Friday, 21 April 2023

'मिशन बुनियाद': आधारभूत साक्षरता व अंकगणना के मायने (भाग 1)


                                                        अप्रैल 2023
 मिशन बुनियाद तथा रीडिंग कैंपेन : परिचय                                      

दिल्ली के सरकारी स्कूलों में 2018 से मिशन बुनियाद नामक प्रोग्राम जारी है। इसका घोषित उद्देश्य है कि "DoE स्कूलों में एक भी बच्चा ऐसा बचे जो धाराप्रवाह ढंग से हिंदी पढ़ पाए और मौलिक गणना (कैलकुलेशन) कर पाए"[1] इसकी पृष्ठभूमि में वर्ष 2016 में दिल्ली सरकार के स्कूलों में नौवीं कक्षा में शुरु किया गया चुनौती कार्यक्रम था| इस कार्यक्रम को शुरु करने के पक्ष में नौवीं कक्षा केख़राबपरीक्षा परिणामों का हवाला दिया गया था[2]| चुनौती कार्यक्रम के तहत एक ही कक्षा के सहपाठियों को उनके तथाकथित शैक्षिक स्तरों के आधार परनिष्ठा’, ‘प्रतिभाविश्वाससमूहों में विभाजित कर दिया गया| लेकिन जल्द ही विभाग ने यह प्रस्तावित किया कि मूलभूत अधिगम कौशलों पर केंद्रित हस्तक्षेप प्रारंभिक कक्षाओं से ही लागू किए जाएँ| इसके पीछे  यह दलील दी गई कि कक्षा नौ में इस तरह का कार्यक्रम चलाना अधिक सार्थक नहीं है। नतीजतन, वर्ष 2018 में यह हस्तक्षेप मिशन बुनियाद के रूप में सामने आया|

'मिशन बुनियाद' के अंतर्गत कक्षा तीन से आठ के बच्चों को लेवल एक तथा लेवल दो में विभाजित किया जाता है| बच्चों को इन दो स्तरों में विभाजित करने के लिए प्रथम एनजीओ के निर्देशन में निर्मित असर टूल/‘प्रगतिपुस्तकों[3] की सहायता ली जाती है| भाषा के लिए प्रयुक्त 'प्रगति' की पुस्तक में से जो बच्चे ध्वनि, अक्षर, शब्द तथा गद्यांश पहचान कर पढ़ पाते हैं उन्हें उसी विशेष स्तर पर चिन्हित किया जाता है| जैसे- जो बच्चे केवल ध्वनि, अक्षर या शब्द पहचान पाते हैं उन्हें लेवल एक में रखा जाता है और जो बच्चे दी गई कहानी के गद्द्यांश पढ़ पाते हैं उन्हें लेवल दो में रखा जाता है| इसी प्रकार गणित में भी जो बच्चे एक से सौ तक की गिनती पहचान कर पढ़ पाते हैं उन्हें लेवल एक में और जो बच्चे घटा तथा भाग के सरल सवालों को हल कर पाते हैं उन्हें लेवल दो में रखा जाता है| मिशन बुनियाद के तहत नियमित रूप से कक्षा में बच्चों के स्तर का आंकलन किया जाता है| इसमें यह अपेक्षा निहित है कि प्रत्येक आंकलन में बच्चों का स्तर पहले की तुलना में बढ़ा हुआ आएगा|

मिशन बुनियाद के तहत कक्षा 3-8 के विद्यार्थियों की पढ़ाई में कई बदलाव किए गए। पाठ्यचर्या, किताबें, शिक्षा के उद्देश्य, कक्षा में शिक्षक की भूमिका, पढ़ाने का तरीका, मूल्यांकन करने का तरीका जैसे तमाम आयामों को बदलने के लिए आपातकालिक निर्णायक आदेश जारी किए गए[4] उदाहरण के लिए:

i. उनके टेस्ट लेकर उन्हें अलग-अलग समूहों में बाँटा गया।

ii. उन्हें NCERT की बजाय अलग किताबें ('प्रगति' किताबें) पढ़ाई जाने लगीं।

iii. शिक्षकों को इन किताबों को पढ़ाने के लिए प्रत्येक दिन का टाइमटेबल और निश्चित गतिविधियाँ दी गईं।

iv. बच्चों के साक्षरता 'लेवल' के नियमित परीक्षण हुए।

इसी तरह, केंद्र सरकार ने भी जनवरी 2022 से राष्ट्रीय स्तर पर सरकारी विद्यालयों में रीडिंग कैंपेन शुरु किया। इन दोनों कार्यक्रमों के केंद्र में Foundational Literacy and Numeracy (FLN) की अवधारणा है। राष्ट्रीय शिक्षा नीति (राशिनी) 2020 के तहत प्रारंभिक स्तर के लिए जारी राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा (NCF-FS, 2022) FLN को इस प्रकार परिभाषित करती है: यह एक बच्चे की सरल (बेसिक) प्रकार की लिखित अथवा पाठ्यसामग्री को पढ़ने तथा गणित के जोड़-घटा के साधारण सवालों को हल करने की योग्यता है| (ग्लौस्री ऑफ़ टर्म्स, पृष्ठ 340) यह दस्तावेज़ 3 से 8 साल (प्रीस्कूल से लेकर कक्षा 2) तक की अवस्था को प्रारंभिक स्तर के रूप में चिन्हित करता है| FLN को मज़बूती से स्थापित करने के लिए शिक्षा के उद्देश्यों से लेकर पाठ्यचर्या के लक्ष्यों, कोर्स, विषयवस्तु, शिक्षणशास्त्रीय तरीकों, क्षमताओं के विकास आदि तत्वों को पूरी तरह से अधिगम परिणामों (लर्निंग आउटकम्स) के साथ जोड़ा जा रहा है| (देखें NCF-FS भाग 2.2)  

राष्ट्रीय शिक्षा नीति (राशिनी) 2020 'मूलभूत साक्षरता' को महत्त्वपूर्ण मानते हुए कहती है:

"शिक्षा प्रणाली की सर्वोच्च प्राथमिकता 2025 तक प्राथमिक विद्यालय में सार्वभौमिक मूलभूत साक्षरता और संख्या-ज्ञान प्राप्त करना होगा..सभी प्राथमिक और उच्चतर प्राथमिक विद्यालयों में सार्वभौमिक मूलभूत साक्षरता और संख्या-ज्ञान के लिए राज्य या केंद्रशासित प्रदेश की सरकारें, 2025 तक प्राप्त किए जा सकने वाले चरण-वार कार्यों और लक्ष्यों की पहचान करते हए और उसकी प्रगति की बारीकी से जांच और निगरानी करते हए अविलम्ब एक क्रियान्वयन योजना तैयार करेंगी।" (राष्ट्रीय शिक्षा नीति, बिंदु 2.2, पेज 11-12)

