Monday, 18 July 2016

दिल्ली सरकार द्वारा पिछले एक साल में स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में निर्णयों/नीतियों के संदर्भ में प्रतिक्रिया

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प्रति                                               
शिक्षा मंत्री 
दिल्ली सरकार 

विषय: दिल्ली सरकार द्वारा पिछले एक साल में  स्कूली शिक्षा के क्षेत्र में निर्णयों/नीतियों के संदर्भ में प्रतिक्रिया 

महोदय,

लोक शिक्षक मंच शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले लोगों का संगठन है जिसमें शिक्षक, विद्यार्थी, शोधार्थी आदि शामिल हैं। हम दिल्ली सरकार द्वारा पिछले एक वर्ष में स्कूली शिक्षा के संदर्भ में लिए गए कुछ महत्वपूर्ण फैसलों पर अपनी राय से आपको अवगत कराना चाहते हैं। इस राय में जहाँ हम कुछ क़दमों का स्वागत करते हैं, वहीं दूसरी ओर हम कुछ अन्य निर्णयों पर अपना विरोध दर्ज कराकर उन्हें वापस लेने की माँग भी करते हैं। 

इस संदर्भ में हम मुख्यतः निम्नलिखित पहलकदमियों पर आपको बधाई देते हैं –

1.      शिक्षा के लिए बजट में वृद्धि करना एक जनहितकारी निर्णय है। इसे जारी रखना चाहिए। 
2.      शिक्षकों को जनगणना की ड्यूटी रूपी ग़ैर-शैक्षिक ज़िम्मेदारी से मुक्त करना बच्चों की शिक्षा के हित में एक अच्छा कदम था। हम आशा करते हैं कि सरकार इस निर्णय को नीतिगत स्तर पर अमलीजामा पहनाएगी। 
3.      स्कूलों में पहले से अधिक संख्या में सफाई कर्मचारियों की तैनाती से विद्यार्थियों को बेहतर माहौल मिल रहा है। इससे स्कूलों के प्रति अभिभावकों व समुदाय में भी विश्वास कायम होगा। 
4.      स्कूलों में अतिरिक्त प्रशासनिक कामों के लिए प्रधानाचार्यों की सहायता के लिए 'एस्टेट मैनेजर' का पद बनाने से निश्चित ही प्रशासन पहले से सुलभ होगा, जिसका सीधा लाभ शिक्षकों व विद्यार्थियों को मिलने की सम्भावना है। 
5.      गर्मी की छुट्टियों में स्कूलों में ग़ैर-अकादमिक गतिविधियों के लिए 'समर कैंप' लगाना एक अच्छा फैसला साबित हो सकता हैI इससे विद्यार्थियों को उनके बचपन के हक़ों से जुड़े ज़रूरी अवसर मिलने का एक रास्ता खुला है।
6.      ये उम्मीद की जा सकती है कि निजी स्कूलों की बाज़ारवादी व मुनाफाखोर प्रवृत्तियों के खिलाफ सरकार द्वारा क़ानून व न्यायालय के आदेशों के तहत सख्त रवैये के प्रदर्शन से इनपर कुछ अंकुश लगा होगा और अभिभावकों को शोषण से कुछ राहत मिली होगी। 

उपरोक्त क़दमों का स्वागत करते हुए हम अपनी ज़िम्मेदारी के तहत आपकी सरकार द्वारा निम्नलिखित फैसलों पर अपनी आपत्ति व विरोध दर्ज करना चाहते हैं –
   
