Wednesday, 24 February 2021

हड़ताल

फ़िरोज़ 

प्राथमिक शिक्षक

(यह आलेख नगर निगम के कर्मचारियों की संयुक्त हड़ताल के दौरान एक अध्ययन के तौर पर, अपनी समझ बनाने और साथियों के बीच प्रतिरोध की सामूहिक कार्रवाइयों के बारे में चर्चा बढ़ाने के उद्देश्य से तैयार किया गया था। )  

विरोध के एक तरीक़े (काम बंद करने) के रूप में हड़ताल शब्द दक्षिण एशिया के कई देशों (श्री लंका, पाकिस्तान, बांग्लादेश, नेपाल आदि) में इस्तेमाल होता है। इसका कारण इन देशों में चले साम्राज्यवाद व पूँजीवाद विरोधी आंदोलनों का साझा इतिहास है। गुजराती भाषा का यह शब्द संभवतः मोहनदास गाँधी/गाँधीजी द्वारा आज़ादी के आंदोलन की कार्रवाइयों में इस्तेमाल में लाने से चलन में आया। हड़ताल, यानी दुकान को ताला लगा देना। अंग्रेज़ी के स्ट्राइक शब्द के इतिहास की जड़ें भी मुक्ति की अभिव्यक्ति में स्थित हैं। एक व्याख्या के अनुसार, 1768 में लंदन में जब क्रांतिकारी पत्रकार व राजनीतिज्ञ जॉन विल्क्स को राजशाही की आलोचना के इल्ज़ाम में सज़ा के तौर पर क़ैद कर लिया गया और प्रदर्शनकारियों के ऊपर गोली चलाई गई तो नाविकों ने पाल हटाकर ('strike') जहाज़ों को जाने से रोका तथा निरंकुश राजशाही के ख़िलाफ़ अपना विरोध दर्ज किया व राजनैतिक आज़ादी के समर्थन में अपनी आवाज़ मिलाई थी। 


अक़सर हड़तालें किसी विशिष्ट इकाई/क्षेत्र तक सीमित रहती हैं मगर जब इनमें कई उत्पादन/कार्य क्षेत्रों के मज़दूर-कर्मी शामिल होते हैं तो ये आम हड़ताल (जनरल स्ट्राइक) की शक्ल अख़्तियार करती हैं। आम हड़ताल ने पहली बार मज़दूरों को अपनी संख्या व ताक़त का अहसास कराकर उनकी चेतना तथा हौसले को जागृत किया। 

हड़तालें मज़दूर-कर्मचारियों की विशिष्ट माँगों - जैसे, वेतन,



भत्ता, पेंशन, पक्की नौकरियाँ, कार्यस्थल पर हालात/सुविधाओं आदि - के लिए की जाती रही हैं। एक दिन के काम में 8 घंटे की सीमा और बाल-मज़दूरी पर क़ानूनी रोक इन्हीं संघर्षों का नतीजा हैं। कुछ हड़तालें व्यापक आर्थिक नीतियों के सवालों पर आयोजित की जाती हैं - जैसे, महँगाई, निजीकरण, बेरोज़गारी, ग़लत क़ानूनों आदि के ख़िलाफ़। कभी-कभी आम हड़तालों का सिलसिला व्यापक सामाजिक क्रांति या सत्ता परिवर्तन की राह भी दिखाता है, जैसे - 1942 का भारत छोड़ो आंदोलन, 1968 का फ़्राँसीसी छात्र आंदोलन, 1980-82 में पोलैंड का सॉलिडेरिटी मज़दूर आंदोलन और 2018-19 में जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर मुख्यतः यूरोप में फ़्राइडेज़ फ़ॉर फ़्यूचर के नाम से शुरु हुई छात्र हड़तालें। कुल मिलाकर, हड़तालें मज़दूरों, कामगारों, कर्मचारियों व आम नागरिकों की कार्य-परिस्थितियों, अधिकारों तथा ज़िंदगियों को सम्मानजनक व न्यायपरक बनाने के काम में लाई जाती रही हैं।  


इतिहास में हड़ताल का पहला लिखित उल्लेख आज से 3500 साल पूर्व मिस्री सभ्यता के रामसेज़ द्वितीय के काल का मिलता है जब शाही क़ब्रगाहों में काम करने वाले कारीगरों ने कम भुगतान किए जाने के विरोध में काम बंद कर दिया था। मिस्री शासकों को उनका मेहनताना बढ़ाना पड़ा था। (1500 से 2500 साल पूर्व के) यहूदी ग्रंथ तालमुद में भी सिनेगॉग (यहूदी प्रार्थनास्थल) में वेदी के लिए ब्रेड बनाने वाले बेकर्स के हड़ताल पर जाने का ज़िक्र है। 2000 साल पूर्व के रोमन साम्राज्य में, जिसमें राजनैतिक सत्ता कुलीन वर्गों तक सीमित थी, आम, मज़दूर जनता कर्ज़ के अत्याचार के विरोध में, अमीरों को उनके हाल पर छोड़कर, सामूहिक रूप से शहर से चले जाने की कार्रवाई करती थी जिसे सेसेशन (secession - अलगाव/पृथकता) कहा जाता था। इन सामूहिक कार्रवाइयों को आम हड़ताल का आरंभ माना जा सकता है। यानी, वर्ग-विभाजित समाज में मज़दूरों ने यह सच बहुत-पहले ही जान लिया था कि अगर हुक्मरानों के हाथ में क़ानून, न्यायपालिका, पुलिस, फ़ौज, शिक्षा, संस्कृति और धर्म का जाल है तो उनके पास इसे काटने, इससे निकलने का एक ही रास्ता है -  हुक्मरानों के लिए श्रम करने से इंकार कर देना।  


