शिक्षा में साम्राज्यवाद के एनजीओवादी हमलों, चालों व बहुरूपों के सामयिक संदर्भ में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के शहादत दिवस पर हमारे लिए सोचने-विचारने (और करने) के लिए एक गंभीर चुनौती है। सबसे पहले तो हमें यह सवाल पूछने की ज़रूरत है कि क्या पूँजीवादी-वर्णवादी पाले में खड़े होकर इन शहीदों को श्रद्धाँजलि दी जा सकती है। असल में इन क्रांतिकारियों के राजनैतिक विचारों व उसूलों से अवगत हुए बिना इन्हें याद करना महज़ श्रद्धाँजलि का कर्मकांड निभाना या ख़तरनाक महिमामंडन करना है।
प्रेरक मूल्य
भगत सिंह और अन्य क्राँतिकारियों के तौर-तरीकों का उद्देश्य खून बहाना या निर्दोषों की जान लेना नहीं था। उन्हें अंग्रेज़ों से कोई नस्लवादी नफ़रत या दुश्मनी नहीं थी। इसे न सिर्फ असेंबली में फेंके गए बमों के संदर्भ से साबित किया जाता है (जिसमें किसी को निशाना नहीं बनाया गया था, न ही भागने की कोशिश की गई थी) बल्कि यह बात खुद भगत सिंह के बयानों और लेखों की मार्फत भी स्पष्ट हो जाती है। फिर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि क्राँतिकारियों के लिए अहिंसा कोई नैतिकतावादी प्रश्न नहीं था। साथ ही, वो उस हद तक और उस कारण ही क्राँतिकारी थे जिस हद तक और जिस कारण वो मानवतावादी थे। भगत सिंह जैसे क्राँतिकारियों का प्रेरक मूल्य इंसानियत था। रबिन्द्रनाथ ठाकुर से कई मायनों में विपरीत समझ रखते हुए भी इन दोनों में एक समानता यह थी कि दोनों ही राष्ट्रभक्ति के वीभत्स व संकुचित रूपों से सावधान थे। भगत सिंह की राजनीति सुंदर समाज व देश ही नहीं, बल्कि समानता व इन्साफ पर आधारित सुंदर संसार के निर्माण की थी। उन्हें देश की सीमाओं में बाँधकर, पहलवानी देशभक्ति का प्रतीक बनाकर सीमित कर देना उनके साथ धोखा है। असल में देशभक्ति से बेहतर भावना देशप्रेम की है। भक्ति से न सिर्फ कर्मकांड की बू आती है बल्कि यह उस तार्किकता व आलोचनात्मक, प्रश्नवाचक वैचारिकता के भी विपरीत जाती है जिसे भगत सिंह क्राँतिकारियों का अनिवार्य लक्षण मानते थे। दूसरी तरफ प्रेम एक नैसर्गिक अनुभूति है और एक से प्यार हमें अन्यों से प्यार करने से नहीं रोकता। भक्ति ईर्ष्यालु और संकुचित है, क्राँतिकारी प्रेम उदार और संपूर्ण मानवता तक विस्तारित।
राजनैतिक संघर्ष और दमन