1.      एस्टेट मैनेजर के पद को रिटायर्ड व्यक्ति के लिए रखना व सफाई कर्मचारियों को ठेकाकरण पर 'आउटसोर्स' करना नाइंसाफी है। क्योंकि ये काम नियमित स्वरूप के हैं इसलिए इनकी तैनाती नियमित आधार पर ही होनी चाहिए। लगातार होते प्रदर्शनों व वायदों के बावजूद शिक्षकों के पदों को नियमित आधार पर भरा नहीं गया है| गेस्ट और कॉन्ट्रैक्ट कर्मचारियों पर खड़ी हुई यह व्यवस्था अपने मूल स्वरूप में शोषणकारी हैI
2.      सरकार का वह विधेयक अनुचित है जिसमें निजी स्कूलों के शिक्षकों के वेतन को फीस से जोड़ने का प्रावधान किया गया है। यह न सिर्फ संविधान द्वारा प्रदत्त बराबरी के उसूल का निषेध है, बल्कि शिक्षकों  के हक़ों का उल्लंघन भी है जो कि शिक्षण के बारे में एक हतोत्साहित करने वाला, अपमानजनक संदेश देता है। इससे घटिया स्तर के निजी स्कूलों की संख्या में बढ़ोतरी के साथ शिक्षकों का शोषण वैधता प्राप्त करेगा 
3.      हम नो-डिटेंशन नीति को हटाने के विधेयक का विरोध करते हैं। एक तो यह निर्णय बिना किसी गहन शोध-अध्ययन के, सतही स्तर के प्रचारी उन्माद के प्रभाव में लिया गया है। दूसरी तरफ, यह शिक्षा को परीक्षा व परिणामों का पर्याय मानने की ग़लत समझ पर आधारित है। यह डर को शिक्षा के केंद्र में स्थापित करके, शिक्षा के अधिकार पर भी आघात करता है। सरकार को इसे वापस लेना चाहिए और उन आर्थिक-सामाजिक कारणों को दूर करने में अपनी ऊर्जा लगानी चाहिए जो सभी बच्चों को समान शिक्षा व सीखने के अवसरों से वंचित करते हैं। 
4.      सरकार द्वारा इस बीच रेडियो-अख़बारों में जो इश्तेहार जारी किये गए हैं, उनमें 'सरकारी स्कूलों को प्राइवेट स्कूलों से भी बेहतर' बनाने के इरादों के कथन शामिल हैं। इस संदर्भ में शब्दों के ऐसे चयन पर हम आपके समक्ष अपनी घोर आपत्ति दर्ज करना चाहेंगे। निजी स्कूलों का पैमाना भले ही लोकलुभावन हो, मगर यह सतही है और समाज में शिक्षा की भ्रांतिपूर्ण समझ को बढ़ावा देता है। सरकार द्वारा खुद यह संदेश देना कि सरकारी स्कूल व्यवस्था निजी स्कूलों के सामने दोयम दर्जे की है, अनुचित व ग़ैर-ज़िम्मेदाराना है। 
5.      स्कूलों में, खासतौर से कक्षाओं में भी, CCTV कैमरे लगाना न केवल स्कूलों के अकादमिक, लोकतान्त्रिक माहौल के विरुद्ध जाता है, बल्कि यह शिक्षकों का अपमान भी है। शिक्षण व स्कूलों को यांत्रिक निगरानी का निशाना बनाकर हम लोकतंत्र को भी कमज़ोर कर देंगे। स्कूलों-शिक्षकों को जवाबदेह होना चाहिए, पर इसके लिए CCTV से उनके कर्म, व्यवहार पर नज़र रखना बेहद आपत्तिजनक है। यह शिक्षा पर राज्य व यांत्रीकरण के बढ़ते अंकुश को दर्शाता हैI कक्षाओं, मैदानों में CCTV लगाने से छात्र-छात्राओं की निजता, सहजता व स्वतंत्रता का अतिक्रमण होता है। इन्हें व ऐसे यांत्रिक निगरानी के उपकरणों को हटाकर हमें नियमित और अकादमिक रूप से बेहतर-प्रगतिशील निरीक्षणों की व्यवस्था करने की ज़रूरत हैI  
6.       स्कूलों में कौशल विकास के कोर्सों (NSQF - The National Skills Qualifications Framework) को बढ़ावा देना स्कूलों के अकादमिक चरित्र व विद्यार्थियों के हक़ों के विपरीत है। सरकार को अपने ITI Polytechnic संस्थानों की संख्या बढ़ाने व उन्हें समृद्ध करने की ज़रूरत है। दूसरी ओर, जब सिर्फ सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों पर कौशल विकास के नाम पर कोर्स थोपे जाते हैं तो वस्तुतः उनकी उच्च-शिक्षा का रास्ता बंद हो जाता हैI यह पहले से ही वंचित वर्गों से आने वाले विद्यार्थियों के साथ सरासर धोखा और अन्याय है। वर्ग आधारित भेदभाव के अलावा इनमें लैंगिक स्तर पर रूढ़ीवादी विभाजन होने की भी प्रबल सम्भावना होती है। हमारा मानना है कि सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था को समाज में विद्यमान असमानता को पुनरुत्पादित करने या विद्यार्थियों में महज़ बाज़ार के अनुकूल कौशल विकसित करने का स्थल नहीं होना चाहिए बल्कि उसे नकारने चुनौती देने का साझा स्थल होना चाहिए। कौशल-विकास के कोर्स थोप कर विद्यार्थियों से उनकी पसंद के विषयों के विकल्प छीन लिए जाते हैं और फिर वो अक़्सर विश्वविद्यालयों आदि में प्रवेश लेने की विषय संबंधी न्यूनतम शर्तों को भी पूरा नहीं कर पाते हैं
7.      पिछले एक वर्ष में शिक्षा निदेशालय में न सिर्फ पुस्तक-सामग्री, पाठ्यक्रम व परीक्षा के स्तर पर बल्कि नीति-निर्धारण व प्रशासन के स्तर पर भी ग़ैर-सरकारी, निजी संस्थाओं (NGO) का हस्तक्षेप बढ़ाया गया है। इन संस्थाओं को सार्वजनिक क्षेत्र में ग़ैर-जवाबदेह शक्ति देकर सरकार एक गम्भीर ग़लती कर रही है। इन्हें दखल देकर सरकार यह भूल रही है कि इनके समर्थन के तार उस सोच से जुड़े हैं जो शिक्षा को सार्वजनिक हित का नहीं बल्कि निजी निवेश और बाज़ार का क्षेत्र मानती है। इसी कारण शिक्षा की इनकी समझ भी कमज़ोर व विकृत है। इनके बढ़ते हस्तक्षेप से स्कूलों के माहौल को शिक्षा के वृहत सरोकारों के बदले कॉरपोरेट कम्पनियों के प्रबंधन की तर्ज पर ढालने की कोशिश हो रही है। इस प्रक्रिया में SCERT से लेकर शिक्षा निदेशालय के कर्मियों व प्रधानाचार्यों से शिक्षकों तक के मनोबल पर कुठाराघात हो रहा है। इन निजी संस्थाओं को सरकारी स्कूली तंत्र में जगह देने से सार्वजनिक संस्थान और कमज़ोर होंगेI उनका चरित्र, जनता के प्रति लोकतान्त्रिक व जवाबदेही के बदले, बाज़ारवादी, बहिष्करणवादी और छितला बनेगा। हम माँग करते हैं कि स्कूलों, शिक्षा निदेशालय व शिक्षा का एनजीओकरण बंद किया जाये और सरकार जनकोष सार्वजनिक संस्थाओं (SCERT, DIET, विश्वविद्यालय आदि) को मज़बूत करने में लगाए।
8.      उपरोक्त क्रम में यह देखने में आया है कि विभिन्न संस्थायें स्कूलों के विद्यार्थियों की निजी जानकारियाँ बेरोकटोक हासिल कर रही हैं। कहीं स्कूलों में ही तो कहीं स्कूलों के बाहर मगर उनपर दबाव डालकर या फुसलाकर विद्यार्थियों के फॉर्म भरवाए जाते हैं जिनमें उन्हें अनिवार्य रूप से अपने फोन नंबर, आधार नंबर के अलावा अन्य निजी जानकारियाँ देनी पड़ती हैं। अगर छात्राओं को निजी संस्थानों से फोन आते हैं तो सवाल यह है कि आखिर उनके पास छात्राओं से जुड़ी सारी जानकारी कैसे पहुँच जाती है। हम माँग करते हैं कि जबकि आज निजी डाटा का व्यापार होता है और यह मुद्दा सीधे उन बच्चों की निजता से जुड़ा है जिनका डाटा स्कूल व सरकार के पास सुरक्षित रहना चाहिए, अतः इस संदर्भ में स्कूलों में तमाम तरह की निजी संस्थाओं के प्रवेश और उन्हें विद्यार्थियों का डाटा उपलब्ध कराने पर पूर्णतः रोक लगनी चाहिए। आखिर सरकार व उसके स्कूल बच्चों के तमाम तरह के हक़ों के संरक्षक की भूमिका में हैं, न कि निजी संस्थाओं को उनका डाटा उपलब्ध कराने वाले बिचौलिए के रूप में। बल्कि इस विषय में तो बच्चों से लेकर अभिभावकों तक को उनके हक़ों के प्रति जागरूक करने की ज़रूरत है। 
9.      दिल्ली सरकार के स्कूलों में नए सत्र के अप्रैल-मई महीनों में कई विषयों में ‘प्रगति’ किताबें पढ़ाई गयीं| ये किताबें विषय का शिथिलीकरण करके शिक्षा को केवल लिखने-पने के आधारभूत कौशल तक सीमित कर देती हैं| हर कक्षा में कुछ ऐसे बच्चे हो सकते हैं जिनके कक्षानुसार कौशल नहीं होंगे लेकिन उन्हें अतिरिक्त मदद देने के बजाय पूरी पाठ्यचर्या का स्तर नीचे करने के दूरगामी परिणाम घातक होंगे|
10. दिल्ली सरकार के स्कूलों में मंत्रीगणों अथवा शिक्षा अधिकारियों द्वारा निरीक्षण बढ़ गए हैं| ये निरीक्षण ‘सरकारी शिक्षकों के खिलाफ’ पूर्वाग्रहों पर आधारित नहीं होने चाहिए| साथ ही ये शिक्षा व स्कूलों के प्रति एक अकादमिक समझ पर आधारित होने चाहिएI हर कक्षा एक इकाई है जिसमें छात्रों-शिक्षक की स्वायत्तता का सम्मान होना चाहिए|
11. बारहवीं के बाद कुछ चयनित विद्यार्थियों की उच्च-शिक्षा की कोचिंग प्रायोजित कराने के कदम का हम विरोध करते हैं। इससे कोचिंग का बाजार व उसके केंद्र ही प्रतिष्ठित व समृद्ध होंगे। इसके बदले सरकार को अपने सभी स्कूलों में विज्ञान सहित सभी विषयों की पढ़ाई के पुख्ता इंतेज़ाम करने चाहिए| इसी तरह उच्च-शिक्षा के लिए सरकार द्वारा बारवीं पास छात्र-छात्राओं को ऋण उपलब्ध करवाने के निर्णय को भी हम भ्रामक मानते हुए इसका विरोध करते हैं। सरकार को अपने मेडिकल व इंजीनयरिंग संस्थानों की संख्या बढ़ाने, उनमें सीटें बढ़ाने व उच्च-शिक्षा को सर्वसुलभ करने की नीति अपनानी चाहिए। दुनिया-भर में ऋणग्रस्त छात्र अपनी सरकारों से यह सवाल पूछ रहे हैं कि क्यों उनकी सरकारें सरकारी कॉलेजों में सबके लिए उच्च शिक्षा के अवसर नहीं प्रदान करवा पा रही हैं। क्यों उन्हें क़र्ज़ के चक्रव्यूह में धकेला जा रहा है? क्यों साधारण विद्यार्थियों को मुनाफाखोरों का आजीवन गुलाम बनाया जा रहा है? एक ओर ऋण आधारित शिक्षा की नीति शिक्षा के सार्वजनिक, साझे स्वरूप के लिए खतरनाक साबित होगी, दूसरी ओर NGO को स्कूलों में घुसाने की तरह सरकार द्वारा प्रायोजित ऋण व कोचिंग से भी जनता का पैसा लोक कल्याण के नाम पर निजी हाथों में जाता रहेगा। ये दोनों ही परिणाम हमारे लोकतंत्र के लिए खतरनाक साबित होंगे|
12. सरकारी स्कूलों के मैदानों को छुट्टी के दिनों में खेलों व अन्य गतिविधियों के लिए व्यावसायिक तर्ज पर इस्तेमाल करने देने की नीति का भी हम विरोध करते हैं। व्यावसायिक तरीके से स्कूलों के मैदान उपलब्ध कराने से स्कूलों के सार्वजनिक चरित्र पर चोट पहुँचेगी।
13. निदेशालय द्वारा हाल ही में जारी ‘चुनौती-2018’ नामक दस्तावेज़ का कार्यक्रम दार्शनिक व शिक्षाशास्त्रीय दृष्टि से अस्वीकार्य है क्योंकि यह प्रत्यक्षतः न केवल बच्चों को वर्गीकृत व चिन्हित करने पर आधारित है बल्कि शिक्षा व स्कूलों के वास्तविक व वृहत उद्देश्यों को विकृत भी करता हैI बच्चों को ‘कमज़ोर’ दर्ज करके उन्हें अपने साथियों से अलग करके अलग-अलग कक्षाओं में बैठाना उनकी पहचान को सीमित करने के समान है और बच्चों द्वारा एक-दूसरे से सीखने की स्वाभाविक प्रक्रिया को नकारता हैI इस कार्यक्रम को रद्द किया जाना चाहिएI  

