतौर से तब जब वो एक साथ खड़े हों, ये भी बताते चलें कि क्योंकि आठवीं कक्षा तक की शिक्षा मौलिक अधिकार है इसलिए क़ानूनन कोई दस्तावेज़ उपलब्ध नहीं होने पर भी बच्चे को दाख़िले से मना नहीं किया जा सकता है। (और हमारे स्कूल की स्वस्थ परंपरा में मना किया भी नहीं जाता है।) ज़्यादा महत्वपूर्ण इसी बात को सिर्फ़ क़ानून के आधार पर नहीं, बल्कि राजनैतिक व मानवीय आधार पर समझाना था, जो हम करते भी थे।  
शुरु के इन 400 प्रवेशों में से 39 (10%) बच्चियों के पास कोई दस्तावेज़ नहीं था, 33 (8%) के पास केवल जन्मतिथि प्रमाणपत्र, 79 (20%)  के पास केवल 'आधार' और 247 (62%) के पास दोनों थे। यह सच है कि पिछले सालों की तुलना में दस्तावेज़ उपलब्ध होने वाले बच्चों की संख्या में लगातार वृद्धि हुई है। (क) 21 (6%) केसों में दस्तावेज़ में ग़लत जन्मतिथि लिखी थी। (ख) बच्चियों के नाम को लेकर 49 (14%) केसों में एक व 19 (5%) में अनेकों ग़लतियाँ थीं (जैसे कि, हिंदी, अंग्रेज़ी, दोनों में)। (ग) 10 (3%) केसों में जन्मतिथि व नाम दोनों में ग़लतियाँ थीं। (घ) माता-पिता के दस्तावेज़ों की बात करें तो, पिता के नाम को लेकर 48 (13%) केसों में, माँ के नाम को लेकर 39 (11%) व दोनों के नामों को लेकर 33 (9%) केसों में ग़लतियाँ थीं। इसका मतलब है कि 28% बच्चियों के दस्तावेज़ों में कोई न कोई ग़लती थी। इसी तरह, 33% माता-पिता के दस्तावेज़ों में कोई न कोई ग़लती थी। (ङ) 6 बच्चियाँ ऐसी थीं जिनकी माँ के पास पहचान का कोई दस्तावेज़ नहीं था। पिता के संदर्भ में ऐसी बच्चियों की संख्या 3 थी। उन्हें देखकर लगा कि बिना दस्तावेज़ के इंसानी जीवन बिताया जा सकता है, और लोग बिताते भी हैं। हालाँकि, चाह कर भी दस्तावेज़ नहीं बनवा पाना और उसकी ज़रूरत ही महसूस न करने की रूमानियत व आज़ादी, दोनों अलग-अलग परिस्थितियाँ हैं। पुरुषों की तुलना में महिलाओं के पास शिनाख़्त के काग़ज़ नहीं होने की संभावना का अधिक होना भी उनकी सामाजिक स्थिति के बारे में बहुत कुछ बयाँ करता है। असम में चली NRC की कार्रवाई से जुड़ी रपटों से हमें पता चलता है कि औरतों के लिए सिर्फ़ अपने ही नहीं, बल्कि पीढ़ी-दर-पीढ़ी के संबंधियों के काग़ज़ातों से अपनी पहचान/नागरिकता साबित कर पाना कितना असंभव काम है। इसमें विवाह के बाद नाम व स्थान में लगभग अनिवार्य बदलाव की संस्कृति सख़्त बाधा उत्पन्न करती है। दो केसों में तो बच्ची व उसके माता-पिता, तीनों के नामों में, वो भी दोनों भाषाओं में, आपसी विसंगतियाँ थीं! 
इस परिघटना को एक और तरीक़े से समझा जा सकता है। जिनके पास केवल जन्मतिथि प्रमाणपत्र था, उनमें से 14 (42%) के काग़ज़ में कोई न कोई ग़लती थी। इसी तरह, सिर्फ़ 'आधार' पास होने वालों में भी 33 (42%) के काग़ज़ों में कोई न कोई ग़लती थी। इसके विपरीत, इन दोनों दस्तावेज़ों को पेश करने वालों में से 157 (64%) के काग़ज़ों में कोई न कोई ग़लती थी। यानी, एक से ज़्यादा दस्तावेज़ होने से विसंगति की संभावना काफ़ी बढ़ गई। कुल मिलाकर, दस्तावेज़ पेश करने वालों में सिर्फ़ 43% केस ऐसे थे जिनमें कोई ज़ाहिर विसंगति नहीं थी।
दिल्ली में जारी जन्मतिथि प्रमाणपत्र केवल अंग्रेज़ी में होते हैं जिससे न सिर्फ़ भारतीय भाषाओं के नामों की स्पैलिंग के ग़लत होने की संभावना बनती है, बल्कि अधिकतर लोग इसे पहचान व समझ भी नहीं पाते हैं। साथ ही, इनमें बच्चों के माता-पिता के नाम अधूरे या ग़लत दर्ज हो जाते हैं। चूँकि 'आधार' में अंग्रेज़ी के साथ हिंदी (या अन्य भाषाओं) में भी नाम आदि दर्ज होता है, इसलिए इसमें दोहरी ग़लती की संभावना बनती है - एक ही 'कार्ड' में इन भाषाओं में अलग-अलग नाम दर्ज होते हैं और दूसरे दस्तावेज़ों से मेल में कमी तो रहती ही है। इन सभी कारणों से, हमें सबसे अधिक तसल्ली उस केस में होती है जहाँ बच्ची के पास जन्मतिथि प्रमाणपत्र में नाम न लिखा हो व अन्य कोई दस्तावेज़ न हो। इससे हमें सही जन्मतिथि पता चल जाती है - अपवादस्वरूप, कुछ केसों में, जब इस दस्तावेज़ को बच्चे की पैदाइश के काफ़ी बाद बनवाया जाता है, इसमें भी तारीख़ की ग़लती हो सकती है - और हम अधूरे/ग़लत नाम व उसकी ग़लत स्पैलिंग से परेशान नहीं होते। 