हड़तालें औद्योगिक क्रांति के दौरान (लगभग 200 वर्ष पूर्व) आम हुईं जब पूँजीवादी उत्पादन में बड़े स्तर पर मज़दूरी कराई जाने लगी। आधुनिक युग की पहली आम हड़ताल 1842 में इंग्लैंड में हुई जब न्यायोचित वेतन व बेहतर कार्य-परिस्थितियों की माँग के लिए कारख़ानों, मिलों व खदानों के मज़दूरों ने काम ठप्प कर दिया। कई देशों में हड़तालों को ग़ैर-क़ानूनी घोषित किया गया क्योंकि कारख़ानों के मालिकों के पास मज़दूरों से कहीं ज़्यादा राजनैतिक ताक़त/सत्ता थी। बढ़ते जनदबाव व लोकतांत्रिकरण के तहत अधिकतर पश्चिमी देशों में लगभग 150 साल पहले हड़तालों को आंशिक रूप से वैध कर दिया गया। आर्थिक, सामाजिक व सांस्कृतिक अधिकारों का अंतर्राष्ट्रीय प्रसंविदा (1967) अपने बिंदु 8 में हड़ताल के हक़ को सुरक्षित करता है।  


अमरीका जैसे देशों में यूनियनों की सदस्यता में कमी आने के साथ-साथ हड़तालें भी घटी हैं। 1937 में अमरीका में 4740 हड़तालें हुईं मगर 1970, 1980, व 2010 में यह संख्या क्रमशः 381, 187 व केवल 11 रह गई। यूनियनों की घटती ताक़त के अलावा, इसके कारणों में राजनैतिक सत्ता व क़ानूनों का पूँजीपतियों की तरफ़ झुकते जाना (जैसे, काम के अनुबंध में हड़ताल न करने या यूनियन न बनाने की ज़ोर-ज़बरदस्ती वाली शर्तें थोपना), कंपनियों द्वारा जवाबी तालाबंदी और इकाइयों को किसी अन्य जगह ले जाकर स्थापित करने की धमकी या फ़ैसला भी शामिल है। 


सामान्यतः हड़तालें संगठनों द्वारा सामूहिक दबाव के अंतिम औज़ार के रूप में आयोजित की जाती हैं। कभी-कभी अचानक हुई किसी घटना/बात के विरोध में भी यूनियन के निर्देश के बिना या असंगठित क्षेत्र के कर्मी फ़ौरन हड़ताल पर जा सकते हैं। इन्हें वाइल्डकैट (wildcat) हड़ताल कहते हैं। कुछ देशों में इस तरह की कार्रवाइयों पर आंशिक या पूर्ण रोक है, हालाँकि इससे ये रुकती नहीं हैं - क्योंकि जिन अन्यायपूर्ण परिस्थितियों के चलते मज़दूर हड़ताल पर जाते हैं, वो जस-की-तस बनी रहती हैं। पिकेटिंग (picketing) में मज़दूरों को अपने कार्यस्थल के बाहर खड़े होकर दूसरों को अपनी जगह पर काम करने को हतोत्साहित करना पड़ता है। सिट-डाउन (sit-down) में कार्यस्थल पर कब्ज़ा जमा लिया जाता है। वहीं, वर्क-इन (work-in) में कार्यस्थल पर कब्ज़ा जमाने के साथ-साथ न केवल काम जारी रखना होता है, बल्कि प्रबंधन अपने हाथ में लेकर पूँजीवादी प्रबंधन की अकुशलता व निकृष्टता साबित की जाती है। वर्क-टू-रूल (work to rule) में, जिसे इतालवी हड़ताल के नाम से भी जाना जाता है, नियमों व क़ानूनों का इस तरह से पालन किया जाता है कि काम अपने-आप रुक जाये या बहुत धीमा हो जाये। सिक-आउट (sick-out) को तब अपनाया जाता है जब हड़ताल पर क़ानूनन पाबंदी होने पर मज़दूर-कर्मी सामूहिक रूप से बीमारी की छुट्टी पर चले जाते हैं। सहानुभूति हड़ताल (sympathy strike) में एक समूह हड़ताल पर गए दूसरे समूह के साथ एकजुटता प्रकट करने के लिए हड़ताल पर जाता है। (शिक्षक एकता का सच्चा परिचय देने के लिए एक प्रशासन के शिक्षक दूसरे प्रशासन के अधीन काम करने वाले शिक्षकों की आवाज़ में आवाज़ मिलाकर हड़तालें आयोजित कर सकते हैं। औद्योगिक क्षेत्रों के मज़दूर संगठन अपने भ्रातृत्व व साझे अस्तित्व का सबूत अक़सर ऐसी सहयोगी कार्रवाइयों से देते हैं, जिन्हें शासक हमारे बीच फिर 'श्रमिक अशांति' के नाम से बदनाम करते हैं!) संगठन को पहचान/मंज़ूरी दिलाने के लिए भी हड़ताल का इस्तेमाल हो सकता है। अधिकारक्षेत्र हड़ताल (jurisdictional strike) में मज़दूर-कर्मी अपने अधिकार क्षेत्र के काम को किसी अन्य वर्ग को सौंपे जाने के विरोध में हड़ताल कर सकते हैं। इसमें कर्मियों के अस्तित्व के अलावा पेशे की गरिमा व आमजन के अधिकारों की चिंता भी शामिल होती है। (जैसे, सरकारों द्वारा शिक्षण का काम नियमित, योग्यप्राप्त शिक्षकों के बदले एनजीओ के अप्रशिक्षित लोगों को देकर शिक्षकों व विद्यार्थियों, दोनों के हितों से खिलवाड़ करना।) इसके अतिरिक्त, छात्र-हड़तालें व भूख-हड़तालें अक़सर व्यापक राजनैतिक मुद्दों की तरफ़ जनता का ध्यान खींचने तथा सरकारों पर दबाव बनाने के लिए भी की जाती रही हैं। राजनैतिक बंदियों के अधिकारों के लिए जेलों में चलाई गई शहीद खुदीराम बोस और भगत सिंह व उनके साथियों की भूख हड़तालें साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ चली आज़ादी की लड़ाई का अभिन्न हिस्सा थीं। हड़तालें सिर्फ़ कर्मियों के अपने आर्थिक अधिकारों के लिए ही नहीं की जाती हैं। 2018 में संयुक्त राज्य अमरीका के कई राज्यों के शिक्षकों ने कम वेतन के अलावा, शिक्षा पर सरकार के कम ख़र्च व शिक्षा के कुप्रबंधन को भी हड़ताल का मुद्दा बनाया था।       


