Monday, 27 November 2023

पत्र: दिल्ली के स्कूलों से लगातार घटते कच्चे मैदान, बच्चों के खेलने के अधिकार का हनन।

 प्रति

      शिक्षा मंत्री
      दिल्ली सरकार
विषय:- दिल्ली के स्कूलों से लगातार घटते कच्चे मैदान, बच्चों के खेलने के अधिकार का हनन।
महोदया,
लोक शिक्षक मंच आपके संज्ञान में दिल्ली सरकार व निगम के स्कूलों के मैदानों से जुड़ी एक गंभीर समस्या लाना चाहता हैI हम देख रहे हैं कि पिछले कुछ सालों से दिल्ली के सरकारी/निगम स्कूलों से खेल के कच्चे मैदान खत्म होते जा रहे हैं। एक समय तक अधिकांश स्कूलों में मिट्टी के कच्चे मैदान थे जहां प्राथमिक व अन्य कक्षाओं के बच्चे उन्मुक्त रूप से खेल पाते थेI लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इन्हें, टाइल अथवा सीमेंट से पाट कर, लगातार 'पक्का' किया जा रहा है। मजबूरन छोटे बच्चों को पक्की ज़मीन पर ही खेलना पड़ता है जोकि उनके लिए, शारीरिक रूप से घायल होने की संभावना के कारण, बहुत जोखिम भरा होता है। ऐसे में, अधिकांश स्कूलों में बच्चों के चोटिल होने के डर के कारण उनके बाहर खुली जगह में खेलने पर ही पाबंदी लगाने की स्थिति बन जाती है। फिर अधिकतर देशज व बालसुलभ खेलों के लिए कच्ची मिट्टी के मैदान ही उपयुक्त होते हैं, उन्हें कंक्रीट पर नहीं खेला जा सकता है। यह बचपन और बच्चों के विकास की दृष्टि से बेहद ही चिंताजनक है कि बच्चे स्कूल के पांच से छः घंटे कक्षा की चारदीवारी में ही रहें। बच्चों का लंबे समय तक एक सीमित व बंद स्थान पर ही बैठे रहना उनके लिए स्कूल को बेहद ऊबाऊ और पढ़ने-लिखने तथा सीखने की प्रक्रिया को बहुत ही अरुचिकर बना देता है। 
स्कूल में शिक्षकों के अनुभवों से यह ज्ञात हुआ है कि जब बच्चों को खुली जगह में खेलने के अवसर मिलते हैं तो स्कूल में बच्चों की उपस्थिति और कक्षागत गतिविधियों में उनकी सहभागिता बढ़ती है। वहीं, जब इस तरह के अवसर घटाए जाते हैं या उनपर पाबंदी लगाई जाती है, तो उसके नकारात्मक परिणाम सामने आते हैं। स्कूलों में खेल के मैदान ख़त्म करना न केवल बच्चों के शिक्षा के अधिकार का हनन है, बल्कि यह उनके स्वस्थ तथा खुशहाल जीवन के अधिकार पर भी चोट करता है।
