Tuesday, 26 January 2016

कविता: तुम्हें पता है

शिप्रा 
प्राथमिक शिक्षिका 

तुम्हें पता है
मैं जब छोटी थी तो मिथुन की तरह डांस करती थी
रामखिलावन अंकल की दुकान से पाँच किलो की थैली भरी सब्जी उठा लेती थी
और तुम्हें पता है क्या
ज्ञानी अंकल की दुकान का पूरा एक ग्लास कुल्फी फ़लूदा गड़प कर लेती थी
साथ में अब्दुल अंकल के एक पत्ता मूली के पकोड़े भी
वो भी हरी मिर्च और हरी चटनी के साथ
और क्या तुम जानते हो
मैं एक ऐसे कोने में रहती थी
जहां मंदिर मस्जिद गुरद्वारा चर्च सब सौ मीटर की दूरी पर ही साथ साथ बने थे
और मजे की बात आज भी वहीं हैं
एक और मजे की बात
वो सब दुकानें भी वहीं है
और मैं नहीं तो क्या
कोई और बचपन उन सब लज़ीज़ लाजवाब चीजों का लुत्फ उठा रहा है
उसी मासूमियत के साथ
मेरे इलाक़े में वही प्यार है
मेरे इलाक़े में वही अमन है

इसे अपनी राजनीति का आखाडा मत बनाओ । 

1 comment:

firoz said...

I found the poem moving owing to the expression of a roomani innocence but also find it a little naive politically. It boosts our morale as teachers to read our colleagues'literary expressions, specially when the subject matter is children. Nevertheless, it is always a challenge and dilemma to negotiate between the needs of emotional security (which demands a belief in the fairness and innocence of the world) on the one hand and political maturity of children on the other, particularly in their younger years when they are still in the primary classes.