कई देशों में मज़दूर आंदोलनों को कमज़ोर व हड़तालों को हतोत्साहित करने के लिए श्रम क़ानूनों में श्रमिक-विरोधी बदलाव लाये गए और लाये जा रहे हैं। इनमें हड़ताल के लिए नोटिस - और वो भी बहुत-पहले - देने की शर्त रखना शामिल है। इससे प्रशासन को दबाव बनाने का भरपूर मौक़ा मिलता है, नोटिसों को संगठनों के तेज़तर्रार सदस्यों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की फ़ाइलें बनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है, प्रशासन को हड़ताल के असर को नाकाम करने के लिए वैकल्पिक बंदोबस्त करने का वक़्त मिलता है तथा हड़ताल तेज़ी से नहीं फैल पाती क्योंकि हर नई जगह पर नोटिस की शर्त लागू होती है। केंद्र सरकार द्वारा लाये गए तीन नए श्रमिक क़ानूनों में से एक औद्योगिक संबंध संहिता अधिनियम (2020) मान्यता-प्राप्त यूनियन, लंबे नोटिस व टालू सुलह प्रक्रियाओं की शर्तें थोपकर न सिर्फ़ हड़ताल पर जाने की प्रक्रिया को बेहद जटिल बनाता है, बल्कि उसमें लगाए गए तमाम तरह के अड़ंगों के उल्लंघन पर कामगारों पर जुर्माने के साथ क़ैद तक की सज़ा का प्रावधान रखता है। साथ ही, ये अधिनियम मज़दूरों को अनुबंध पर रखने, उन्हें आसानी से नौकरी से निकालने और किसी विवाद को लंबी, महँगी व हौसला तोड़ने वाली अदालती/मध्यस्थता कार्रवाइयों में उलझाने के प्रावधान देकर कंपनियों के मालिकों व प्रशासकों के हाथ और भी मज़बूत करता है। इस क़ानून को यूनियन बनाने व हड़ताल पर जाने के अधिकार पर कुठाराघात के रूप में देखा जा रहा है। प्रशासन व प्रबंधन द्वारा हड़ताल तोड़ने के लिए नरम व गरम दोनों तरह के हथकंडे आज़माये जाते हैं। इनमें दूसरों को काम पर रखने, चिन्हित करके अथवा सामूहिक रूप से नौकरी से निकालने, तालाबंदी घोषित करने से लेकर झूठे मुक़दमे दायर करने, जेल में डाल देने तथा मारपीट-हिंसक हमलों के लिए गुंडों व पुलिस का इस्तेमाल करने तक सब तरीक़े शामिल हो सकते हैं। ऐसे में मज़दूरों-कर्मचारियों के सामने अविश्वास व संदेह के सवाल भी खड़े होते हैं - हारेंगे तो नहीं? नौकरी तो नहीं छूटेगी? कितने दिन खींच पायेंगे? क्या सभी साथी एकजुट रहेंगे? आदि। इन सबके बावजूद, फ़्राँस के यातायात क्षेत्रों के संगठनों ने हाल में एक बार फिर यह दिखा दिया है कि जब मज़दूर एकजुट होकर कोई फ़ैसला कर लेते हैं तो कठोर क़ानून भी धरे-के-धरे रह जाते हैं। 