हम उम्मीद करते हैं कि सरकार उपरोक्त आपत्तियों/विरोध के सन्दर्भ में इन फैसलों पर पुनर्विचार करेगीI

सधन्यवाद


सदस्य, संयोजक समिति       सदस्य, संयोजक समिति        
लोक शिक्षक मंच                      लोक शिक्षक मंच



प्रतिलिपि :
1.      मुख्यमंत्री, दिल्ली सरकार

2.      राजकीय विद्यालय शिक्षक संघ (GSTA)

Saturday, 16 July 2016

एक शिक्षिका का विरोध पत्र

यह पत्र दिल्ली सरकार के स्कूल में पढ़ाने वाली एक शिक्षिका ने अपनी प्रधानाचार्या को ‘प्रगति’ किताबों को पाठ्यक्रम में शामिल करने के विरोध में लिखा है, साथी ने हमसे यह अनुरोध किया है कि उनका नाम इसके साथ न दिया जाए, इसलिए इस पत्र  के साथ इनका नाम नहीं दिया जा रहा है ........
सम्पादक 

आदरणीय प्रधानाचार्या,

हमारे और दिल्ली सरकार के सभी स्कूलों में 1 अप्रैल 2016 से विद्यार्थियों को नियमित पाठ्यचर्या नहीं पढ़ाई जा रही है बल्कि ‘प्रगति’ किताबें पढ़ाई जा रही हैं| कहा जा रहा है कि सरकारी स्कूलों के बच्चों का शिक्षण स्तर इतना कम है कि वे अपनी नियमित पाठ्यचर्या को पढ़ने-समझने और अपनी समझ को लिखकर व्यक्त करने में काबिल नहीं है| इसलिए पहले इनके मौलिक कौशल/ इनका base मज़बूत करा जाएगा|  

मैं, कक्षा 9 में सामाजिक विज्ञान पढ़ाने के दौरान यह समझौता करने में असमर्थ हूँ| इस अवधारणा के खिलाफ एक शिक्षिका की कुछ आपत्तियां-

कक्षा 9 में इतिहास का पहला पाठ है ‘फ्रांसीसी क्रान्ति’| 14-15 वर्ष की कौन-सी विद्यार्थी यह समझने के लिए सक्षम नहीं है कि आज से करीब 200 साल पहले दुनिया के एक देश फ्रांस में ब्रेड इतनी महँगी हो गयी कि उसके लिए दंगे होने लगे| फिर भी राजदरबार के ऐशो-आराम कम नहीं हुए| लोगों का गुस्सा इतना बढ़ गया कि वे सड़कों पर उतर आये| उन्होंने राजा और कुलीनों के खिलाफ बगावत कर दी| किसी को पता नहीं था यह बगावत कहाँ जाएगी लेकिन 2 साल में फ्रांस के लोगों ने राजा को हटाकर स्वयं को गणतंत्र बना लिया और एक ऐसा संविधान लिखा जिसके घोषणापत्र का पहला वाक्य था “आदमी स्वतंत्र पैदा होते हैं, स्वतन्त्र रहते हैं और उनके अधिकार समान होते हैं|”

हो सकता है विद्यार्थियों को इसे समझने और जांचने में कई घंटे लग जाएँ क्योंकि सवालों का सैलाब आने की पूरी संभावना है| लेकिन धीरे-धीरे उन्हें फ़्रांस के लोगों की परेशानियां समझ आने लगती हैं और उनकी क्रांति में विद्यार्थियों की रूचि बढ़ने लगती है|

कक्षा 9 की NCERT को पढ़ना और समझना विद्यार्थियों के लिए कठिन है लेकिन 3 हफ्ते की कोशिशों के बाद वो स्वयं पढ़कर ये बताने लगते हैं कि फ्रांस में आदमियों के साथ-साथ औरतें ने भी तो क्रान्ति की थी तो उन्हें समान अधिकार क्यों नहीं मिले|

शायद 30 में से 5 बच्चे होंगे जो 3 हफ्ते या 3 महीने बाद भी NCERT की किताब स्वयं ना पढ़ पाएं, एक भी उत्तर ना लिख पाएं लेकिन वो उस इतिहास का हिस्सा तो बन रहे हैं जिसने दुनिया को बदल कर रख दिया| और इसके लिए वो कतई नाकाबिल नहीं हैं| ना जाने कब उन्हें अपनी दुनिया बदलते समय इस इतिहास की ज़रूरत पड़ जाए|

आठवी कक्षा में औपनिवेशिक भारत का इतिहास है| हो सकता है ‘औपनिवेशिक’ शब्द को दिमाग में बैठाने में विद्यार्थियों को कुछ महीने या पूरा साल लग जाए लेकिन उन्हें यह समझने में बिल्कुल समय नहीं लगता कि “कोई भी सरकार जंगलवासियों को यह कैसे कह सकती है कि वो जंगल में घुसकर लकड़ियाँ नहीं काट सकते? जंगलों के लिए अंग्रेज़ अफसर अजनबी थे आदिवासी नहीं|” आधा पाठ होने से पहले ही वन-कानूनों को लेकर उनका शक और उनकी नापसंदगी उनकी बातों में झलकने लगती हैं|

हो सकता है कि कुछ बच्चे यह सब लिख ना पाएं लेकिन महत्वपूर्ण सवाल यह है कि वो शिक्षित हो रहे हैं या नहीं| और बाकी 23 बच्चे जो कक्षानुसार पढ़-सीख रहे हैं इस बात से बेपरवाह कि वो कक्षा 8 में फेल नहीं होंगे, वो क्यों पढ़ रहे हैं? कहीं इसलिए तो नहीं कि बच्चों को कुछ भी सीखने में मज़ा आता ही है और खुद को सीखते देख सशक्त महसूस करना अच्छा लगता ही है|

कक्षा 8 की प्रगति की किताबें जिस किसी ने भी बनाई है उनसे विनम्र अनुरोध है कि इतिहास को ‘अशोक के ह्रदय परिवर्तन’ तक सीमित ना करें| (प्रगति की किताब में अध्याय-4) कहानियाँ तो इतिहास में झाँकने की खिड़की/दरवाज़े होती हैं, मंजिलें नहीं|

अगर फिर भी हम सबको लगता है कि विद्यार्थी इस अकादमिक शिक्षा के लिए काबिल नहीं है तो शिक्षा की परिभाषा पर पुनर्विचार कर सकते हैं क्योंकि शिक्षा के उद्देश्य इतने दोयम नहीं हो सकते कि आधे-आधे पन्नों की कहानियों तक सीमित हो जाएं|

