फ़िरोज़
13 जून, 2016 के द हिन्दू अख़बार में यह ख़बर छपी कि यूनाइटेड किंगडम के 80 स्कूलों ने वर्दी को विद्यार्थियों की लैंगिक पहचान से मुक्त कर दिया है। इसका मतलब यह हुआ कि उन स्कूलों में छात्र स्कर्ट पहनने के लिए और छात्रायें पैंट पहनने के लिए स्वतंत्र होंगी। इसे ब्रिटेन के उस राज्य-समर्थित अभियान का हिस्सा बताया गया जिसके तहत शैक्षिक संस्थानों को 'ट्रांस' (प्रकट शारीरिक लिंग से इतर) पहचान वाले बच्चों के प्रति और अधिक संवेदनशील बनाना है। इस सिलसिले में स्कूलों ने या तो वर्दी के नियमों से लड़का/लड़की का उल्लेख ही हटा दिया है या फिर उन्हें यह कहते हुए पुनर्लिखित किया है कि 5 साल तक के विद्यार्थी भी ऐसी कोई भी वर्दी पहन सकते हैं जिसमें उन्हें आराम मिले। एक राजकीय प्राथमिक विद्यालय ने अपनी नीति में यह लिखा कि उसका उद्देश्य हर बच्चे में अपने हिसाब से अपनी लैंगिक पहचान व व्यक्तित्व को अभिव्यक्त करने के हक़ को प्रोत्साहित करना है। उस स्कूल की नीति के शब्दों में, जबकि सब विद्यार्थियों से यह अपेक्षित है कि वो वर्दी में स्कूल आयेंगे, इस संदर्भ में लड़कों और लड़कियों के लिए नियम एक समान हैं और वो किसी ख़ास पहनावे को धारण करने के लिए बाध्य नहीं हैं। अख़बार में यह भी छपा कि कुछ ईसाई संस्थाओं ने इस फ़ैसले के बारे में यह कहते हुए चिंता जताई है कि इससे छोटे बच्चे भ्रमित हो सकते हैं और बड़ी उम्र के विद्यार्थी ठीक उस पड़ाव पर अपनी पहचान को लेकर सवाल खड़े कर सकते हैं जब उन्हें सबसे ज़्यादा भरोसे की ज़रूरत होती है। यह तथ्य महत्वपूर्ण है कि इस वक़्त वहाँ कंज़रवेटिव पार्टी की सरकार है जिसे उसके नाम के अनुरूप तुलनात्मक रूप से अनुदार या परम्परावादी समझा जाता है। (हालाँकि, प्रधानमंत्री कैमरून द्वारा लेबर सांसद जो कॉक्स को - जिनकी एक अति-राष्ट्रवादी ने ब्रेक्सिट जनमत-संग्रह के प्रचार के माहौल में सरे-आम हत्या कर दी - दी गई श्रद्धाँजलि में 'प्रगतिशील' कहकर उनकी तारीफ़ करना यह बताता है कि आज यह मूल्य वहाँ की राजनीति में कम-से-कम मुख्य दलों के बीच एक मौखिक स्वीकृति तो अर्जित कर चुका है।)
16 जून को इसी अख़बार में दिल्ली पब्लिक स्कूल (DPS), श्रीनगर की ख़बर छपी जिसके अनुसार स्कूल के विद्यार्थियों ने स्कूल प्रशासन द्वारा एक शिक्षिका को अबाया पहनने पर तथाकथित रूप से नौकरी से निकाल देने के निर्णय के ख़िलाफ़ दिनभर प्रदर्शन किया। अख़बार में छपी फ़ोटो में बड़ी संख्या में अलग-अलग रंगों की वर्दी पहने विद्यार्थियों को एक प्राँगण में बैठे देखा जा सकता है। अबाया कुछ मुसलमान महिलाओं द्वारा पहना जाने वाला एक ऐसा ढीला-ढाला परिधान है जिसमें वो गले से पैरों के नीचे के हिस्से तक ढँक जाती हैं। इसे ज़्यादातर धार्मिक