किसी भी जनांदोलन की तरह हड़तालें भी हमें पढ़ने-लिखने और रचनात्मक कार्रवाइयों के लिए प्रेरित करती हैं। चाहे वो क़ानूनों व नीतियों की तह में जाकर उनका विश्लेषण करना हो या विरोध दर्ज करने के नायाब तरीक़े ईजाद करना, हड़ताल को सही अंजाम तक पहुँचाने के लिए गंभीरता और धैर्य के साथ कलात्मक ऊर्जा की भी ज़रूरत होती है। हम अपने नारों को जोशीला बनाने के साथ-साथ विचारोत्तेजक भी बनाने की कोशिश करते हैं। हड़तालों में जितनी ज़रूरत विरोध-प्रदर्शन के विभिन्न कार्यक्रम आयोजित करने की तैयारी, संसाधनों व मेहनत की होती है, उतनी ही हमारे गीतों व पोस्टरों की होती है। हमारा उद्देश्य केवल अंदरूनी उत्साह बनाये रखना नहीं, बल्कि जनता से व्यापक संपर्क बनाकर समर्थन पाने की स्थिति क़ायम करना भी होना चाहिए। विशिष्ट क्षेत्रों के कर्मियों की हड़ताल के सामने जनता से ही नहीं, बल्कि अन्य क्षेत्रों के कर्मियों तक से अलग-थलग पड़ जाने का ख़तरा तो रहता ही है। उदाहरण के तौर पर, निगम कर्मचारियों की संयुक्त हड़ताल के बावजूद हम न सिर्फ़ वेतन के स्तर पर, बल्कि नियमित-अनियमित कर्मचारी होने के स्तर पर और सामाजिक-आर्थिक ताक़त के स्तर पर भी हड़ताल को खींच सकने की एक-सी स्थिति में नहीं हैं। ऐसे में हमारे संगठनों द्वारा नियमित रूप से इकट्ठा किया गया चंदा हड़ताल में अधिक आर्थिक संकट झेल रहे साथियों को आपातकालिक सहयोग पहुँचाने के काम तो आ ही सकता है, इससे हड़ताल को कमज़ोर पड़ने से भी बचाया जा सकता है। सार्वजनिक क्षेत्र के कर्मियों के नाते अपनी जायज़ माँगों के लिए हड़ताल करने के सिलसिले में हमारे सामने दोहरी-तिहरी चुनौती होती है। मुनाफ़ाख़ोरी-निजीकरण का रास्ता तैयार करने की दृष्टि से पिछले कुछ दशकों से सार्वजनिक क्षेत्रों के ख़िलाफ़ लगातार जो दुष्प्रचार किया गया है - और जिसमें, जाने-अनजाने, हमने भी कुछ साथ दिया है - वो हमें जनता का समर्थन दिलाने में तो क्या मीडिया का ध्यान खींचने तक में रोड़े अटकाता है। दूसरी तरफ़, हम किसी कारख़ाने में उत्पादन करने वाले मज़दूरों की स्थिति में भी नहीं हैं, जिनकी हड़ताल फ़ैक्ट्री मालिकों के हितों पर सीधे चोट करती है। सार्वजनिक स्कूलों के शिक्षक होने के नाते हम ख़ुद को एक दुविधा की स्थिति में पाते हैं क्योंकि हमारी हड़ताल से जितना परोक्ष नुक़सान प्रशासकों/राजनैतिक सत्ताधारियों का होता है, उतना ही प्रत्यक्ष नुक़सान हमारे अपने विद्यार्थियों व (उनके अभिभावकों के रूप में) उसी जनता का होता है जिसे हमें अपने समर्थन में साथ लेना चाहिए। अगर किसानों को मज़दूरों से, मज़दूरों को कर्मचारियों से और कर्मचारियों को (कच्चे-पक्के में बाँटकर) एक दूसरे तथा आम जनता से काटकर रखना शासकों के हित में है, तो यह साफ़ है कि इन दूरियों को पाटकर मेहनतकशों की एकजुटता क़ायम करना हमारे हित में है। जनता और शासकों के बीच के अंतर को साफ़ करके ही हम हड़ताल की उन रचनात्मक कार्रवाइयों को निर्मित कर पाएँगे जो हमारी लड़ाई को भी ताक़त देंगी, हमें जन-समर्थन भी दिलायेंगी तथा शासकों की सत्ता को भी कमज़ोर करेंगी।  

Saturday, 13 February 2021

कार्यक्रम की एक संक्षिप्त रपट: 'शिक्षक होना क्या है?'

31 जनवरी 2021 को दोपहर 3 बजे से शाम 5 बजे के बीच लोक शिक्षक मंच द्वारा 'शिक्षक होना क्या है?' विषय पर एक ऑनलाइन चर्चा आयोजित की गई थी। प्रस्तुत है उस कार्यक्रम की एक संक्षिप्त रपट। 

इस चर्चा को लोक शिक्षक मंच द्वारा एक श्रृंखला के आग़ाज़ के रूप में आयोजित किया गया था। हमारी योजना है कि हर महीने के अंतिम रविवार को सार्वजनिक कार्यक्रम के रूप में किसी एक विषय पर चर्चा आयोजित की जाये। हालाँकि, इन कार्यक्रमों का स्वरूप ऑनलाइन हो या ऑफ़लाइन, इस पर अभी अंतिम निर्णय नहीं लिया गया है।

इस बार के विषय को 'शिक्षकों की भूमिका' के मौलिक प्रश्न के रूप में चिन्हित किया गया था। इसमें 10 वक्ताओं ने बात रखने की सहमति जताई थी, जिनमें प्राथमिक स्तर की 3, टीजीटी स्तर की 2, पीजीटी की 3 व  विश्वविद्यालयी स्तर की 2 शिक्षक-शिक्षिकाएँ थीं। वक्ताओं के बाद श्री बीरेन्द्र (शिक्षा संकाय, दिल्ली विश्वविद्यालय) का समापन वक्तव्य था तथा आख़री सत्र सवाल-जवाब का था। 10 वक्ताओं में से 3 विभिन्न कारणों से अंतिम समय में वक्ता के रूप में शामिल नहीं हो पाए। वक्ताओं के क्रम को उनकी कक्षाओं के अनुसार रखा गया था ताकि श्रोताओं को तार जोड़ने में आसानी हो। प्रत्येक वक्ता को अपनी बात रखने के लिए लगभग 7 मिनट का समय दिया गया था। कार्यक्रम में, वक्ताओं सहित, लगभग 27-28 साथी शामिल हुए। इनमें निगम, दिल्ली प्रशासन, निजी स्कूल व विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले शिक्षक-शिक्षिकाएँ  व शिक्षा से सरोकार रखने वाले साथी शामिल थे। 