सांडर्स की हत्या के कुछ ही महीनों बाद असेंबली में बम फेंकने के निर्णय के पीछे का प्रमुख उद्देश्य ब्रिटिश साम्राज्यवादी हुकूमत द्वारा लाए गए दो जनविरोधी विधेयकों का प्रतिरोध करना था। भारत व दुनियाभर में साम्यवादी संगठनों की बढ़ती ताक़त से घबराकर सरकार पब्लिक सेफ़्टी बिल लाई थी जिसके तहत किसी संदिग्ध व्यक्ति को मुक़दमे के बिना हिरासत में रखा जा सकता था। दूसरी तरफ़, ट्रेड यूनियनों के बढ़ते प्रभाव व उनकी कार्रवाइयों पर रोक लगाने के मक़सद से ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल लाया गया था जिसमें हड़ताल पर पाबंदियों के प्रावधान थे और विवाद के निपटारे के लिए न्यायालयों की जगह ट्रिब्यूनल की पेशकश की गई थी। जब ख़ुद को लोकतंत्र की माँ कहलवाने वाली सत्ता ने नागरिक अधिकारों को छीनने वाले इन विधेयकों के ख़िलाफ़ जनता के विरोध पर कोई तवज्जो नहीं दी, बल्कि मज़दूर आंदोलन के नेतृत्व की धरपकड़ तेज़ कर दी, तो इस निरंकुश सत्ता के कान खोलने व उसे बेनक़ाब करने के लिए क्रांतिकारियों द्वारा इस बम कांड को अंजाम देने का फ़ैसला किया गया। अंततः ट्रेड डिस्प्यूट्स बिल तो पारित हो गया, मगर पब्लिक सेफ़्टी बिल को इस लोकतंत्र के शानदार सुराख़ यानी अध्यादेश के ज़रिए लागू किया गया। भगत सिंह के मुक़दमे से लेकर उनकी फाँसी और अंतिम संस्कार तक में बरती गई सत्ता की डर भरी क्रूरता को भी बखूबी याद रखने की ज़रूरत है। एक बार फिर अध्यादेश लाकर प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को ताक़ पर रखते हुए ट्रिब्यूनल का गठन करके उनपर मुक़दमा चलाया गया। इस ट्रिब्यूनल का मक़सद त्वरित कार्रवाई था और इसके निर्णय के ख़िलाफ़ किसी अदालत में सुनवाई की गुंजाइश नहीं थी। क्रांतिकारियों द्वारा जेल के अंदर भी राजनैतिक संघर्ष जारी रखा गया। जिस लंबी सामूहिक भूख हड़ताल में यतींद्रनाथ दास ने अपना जीवन क़ुर्बान किया, उसकी प्रमुख माँग इन क़ैदियों को राजनैतिक बंदी के रूप में मान्यता दिलाना थी। इसके तहत भोजन के बेहतर स्तर, सम्मानहीन काम कराने पर रोक, सरकारी ख़र्चे से अख़बारों की व्यवस्था, अपनी पसंद की पुस्तकें पढ़ने व लिखने की सामग्री की उपलब्धता, सभी राजनैतिक क़ैदियों को एक साथ रखना आदि माँगें शामिल थीं। तय तारीख से एक दिन पहले ही उन्हें फाँसी दे दी गई थी, वो भी सुबह की जगह शाम के वक़्त। उनके घरवालों को अंतिम मुलाक़ात का मौक़ा नहीं दिया गया और फिर रातों-रात जेल की पिछली दीवार तोड़कर उनके शवों को - कहते हैं कि टुकड़े-टुकड़े करके - चुपके से जलाकर हुसैनीवाला में सतलुज में फेंक दिया गया। चाहे वो अध्यादेशों के रूप में मनमर्ज़ी चलाना हो या नागरिक अधिकारों को कमज़ोर करने व मज़दूरों को संगठित होने से रोकने वाले क़ानून वैधानिक तौर-तरीकों से पारित करना; अदालतों की जगह बढ़ते क्रम में ट्रिब्यूनलों का गठन करना हो या बिना आरोप सिद्ध किए राजनैतिक क़ैदियों को जेल में डालकर उनके न्यूनतम हक़ भी छीन लेना, ब्रिटिश साम्राज्यवादी हुकूमत का वो कौन-सा हथकंडा है जिसे आज हम फलता-फूलता नहीं देख रहे हैं?