 

स्वीकारोक्ति नोट: हालाँकि, मिशन बुनियाद राशिनी में वर्णित FLN की अवधारणा इसके तहत पाठ्यचर्या में लागू किया जा रहे कार्यक्रम, सभी भाषा के साथ गणित को केंद्र में रखते हैं, मगर इस रपट में हम मुख्यतः भाषा के विषय को संबोधित कर रहे हैं। हमारा मानना है कि मिशन बुनियाद FLN के तहत एक विषय के रूप में गणित पर इसके सीखने-सिखाने की प्रक्रियाओं पर पड़ने वाले प्रभावों का अध्ययन विश्लेषण बेहद ज़रूरी है। लेकिन हम यहाँ यह ज़िम्मेदारी उठाने की स्थिति में नहीं हैं। हमें विश्वास है कि इस दिशा में अन्य साथी बेहतर काम कर पाएँगे।


 

मिशन बुनियाद सर्वे रिपोर्ट                                                    

मिशन बुनियाद जैसे 'मूलभूत साक्षरता और अंकगणना' सिखाने वाले प्रोग्राम के विषय में शिक्षकों के अनुभवों को समझने और दर्ज करने के लिए मई 2022 से अगस्त 2022 के बीच लोक शिक्षक मंच ने दिल्ली सरकार दिल्ली नगर निगम में पढ़ा रहे शिक्षकों के बीच एक सर्वे किया। यह सर्वे ऑफलाइन ऑनलाइन दोनों माध्यमों से किया गया।

इस सर्वे में कुल 12 प्रश्न थे, हालाँकि अंतिम दो प्रश्न मिशन बुनियाद के बारे में नहीं, बल्कि शिक्षकों द्वारा सर्वे के संभावित अगले चरण से जुड़ने तथा रपट प्राप्त करने की रुचि को लेकर थे। प्रथम चरण में सर्वे प्रश्नावली के प्रारूप को 3-4 शिक्षकों से साझा करके प्रश्नों की भाषा दिए गये विकल्पों के बारे उनकी राय लेकर सर्वे प्रश्नावली को अंतिम रूप दिया गया| सर्वे के लिए गूगल फॉर्म तैयार करके मेल एवं व्हाट्सऐप द्वारा दिल्ली के सार्वजनिक स्कूलों में पढ़ाने वाले परिचित शिक्षक साथियों को भेजा गया| ज़ाहिर है कि यह एक सुविधाजनक चयन था| मंच के एक शिक्षक साथी ने, जोकि व्हाट्सऐप इस्तेमाल नहीं करते हैं, अपने आसपास के कुछ शिक्षकों को काग़ज़ पर सर्वेक्षण फॉर्म उपलब्ध कराए| जहाँ तक फॉर्म भरने का सवाल है, हम इस सर्वे को निगम के 3-4 तथा दिल्ली सरकार के 4-5 स्कूलों के शिक्षकों तक ही पहुँचा पाए| हमारा मानना है कि सैंपल की संख्या सीमित रहने के पीछे एक कारण वो राजनैतिक-प्रशासनिक माहौल भी है जिसमें शिक्षक औपचारिक पटल पर अपनी बात दर्ज करने में पहले की तुलना में ज़्यादा दबावजनित संकोच महूसस करने लगे हैं| सर्वे में हिस्सा लेने वाले कुल 50 शिक्षकों में से 26 ने ऑनलाइन सर्वे फॉर्म भरा और 24 ने ऑफलाइन सर्वे फॉर्म भरा। हालाँकि हम इस संख्या के आधार पर प्राप्त रुझानों परिणामों को सामान्यीकृत करने का दावा नहीं कर सकते हैं, फिर भी हम इन्हें संकेतक के रूप में विश्लेषण के लिए उपयोगी मानते हैं|

 

प्रश्न 1 के जवाब में कुल 69% शिक्षकों ने कहा कि उन्होंने कभी कभी मिशन बुनियाद कक्षा को पढ़ाया है। हालांकि सर्वे में हिस्सा लेने वाले 31% शिक्षकों ने स्वयं मिशन बुनियाद कक्षा को नहीं पढ़ाया था किन्तु इस सर्वे का उद्देश्य FLN कार्यक्रमों को लेकर शिक्षकों की सैद्धांतिक समझ जानना भी था।

 

प्रश्न 2 'जितने बच्चों को आप मिशन बुनियाद में पढ़ाते हैं उनमें से लगभग ऐसे कितने % बच्चे हैं जिन्हें मूलभूत हिंदी पढ़ना और अंकगणित करना आता है (जो मिशन बुनियाद के लेवल 2 या उससे ऊपर हैं)?' के जवाब में लगभग 40% शिक्षकों ने कहा कि उनकी कक्षा में 80% से ज़्यादा बच्चों को मूलभूत हिंदी पढ़ना और अंकगणित करना आता है, यानी ये मिशन बुनियाद के लेवल 2 पर या उससे ऊपर हैं। अन्य 40% शिक्षकों ने कहा कि उनकी कक्षा में 50 % से ज़्यादा (लेकिन 80% से कम) बच्चों को मौलिक हिंदी पढ़ना-लिखना आता है। लगभग 12% शिक्षकों ने कहा कि उनकी कक्षा में 30% से कम बच्चों को मूलभूत हिंदी और अंकगणित आता है।

 

प्रश्न 3 में शिक्षकों से पूछा गया था कि वे मिशन बुनियाद का शिक्षा पर क्या प्रभाव देखते हैं। इसके जवाब में ~48% शिक्षकों ने जिस विकल्प को चुना वह था कि पिछले 4 सालों में मिशन बुनियाद से शिक्षा का स्तर बढ़ा है। ~35% शिक्षकों का कहना था कि मिशन बुनियाद से पिछले 4 सालों में उन बच्चों का स्तर बढ़ा है जिन्हें मूलभूत पढ़ना नहीं आता था लेकिन बाकी बच्चों का स्तर घटा है, जबकि लगभग 15% शिक्षकों ने कहा कि पिछले 4 सालों में मिशन बुनियाद से शिक्षा का स्तर घटा है। केवल 1 शिक्षक ने कहा कि कोई अंतर नहीं पड़ा है।

 