सुश्री वंदना (निगम प्राथमिक शिक्षिका)
उन्होंने वर्तमान परिस्थितियों को संदर्भ बनाते हुए राजनैतिक हस्तक्षेप को शिक्षकों पर बढ़ते दबाव के मुख्य कारक के रूप में चिन्हित किया। उनके अनुसार शिक्षकों के बँधे हुए हाथ उनकी भूमिका पर सवाल खड़े करते हैं। ऐसे में आदर्श खोखले नज़र आते हैं। इसके बर-अक़्स समस्याओं से निपटने के लिए दृढ इच्छा शक्ति, छोटे-छोटे लक्ष्य निर्धारित करने व सीमित संसाधनों/विषम परिस्थितियों में समाज निर्माण के काम को आगे बढ़ाने की सकारात्मक रणनीति अपनाने की वकालत की। 

सुश्री रजनी (प्राथमिक शिक्षिका, दिल्ली प्रशासन) 
उन्होंने स्कूलों की आंतरिक राजनीति के संदर्भ में शिक्षकों की पहचान को सामाजिक, आर्थिक व शैक्षिक संदर्भों में बँटा हुआ पाया। इन्हीं विभाजनों को स्कूल के अंदर व बाहर की सत्ता अपना वर्चस्व क़ायम रखने के लिए इस्तेमाल करती है। प्रशासनिक आदेशों के दबाव में शिक्षकों के पास फ़ुरसत में बैठकर बात करने तक का समय नहीं है। ऑनलाइन उपस्थिति के दबाव पर सवाल खड़ा करते हुए उन्होंने इस माध्यम की अकादमिक संभावना पर प्रति-प्रश्न किया। ऐसे में जब पढ़ाने के मायने ही कुछ नहीं रह जाते हैं, शिक्षकों के सामने सही-ग़लत को सही-ग़लत कहना भी चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है।     । 

श्री राम स्वरूप (पीजीटी, राजनीति शास्त्र, दिल्ली प्रशासन)
उन्होंने शिक्षकों के बीच में उभर चुके तीखे राजनैतिक मतभेद को रेखांकित करते हुए कक्षाई स्तर-आधारित विभाजनों पर भी उँगली उठाई। प्रशासनिक आदेशों को लागू करने, अफ़सरशाही की लाल-फ़ीताशाही व समय-सीमा की घुटन में शिक्षक कक्षाई कक्ष तक सीमित होकर रह गए हैं। दूसरी तरफ़, विद्यार्थियों को मिलने वाले वज़ीफ़ों की प्रक्रिया व शर्तों को लगातार जटिल बनाया जा रहा है जिससे वो बड़ी संख्या में वंचित हो रहे हैं। शिक्षक होने के नाते हमारी पहचान विद्यार्थियों से है। मगर उनके लिए समय ही नहीं मिल रहा है, बल्कि सारा ज़ोर परीक्षा-केंद्रित शिक्षण व साप्ताहिक टेस्टों पर है। जबकि शिक्षक का एक अहम काम समाज को जागरूक करना भी होता है, इसकी संभावना न्यून होती जा रही है। इन परिस्थितियों में शिक्षण में मज़ा नहीं आ रहा है।   

सुश्री रंजना (पीजीटी, समाजशास्त्र, दिल्ली प्रशासन)
उन्होंने कहा कि शिक्षा संस्थान अपने शिक्षक गढ़ते हैं और शिक्षकों को विद्यार्थी के रूप में देखने की भी ज़रूरत है। संस्थाएँ पूर्व रूप से विकसित होने के नाते कक्षाओं में तयशुदा शिक्षण पद्धति थोपती हैं जिससे कि ऊपर से आ रहे रूढ़िबद्ध विचार कक्षा में स्थापित होते हैं। इसके विपरीत शिक्षक का काम है बच्चों को ऐसे अवसर उपलब्ध कराना जहाँ वो अपने मन के डर को निकाल सकें। इस सिलसिले में उन्हें विभिन्न परिप्रेक्ष्य बिंदु साझा करने चाहिए और अपना निर्णय थोपने से बचना चाहिए। कोरोना की स्कूल बंदी में शिक्षक तकनीकी पर निर्भर हुए मगर शिक्षण के संवाद के बदले इसने एकतरफ़ा भाषण का रूप लिया। निगम के उस अनुभव के तहत जिसमें शिक्षक अपनी कक्षा को पाँच साल तक पढ़ाते हैं और एक जुड़ाव की स्थिति में पहुँचते हैं, उन्होंने शिक्षक को परिभाषित करने के उद्देश्य से अपनी पुरानी छात्रा की एक चिट्ठी पढ़कर सुनाई जिसमें शिक्षिका द्वारा औपचारिक ज़िम्मेदारी से परे जाकर संपर्क बनाये रखने व शिक्षण-मार्गदर्शन करने के उदाहरण दर्ज थे। 

सुश्री शालू (पीजीटी, गृह विज्ञान, दिल्ली प्रशासन)
उन्होंने सूचना व बुद्धिमानी/विवेक के अंतर को दर्शाते हुए इस बात की ओर ध्यानाकर्षित किया कि छोटी कक्षाओं के विद्यार्थियों के सवालों, उत्सुकताओं के बनिस्बत अक़सर उच्च कक्षाओं के विद्यार्थियों में महज़ कॉपी में उतारने की आदत दिखती है। बच्चों की स्वाभाविक स्वतंत्रता को शिक्षा व्यवस्था द्वारा दबा देने के इस संदर्भ में उन्होंने मश्हूर विज्ञान लेखक कार्ल सगान को भी उद्धृत किया। 'लॉकडाउन' के काल में स्कूल में अपनी विशिष्ट ज़िम्मेदारी के संदर्भ में उन्होंने जाना कि शिक्षा के सवाल से बहुत पहले विद्यार्थी राशन व रोज़गार जैसे मूलभूत प्रश्नों से जूझ रहे हैं। अनुभव ने उन्हें धीरे-धीरे इस निष्कर्ष तक पहुँचाया कि उन्हें ऊपर से आने वाले दबाव-तनाव को ख़ुद जज़्ब करना है तथा अपनी छात्राओं तक पहुँचने नहीं देना है। स्टाफ़ के बीच मौजूद ध्रुवीकरण के माहौल से उन्हें बहु-सांस्कृतिक माहौल और विविध विचारों के सहिष्णु अस्तित्व की ज़रूरत व अहमियत महसूस होती है। ऐसे में उनकी कोशिश रहती है कि छात्राएँ सब चीज़ों पर सवाल खड़ा करें और जवाबों की स्वतंत्र खोजबीन करें। ऐसे विद्यार्थियों को देखकर उन्हें बेहद ख़ुशी मिलती है जिनका मतारोपण नहीं हुआ होता है और जो स्वतंत्र सोच रखते हैं। यही अनुभव शिक्षक को जिलाये रखता है। अंत में उन्होंने अपने विद्यार्थी जीवन का एक प्रेरक प्रसंग भी साझा किया।   