ये शिकायत प्रगति किताबों से नहीं है| वो तो विद्यार्थी कर ही लेंगे बल्कि इन किताबों को शिक्षा मान लेने से है| यह विरोध उस अवधारणा के खिलाफ है जिसके तहत ये किताबें लायी गयी हैं और लायी जाती रहेंगी|      

हाँ, शिक्षक होने के तौर पर हममें बहुत कमियाँ हैं, हमारी किताबों में भी बहुत कमियाँ हैं जिन्हें दूर करना ज़रूरी है लेकिन असली समस्याओं पर तो अभी बात भी शुरू नहीं हुई है| अगर ngos के पीछे-पीछे चलेंगे तो समस्या की जड़ में ना जाकर उसके चारों तरफ गोल-गोल घूमते रह जाएँगे| हम दुनिया के पहले देश नहीं हैं जहाँ सरकारी स्कूलों को और इनमें पढ़ने वाले बच्चों को नाकाबिल घोषित किया जा रहा है| हमें इसकी राजनीति समझनी होगी|

आज जो बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे हैं वो गरीब-पिछड़ी जातीय सन्दर्भों से आते हैं| भले ही बड़ी संख्या में स्कूलों (औपचारिक शिक्षा तंत्र) में आये इन्हें कुछ दशक ही हुए हों लेकिन ये बड़ी तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं| इनकी महत्वकांशाएं उड़ान भर रही हैं|

क्षमता तो सरकारों को साबित करनी होंगी| अगर सरकारों में क्षमता हो तो इस शिक्षित सैलाब के लिए पर्याप्त कॉलेज, नियमित नौकरियाँ और न्यायपूर्ण माहौल बनाकर दिखाएं|

एक बार फिर मैं शिक्षा को हल्का करने के खिलाफ अपना विरोध दर्ज करती हूँ और प्रगति किताबें पढ़ाने से मना करती हूँ|


Tuesday, 12 July 2016

लेख : वर्दी, पहनावा और स्कूल: सामयिक घटनाओं के संदर्भ में कुछ विचार




  फ़िरोज़ 

13 जून, 2016 के द हिन्दू अख़बार में यह ख़बर छपी कि यूनाइटेड किंगडम के 80 स्कूलों ने वर्दी को विद्यार्थियों की लैंगिक पहचान से मुक्त कर दिया है। इसका मतलब यह हुआ कि उन स्कूलों में छात्र स्कर्ट पहनने के लिए और छात्रायें पैंट पहनने के लिए स्वतंत्र होंगी। इसे ब्रिटेन के उस राज्य-समर्थित अभियान का हिस्सा बताया गया जिसके तहत शैक्षिक संस्थानों को 'ट्रांस' (प्रकट शारीरिक लिंग से इतर) पहचान वाले बच्चों के प्रति और अधिक संवेदनशील बनाना है। इस सिलसिले में स्कूलों ने या तो वर्दी के नियमों से लड़का/लड़की का उल्लेख ही हटा दिया है या फिर उन्हें यह कहते हुए पुनर्लिखित किया है कि 5 साल तक के विद्यार्थी भी ऐसी कोई भी वर्दी पहन सकते हैं जिसमें उन्हें आराम मिले। एक राजकीय प्राथमिक विद्यालय ने अपनी नीति में यह लिखा कि उसका उद्देश्य हर बच्चे में अपने हिसाब से अपनी लैंगिक पहचान व व्यक्तित्व को अभिव्यक्त करने के हक़ को प्रोत्साहित करना है। उस स्कूल की नीति के शब्दों में, जबकि सब विद्यार्थियों से यह अपेक्षित है कि वो वर्दी में स्कूल आयेंगे, इस संदर्भ में लड़कों और लड़कियों के लिए नियम एक समान हैं और वो किसी ख़ास पहनावे को धारण करने के लिए बाध्य नहीं हैं। अख़बार में यह भी छपा कि कुछ ईसाई संस्थाओं ने इस फ़ैसले के बारे में यह कहते हुए चिंता जताई है कि इससे छोटे बच्चे भ्रमित हो सकते हैं और बड़ी उम्र के विद्यार्थी ठीक उस पड़ाव पर अपनी पहचान को लेकर सवाल खड़े कर सकते हैं जब उन्हें सबसे ज़्यादा भरोसे की ज़रूरत होती है। यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि इस वक़्त वहाँ कंज़रवेटिव पार्टी की सरकार है जिसे उसके नाम के अनुरूप तुलनात्मक रूप से अनुदार या परम्परावादी समझा जाता है। (हालाँकि, प्रधानमंत्री कैमरून द्वारा लेबर सांसद जो कॉक्स को - जिनकी एक अति-राष्ट्रवादी ने ब्रेक्सिट जनमत-संग्रह के प्रचार के माहौल में सरे-आम हत्या कर दी - दी गई श्रद्धाँजलि में 'प्रगतिशील' कहकर उनकी तारीफ़ करना यह बताता है कि आज यह मूल्य वहाँ की राजनीति में कम-से-कम मुख्य दलों के बीच एक मौखिक स्वीकृति तो अर्जित कर चुका है।)
 
16 जून को इसी अख़बार में दिल्ली पब्लिक स्कूल (DPS), श्रीनगर की ख़बर छपी जिसके अनुसार स्कूल के विद्यार्थियों ने स्कूल प्रशासन द्वारा एक शिक्षिका को अबाया पहनने पर तथाकथित रूप से नौकरी से निकाल देने के निर्णय के ख़िलाफ़ दिनभर प्रदर्शन किया। अख़बार में छपी फ़ोटो में बड़ी संख्या में अलग-अलग रंगों की वर्दी पहने विद्यार्थियों को एक प्राँगण में बैठे देखा जा सकता है। अबाया कुछ मुसलमान महिलाओं द्वारा पहना जाने वाला एक ऐसा ढीला-ढाला परिधान है जिसमें वो गले से पैरों के नीचे के हिस्से तक ढँक जाती हैं। इसे ज़्यादातर धार्मिक रूप से रूढ़िवादी सोच रखने वाली महिलायें पहनती हैं और रूढ़िवादी परिवारों की महिलाओं पर इसे पहनने का ज़बरदस्त दबाव भी होता है। साथ ही, ख़ासतौर से जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में, यह याद रखना ज़रूरी है कि पिछले कुछ समय से इसे तुलनात्मक रूप से मध्य-वर्गीय, पढ़ी-लिखी व आधुनिक पेशों में शामिल मुसलमान महिलाओं ने बाक़ी समाज से अपनी एक अलग (धार्मिक-सांस्कृतिक) पहचान स्थापित करने के प्रतिक्रियात्मक संदेश की तरह भी इस्तेमाल किया है। अबाया पहनना ऐसी महिलाओं के लिए एक सचेत राजनैतिक निर्णय भी है। तथाकथित तौर से, उक्त शिक्षिका को कहा गया कि वो अपनी नौकरी और पहनावे में से एक को चुन लें। कई शिक्षकों ने अख़बार को बताया कि स्कूल द्वारा लम्बे समय से अबाया पहनने को हतोत्साहित किया जा रहा था। राज्य शिक्षा मंत्री ने इसे एक गम्भीर मुद्दा बताते हुए कहा कि उनका राज्य फ़्राँस नहीं है जहाँ सरकार या कोई संस्थान यह तय करता है कि लोग क्या पहनें और यहाँ लोगों को अपने निजी जीवन के बारे में फ़ैसले लेने की आज़ादी है। वहीं एक निर्दलीय विधायक ने इसे सांस्कृतिक हमला मानते हुए मुसलमान महिलाओं के धार्मिक अधिकारों का अतिक्रमण बताया। इसी तरह एक अलगाववादी नेता ने स्कूल से बिना शर्त माफ़ी माँगने की माँग की और जम्मू-कश्मीर के मुसलमान-बहुल होने को रेखांकित करते हुए कहा कि इस्लामी परिधान पर आपत्ति करने के गम्भीर परिणाम हो सकते हैं। बाद की ख़बरों में बताया गया कि स्कूल प्रशासन ने लिखित में खेद प्रकट किया है लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि उक्त शिक्षिका को वापस नौकरी पर लिया गया या नहीं। 