शिक्षाप्रेम
यह बात विशेष महत्त्व की है कि अपने अंतिम समय में वो प्रार्थना नहीं कर रहे थे बल्कि क्रांति से जुड़ी किताब (संभवतः लेनिन की जीवनी) पढ़ रहे थे। ज्ञान व समझ के प्रति ऐसी आस्था, ऐसा प्रेम-लगाव कि मरने से ठीक पहले पढ़ने की ललक हो, एक अनोखी मनोदशा का परिचायक है। यह जानकर कि अब मरना ही है और नास्तिक होने के नाते न पुनर्जन्म में यक़ीन है और न ही ईश्वर में - तो फिर स्वर्ग-नर्क का तो कहना ही क्या - अगर कोई अधूरा पन्ना, अधूरा अध्याय पूरा करने की इच्छा जताता है तो यह केवल उसकी महत्ता नहीं है बल्कि इंसान होने की संभावना की मिसाल है। मन्मथनाथ गुप्त लिखते हैं कि नैश्नल कॉलेज में जयचंद्र विद्यालंकार नाम के एक शिक्षक के प्रभाव से भगत सिंह और उनकी मित्र-मंडली का प्रवेश क्राँतिकारी दल में हो गया। वो आगे लिखते हैं, 'गुरु गुड़ ही रह गए और चेले चीनी हो गए।' वो बताते हैं कि भगत सिंह के विद्याप्रेमी होने में इन्हीं शिक्षक का ख़ासा प्रभाव था। जबकि आज यह और भी चुनौतीपूर्ण होता जा रहा है, फिर भी अगर हम अपने विद्यार्थियों को करियर महत्त्वाकांक्षा के मुक़ाबले शिक्षाप्रेम की प्रेरणा दें पाने में सफल होते हैं, तो भी समाज के प्रति अपनी सही भूमिका निभा पाएँगे।
सभी क्रांतिकारियों में भगत सिंह को शिद्दत और विशेष प्यार-सम्मान से याद करने के पीछे सिर्फ़ उनकी शहादत ही एक कारण नहीं है। एक बड़ा कारण तो यही है कि उन्होंने बिखरे हुए क्रांतिकारी गुटों को साथ लाने में और समाजवाद को क्रांतिकारियों के उद्देश्य के केंद्र में स्थापित करने में अहम भूमिका निभाई। इससे पहले क्रांतिकारियों का उद्देश्य देश की आज़ादी तो था, मगर यह स्पष्टता नहीं थी कि उस आज़ादी के मायने क्या होंगे। भगत सिंह की अहमियत इसलिए भी है कि उन्होंने ख़ूब लिखा और आला दर्जे का लिखा। यह उनके विचारों की स्पष्टता ही थी जिसके चलते असेंबली में बम फेंकने के काम के लिए अंततः उन्हें चुना गया, जबकि यह तय था कि इसका अंजाम दल को अपने प्रमुख साथी को खोकर चुकाना होगा। हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन असोसिएशन के साथी क्रांतिकारी यह जानते थे कि लोगों के बीच साम्राज्यवाद के ख़िलाफ़ और क्रांति के पक्ष में संदेश पहुँचाने के लिए भगत सिंह ही अदालत में बयान को सबसे बेहतर ढंग से इस्तेमाल कर सकते हैं। इस स्पष्टता की वजह भी यही थी कि उन्हें पढ़ने-लिखने का बेहद शौक़ था। उन्हें हमेशा किताबों के साथ देखा जाता था - इतिहास, साहित्य, क्रांतिकारियों की जीवनियाँ आदि। ज़ाहिर है कि गहन अध्ययन ने उनके विचारों को माँझने व वक्तव्यों को स्पष्ट रखने में अहम भूमिका निभाई। आज हम अध्ययन तो दूर, बिना पढ़े ही किसी से नफ़रत कर रहे हैं, तो किसी के भक्त बन रहे हैं। ये रास्ता भगत सिंह के क्रांतिकारी आदर्श का तो क्या, लोकतंत्र और शिक्षा का भी नहीं है।
शिक्षा में भगत सिंह की प्रासंगिकता: आज हमारे सामने चुनौती