श्री राघवेंद्र (महर्षि कॉलेज ऑफ़ एजुकेशन, दिल्ली विश्वविद्यालय)
एक समय तक, तमाम चुनौतियों के बावजूद, कक्षा वो जगह थी जहाँ शिक्षक एक स्तर की आज़ादी महसूस करते थे। लेकिन अब, विद्यार्थियों के बीच चर्चा को दूर तक ले जाने वाली आज़ादी सिमटती जा रही है। एक समय था जब किसी विचारोत्तेजक मुद्दे पर खुली बहस कराने पर विद्यार्थियों द्वारा शिक्षक को पक्षपाती नहीं माना जाता था। आज व्यापक राजनैतिक संस्कृति व आपके हर कथन को क़ैद करके तमाशा बना देने वाली तकनीकी के विशिष्ट इस्तेमाल के संदर्भ में अलोकतांत्रिकता का साया कक्षाओं में पसर रहा है, जिसके चलते कक्षाओं तक में एक संशय और डर का माहौल बन रहा है। कुछ विद्यार्थियों की तरफ़ से भी 'कोर्स' पर टिके रहने और 'बाहर' के विषयों पर चर्चा नहीं कराने के आग्रह आते हैं। शिक्षा को लेकर यह संकीर्ण मानसिकता नवउदारवाद की देन भी है तथा उसे पोषित भी करती है। शिक्षक के काम को प्रदर्शन-आधारित, वो भी मापे जा सकने वाले, मानकों की नज़र से देखा जा रहा है। किसी वस्तु के उत्पादन में इनपुट-आउटपुट मॉडल की तरह। ज़ाहिर है कि इसमें स्वायत्त शिक्षक की गुंजाइश ख़त्म होती जा रही है। जवाब में हमें प्रतिरोध के स्वरों के फलक को इस तरह फैलाना होगा कि वो केवल नायकों व बहादुरों तक सिकुड़ कर न रह जाए, बल्कि उसमें ज़रा कम साहसी साथी भी शामिल हों, उनका स्वर भी मिले।   

सुश्री मानसी (शिक्षा विभाग, अंबेडकर विश्वविद्यालय)
पाउलो फ़्रेरे की पुस्तक 'पेडागॉजी ऑफ़ द ऑपरेस्ड' से उनकी 'पेडागॉजी ऑफ़ होप' के बीच के तार को वो असीम अशिष्टता के ख़िलाफ़ जीवन व पर्यावरण की गरिमा के संघर्ष की प्रेरणा के रूप में देखती हैं। इस संदर्भ में जेएनयू जैसे उच्च शिक्षा संस्थान विचारों का एक संरक्षित स्थल उपलब्ध कराते थे मगर अब उस आज़ादी के छीने जाने का अहसास प्रबल होता जा रहा है। ऑनलाइन एवं रेकॉर्डेड कक्षाओं ने ख़ुद पर पाबंदी लगाने के चलन को तेज़ कर दिया है। अगर आज फ़र्क़ नहीं पड़ रहा है तो कल और चुनौतियाँ होंगी, अंजाम भुगतना पड़ेगा। इन सबसे ग़ुज़रते हुए पाउलो फ़्रेरे का सफ़र फिर दोहराया जायेगा। 

श्री बीरेंदर (शिक्षा संकाय, दिल्ली विश्वविद्यालय)
अपने समापन वक्तव्य में उन्होंने यह बात मानी कि वक्ताओं के बयानों को किसी एक सूत्र में पिरोना संभव नहीं था। उनके अनुसार चर्चा के विषय के संदर्भ में शिक्षक संगठनों व उनके संघर्षों के इतिहास को खंगालने की ज़रूरत है, जोकि शिक्षक तैयार करने वाले संस्थानों के पाठ्यक्रम से भी ग़ायब है। इसके अतिरिक्त, साहित्य ने भी शिक्षक की छवि निर्माण में भूमिका निभाई है। वहीं, हमें यह समझने की भी ज़रूरत है कि आख़िर प्रशासन शिक्षक को किस तरह देखता है। इन दो मिश्रित क़िस्म के कारकों के अलावा, शिक्षक के कर्म का केंद्रीय तत्व, उनके द्वारा पढ़ाये जाने वाले विषयों का अनुशासन भी उनकी ताक़त बन सकता है। उनके अनुसार, कुल मिलाकर, सांस्कृतिक परिस्थितियाँ, प्रशासन व विषयगत अनुशासन 'शिक्षक' होने के मायने को प्रभावित करते हैं।   