जहाँ कुछ महत्वपूर्ण तथ्य इस प्रकरण के आंतरिक व प्रत्यक्ष घटनाक्रम से जुड़े हैं, वहीं कुछ तथ्य व तर्क ऐसे हैं जो इसे व्यक्ति-समाज-राज्य के बीच के संबंधों के एक व्यापक अंतर्द्वंद्व के एक उदाहरण के रूप में प्रकट करते हैं। पहले तथ्यों में विद्यार्थियों का स्कूल प्रशासन के समक्ष अपने स्कूल की एक शिक्षिका के पक्ष में खड़ा होना शामिल है। इसमें उनके लगाव, इंसाफ़ की नैसर्गिक भावना और प्रशासन के प्रति पुराने प्रतिरोध का योगदान भी हो सकता है। यह बात भी विचारणीय है कि ऐसे में जबकि शिक्षकों के हक़ों का उल्लंघन हो रहा था, वे ख़ुद विरोध करने की स्थिति में नहीं आए। इसमें प्रशासन के निजी स्वरूप और रोज़गार की अनिश्चितता के अलावा उनके अंसगठित होने की भी भूमिका हो सकती है। इसी तरह, विभिन्न राजनैतिक व्यक्तित्वों के बयानों से यह समझने में मदद मिलती है कि वो परिघटना को कैसे परिभाषित कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, ज़ाहिर है कि अगर आप इसे राज्य के मुसलमान बहुल होने के आधार पर व्याख्यायित करेंगे, तो यह सार्वजनिक नागरिक अधिकार की श्रेणी में नहीं आएगा तथा यह संदेश देगा कि फिर ऐसे प्रतिबंध वहाँ लगाना जायज़ है जहाँ मुसलमान अल्पसंख्यक हैं! इसी तरह इसे केवल मुसलमान महिलाओं का धार्मिक मामला बनाकर सीमित करना भी उन लोगों के साथ न्याय नहीं कर होगा जो किसी अन्य कारण से उक्त (या कोई अन्य) लिबास पहनना चाहते हैं। असल में इसे एक मानवाधिकार के तौर पर देखना ही सबसे सटीक व लाभप्रद है। फिर यह सब लोगों के सभी प्रकार के निजी निर्णयों के हक़ों को संरक्षित करने में सहायक होगा - खानपान, विवाह, आस्था-धार्मिक पहचान, दोस्ती आदि। 

फ़्राँस से की गई तुलना ही मगर हमें इस मुद्दे पर नए सिरे से सोचने को भी मजबूर करती है। फ़्राँस के सार्वजनिक स्कूलों में विद्यार्थियों पर किसी भी तरह के धार्मिक प्रतीक धारण करने की पाबंदी को सहज ही न्यायसंगत नहीं माना जा सकता है। शिक्षकों सहित सरकारी मुलाज़िमों पर लगी पाबंदी तो समझ में आती है क्योंकि वो ऐसे राज्य के प्रतिनिधि की भूमिका में हैं और उसके राजकोष से वेतन ले रहे हैं जो अपने को सेक्युलर कहता है। फिर भी, सिख पुरुषों की पगड़ी के संदर्भ में, जोकि उनके धर्म का घोषित रूप से अनिवार्य अंग है, ऐसी पाबंदी उस आधुनिक राज्य पर नहीं फबती जिसका एक मूलमंत्र अंतःकरण की आज़ादी भी है। वैसे ऐसी समस्याओं के समाधान के लिए अपनाया जाने वाला यह सिद्धांत भी - जिसे भारत के न्यायालयों ने भी अपनाया है - कि जब राज्य द्वारा बनाए गए क़ानूनों से किसी को अपने धर्म द्वारा निर्देशित आचरण करने में बाधा पहुँचने की शिकायत होगी, तो यह देखा जाएगा कि कथित आचरण उसके धर्म के अनिवार्य अंगों का हिस्सा है या नहीं, कुछ सवाल खड़े करता है। उदाहरण के लिए, जब एक व्याख्या के अनुसार धर्म नितांत निजी मामला है तो फिर न्यायालय यह कैसे तय कर सकते हैं कि किसी के लिए कौन-सा आचरण उसके विश्वास का अनिवार्य हिस्सा है या नहीं। फिर, फ़्राँस के उदाहरण पर लौटते हुए, विद्यार्थियों पर प्रतीक पहनने की बंदिशें लगाना तो शिक्षाशास्त्रीय दृष्टि से भी कठोर लगता है और इसलिए भी अनुचित लगता है कि वो राज्य के मुलाज़िम नहीं हैं। सेक्युलर होना राज्य की ज़िम्मेदारी है, निजी हैसियत में लोगों की नहीं। फ़्राँस का पेचीदा उदाहरण दिखाता है कि व्यैक्तिक हक़ों पर लगाई जाने वाली पाबंदियों को लेकर एक आमराय तक पहुँचना इतना आसान या शायद सम्भव भी नहीं है। पारलौकिक विश्वासों के संदर्भ में राज्य और क़ानून का तटस्थ व निरपेक्ष रहना ही उनका सेक्युलर होना है। यह काफ़ी हद तक क़ानून की पारम्परिक व्याख्याओं व परिस्थितियों पर निर्भर करेगा कि किसी देश-काल में राज्य के निरपेक्ष रहने और लोगों की व्यैक्तिक आज़ादी के बीच संतुलन कहाँ बिठाया जाएगा - और ज़ाहिर है कि यह बिंदु परिवर्तनशील रहेगा। 