रूप से रूढ़िवादी सोच रखने वाली महिलायें पहनती हैं और रूढ़िवादी परिवारों की महिलाओं पर इसे पहनने का ज़बरदस्त दबाव भी होता है। साथ ही, ख़ासतौर से जम्मू-कश्मीर के संदर्भ में, यह याद रखना ज़रूरी है कि पिछले कुछ समय से इसे तुलनात्मक रूप से मध्य-वर्गीय, पढ़ी-लिखी व आधुनिक पेशों में शामिल मुसलमान महिलाओं ने बाक़ी समाज से अपनी एक अलग (धार्मिक-सांस्कृतिक) पहचान स्थापित करने के प्रतिक्रियात्मक संदेश की तरह भी इस्तेमाल किया है। अबाया पहनना ऐसी महिलाओं के लिए एक सचेत राजनैतिक निर्णय भी है। तथाकथित तौर से, उक्त शिक्षिका को कहा गया कि वो अपनी नौकरी और पहनावे में से एक को चुन लें। कई शिक्षकों ने अख़बार को बताया कि स्कूल द्वारा लम्बे समय से अबाया पहनने को हतोत्साहित किया जा रहा था। राज्य शिक्षा मंत्री ने इसे एक गम्भीर मुद्दा बताते हुए कहा कि उनका राज्य फ़्राँस नहीं है जहाँ सरकार या कोई संस्थान यह तय करता है कि लोग क्या पहनें और यहाँ लोगों को अपने निजी जीवन के बारे में फ़ैसले लेने की आज़ादी है। वहीं एक निर्दलीय विधायक ने इसे सांस्कृतिक हमला मानते हुए मुसलमान महिलाओं के धार्मिक अधिकारों का अतिक्रमण बताया। इसी तरह एक अलगाववादी नेता ने स्कूल से बिना शर्त माफ़ी माँगने की माँग की और जम्मू-कश्मीर के मुसलमान-बहुल होने को रेखांकित करते हुए कहा कि इस्लामी परिधान पर आपत्ति करने के गम्भीर परिणाम हो सकते हैं। बाद की ख़बरों में बताया गया कि स्कूल प्रशासन ने लिखित में खेद प्रकट किया है लेकिन यह स्पष्ट नहीं है कि उक्त शिक्षिका को वापस नौकरी पर लिया गया या नहीं।
जहाँ कुछ महत्वपूर्ण तथ्य इस प्रकरण के आंतरिक व प्रत्यक्ष घटनाक्रम से जुड़े हैं, वहीं कुछ तथ्य व तर्क ऐसे हैं जो इसे व्यक्ति-समाज-राज्य के बीच के संबंधों के एक व्यापक अंतर्द्वंद्व के एक उदाहरण के रूप में प्रकट करते हैं। पहले तथ्यों में विद्यार्थियों का स्कूल प्रशासन के समक्ष अपने स्कूल की एक शिक्षिका के पक्ष में खड़ा होना शामिल है। इसमें उनके लगाव, इंसाफ़ की नैसर्गिक भावना और प्रशासन के प्रति पुराने प्रतिरोध का योगदान भी हो सकता है। यह बात भी विचारणीय है कि ऐसे में जबकि शिक्षकों के हक़ों का उल्लंघन हो रहा था, वे ख़ुद विरोध करने की स्थिति में नहीं आए। इसमें प्रशासन के निजी स्वरूप और रोज़गार की अनिश्चितता के अलावा उनके अंसगठित होने की भी भूमिका हो सकती है। इसी तरह, विभिन्न राजनैतिक व्यक्तित्वों के बयानों से यह समझने में मदद मिलती है कि वो परिघटना को कैसे परिभाषित कर रहे हैं। उदाहरण के लिए, ज़ाहिर है कि अगर आप इसे राज्य के मुसलमान बहुल होने के आधार पर व्याख्यायित करेंगे, तो यह सार्वजनिक नागरिक अधिकार की श्रेणी में नहीं आएगा तथा यह संदेश देगा कि