चूंकि हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक माहौल में अधिकांश लड़कियों को घर से बाहर और घर के आसपास तक खेलने के अवसर वैसे भी नहीं दिए जाते हैं, इसलिए स्कूलों में खेल के मैदान तथा खेल से वंचित होने का नकारात्मक असर छात्राओं पर अधिक पड़ता है। अत: अगर विद्यालय में भी उनके मैदान व उन्मुक्त खेलने के अवसर छीन लिए जाएंगे तो छात्राओं के विकास व उनकी  चेतना पर हतोत्साहित करने वाला प्रभाव पड़ेगा। दिल्ली के बहुत से इलाकों में बच्चों के खेलने के लिए सार्वजनिक पार्क/ कच्चे मैदान वैसे भी उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे में, स्कूलों के खेल के मैदान दिल्ली के अधिकतर, विशेषकर वंचित आबादियों से आने वाले, बच्चों के खेलने का एकमात्र विकल्प हैं। 
इसके साथ ही, कच्चे मैदानों का होना पर्यावरणीय दृष्टि से भी बेहद महत्त्वपूर्ण है। मैदानों को पक्का करने से न केवल भूजल स्तर गिरता है, बल्कि सतह पर एवं उसके आसपास गर्मी असहनीय रूप से बढ़ जाती है। एक तरफ़ हम बच्चों को भाषा तथा पर्यावरण अध्ययन के माध्यम से पर्यावरण संकट, भूजल संरक्षण आदि के बारे में सतर्क करने का दावा कर रहे हैं (देखें 'पानी रे पानी', पाठ 16, हिंदी की पाठ्यपुस्तक, रिमझिम-5 एवं 'बूँद-बूँद, दरिया-दरिया....', पाठ 6, पाँचवीं कक्षा के लिए पर्यावरण अध्ययन की पाठ्यपुस्तक आसपास) और लैंगिक बराबरी के पक्ष में व रूढ़ियों के ख़िलाफ़ लड़कियों के खेलकूद को बढ़ावा देने के उद्देश्य को पाठ्यचर्या का अभिन्न हिस्सा जता रहे हैं (देखें 'फाँद ली दीवार', पाठ 17, पाँचवीं कक्षा के लिए पर्यावरण अध्ययन की पाठ्यपुस्तक), वहीं दूसरी तरफ़ उनके स्कूलों के मैदानों का लगातार कंक्रीट में बदलते जाना बच्चों को विरोधाभासी तथा भ्रमित करने वाली शिक्षा देता है। 
शिक्षा संस्थानों के प्रांगणों को कंक्रीट से पाटना पर्यावरण संबंधी SDG लक्ष्यों (4 एवं 5, क्रमशः गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तथा लैंगिक बराबरी; 6, 11 एवं 13, क्रमशः जल, सतत शहर व समुदाय तथा पर्यावरणीय क़दम) के प्रति भारत सरकार की प्रतिबद्धता और 'खेलो इंडिया' मिशन के उद्देश्यों के भी विपरीत जाता है। स्कूलों में मैदानों व खुले स्थानों का इस तरह का कंक्रीटयुक्त संरचनात्मक विनाश देश के संविधान के अनुच्छेद 51क (नागरिकों के मूल कर्तव्य) के भी ख़िलाफ़ जाता है जिसमें 'प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और उसका संवर्धन' करने के मूल्य को स्थापित किया गया है। 
उपरोक्त संदर्भों में हम आपसे मांग करते हैं कि सभी स्कूलों में कच्चे खेल के मैदान संरक्षित करने एवं, जहां उन्हें पक्का कर दिया गया है, पुन: उपलब्ध कराने हेतु आवश्यक निर्देश जारी करें ताकि बच्चों के अधिकारों तथा पर्यावरण को संरक्षित किया जा सके।