प्रश्न 4 'मिशन बुनियाद में इस्तेमाल होने वाली हिंदी की किताबों को लेकर आप इनमें से किस बात से सहमत हैं?' के जवाब में लगभग 44% शिक्षकों ने जिस विकल्प को चुना वह था कि वे अपनी कक्षा के उन बच्चों के लिए मिशन बुनियाद की किताबों का इस्तेमाल करना चाहेंगे जो साक्षर नहीं हैं और बाकी बच्चों के लिए एनसीईआरटी की किताबों का इस्तेमाल करना चाहेंगे। एक तरफ 30% शिक्षकों का कहना था कि वो अपनी कक्षा के सभीलेवलके बच्चों को हिंदी सिखाने के लिए मिशन बुनियाद की कहानियों का इस्तेमाल करना चाहेंगे क्योंकि बच्चों के लिए ये कहानियाँ पढ़ना-समझना आसान है जबकि एनसीआरटी की कहानियाँ मुश्किल हैं। दूसरी तरफ, 25% शिक्षकों ने कहा कि वो कक्षा के सभीलेवलके बच्चों को हिंदी सिखाने के लिए एनसीईआरटी की किताबों की कहानियों का इस्तेमाल करना चाहेंगे क्योंकि इनसे बच्चों की कल्पनाशीलता और शब्दावली बढ़ती है तथा समझ गहरी होती है।

 

प्रश्न 5 'मिशन बुनियाद में पढ़ाए जा रहे विषयों तथा नहीं पढ़ाए जा रहे विषयों को लेकर आप किस बात से सहमत हैं?' के जवाब में 55% शिक्षकों ने कहा किलेवल’ 1 के बच्चों को हिंदी पढ़ना-लिखना और अंकगणना सिखाना चाहिए पर बाकी बच्चों को अन्य विषय भी पढ़ाए जाने चाहिए। 24% शिक्षकों ने कहा कि सभीलेवलके बच्चों को पहले केवल हिंदी पढ़ना-लिखना और अंकगणना सिखाना सही है क्योंकि जब तक बच्चे हिंदी ठीक से नहीं पढ़ सकते तब तक अन्य विषय भी नहीं सीख सकते। वहीं 20% शिक्षकों ने कहा कि सभीलेवलके बच्चों को उनकी कक्षा के सभी विषय पढ़ाए जाने चाहिए।

 

प्रश्न 6 में उन शिक्षकों से कारण पूछा गया था जिनके अनुसार सभीलेवलके बच्चों को उनकी कक्षा के सभी विषय पढ़ाए जाने चाहिए। ऐसे लगभग 46% शिक्षकों का तर्क था कि सभी विषय पढ़ाए जाना बच्चों के सर्वांगीण विकास (holistic development) के लिए ज़रूरी है। ~23% शिक्षकों ने कहा कि ऐसा इसलिए ज़रूरी है क्योंकि जो बच्चे हिंदी पढ़/लिख नहीं सकते, वे भी विज्ञान एवं समाज के सिद्धांत समझ सकते हैं और इतनों ने ही कहा कि साक्षरता सिखाने के लिए भी अलग-अलग विषयों की बढ़िया विषय-वस्तु ज़रूरी है। 16% शिक्षकों ने कहा कि सभी विषय पढ़ना बच्चे का अधिकार है।

 

प्रश्न 7 मिशन बुनियाद में किए जाने वाले साप्ताहिक मूल्यांकन के अनुभव से सम्बन्धित था। 28% शिक्षकों ने जिस विकल्प को चुना वह था कि वो साप्ताहिक मूल्यांकन की प्रक्रिया से असंतुष्ट हैं क्योंकि उनके अनुसार एक सप्ताह किसी एक अवधारणा को सीखने और उसका आंकलन करने के लिए बहुत कम समय है। उनके अनुसार, सीखना तो एक लगातार चलने वाली प्रक्रिया है जो सघन अनुभव और समय की मांग करती है। 18% शिक्षकों ने अपनी असंतुष्टि का कारण यह बताया कि साप्ताहिक मूल्यांकन की प्रक्रिया से समय बर्बाद होता है तथा शिक्षक वैसे भी अपने विद्यार्थियों का निरंतर मूल्यांकन कर रहे होते हैं और इसके लिए हर शनिवार पूरी प्रक्रिया दोहराने की आवश्यकता नहीं है। वहीं 24% शिक्षकों ने कहा कि वे साप्ताहिक मूल्यांकन की प्रक्रिया से संतुष्ट हैं क्योंकि एक सप्ताह पर बच्चे की प्रगति जाँचने से उसके सीखने की गति का पता चल जाता है। 14% शिक्षकों के अनुसार बच्चे एक हफ़्ते में अधिगम के एक स्तर से दूसरे स्तर तक जा सकते हैं इसलिए यह सही है। जहाँ 16% शिक्षकों ने कहा कि वो विभाग द्वारा दी गई मूल्यांकन शीट से असंतुष्ट हैं क्योंकि यह शीट सीखने के सभी आयामों (मसलन, मदद, प्रोत्साहन जैसे गुणात्मक पहलुओं) को समाहित नहीं करती, वहीं 16% को यह शीट सही लगी।

 

प्रश्न 8 में मिशन बुनियाद में बच्चों को अलग-अलग समूहों में बिठाकर पढ़ाने के बारे में शिक्षकों का मत पूछा गया था। इसके जवाब में लगभग 71% शिक्षकों ने यह विकल्प चुना कि अलग-अलग स्तर के बच्चों को अलग-अलग कक्षाओं में बिठाकर पढ़ाया जाना सही है, जबकि लगभग 29% शिक्षकों के अनुसार मिशन बुनियाद में बच्चों को अलग-अलग समूहों में बिठाकर पढ़ाना सही नहीं है क्योंकि सभी विद्यार्थियों को मिश्रित समूहों में बिठाकर पढ़ाया जाना चाहिए।

 

प्रश्न 9 मिशन बुनियाद में पढ़ाने के तरीके में आए बदलावों से सम्बन्धित था। जवाब में कुल 54% शिक्षकों ने पढ़ाने के तरीकों में आए बदलावों को लेकर चिंता जताई; उन्होंने कहा कि वो अपने कौशल का पूरा इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं क्योंकि उनकी अपने ढंग से पढ़ाने की आज़ादी घटी है, वो सही शिक्षा नहीं दे पा रहे हैं क्योंकि हिंदी का मतलब केवल साक्षरता और गणित का मतलब केवल अंकगणित सिखाना नहीं है, शिक्षक अपने विषय ज्ञान से दूर होते जा रहे हैं तथा शिक्षण के समय की बर्बादी बढ़ी है। वहीं ~46% शिक्षकों ने कहा कि वो पहले से बेहतर पढ़ा रहे हैं क्योंकि गतिविधियों की मदद से पढ़ाने के कारण बच्चों में उत्साह बढ़ा है, शिक्षकों को नए तरीकों में ट्रेन किया जा रहा है और शिक्षक हर बच्चे पर ध्यान दे पा रहे हैं।

 

प्रश्न 10 में यह जानने का प्रयास किया गया था कि शिक्षक मूलभूत साक्षरता और गणना योजनाओं को बनाने और चलाने में एनजीओ की भूमिका से किस हद तक परिचित हैं। प्रश्न था कि "राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में कहा गया है कि बच्चों कोमूलभूत साक्षरता और संख्या-ज्ञानसिखाना सबसे ज़रूरी है इसलिए यह देश कामिशनहोगा। इसी के चलते केंद्र सरकार नेनिपुण भारतप्रोग्राम शुरु किया है। दिल्ली में मिशन बुनियाद, मध्य प्रदेश में मिशन अंकुर, बिहार में मिशन आधार, गुजरात में प्रिय बालक जैसे प्रोग्राम भी इसी तर्ज पर चल रहे हैं। क्या आप इन योजनाओं को बनाने और चलाने में इन एनजीओ की भूमिका से परिचित हैं? – Central Square Foundation, Pratham, Room to Read, Language and Learning Foundation".

