प्रस्तुत शिक्षक डायरी निगम विद्यालय में पढ़ाने वाले एक शिक्षक की है इन्होंने हमसे इसके साथ उनका नाम न देने का अनुरोध किया था, इसलिए हम उनका नाम नहीं दे रहे हैं........
संपादक
पिछले साल जब विभाग की ओर से विद्यार्थियों के लिए सिली-सिलाई वर्दियाँ आईं तो मुझे अच्छा नहीं लगा। दो-दो कमीज़ों के साथ, छात्राओं के लिए एक स्कर्ट व एक फ़्रॉक तथा छात्रों के लिए एक निकर व एक पैंट। इसके पहले जब वर्दी की राशि आती थी (या फिर पहले अनसिला कपड़ा) तो विद्यार्थियों के पास अपने शौक़ व आराम के हिसाब से पहनावा सिलवाने का विकल्प होता था - और मेरे जैसों के पास अपने पसंदीदा विषय पर भाषण झाड़ने का। हालाँकि, तब भी ज़्यादातर छात्रायें स्कर्ट ही पहनती थीं मगर एक तो उस स्थिति में ख़ुद को यह कहकर बहलाने का विकल्प था कि यह इनका अपना स्वतंत्र चयन नहीं है बल्कि इनके सांस्कृतिक परिवेश (माता-पिता) के दबाव का नतीजा है और दूसरे उसमें बात करने की, कुछ उदाहरण देने की सम्भावना तो रहती ही थी। इस बार हम दोनों मजबूर थे। वो तो भला हो डेंगू का जिसके संदर्भ में विभाग की तरफ़ से ही निर्देश जारी किए गए कि विद्यार्थियों को ऐसे कपड़ों में स्कूल आने के लिए कहना है जो उनके हाथों-पैरों को ढँक कर रखें। उन्हें वर्दी से बेमेल, घर के कपड़े पहनकर आने की भी घोषित इजाज़त दी गई। ऐसे में कई छात्रायें पैंट पहनकर आने लगीं और यह सिलसिला डेंगू के मौसम के बहुत बीत जाने के बाद तक चलता रहा। (अब क्योंकि डेंगू तो हर साल आता है तो क्या विद्यार्थियों के स्वास्थ्य की सुरक्षा के मद्देनज़र भी विभाग को छात्राओं के लिए अनिवार्यतः पैंट का इंतेज़ाम नहीं करना चाहिए?) जिस दौरान विद्यार्थियों को घर के कपड़े पहनकर आने की इजाज़त थी उन दिनों स्कूल का दृश्य माहौल और सहज व सुंदर हो गया था। एक बात साफ़ दिखी कि स्कूल के बारे में यह मान्यता बहुत गहराई से पैठी हुई है कि राष्ट्रीय (व एक-आध धार्मिक) त्योहारों के अतिरिक्त वे अपने शौक़ के, पार्टींनुमा वस्त्र धारण करने के स्थल नहीं हैं। हालाँकि, इसका दूसरा पक्ष यह है कि अधिकतर विद्यार्थियों के पास उस तरह के विशेष वस्त्र या तो हैं ही नहीं या इक्का-दुक्का ही हैं, जिसका एक प्रमाण यह भी है कि अक़्सर कई विद्यार्थियों को छुट्टी के दिनों में भी वर्दी में घूमते-फिरते देखा जा सकता है। मुझे लगता है कि अधिकतर निगम के स्कूलों में यह लोकतांत्रिक ख़ूबी है कि वर्दी आदि को लेकर वैसे भी ज़्यादा टोका-टोकी नहीं की जाती - कम-से-कम इस पक्ष को लेकर बच्चों व शिक्षा के हित में एक कोमल व सहज वातावरण है। इसके बनिस्बत दिल्ली सरकार के स्कूलों में वर्दी को लेकर एक अति-संकुचित माहौल है। और यह कोई आश्चर्य की बात नहीं है कि सामान्यतः वहाँ इसका ख़ामियाज़ा छात्राओं को ही भरना पड़ता है। न सिर्फ़ वो सलवार-कमीज़ के अलावा कोई और पहनावा धारण नहीं कर सकतीं, बल्कि सुना है कि चोटियों के तौर-तरीक़े तक को लेकर उन्हें एक नियम का पालन करना पड़ता है। कुछ शिक्षिकाओं का भी यह कहना है कि प्रधानाचार्याओं से