फिर ऐसे प्रतिबंध वहाँ लगाना जायज़ है जहाँ मुसलमान अल्पसंख्यक हैं! इसी तरह इसे केवल मुसलमान महिलाओं का धार्मिक मामला बनाकर सीमित करना भी उन लोगों के साथ न्याय नहीं कर होगा जो किसी अन्य कारण से उक्त (या कोई अन्य) लिबास पहनना चाहते हैं। असल में इसे एक मानवाधिकार के तौर पर देखना ही सबसे सटीक व लाभप्रद है। फिर यह सब लोगों के सभी प्रकार के निजी निर्णयों के हक़ों को संरक्षित करने में सहायक होगा - खानपान, विवाह, आस्था-धार्मिक पहचान, दोस्ती आदि।
फ़्राँस से की गई तुलना ही मगर हमें इस मुद्दे पर नए सिरे से सोचने को भी मजबूर करती है। फ़्राँस के सार्वजनिक स्कूलों में विद्यार्थियों पर किसी भी तरह के धार्मिक प्रतीक धारण करने की पाबंदी को सहज ही न्यायसंगत नहीं माना जा सकता है। शिक्षकों सहित सरकारी मुलाज़िमों पर लगी पाबंदी तो समझ में आती है क्योंकि वो ऐसे राज्य के प्रतिनिधि की भूमिका में हैं और उसके राजकोष से वेतन ले रहे हैं जो अपने को सेक्युलर कहता है। फिर भी, सिख पुरुषों की पगड़ी के संदर्भ में, जोकि उनके धर्म का घोषित रूप से अनिवार्य अंग है, ऐसी पाबंदी उस आधुनिक राज्य पर नहीं फबती जिसका एक मूलमंत्र अंतःकरण की आज़ादी भी है। वैसे ऐसी समस्याओं के समाधान के लिए अपनाया जाने वाला यह सिद्धांत भी - जिसे भारत के न्यायालयों ने भी अपनाया है - कि जब राज्य द्वारा बनाए गए क़ानूनों से किसी को अपने धर्म द्वारा निर्देशित आचरण करने में बाधा पहुँचने की शिकायत होगी, तो यह देखा जाएगा कि कथित आचरण उसके धर्म के अनिवार्य अंगों का हिस्सा है या नहीं, कुछ सवाल खड़े करता है। उदाहरण के लिए, जब एक व्याख्या के अनुसार धर्म नितांत निजी मामला है तो फिर न्यायालय यह कैसे तय कर सकते हैं कि किसी के लिए कौन-सा आचरण उसके विश्वास का अनिवार्य हिस्सा है या नहीं। फिर, फ़्राँस के उदाहरण पर लौटते हुए, विद्यार्थियों पर प्रतीक पहनने की बंदिशें लगाना तो शिक्षाशास्त्रीय दृष्टि से भी कठोर लगता है और इसलिए भी अनुचित लगता है कि वो राज्य के मुलाज़िम नहीं हैं। सेक्युलर होना राज्य की ज़िम्मेदारी है, निजी हैसियत में लोगों की नहीं। फ़्राँस का पेचीदा उदाहरण दिखाता है कि व्यैक्तिक हक़ों पर लगाई जाने वाली पाबंदियों को लेकर एक आमराय तक पहुँचना इतना आसान या शायद सम्भव भी नहीं है। पारलौकिक विश्वासों के संदर्भ में राज्य और क़ानून का तटस्थ व निरपेक्ष रहना ही उनका सेक्युलर होना है। यह काफ़ी हद तक क़ानून की पारम्परिक व्याख्याओं व परिस्थितियों पर निर्भर करेगा कि किसी देश-काल में राज्य के निरपेक्ष रहने और लोगों की व्यैक्तिक आज़ादी के बीच संतुलन कहाँ बिठाया जाएगा - और ज़ाहिर है कि यह बिंदु परिवर्तनशील रहेगा।