इस प्रश्न के जवाब में 75% शिक्षकों ने कहा कि वे एनजीओ की भूमिका से परिचित नहीं है, 25% शिक्षकों ने कहा वे एनजीओ की भूमिका से थोड़ा/बहुत परिचित हैं।

 

मिशन बुनियाद तथा संबंधित FLN कार्यक्रमों के बारे में हमारा मत 

1. विषयवस्तु को हल्का करके, ऐसे प्रोग्राम बच्चों के सीखने को सीमित करते हैं। अच्छी विषयवस्तु बच्चों को सीखने की वजह तथा प्रेरणा देती है

सर्वे में हिस्सा लेने वाले अधिकतम शिक्षकों (~69%) ने भी केवल मिशन बुनियाद की किताबों से विद्यार्थियों को पढ़ाने का समर्थन नहीं किया। इन्होंने कहा कि या तो वे सभी स्तर के बच्चों को या फिर लेवल 1 से ऊपर के बच्चों को हिंदी सिखाने के लिए एनसीईआरटी की किताबों का इस्तेमाल करना चाहेंगे। हालाँकि, बहुत संभव है कि कल को FLN के उद्देश्यों के अनुसार तैयार की जाने वाली एनसीईआरटी की पाठ्यपुस्तकों की विषयवस्तु भी हल्की कर दी जाए।

2. शिक्षा को टुकड़ों में तोड़कर, ऐसे प्रोग्राम अधिगम को बेमानी बना रहे हैं। शिक्षा तो एक व्यापक फलक पर सतत चलने वाली प्रक्रिया है। साक्षरता और विषयगत ज्ञान एक दूसरे से अलग नहीं होते। अच्छी विषयगत सामग्री ही साक्षरता की सीढ़ी होती है।

बच्चे सिद्धांतों को सीखने के दौरान स्वत: भाषा सीखते हैं इसलिए मिशन बुनियाद में भाषा सिखाने के नाम पर सामाजिक विज्ञान विज्ञान जैसे विषयों को पढ़ाने पर रोक लगाना पूर्णतः ग़लत है। ~75% शिक्षकों ने भी कहा कि या तो वे सभी स्तर के बच्चों को या लेवल 1 से ऊपर के बच्चों को कक्षा के सभी विषय पढ़ाना चाहेंगे।

3. ये कार्यक्रम साक्षरता, गणित और शिक्षा की ग़लत सैद्धांतिक समझ पर खड़े हैं। ऐसे खोखले कार्यक्रमों के तहत 'साक्षर' बनकर भी बच्चों को पढ़ना-लिखना तो जाएगा लेकिन उनके पास सोचने, तुलना करने और कल्पना करने के लिए आधारभूत सामग्री नहीं होगी। वो खाली बर्तन की तरह महसूस करेंगे।

4. ऐसे अतिकेंद्रित प्रशासनिक प्रोग्राम शिक्षकों के हाथ बाँध रहे हैं तथा शिक्षण प्रक्रिया के लिए ज़रूरी 'लचीलेपन' को खत्म कर रहे हैं। ये ज़मीनी सच्चाई पर नहीं, बल्कि निहित स्वार्थ से जनित एजेंडे पर आधारित हैं।

हमने इस सर्वे में दखा कि ~80% शिक्षकों ने कहा कि उनकी कक्षा में 50% से ज़्यादा बच्चों को हिंदी पढ़ना और अंकगणित आता था। लेकिन फिर भी महीनों तक सभी बच्चों को केवल 'मौलिक कौशल' ही सिखाए जाते रहे। शिक्षकों को स्पष्ट निर्देश दिए गए कि वो अपनी कक्षा के हित में स्वयं सोचें और अपने शिक्षण को मिशन बुनियाद तक ही सीमित रखें। सरकार ने एक शिक्षक की अपनी कक्षा के स्तर, संदर्भ, व्यापक पाठ्यचर्या तथा उसके उद्देश्यों के अनुसार बच्चों को पढ़ाने की स्वायत्तता क्यों छीन ली? इससे हुए नुकसान का ज़िम्मेदार कौन है? निरीक्षण पर आने वाले अफसरों के पास भी इस सवाल का जवाब नहीं था कि 'लेवल 2 से ऊपर के बच्चों को क्या पढ़ाया जाए?'

सर्वे में हिस्सा लेने वाले 54% शिक्षकों ने मिशन बुनियाद में पढ़ाने के दौरान खुद को बँधा हुआ महसूस किया। 24% शिक्षकों ने साक्षरता की संकीर्ण परिभाषा से शिक्षकों के विषय ज्ञान के अनुपयोगी हो जाने के खतरे को चिन्हित किया। साप्ताहिक मूल्यांकन के विषय में भी शिक्षकों के विभाजित मत दर्शाते हैं कि शिक्षण के लिए विकेंद्रित कार्यशैली अधिक सहायक होती है।

5. नवउदारवादी व्यवस्था अशिक्षित  कमज़ोर मज़दूरों की फ़ौज तैयार करने के लिए ऐसे कार्यक्रमों द्वारा शिक्षा को बदल रही है| FLN की संकल्पना पर टिके ये 'साक्षरता अंकगणना' कार्यक्रम ऐसी पीढ़ी तैयार करेंगे जो साक्षर तो होगी पर सिर्फ़ सतही स्तर पर। अमरीका से लेकर भारत के, केंद्र से लेकर राज्यों के, शासक वर्ग का यही उद्देश्य है कि सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाली बहुल संख्या केवल साक्षर लेकिन अशिक्षित मज़दूर बने। चूँकि अगर ये 'ज़्यादा' पढ़-लिख गए तो पूर्ण रोज़गार, पक्की नौकरियाँ, बेहतर तनख्वाह, मज़दूर के हक़-अधिकार माँगेंगे जो मालिकों के मुनाफ़े पर टिकी व्यवस्था के लिए ख़तरा है।