आख़िर इन ग़लतियों/विसंगतियों की वजह क्या है? एक बड़ा कारण जो पढ़े-लिखे, कम पढ़े-लिखे, सभी तरह के लोगों से जुड़ा है, हमारे सहज जीवन व दर्शन का राजकीय-अफ़सरशाही नियम-क़ानूनों से मुक्त होना है। किसी सीधे-सरल इंसान के लिए यह समझना स्वाभाविक नहीं है कि कहीं अपना पूरा नाम भारतेन्दु कुमार दास न लिखवाकर/बताकर सिर्फ़ भारतेन्दु कहने/लिखवाने से क्या हो जायेगा। एक शराफ़त भरी दुनिया में कुछ होना भी नहीं चाहिए। मगर ये नियम-क़ायदे ज़ोर-ज़बरदस्ती से सिखाये जाते हैं। हमारा दैनिक आचरण बताता है कि इन्हें सीखने में वक़्त लगता है और हम फिर भी भूलते रहते हैं। ये सलीक़ा सहज नहीं, कृत्रिम है। कुछ ग़लतियाँ इसलिए भी होती हैं कि हमारी संस्कृति में एक ही शख़्स के दो नाम रखने का चलन भी है। दस्तावेज़ इस संभावना को स्वीकार नहीं करते हैं। जैसे राज्य तंत्र हर व्यक्ति को एक धर्म, एक मातृभाषा, एक देश की पहचान में बँधने पर मजबूर करता है, उसी तरह वो किसी के नामों में तरलता, उन्मुक्तता बर्दाश्त नहीं कर सकता है क्योंकि नियंत्रण के लिए एकरूपता ज़रूरी है। तकनीकी आधारित विकास के प्रचार के बावजूद भारतीय भाषाओं के नामों को उनकी लिपियों व रोमन में बिना विसंगति के लिखने तक की तैयारी नहीं की जा सकी है। उदाहरण के लिए, ऑटोस्पैल की बदौलत dolly डोली या डोल्ली हो जाता है (डॉली नहीं), shashi शशी (शशि नहीं), बेबी bebi (baby नहीं) और गौरी gori (gauri नहीं)। कहने को तो विसंगतियों को सुधारने की प्रक्रिया भी है, लेकिन पैसे व वक़्त की क़ीमत को लेकर बहुत-से परिवारों के लिए इससे ग़ुज़रना आसान नहीं होता है। यही कारण है कि अनेकों अभिभावक मेरे बहुत समझाने पर भी अपनी बेटी के नाम की स्पैलिंग ठीक दर्ज करवाने के लिए तैयार नहीं हुए। सुरभि की जगह सूरबी, गायत्री की जगह ग्यात्री इसी का परिणाम हैं। एक शिक्षक होने के नाते, ग़लत वर्तनी के साथ नाम लिखना मेरे लिए बेहद कष्टकर अनुभव था और मेरी भरसक कोशिश रहती थी कि मैं अभिभावकों को सुधरी हुई वर्तनी के साथ नाम लिखवाने पर मना सकूँ। 'आधार' के प्रशासनिक आग्रह के चलते आज कई बच्चों-बच्चियों के नाम ज़िंदगी-भर के लिए ग़लत दर्ज हो गए हैं। ज़ाहिर है, संस्कृत व फ़ारसी निष्ठ नामों में इस तरह की विसंगतियाँ इसलिए भी ज़्यादा होती हैं क्योंकि न सिर्फ़ कई अभिभावक इनकी उचित स्पैलिंग तो क्या, उच्चारण तक से परिचित नहीं होते, बल्कि इलेक्ट्रॉनिक या काग़ज़ी एंट्री करने वाले भी इन भाषाओं व नामों से अनभिज्ञ होते हैं। हिंदुस्तानी ज़बान के नामों (जैसे, सोनम, ख़ुशी, खुशबू, महक, चाहत आदि) में ग़लतियों की संभावना कम होती है। कुछ जानकारों के अनुसार, इन विसंगतियों का एक अधिक स्थूल कारण निजी 'आधार' केंद्रों में काम कर रहे कर्मियों पर जानबूझकर ग़लतियाँ करने का दबाव होता है। जितनी त्रुटियाँ होंगी उतनी बड़ी संख्या में लोग बार-बार सुधार के लिए आने को मजबूर होंगे तथा केंद्र-संचालकों की उतनी ही मोटी वैध-अवैध कमाई होगी। इसी तरह, प्रत्येक अधिकार-नागरिक सुविधा के लिए 'आधार' पेश करने के वैध-अवैध दबाव ने लोगों को भाग-भाग कर इसे बनवाने को मजबूर किया है। इस आपाधापी में ग़लतियों के होने की संभावना इस कारण भी बढ़ जाती है क्योंकि अक़सर इस प्रक्रिया में बच्चे के साथ उसके माता-पिता नहीं, बल्कि परिवार का कोई अन्य सदस्य जाता है। इन समस्याओं व परिस्थितियों के मद्देनज़र बेहतर तो यही होगा कि बच्चों को या तो 'आधार' के नामाँकन से बाहर रखा जाये या फिर स्कूल में प्रवेश के बाद ही उनका नामाँकन किया जाये। 'आधार' के मुक़ाबले जन्मतिथि प्रमाणपत्र को तरजीह देना अधिक समझदारी भरा है। यह बच्चे का पहला दस्तावेज़ होता है, अस्पताल या गाँव-पड़ोस में हुए जन्म के संदर्भ में इसमें दर्ज तारीख़ व माँ की पहचान की प्रामाणिकता आँखो-देखी होती है। कोई तकनीक इस मौलिक गवाही को छू भी नहीं सकती है। इसकी अनुपलब्धता में भी 'आधार' से कहीं अधिक प्रामाणिक माता-पिता का प्रत्यक्ष बयान होता है। 
     