ऊपर की ख़बरों पर वापस लौटें, तो यूनाइटेड किंगडम की ख़बर को एक उसूल की पुष्टि की तरह देखा जा सकता है जबकि श्रीनगर की ख़बर के एकतरफ़ा विश्लेषण के प्रति पूरी तरह से आश्वस्त होना मुश्किल है। पहली अनुभूति का कारण तो यही है कि यह तर्कसंगत लगता है कि निजी फ़ैसलों की क़ानूनी सुरक्षा के लिए व्यैक्तिक स्वतंत्रता के मूल्य को आधार बनाना ही पर्याप्त है। (इस बिना पर स्कूलों को वर्दी के बारे में उक्त निर्णय लेने के लिए 'ट्रांस' पहचान वाले बच्चों के लिए विशेष चिंता जताने की ज़रूरत नहीं थी; इसे सब बच्चों के स्वाभाविक हक़ के रूप में देखना ही काफ़ी होता।) दूसरी तरफ़, DPS वाले प्रसंग में जहाँ नौकरी से निकाली गई शिक्षिका से सहानुभूति महसूस होती है और प्रशासन के राजनैतिक चरित्र व मंशा पर संदेह, वहीं कम-से-कम दो पक्ष ऐसे हैं जो हमें इतने स्पष्ट निष्कर्ष पर नहीं पहुँचने देते। इसके बावजूद कि स्कूल के बाहर के व्यापक सामाजिक-राजनैतिक संदर्भ में विभिन्न वर्गों/पहचानों के बीच सत्ता का संतुलन स्कूल के भीतर की आबादी के सत्ता-संतुलन से उलट हो सकता है, हम कह सकते हैं कि शिक्षकों की एक ज़िम्मेदारी अपने स्कूलों के अंदर के वंचित-कमज़ोर वर्गों-पहचानों के विद्यार्थियों को सहज महसूस कराना भी है। अगर शिक्षक ऐसी पृष्ठभूमि से है जिसके सदस्य स्कूल के भीतर संख्यात्मक या सांस्कृतिक ताक़त रखते हैं तो ऐसे में शिक्षक का अपने सांस्कृतिक प्रतीकों को धारण करना अन्य पृष्ठभूमि के सदस्यों को सहज नहीं करेगा बल्कि हिंसा व वर्चस्व महसूस करा सकता है। यह भी सच है कि बहुत-सी स्थितियों में संख्यात्मक वर्चस्व का मतलब सांस्कृतिक वर्चस्व नहीं होता है और इसलिए इस सिद्धांत को किसी सपाट गणितीय सूत्र की तरह इस्तेमाल नहीं किया जा सकता है। DPS श्रीनगर के बारे में भी यह सच है। किसी परिस्थिति में शामिल अलग-अलग पृष्ठभूमि के व्यक्ति स्वयं को अलग-अलग संदर्भों में रखकर सत्ता-संतुलन अलग-अलग ढंग से महसूस करेंगे। इसलिए हो सकता है कि एक मुसलमान बहुल स्कूल में जहाँ एक ग़ैर-मुसलमान सदस्य अपने को अबाया पहनी हुई शिक्षिका (या टोपी पहने हुए शिक्षक) की उपस्थिति में असहज महसूस करे, वहीं वो शिक्षिका स्कूल के बदले भारत में जम्मू-कश्मीर की स्थिति को संदर्भ मानते हुए अबाया नहीं पहनने के आदेश से ख़ुद को असुरक्षित व दमित महसूस करे। दूसरा पक्ष जो कि किसी आसान हल पर पहुँचने नहीं देता है, वह हमारे मानस में स्कूल और शिक्षक की ज़रूरी भूमिका की छवि से जुड़ा है। एक सेक्युलर राज्य-व्यवस्था में शिक्षकों से यह अपेक्षा करना जायज़ है कि वो को ख़ुद को - कम-से-कम स्कूल के भीतर अपनी भूमिका में - लौकिक तथ्यों और मूल्यों के अधीन प्रस्तुत करेंगे। क्योंकि स्कूल लौकिक अकादमिक स्थल हैं और उन्हें लौकिक उद्देश्यों की प्राप्ति के