समापन वक्तव्य के उपरांत अन्य मौजूद साथियों ने संक्षेप में अपनी बात रखी। इसमें राज्य द्वारा शिक्षकों के कंधों पर बंदूक़ रखकर चलाने, स्कूली संस्कृति को दिशा देने में प्रधानाचार्यों की अहम भूमिका, विद्यार्थियों के प्रति ईमानदारी बरतने को लेकर शिक्षकों को ख़ुद से भी सवाल करने की ज़रूरत, साथ आने व सामूहिक ताक़त गढ़ने जैसे बिंदुओं पर विचार व्यक्त हुए। कार्यक्रम अगली चर्चा के संभावित विषयों के सुझाव आमंत्रित करने और धन्यवाद प्रस्ताव के साथ सम्पन्न हुआ।  

Monday, 8 February 2021

पत्र: स्कूलों में शिक्षकों पर बढ़ते गैर-अकादमिक कार्यभार तथा कार्य संस्कृति में बढ़ते शिक्षा-विरोधी बदलावों के संदर्भ में

 प्रति,

      शिक्षा मंत्री
      दिल्ली सरकार 

विषय: स्कूलों में शिक्षकों पर बढ़ते गैर-अकादमिक कार्यभार तथा कार्य संस्कृति में बढ़ते शिक्षा-विरोधी बदलावों के संदर्भ में 

महोदय,

लोक शिक्षक मंच दिल्ली सरकार के स्कूलों में शिक्षण प्रक्रिया पर मंडराते संकट पर आपका ध्यान आकर्षित करना चाहता है। हम शिक्षक लगातार यह महसूस कर रहे हैं कि हम स्कूलों में पढ़ा नहीं पा रहे हैं, बल्कि क्लर्क के काम कर रहे हैं। हम अपना अधिकतम समय शांत दिमाग़ से पूर्व योजना अनुसार बच्चों को पढ़ाने में नहीं लगा पा रहे हैं, बल्कि अति उत्साही नौकरशाही की गैर-शैक्षणिक ज़रूरतों को पूरा करने में खप रहे हैं। 

बे-सिर-पैर के कभी न रुकने वाले सर्कुलर्स का बोल-बाला है जो लगातार स्कूलों से कोई न कोई डाटा माँगते रहते हैं। बार-बार, तरह-तरह की जानकारी माँगने वाले मेल/गूगल फॉर्म/whatsapp संदेश घोड़े पर सवार आते हैं जिन पर लिखा होता है 'for immediate compliance/तत्काल अनुपालन के लिए'। इन सबका नतीजा यह होता है कि शिक्षकों को कभी क्लास छोड़कर और कभी विद्यार्थियों को दिया व्यक्तिगत समय छोड़कर भागना पड़ता है। हमारे पास कक्षा में पढ़ाने तक का समय नहीं बच रहा, बच्चों से व्यक्तिगत अंतःक्रिया करना, उनके लिए अतिरिक्त पठन-पाठन सामग्री बनाना, उनका लेखन जाँचना आदि तो दूर की बात है। स्कूलों में निरंतर संकट और आपदा का माहौल बना रहता है और इस आपा-धापी में कुर्बान होती है बच्चों की पढ़ाई और शिक्षकों का मनोबल।  

इस अराजकता की एक वजह पेशेवर कार्यक्षेत्र को व्हाट्सऐप के हवाले करना भी है। ऊपर से नीचे तक पूरी व्यवस्था एक गैर-पेशेवर ऐप्लीकेशन के हवाले कर दी गई है। संदेशों का देर रात तक आना, लिखित आदेशों के बजाय निरंतर चलने वाले टूटे-बिखरे व्हाट्सऐप संदेशों पर निर्भर होते जाना, 'अभी-के-अभी' जानकारी माँगना, ये हमारी प्रशासन व्यवस्था की कुशलता के नहीं, अकुशलता के सबूत हैं। नित नए संदेश जो नित नए प्रोग्रामों की घोषणा करते हैं, डाटा की माँग करते हैं, आदेशों को जारी करते हैं; हमारी मानसिक स्थिरता और निरंतरता से सोच पाने की क्षमता को ख़त्म कर रहे हैं। जो कौशल शिक्षकों में ही नहीं बचेगा, उसे हम बच्चों को क्या सिखा पाएँगे?

यहाँ यह कहना भी ज़रूरी होगा कि स्कूलों में शैक्षिक और गैर-शैक्षिक कार्यों के बीच का फ़र्क़ धुँधला होता जा रहा है। उदाहरण के लिए, सर्व शिक्षा अभियान (SSA) के तहत एक सत्र में 10-15 गतिविधियों में बच्चों से विभिन्न पोस्टर्स/वीडियोज़ आदि बनवाने के जो निर्देश आते हैं, उनमें गहन चिंतन और अकादमिक वार्ता की कोई गुंजाइश नहीं होती। साल-भर में कक्षा अध्यापिकाओं और विद्यार्थियों को रोबोट की तरह ऐसे बीसियों संदेश फॉरवर्ड किए जाते हैं और इसके बाद शुरु होता है इन्हें येन-केन-प्रकारेण लागू करवाने का दबाव - चाहे इसके लिए बच्चों से झूठ बोलना पड़े, उन्हें डराना-धमकाना पड़े या उन्हें इंटरनेट से नक़ल करने के हवाले करना हो। पहले यह दिखावे और ज़ोर-ज़बरदस्ती का चक्र हमारे कार्य दिवस का एक छोटा हिस्सा था लेकिन अब यह हमारे कार्यदिवस का सबसे बड़ा हिस्सा बन गया है। जनवरी 2019 में प्रकाशित दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग (DCPCR) की सर्वेक्षण रिपोर्ट (Report on Time Allocation and Work Perception) में भी यही समस्या निकल कर आयी थी कि 93% शिक्षकों ने कागज़ी काम के बोझ की समस्या चिन्हित की और जताया कि वे अपना आधा समय भी पढ़ाने में नहीं लगा पाते। हम जानना चाहेंगे कि इस रिपोर्ट के नतीजों पर क्या क़दम उठाये गए।  