लेकर अधिकारियों तक से अक़्सर उन्हें कपड़ों, ख़ासकर दुपट्टे, के बारे में 'शालीनता' बरतने की सख़्त हिदायतें मिलती रहती हैं। एक शिक्षिका ने बताया कि कैसे उनकी बहन के स्कूल में किसी अधिकारी के अाने पर वो शिक्षिकाएँ जो दुपट्टा धारण नहीं करती हैं, प्रधानाचार्या के दफ़्तर में बुलाए जाने पर अानन-फ़ानन में अपनी साथिनों से दुपट्टा उधार ले लेती हैं! ताज्जुब है कि न शिक्षिकाएँ ख़ुद इस अनैतिक व्यवहार का विरोध करती नज़र अाती हैं और न ही शिक्षक यूनियनों द्वारा इस मुद्दे को उठाया जाता है। क्या इसका कारण हमारी अपनी सोच व संगठनों में शिक्षिकाओं के प्रतिनिधित्व की कमी है? कुछ भी हो, यह साफ़ है कि सांस्कृतिक पहचान हो या फिर सांस्थानिक गरिमा की चारदीवारी, तमाम उदाहरण यह दिखाते हैं कि 'अनुशासन' की ये सलीबें औरतों से ही उठवाई जाती हैं।
अपने स्कूल में भी मैंने पिछले कुछ वर्षों से यदा-कदा किसी मुस्लिम पृष्ठभूमि की छात्रा को हिजाब पहने देखा है। उनकी पृष्ठभूमि की कुल आबादी के संदर्भ में ऐसी छात्राओं का प्रतिशत कभी 2 भी नहीं पहुँचा होगा और फिर छोटी कक्षा में ऐसा पहनकर आने वाली ज़्यादातर छात्रायें एक-दो साल के अंदर ही इसे छोड़ देती हैं। 17 सालों के अनुभव में मुझे पाँचवीं कक्षा की एक भी छात्रा याद नहीं है जो लगातार हिजाब पहनकर आई हो। यह कहना मुश्किल है कि उनके हिजाब पहनने और फिर छोड़ने के पीछे कौन-से कारण रहते हैं। एक ओर परिवार या किसी धार्मिक नेतृत्व की भूमिका निभाने वाले किसी पड़ोसी की राय का हाथ हो सकता है तो दूसरी ओर अपने साथियों से अलग महसूस करने की पीड़ा या किसी शिक्षक द्वारा टोका जाना भी हो सकता है (हालाँकि मैं ख़ुद इसकी गवाही नहीं दे सकता) । वैसे मुझे एक ऐसी छात्रा याद है जो तीसरी कक्षा में कभी-कभी हिजाब पहनकर आती थी - और जिसने एक शिक्षक के लिखाये एक लेख में से श्री कृष्ण के लिए 'भगवान' शब्द उतारने से मना कर दिया था और जो अंततः स्कूल छोड़कर मदरसे में दाख़िल हो गई। अपने पारम्परिक समुदाय से जुड़ा वस्त्र-प्रतीक पहनने की परिघटना के संदर्भ में, मैं अपने स्कूली पड़ोस से परिचय के आधार पर इस बात को भी महत्वपूर्ण मानूँगा कि बच्चे मज़दूर वर्गों से आ रहे हैं या व्यापारी-पेशेवर वर्गों से, उनके रिहाइशी इलाक़े मिश्रित हैं या अलग-थलग और उनमें भाषाई-क्षेत्रीय समानता कितनी है।
पिछले साल मेरी अपनी कक्षा (चौथी) में एक छात्रा बीच में एक-आध दिन हिजाब पहनकर आई। मैंने उससे इस विषय में कोई बात नहीं की। उसकी आँखों और हाव-भाव से लगा कि वो ख़ुद अपने साथियों से एक क़िस्म का संकोच महसूस कर रही है। कुछ विद्यार्थी भी उसे विचित्रता/जिज्ञासा से देख रहे थे लेकिन शायद मेरे रवैये से परिचित होने के कारण, सिवाय एक-आध फुसफुसाहट के, कोई कुछ नहीं बोला। छात्रा ने भी थोड़ी ही देर में अपना हिजाब उतार दिया और फिर उनका साथ 'सामान्य' हो गया। (मैंने ऐसी और भी छात्रायें देखी हैं जो स्कूल में आने के थोड़ी देर बाद हिजाब उतार देती थीं।) क्योंकि इसके कुछ दिन पहले जब वो अपनी