Friday, 24 September 2021

पत्र: विद्यार्थियों के वजीफों संबंधित समस्याओं के निवारण हेतु

 प्रति

     शिक्षा मंत्री
     दिल्ली सरकार 

विषय : विद्यार्थियों के वजीफों संबंधित समस्याओं के निवारण हेतु  

महोदय,
लोक शिक्षक मंच शिक्षा के अधिकार के सार्वभौमीकरण व समान स्कूल व्यवस्था के निर्माण के लिए सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को मज़बूत बनाने में विश्वास रखने तथा काम करने वाला संगठन है। हम आपके समक्ष स्कूलों में विद्यार्थियों के वजीफे संबंधित कुछ समस्याओं को उजागर करना चाहते हैं ताकि इन्हें जल्द-से-जल्द ठीक किया जाए और छात्रों तक उनका हक़ पहुँच पाए।
1. आज शिक्षकों और अभिभावकों के बीच वजीफों को लेकर जानकारी का बहुत अभाव है। इसलिए हमारी माँग है कि एससीईआरटी व विभाग द्वारा आयोजित सेमिनारों में नियमित रूप से अध्यापकों को वजीफों के बारे में प्रशिक्षित किया जाए। शिक्षकों को सत्र की विभिन्न स्कीमों और वजीफों के बारे में अवगत कराया जाए। प्रत्येक वजीफे की शर्तों और दस्तावेज़ों की विस्तृत जानकारी दी जाए ताकि वे समय से सही जानकारी अभिभावकों तक पहुँचा पाएँ और किसी भी बच्चे के केस में कोई ग़लती न हो।
हालांकि विभिन्न स्कीमों की जानकारी विद्यार्थी डायरी में शामिल होती है लेकिन व्यवस्थित ओरिएण्टशन की मदद से वजीफे की व्यवस्था को सुदृढ़ किया जा सकता है, शिक्षकों की शंकओं को दूर किया जा सकता है और उन्हें वजीफों के इतिहास और सिद्धांत के करीब ले जाया जा सकता है। यह इसलिए ज़रूरी है ताकि शिक्षक सामाजिक न्याय के ऐतिहासिक महत्व को समझते हुए वजीफों का कार्यान्वयन कर सकें। यह ट्रेनिंग तभी सार्थक होगी जब यह शिक्षकों के अनुभवों और शंकओं को सम्बोधित कर सके, अन्यथा नित लम्बी होती ट्रेनिंग्स की सूची में यह ट्रेनिंग भी एक बोझिल औपचारिकता बनकर रह जाएगी।
2. सत्र की शुरुआत में ही शिक्षकों द्वारा PTMs में अभिभावकों का भी ओरिएण्टशन किया जाए कि उनका बच्चा किस स्कीम में लाभान्वित होगा और उसकी शर्ते क्या हैं ताकि वे समय रहते ज़रूरी दस्तावेज़ तैयार करवा सकें और अपने बच्चे के अधिकार को लेकर जागृत हों। यह ओरिएण्टशन विद्यार्थी डायरी की मदद से किया जाए। साथ ही अभिभावकों को जाति प्रमाण-पत्र, आय प्रमाण पत्र आदि संबंधित जानकारी भी प्रदान की जाए।
3. सत्र की शुरुआत में ही अभिभावकों को विभिन्न स्कीमों व वजीफों के आवंटन की समय-सारणी प्रदान की जाए ताकि उन्हें मालूम हो कि कौन-सा लाभ कब आवंटित किया जाता है। बिना जानकारी के न वे अपने अधिकार जान पाते हैं और न ही उन्हें पाने के लिए प्रयास कर पाते हैं।
शिक्षा निदेशालय की वेबसाइट पर भी सभी स्कीमों व वज़ीफ़ों संबंधी विस्तृत जानकारी हो जिससे अभिभावक एक जगह विभिन्न स्कीमों और वजीफों, इनकी आवेदन की शर्तों, प्रक्रिया, ज़रूरी दस्तावेज़ बनाने की प्रक्रिया, आवेदन उपरांत स्थिति, राशि प्राप्ति के लिए अधिकतम समय, शिकायत तंत्र आदि के बारे में जान सकें। 
4. यह जाँचने के लिए कि क्या बच्चों के खातों में पैसा पहुँचा है या नहीं, बच्चों को बैंक से पासबुक अपडेट करवाने के लिए कहा जाता है। अक्सर विद्यार्थी स्कूल आकर बताते हैं कि इस काम के लिए उन्हें बैंक के कई चक्कर लगाने पड़ते हैं क्योंकि किसी न किसी कारण से बैंक में पासबुक अपडेट नहीं हो पाती है। वहीं हमारे विद्यार्थी अपने हर काम के लिए बार-बार बैंक की लाइन में खड़े होते हैं। यह अपमानजनक अनुभव ख़त्म होना चाहिए। इसके लिए शिक्षा विभाग बैंकों को उचित सलाह जारी करे। साथ ही शिक्षकों को शिक्षा विभाग की वेबसाइट के माध्यम से इस जानकारी के बारे में सूचित किया जाए।