कुछ बातें महत्वपूर्ण हैं - कई बच्चों के पास दस्तावेज़ नहीं हैं, इन्हें बनवाने में, मशक़्क़त के अलावा, ख़ासा वक़्त और पैसा लग रहा है तथा दस्तावेज़ों में ढेरों विसंगतियाँ हैं। अगर किसी ख़ास संदर्भ में विसंगतियों का आँकड़ा हमें मामूली लगता है तो हमें यह याद करने की ज़रूरत है कि हमारे देश में एक प्रतिशत आबादी का मतलब डेढ़ करोड़ इंसान हैं तथा न्याय व संविधान की सुरक्षा संख्याबल की मोहताज नहीं है, बल्कि एक-एक व्यक्ति को प्राप्त होनी चाहिए। स्कूली दाख़िलों से जुड़े ये दस्तावेज़ी आँकड़े देश के आम लोगों के सामने NPA-NRC के भयानक ख़तरे को स्पष्ट करते हैं। जहाँ आधी से अधिक आबादी के एक ही पीढ़ी के दस्तावेज़ों में ढेरों आपसी विसंगतियाँ हैं, वहाँ NPA-NRC जैसी कोई भी कार्रवाई - जिसमें कई पीढ़ियों के दस्तावेज़ पेश करने पद सकते हैं - मुठ्ठीभर लोगों को छोड़कर समूचे देश को 'नोटबंदी' व 'लॉकडाउन' से कहीं बड़े अस्तित्व के संकट में डालकर आतंकित कर देगी। 

दाख़िलों के आइने में हमारे समाज के सच की खोज: एक स्कूल का अनुभव( भाग -2 )

फ़िरोज़ 

                                                                                                                                            प्राथमिक शिक्षक 

भाग -2 

हमारी खोजी व स्नेहिल नज़रों का इंतज़ार करती बच्चों की पहचान  


अब मैं दाख़िलों की प्रक्रिया से जुड़े कुछ सामाजिक अनुभवों को रखूँगा। ये अवलोकन प्रवेश पत्र (ऐडमिशन फ़ॉर्म) में भरी जाने वाली जानकारी के सिलसिले में अभिभावकों से हुए सवाल-जवाब के आधार पर सामने आये हैं। 

1. परिवार 
जैसे राज्य इंसान की शिनाख़्त के ऊपर वर्णित आयामों में इकहरेपन की माँग करता है, उसी तरह इसकी प्रक्रियाओं में परिवार को लेकर भी एक रूढ़ व झूठी संकल्पना काम करती है। एक औरत किसी अनाथ बच्ची को पाल रही थी और उसकी जन्मतिथि नहीं जानती थी। एक बच्ची को उसकी नानी पाल रही थीं और उनके पास उसका कोई काग़ज़ नहीं था। इसी तरह, हर साल मौसी, ताऊ के पास पल रही ऐसी बच्चियों के दाख़िले होते हैं जिनके माता-पिता या तो ज़िंदा नहीं हैं, या फिर बच्ची को पाल नहीं रहे होते। ऐसे कुछ केसों में उनके लिए बच्ची के माता-पिता का नाम लिखवाना एक पहेली बन जाता है। ये अच्छी बात है कि स्कूलों के दाख़िलों में यह पहेली अड़चन नहीं बनती है, मगर अक़सर किसी योजना आदि में आवेदन के समय दस्तावेज़ी समस्या उठ खड़ी होती है। इस साल कई अकेली महिलाएँ अपनी बच्चियों के दाख़िले के लिए आईं। इनमें से कुछ का ही तलाक़ हुआ था, ज़्यादातर या तो अलग हो गई थीं या उनके संबंध विच्छेद की प्रक्रिया चल रही थी या बच्ची का जैविक पिता उन्हें छोड़कर चला गया था। इनमें से कई महिलाओं के लिए बच्ची के पिता का नाम दर्ज करवाना एक कठिन व बेहद पीड़ादायक निर्णय था। नए संबंध बना रही या बना चुकी महिलाओं के लिए तो यह और भी पेचीदा मसला था। स्कूली शिक्षक होने के नाते मेरा व्यवहार संवेदनशील व सहानुभूतिपूर्ण तो था मगर उन्हें उचित क़ानूनी सलाह देने या उनकी मदद करने में मैं अक्षम था। उनके द्वारा यह पूछने पर कि बच्ची के पिता के नाम में विसंगति/बदलाव के क्या परिणाम हो सकते हैं, ईमानदारी और अफ़सोस के साथ यह बताने के अलावा मेरे पास कोई चारा नहीं था कि मैं नहीं जानता मगर सरकार के नित नए क़ानूनों-आदेशों के चलते किसी भी चीज़ के बारे में आश्वस्त होना मुश्किल था। कुछ केसों में