Saturday, 16 July 2016

एक शिक्षिका का विरोध पत्र

यह पत्र दिल्ली सरकार के स्कूल में पढ़ाने वाली एक शिक्षिका ने अपनी प्रधानाचार्या को ‘प्रगति’ किताबों को पाठ्यक्रम में शामिल करने के विरोध में लिखा है, साथी ने हमसे यह अनुरोध किया है कि उनका नाम इसके साथ न दिया जाए, इसलिए इस पत्र  के साथ इनका नाम नहीं दिया जा रहा है ........
सम्पादक 

आदरणीय प्रधानाचार्या,

हमारे और दिल्ली सरकार के सभी स्कूलों में 1 अप्रैल 2016 से विद्यार्थियों को नियमित पाठ्यचर्या नहीं पढ़ाई जा रही है बल्कि ‘प्रगति’ किताबें पढ़ाई जा रही हैं| कहा जा रहा है कि सरकारी स्कूलों के बच्चों का शिक्षण स्तर इतना कम है कि वे अपनी नियमित पाठ्यचर्या को पढ़ने-समझने और अपनी समझ को लिखकर व्यक्त करने में काबिल नहीं है| इसलिए पहले इनके मौलिक कौशल/ इनका base मज़बूत करा जाएगा|  

मैं, कक्षा 9 में सामाजिक विज्ञान पढ़ाने के दौरान यह समझौता करने में असमर्थ हूँ| इस अवधारणा के खिलाफ एक शिक्षिका की कुछ आपत्तियां-

कक्षा 9 में इतिहास का पहला पाठ है ‘फ्रांसीसी क्रान्ति’| 14-15 वर्ष की कौन-सी विद्यार्थी यह समझने के लिए सक्षम नहीं है कि आज से करीब 200 साल पहले दुनिया के एक देश फ्रांस में ब्रेड इतनी महँगी हो गयी कि उसके लिए दंगे होने लगे| फिर भी राजदरबार के ऐशो-आराम कम नहीं हुए| लोगों का गुस्सा इतना बढ़ गया कि वे सड़कों पर उतर आये| उन्होंने राजा और कुलीनों के खिलाफ बगावत कर दी| किसी को पता नहीं था यह बगावत कहाँ जाएगी लेकिन 2 साल में फ्रांस के लोगों ने राजा को हटाकर स्वयं को गणतंत्र बना लिया और एक ऐसा संविधान लिखा जिसके घोषणापत्र का पहला वाक्य था “आदमी स्वतंत्र पैदा होते हैं, स्वतन्त्र रहते हैं और उनके अधिकार समान होते हैं|”

हो सकता है विद्यार्थियों को इसे समझने और जांचने में कई घंटे लग जाएँ क्योंकि सवालों का सैलाब आने की पूरी संभावना है| लेकिन धीरे-धीरे उन्हें फ़्रांस के लोगों की परेशानियां समझ आने लगती हैं और उनकी क्रांति में विद्यार्थियों की रूचि बढ़ने लगती है|

कक्षा 9 की NCERT को पढ़ना और समझना विद्यार्थियों के लिए कठिन है लेकिन 3 हफ्ते की कोशिशों के बाद वो स्वयं पढ़कर ये बताने लगते हैं कि फ्रांस में आदमियों के साथ-साथ औरतें ने भी तो क्रान्ति की थी तो उन्हें समान अधिकार क्यों नहीं मिले|

शायद 30 में से 5 बच्चे होंगे जो 3 हफ्ते या 3 महीने बाद भी NCERT की किताब स्वयं ना पढ़ पाएं, एक भी उत्तर ना लिख पाएं लेकिन वो उस इतिहास का हिस्सा तो बन रहे हैं जिसने दुनिया को बदल कर रख दिया| और इसके लिए वो कतई नाकाबिल नहीं हैं| ना जाने कब उन्हें अपनी दुनिया बदलते समय इस इतिहास की ज़रूरत पड़ जाए|

आठवी कक्षा में औपनिवेशिक भारत का इतिहास है| हो सकता है ‘औपनिवेशिक’ शब्द को दिमाग में बैठाने में विद्यार्थियों को कुछ महीने या पूरा साल लग जाए लेकिन उन्हें यह समझने में बिल्कुल समय नहीं लगता कि “कोई भी सरकार जंगलवासियों को यह कैसे कह सकती है कि वो जंगल में घुसकर लकड़ियाँ नहीं काट सकते? जंगलों के लिए अंग्रेज़ अफसर अजनबी थे आदिवासी नहीं|” आधा पाठ होने से पहले ही वन-कानूनों को लेकर उनका शक और उनकी नापसंदगी उनकी बातों में झलकने लगती हैं|

