प्रति
Friday, 24 September 2021
पत्र: विद्यार्थियों के वजीफों संबंधित समस्याओं के निवारण हेतु
स्कूल्ज़ ऑफ़ स्पैशलाइज़्ड एजुकेशन (SoSE) की योजना ख़ारिज करो!
बच्चों व स्कूलों के बीच
ग़ैर-बराबरी की बहुपरती व्यवस्था ख़त्म करो!
13 अगस्त को दिल्ली सरकार ने यह घोषित किया कि
नवगठित दिल्ली बोर्ड ऑफ़ स्कूल एजुकेशन को कॉउंसिल ऑफ़ बोर्ड्स ऑफ़ स्कूल एजुकेशन और
एसोसिएशन ऑफ़ इंडियन यूनिवर्सिटीज़ से मंज़ूरी मिल गई है। शिक्षा मंत्री ने, जोकि इस बोर्ड के प्रमुख हैं, यह भी कहा कि इंटरनैशनल बॅकलॉरियट (आईबी) के साथ
मिलकर काम करने से बच्चों के लिए 'विश्वस्तरीय' अवसर खुलेंगे।
द हिंदू में 12 अगस्त
को छपी एक रपट के अनुसार इस नवगठित बोर्ड ने इंटरनैशनल बॅकलॉरियट के साथ एक समझौता
किया है जिसके तहत इसी सत्र में दिल्ली सरकार के 30 स्कूलों
में पाठ्यचर्या, शिक्षाशास्त्र व मूल्याँकन के क्षेत्रों में 'वैश्विक चलन' अपनाए
जाएँगे। रपट में कहा गया कि नवगठित बोर्ड से संबद्ध 10 सर्वोदय स्कूलों के नर्सरी से 8वीं तक के विद्यार्थी और 20 स्कूल्ज़ ऑफ़ स्पैशालाइज़्ड एक्सेलेंस (SoSE; यह स्पष्ट नहीं है कि इन्हें हिंदी में कोई नाम दिया
गया है या नहीं) के 9वीं से 12वीं
तक के विद्यार्थी अब उच्चतम अंतर्राष्ट्रीय स्तर की शिक्षा पा सकेंगे। अमरीका, कनाडा, स्पेन, जापान और दक्षिण कोरिया जैसे 'विकसित' देशों
की सरकारों के उदाहरण देते हुए मुख्यमंत्री ने बताया कि इंटरनैशनल बॅकलॉरियट 159 देशों में 5,500 स्कूलों
के साथ मिलकर काम कर रहा है। उन्होंने इस पहल को सबसे वंचित लोगों के लिए
सर्वश्रेष्ठ गुणवत्ता की शिक्षा उपलब्ध कराने के मॉडल के रूप में व्याख्यायित
किया। कहा गया कि आईबी के मार्गदर्शन में स्कूलों की जाँच-परख की जाएगी और उन्हें
सुधारने के उपाय बताए जाएँगे, जिसमें प्रशिक्षण
आदि शामिल होगा, जिससे कि और स्कूलों को नवगठित बोर्ड से संबद्ध
होने की प्रेरणा मिलेगी। शिक्षा मंत्री ने बताया कि सरकार का उद्देश्य यह
सुनिश्चित करना है कि दिल्ली के विद्यार्थी वैश्विक नेता बनें। यह भी बताया गया कि
आईबी सरकारी बोर्ड के साथ ज्ञान सहयोगी (नॉलेज पार्टनर) की तरह काम करेगा।
लोक शिक्षक मंच इन स्कूलों की संकल्पना व
सिद्धांत पर कुछ बिंदु व प्रश्न साझा करते हुए, माँगों
सहित एक बयान सार्वजनिक कर रहा है।
सिर्फ़ 'कुछ' गड़बड़
नहीं है, बल्कि सब कुछ ही गड़बड़ है
अगर दिल्ली की, या
कोई भी सरकार कुछ विशिष्ट स्कूल खोलकर बच्चों को पढ़ाई का 'सर्वोत्तम' माहौल
देने का दावा करती है, तो आख़िर
हमें क्या समस्या है?