5. विद्यालयों में ऐसे अनेक विद्यार्थी हैं जो यह शिकायत करके चुप बैठ जाते हैं कि उनके खाते में पैसे नहीं आए। यह घोटाला नहीं तो क्या है कि न तो बच्चों का पैसा उन तक पहुँच रहा है और न ही पता लग रहा है कि वो पैसा जा कहाँ रहा है? इसलिए शिक्षकों और विद्यार्थियों को अवगत कराया जाए कि स्कीम का पैसा/वजीफा न आने की स्थिति में वे किस शिकायत निवारण तंत्र का सहारा ले सकते हैं। अभी हमें ऐसे किसी तंत्र की जानकारी नहीं है जहाँ बच्चे यह शिकायत डाल सकें कि आधार से जुड़े होने के बावजूद उनके खाते में पैसा नहीं आया। यह तंत्र पारदर्शी और समयबद्ध तरीके से काम करे। इसकी जानकारी स्कूलों और अभिभावकों तक पहुँचाई जाए। जिन बच्चों का पिछले सत्र का पैसा नहीं आया है उन्हें ब्याज समेत उसका भुगतान किया जाए।
6. इसी सत्र से यह नियम भी बनाया जाए कि जिन बच्चों का पैसा उनके खाते में नहीं पहुँचेगा उन्हें नक़द पैसा दिया जाएगा। अगर DBT को जनता की मदद के लिए लाया गया था तो तकनीकी सीमाओं के कारण एक भी बच्चे को उसके वजीफे से वंचित करने की जवाबदेही किसकी है? एक के साथ अन्याय, सब के साथ अन्याय है।
7. शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 मुफ़्त किताबों का अधिकार कक्षा 8 तक ही देता है। लेकिन हमारा अनुभव बताता है कि किताबें (नाकि बैंक ट्रांसफर) और लिखने की सामग्री (कॉपी आदि) की ज़रूरत कक्षा 9-12 के विद्यार्थियों को भी है। वैसे भी किताबों के लिए दी जाने वाली सब्सिडी की राशि इतनी नहीं है कि उसमें बच्चे सारी किताबें खरीद सकें। इसलिए हमारी माँग है कि कक्षा 9-12 के विद्यार्थियों को भी किताबें दी जाएँ नाकि पैसे। साथ ही कक्षा 9-12 के विद्यार्थियों को भी लिखने की सामग्री दी जाए।
8. कई विद्यालयों में EBM स्कॉलरशिप के लिए स्व-प्रमाणित आय घोषणापत्र को MLA/पार्षद से प्रमाणित करवाकर लाने के लिए कहा जाता है जबकि विभाग द्वारा ऐसी कोई शर्त नहीं रखी गई है। स्कूलों को यह स्पष्टीकरण जारी किया जाए कि EBM के लिए स्व-प्रमाणित अल्पसंख्यक सर्टिफिकेट व आय प्रमाण पत्र ही मान्य हैं।
9. SC/ST/OBC/Minority पृष्ठभूमि के विद्यार्थियों के मेरिट और स्टेशनरी वजीफे को एक नहीं, बल्कि पहले की तरह दो अलग-अलग वजीफों के रूप में ही आवंटित किया जाए। स्टेशनरी की ज़रूरत हर बच्चे को है इसलिए इसे परीक्षा-परिणाम से जोड़ना अन्याय है। दोनों वजीफों को जोड़ने के बाद से उन बच्चों को स्टेशनरी का पैसा मिलना बंद हो गया है जिनके अंक कक्षा IX-X में 50% से कम और कक्षा XI-XII में 60% से कम हैं। क्या कम अंक वाले बच्चों को स्टेशनरी की ज़रूरत नहीं है? इसलिए इन दोनों वजीफों को पुन: अलग किया जाए।
10. 2020-21 में मेरिट और स्टेशनरी स्कॉलरशिप का आवंटन नहीं किया गया। ऐसा क्यों? न ही इसके बारे में शिक्षकों व अभिभावकों को सूचित किया गया। सत्र 2021-22 की स्टूडेंट डायरी में भी मेरिट व स्टेशनरी की स्कॉलरशिप का ज़िक्र नहीं है। दो सालों तक किसी वजीफे को बंद रखा गया और विभाग ने इस पर चुप्पी साधी रखी। इसकी जवाबदेही किसकी है? इन सवालों के जवाब दिए जाएँ और पिछले सत्र की इस स्कॉलरशिप का आवंटन हो। कानून बनाकर वज़ीफ़ों को एक वैधानिक आधार दिया जाए, ताकि उनका आवंटन स्कीम की मनमर्ज़ी व अनिश्चितता की भेंट न चढ़े। 