ऊपर की ख़बरों पर वापस लौटें, तो यूनाइटेड किंगडम की ख़बर को एक उसूल की पुष्टि की तरह देखा जा सकता है जबकि श्रीनगर की ख़बर के एकतरफ़ा विश्लेषण के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त होना मुश्किल है। पहली अनुभूति का कारण तो यही है कि यह तर्कसंगत लगता है कि निजी फ़ैसलों की क़ानूनी सुरक्षा के लिए व्यैक्तिक स्वतंत्रता के मूल्य को आधार बनाना ही पर्याप्त है। (इस बिना पर स्कूलों को वर्दी के बारे में उक्त निर्णय लेने के लिए 'ट्रांस' पहचान वाले बच्चों के लिए विशेष चिंता जताने की ज़रूरत नहीं थी; इसे सब बच्चों के स्वाभाविक हक़ के रूप में देखना ही काफ़ी होता।) दूसरी तरफ़, DPS वाले प्रसंग में जहाँ नौकरी से निकाली गई शिक्षिका से सहानुभूति महसूस होती है और प्रशासन के राजनैतिक चरित्र व मंशा पर संदेह, वहीं कम-से-कम दो पक्ष ऐसे हैं जो हमें इतने स्पष्ट निष्कर्ष पर नहीं पहुँचने देते। इसके बावजूद कि स्कूल के बाहर के व्यापक सामाजिक-राजनैतिक संदर्भ में विभिन्न वर्गों/पहचानों के बीच सत्ता का संतुलन स्कूल के भीतर की आबादी के सत्ता-संतुलन से उलट हो सकता है, हम कह सकते हैं कि शिक्षकों की एक ज़िम्मेदारी अपने स्कूलों के अंदर के वंचित-कमज़ोर वर्गों-पहचानों के विद्यार्थियों को सहज महसूस कराना भी है। अगर शिक्षक ऐसी पृष्ठभूमि से है जिसके सदस्य स्कूल के भीतर संख्यात्मक या सांस्कृतिक ताक़त रखते हैं तो ऐसे में शिक्षक का अपने सांस्कृतिक प्रतीकों को धारण करना अन्य पृष्ठभूमि के सदस्यों को सहज नहीं करेगा बल्कि हिंसा व वर्चस्व महसूस करा सकता है। यह भी सच है कि बहुत-सी स्थितियों में संख्यात्मक वर्चस्व का मतलब सांस्कृतिक वर्चस्व नहीं होता है और इसलिए इस सिद्धांत को किसी सपाट गणितीय सूत्र की तरह इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। DPS श्रीनगर के बारे में भी यह सच है। किसी परिस्थिति में शामिल अलग-अलग पृष्ठभूमि के व्यक्ति स्वयं को अलग-अलग संदर्भों में रखकर सत्ता-संतुलन अलग-अलग ढंग से महसूस करेंगे। इसलिए हो सकता है कि एक मुसलमान बहुल स्कूल में जहाँ एक ग़ैर-मुसलमान सदस्य अपने को अबाया पहनी हुई शिक्षिका (या टोपी पहने हुए शिक्षक) की उपस्थिति में असहज महसूस करे, वहीं वो शिक्षिका स्कूल के बदले भारत में जम्मू-कश्मीर की स्थिति को संदर्भ मानते हुए अबाया नहीं पहनने के आदेश से ख़ुद को असुरक्षित व दमित महसूस करे। दूसरा पक्ष जो कि किसी आसान हल पर पहुँचने नहीं देता है, वह हमारे मानस में स्कूल और शिक्षक की ज़रूरी भूमिका की छवि से जुड़ा है। एक सेक्युलर राज्य-व्यवस्था में शिक्षकों से यह अपेक्षा करना जायज़ है कि वो को ख़ुद को - कम-से-कम स्कूल के भीतर अपनी भूमिका में - लौकिक तथ्यों और मूल्यों के अधीन प्रस्तुत करेंगे। क्योंकि स्कूल लौकिक अकादमिक स्थल हैं और उन्हें लौकिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए निर्मित किया गया है इसलिए शिक्षकों द्वारा किसी भी तरह का धार्मिक आस्थाजनक संकेत सेक्युलर शिक्षा और विद्यार्थियों दोनों के साथ धोखा है। यह धोखा राज्य की उस ख़ास तरह की व्यवस्था से भी बल पाता है जिसमें स्कूल समय में जुमे की नमाज़ अदा करने की वैधानिक इजाज़त है और उस संस्कृति के प्रश्रय से भी बल पाता है जिसमें स्कूल में 'निरपेक्ष' प्रार्थना ही नहीं बल्कि सरस्वती पूजा भी कराई जाती है। वैसे यह धोखा शिक्षकों द्वारा हर उस वस्तु/भाव को शरीर/व्यक्तित्व पर प्रकट रूप से धारण करने से भी होता है जिसका आधार अलौकिक के प्रति श्रद्धा है न कि कलात्मक रुचि या सनक, मगर इस दिशा में विश्लेषण फिसलन भरा है और अधिक गहन व बारीक अध्ययन की माँग करता है, जोकि इस लेख के दायरे में नहीं है। फिर हम व्यैक्तिक आज़ादी और अंतःकरण की स्वतंत्रता की चिंता को भी नज़रंदाज़ नहीं कर सकते हैं। तात्कालिक रूप से इतनी लम्बी-चौड़ी क़वायद के बाद फिलहाल इस मध्य-बिंदु पर ही पहुँचा जा सकता है कि शिक्षकों द्वारा वस्त्रों व अन्य प्रतीकों को अपनी सामुदायिक पहचान या धार्मिक विश्वास के आधार पर धारण करना ठीक नहीं है लेकिन इसे क़ानून/प्रशासनिक आदेशों द्वारा प्रतिबंधित करना भी उचित नहीं है और श्रेष्ठ यही होगा कि इस संबंध में हम शिक्षकों का आचरण हमारे अपने विवेक से तय हो। 

इसी तरह, कुछ भी हो, सिवाय वर्दी के एक जैसे रंग के होने की शर्त के - जिसकी ज़रूरत के बारे में भी संदेह किया जा सकता है - विद्यार्थियों को अपनी मर्ज़ी के वस्त्र धारण करने की आज़ादी होनी चाहिए। वो दृश्य ख़ूबसूरत होता है जिसमें एक ही कक्षा की कुछ छात्रायें सलवार-कमीज़, कुछ पैंट-शर्ट, कुछ फ़्रॉक आदि पहने होती हैं! और नैतिक रूप से कितना संतोषजनक भी अगर आपको यह पता हो कि उन सभी ने उस दिन अपनी वर्दी/पहनावे का चयन अपनी मर्ज़ी से किया था! विविधता और सहज मानव हक़ों को जगह देती इस तरह की आज़ादी से कोई नुक़सान नहीं होता है मगर हम शायद थोड़ा अनजाने के डर से और थोड़ा ताक़त खोने के ख़याल से घबराते हैं। 

पुनश्चः - इधर हाल ही में हरियाणा से यह ख़बर अाई कि विरोध के स्वरों को देखते हुए सरकारी स्कूल के शिक्षकों द्वारा जीन्स पहनकर स्कूल अाने पर रोक लगाने के अादेश जारी करने के एक दिन बाद ही उक्त अादेश वापस ले लिया गया। योग दिवस के किसी अायोजन पर पत्रकारों के सवालों का जवाब देते हुए हरियाणा के शिक्षा मंत्री ने भी कुछ इन शब्दों में अपना व सरकार का उदार रूख़ स्पष्ट कर दिया कि उन्हें शिक्षकों के पहनावे पर कोई ऐतराज़ नहीं है और वो चाहे जो पहनकर स्कूल अा सकते हैं, बशर्ते वो नंगे न अायें!
 
(इस विश्लेषण में स्कूल व समाज दोनों को बहु-सांस्कृतिक मानकर चला गया है।)    

Monday, 4 July 2016

शिक्षक डायरी : वर्दी, पहनावा और हमारे स्कूल: कुछ स्वीकारोक्ति व कुछ अवलोकन

प्रस्तुत शिक्षक डायरी निगम विद्यालय में पढ़ाने वाले एक शिक्षक की है इन्होंने हमसे इसके साथ उनका नाम न देने का अनुरोध किया था, इसलिए  हम उनका नाम नहीं दे रहे हैं........ 
 संपादक 