लिए निर्मित किया गया है इसलिए शिक्षकों द्वारा किसी भी तरह का धार्मिक आस्थाजनक संकेत सेक्युलर शिक्षा और विद्यार्थियों दोनों के साथ धोखा है। यह धोखा राज्य की उस ख़ास तरह की व्यवस्था से भी बल पाता है जिसमें स्कूल समय में जुमे की नमाज़ अदा करने की वैधानिक इजाज़त है और उस संस्कृति के प्रश्रय से भी बल पाता है जिसमें स्कूल में 'निरपेक्ष' प्रार्थना ही नहीं बल्कि सरस्वती पूजा भी कराई जाती है। वैसे यह धोखा शिक्षकों द्वारा हर उस वस्तु/भाव को शरीर/व्यक्तित्व पर प्रकट रूप से धारण करने से भी होता है जिसका आधार अलौकिक के प्रति श्रद्धा है न कि कलात्मक रुचि या सनक, मगर इस दिशा में विश्लेषण फिसलन भरा है और अधिक गहन व बारीक अध्ययन की माँग करता है, जोकि इस लेख के दायरे में नहीं है। फिर हम व्यैक्तिक आज़ादी और अंतःकरण की स्वतंत्रता की चिंता को भी नज़रंदाज़ नहीं कर सकते हैं। तात्कालिक रूप से इतनी लम्बी-चौड़ी क़वायद के बाद फिलहाल इस मध्य-बिंदु पर ही पहुँचा जा सकता है कि शिक्षकों द्वारा वस्त्रों व अन्य प्रतीकों को अपनी सामुदायिक पहचान या धार्मिक विश्वास के आधार पर धारण करना ठीक नहीं है लेकिन इसे क़ानून/प्रशासनिक आदेशों द्वारा प्रतिबंधित करना भी उचित नहीं है और श्रेष्ठ यही होगा कि इस संबंध में हम शिक्षकों का आचरण हमारे अपने विवेक से तय हो।
इसी तरह, कुछ भी हो, सिवाय वर्दी के एक जैसे रंग के होने की शर्त के - जिसकी ज़रूरत के बारे में भी संदेह किया जा सकता है - विद्यार्थियों को अपनी मर्ज़ी के वस्त्र धारण करने की आज़ादी होनी चाहिए। वो दृश्य ख़ूबसूरत होता है जिसमें एक ही कक्षा की कुछ छात्रायें सलवार-कमीज़, कुछ पैंट-शर्ट, कुछ फ़्रॉक आदि पहने होती हैं! और नैतिक रूप से कितना संतोषजनक भी अगर आपको यह पता हो कि उन सभी ने उस दिन अपनी वर्दी/पहनावे का चयन अपनी मर्ज़ी से किया था! विविधता और सहज मानव हक़ों को जगह देती इस तरह की आज़ादी से कोई नुक़सान नहीं होता है मगर हम शायद थोड़ा अनजाने के डर से और थोड़ा ताक़त खोने के ख़याल से घबराते हैं।
पुनश्चः - इधर हाल ही में हरियाणा से यह ख़बर अाई कि विरोध के स्वरों को देखते हुए सरकारी स्कूल के शिक्षकों द्वारा जीन्स पहनकर स्कूल अाने पर रोक लगाने के अादेश जारी करने के एक दिन बाद ही उक्त अादेश वापस ले लिया गया। योग दिवस के किसी अायोजन पर पत्रकारों के सवालों का जवाब देते हुए हरियाणा के शिक्षा मंत्री ने भी कुछ इन शब्दों में अपना व सरकार का उदार रूख़ स्पष्ट कर दिया कि उन्हें शिक्षकों के पहनावे पर कोई ऐतराज़ नहीं है और वो चाहे जो पहनकर स्कूल अा सकते हैं, बशर्ते वो नंगे न अायें!
(इस विश्लेषण में स्कूल व समाज दोनों को बहु-सांस्कृतिक मानकर चला गया है।)
No comments:
Post a Comment