11. अख़बारी रपट और हमारे अनुभव बताते हैं कि प्री और पोस्ट मेट्रिक स्कॉलरशिप फॉर माइनॉरिटी के ऑनलाइन आवेदन की शर्त के चलते अधिकतम बच्चे इसे भर ही नहीं पा रहे हैं। हेल्पडेस्क लगवाकर और अतिरिक्त स्टॉफ रखकर ऑनलाइन आवेदन में विद्यार्थियों की मदद की जाए और केंद्र सरकार पर यह दबाव बनाया जाए कि ऑफलाइन व ऑनलाइन दोनों माध्यमों से आवेदन स्वीकार किए जाएँ।
यहाँ तक कि प्री मेट्रिक और पोस्ट मेट्रिक स्कॉलरशिप फॉर माइनॉरिटी की जानकारी 2021-22 की विद्यार्थी डायरी में भी नहीं दी गई है। अगर यह डायरी विद्यार्थियों की सम्पूर्ण जानकारी के लिए है तो इस वजीफे की जानकारी को हटाना ग़लत है। इसे पूर्ण सूचना के साथ डायरी में दोबारा शामिल किया जाए।
12. पोस्ट मेट्रिक स्कॉलरशिप में आय प्रमाण-पत्र के डाले जाने के बाद से आवेदकों की संख्या बहुत घटी है। हमारे अधिकतम विद्यार्थियों के माता-पिता अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं। वे ऐसे दस्तावेज़ इकट्ठा ही नहीं कर पाते जो आय प्रमाण-पत्र बनवाने के लिए ज़रूरी होते हैं। राज्य सरकार जवाब दे कि इस शर्त को पोस्ट मेट्रिक स्कॉलरशिप में क्यों रखा गया है। जो विद्यार्थी आय प्रमाण-पत्र नहीं बनवा पाते उनकी मदद के लिए सरकार द्वारा क्या प्रयास किए जा रहे हैं? 
13. CWSN के वजीफों में 50% अटेंडेंस की जोड़ी गई नई शर्त को हटाया जाए क्योंकि ऐसे बच्चे अक्सर मजबूरीवश स्कूल नहीं आ पाते हैं। कम उपस्थिति के पीछे उनकी मजबूरियाँ समझने की बजाय उन्हें सज़ा देना ग़लत है। बल्कि जो विशेष ज़रूरतों वाले बच्चे विद्यालय नहीं आ पा रहे हैं, उनके कारणों को जानने का प्रयास किया जाए और व्यवस्थित अध्ययन की रपट को सार्वजनिक किया जाए।
14. शिक्षा विभाग DCPCR व समाज कल्याण विभाग के साथ मिलकर विद्यालयों के बीच यह सर्वेक्षण कराए कि साल-दर-साल विभिन्न वजीफों की शर्तों के बदलने से आवेदन की संख्या में क्या बदलाव हुए हैं। अगर आवेदन और आवंटन घटा है तो उसके कारणों का अध्ययन करके रपट को सार्वजनिक किया जाए व प्रक्रिया में पाई गई समस्याओं के निवारण हेतु कार्यवाही हो।
15. विद्यार्थियों के ये अनुभव भी इकट्ठे किए जाएँ कि उन्हें इन्कम सर्टिफिकेट बनवाने में क्या समस्याएँ आती हैं। या तो SDM दफ़्तर द्वारा विद्यालयों में कैंप लगवाकर इन्कम सर्टिफिकेट बनवाने में विद्यार्थियों की मदद की जाए, अन्यथा विभिन्न वजीफों से इन्कम सर्टिफिकेट की शर्त को हटाया जाए क्योंकि इस दस्तावेज़ की माँग अन्यायपूर्ण अपवर्जन का कारण बन गई है।
16. आज दिल्ली सरकार के स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों की बड़ी संख्या SC/ST/OBC/Minority पृष्ठभूमि के विद्यार्थियों की है, लेकिन इनमें से अधिकतम अभिभावकों को यह जानकारी ही नहीं होती कि जाति प्रमाण-पत्र क्या होता है, इसे कैसे बनवाएँ आदि। यह भी ग़लत है कि बिना जाति प्रमाण-पत्र के विद्यालयों में दाखिले के समय भी बच्चे की उस जातिगत पृष्ठभूमि को दर्ज नहीं किया जाता है जो अभिभावक बताते हैं। जाति प्रमाण-पत्र की शर्त वजीफों के लिए है, लेकिन अगर हम विद्यार्थियों की सही जातिगत पृष्ठभूमि दर्ज ही नहीं करेंगे तो यह उनकी पहचान को अदृश्य करने के समान होगा। एडमिशन फॉर्म में बच्चे की जातिगत पृष्ठभूमि और जाति प्रमाण-पत्र को अलग-अलग कॉलम में दर्ज किया जाए।
17.कक्षा 1-8 के अनुसूचित जाति से संबंध रखने वाले विद्यार्थियों के लिए प्री-मेट्रिक वजीफे को शुरू किया जाए।
18. अनुसूचित जाति/जनजाति वर्ग से आने वाले विद्यार्थियों के वजीफों के लिए इन्कम सर्टिफिकेट की शर्त को ख़त्म किया जाए। अनुसूचित जाति के संदर्भ में आय सीमा की शर्त रखना creamy layer के सिद्धांत के समान है, जोकि अनुसूचित जाति वर्ग के संदर्भ में असंवैधानिक है।