सधन्यवाद
लोक शिक्षक मंच 

    प्रतिलिपि
    दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग 
    खेल मंत्री, दिल्ली सरकार 
     NGT

पत्र: स्कूलों व शिक्षा विभाग के कार्यालयों में लैंगिक रूप से असंवेदनशील तथा महिला-विरोधी व्यवहार एवं भाषा के निषेध के लिए दिशा-निर्देश जारी करने हेतु

 

प्रति,

      अध्यक्षा 

      दिल्ली महिला आयोग 



विषय: स्कूलों व शिक्षा विभाग के कार्यालयों में लैंगिक रूप से असंवेदनशील तथा महिला-विरोधी व्यवहार एवं भाषा के निषेध के लिए दिशा-निर्देश जारी करने हेतु  


महोदया,

दिनांक 24/09/2023 को आपके कार्यालय में लोक शिक्षक मंच द्वारा भेजे गए 'उप शिक्षा निदेशक द्वारा पहनावे के आधार पर एक शिक्षिका के मानसिक उत्पीड़न के खिलाफ़ विरोध पत्र' और 16/10/2023 को दिल्ली महिला आयोग में हुई मीटिंग के संदर्भ में हम इस पत्र के माध्यम से आपका ध्यान उन महिला-विरोधी निजी टिप्पणियों एवं व्यवहार पर दिलाना चाहते हैं जो दिल्ली के स्कूलों में सामान्य रूप से दिखाई देता है। हम, दिल्ली के सरकारी/निगम स्कूलों में कार्यरत शिक्षक, आपके साथ ऐसी कुछ टिप्पणियाँ साझा कर रहे हैं जिनके हम गवाह रहे हैं। पितृसत्तात्मक मनस से उपजी ये अनाधिकार टिप्पणियाँ महिलाओं के शरीर, पहनावे, पसंद-नापसंद, निजी फैसलों, भूमिका, यौनिकता आदि को नियंत्रित करने की कोशिश करती हैं और उनकी अस्मिता पर आघात पहुँचाती हैं। महिला एवं पुरुष अधिकारियों/सह-कर्मियों द्वारा की जाने वाली ऐसी टिप्पणियाँ सामने वाले व्यक्ति (महिलाओं) की निजता का अतिक्रमण करती हैं। साथ ही, ऐसी टिप्पणियाँ उन अधिकारों - जैसे स्वतंत्रता, समानता एवं गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार - का हनन करती हैं जिन्हें महिलाओं ने लम्बे नारीवादी संघर्ष के बाद जीता है।

हाल ही में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी 'Handbook on Combating Gender Stereotypes' (2023) जारी करके अदालतों में लैंगिक रूप से आपत्तिजनक भाषा के प्रयोग को चिन्हित करते हुए इसके प्रति गंभीरता जताई है। लैंगिक रूप से आपत्तिजनक एवं महिला-विरोधी भाषा-व्यवहार को लेकर हम शिक्षा विभाग से भी इसी गंभीरता व ज़िम्मेदारी की उम्मीद रखते हैं। 

 

आपकी जानकारी और कार्रवाई के लिए हम स्कूलों एवं कार्यालयों में की जाने वाली महिला-विरोधी टिप्पणियों की एक सांकेतिक सूची इस पत्र के साथ संलग्न कर रहे हैं। 



स्कूल में महिलाओं पर की जाने वाली टिप्पणियों की सांकेतिक सूची -

 

क) परिधान संबंधी टिप्पणियाँ 

दुपट्टा कहाँ है? दुपट्टा क्यों नहीं डाला?

ये कैसे कपड़े पहने हैं?

इतने टाइट कपड़े क्यों पहने हैं?

स्कूल में तो साड़ी ही पहनकर आना चाहिए।

स्कूल में जींस नहीं पहननी हैI

बिंदी क्यों नहीं लगाती?

साड़ी में तो मैडम बहुत कमाल लग रही हैं। 

किसे लाइन मारने को इतना सज कर आई हो?

 

ख) शरीर संबंधी टिप्पणियाँ

मोटी हो रही हो, प्रेगनेंट हो क्या?

थोड़ी साफ़-सुथरी और सुंदर बन कर आया करो।

'लंबू', 'गिठ्ठी', 'काली', 'मोटी', 'पतली' मैडम

इतनी 'सुंदर' हो फिर शादी क्यों नहीं हुई

मैडम, कुछ खा लिया करो। 

चश्मा हटाने का आपरेशन करा लो। 

 

ग) निजी फ़ैसले/जीवन संबंधी टिप्पणियाँ

देर रात तक व्हाट्स ऐप पर ऑनलाइन रहती हो!

घर में कोई काम नहीं है क्या

मैडम, खाना नहीं बनाना क्या घर जा कर?

व्हाट्स ऐप स्टेटस तो बड़ा जल्दी-जल्दी बदलती हो, स्कूल के मैसेज क्यों नहीं देखे?

उम्र हो रही है, शादी क्यों नहीं करती?

बुड्ढी होकर शादी करनी है क्या?

उम्र हो रही है, बच्चे क्यों नहीं पैदा करती?

इतना टाइम हो गया शादी को, बच्चे क्यों नहीं हो रहे हैं?

अभी तो पहले बच्चे की मैटरनिटी लीव से आईं थीं! अब फिर से छुट्टी चाहिए?

लव मैरिज की है इसने, काफ़ी तेज़ है!

आपके सास-ससुर आपके बारे में क्या सोचते हैं?