पड़ोसन-सहपाठिन-दोस्त के साथ स्कूल आई थी तो उसके माथे पर टीका लगा हुआ था - जिसे कई मुसलमान निषेध मानते हैं या पसंद नहीं करते - तो मैंने एक अंदाज़ा यह लगाया कि शायद घरवालों ने यह सोचकर हिजाब पहना दिया हो कि टीका लगाने वाला समझ जाए कि वह मुसलमान है और टीका न लगाए। लेकिन जब वो फिर बिना हिजाब के आने लगी और एक दिन उसके माथे पर फिर टीका लगा दिखाई दिया तो मैं समझ गया कि मेरा अनुमान और मेरे अनुमान के अंदर का अनुमान ग़लत था।
स्कूल के विशिष्ट सांस्थानिक चरित्र, धर्म और लैंगिक रूढ़ियों के अलावा पहनावे का निश्चित ही एक वर्गीय संदर्भ भी है। इसे समझाने के लिए दो ताज़ा उदाहरण साझा कर रहा हूँ। जिन शिक्षिका ने शिकायती लहजे में अपनी बहन के स्कूल का अनुभव उद्धृत किया, उन्हीं ने चलते-चलते यह भी कहा कि शिक्षिकाओं की सही पोशाक तो साड़ी है! इसी तरह, एक सीनियर शिक्षिका ने पाँचवीं कक्षा की दो छात्राओं को इस बात पर टोका कि उनके बाल 'खुले' हुए थे। जब मैंने दिल्ली सरकार के स्कूलों की छात्राओं पर सख़्त पाबंदी की अालोचना करते हुए तथा यह कहते हुए उनसे असहमति जताई कि इन चीजों में बच्चों को अाज़ाद छोड़ देना चाहिए, तो उन्होंने 'सफ़ाई' व बालों के अाँखों में अाने के तर्क सामने रखे। हो सकता है कि ख़ासतौर से लंबे बालों को खुला रखना उन्हें साफ़ रखने में चुनौती प्रस्तुत करता हो लेकिन इन तर्कों को परोसने में लड़कियों की पारंपरिक छवि के अतिरिक्त एक संभ्रांत वर्ग की छवि भी काम करती है। अाग्रह यह है कि शिक्षिका/छात्रा को अपने पहनावे और बालों में उच्च-वर्ग/वर्ण की 'शालीन' छवि का प्रस्तुतिकरण करना चाहिए। मुझे, जैसा कि मैंने अारंभ में कहा, न सिर्फ़ 'पैंटधारी' छात्राओं में - बेवजह ही सही - मुक्ति की छवि दिखती है, बल्कि वैसे तो सभी बच्चों के लेकिन ख़ासतौर से छात्राओं के बेतरतीब बिखरे हुए बालों में मस्त बचपने के साथ समाज से एक रूमानी बेफ़िक्री भी नज़र अाती है। ज़ाहिर है कि मेरा मानना है कि रूढ़ियों से मुक्ति व रूमानियत शिक्षा के ख़ूबसूरत और अनिवार्य अंग होने चाहिए।
इस विषय में कोई भी प्रस्ताव देने से पहले हमें कम-से-कम नवउदारवादी सरकारों की इस ख़तरनाक नीति को भी मद्देनज़र रखना होगा जिसके तहत नागरिक सेवाओं का प्रत्यक्ष सार्वजनिक बंदोबस्त करने की जगह लोगों के बैंक खातों में कुछ राशि भेजकर उन्हें मुक्त बाज़ार के उपभोक्ता बनने के लिए कहा जा रहा है। तो, निश्चित ही वर्दी के लिए पैसे - वो भी नाकाफ़ी - देने के बदले विद्यार्थियों को वर्दी उपलब्ध कराना कहीं बेहतर है। मगर दो जोड़ी वर्दी देने के प्रावधान के संदर्भ में छात्राओं को एक जोड़ी पैंट-शर्ट उपलब्ध कराने की संभावना तलाशी जानी चाहिए। और कुछ भी हो, भले ही हम शिक्षक किसी ख़ास वस्त्र या बालों के स्टाइल के प्रति किसी भी तरह का पूर्वाग्रह रखते हों, स्कूलों व शिक्षण की अाधुनिक तर्कशीलता हमसे यह माँग करती है कि हम छात्राओं को उनके पहनावे तथा बालों पर कम-से-कम टोकें तो नहीं।
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