 

निष्कर्ष

अमरीकी शिक्षाविद डाएन रैविच अपनी किताब, The Death and Life of the Great American School System: How Testing and Choice Are Undermining Education (2010), में बताती हैं कि कैसे 1983 में राष्ट्रीय उत्कृष्टता आयोग के तहत शिक्षा के गिरते स्तर पर आई ANAR ( नेशन ऐट रिस्क; राष्ट्र ख़तरे में) रपट को इस्तेमाल करके 2001 में NCLB (नो चाइल्ड लेफ़्ट बिहाइंड, कोई बच्चा पीछे छूटे) जैसा क़ानून लाया गया जिसका घोषित उद्देश्य शिक्षकों स्कूलों को विद्यार्थियों के सीखने के प्रति 'जवाबदेह' बनाकर शिक्षा का स्तर सुधारना था। इसके उलट, इस क़ानून का ज़मीनी असर यह हुआ कि विभिन्न विषय नज़रंदाज़ कर दिए गए, पाठ्यचर्या के उद्देश्यों को हल्का कर दिया गया, स्कूलों में लगातार दोयम दर्जे के MCQ टेस्ट लेकर बच्चों के स्तर को मापते रहने का चलन छा गया, परिणामों को लेकर शिक्षकों को प्रताड़ित किया गया, उनकी प्रोन्नति आदि प्रभावित की गई, विशेष ज़रूरतों चुनौतीपूर्ण परिस्थितियों से आने वाले बच्चों के साथ भेदभाव बढ़ा, स्कूलों को 'ब्लैकलिस्टेड' करके निजी हाथों में सौंपा गया आदि। अपने अध्ययन में डाएन दिखाती हैं कि जब प्रशासकों के लिए किसी अति-निर्णायक माने जाने वाली नीति की कामयाबी-नाकामी सांख्यिकी आँकड़ों पर निर्भर करती है तो दबाव के तहत शिक्षा की प्रक्रिया परिणाम के साथ छेड़छाड़ तथा सच्चाई छुपाने जैसे अमर्यादित व्यवहार की परिस्थितियाँ स्वाभाविक तौर पर बनती हैं। इस क़ानून के तहत तथाकथित कमज़ोर बच्चों को सहायता प्रदान करने के लिए ट्यूटरिंग का प्रावधान था, जिसके फलस्वरूप हज़ारों एनजीओ, धार्मिक कॉरपोरेट संस्थाएँ शिक्षा विभाग के साथ रजिस्टर हुईं। राशिनी 2020 भी पढ़ाने के लिए वालंटियर्स परोपकारी संस्थाओं की वकालत करती है।  (बिंदु 3.7) 

भारत में भी 1986 की नई शिक्षा नीति के उपरांत 1990 में प्राथमिक कक्षाओं के लिए मिनिमम लेवेल्ज़ ऑफ़ लर्निंग (न्यूनतम अधिगम स्तर) तैयार करने के लिए एक समिति बनाई गई थी[5] शिक्षाविदों द्वारा इस रपट की भी यह कहकर आलोचना की गई है कि आउटकम्ज़ (टेस्ट लेकर मापे जाने वाले अधिगम परिणाम) पर आधारित न्यूनतम स्तर की संकल्पना ही शिक्षा की प्रक्रिया उद्देश्यों को संकुचित करती है[6] यह कहना अनुचित नहीं होगा कि शिक्षा में आउटकम्ज़ की संकल्पना विशुद्ध रूप से औद्योगिक उत्पादन बाज़ार के मुनाफ़े की ज़मीन से निकली है। एक राजनैतिक समस्या तो यही है कि चाहे वो कोई भी क्षेत्र या क़ानून हो, 'न्यूनतम' का वादा 'अधिकतम' तक सीमित कर दिया जाता है। उदाहरण के लिए, 'न्यूनतम मज़दूरी' बिरले ही दी जाती है और इसे सामान्यतः अधिकतम सीमा के रूप में स्थापित कर दिया गया है। यही हाल पर्यावरण, कमज़ोर वर्गों के लिए आवास आदि के न्यूनतम पैमानों का होता है - उन्हें अधिकतम की तरह ही लिया जाता है। स्कूलों में भी हम देखते रहे हैं कि 'इन बच्चों को इतना तो पढ़ा दो' का दरअसल मतलब  'इन बच्चों को इतना ही पढ़ाओ' होता है या फिर कर दिया जाता है। इसने बच्चों के बीच भेदभाव विभाजन की भावना भी पैदा की है। एक ओर हीनता दूसरी ओर श्रेष्ठता के अहसास से ग्रसित विद्यार्थी समूह तथा विभाजित कक्षायें बच्चों के एक-दूसरे के साथ जीने सीखने को रोकती हैं और शिक्षा लोकतंत्र विरोधी पाठ पढ़ाती हैं। निजी-सार्वजनिक, सार्वजनिक में भी साधारण-विशेष, स्कूलों (असल में इनके विद्यार्थियों) के बीच में जो नीतिगत भेदभाव पहले-से ही मौजूद था, अब उसे स्कूलों के अंदर, कक्षाओं में खिंची रेखाओं में, स्थापित किया जा रहा है। आंतरिक विभाजन की इस परत से कामकाजी मेहनतकश परिवारों से आने वाले सरकारी स्कूलों के बच्चों के बीच की भावनात्मक वर्गीय एकता कमज़ोर पड़ेगी।