बच्चों का ध्यान रखना छोड़ रखा है क्या?

कितना फ़ालतू टाईम है आपके पास! (यदि पुरुष सहकर्मियों की तरह कार्यस्थल पर देर तक रुको तो, न रुको तो 'पता नहीं कैसी नौकरी करती हैं ये!')

यूनिवर्सिटी में पढ़ती हो तो वहीं कोई लड़का क्यों नहीं फँसा लेती? यूनिवर्सिटी में होता ही क्या है, लड़के-लड़कियाँ एक-दूसरे की गोद में ही बैठे रहते हैं!

आजकल किसके साथ घूम रही हो?

बाहर की संस्कृति में क्यों जीती हो?

 

घ) महिलाओं की परम्परागत भूमिका संबंधी टिप्पणियाँ

टीचर तो बच्चे की मां की तरह होती है। उनमें नैतिक गुण डालना उनकी ज़िम्मेदारी है।

कुछ काम महिलाओं को ही शोभा देते हैं। 

इतना तर्क करती है, ससुराल में किसी को बोलने नहीं देगी। 

 

 ड.) खान-पान संबंधी टिप्पणियाँ

स्कूल में मांसाहारी खाना नहीं ला सकते।

ये सब खाना है तो अलग बैठकर खाओ।

(आशय यह होता है कि 'अच्छी'/'संस्कारी' महिलाओं, खासतौर से शिक्षिकाओंके लिए, माँसाहार वर्जित है! यानीमाँसाहार करने वाली महिलाएँ 'बुरी' होती हैं।)

 

अत: हम अपील करते हैं कि दिल्ली महिला आयोग इस मुद्दे की गंभीरता से संज्ञान लेते हुए दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग को कार्यस्थल पर (स्कूलों व कार्यालयों में) लैंगिक रूप से संवेदनशील व्यवहार एवं उचित भाषा संबंधी दिशा-निर्देश जारी करने और ट्रेनिंग आयोजित करने का प्रस्ताव देI

 

सधन्यवाद

लोक शिक्षक मंच

Monday, 20 November 2023

दिल्ली सरकार व नगर निगम के स्कूलों में FLN (आधारभूत साक्षरता एवं संख्यात्मकता) की नीति के दुष्प्रभाव

 

प्रति
      शिक्षा मंत्री,
      दिल्ली सरकार 

विषय: दिल्ली सरकार व नगर निगम के स्कूलों में FLN (आधारभूत साक्षरता एवं संख्यात्मकता) की नीति के दुष्प्रभाव 

महोदया,
            लोक शिक्षक मंच आपके समक्ष FLN (आधारभूत साक्षरता एवं संख्यात्मकता) एवं 'मिशन बुनियाद' को लेकर, जोकि मुख्यतः FLN की संकल्पना पर आधारित है, अपने आलोचनात्मक अनुभव, अवलोकन एवं आपत्तियाँ दर्ज करना चाहता है। हालाँकि, हमारा मानना है कि FLN की अवधारणा में ही कुछ बुनियादी समस्याएँ हैं, फिर भी यहाँ हम सैद्धांतिक बहस में न जाते हुए अपनी बात को केवल व्यावहारिक पक्ष तक सीमित रखेंगे।

1. FLN पर ज़ोर देने के चलते पढ़ाई के स्तर से समझौता हो रहा है। न केवल बाक़ी विषयों की अनदेखी हो रही है, बल्कि भाषा व गणित में भी विषयवस्तु और उद्देश्य सीमित हुए हैं। उदाहरण के तौर पर, खेल व कला के साथ-साथ सामाजिक अध्ययन व पर्यावरण अध्ययन जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों को दिया जाने वाला समय व महत्त्व कम हो रहा है। वहीं दूसरी तरफ़, नगर निगम के स्कूलों के संदर्भ में, प्रथम व द्वितीय कक्षाओं के पाठ्यक्रम में परिवेश अध्ययन के समेकित विषय को मौखिक स्तर पर पढ़ाने के बदले, इसे सामाजिक अध्ययन व पर्यावरण अध्ययन में तोड़कर, अलग-अलग किया गया है। प्रथम दो कक्षाओं में, पाठ्यचर्या के मानकों के विपरीत जाकर, पर्यावरण अध्ययन नामक विषय में लिखित परीक्षा ली जा रही है। कक्षाई स्तर से असंबद्ध विषय तथा परीक्षा-प्रणाली थोपना न सिर्फ़ पाठ्यचर्या के स्थापित व सर्वसम्मत मानकों के विरुद्ध है, बल्कि विषयों तथा बाल-विकास सिद्धांतों के भी विपरीत है।  