पूँजीवादी-साम्राज्यवादी NGO का चरित्र ही इस शिक्षाप्रेम के विरुद्ध है। भले वो कहीं मुफ्त में बस्ते बाँटें या स्कूलों को पुस्तकालय, कम्प्यूटर भेंट में दें या शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के लिए प्रारूप तैयार करें, उनकी भूमिका उस काठ के घोड़े जैसी है जिसे दुश्मन तोहफे के रूप में छोड़ जाता है और जिसमें छुपे सैनिक अंदर से शहर का द्वार आक्रमणकारियों के लिए चुपके-से खोल देते हैं। भलाई के नाम पर कॉर्पोरेट घरानों और उनके NGOs के चलाए जा रहे कार्यक्रमों के चरित्र व उसके खतरे को कोई भी शिक्षाप्रेमी व्यक्ति, बिना अधिक बारीक राजनैतिक विश्लेषण में जाए भी, कुछ तुलनात्मक उदाहरणों से समझ सकता है। अगर किसी धारावाहिक को चेहरे की क्रीम बनाने वाली कम्पनी प्रायोजित कर रही है तो क्या उसमें बाजार, नस्ल और लिंग के रंगभेदी उपकरणों को पहचानकर उनपर सवाल उठाने और उन्हें ध्वस्त करने के संदेश देने की संभावना व्यक्त होने दी जाएगी? आखिर क्यों सरकारी कर्मचारियों पर तोहफे लेने पर कुछ विशेष रोक है? इसका औचित्य इतना गूढ़ नहीं है। आखिर क्यों यह कहा जाता है कि अगर शोध में निजी शक्तियाँ प्रायोजकों की भूमिका में हैं तो उनके परिणामों पर संदेह जायज़ है? असल में निजी पूँजी द्वारा प्रायोजित शोध, कला, शिक्षा आदि को अपनी सम्भवनाओं, गरिमा और स्वतंत्रता की कीमत चुकानी ही पड़ेगी या यूँ कहें कि उनसे वसूल ली जाएगी।
वहीं दूसरी तरफ इसी भलाईवादी काम को निजी पूँजी अपने प्रचार के साथ-साथ अपनी छवि चमकाने, जन संसाधन हथियाने और सस्ते-समर्पित कामगार तैयार करने में इस्तेमाल करती है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में तो परोपकार व नवाचार के नाम पर निजी पूँजी को सराहा ही गया है। चाहे वो TFA (टीच फॉर अमेरिका) की तर्ज पर स्कूलों में काम कर रहा TFI (टीच फॉर इंडिया) हो या 'असर' (ASER) नाम से बच्चों की अकादमिक स्थिति की सालाना रपट निकालने वाला और स्कूलों में काम कर रहा 'प्रथम' हो या महिन्द्रा कम्पनी का 'नन्हीं कली' नाम से स्कूलों में चल रहा लड़कियों की शिक्षा को निशाना बनाता कार्यक्रम या Magic Bus के नाम से बच्चों के खेलकूद को लेकर काम कर रही संस्था, ये सभी अपने मालिकाना स्वरूप के अनुरूप इतना ही उद्देश्य रखते हैं कि बच्चे उतना पढ़-लिख लें कि इनके धंधे में कम पैसों मगर पूरे एहसान तले हाथ बँटा सकें। ग़ौर से देखने पर हम इन NGOs और उन कॉर्पोरेट-पूँजीवादी सेठों-विचारकों के संस्थानों के तार मिले पाते हैं जोकि खुलकर बोलते हैं कि सरकार को स्कूल नहीं चलाने चाहिए और शिक्षा को निजी हाथों में छोड़ देना चाहिए। कुछ छद्म-कल्याणकारी भाव दिखाते हुए CCS (सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी) जैसी इनकी अगुवा संस्थाएँ यह भी कहती हैं कि सरकार को अगर फंड देना ही है तो वह उसे वाउचर के माध्यम से बच्चों को दे और फिर यह उनके अभिभावकों पर छोड़ दे कि वो किस निजी स्कूल में दाखिला लें, न कि खुद, सीधे स्कूलों पर खर्च करे। (इनका नारा है 'फंड चिल्ड्रन, नॉट स्कूल्स') ज़ाहिर है कि ऐसे में न स्कूल स्कूल रहेंगे, न शिक्षक शिक्षक, न विद्यार्थी विद्यार्थी। फिर शिक्षा की बात कौन करे? स्कूल कम्पनियों की तरह दुकान लगाएँगे, स्पर्धा करेंगे, प्रतिद्वंद्वी होंगे, शिक्षक कॉर्पोरेट अस्पतालों के डॉक्टरों की तरह रीढ़हीन होकर पेशे को व्यापारिक कुनीति के दलदल में धकेलने के आरोपी होंगे और विद्यार्थी खरीदार, ग्राहक। हमें न ऐसे दलाल शिक्षक बनना है और न ही अपने विद्यार्थियों, स्कूलों और समाज को इस घटिया, क्रूर, शोषणकारी व्यवस्था के सुपुर्द करना है। यह हम शिक्षकों की अस्मिता की लड़ाई तो है ही, बराबरी व इंसाफ़ पर टिकी सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को क़ायम करने की लड़ाई भी है।