शिक्षणशास्त्र की दृष्टि से भी मिशन बुनियाद जैसे कार्यक्रम ख़तरनाक साबित होते हैं। हमें अपनी कक्षा को बाँटने, कोर्स को टुकड़ों में, हल्का करके और 'ऊपर' से भेजे गए निचले स्तर के दिशा-निर्देशों के साथ पढ़ाने को मजबूर किया जाता है। इससे हम शिक्षकों की पेशागत समझ, बुद्धिमत्ता अस्मिता को ठेस पहुँचती है। यह शिक्षण को एक संकुचित, सीमित महज़ आदेशपालन के कर्म में ढालने की कवायद है जोकि शिक्षकों के बौद्धिक, प्रशिक्षणगत पेशागत कौशलों को ख़त्म करना चाहती है। तमाम शोध-अध्ययन टीचिंग टू टेस्ट की परिघटना को (जिसमें शिक्षक सिर्फ़ तयशुदा टेस्टों के हिसाब से पढ़ाते हैं) इस तरह के मापन-केंद्रित कार्यक्रमों के स्वाभाविक परिणाम के रूप में चिन्हित करते हैं[7] धैर्य शिक्षा शिक्षण का एक सार्वभौमिक मूल्य भी है तथा आधार भी; मगर सस्ती लोकप्रियता पाने की लालसा तथा चुनावी प्रचार के मक़सद से आनन-फ़ानन में रातों-रात चमत्कार दिखाने के दावों के नीचे इस मासूम सच का गला घोंट दिया जाता है। एक तरफ़ मनोवैज्ञानिक अध्ययनों सिद्धांतों के आधार पर शिक्षक प्रशिक्षण कार्यक्रमों में इस बात को एक सार्वभौमिक सच की तरह सिखाया-समझाया जाता है कि सब बच्चे अपनी-अपनी गति अपने-अपने ढंग से सीखते हैं[8]; दूसरी तरफ़ राशिनी 2020 हो या मिशन बुनियाद, राजनैतिक नेतृत्व द्वारा यह ऐलान किया जा रहा है कि फ़लाँ तारीख़ तक एक कक्षा/उम्र के सब बच्चे अधिगम के एक समान स्तर पर पहुँच जाएँगे! ज़ाहिर है कि फिर अधिकारियों से लेकर शिक्षकों तक, पूरा अमला, शिक्षा और सच को ताक़ पर रखकर, साहिबान की इस असंभव ज़िद को साकार करने में लगा दिया जाता है। साम-दाम-दंड-भेद से, येन-केन-प्रकारेण के सनातन उपायों द्वारा सब बच्चों को उस निश्चित स्तर पर पहुँचा भी दिया जाता है। काग़ज़ों पर प्रचार-प्रदर्शन के लायक़ स्तर प्राप्त हो जाते हैं, शिक्षा कहीं छूट जाती है।

मिशन बुनियाद जैसे कार्यक्रमों का एक असर (और उद्देश्य) यह भी होता है कि स्कूल शिक्षक यह तय करने की स्थिति में नहीं रहते हैं कि कब, क्या, कितना और कैसे पढ़ाया जाए; बल्कि समय-सारणी जैसे मूलभूत आयाम से लेकर स्कूलों की दैनिक सत्रीय गतिविधियों के संदर्भ में उनकी अपनी समझदारी स्वायत्तता भी कमज़ोर पड़ती जाती है। ये कार्यक्रम तो हम शिक्षकों की पेशागत पढ़ाई तैयारी की इज़्ज़त करते हैं और ही हमारी उस बौद्धिक समझ की जो हम अपने शैक्षिक अनुभवों कलात्मकता से निर्मित करते हैं। कुल मिलाकर, ये केंद्रीकृत नीतियाँ शिक्षकों स्कूलों के अस्तित्व और पहचान पर प्रहार करती हैं।

स्कूलों की पाठ्यचर्या शिक्षण प्रक्रिया पर राज्य की शिक्षा नीति एक अहम असर डालती है, मगर सत्ता में बैठी ताक़तें किसी घोषित नीति की मोहताज भी नहीं होतीं। मिशन बुनियाद और इस जैसे कार्यक्रम राष्ट्रीय शिक्षा नीति (राशिनी) 2020 के औपचारिक रूप में आने से पहले ही लागू कर दिए गए थे। हमने भले ही ध्यान दिया हो, लेकिन इन्होंने एक तरह से इस नीति का बिगुल बजाने का काम किया। इसका कारण यही है कि शिक्षा पर काबिज़ हो चुकी कॉरपोरेट ताक़तें किसी नीति के औपचारिक रूप से आने का इंतज़ार नहीं करतीं, बल्कि वो उसके बनने से पहले, बनने के दौरान और अंततः क्रियान्वयन की प्रक्रिया में भी लगातार सक्रिय रहती हैं। ऐसा सिर्फ़ दिल्ली या भारत में नहीं हो रहा है, बल्कि वैश्विक पूँजी के शिकंजे के तहत यह एक व्यापक परिघटना है। पर्यावरण, कामकाज, उद्योग आदि पर एक तरह की नीतियों के ज़रिये नियंत्रण करने वाली ताक़तों के लिए शिक्षा का क्षेत्र कोई 'पवित्र अपवाद' नहीं हो सकता है। चाहे वो अमरीका हो या भारत, दोनों ही जगह बच्चों के कम स्तरों के संकट (लर्निंग क्राइसिस) को लेकर एक माहौल तैयार किया गया[9] जिसमें इस बात का पूरा ख़याल रखा गया कि बच्चों के परिवारों की आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियों तथा शिक्षकों, शिक्षण समय संसाधनों से रहित स्कूलों के प्रति सरकारों की ज़िम्मेदारी पर चुप्पी बरती जाए। लर्निंग क्राइसिस के इस विचार को यूनेस्को से लेकर विश्व बैंक 'प्रथम' की सम्मानित रपटों ने पाला-परोसा। साथ ही, विद्यार्थियों के 'कम सीखने' या अकुशल होने को फिर रोज़गार के संकट का मुख्य कारण बताकर एक तीर से दो निशाने साधे गए - बेरोज़गारी अनियमित रोज़गार के लिए एक तरह से विद्यार्थियों (और शिक्षकों/स्कूलों) पर ही दोष मढ़ दिया गया और आर्थिक व्यवस्था की सच्चाई पर पर्दा डालने की कोशिश भी की गई। (उदाहरण के लिए, इस बीच तमाम क्षेत्रों में काम को टुकड़ों में तोड़कर और ऑटोमेशन के ज़रिये भी कौशलों/हुनर को असल में ग़ैर-ज़रूरी बनाया जा रहा है।) आख़िरकार, अगर शिक्षा के गिरते स्तर की सचमुच चिंता होती तो राष्ट्रीय शिक्षा नीति 'आसानी से पास किए जा सकने वाले बोर्ड' इम्तेहान प्रस्तावित करती, पाठ्यचर्या को कम करके, टुकड़ों-टुकड़ों में और हल्का करके परोसने की वकालत करती, स्कूलों में छोटी कक्षाओं से ही 'ओपन' शिक्षा को बढ़ावा देती और ही स्कूलों में छोटी कक्षाओं से ही वोकेशनल शिक्षा शुरु करने का प्रस्ताव देती। रहा-सहा शक इस सवाल का जवाब ढूँढने से दूर हो जाता है कि क्या यह सब उन निजी स्कूलों में भी लागू होगा जहाँ नीति-निर्माताओं, विलासी वर्ग धन्ना-सेठों के बच्चे पढ़ते हैं!      