धन्यवाद

संयोजक समिति 
लोक शिक्षक मंच 

प्रतिलिपि:
निदेशक, दिल्ली शिक्षा विभाग
निर्देशक , समाज कल्याण विभाग, दिल्ली 
चेयरपर्सन, DCPCR 
केंद्र मंत्री, सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय 
शिक्षा मंत्री, शिक्षा मंत्रालय, भारत सरकार 
चेयरपर्सन, NCPCR 

स्कूल्ज़ ऑफ़ स्पैशलाइज़्ड एजुकेशन (SoSE) की योजना ख़ारिज करो!

 बच्चों व स्कूलों के बीच ग़ैर-बराबरी की बहुपरती व्यवस्था ख़त्म करो!  

 

 पृष्ठभूमि 

13 अगस्त को दिल्ली सरकार ने यह घोषित किया कि नवगठित दिल्ली बोर्ड ऑफ़ स्कूल एजुकेशन को कॉउंसिल ऑफ़ बोर्ड्स ऑफ़ स्कूल एजुकेशन और एसोसिएशन ऑफ़ इंडियन यूनिवर्सिटीज़ से मंज़ूरी मिल गई है। शिक्षा मंत्री ने, जोकि इस बोर्ड के प्रमुख हैं, यह भी कहा कि इंटरनैशनल बॅकलॉरियट (आईबी) के साथ मिलकर काम करने से बच्चों के लिए 'विश्वस्तरीय' अवसर खुलेंगे।  

द हिंदू में 12 अगस्त को छपी एक रपट के अनुसार इस नवगठित बोर्ड ने इंटरनैशनल बॅकलॉरियट के साथ एक समझौता किया है जिसके तहत इसी सत्र में दिल्ली सरकार के 30 स्कूलों में पाठ्यचर्या, शिक्षाशास्त्र व मूल्याँकन के क्षेत्रों में 'वैश्विक चलन' अपनाए जाएँगे। रपट में कहा गया कि नवगठित बोर्ड से संबद्ध 10 सर्वोदय स्कूलों के नर्सरी से 8वीं तक के विद्यार्थी और 20 स्कूल्ज़ ऑफ़ स्पैशालाइज़्ड एक्सेलेंस (SoSE; यह स्पष्ट नहीं है कि इन्हें हिंदी में कोई नाम दिया गया है या नहीं) के 9वीं से 12वीं तक के विद्यार्थी अब उच्चतम अंतर्राष्ट्रीय स्तर की शिक्षा पा सकेंगे। अमरीका, कनाडा, स्पेन, जापान और दक्षिण कोरिया जैसे 'विकसित' देशों की सरकारों के उदाहरण देते हुए मुख्यमंत्री ने बताया कि इंटरनैशनल बॅकलॉरियट 159 देशों में 5,500 स्कूलों के साथ मिलकर काम कर रहा है। उन्होंने इस पहल को सबसे वंचित लोगों के लिए सर्वश्रेष्ठ गुणवत्ता की शिक्षा उपलब्ध कराने के मॉडल के रूप में व्याख्यायित किया। कहा गया कि आईबी के मार्गदर्शन में स्कूलों की जाँच-परख की जाएगी और उन्हें सुधारने के उपाय बताए जाएँगे, जिसमें प्रशिक्षण आदि शामिल होगा, जिससे कि और स्कूलों को नवगठित बोर्ड से संबद्ध होने की प्रेरणा मिलेगी। शिक्षा मंत्री ने बताया कि सरकार का उद्देश्य यह सुनिश्चित करना है कि दिल्ली के विद्यार्थी वैश्विक नेता बनें। यह भी बताया गया कि आईबी सरकारी बोर्ड के साथ ज्ञान सहयोगी (नॉलेज पार्टनर) की तरह काम करेगा। 