सभी समझदार इंसानों की तरह मैं भी आरामदेह कपड़े पहनना पसंद करता हूँ। लेकिन सच कहूँ तो मैंने आजतक अपने लिए कपड़े ख़रीदे ही नहीं इसलिए अक़्सर अज़ीज़ों के दिए हुए ऐसे कपड़े अलमारी में पहुँच जाते हैं जिन्हें या तो मैं पहनता ही नहीं या फिर कभी मजबूरी में पहनकर कुढ़ता रहता हूँ (हालाँकि ऐसे मौक़े कभी-कभार ही आते हैं)। हाँ, सर्दियों में ज़रूर आराम और 'ढंग' या 'रईसी' का मिलन हो जाता है। वस्त्रों के बारे में यह आग्रह कि वो शरीर को आराम दें और भागने-दौड़ने व काम करने में बाधा न पहुँचायें, मैं अपने विद्यार्थियों के समक्ष भी परोसता रहता हूँ। अगर ज़ोर दिया जाए तो मैं यहाँ तक कहूँगा कि मेरे अनुसार आरामदेह कपड़ों का सीधा-सा सौंदर्यशास्त्र यह है कि असहज कपड़ों में कोई अपने को ख़ूबसूरत महसूस नहीं कर सकता है।  मैंने ज़्यादातर छात्राओं को पढ़ाया है - और आज भी पाँचवीं कक्षा की छात्राओं को पढ़ा रहा हूँ - कपड़ों को लेकर मेरी यह सनक कक्षा में मेरे वैचारिक आरोपण को निःसन्देह एक लैंगिक रंग दे देती है। मुझे दैनिक सभा में विद्यार्थियों को - और इसी बहाने शिक्षक साथियों को भी - यह बताने में संतुष्टि मिलती है कि वो वर्दी में पैंट, निकर, फ़्रॉक, स्कर्ट, सलवार आदि में से कुछ भी बनवा और पहन सकती हैं। लगे हाथों वर्दी के उठने-बैठने, खेलने-कूदने और भागने-दौड़ने के लिए सहायक होने की ज़रूरत का ज़िक्र भी कर देता हूँ। (स्वाभाविक है कि पुरुष व शिक्षक होने के नाते मैं यह मानता हूँ कि छात्राओं को महसूस होने वाली इन निजी जरूरतों के बारे में मैं उनसे अधिक जानता हूँ!) मगर पुरुष होने के नाते इस बात का संदेह भी होता है कि जो वस्त्र शौचालय संबंधी मेरी जैविक ज़रूरतों के आसान निर्वाह के लिए उपयोगी हैं, क्या उसी संदर्भ में वो छात्राओं को भी सुलभ लगते होंगे। इसी तरह मुझे लगता है कि भले ही - या शायद इसीलिए  कि - सलवार हमारे देश के इस भाग में एक पारम्परिक लिबास हो, मगर फ़्रॉक व स्कर्ट के मुक़ाबले यह शरीर को अधिक गतिशीलता और आराम प्रदान करती है। दोनों ही संदेहों के बारे में मैं आजतक उपयुक्त/प्रभावित व्यक्तियों से पूछ नहीं पाया हूँ। हद तो यह है कि शायद मैं पैंट पहनने वाली छात्राओं के प्रति एक अतिरिक्त लगाव रखता हूँ। (मैं तो यही कहूँगा कि अपने व्यवहार या आँकलन में मैं वस्त्र-आधारित भेदभाव नहीं करता हूँ लेकिन सच तो मेरे विद्यार्थी या कोई तीसरा देखने वाला ही बता सकेगा।) कभी-कभी मेरे दिमाग़ में विभिन्न कक्षाओं में पैंटधारी छात्राओं की गिनती करके उनका 'मुक्ति-सूचकाँक' निकालने का बचकाना विचार भी आया है! इसी तरह खेलों में मैं ऐसे मौक़े ढूँढता (और शायद बनाता भी) रहता हूँ जिनके आधार पर मैं बेचारी मासूम विद्यार्थियों के सामने पैंट पहनने से होने वाले लाभों को सिद्ध कर सकूँ। (मगर कमबख़्त वो कुछ इस पैटर्न में हारती-जीतती हैं कि मेरे सारे दाँव बेकार चले जाते हैं और मैं अपने सनसनीख़ेज़ ख़ुलासे को फिर किसी शुभ दिन और परिणाम के लिए टालने को बाध्य हो जाता हूँ।) तो कुल मिलाकर वस्त्रों को लेकर मेरा आधुनिकता-प्रगतिशीलता का बोध छात्राओं के पहनावे को निशाना बनाता रहा है। छात्र चाहे निकर पहनें या फिर पैंट (और इनके इतर उन्हें कुछ पहनते देखा नहीं), न उन्हें 'सुधारने' की चिंता होती है, न उनके असहज होने की, न उन्हें 'बेहतर विकल्प' सुझाने की। 
 
 पिछले साल जब विभाग की ओर से विद्यार्थियों के लिए सिली-सिलाई वर्दियाँ आईं तो मुझे अच्छा नहीं लगा। दो-दो कमीज़ों के साथ, छात्राओं के लिए एक स्कर्ट व एक फ़्रॉक तथा छात्रों के लिए एक निकर व एक पैंट। इसके पहले जब वर्दी की राशि आती थी (या फिर पहले अनसिला कपड़ा) तो विद्यार्थियों के पास अपने शौक़ व आराम के हिसाब से पहनावा सिलवाने का विकल्प होता था - और मेरे जैसों के पास अपने पसंदीदा विषय पर भाषण झाड़ने का। हालाँकि, तब भी ज़्यादातर छात्रायें स्कर्ट ही पहनती थीं मगर एक तो उस स्थिति में ख़ुद को यह कहकर बहलाने का विकल्प था कि यह इनका अपना स्वतंत्र चयन नहीं है बल्कि इनके सांस्कृतिक परिवेश (माता-पिता) के दबाव का नतीजा है और दूसरे उसमें बात करने की, कुछ उदाहरण देने की सम्भावना तो रहती ही थी। इस बार हम दोनों मजबूर थे। वो तो भला हो डेंगू का जिसके संदर्भ में विभाग की तरफ़ से ही निर्देश जारी किए गए कि विद्यार्थियों को ऐसे कपड़ों में स्कूल आने के लिए कहना है जो उनके हाथों-पैरों को ढँक कर रखें। उन्हें वर्दी से बेमेल, घर के कपड़े पहनकर आने की भी घोषित इजाज़त दी गई। ऐसे में कई छात्रायें पैंट पहनकर आने लगीं और यह सिलसिला डेंगू के मौसम के बहुत बीत जाने के बाद तक चलता रहा। (अब क्योंकि डेंगू तो हर साल आता है तो क्या विद्यार्थियों के स्वास्थ्य की सुरक्षा के मद्देनज़र भी विभाग को छात्राओं के लिए अनिवार्यतः पैंट का इंतेज़ाम नहीं करना चाहिए?) जिस दौरान विद्यार्थियों को घर के कपड़े पहनकर आने की इजाज़त थी उन दिनों स्कूल का दृश्य माहौल और सहज व सुंदर हो गया था। एक बात साफ़ दिखी कि स्कूल के बारे में यह मान्यता बहुत गहराई से पैठी हुई है कि राष्ट्रीय (व एक-आध धार्मिक) त्योहारों के अतिरिक्त वे अपने शौक़ के, पार्टींनुमा वस्त्र धारण करने के स्थल नहीं हैं। हालाँकि, इसका दूसरा पक्ष यह है कि अधिकतर विद्यार्थियों के पास उस तरह के विशेष वस्त्र या तो हैं ही नहीं या इक्का-दुक्का ही हैं, जिसका एक प्रमाण यह भी है कि अक़्सर कई विद्यार्थियों को छुट्टी के दिनों में भी वर्दी में घूमते-फिरते देखा जा सकता है। मुझे लगता है कि अधिकतर निगम के स्कूलों में यह लोकतांत्रिक ख़ूबी है कि वर्दी आदि को लेकर वैसे भी ज़्यादा टोका-टोकी नहीं की जाती - कम-से-कम इस पक्ष को लेकर बच्चों व शिक्षा के हित में एक कोमल व सहज वातावरण है। इसके बनिस्बत दिल्ली सरकार के स्कूलों में वर्दी को लेकर एक अति-संकुचित माहौल है। और यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि सामान्यतः वहाँ इसका ख़ामियाज़ा छात्राओं को ही भरना पड़ता है। न सिर्फ़ वो सलवार-कमीज़ के अलावा कोई और पहनावा धारण नहीं कर सकतीं, बल्कि सुना है कि चोटियों के तौर-तरीक़े तक को लेकर उन्हें एक नियम का पालन करना पड़ता है। कुछ शिक्षिकाओं का भी यह कहना है कि प्रधानाचार्याओं से लेकर अधिकारियों तक से अक़्सर उन्हें कपड़ों, ख़ासकर दुपट्टे, के बारे में 'शालीनता' बरतने की सख़्त हिदायतें मिलती रहती हैं। एक शिक्षिका ने बताया कि कैसे उनकी बहन के स्कूल में किसी अधिकारी के अाने पर वो शिक्षिकाएँ जो दुपट्टा धारण नहीं करती हैं, प्रधानाचार्या के दफ़्तर में बुलाए जाने पर अानन-फ़ानन में अपनी साथिनों से दुपट्टा उधार ले लेती हैं! ताज्जुब है कि न शिक्षिकाएँ ख़ुद इस अनैतिक व्यवहार का विरोध करती नज़र अाती हैं और न ही शिक्षक यूनियनों द्वारा इस मुद्दे को उठाया जाता है। क्या इसका कारण हमारी अपनी सोच व संगठनों में शिक्षिकाओं के प्रतिनिधित्व की कमी है? कुछ भी हो, यह साफ़ है कि सांस्कृतिक पहचान हो या फिर सांस्थानिक गरिमा की चारदीवारी, तमाम उदाहरण यह दिखाते हैं कि 'अनुशासन' की ये सलीबें औरतों से ही उठवाई जाती हैं।    