हमें इस पूरी संकल्पना से ही अनेक दिक्कतें हैं, जो नीचे दर्ज हैं।
1. जब कोई सरकार अपने सभी शिक्षा संस्थानों पर बराबर
ध्यान नहीं देना चाहती, तब वो इनमें से कुछ संस्थानों को चमकाकर वाहवाही
लूटने की राजनीति करती है। प्रतिभा विद्यालय भी तो इसी राजनीति का हिस्सा थे
जिनमें सरकारी स्कूलों से बच्चों को छाँटकर ले जाया जाता था और उन्हें 'बढ़िया' शिक्षा
दी जाती थी। मतलब, क्या सरकार ख़ुद यह स्वीकारती है कि वो अपने सभी
स्कूलों में अच्छी शिक्षा देने में विफल है?
इसके बाद स्कूल ऑफ़ एक्सेलेंस ग़ैर-बराबरी की मिसाल बने। और अब इस
बहुपरती व्यवस्था की नाइंसाफ़ी छुपाने के लिए इस पर स्कूल ऑफ़ स्पैशलाइज़्ड एक्सेलेंस
(SoSE) की नई क्रीम पोती जा रही है।
2. पहले निगम व
निदेशालय के स्कूलों में दो साल पढ़ने पर ही प्रतिभा स्कूलों में प्रवेश के लिए
परीक्षा दी जा सकती थी। ऐसा इसलिए किया गया था कि प्रतिभा जैसे विशिष्ट सार्वजनिक
स्कूलों में उन बच्चों का पढ़ने का मौका सुरक्षित हो जो सरकारी स्कूलों से आए हैं।
अब यह शर्त हटा दी गई है। इनमें केवल 50% प्रवेश ही सरकारी स्कूल से पढ़े बच्चों
के लिए सुरक्षित होगा। जिसका मतलब है कि 50% सीटें प्राइवेट स्कूलों के
विद्यार्थियों के लिए अपने-आप सुरक्षित हो जाएँगी। इसका नतीजा यह भी होगा कि अब एक
ही विद्यालय में विद्यार्थियों के दो वर्ग होंगे। सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले
विद्यार्थियों के लिए मौके बढ़ेंगे नहीं, घटेंगे।
3. इन ख़ास विद्यालयों
में प्रवेश के लिए अब बच्चे गलाकाट प्रतिस्पर्धा करेंगे। वैसी ही प्रतिस्पर्धा जो
हम मेडिकल या इंजीनियरिंग एंट्रेंस में देखते हैं। ज़ाहिर है, यहाँ शिक्षा अधिकार
अधिनियम का 'कोई प्रवेश परीक्षा नहीं' लेने का सिद्धांत मायने नहीं रखेगा।
क्या प्रतिस्पर्धा पर खड़े ऐसे विद्यालयों से कोचिंग केंद्रों के
लक्षणों का आभास नहीं होता है?
ये विद्यालय सिर्फ़ नए तरह के संस्थान
नहीं हैं, बल्कि ये नई तरह के नवउदारवादी शिक्षा दर्शन के परिणाम हैं। इनसे
आम सार्वजनिक स्कूलों का महत्व और कम होगा।
4. एक सवाल यह भी है
कि 'सर्वोत्तम शिक्षा'
की परिभाषा क्या है। अगर SoSEs में बच्चों को
मेडिकल, इंजीनियरिंग,
कानून आदि की प्रवेश परीक्षाओं के लिए
तैयार किया जाएगा तो इस काम के लिए तो कोचिंग इंडस्ट्री के केंद्रों की भीड़ पहले
से मौजूद है। सरकारी स्कूलों को कोचिंग केंद्र बनाने की क्या ज़रूरत आन पड़ी?