 

लोक शिक्षक मंच इन स्कूलों की संकल्पना व सिद्धांत पर कुछ बिंदु व प्रश्न साझा करते हुए, माँगों सहित एक बयान सार्वजनिक कर रहा है। 


सिर्फ़ 'कुछ' गड़बड़ नहीं है, बल्कि सब कुछ ही गड़बड़ है 

अगर दिल्ली की, या कोई भी सरकार कुछ विशिष्ट स्कूल खोलकर बच्चों को पढ़ाई का 'सर्वोत्तम' माहौल देने का दावा करती है, तो आख़िर हमें क्या समस्या है?

हमें इस पूरी संकल्पना से ही अनेक दिक्कतें हैं, जो नीचे दर्ज हैं। 

1. जब कोई सरकार अपने सभी शिक्षा संस्थानों पर बराबर ध्यान नहीं देना चाहती, तब वो इनमें से कुछ संस्थानों को चमकाकर वाहवाही लूटने की राजनीति करती है। प्रतिभा विद्यालय भी तो इसी राजनीति का हिस्सा थे जिनमें सरकारी स्कूलों से बच्चों को छाँटकर ले जाया जाता था और उन्हें 'बढ़िया' शिक्षा दी जाती थी। मतलब, क्या सरकार ख़ुद यह स्वीकारती है कि वो अपने सभी स्कूलों में अच्छी शिक्षा देने में विफल है?

इसके बाद स्कूल ऑफ़ एक्सेलेंस ग़ैर-बराबरी की मिसाल बने। और अब इस बहुपरती व्यवस्था की नाइंसाफ़ी छुपाने के लिए इस पर स्कूल ऑफ़ स्पैशलाइज़्ड एक्सेलेंस (SoSE) की नई क्रीम पोती जा रही है। 

2. पहले निगम व निदेशालय के स्कूलों में दो साल पढ़ने पर ही प्रतिभा स्कूलों में प्रवेश के लिए परीक्षा दी जा सकती थी। ऐसा इसलिए किया गया था कि प्रतिभा जैसे विशिष्ट सार्वजनिक स्कूलों में उन बच्चों का पढ़ने का मौका सुरक्षित हो जो सरकारी स्कूलों से आए हैं। अब यह शर्त हटा दी गई है। इनमें केवल 50% प्रवेश ही सरकारी स्कूल से पढ़े बच्चों के लिए सुरक्षित होगा। जिसका मतलब है कि 50% सीटें प्राइवेट स्कूलों के विद्यार्थियों के लिए अपने-आप सुरक्षित हो जाएँगी। इसका नतीजा यह भी होगा कि अब एक ही विद्यालय में विद्यार्थियों के दो वर्ग होंगे। सरकारी विद्यालयों में पढ़ने वाले विद्यार्थियों के लिए मौके बढ़ेंगे नहीं, घटेंगे। 

3. इन ख़ास विद्यालयों में प्रवेश के लिए अब बच्चे गलाकाट प्रतिस्पर्धा करेंगे। वैसी ही प्रतिस्पर्धा जो हम मेडिकल या इंजीनियरिंग एंट्रेंस में देखते हैं। ज़ाहिर है, यहाँ शिक्षा अधिकार अधिनियम का 'कोई प्रवेश परीक्षा नहीं' लेने का सिद्धांत मायने नहीं रखेगा।

क्या प्रतिस्पर्धा पर खड़े ऐसे विद्यालयों से कोचिंग केंद्रों के लक्षणों का आभास नहीं होता है? ये विद्यालय सिर्फ़ नए तरह के संस्थान नहीं हैं, बल्कि ये नई तरह के नवउदारवादी शिक्षा दर्शन के परिणाम हैं। इनसे आम सार्वजनिक स्कूलों का महत्व और कम होगा।

4. एक सवाल यह भी है कि 'सर्वोत्तम शिक्षा' की परिभाषा क्या है। अगर SoSEs में बच्चों को मेडिकल, इंजीनियरिंग, कानून आदि की प्रवेश परीक्षाओं के लिए तैयार किया जाएगा तो इस काम के लिए तो कोचिंग इंडस्ट्री के केंद्रों की भीड़ पहले से मौजूद है। सरकारी स्कूलों को कोचिंग केंद्र बनाने की क्या ज़रूरत आन पड़ी?

