Wednesday, 1 November 2023

स्कूलों में करवा चौथ, EMC के बहाने छात्राओं का शोषण

पिछले कुछ वर्षों से हमारे सरकारी स्कूलों में करवा चौथ के अवसर पर एक बेहद चिंताजनक चलन देखने में आ रहा है। कई स्कूलों में न सिर्फ़ कुछ शिक्षिकाएँ इसके एक दिन पहले स्कूल के समय व प्रांगण में ही मेहँदी लगवाने का काम करती हैं, बल्कि इस काम के लिए अकसर वरिष्ठ कक्षाओं की छात्राओं को इस्तेमाल किया जाता है। एक चिंताजनक पहलू यह है कि स्कूलों में इस तरह के सांस्कृतिक आयोजन किशोर बच्चियों को इस व्रत और इससे जुड़े संस्कारों व मूल्यों के माध्यम से सामाजिक रूप से एक रूढ़ घेरे से निर्मित सामाजिक संरचना में ढालने का काम करते हैं। ऐसे आयोजन कराकर स्कूल छात्राओं को साज-सज्जा से इतर अपने जीवन को देखने की दृष्टि देने की ज़िम्मेदारी से पलायन कर रहा है। इन मौक़ों पर हमारे स्कूल एक तरह से मैरिज गार्डन की पूर्व तैयारियों में जुटे भवन में तब्दील हो जाते हैं। 

इस संदर्भ में कुछ आपत्तियाँ तो ऐसी हैं जो किसी बारीक तार्किकता या संवैधानिक दुहाई की भी मोहताज नहीं हैं। हम शिक्षक स्कूली समय में एक सार्वजनिक भूमिका में होते हैं। अगर इस दौरान हम अपने निजी विश्वासों, रस्म-रिवाजों को तरजीह देंगे तो उसका सीधा असर हमारे कामकाज पर पड़ेगा। ज़ाहिर है कि मेहँदी लगवाने में समय लगेगा और उस अवस्था में हम विद्यार्थियों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी पूरी तरह से नहीं निभा पाएँगे। आज वंचित-शोषित वर्गों के विद्यार्थियों की पाठ्यचर्या को बर्बाद और कमज़ोर करने की नीतिगत साज़िश स्कूलों में घटित हो रही है। जब हम शिक्षक अपनी छात्राओं से मेहँदी लगवाने को EMC के नाम पर उचित ठहराते हैं तब हम भी उनके ख़िलाफ़ इस साज़िश का हिस्सा बन जाते हैं। क्या कारण है कि कला या कौशल विकास के विषयों के अंतर्गत मेहँदी के डिज़ाइन बनाने का जो अभ्यास साल में किसी भी समय विद्यार्थी काग़ज़ों पर करते थे, आज वो उनसे करवा चौथ के अवसर पर ही सस्ते या मुफ़्त श्रमिकों के रूप में अपनी शिक्षिकाओं के हाथों पर कराया जा रहा है? इस बात को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता कि त्यौहार के सीज़न के संदर्भ में जिस काम का मोल बाज़ार में 500 रुपये तक है, उसके लिए हम अपनी छात्राओं को मात्र 100 रुपये में (प्रोत्साहित करके!) निपटा रहे हैं। एक तो उनकी पढ़ाई छीन ली, ख़ुद काम से बच गए और फिर छात्राओं के श्रम का निर्लज्ज दोहन भी किया। क्या हम इसीलिए अपने विद्यार्थियों को इस पुरातन संस्कृति में दीक्षित करते हैं क्योंकि इसमें गुरु की महिमा अपरंपार है? यह देखना-जानना रोचक होगा कि निजी स्कूलों में इस तरह का चलन किस हद तक है। और अगर नहीं है तो क्यों। अगर निजी विद्यालयों में पढ़ने वाले हमारे बच्चों के शिक्षक उनसे मुफ़्त या 100 रु में मेहंदी लगवाएं, कक्षा में शिक्षक पढ़ाने के बदले मेहंदी लगवाएं या विशेष छात्राओं को कक्षा से निकालकर उनसे मेहंदी लगवाएं तो अभिभावक के रूप में हमारी प्रतिक्रिया क्या होगी?

हम मध्य-वर्गीय शिक्षकों का यह मानना कि 'इन बच्चों की तो मेहंदी लगाकर प्रैक्टिस ही हो रही है', हमारे और विद्यार्थियों के बीच के वर्गीय अंतर को ही उजागर करता है। दरअसल हम उन्हें बाज़ार की उसी वास्तविकता का स्वाद चखा रहे हैं जिसमें उनके श्रम का शोषण होता/होना है। इस तरह से हम, करवा चौथ पर या EMC के नाम पर, छात्राओं को मेहँदी लगाने के काम में लगाकर उन्हें बाज़ार के 'आदर्श' बाशिंदे बनना सिखा रहे होते हैं। हालाँकि यह भी सच है कि ऐसे भी अनेक शिक्षक हैं जो इस चलन का समर्थन नहीं करते, लेकिन धर्म और संस्कृति के नारों के शोर में अक्सर वे अपने विवेक तथा विरोध की आवाज़ दबा लेते हैं।         

आज सार्वजनिक संस्थानों और उनमें कार्यरत कर्मियों की भूमिका को लेकर एक अनुचित धारणा पसरती जा रही है - निजी तथा सार्वजनिक जीवन के बीच लक्ष्मण-रेखा की मर्यादा का पालन दुर्लभ होता जा रहा है। ऐसा नहीं है कि पूर्व में हमारे सार्वजनिक संस्थान धर्मनिरपेक्षता जैसे मूल्यों का पूर्णतः पालन करते थे, मगर तब मर्यादाहीन आचरण न इतना व्यापक व निर्लज्ज था और न ही उसे संस्थानों के शीर्ष पदों से संरक्षण-प्रोत्साहन प्राप्त था। इस असंवैधानिक समझ को बढ़ावा देने में देश के राजनैतिक नेतृत्व का योगदान स्पष्ट है। योजनाओं के उद्घाटन से लेकर उनके नामकरण तथा चुनावी वायदों एवं सरकारी नीतियों तक में शीर्ष पदों पर नियुक्त राजनेता सार्वजनिक दायित्वों के निर्वाह में निजी आस्था का धड़ल्ले से घालमेल कर रहे हैं। ऐसा किसी मासूम आस्था के प्रभाव से नहीं, बल्कि चुनावी रणनीति और सत्ता प्राप्ति के लौकिक उद्देश्य से किया जा रहा है। अनेक विपक्षी दल भी इस ओछे खेल में शामिल हो गए हैं। अदालतें भी इस मामले में मौन रही हैं। 

करवा चौथ पर छात्राओं से मेहँदी लगवाने का यह उदाहरण साफ़ करता है कि मेहनतकश वर्गों के बच्चों के स्कूलों में संस्कृति व रस्म-रिवाज का उत्सव मनाने का एक परिणाम इन विद्यार्थियों के बुनियादी तथा शैक्षिक हक़ों की क़ुर्बानी है। आमजन को समझना होगा कि संस्कृति-आस्था को गौरवान्वित करने के नाम पर सार्वजनिक संस्थानों के चरित्र व कामकाज को संचालित करने का असर उनके अधिकारों व हितों के विपरीत होगा।


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