संबंध विच्छेद होने के चलते महिला के पास बच्ची के पिता के नाम के कोई काग़ज़ नहीं थे, जिस कारण नाम की स्पैलिंग में दुविधा उत्पन्न हुई। माँ के घर छोड़ देने या मृत्यु के संदर्भों में उनके दस्तावेज़ न होने के चलते माँ का सही नाम लिखना भी सहज नहीं था। कुछ केस ऐसे थे जिनमें अलग-अलग दस्तावेज़ों में पिता का नाम पूरी तरह अलग था। शायद ये पुनर्विवाह या इस तरह के केस रहे हों। ऐसी सभी विसंगतियों में हमने वही नाम लिखा जो उन्होंने दर्ज करवाना चाहा। इस संदर्भ में एक महिला का अपनी पड़ोसन को दूसरी शादी के बारे में 'बोलने' के लिए प्रेरित करना निजी जीवन से जुड़ी बातों को लेकर व्याप्त संकोच को भी दर्शाता है। जबकि संबंधों व वैवाहिक जीवन से जुड़ी निजी बातों को लेकर तमाम तरह की कठोर सामाजिक रूढ़ियाँ फैली हुई हैं, यह स्कूल व हम शिक्षकों की ज़िम्मेदारी है कि इन बातों को लेकर विश्वास में लेने वाला माहौल पेश करें। आज से 15-20 साल पहले स्कूल में बहुत कम बच्चे ऐसे थे जिन्हें अकेली, संबंध विच्छेदित महिलाएँ पाल रही थीं। मगर आज दो तरह के बदलाव आये हैं - न सिर्फ़ स्कूल में ऐसी बच्चियाँ हैं, बल्कि ये महिलाएँ नए रिश्तों की तरफ़ बढ़ रही हैं। यह स्थिति हमारे लिए व्यक्तिगत और पेशागत दोनों तरह की संवेदनशीलता बरतने की माँग तो करती ही है, व्यवस्था से भी इस सच्चाई को सम्मानजनक जगह देने की माँग करती है। सच तो यह है कि नितांत निजी अनुभूति व दैनिक भावनात्मकता के संदर्भ में माता-पिता व परिवार की पहचान शायद धर्म व राष्ट्रीयता जैसी भारी-भरकम पहचानों से ज़्यादा मायने रखती है।    
राज्य व्यवस्था के स्तर पर सवाल ये उठता है कि क्या दस्तावेज़ों को ऐसे नहीं बनाया जा सकता है कि वो समाज और मानव जीवन की इन जटिल व अनिवार्य सच्चाइयों को जगह दें। उदाहरण के तौर पर, पिता के नाम के लिए दो विकल्प रखे जा सकते हैं - जैविक पिता एवं पारिवारिक/पालक पिता। दूसरी ओर, जब अदालत के फ़ैसले के अनुसार महिला पासपोर्ट में बच्चे के पिता का नाम लिखने के लिए बाध्य नहीं है तो फिर स्कूल में यह बाध्यता क्यों है? किसी महिला के लिए अपने बच्चे के पिता का नाम बताना, वो भी स्कूल में उसके दाख़िले के लिए, अनिवार्य क्यों होना चाहिए? इसी तर्ज पर, जिन बच्चों की असल जन्मतिथि पता न हो, उनके लिए अनुमानित अथवा अज्ञात लिखवाना क्या झूठ दर्ज करवाने से बेहतर नहीं है? हमें मालूम है कि जन्मतिथि का संबंध केवल उचित कक्षा में दाख़िले से नहीं, बल्कि क़ानून से जुड़े कई मसलों से है। यही मामला पितृत्व की काग़ज़ी शिनाख़्त और निजी संपत्ति की वसीयत व मालिकाने की लड़ाई के बीच के रिश्ते का है। तो हम कम-से-कम यह तो मानें कि इस ठोस व्यवस्था की सेवा करने के लिए हम लोगों को झूठ दर्ज करने पर मजबूर करते हैं।     

2. धर्म 
प्रवेश पत्र में एक ख़ाना धर्म का भी है। इस जानकारी को भरने की प्रक्रिया में कुछ रोचक तथ्य सामने आये। कई लोगों के लिए, जिनमें महिलाओं की संख्या कहीं अधिक थी, इसका अपेक्षित जवाब देना सहज नहीं था। उनके लिए यह एक अजीब और पहेलीनुमा सवाल था। इसके जवाब में 'पहाड़ी', 'पंजाबी' जैसे क्षेत्रीय विशेषण व जातिगत पहचान की संज्ञाएँ सुनने को मिलीं। ऐसे लोग एक-दो बार टोकने या उदाहरणतः हिन्दू, इस्लाम/मुस्लिम, ईसाई आदि नाम लेने पर ही धर्म का अपेक्षित नाम बता पाते थे। आज के समय के धार्मिक ध्रुवीकरण के माहौल के संदर्भ में हम इससे ख़ुश भी होते थे और उन्हें अपनी ख़ुशी का कारण भी बता देते थे। एक महिला तो, जोकि बच्ची की दादी थीं, बहुत देर तक ख़ुद को और हमें भी यह समझाने की कोशिश करती रहीं कि वो निरंकारी हैं या सिख या दोनों या रविदासी या रविदासी सिख! इस तरह के प्रसंगों ने यह इशारा किया कि हमारे देश में रूढ़ व खाँचों में ढली धार्मिक पहचान बहुत-से लोगों के लिए एक सहज-स्वाभाविक अनुभूति नहीं है, बल्कि आज भी एक