2. शिक्षकों के लिए विषय की गहराई में जाकर पढ़ाना मुश्किल होता जा रहा है। विषयों को आपस में जोड़कर व सुगठित पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से पढ़ाने के बदले, विषयों को अलग-थलग ज्ञान क्षेत्रों की तरह बरता जा रहा है। पाठ्यपुस्तकों की जगह एकाकी वर्कशीट्स ले रही हैं जिनमें अक़सर कोई सतत व जीवंत संदर्भ नहीं होता है। नतीजतन, ये वर्कशीट्स न विद्यार्थियों से संवाद स्थापित कर पाती हैं और न ही शिक्षकों को प्रेरित करती हैं।

3. FLN के कारण बच्चों को चिन्हित करके उनके बीच वर्गीकरण किया जा रहा है। इससे बच्चों की कक्षाई इकाई टूट रही है और उनके मनस पर (श्रेष्ठता व हीनता का) नकारात्मक असर पड़ रहा है। शिक्षा तथा इंसानी अस्तित्व के तमाम आयामों को दरकिनार करके, मात्र साक्षरता/संख्यात्मकता के न्यूनतम स्तरों के आधार पर विद्यार्थियों को चिन्हित व वर्गीकृत करने से विद्यार्थियों के आत्मबोध का धरातल संकुचित हो रहा है। इस अलगाववादी पहचान से उनके आपसी मासूम रिश्तों व दोस्तियों पर बुरा असर पड़ रहा है। FLN में केवल अक्षर तथा संख्या ज्ञान को महत्त्वपूर्ण बना देने के कारण विद्यार्थियों की अन्य क्षमताओं और गुणों को कक्षा में पहचान नहीं मिलती जिससे उनका आत्मविश्वास टूटता है। इससे इन विद्यार्थियों तथा उनके 'साक्षर' सहपाठियों को भी उस सर्वांगीण विकास का अवसर नहीं मिल पाता जो कि शिक्षा का असल व मूल लक्ष्य है और जिसकी प्राप्ति के लिए एक-दूसरे का साथ और एक-दूसरे से चर्चा अनिवार्य है।
सांस्कृतिक व अधिगमात्मक विविधता कक्षा को कमज़ोर नहीं करती, बल्कि साथ तथा मिलकर सीखने व जीने के मूल्यों से कक्षा को समृद्ध करती है। एक ही कक्षा के विद्यार्थियों को अलग-अलग करके, उन्हें अलग-अलग स्तर के कोर्स पढ़ाने से शिक्षा समानता के मूल्य के प्रति अपनी ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी निभाने से विमुख हो रही है।  इस तरह के आंकलन से बच्चों में यह ख़तरनाक व झूठा संदेश प्रेषित हो रहा है कि वो (हम सब) अपनी-अपनी स्थिति के लिए ख़ुद ज़िम्मेदार हैं। यह शिक्षा न केवल हमारे समाज की क्रूर हक़ीक़त को झुठलाती है, बल्कि स्वार्थी व्यक्तिवाद तथा परस्पर उदासीनता का अनैतिक चित्रण पेश करती है।   

4. FLN के डाटा-केंद्रित होने के चलते शिक्षकों का बहुत-सा वक़्त त्वरित रपटें बनाने और डाटा भरने में जा रहा है। इससे शिक्षकों को वैसे भी सीमित हुई पढ़ाई के लिए और कम वक़्त मिल रहा है। शिक्षकों को अप्रत्यक्ष रूप से यह जताया जा रहा है कि पढ़ाने से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण काम डाटा भरना और रपट तैयार करना है। लगातार होने वाले मूल्यांकन तथा परीक्षण के चलते नियमित रूप से व सघन पढ़ाई कराना बाधित हो रहा है। ऐसी पढ़ाई दुर्लभ होती जा रही है जो ग़ैर-अकादमिक आदेशों के पालन के दबाव से मुक्त हो। विद्यार्थियों को लगातार परीक्षण की नहीं, नियमित शिक्षण की ज़रूरत है।