हमारा मानना है कि अगर आज हमने मिशन बुनियाद सरीखे कार्यक्रमों सार्वजनिक स्कूलों में भाषा तथा गणित की शिक्षा को FLN केंद्रित बनाने की नीति का विरोध नहीं किया और लोगों, विशेषकर अपने विद्यार्थियों के अभिभावकों, को इनकी सच्चाई से अवगत नहीं कराया, तो कल हम और कमज़ोर पड़ेंगे। यह केवल हम शिक्षकों के ही अस्तित्व का सवाल नहीं है, बल्कि हमारे विद्यार्थियों के हक़ों, शिक्षा के अस्तित्व और यहाँ तक कि लोकतंत्र के मूल्य का सवाल भी है। हम इस फ़रेब की जी-हुज़ूरी से इंकार करते हैं।

हमें हबीब जालिब के शब्दों में अपनी आवाज़ बुलंद करनी होगी -

फूल शाख़ों पे खिलने लगे, तुम कहो

जाम रिंदों को मिलने लगे, तुम कहो

चाक सीनों के सिलने लगे, तुम कहो

इस खुले झूठ को, ज़ेहन की लूट को

मैं नहीं मानता, मैं नहीं जानता

 


 

मिशन बुनियाद: एक शिक्षिका की नज़र से 

एक स्कूली शिक्षिका होने के नाते चौथी कक्षा में मिशन बुनियाद की कक्षाओं में पढ़ाने के अनुभवों को मैं निम्नलिखित बिंदुओं में प्रस्तुत कर रही हूँ जोकि निरंतर मेरे शैक्षिक चिंतन का हिस्सा बने रहे-

1. मिशन बुनियाद कार्यक्रम के दौरान कक्षा में बच्चों के पठन और गणना स्तर की पहचान करने के लिएप्रथमएनजीओ केसहयोग’ (निर्देशन?) द्वारा तैयारप्रगतिपुस्तकें इस्तेमाल की गईं| बच्चों को इनमें दिए गद्यांश पढ़वा करलेवलएक और दो में विभाजित किया गया| लेवल एक में उन बच्चों को रखा गया जिन्हें अक्षर पहचान होने से लेकर केवल तीन या चार पंक्तियां पढ़नी आती थीं| लेवल दो में उन बच्चों को रखा गया जो पूरी कहानी (जोकि अपने आप में आठ या दस पंक्तियों की थी) पढ़ पा रहे थे| इसी प्रकार गणित में अंकों की पहचान करने वाले बच्चों को लेवल एक में तथा घटा भाग के सवाल तथा शब्द समस्या हल करने वाले बच्चों को लेवल दो में विभाजित किया गया था|

2. कक्षा में एनसीईआरटी की किताबों की जगहप्रगतिकी हिन्दी और गणित की किताबों को लगाया गया था| इन किताबों का एक सेट कक्षा तीन से कक्षा पांच तक के लिए और दूसरा सेट कक्षा छह से आठ तक के लिए बनाया गया था| इन पुस्तकों में मुख्यत: छह से दस पंक्तियों के गद्यांश रूपी कहानियां दी गई थीं तथा इन्हीं गद्यांशों से जुड़े प्रश्न अभ्यास दिए गए थे; जैसे

'नीली नीली नीलू' कहानी में कौन सी चीज़ें नीली हैं? किन्हीं और पाँच नीली चीज़ों के नाम बताओ।

आसमानशब्द में आए अक्षरों को अलग-अलग तोड़ कर लिखें [++मा+],

नी+ली को जोड़कर लिखें आदि।

यह उल्लेखनीय है कि इन पुस्तकों में कविता जैसी साहित्यिक विधा को कोई स्थान नहीं दिया गया, जबकि भाषा सीखने की प्रक्रिया में कविताएँ एक अहम भूमिका निभाती हैं|

3. मिशन बुनियाद का विशेषकर चार से पांच सप्ताह का प्रारंभिक दौर बारह खड़ी की पहचान कराने को समर्पित था| बारह खड़ी से लेकर मिशन बुनियाद के लिए तैयार पुस्तकों को कक्षा में कैसे पढ़ाना हैं, उनकी पाठ योजना कैसे बनानी है, बच्चों के सीखने के स्तर को कैसे जाँचना-मापना है, इन तमाम चीज़ों के बारे में शिक्षकों को निर्देश दिए गए|

कैसे तयशुदा दिनों में बच्चों को क्रमशः अक्षर तथा शब्दों की पहचान और कहानी पढ़नी आनी चाहिए, इसके लिए शिक्षकों को मेंटर टीचर[10] द्वारा PPT की सहायता से ट्रेनिंग दी गई|

4. इसकी कोई स्पष्ट जानकारी नहीं दी गई थी कि इस पूरी प्रक्रिया मेंलेवल दोके बच्चों को, जिन्हें मौलिक रूप से पढ़ना और गणना जैसे सभी बुनियादी कौशल हासिल थे, क्या पढ़ाना है। साथ ही, लेवल दो के  बच्चों को उनकी नियमित पाठ्यपुस्तकें भी नहीं दी गई थीं| नतीजतन, रोज़ यही होता था कि ये बच्चे स्कूल आते लेकिन पढ़ाई के नाम पर केवल अक्षर पहचान, शब्द निर्माण या गद्यांश पठन तक ही सीमित रहते या फिर जोड़, घटा तथा भाग के सतही सवालों के दोहराव में ही उलझे रहते|

5. ऊपरी तौर पर भले ही मिशन बुनियाद से संबंधित सभी दस्तावेज़ पढ़ने तथा समझ के साथ पढ़ने पर पुरज़ोर बल देते रहे, लेकिन इसमिशन' के लिए प्रस्तावित पुस्तकों की पाठ्यवस्तु में किसी भी तरह से गूढ़ समझ के लिए कोई स्थान नहीं रखा गया| मसलन, यदि पढ़ने-लिखने (लिटरेसी) के विमर्श के सन्दर्भ मेंसमझ' शब्द का अर्थ देखें तो इसे अंग्रेज़ी भाषा के comprehension शब्द के अनुवाद के रूप में प्रयोग किया जाता है, जिसकी अवधारणा में पढ़े गए पाठ को जीवन अनुभव से जोड़ पाने की क्षमता निहित है| इसके विपरीत, मिशन बुनियाद के लिए प्रस्तावित पुस्तकों की विषयवस्तु में बच्चों के जीवन से जुड़ने, बच्चों द्वारा अपने अनुभवों को बयान करने तथा उनकी व्याख्या करने की संभावना बेहद सीमित है| यह विषयवस्तु बच्चों के भाषाई बौद्धिक स्तर को बहुत ही सरलीकृत करके देखने के पूर्वाग्रहों से ग्रस्त लगती है|

कुल मिलाकर, मिशन बुनियाद की प्रस्तावित पुस्तकों की विषयवस्तु और दिए गए अभ्यास-प्रश्न समझ के लिए मज़बूत ज़मीन उपलब्ध नहीं कराते |