प्रशासनिक, राज्य-निर्मित-व-पोषित धारणा है। इसके विपरीत, इसी विषय से जुड़े दो अन्य प्रसंग बहुत परेशान करने वाले थे। एक महिला-पुरुष ने जब अपनी बेटी के दाख़िले हेतु अपने दस्तावेज़ पेश किये तो नामों से अंदाज़ा लगाते हुए मैंने उनसे पूछा कि क्या वो ईसाई हैं। जवाब में, थोड़ा झिझकते हुए, पुरुष ने अपना धर्म 'भारतीय ईसाई' बताते हुए स्पष्टीकरण दिया कि उनका मूल संबंध अंग्रेज़ों से नहीं है। उनके जवाब व सफ़ाई देने वाले अंदाज़ से विचलित होते हुए मैंने खीझते हुए दलील दी कि ऐसे तो मेरे साथ बैठे सहकर्मी को अपना धर्म 'भारतीय हिन्दू' बताना चाहिए क्योंकि कोई मलेशिया या श्री लंका या नेपाल आदि का हिन्दू भी हो सकता है। मुझे नहीं लगा कि उन्हें मेरी बात समझ आई, मगर मेरी बात से आश्वस्त होकर उन्होंने अंततः ईसाई लिखवाना स्वीकार किया। इसी तरह, एक अन्य व्यक्ति ने अपना धर्म बौद्ध बताने के साथ ही संकोच प्रकट करते हुए पूछा कि इससे कोई फ़र्क़ तो नहीं पड़ेगा। उन्होंने बताया कि उनके समस्त परिवार ने बौद्ध धर्म अपना लिया है, लेकिन उनके स्वर में असमंजस झलक रहा था। मैंने उन्हें आश्वस्त करते हुए कहा कि वो इससे कोई फ़र्क़ नहीं पड़ेगा, वो अपना धर्म बताने के लिए स्वतंत्र हैं तथा मैं वही लिखूँगा जो वो चाहेंगे। इसके बाद ही उन्होंने अपना धर्म बौद्ध लिखवाया। कई राज्यों द्वारा धर्म परिवर्तन को दंडित करने वाले असंवैधानिक व दमनकारी क़ानून लाये जाने के संदर्भ में ये प्रसंग आज हमारे सामने स्कूलों में विवेक, इंसाफ़ व अंतःकरण की आज़ादी को ज़िंदा रखने और इन मूल्य को जीवंत बनाये रखने की ज़िम्मेदारी को रेखाँकित करते हैं। 

3. जाति 
इस जानकारी को दर्ज करते हुए मुख्यतः दो बातें सामने आईं। पहली यूँ धार्मिक पहचान के विषय के समानांतर थी कि अपनी जाति को लेकर भी बहुत-से लोगों, और यहाँ भी अधिकतर महिलाओं, के पास अपेक्षित जवाब नहीं थे। यहाँ भी कुछ ने अपनी क्षेत्रीय पहचान बताई और कुछ के पास तो इसका कोई जवाब नहीं था। हालाँकि, उदाहरण रखने पर ज़्यादातर लोग बता पाते थे मगर ऐसे लोग भी थे जिनके लिए इसके बाद भी बताना संभव नहीं होता था। धर्म और जाति, दोनों के संदर्भ में हमारे समाजों का वो 'सच' भी दिखाई दिया जिसके अनुसार औरत का ख़ुद कोई जाति-धर्म नहीं होता, बल्कि बदलती पारिवारिक सीमाएँ ही उसकी सामाजिक पहचान निर्धारित करती हैं या वो ख़ुद एक विशिष्ट जाति-धर्म है। कुछ दोस्तों की राय थी कि हमें जाति की जगह कास्ट या बिरादरी जैसे शब्दों का इस्तेमाल करना चाहिए। मगर हम इस सुझाव को नियमित रूप से अमल में नहीं ला पाये। मगर जाति के मुद्दे पर हमारे लिए बड़ी चिंता का विषय दलित पृष्ठभूमि से आने वाले कुछ लोगों का संकोच था। हमें समझ में आ गया कि उनके लिए इसे सार्वजनिक रूप से घोषित करना उतना सहज नहीं था। एक साथी शिक्षक की इस उलाहना के बाद कि इतना बड़े होने पर भी उसे अपनी जाति नहीं पता है, 18-20 साल के एक लड़के ने बताया कि वो ब्लैकस्मिथ हैं। शायद वो लोहार कहने से बच रहा था। एक अन्य व्यक्ति ने दाख़िले के अगले दिन आकर अपनी जाति का सही नाम बताया। शायद पहले दिन की भीड़ में उनके लिए यह मुश्किल था और अगले दिन एकांत में उनके लिए यह बताना आसान था। एक समस्या यह भी होती थी कि कई बार जातिगत नाम को परिष्कृत करके बताने के चलते मेरे लिए उनको सही ढंग से वर्गीकृत करना संभव नहीं होता था। इसका एक उदाहरण नाई पृष्ठभूमि के कुछ व्यक्तियों द्वारा अपनी जाति को 'माथुर' लिखवाना है। वहीं जातिगत रूप से दलक पृष्ठभूमियों से आने वाले लोग अक़सर बड़े ऊँचे व गर्वित स्वर में अपनी पहचान का ये बिंदु उजागर करते थे। इस बारे में बात करने पर कुछ दोस्तों ने सलाह दी कि दाख़िला स्थल पर डॉक्टर भीमराव अंबेडकर का चित्र लगाने से हम दलित पृष्ठभूमि के लोगों में एक आत्मविश्वास का संदेश पहुँचा पायेंगे जिससे उनका संकोच कम होगा। हमने