5. बच्चों के विविध गति से सीखने की सहज परिघटना को अस्वीकार करके उनकी पढ़ाई को  एक तयशुदा व डाटा-निर्धारित पैमाने पर कसने से न सिर्फ़ बच्चों पर अनावश्यक दबाव बन    रहा है, बल्कि शिक्षक भी वृहत्तर तथा ईमानदाराना शिक्षण से दूर हो रहे हैं। शिक्षक उस        गहरे व व्यापक शिक्षण के लिए कम समय का निवेश कर पा रहे हैं जो सही मायनों में शिक्षा    को सार्थक बनाता है।  
    
6. FLN के चलते समय-सारणी, साप्ताहिक/ दैनिक विषयवस्तु, शिक्षण गतिविधियाँ, परीक्षण, सबका केंद्रीकरण हो रहा है। इन्हें स्कूलों व शिक्षकों के विवेक और निर्णयों के दायरों से बाहर करके शिक्षकों की बौद्धिक/ पेशागत स्वायत्तता तथा पहलक़दमी को ख़त्म किया जा रहा है। यह हमारी कमज़ोरी है कि ग़ुस्से से ज़्यादा हम शिक्षक ख़ुद को लाचार, विवेकहीन और एजेंसीहीन महसूस कर रहे हैं। महज़ आदेशपालन की यह स्थिति शिक्षकों के मनोबल के लिए हानिकारक है और हमारी पेशागत अस्मिता को कमज़ोर कर रही है। 

7. अब तक एक शिक्षिका प्रथम से पंचम कक्षा तक अपने विद्यार्थियों के नियमित, सघन संपर्क में रहती थी और सभी विषय पढ़ाती थी। FLN के तहत प्राथमिक कक्षाओं की शिक्षणशास्त्रीय रूप से स्थापित इस कामयाब व सुंदर कक्षा-शिक्षक व्यवस्था को भी ख़त्म किया जा रहा है। प्राथमिक कक्षाओं में शिक्षकों को विषयों तथा स्तरों (लेवल) तक सीमित करके उनकी कक्षाओं को ही नहीं तोड़ा जा रहा है, बल्कि ख़ुद शिक्षकों के उनकी कक्षाओं व विद्यार्थियों से संबंध विच्छेद किए जा रहे हैं। हमारे अधिकतर स्कूलों की परिस्थितियों के मद्देनज़र यह व्यवस्था न सिर्फ़ अव्यावहारिक है, बल्कि इससे शिक्षकों के अपने विद्यार्थियों व उनके अभिभावकों के साथ के रिश्ते बिखर रहे हैं। कहना न होगा कि प्राथमिक कक्षाओं में शिक्षक-कक्षा/ विद्यार्थियों के बीच नियमित व लंबा साथ आपसी रिश्तों, बच्चों के भावनात्मक स्थायित्व, बच्चों को क़रीब से जानने और उनके सर्वांगीण विकास के लिए कितना ज़रूरी है। हम जानना चाहेंगे कि शिक्षक-कक्षा के संबंधों को कमज़ोर करने वाला यह कदम किस शिक्षाशास्त्रीय सिद्धांत व शोध के आधार पर उठाया गया है। कुल मिलाकर, हमें लगता है कि FLN व इसके तहत अपनाए जा रहे दिशा-निर्देश बच्चों के समतामूलक शिक्षा के अधिकार, शिक्षकों के गहन शिक्षण के अधिकार व पेशागत गरिमा का हनन कर रहे हैं। नतीजतन, स्कूल बच्चों के सर्वांगीण विकास के प्रति समर्पित व जवाबदेह रहने वाले शिक्षा संस्थानों के बदले महज़ साक्षरता/ ट्यूशन केंद्रों में परिवर्तित हो रहे हैं। इस नाते कि हमारे स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकतर विद्यार्थी वंचित-शोषित वर्गों से आते हैं जिन्हें बराबरी पर टिकी तथा गहन पढ़ाई की और अधिक ज़रूरत है, FLN के ये प्रभाव विशेषकर चिंताजनक हैं।
हम आपसे माँग करते हैं कि FLN के उपरोक्त दुष्प्रभावों के मद्देनज़र इस नीति पर पुनर्विचार किया जाए, शिक्षाविदों तथा शिक्षकों के साथ विमर्श किया जाए और इस बाज़ारवादी नीति को हटाया जाए।