या तो सरकार को अपनी शेख़ी बघारने के लिए ऐसा करना पड़ रहा है ताकि वो विज्ञापनों में प्रचारित कर सके कि 'सरकारी स्कूलों के 100-200-300 बच्चों ने IIT में प्रवेश लिया'। या फ़िर मध्यम-वर्गीय अभिभावकों के एक हिस्से को खुश करना पड़ रहा है कि उनके बच्चे को भी महँगी कोचिंग वाली तैयारी सरकारी स्कूल में मुफ़्त कराई जाएगी। या फ़िर सरकार चाहती है कि जनता ज़्यादातर सरकारी स्कूलों में दी जा रही दोयम दर्जे की शिक्षा (जिनमें महज़ साक्षरता प्रोग्राम पर ज़ोर है) पर बात करने के बजाय  SoSEs की चकाचौंध में खो जाए। 

5. हम इस कोचिंग को शिक्षा नहीं 'प्रति-शिक्षा' मानते हैं। कोचिंग का जो बाज़ार दशकों से भारत, चीन, कोरिया जैसे विकासशील देशों में फल-फूल रहा है, उसका इतिहास दाग़दार है। जिस व्यवस्था में एक नौकरी के लिए हज़ारों अभ्यार्थी खड़े हैं, उसमें कुछ मुनाफाखोर इस तंगी को प्रतिस्पर्धा में बदलकर पैसे कमाने के साधन अवश्य ढूंढ लेंगे। हर एक 'सफल' बच्चे पर 1000 'असफल' बच्चे तैयार होंगे जो पिछड़ेंगे और मानसिक तनाव के शिकार बनेंगे।

भयावह यह है कि अभी तक जो विकृती सरकारी स्कूलों से बाहर थी, अब उस बीमारी को अंदर घुसाया जा रहा है। जब मेडिकल, इंजीनियरिंग की शिक्षा का बाज़ारीकरण हो रहा था, तब हम उसे तो रोक नहीं पाए, उल्टा अब हमारे सरकारी स्कूलों को ही इस बाज़ार की दुकानें बनाने की तैयारी हो रही है। 

6. यह भी अभी तक स्पष्ट रूप से सामने नहीं आया है कि इन विद्यालयों में वित्तीय, फ़ीस प्रवेश व नियुक्तियों में सामाजिक न्याय के संवैधानिक प्रावधान लागू होंगे या नहीं और अगर होंगे तो कैसे लागू होंगे। यह साफ़ नहीं है कि इन स्कूलों में शिक्षकों की नियुक्ति-तैनाती किन आधारों पर होगी। हमारा मानना है कि इन स्कूलों में निजी संस्थाओं की प्रस्तावित नियंत्रणकारी भूमिकाओं के चलते शिक्षकों की अकादमिक व पेशागत स्वायत्तता व गरिमा भी ख़तरे में पड़ जाएगी। इन पहलुओं के बारे में एक अघोषित चुप्पी है जिसे केवल सीमित आधिकारिक बयानों या प्रचारी रपटों से पोछा जा रहा है। इससे इन स्कूलों के प्रबंधन, क़रार की शर्तों आदि को लेकर गंभीर शंकाएँ उभरती हैं। 

7. क्या इनमें विशेष ज़रूरतों वाले बच्चों को प्रवेश मिलेगा? हम देखते आए हैं कि तथाकथित उच्च-स्तरीय या विश्वस्तरीय संस्थानों की चमक-धमक बनाने के लिए सबसे कमज़ोर की बलि ली जाती है, उन्हें बाहर रखकर ही ये संस्थान विशिष्ट होने का गर्व महसूस करते हैं और समाज में प्रतिष्ठा पाते हैं।       

8. आज दिल्ली के सरकारी स्कूलों में कक्षा VI-VIII के हर बच्चे पर मिशन बुनियाद थोपा जा रहा है। उन्हें केवल कामचलाऊ (हिंदी और गणित) साक्षरता प्रोग्राम के लायक़ बताया जा रहा है। उनकी पाठयचर्या से सिद्धांतों को ख़त्म कर दिया गया है। एक तरफ़ अधिकतम बच्चों के स्तर को गिराया जा रहा है और दूसरी तरफ़ अंतर्राष्ट्रीय स्तर के नाम पर आईबी से क़रार करके विश्वस्तरीय शिक्षा देने का ढोल पीटा जा रहा है। यह कैसा विरोधाभास है?