या तो सरकार को अपनी शेख़ी बघारने के लिए ऐसा करना पड़ रहा है ताकि वो विज्ञापनों में प्रचारित कर सके कि 'सरकारी स्कूलों के 100-200-300 बच्चों ने IIT में प्रवेश लिया'। या फ़िर मध्यम-वर्गीय अभिभावकों के एक हिस्से को खुश करना पड़ रहा है कि उनके बच्चे को भी महँगी कोचिंग वाली तैयारी सरकारी स्कूल में मुफ़्त कराई जाएगी। या फ़िर सरकार चाहती है कि जनता ज़्यादातर सरकारी स्कूलों में दी जा रही दोयम दर्जे की शिक्षा (जिनमें महज़ साक्षरता प्रोग्राम पर ज़ोर है) पर बात करने के बजाय SoSEs की चकाचौंध में खो जाए।
5. हम इस कोचिंग को
शिक्षा नहीं 'प्रति-शिक्षा'
मानते हैं। कोचिंग का जो बाज़ार दशकों
से भारत, चीन, कोरिया जैसे विकासशील देशों में फल-फूल रहा है, उसका इतिहास दाग़दार
है। जिस व्यवस्था में एक नौकरी के लिए हज़ारों अभ्यार्थी खड़े हैं, उसमें कुछ
मुनाफाखोर इस तंगी को प्रतिस्पर्धा में बदलकर पैसे कमाने के साधन अवश्य ढूंढ
लेंगे। हर एक 'सफल' बच्चे पर 1000 'असफल' बच्चे तैयार होंगे जो पिछड़ेंगे और मानसिक तनाव के शिकार बनेंगे।
भयावह यह है कि अभी तक जो विकृती सरकारी स्कूलों से बाहर थी, अब उस बीमारी को
अंदर घुसाया जा रहा है। जब मेडिकल, इंजीनियरिंग की शिक्षा का बाज़ारीकरण
हो रहा था, तब हम उसे तो रोक नहीं पाए, उल्टा अब हमारे सरकारी स्कूलों को ही
इस बाज़ार की दुकानें बनाने की तैयारी हो रही है।
6. यह भी अभी तक
स्पष्ट रूप से सामने नहीं आया है कि इन विद्यालयों में वित्तीय, फ़ीस प्रवेश व
नियुक्तियों में सामाजिक न्याय के संवैधानिक प्रावधान लागू होंगे या नहीं और अगर
होंगे तो कैसे लागू होंगे। यह साफ़ नहीं है कि इन स्कूलों में शिक्षकों की
नियुक्ति-तैनाती किन आधारों पर होगी। हमारा मानना है कि इन स्कूलों में निजी
संस्थाओं की प्रस्तावित नियंत्रणकारी भूमिकाओं के चलते शिक्षकों की अकादमिक व
पेशागत स्वायत्तता व गरिमा भी ख़तरे में पड़ जाएगी। इन पहलुओं के बारे में एक अघोषित
चुप्पी है जिसे केवल सीमित आधिकारिक बयानों या प्रचारी रपटों से पोछा जा रहा है।
इससे इन स्कूलों के प्रबंधन,
क़रार की शर्तों आदि को लेकर गंभीर
शंकाएँ उभरती हैं।
7. क्या इनमें विशेष
ज़रूरतों वाले बच्चों को प्रवेश मिलेगा? हम देखते आए हैं कि तथाकथित
उच्च-स्तरीय या विश्वस्तरीय संस्थानों की चमक-धमक बनाने के लिए सबसे कमज़ोर की बलि ली
जाती है, उन्हें बाहर रखकर ही ये संस्थान विशिष्ट होने का गर्व महसूस करते
हैं और समाज में प्रतिष्ठा पाते हैं।
8. आज दिल्ली के
सरकारी स्कूलों में कक्षा VI-VIII के हर बच्चे पर मिशन बुनियाद थोपा जा रहा है। उन्हें केवल कामचलाऊ
(हिंदी और गणित) साक्षरता प्रोग्राम के लायक़ बताया जा रहा है। उनकी पाठयचर्या से
सिद्धांतों को ख़त्म कर दिया गया है। एक तरफ़ अधिकतम बच्चों के स्तर को गिराया जा
रहा है और दूसरी तरफ़ अंतर्राष्ट्रीय स्तर के नाम पर आईबी से क़रार करके विश्वस्तरीय
शिक्षा देने का ढोल पीटा जा रहा है। यह कैसा विरोधाभास है?