जहाँ भगत सिंह के विचार मज़बूती से इहलौकिकता, तार्किकता और वैज्ञानिक चेतना में रचे-बसे थे, वहीं आज हम देख रहे हैं कि शिक्षा के बाहर ही नहीं बल्कि पाठ्यचर्या के अंदर ही तमाम तरह की दक़ियानूसी, मनगढ़ंत और विवेक को कुंद करने वाली सामग्री को बढ़ावा दिया जा रहा है। हमें इसका जवाब ऐसे शिक्षा-विरोधी व कूपमंडूक बनाने वाले पाठ्यक्रमों, विषयों आदि को नकार कर देना होगा। इसके लिए हमें औपचारिक कक्षाओं के इतर भी अपने अध्ययन समूह बनाने की ज़रूरत है। दूसरी तरफ़, विद्यार्थियों द्वारा इंसाफ़ के लिए अपने हक़ों की माँग करने और संगठित होकर बेहतर दुनिया के निर्माण के लिए संघर्ष करने को हतोत्साहित, तिरस्कृत व प्रतिबंधित किया जा रहा है। विद्यार्थियों को 'राजनीति से दूर रहने' के निर्देश देकर उन्हें न केवल आत्मकेंद्रित बनने की, बल्कि इंसाफ़ के सवालों और सामाजिक सरोकारों के प्रति असंवेदनशील रहने की राजनीति की ओर धकेला जा रहा है। ऐसे में हमें भगत सिंह के उस पैने जवाब से सीखने की ज़रूरत है जिसमें उन्होंने साबित किया कि 'अराजनैतिक' रहने की सलाह विद्यार्थियों की अपनी आवाज़ को दबाने तथा हुक्मरानों की राजनीति के पक्ष में इस्तेमाल की जाती है। दरअसल, बेहतर राजनैतिक चेतना से लैस पढ़ाई तो सामाजिक-संसार के आयामों के रिश्तों व विषयगत तत्वों के बीच के तारों को साफ़तौर से दिखा कर सही मायनों में अकादमिक गहराई की तरफ़ ले जाती है।
अदालत में दिए बयानों से कुछ अंश
"...हम मानव-जीवन को अत्यंत पवित्र मानते हैं और किसी अन्य व्यक्ति को चोट पहुँचाने के बजाय हम मानव-जाति की सेवा में हँसते-हँसते अपने प्राण विसर्जित कर देंगे। हम साम्राज्यवाद की सेना के भाड़े के सैनिकों जैसे नहीं हैं जिनका काम ही हत्या होता है। हम मानव-जीवन का आदर करते हैं और बराबर उसकी रक्षा का प्रयत्न करते हैं।"
"जब तक....मनुष्य द्वारा मनुष्य का तथा एक राष्ट्र द्वारा दूसरे राष्ट्र का शोषण, जिसे साम्राज्यवाद कहते हैं, समाप्त नहीं कर दिया जाता तब तक मानवता को उसके क्लेशों से छुटकारा मिलना असंभव है, और तब तक युद्धों को समाप्त कर विश्व-शांति के युग का प्रादुर्भाव करने की सारी बातें महज़ ढोंग के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हैं। क्रांति से हमारा मतलब अंततोगत्वा एक ऐसी समाज-व्यवस्था की स्थापना से है जो इस प्रकार के संकटों से बरी होगी और जिसमें सर्वहारा वर्ग का आधिपत्य सर्वमान्य होगा। और जिसके फलस्वरूप स्थापित होने वाला विश्व-संघ पीड़ित मानवता को पूंजीवाद के बंधनों से और साम्राज्यवादी युद्ध की तबाही से छुटकारा दिलाने में समर्थ हो सकेगा।"
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