दरअसल यह विरोधाभास नहीं, बल्कि इस व्यवस्था की एक अनिवार्य परिस्थिति है। वर्तमान अर्थव्यवस्था को जैसे श्रमिकों की ज़रूरत है, यह उन्हीं को तैयार करने की शिक्षा योजना है। अधिकतम बच्चे दोयम दर्जे की साक्षरता पाकर मशीन चलाने वाली लेबर फ़ौज का हिस्सा बनेंगे। इनकी शिक्षा को गहन सिद्धांतों से खाली करके इन्हें जागरूक, सशक्त मज़दूर बनने से रोका जाएगा। वहीं दूसरी तरफ़ मुट्ठीभर युवाओं को प्रशासकीय, प्रबंधकीय व अत्यधिक कुशल भूमिकाओं के लिए तैयार करने के लिए स्कूलों से लेकर विश्वविद्यालयों तक एंट्रेंस टेस्ट की छलनियाँ बिछाई जाएँगी।

9. इसी तरह, चाहे वो दिल्ली सरकार का एक तरफ़ 'देशभक्ति करिकुलम' लाना व दूसरी तरफ़ 'अंतर्राष्ट्रीय नागरिक' बनाने के घोषित मक़सद वाले आईबी को लाना हो या केंद्र सरकार की राष्ट्रीय शिक्षा नीति में इसी तरह के दोमुँही आग्रह, यह 'प्रतीकात्मक राष्ट्रवादी' तत्वों को ख़ुश करके व जनता को भरमाकर शिक्षा में अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार को घुसाने की योजना का मिला-जुला पैंतरा है।  

10. स्कूलबंदी और कोरोना के संदर्भ में ख़ासमख़ास स्कूल खोलना - दरअसल खोलना नहीं, पुरानों को बंद करके, उनके सार्वजनिक ज़मीन-संसाधनों को 'विश्वस्तरीय' स्कूलों की मृगतृष्णा के नाम पर निजी नहीं तो अर्धनिजी हाथों में सौंपना - और उनमें दाख़िले देने के लिए प्रवेश परीक्षा आयोजित करना (जैसे कि सब कुछ 'सामान्य' हो) शिक्षा व लोगों की हक़ीक़त के साथ एक क्रूर मज़ाक है।

कोरोना, घरबन्दी और आर्थिक संकट के दबाव में सरकारी स्कूलों में बढ़ते दाख़िलों के संदर्भ में जहाँ वक़्त की माँग थी कि नए सरकारी स्कूल खोले जाएँ, पर्याप्त संख्या में नियमित स्टाफ़ की नियुक्ति की जाए, प्राइवेट स्कूलों की मनमर्ज़ी रोकी जाए आदि, वहाँ सरकार ने ऐसा कुछ तो किया नहीं, बल्कि एक तरह से सार्वजनिक स्कूलों और उनकी 'सीटों' को कम करने की योजना बनाकर बच्चों के आधे-अधूरे अधिकारों का दायरा और सीमित कर दिया है।

 

जनता के सामने सवाल 

क्या हमें सचमुच लगता है कि इन नई परतों से सभी स्कूलों में एक-जैसी, एक समान गुणवत्ता वाली शिक्षा मज़बूत होगी या अब हमने वो सपना देखना ही छोड़ दिया है? क्या इन विशिष्ट स्कूलों को खोलकर सरकार सभी बच्चों का भला कर रही है या कुछ बच्चों को छाँटकर बाकी बच्चों को अपने हाल पर छोड़ रही है? ऐसे प्रोग्राम मौजूदा गैर-बराबरी को और बढ़ाएँगे या कम करेंगे?

हमारी माँग तो यह होनी चाहिए कि सभी सरकारी स्कूलों में एक समान फण्ड, बराबर ध्यान और एक समान गुणवत्ता वाली शिक्षा होनी चाहिए।

जनता भूखी है। उसे भूखा रखा गया है। अपनी ज़िम्मेदारी निभाने के नाम पर सरकार 100 में से 4 लोगों के लिए केक बनवाती है। विडंबना यह है कि हम 100 लोग एक होकर सरकार से सवाल नहीं पूछते कि 96 लोगों का हिस्सा कहाँ गया, बल्कि इन 4 लोगों के हिस्से वाले केक के लिए आपस में लड़ने लगते हैं। साथ ही सरकार की वाहवाही भी करते हैं कि सरकार ने भूखे लोगों के लिए केक बनवाया!

सरकार जवाब दे 

1. अगर इन विशिष्ट स्कूलों में  'सर्वोत्तम' शिक्षा दी जाएगी तो अन्य सैकड़ों दिल्ली सरकार के स्कूलों को क्या कामचलाऊ शिक्षा देने के लिए खोला गया हैसरकर द्वारा सरकारी स्कूलों के बीच में ही यह भेदभाव क्यों?