दरअसल यह विरोधाभास नहीं, बल्कि इस व्यवस्था की एक अनिवार्य
परिस्थिति है। वर्तमान अर्थव्यवस्था को जैसे श्रमिकों की ज़रूरत है, यह उन्हीं को तैयार
करने की शिक्षा योजना है। अधिकतम बच्चे दोयम दर्जे की साक्षरता पाकर मशीन चलाने
वाली लेबर फ़ौज का हिस्सा बनेंगे। इनकी शिक्षा को गहन सिद्धांतों से खाली करके
इन्हें जागरूक, सशक्त मज़दूर बनने से रोका जाएगा। वहीं दूसरी तरफ़ मुट्ठीभर युवाओं
को प्रशासकीय, प्रबंधकीय व अत्यधिक कुशल भूमिकाओं के लिए तैयार करने के लिए
स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक एंट्रेंस टेस्ट की छलनियाँ बिछाई जाएँगी।
9. इसी तरह, चाहे वो दिल्ली
सरकार का एक तरफ़ 'देशभक्ति करिकुलम'
लाना व दूसरी तरफ़ 'अंतर्राष्ट्रीय
नागरिक' बनाने के घोषित मक़सद वाले आईबी को लाना हो या केंद्र सरकार की
राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इसी तरह के दोमुँही आग्रह, यह 'प्रतीकात्मक
राष्ट्रवादी' तत्वों को ख़ुश करके व जनता को भरमाकर शिक्षा में अंतर्राष्ट्रीय
बाज़ार को घुसाने की योजना का मिला-जुला पैंतरा है।
10. स्कूलबंदी और
कोरोना के संदर्भ में ख़ासमख़ास स्कूल खोलना - दरअसल खोलना नहीं, पुरानों को बंद
करके, उनके सार्वजनिक ज़मीन-संसाधनों को 'विश्वस्तरीय' स्कूलों की
मृगतृष्णा के नाम पर निजी नहीं तो अर्धनिजी हाथों में सौंपना - और उनमें दाख़िले
देने के लिए प्रवेश परीक्षा आयोजित करना (जैसे कि सब कुछ 'सामान्य' हो) शिक्षा व लोगों
की हक़ीक़त के साथ एक क्रूर मज़ाक है।
कोरोना, घरबन्दी और आर्थिक संकट के दबाव में सरकारी स्कूलों में बढ़ते
दाख़िलों के संदर्भ में जहाँ वक़्त की माँग थी कि नए सरकारी स्कूल खोले जाएँ, पर्याप्त संख्या
में नियमित स्टाफ़ की नियुक्ति की जाए, प्राइवेट स्कूलों की मनमर्ज़ी रोकी जाए
आदि, वहाँ सरकार ने ऐसा कुछ तो किया नहीं, बल्कि एक तरह से सार्वजनिक स्कूलों और
उनकी 'सीटों' को कम करने की योजना बनाकर बच्चों के आधे-अधूरे अधिकारों का दायरा
और सीमित कर दिया है।
जनता के सामने सवाल
क्या हमें सचमुच लगता है कि इन नई परतों से सभी स्कूलों में
एक-जैसी, एक समान गुणवत्ता वाली शिक्षा मज़बूत होगी या अब हमने वो सपना देखना
ही छोड़ दिया है? क्या इन विशिष्ट स्कूलों को खोलकर सरकार सभी बच्चों का भला कर रही
है या कुछ बच्चों को छाँटकर बाकी बच्चों को अपने हाल पर छोड़ रही है? ऐसे प्रोग्राम
मौजूदा गैर-बराबरी को और बढ़ाएँगे या कम करेंगे?