सधन्यवाद 
लोक शिक्षक मंच 

प्रतिलिपि 
महापौर, दिल्ली नगर निगम 
शिक्षा मंत्री, केंद्र सरकार 
दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग 
राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग 
GSTA 
MCTA

Wednesday, 1 November 2023

स्कूलों में करवा चौथ, EMC के बहाने छात्राओं का शोषण

पिछले कुछ वर्षों से हमारे सरकारी स्कूलों में करवा चौथ के अवसर पर एक बेहद चिंताजनक चलन देखने में आ रहा है। कई स्कूलों में न सिर्फ़ कुछ शिक्षिकाएँ इसके एक दिन पहले स्कूल के समय व प्रांगण में ही मेहँदी लगवाने का काम करती हैं, बल्कि इस काम के लिए अकसर वरिष्ठ कक्षाओं की छात्राओं को इस्तेमाल किया जाता है। एक चिंताजनक पहलू यह है कि स्कूलों में इस तरह के सांस्कृतिक आयोजन किशोर बच्चियों को इस व्रत और इससे जुड़े संस्कारों व मूल्यों के माध्यम से सामाजिक रूप से एक रूढ़ घेरे से निर्मित सामाजिक संरचना में ढालने का काम करते हैं। ऐसे आयोजन कराकर स्कूल छात्राओं को साज-सज्जा से इतर अपने जीवन को देखने की दृष्टि देने की ज़िम्मेदारी से पलायन कर रहा है। इन मौक़ों पर हमारे स्कूल एक तरह से मैरिज गार्डन की पूर्व तैयारियों में जुटे भवन में तब्दील हो जाते हैं। 

इस संदर्भ में कुछ आपत्तियाँ तो ऐसी हैं जो किसी बारीक तार्किकता या संवैधानिक दुहाई की भी मोहताज नहीं हैं। हम शिक्षक स्कूली समय में एक सार्वजनिक भूमिका में होते हैं। अगर इस दौरान हम अपने निजी विश्वासों, रस्म-रिवाजों को तरजीह देंगे तो उसका सीधा असर हमारे कामकाज पर पड़ेगा। ज़ाहिर है कि मेहँदी लगवाने में समय लगेगा और उस अवस्था में हम विद्यार्थियों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी पूरी तरह से नहीं निभा पाएँगे। आज वंचित-शोषित वर्गों के विद्यार्थियों की पाठ्यचर्या को बर्बाद और कमज़ोर करने की नीतिगत साज़िश स्कूलों में घटित हो रही है। जब हम शिक्षक अपनी छात्राओं से मेहँदी लगवाने को EMC के नाम पर उचित ठहराते हैं तब हम भी उनके ख़िलाफ़ इस साज़िश का हिस्सा बन जाते हैं। क्या कारण है कि कला या कौशल विकास के विषयों के अंतर्गत मेहँदी के डिज़ाइन बनाने का जो अभ्यास साल में किसी भी समय विद्यार्थी काग़ज़ों पर करते थे, आज वो उनसे करवा चौथ के अवसर पर ही सस्ते या मुफ़्त श्रमिकों के रूप में अपनी शिक्षिकाओं के हाथों पर कराया जा रहा है? इस बात को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता कि त्यौहार के सीज़न के संदर्भ में जिस काम का मोल बाज़ार में 500 रुपये तक है, उसके लिए हम अपनी छात्राओं को मात्र 100 रुपये में (प्रोत्साहित करके!) निपटा रहे हैं। एक तो उनकी पढ़ाई छीन ली, ख़ुद काम से बच गए और फिर छात्राओं के श्रम का निर्लज्ज दोहन भी किया। क्या हम इसीलिए अपने विद्यार्थियों को इस पुरातन संस्कृति में दीक्षित करते हैं क्योंकि इसमें गुरु की महिमा अपरंपार है? यह देखना-जानना रोचक होगा कि निजी स्कूलों में इस तरह का चलन किस हद तक है। और अगर नहीं है तो क्यों। अगर निजी विद्यालयों में पढ़ने वाले हमारे बच्चों के शिक्षक उनसे मुफ़्त या 100 रु में मेहंदी लगवाएं, कक्षा में शिक्षक पढ़ाने के बदले मेहंदी लगवाएं या विशेष छात्राओं को कक्षा से निकालकर उनसे मेहंदी लगवाएं तो अभिभावक के रूप में हमारी प्रतिक्रिया क्या होगी?