सावित्रीबाई फूले का चित्र लगाया और (कुछ दिनों तक) वंचित वर्गों की शिक्षा के क्षेत्र में ऐतिहासिक रूप से योगदान देने वाले विविध व्यक्तियों की चित्र प्रदर्शनी भी लगाई। यह कहना मुश्किल है कि इसका सीधा या बड़ा असर पड़ा होगा क्योंकि हमारे ध्यान दिलाने पर ही, जोकि कभी-कभार ही होता था, लोग इस विषय पर ग़ौर करते थे। एक सलाह यह भी आई कि हमें फ़ॉर्म ख़ुद नहीं भरने चाहिए, बल्कि उन्हें अभिभावकों को ही दे देना चाहिए जिससे वो निजता में अपनी जानकारी भर पाएँ, लेकिन सही ढंग से फ़ॉर्म भरने व भाषा को लेकर अधिकतर लोगों की अनभिज्ञता के चलते हम इस प्रक्रिया को अपनाने में असमर्थ थे। अंत में हमने अभिभावकों के लिए रखी कुर्सियों को एक-दूसरे से दूर रखने का उपाय किया जिससे कि सिर्फ़ जातिगत पहचान को लेकर ही नहीं, बल्कि सभी निजी बातों को साझा करने के लिए पर्याप्त निजता बनी रहे। ये सिलसिला आख़ीर तक नहीं चला क्योंकि कोरोना संक्रमण के संदर्भ में स्टाफ़ के एक साथी को लोगों को अंदर के गलियारे में बैठाने को लेकर आपत्ति थी। चाहे हम उनसे जंगले के पीछे से पेश आ रहे हों या धूप में ख़ुद भी बाहर हों, जब लोग बाहर होते थे तो उनकी आपसी दूरी और निजता की परिस्थिति नहीं बन पाती थी। इस संदर्भ में कि हमारे स्कूलों में पढ़ने वाले विद्यार्थी का बहुलांश वंचित-शोषित वर्गों से आता है, हमारे द्वारा जातिगत अस्मिता और सामाजिक न्याय की तमीज़ सीखने-सिखाने तथा इनके संघर्ष को आगे बढ़ाने की ज़िम्मेदारी और भी बढ़ जाती है। 

4. भाषा 
मातृभाषा पूछने पर तो उत्तर में धर्म व जाति के सवालों से भी ज़्यादा शंका व असमंजस मिलता था। अधिकतर लोगों के लिए इस शब्द के कोई मायने नहीं थे। हिंदी जैसी सत्ता-स्थापित भाषा का नाम भी वो उदाहरणों से समझाने पर ही ले पाते थे। चूँकि हमारे स्कूल व पड़ोस में बिहार तथा उत्तराखंड के काफ़ी लोग हैं, और कुछ शायद मेरे अपने पूर्वाग्रह के चलते, इन दोनों राज्यों से संबंध का संकेत मिलने पर मैं उनके असंश्लिष्ट जवाबों को सुधारने की मंशा से भाषाओं के नाम लेकर पूछ लेता था। इस तरह, पहले पहाड़ी या बिहारी को मातृभाषा बताने वाले फिर जाकर कुमाऊँनी, गढ़वाली, भोजपुरी, मैथिली बताते थे। जबकि उत्तर-प्रदेश व मध्य-प्रदेश से संबंध बताने वालों की 'हिंदी' को तो मैंने अवधी, ब्रज, बुंदेलखंडी, बघेली आदि के नाम देकर सही करने की कोशिश नहीं की। आपसी चर्चा में मेरे सहकर्मी ने मुझे बताया कि इस इलाक़े के एक गाँव की भाषा की शब्दावली दूसरे गाँव से अलग है मगर भाषाओं का नामकरण चेतना व ज्ञानजगत में शामिल नहीं है। शायद यही बात धर्म व जाति को लेकर भी सही है - व्यवहार में ज़िंदा व सर्वव्याप्त होने पर भी इनके नाम की पहचान को, ख़ासतौर से महिलाओं के लिए, महत्व नहीं दिया गया है। पंजाबी व बांग्ला को मातृभाषा बताने वाले उदाहरण संख्या में सीमित थे (शायद, क्रमशः 10-12 और 3-5) मगर इन्हें किसी प्रेरणा या इशारे की ज़रूरत नहीं पड़ी। दूसरी ओर, मुस्लिम पृष्ठभूमि के किसी भी अभिभावक ने मातृभाषा के रूप में शायद उर्दू को दर्ज नहीं किया। भाषा की राजनीति व समाजशास्त्र का अध्ययन करने वाले विद्वानों की यह स्थापना सही जान पड़ती है कि राष्ट्र-राज्य, लिखित आधुनिक साहित्य, फ़िल्मों व अकादमिक जगत की सत्ता से सम्मोहित होकर उत्तर-भारत के आमजन ने अपनी जीवंत, व्यवहारमयी भाषाई पहचान को हिंदी के झूठे नाम के सामने समर्पित कर दिया है। भाषाई अस्मिता की लड़ाई लड़ने वाले क्षेत्रों के मुक़ाबले हिंदी की नज़दीकी से सत्ता में हिस्सा पाने का भ्रम रखने वालों ने एक सौदा ही किया। भाषा के नाम को लेकर मेरा अपना शुद्धतावादी आग्रह बताता है कि धर्म के विषय में जो आरोप हम आधुनिक, औपनिवेशिक राज्य को देते हैं, वही आरोप शिक्षा पर भी लगना लाज़िमी है। वैसे भी. क्या हमारी शिक्षा पर उसी आधुनिकता, औपनिवेशिकता का साया नहीं है?