हमारी माँग तो यह होनी चाहिए कि सभी सरकारी स्कूलों में एक समान
फण्ड, बराबर ध्यान और एक समान गुणवत्ता वाली शिक्षा होनी चाहिए।
जनता भूखी है। उसे भूखा रखा गया है। अपनी ज़िम्मेदारी निभाने के नाम
पर सरकार 100 में से 4 लोगों के लिए केक बनवाती है। विडंबना यह है कि हम 100 लोग एक होकर सरकार
से सवाल नहीं पूछते कि 96 लोगों का हिस्सा कहाँ गया, बल्कि इन 4 लोगों के हिस्से
वाले केक के लिए आपस में लड़ने लगते हैं। साथ ही सरकार की वाहवाही भी करते हैं कि
सरकार ने भूखे लोगों के लिए केक बनवाया!
सरकार जवाब दे
1. अगर इन विशिष्ट
स्कूलों में 'सर्वोत्तम' शिक्षा दी जाएगी तो अन्य सैकड़ों दिल्ली सरकार के स्कूलों को क्या
कामचलाऊ शिक्षा देने के लिए खोला गया है? सरकर द्वारा सरकारी स्कूलों के बीच
में ही यह भेदभाव क्यों?
2. हिसाब दीजिए कि
जितने संसाधन एक SoSE को दिए जाएँगे,
उसमें कितने सामान्य सरकारी स्कूल अपनी स्थिति सुधार सकते हैं। एक तरफ़ 15 विद्यालयों में
कक्षा 11-12 के हर विद्यार्थी को टैब दिया जा सकता है, दूसरी तरफ़ सरकारी
स्कूलों के हज़ारों बच्चों को मासिक इंटरनेट डाटा के लिए कोई मदद नहीं पहुँचाई गई।
क्या हम कुछ विद्यार्थियों को टैब देने के लिए सरकार की वाहवाही करके इसके हाथ
मज़बूत करें या अधिकतम बच्चों को आधारभूत संसाधनों से वंचित रखने के लिए इसे कटघरे
में खड़ा करें?
3. 10 विशिष्ट विज्ञान
विद्यालय खोलने से कुछ नहीं होता। पहले सभी सरकारी स्कूलों में विज्ञान और कॉमर्स
विकल्प वापस लेकर आओ, विज्ञान लैब को ज़िंदा करो, हर बच्चे को वैज्ञानिक प्रयोगों का
आदि बनाओ। तब तक यह दावा बेमानी है और भ्रमित करने वाला सस्ता प्रचार मात्र है कि
सरकार ने विज्ञान की शिक्षा के लिए कुछ सार्थक किया है।
4. दिल्ली सरकार आईबी पाठ्यचर्या खरीदने और निजी संस्थाओं को दिए गए सैकड़ों करोड़ों का चिट्ठा प्रस्तुत करे, सारे कॉन्ट्रैक्ट, नियम आदि को सार्वजनिक पटल पर रखे, ताकि इनकी जाँच हो सके और जनता सच्चाई जाने। इस भेदभावपूर्ण और शिक्षा-विरोधी योजना को वापस लिया जाए।
Saturday, 18 September 2021
6 सितंबर 2021 को Locked Out : Emergency Report on School Education नाम से एक रपट जारी की गई जिसे 100 लोगों के ज़मीनी सहयोग से ज्याँ द्रेज़, निराली बाखला, रीतिका खेरा व विपुल पाइक्रा की टीम ने तैयार किया था। रपट तैयार करने की प्रक्रिया के पहले चरण में 15 राज्यों व केंद्र-शासित प्रदेशों में कक्षा एक से आठ तक में नामाँकित बच्चों वाले 1362 घर-परिवारों के बीच सर्वे किया गया था। रपट स्कूलों की तालाबंदी के भयावह असर और