कक्षा के अंदर की अकादमिक स्वायत्तता भी अत्याधिक केंद्रीकरण की सूली चढ़ रही है। शिक्षा को टुकड़ों में बाँटकर उसके उद्देश्यों को ही पलट दिया जा रहा है। सिद्धांतों का पठन-पाठन स्थिरता और समय माँगता है जो कि स्कूलों में नहीं बचा, इसलिए कामचलाऊ-सीमित उद्देश्यों वाले प्रोग्रामों को परिणाम चमकाने के नाम पर परोसा जा रहा है। निजी व ग़ैर-सरकारी संस्थाओं के दिमाग़ से निकले ये मिशन व प्रोग्राम विस्तृत व गंभीर शिक्षण पर हमला हैं लेकिन इनके क्रियान्वयन के निरीक्षण पर पूरा ज़ोर रहता है। (नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति में प्रस्तावित स्कूली पाठ्यचर्या की संकल्पना भी इसी तर्ज पर है।) 

अधिकतर, निरीक्षण के नाम पर शिक्षकों को सर झुकाकर खड़े रहने पर मजबूर किया जाता है और खरी-खोटी सुनाई जाती है। इस ढंग से बात की जाती है जैसे कि वे अपराधी हों। क्या निरीक्षकों के लिए कोई नियमावली नहीं होती कि उन्हें शिक्षकों से कैसे बात करनी चाहिए, कम-से-कम कितनी देर कक्षा का अवलोकन करना चाहिए, लोकतान्त्रिक ढंग से कैसे समस्याओं को सम्बोधित करना चाहिए आदि?

हमें सिर्फ़ एक चीज़ के निरीक्षण की ज़रूरत है और वो है कि 'क्या शिक्षक कक्षा में बिना किसी बाधा के पाठ्यक्रम पढ़ा पा रहे हैं?' लेकिन हम देखते हैं कि स्कूलों में निरीक्षण प्रक्रिया ख़ुद शिक्षण प्रक्रिया में बाधा उत्पन्न करती है और औपनिवेशिक संस्कृति को स्थापित व पुष्ट करती है। यही संस्कृति फिर नीचे विद्यार्थियों तक भी पहुँचती है। न हम अपने पढ़ाने के समय से समझौता करना चाहते हैं और न ही गहन पाठ्यचर्या से। आज हमें दोनों से ही समझौता करने पर मजबूर किया जा रहा है।

हम जानना चाहते हैं कि सार्वजनिक विद्यालय व्यवस्था के केंद्र में पढ़ना-पढ़ाना होना चाहिए या गैर-शैक्षणिक योजनाएँ लागू करवाना और भ्रामक सरकारी प्रचार व महिमामंडन बच्चों तक पहुँचाना। 

जो व्यवस्था एक निरंतर आपातकाल में बनी रहती है उसमें अकादमिक गहराई, मानसिक ठहराव और आंतरिक प्रेरणा जैसे मूल्यों से सिंचित शिक्षा पद्धति की जगह ख़त्म होती जा रही है। किसी भी स्वतन्त्र विचार और अर्थवान कार्यवाही के लिए सम्भावना नहीं बची है।

हमारी माँगें - 

1. विद्यालय व्यवस्था ऐसी बनाई जाए कि शिक्षकों का समय कक्षा में पाठयचर्या पढ़ाने, विद्यार्थियों को गुणवत्तापूर्ण फीडबैक देने, उनके सर्वांगीण विकास में सहायक व्यक्तिगत स्तर पर अंतःक्रिया करने आदि अकादमिक कामों में लगे नाकि गैर-अकादमिक कामों में।
2. विभाग स्कूलों से गैर-अकादमिक कामों के लिए पूर्णकालिक लिपिकों की नियुक्तियाँ करे। साथ ही शिक्षकों-आया-लैब असिस्टेंट-पुस्तकालयाध्यक्ष, सभी तरह के सभी खाली पदों पर पक्की नियुक्तियाँ करे।
3. शिक्षकों के साथ खुले दिमाग़ से चर्चा की जाए कि उन्हें अपनी अकादमिक ज़िम्मेदारियाँ निभाने में क्या समस्याएँ आ रही हैं।
4. Whatsapp जैसी गैर-पेशेवार ऐप्लीकेशन को विद्यालय की कार्य संस्कृति पर न थोपा जाए, बल्कि सोचने-समझने के लिए ज़रूरी ठहराव प्रदान करने वाली कार्य पद्धति को अपनाया जाए।
5. प्रशासन के काम करने की औपनिवेशिक संस्कृति पर लगाम लगाई जाए। आखिर प्रशासन का काम विद्यार्थियों और विद्यालयों की ज़रूरतों को पूरा करना होना चाहिए, नाकि विद्यालयों का काम प्रशासन की ज़रूरतों को पूरा करने में ख़ुद को झोंकना होना चाहिए।
5. विभाग के प्रशासनिक तंत्र में व स्कूलों के अंदर लोकतान्त्रिक कार्य संस्कृति को प्रोत्साहित किया जाए। 
 
हम उम्मीद करते हैं कि आप इन गंभीर मुद्दों के संदर्भ में सरकारी स्कूल शिक्षा पर मँडरा रहे जानलेवा संकट का हल निकालने हेतु सुविचारित क़दम उठाएँगे। 
                                      
                                   सधन्यवाद