लेकिन वो भाषा से जुड़ा हुआ ही एक मुद्दा था जिसने मुझे अक़सर दाख़िलों के रुचिकर काम को छोड़ने पर विचार करने पर विवश किया। असल में 'प्रतिभा विद्यालय' होने के कारण हमारे स्कूल की प्रत्येक कक्षा का एक सैक्शन अंग्रेज़ी माध्यम का है। इनमें 40 विद्यार्थियों का नामाँकन किया जा सकता है मगर प्रथम कक्षा को छोड़कर लगभग सभी कक्षाओं में ये नामाँकन तो पिछले सालों में पूरा हो चुका होता है। विभागीय निर्देश के अनुसार पहली कक्षा में अंग्रेज़ी माध्यम में प्रवेश हेतु निगम की नर्सरी कक्षा से निकले विद्यार्थियों को तरजीह देनी होती है; इसके अलावा पहले आओ, पहले पाओ का उसूल लागू होता है। कभी-कभी इन सैक्शंस को पढ़ा रहे शिक्षक भी प्रवेश के इच्छुक विद्यार्थियों की अपने स्तर पर मौखिक पड़ताल करते हैं, मगर कोई औपचारिक टेस्ट नहीं लिया जाता है। स्कूलों के बंद होने के चलते इस साल तो कक्षा अध्यापकों की इसमें कोई भूमिका वैसे भी संभव नहीं थी। प्रारम्भिक कुछ दिनों के बाद ही सभी कक्षाओं की इक्का-दुक्का बची हुई सीटें भी भर गईं। इसके बाद दबाव का सिलसिला शुरु हुआ - ज़्यादातर अभिभावकों द्वारा, मगर कभी किसी नए-पुराने साथी शिक्षक की सिफ़ारिश के हवाले से, कभी निगम पार्षद के क़रीबी के हवाले से और एक बार तो अपने परिचित व उनके जानकार वकीलों के हवाले से जो अदालत जाने की बात कहकर हमारी मनाही का जवाब लिखित में माँग कर ले गए। माध्यम भाषा को लेकर मेरे शिक्षाशास्त्रीय लीक के मानक विचार हैं मगर मैं इसके दूसरे पक्ष की राजनीति से परिचित ज़रूर हूँ। मेरे कई दोस्त मेरे आग्रह से सहमत नहीं हैं। कुछ का कहना था कि अगर बढ़ती संख्या में अभिभावक अपने बच्चों को अंग्रेज़ी माध्यम में पढ़वाना चाह रहे हैं तो यह मेरी/स्कूल की लोकतांत्रिक ज़िम्मेदारी बनती है कि इस माँग को विभाग तक पहुँचाया जाया। एक अच्छी बात यह थी कि एक अपवाद को छोड़कर स्कूल के सभी साथियों ने इस दबाव को सफलतापूर्वक रोकने में मेरा साथ दिया। प्रिंसिपल महोदया ने भी तगड़े-से-तगड़े राजनैतिक दबाव को नकार कर मेरा हौसला बनाये रखा। इसमें कुछ मदद राष्ट्रीय शिक्षा नीति के उस दोग़ले प्रचार ने भी की जिसके असर में आकर कुछ सहकर्मियों ने समझा-समझाया कि प्राथमिक कक्षाओं की पढ़ाई अब मातृभाषा में ही होना तय हुआ है! मौक़ा मिलने पर और खीझ निकालने के लिए बीच-बीच में मैं भी अभिभावकों को भाषाई माध्यम के बारे में दिल्ली के निगम व राजकीय स्कूलों के तथ्यों व अपने प्रिय शिक्षाशास्त्रीय विचारों से अवगत करा देता था। नामों की ग़लत वर्तनी लिखवाने पर अड़े रहने और सही लिखवाकर बाद में दस्तावेज़ में दर्ज ग़लत वर्तनी लिखवाने पर आमादा होने वाले चंद केसों के अलावा अंग्रेज़ी माध्यम में प्रवेश देने का, मेरी राय में, बेबुनियाद आग्रह व नियमित दबाव ही वो ऐसा पहलू था जिसने मुझे कभी-कभी दाख़िलों की ज़िम्मेदारी से पलायन करने पर सोचने को मजबूर किया। भाषा के इस ज्वलंत मुद्दे पर ईमानदारी से व खुलकर बात करने की ज़रूरत है। इस विषय पर शिक्षा व राजनैतिक सत्ता, दोनों के मामले में न्यायसंगत निष्कर्ष निकाले बिना भारत में आज सार्वजनिक शिक्षा की लड़ाई को आगे बढ़ाना मुश्किल होगा।

5. काम और कमाई 