6. मिशन बुनियाद के तहत सभी बच्चों की कक्षागत पढ़ाई को बिलकुल रोक दिया गया| यहाँ तक कि उन्हें विभिन्न विषयों की पाठ्यपुस्तकों से भी वंचित कर दिया गया, जोकि मौलिक रूप से उनके शिक्षा के अधिकार का हनन था| विषयों को इस तरह से दरकिनार करने के पीछे यह तर्क दिया जाता है कि बिना औपचारिक अक्षर ज्ञान और अंक ज्ञान के बच्चे विषयगत समझ नहीं बना सकते हैं| जबकि यह मानना निराधार है कि बिना अक्षर अंक ज्ञान के बच्चे, उदाहरण के लिए, असमानता, भेदभाव, पर्यावरणीय संकट बोध, वैज्ञानिक चेतना, नागरिकता, नफा-नुकसान के वर्गीय चरित्र जैसी संकल्पनाओं को नहीं समझ पाएंगे|

7. इस पूरेमिशनमें विशेष आवश्यकता वाले बच्चों (CWSN) के लिए कक्षा में पहली बार आकर अपनी शिक्षिका के साथ घुलने-मिलने, किताबों को छूने-पढ़ने की कोशिश करने के व्यवहार आदि के आंकलन के लिए कोई पैमाना नहीं बनाया गया |

8. मिशन बुनियाद से संबंधित कक्षाएं लगभग पाँच-छह महीने तक चलीं, जिसमें से शुरुआती दो महीनों का दौर मानसिक दबाव के संदर्भ में बहुत ही सघन रहा| इस पूरे दौर में मेरे कान.. ...का, ... ... किऔरदो एकक्म दोकी गूंज से भरते रहे| दो महीने का यह पूरा दौर स्कूल में हम सभी शिक्षिकाओं के लिए बच्चों के 'लेवल अप' करने की जल्दबाज़ी तथा पीछे रह जाने की स्थिति में विभागीय अधिकारियों की डांट-डपट झेलने के तनाव से गुज़रा| इस पूरे दौर में बच्चे और शिक्षक दोनों ही अपने-अपने स्तरों पर जूझ रहे थे| लेवल दो के बच्चे अपनी किताबों के मिलने के सवाल से, लेवल एक के बच्चे लगातार बारह खड़ी को पढ़ने के उपरांत भी याद कर पाने से, तो शिक्षक शिक्षा और शिक्षण की अपनी तमाम समझ को दरकिनार करके मौन रूप से आज्ञा पालन करते जाने और भीतर से अपने शिक्षकीय बोध के खोखला होते जाने के अहसास से| वास्तविक स्थितियों में पढ़ना-लिखना सीखने की यह ' मिशन' पद्धति दरअसल पढ़ने-लिखने की प्रक्रिया को यांत्रिक रूप से टुकड़ों में विभाजित कर देती है। भाषा तथा पठन की प्रक्रिया से संबंधित नवीन शोध भी यह सिद्ध करते हैं कि मौखिक रूप से भाषा प्रयोग के अवसर कक्षा में भाषा सीखने के अनुभव को मज़बूत और जीवंत बनाते हैं| रोज़नब्लेट[11] (1938) पढ़ने के संदर्भ में अनुक्रियाओं (रेस्पोंसेस) की बात करते हुए कहती हैंकक्षा में किताबों को छूना, उलटना-पलटना या फिर शिक्षिका से अपने लिए किसी कहानी या किताब को पढ़ने की माँग करना और अपनी पसंदीदा कविता को बार-बार दोहराने के लिए कहना, पढ़ने की प्रक्रिया के शुरुआती चरणों में महत्त्वपूर्ण साहित्यिक अवाचिक अनुक्रियाएं (नॉन-वर्बल लिटरेरी रेसपाँसेस) हैं| वहीं, मिशन बुनियाद की पूरी संरचना में इन्हें दर्ज करने मापने के लिए कोई पैमाना तैयार नहीं किया गया है| मिशन बुनियाद की पूरी संकल्पना में बाल मनोविज्ञान की कमज़ोर समझ और शिक्षा की एक तरह की वर्चस्वशाली अवधारणा दिखलाई पड़ती है| पढ़ना-लिखना सिखाने के इस आपातकालीन युद्धस्तरीयमिशनमें सभी वैध प्रगतिशील शिक्षणशास्त्रीय संकल्पनाएँ नज़रंदाज़ कर दी गई हैं|

 


 

बच्चों के बारे में


 

बच्चों के बारे में

बनाईं गईं ढेर सारी योजनाएँ

ढेर सारी कविताएँ

लिखी गईं बच्चों के बारे में

 

बच्चों के लिए

खोले गए ढेर सारे स्कूल

ढेर सारी किताबें

बाँटी गईं बच्चों के लिए

 

बच्चे खड़े हुए

जहाँ थे

वहाँ से उठ खड़े हुए बच्चे

 

बच्चों में से कुछ बच्चे

हुए बनिया हाक़िम

और दलाल

और हुए मालामाल और खुशहाल

 

बाकी बच्चों ने

सड़क पर कंकड़ कूटा

दुकानों में प्यालियाँ धोईं

साफ़ किया टट्टीघर

खाए घर तमाचे

बाज़ार में बाइक कौड़ियों के मोल

गटर में गिर पड़े

 

बच्चों में से कुछ बच्चों ने

आगे चलकर

फिर बनाई नई योजनाएँ

बच्चों के बारे में

कविताएँ लिखीं

स्कूल खोले

किताबें बाँटी

बच्चों के लिए

 

गोरख पांडे

1978

 

 

 



[1] Circular No. DE.23 (632)/ Sch.Br./2018/265, 05.03.18, Subject: "Mission Buniyaad" to ensure All Children Reading Grade Appropriate Text and Solving Basic Maths Operations in DoE Schools.

[2] Circular No. PS/DE/2016/230, 29.06.2016, Sub: Chunauti - 2018: New Academic Plan to Support

[4] Circular No. DE.23 (632)/Sch.Br./2017/443, 05.04.18, Sub: Guidelines for Implementation of Mission Buniyaad

[5] Minimum Levels of Learning at Primary Stage, NCERT, 1991

[6] Anil Sadgopal, The Negtion of Childhood, IIC Quarterly, Vol. 25/26, Vol. 25, no. 4/Vol. 26, no. 1 (winter 1998/spring 1999, PP 159-174); Rohit Dhankar, The Notion of Quality in DPEP Pedagogical Interventions, Contemporary Education Dialogue, Vol. I No I Monsoon 2003

[7] देखें D Ravitch

[8] Jean Piaget, Jerome Bruner etc

[9] https://thewire.in/education/aser-learning-survey-data-caste-poverty

[11] Rosenblatt, Literature as Exploration, 1938

1 comment:

prem singh said...

महत्वपूर्ण विश्लेषण और निष्कर्ष। साझा करने के लिए धन्यवाद।