हम मध्य-वर्गीय शिक्षकों का यह मानना कि 'इन बच्चों की तो मेहंदी लगाकर प्रैक्टिस ही हो रही है', हमारे और विद्यार्थियों के बीच के वर्गीय अंतर को ही उजागर करता है। दरअसल हम उन्हें बाज़ार की उसी वास्तविकता का स्वाद चखा रहे हैं जिसमें उनके श्रम का शोषण होता/होना है। इस तरह से हम, करवा चौथ पर या EMC के नाम पर, छात्राओं को मेहँदी लगाने के काम में लगाकर उन्हें बाज़ार के 'आदर्श' बाशिंदे बनना सिखा रहे होते हैं। हालाँकि यह भी सच है कि ऐसे भी अनेक शिक्षक हैं जो इस चलन का समर्थन नहीं करते, लेकिन धर्म और संस्कृति के नारों के शोर में अक्सर वे अपने विवेक तथा विरोध की आवाज़ दबा लेते हैं।         

आज सार्वजनिक संस्थानों और उनमें कार्यरत कर्मियों की भूमिका को लेकर एक अनुचित धारणा पसरती जा रही है - निजी तथा सार्वजनिक जीवन के बीच लक्ष्मण-रेखा की मर्यादा का पालन दुर्लभ होता जा रहा है। ऐसा नहीं है कि पूर्व में हमारे सार्वजनिक संस्थान धर्मनिरपेक्षता जैसे मूल्यों का पूर्णतः पालन करते थे, मगर तब मर्यादाहीन आचरण न इतना व्यापक व निर्लज्ज था और न ही उसे संस्थानों के शीर्ष पदों से संरक्षण-प्रोत्साहन प्राप्त था। इस असंवैधानिक समझ को बढ़ावा देने में देश के राजनैतिक नेतृत्व का योगदान स्पष्ट है। योजनाओं के उद्घाटन से लेकर उनके नामकरण तथा चुनावी वायदों एवं सरकारी नीतियों तक में शीर्ष पदों पर नियुक्त राजनेता सार्वजनिक दायित्वों के निर्वाह में निजी आस्था का धड़ल्ले से घालमेल कर रहे हैं। ऐसा किसी मासूम आस्था के प्रभाव से नहीं, बल्कि चुनावी रणनीति और सत्ता प्राप्ति के लौकिक उद्देश्य से किया जा रहा है। अनेक विपक्षी दल भी इस ओछे खेल में शामिल हो गए हैं। अदालतें भी इस मामले में मौन रही हैं। 

करवा चौथ पर छात्राओं से मेहँदी लगवाने का यह उदाहरण साफ़ करता है कि मेहनतकश वर्गों के बच्चों के स्कूलों में संस्कृति व रस्म-रिवाज का उत्सव मनाने का एक परिणाम इन विद्यार्थियों के बुनियादी तथा शैक्षिक हक़ों की क़ुर्बानी है। आमजन को समझना होगा कि संस्कृति-आस्था को गौरवान्वित करने के नाम पर सार्वजनिक संस्थानों के चरित्र व कामकाज को संचालित करने का असर उनके अधिकारों व हितों के विपरीत होगा।