प्रवेश पत्र में एक ख़ाना माता व पिता के (अलग-अलग) व्यवसाय के नाम का है। रोचक यह है कि प्रवेश रजिस्टर में एक ही ख़ाना है जिसमें अमूमन माँ के काम को नज़रंदाज़ करके पिता के काम की ही जानकारी भर दी जाती है। यह याद रखना चाहिए कि दाख़िले के लिए अधिकतर परिवार की महिलाएँ ही आती थीं/हैं। बहुत-दफ़ा महिलाएँ स्वयं अपने काम की सच्चाई को नकारते हुए कह देती थीं कि वो 'कुछ नहीं करतीं'। तब भी जब वो घर पर ही पीस-रेट का कोई काम करती हों। हालाँकि, घर के बाहर काम करके कमाने वाली महिलाओं में नकार का भाव नहीं था। कमाई को बताते हुए लोग अक़सर हमसे 'अपनी समझदारी से कुछ' लिखने को कहते थे, मगर मैं थोड़ा ग़ुस्से में उन्हें ख़ुद घोषणा करने को बाध्य करता था। दो-चार बार ऐसा भी हुआ कि एक रक़म बताने के बाद अभिभावक ने उसमें संशोधन करने का अनुरोध किया। उन्हें लगता था कि इसमें लिखी आमदनी के अनुसार उनकी बेटी को किसी जायज़ लाभ से वंचित कर दिया जायेगा। ऐसे में हम यह समझाते थे कि अव्वल तो किसी की कमाई, ख़ासतौर से असंगठित क्षेत्र में, कभी भी बदल सकती है और दूजे, प्रवेशपत्र में घोषित रक़म को किसी योजना हेतु मिलान या सबूत के लिए नहीं जाँचा जाता है। हालाँकि, एक-दो केस में, अति आग्रह के बाद, मुझे उसमें उनके कहे अनुसार सुधार करना भी पड़ा। 
इस बार दो चीज़ें अभूतपूर्व थीं। एक तो, चंद लोगों ने अपनी मासिक कमाई 20-30 हज़ार तक या इससे ऊपर भी बताई, जबकि हमारे स्कूल में प्रवेश दिलाने वाले परिवारजन अमूमन अपनी घोषित मासिक कमाई 10-12 हज़ार के नीचे ही बताते हैं। 12-15 हज़ार तक की मासिक कमाई बताने वालों की संख्या अच्छी ख़ासी थी। शायद ये वो लोग थे जो अपनी बच्चियों को निजी स्कूलों से निकालकर आगे (छठी कक्षा में) दिल्ली सरकार में प्रवेश की नीयत से हमारे स्कूल में दाख़िल करवा रहे थे। धर्म और भाषा की तरह, कुछ शिक्षक इस जानकारी को भी पूछकर नहीं, बल्कि अपने अंदाज़े से ही भर लेते हैं। ऐसा करते हुए मासिक कमाई को 5-8 हज़ार ही रखा जाता है। दूसरी तरफ़, कई लोगों ने बताया कि पिता के बिना पल रही बच्ची की माँ अपने मातृ परिवार पर निर्भर है और 10-20 लोगों ने नौकरी छूट जाने व बेरोज़गार होने की बात भी कही। इनमें से कुछ ये बात एक झिझक के साथ बताते थे (जैसे कि काम बंद हो जाना या नौकरी छूट जाना उनकी व्यक्तिगत ग़लती हो) और कुछ सहज रूप से। कई बार काम लिखवाने के बाद, कमाई पूछने पर पता चलता था कि उन्होंने पहले का काम लिखवाया है और अब बेरोज़गार हैं। ज़ाहिर है कि वो अपने वजूद को काम से जोड़कर देखते थे और काम की पहचान के बिना उनके लिए अस्तित्व की गरिमा महसूस करना मुश्किल था। ऐसे में मैंने प्रवेश पत्र में कमाई के ख़ाने को रिक्त छोड़कर उसमें व रजिस्टर, दोनों में ही काम के नाम पर 'बेरोज़गार' लिखा। पिता/अभिभावक के काम के बदले बेरोज़गार लिखने का यह पहला अनुभव नहीं था, मगर इतनी बड़ी संख्या में इससे पहले ये नहीं लिखा गया था। अगर इन्हें भरने में ईमानदारी बरती गई होगी तो इस वर्ष के आर्थिक संकट के बारे में इस सत्र के स्कूलों के रिकॉर्ड भी गवाही देंगे।     

अंत में 
स्कूल वो जगह होनी चाहिए जहाँ हम विद्यार्थियों के साथ इसकी पड़ताल कर सकें कि सामाजिक-राजनैतिक-आर्थिक ताक़तें कैसे इंसानी पहचानों का निरंतर निर्माण करती हैं। वहीं, ये वो स्थल भी होने चाहिए जहाँ भेदभाव, घृणा, शोषण और हिंसा का निशाना बनाए जा रहे वर्गों-पहचानों को संघर्ष-प्रतिरोध करने हेतु विश्वास व उत्साह से भरने का काम भी होता हो।    

* दाख़िलों के इस काम को बेहतर ढंग से अंजाम देने व सीखने में मदद करने के लिए मैं अपने सहकर्मियों, कमल और दिनेश का विशेष रूप से शुक्रग़ुज़ार हूँ जिनके दोस्ताना साथ व लोगों के प्रति सह्रदयी व्यवहार ने मेरे उत्साह को बनाये रखने में अमूल्य योगदान दिया।