अपने स्कूल में भी मैंने पिछले कुछ वर्षों से यदा-कदा किसी मुस्लिम पृष्ठभूमि की छात्रा को हिजाब पहने देखा है। उनकी पृष्ठभूमि की कुल आबादी के संदर्भ में ऐसी छात्राओं का प्रतिशत कभी 2 भी नहीं पहुँचा होगा और फिर छोटी कक्षा में ऐसा पहनकर आने वाली ज़्यादातर छात्रायें एक-दो साल के अंदर ही इसे छोड़ देती हैं। 17 सालों के अनुभव में मुझे पाँचवीं कक्षा की एक भी छात्रा याद नहीं है जो लगातार हिजाब पहनकर आई हो। यह कहना मुश्किल है कि उनके हिजाब पहनने और फिर छोड़ने के पीछे कौन-से कारण रहते हैं। एक ओर परिवार या किसी धार्मिक नेतृत्व की भूमिका निभाने वाले किसी पड़ोसी की राय का हाथ हो सकता है तो दूसरी ओर अपने साथियों से अलग महसूस करने की पीड़ा या किसी शिक्षक द्वारा टोका जाना भी हो सकता है (हालाँकि मैं ख़ुद इसकी गवाही नहीं दे सकता) । वैसे मुझे एक ऐसी छात्रा याद है जो तीसरी कक्षा में कभी-कभी हिजाब पहनकर आती थी - और जिसने एक शिक्षक के लिखाये एक लेख में से श्री कृष्ण के लिए 'भगवान' शब्द उतारने से मना कर दिया था और जो अंततः स्कूल छोड़कर मदरसे में दाख़िल हो गई। अपने पारम्परिक समुदाय से जुड़ा वस्त्र-प्रतीक पहनने की परिघटना के संदर्भ में, मैं अपने स्कूली पड़ोस से परिचय के आधार पर इस बात को भी महत्वपूर्ण मानूँगा कि बच्चे मज़दूर वर्गों से आ रहे हैं या व्यापारी-पेशेवर वर्गों से, उनके रिहाइशी इलाक़े मिश्रित हैं या अलग-थलग और उनमें भाषाई-क्षेत्रीय समानता कितनी है।
 
पिछले साल मेरी अपनी कक्षा (चौथी) में एक छात्रा बीच में एक-आध दिन हिजाब पहनकर आई। मैंने उससे इस विषय में कोई बात नहीं की। उसकी आँखों और हाव-भाव से लगा कि वो ख़ुद अपने साथियों से एक क़िस्म का संकोच महसूस कर रही है। कुछ विद्यार्थी भी उसे विचित्रता/जिज्ञासा से देख रहे थे लेकिन शायद मेरे रवैये से परिचित होने के कारण, सिवाय एक-आध फुसफुसाहट के, कोई कुछ नहीं बोला। छात्रा ने भी थोड़ी ही देर में अपना हिजाब उतार दिया और फिर उनका साथ 'सामान्य' हो गया। (मैंने ऐसी और भी छात्रायें देखी हैं जो स्कूल में आने के थोड़ी देर बाद हिजाब उतार देती थीं।) क्योंकि इसके कुछ दिन पहले जब वो अपनी पड़ोसन-सहपाठिन-दोस्त के साथ स्कूल आई थी तो उसके माथे पर टीका लगा हुआ था - जिसे कई मुसलमान निषेध मानते हैं या पसंद नहीं करते - तो मैंने एक अंदाज़ा यह लगाया कि शायद घरवालों ने यह सोचकर हिजाब पहना दिया हो कि टीका लगाने वाला समझ जाए कि वह मुसलमान है और टीका न लगाए। लेकिन जब वो फिर बिना हिजाब के आने लगी और एक दिन उसके माथे पर फिर टीका लगा दिखाई दिया तो मैं समझ गया कि मेरा अनुमान और मेरे अनुमान के अंदर का अनुमान ग़लत था।

स्कूल के विशिष्ट सांस्थानिक चरित्र, धर्म और लैंगिक रूढ़ियों के अलावा पहनावे का निश्चित ही एक वर्गीय संदर्भ भी है। इसे समझाने के लिए दो ताज़ा उदाहरण साझा कर रहा हूँ। जिन शिक्षिका ने शिकायती लहजे में अपनी बहन के स्कूल का अनुभव उद्धृत किया, उन्हीं ने चलते-चलते यह भी कहा कि शिक्षिकाओं की सही पोशाक तो साड़ी है! इसी तरह, एक सीनियर शिक्षिका ने पाँचवीं कक्षा की दो छात्राओं को इस बात पर टोका कि उनके बाल 'खुले' हुए थे। जब मैंने दिल्ली सरकार के स्कूलों की छात्राओं पर सख़्त पाबंदी की अालोचना करते हुए तथा यह कहते हुए उनसे असहमति जताई कि इन चीजों में बच्चों को अाज़ाद छोड़ देना चाहिए, तो उन्होंने 'सफ़ाई' व बालों के अाँखों में अाने के तर्क सामने रखे। हो सकता है कि ख़ासतौर से लंबे बालों को खुला रखना उन्हें साफ़ रखने में चुनौती प्रस्तुत करता हो लेकिन इन तर्कों को परोसने में लड़कियों की पारंपरिक छवि के अतिरिक्त एक संभ्रांत वर्ग की छवि भी काम करती है। अाग्रह यह है कि शिक्षिका/छात्रा को अपने पहनावे और बालों में उच्च-वर्ग/वर्ण की 'शालीन' छवि का प्रस्तुतिकरण करना चाहिए। मुझे, जैसा कि मैंने अारंभ में कहा, न सिर्फ़ 'पैंटधारी' छात्राओं में - बेवजह ही सही - मुक्ति की छवि दिखती है, बल्कि वैसे तो सभी बच्चों के लेकिन ख़ासतौर से छात्राओं के बेतरतीब बिखरे हुए बालों में मस्त बचपने के साथ समाज से एक रूमानी बेफ़िक्री भी नज़र अाती है। ज़ाहिर है कि मेरा मानना है कि रूढ़ियों से मुक्ति व रूमानियत शिक्षा के ख़ूबसूरत और अनिवार्य अंग होने चाहिए। 

इस विषय में कोई भी प्रस्ताव देने से पहले हमें कम-से-कम नवउदारवादी सरकारों की इस ख़तरनाक नीति को भी मद्देनज़र रखना होगा जिसके तहत नागरिक सेवाओं का प्रत्यक्ष सार्वजनिक बंदोबस्त करने की जगह लोगों के बैंक खातों में कुछ राशि भेजकर उन्हें मुक्त बाज़ार के उपभोक्ता बनने के लिए कहा जा रहा है। तो, निश्चित ही वर्दी के लिए पैसे - वो भी नाकाफ़ी - देने के बदले विद्यार्थियों को वर्दी उपलब्ध कराना कहीं बेहतर है। मगर दो जोड़ी वर्दी देने के प्रावधान के संदर्भ में छात्राओं को एक जोड़ी पैंट-शर्ट उपलब्ध कराने की संभावना तलाशी जानी चाहिए। और कुछ भी हो, भले ही हम शिक्षक किसी ख़ास वस्त्र या बालों के स्टाइल के प्रति किसी भी तरह का पूर्वाग्रह रखते हों, स्कूलों व शिक्षण की अाधुनिक तर्कशीलता हमसे यह माँग करती है कि हम छात्राओं को उनके पहनावे तथा बालों पर कम-से-कम टोकें तो नहीं।