ऑनलाइन पढ़ाई की हक़ीक़त को, विशेषकर वंचित वर्गों के संदर्भ में, बख़ूबी सामने लाती है। हालाँकि, रपट में 'आधारभूत साक्षरता व गणना' की शिक्षा-विरोधी संकल्पना जो स्कूलों को अधिगम व अधिगम को फिर महज़ पढ़ना-लिखना सीखने तक सीमित करके उसके नुक़सान (लर्निंग लॉस) को अन्य किसी भी आयाम व चिंता से ऊपर रखता है - का प्रभाव झलकता है, रपट में कुल मिलाकर शिक्षा में ग़ैर-बराबरी को लेकर व्यक्त की गई चिंता राजनैतिक ईमानदारी दर्शाती है। ऊपर वर्णित शंका को चिन्हित करते हुए, हम यहाँ इस रपट के चुनिंदा अंशों का अनुवाद साझा कर रहे हैं ताकि यह महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हिंदीभाषी पाठकों तक पहुँच सके और तालाबंदी व ऑनलाइन पढ़ाई के धोखे को प्रमाण-सहित सामने रखते हुए शिक्षकों व अभिभावकों के बीच विमर्श को सही दिशा देने तथा जनदबाव बनाने के काम आए। मूल रपट के लिंक को नीचे संलग्न किया गया है। संपादक
के पास स्मार्ट फ़ोन है उनमें से भी नियमित रूप से ऑनलाइन पढ़ाई करने वाले बच्चों का अनुपात शहरों में 31% व गाँवों में 15% है। परिवार के कामकाजी बड़ों द्वारा इस्तेमाल किए जाने के चलते ख़ासतौर से छोटी उम्र के बच्चों के लिए स्मार्टफ़ोन उपलब्ध नहीं होते हैं; फिर ख़राब नेटवर्क व डाटा के लिए पैसों की कमी से जुड़ी समस्याएँ भी हैं। ऐसे माता-पिता का अनुपात जिनको लगता था कि उनके बच्चे के पास पर्याप्त ऑनलाइन पहुँच थी शहरों में महज़ 23% व गाँवों में 8% था। एक बड़ी दिक़्क़त, ख़ासतौर से ग्रामीण इलाक़ों में, यह भी थी कि स्कूल ऑनलाइन सामग्री नहीं भेज रहे हैं, या अगर भेज भी रहे हैं तो माता-पिता को इसकी जानकारी नहीं है। वैसे भी, कुछ बच्चे, ख़ासतौर से छोटी उम्र के, ऑनलाइन पढ़ाई नहीं समझ पाते हैं, या उन्हें ध्यान लगाने में मुश्किल होती है।
अधिकतर माता-पिता का मानना था कि [स्कूल की] तालाबंदी के दौरान उनके बच्चे की पढ़ने-लिखने की क़ाबीलियत में गिरावट आई है। ऑनलाइन पढ़ने वाले शहरी बच्चों के माता-पिता में भी ऐसा महसूस करने वालों का अनुपात 65% था। पूरे सैंपल में मिलाकर सिर्फ़ 4% माता-पिता को लगा कि तालाबंदी के दौरान उनके बच्चे के पढ़ने-लिखने की क़ाबीलियत में सुधार हुआ है - जोकि [बढ़ती उम्र व कक्षा के साथ] एक सामान्य चीज़ होनी चाहिए थी।
Saturday, 4 September 2021
स्कूलों को खोलने के संदर्भ में विशेषकर प्राथमिक कक्षाओं के विद्यार्थियों की ज़रूरतों के मद्देनज़र
प्रति
Thursday, 2 September 2021
विद्यार्थियों को पाठ्य पुस्तकें देने के बदले खातों में राशि के भुगतान के विरोध में
प्रति