हो सकता है कि कुछ बच्चे यह सब लिख ना पाएं लेकिन महत्वपूर्ण सवाल यह है कि वो शिक्षित हो रहे हैं या नहीं| और बाकी 23 बच्चे जो कक्षानुसार पढ़-सीख रहे हैं इस बात से बेपरवाह कि वो कक्षा 8 में फेल नहीं होंगे, वो क्यों पढ़ रहे हैं? कहीं इसलिए तो नहीं कि बच्चों को कुछ भी सीखने में मज़ा आता ही है और खुद को सीखते देख सशक्त महसूस करना अच्छा लगता ही है|

कक्षा 8 की प्रगति की किताबें जिस किसी ने भी बनाई है उनसे विनम्र अनुरोध है कि इतिहास को ‘अशोक के ह्रदय परिवर्तन’ तक सीमित ना करें| (प्रगति की किताब में अध्याय-4) कहानियाँ तो इतिहास में झाँकने की खिड़की/दरवाज़े होती हैं, मंजिलें नहीं|

अगर फिर भी हम सबको लगता है कि विद्यार्थी इस अकादमिक शिक्षा के लिए काबिल नहीं है तो शिक्षा की परिभाषा पर पुनर्विचार कर सकते हैं क्योंकि शिक्षा के उद्देश्य इतने दोयम नहीं हो सकते कि आधे-आधे पन्नों की कहानियों तक सीमित हो जाएं|

ये शिकायत प्रगति किताबों से नहीं है| वो तो विद्यार्थी कर ही लेंगे बल्कि इन किताबों को शिक्षा मान लेने से है| यह विरोध उस अवधारणा के खिलाफ है जिसके तहत ये किताबें लायी गयी हैं और लायी जाती रहेंगी|      

हाँ, शिक्षक होने के तौर पर हममें बहुत कमियाँ हैं, हमारी किताबों में भी बहुत कमियाँ हैं जिन्हें दूर करना ज़रूरी है लेकिन असली समस्याओं पर तो अभी बात भी शुरू नहीं हुई है| अगर ngos के पीछे-पीछे चलेंगे तो समस्या की जड़ में ना जाकर उसके चारों तरफ गोल-गोल घूमते रह जाएँगे| हम दुनिया के पहले देश नहीं हैं जहाँ सरकारी स्कूलों को और इनमें पढ़ने वाले बच्चों को नाकाबिल घोषित किया जा रहा है| हमें इसकी राजनीति समझनी होगी|

आज जो बच्चे सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे हैं वो गरीब-पिछड़ी जातीय सन्दर्भों से आते हैं| भले ही बड़ी संख्या में स्कूलों (औपचारिक शिक्षा तंत्र) में आये इन्हें कुछ दशक ही हुए हों लेकिन ये बड़ी तेज़ी से आगे बढ़ रहे हैं| इनकी महत्वकांशाएं उड़ान भर रही हैं|

क्षमता तो सरकारों को साबित करनी होंगी| अगर सरकारों में क्षमता हो तो इस शिक्षित सैलाब के लिए पर्याप्त कॉलेज, नियमित नौकरियाँ और न्यायपूर्ण माहौल बनाकर दिखाएं|

एक बार फिर मैं शिक्षा को हल्का करने के खिलाफ अपना विरोध दर्ज करती हूँ और प्रगति किताबें पढ़ाने से मना करती हूँ|


4 comments:

PANKAJ PUSHKAR said...

So enlightening. The writers of this article are the beacons of hope of our time. I salute. I pledge to co-travel the journey ahead. Pankaj Pushkar, a lok shiksjak, Mla Timarpur.

PANKAJ PUSHKAR said...

So enlightening. The writers of this article are the beacons of hope of our time. I salute. I pledge to co-travel the journey ahead. Pankaj Pushkar, a lok shiksjak, Mla Timarpur.

राजीव कुमार said...

As a s.st. teacher I am fully agree with you. Everyone say it's policy matter, I can't do anything. Mr. Shailendra and his team who belong to NGO Pratham, behind all this nonsense.

ravinder goel said...

a thought provoking letter needs to be read,debated and discussed