2. हिसाब दीजिए कि जितने संसाधन एक SoSE को दिए जाएँगे, उसमें कितने सामान्य सरकारी स्कूल अपनी स्थिति सुधार सकते हैं। एक तरफ़ 15 विद्यालयों में कक्षा 11-12 के हर विद्यार्थी को टैब दिया जा सकता है, दूसरी तरफ़ सरकारी स्कूलों के हज़ारों बच्चों को मासिक इंटरनेट डाटा के लिए कोई मदद नहीं पहुँचाई गई। क्या हम कुछ विद्यार्थियों को टैब देने के लिए सरकार की वाहवाही करके इसके हाथ मज़बूत करें या अधिकतम बच्चों को आधारभूत संसाधनों से वंचित रखने के लिए इसे कटघरे में खड़ा करें

3. 10 विशिष्ट विज्ञान विद्यालय खोलने से कुछ नहीं होता। पहले सभी सरकारी स्कूलों में विज्ञान और कॉमर्स विकल्प वापस लेकर आओ, विज्ञान लैब को ज़िंदा करो, हर बच्चे को वैज्ञानिक प्रयोगों का आदि बनाओ। तब तक यह दावा बेमानी है और भ्रमित करने वाला सस्ता प्रचार मात्र है कि सरकार ने विज्ञान की शिक्षा के लिए कुछ सार्थक किया है। 

4. दिल्ली सरकार आईबी पाठ्यचर्या खरीदने और निजी संस्थाओं को दिए गए सैकड़ों करोड़ों का चिट्ठा प्रस्तुत करे, सारे कॉन्ट्रैक्ट, नियम आदि को सार्वजनिक पटल पर रखे, ताकि इनकी जाँच हो सके और जनता सच्चाई जाने। इस भेदभावपूर्ण और शिक्षा-विरोधी योजना को वापस लिया जाए।








  

Saturday, 18 September 2021

 6 सितंबर 2021 को Locked Out : Emergency Report on School Education नाम से एक रपट जारी की गई जिसे 100 लोगों के ज़मीनी सहयोग से ज्याँ द्रेज़, निराली बाखला, रीतिका खेरा व विपुल पाइक्रा की टीम ने तैयार किया था। रपट तैयार करने की प्रक्रिया के पहले चरण में 15 राज्यों व केंद्र-शासित प्रदेशों में कक्षा एक से आठ तक में नामाँकित बच्चों वाले 1362 घर-परिवारों के बीच सर्वे किया गया था। रपट स्कूलों की तालाबंदी के भयावह असर और ऑनलाइन पढ़ाई की हक़ीक़त को, विशेषकर वंचित वर्गों के संदर्भ में, बख़ूबी सामने लाती है। हालाँकि, रपट में 'आधारभूत साक्षरता व गणना' की शिक्षा-विरोधी संकल्पना जो स्कूलों को अधिगम व अधिगम को फिर महज़ पढ़ना-लिखना सीखने तक सीमित करके उसके नुक़सान (लर्निंग लॉस) को अन्य किसी भी आयाम व चिंता से ऊपर रखता है - का प्रभाव झलकता है, रपट में कुल मिलाकर शिक्षा में ग़ैर-बराबरी को लेकर व्यक्त की गई चिंता राजनैतिक ईमानदारी दर्शाती है। ऊपर वर्णित शंका को चिन्हित करते हुए, हम यहाँ इस रपट के चुनिंदा अंशों का अनुवाद साझा कर रहे हैं ताकि यह महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हिंदीभाषी पाठकों तक पहुँच सके और तालाबंदी व ऑनलाइन पढ़ाई के धोखे को प्रमाण-सहित सामने रखते हुए शिक्षकों व अभिभावकों के बीच विमर्श को सही दिशा देने तथा जनदबाव बनाने के काम आए। मूल रपट के लिंक को नीचे संलग्न किया गया है।                                                                                                                                                                                                                                                                           संपादक


लॉक्ड आउट: स्कूल शिक्षा पर आपातकालिक
रपट


सारांश
लगभग 1400 वंचित परिवारों के बीच किया गया हालिया सर्वे पिछले डेढ़ साल की लंबी स्कूलबंदी के विनाशकारी नतीजे सामने लाता है। इस सैंपल में ग्रामीण इलाक़ों के महज़ 8% बच्चे नियमित रूप से ऑनलाइन पढ़ाई कर रहे हैं और 37% बिलकुल नहीं पढ़ रहे हैं। अधिकतर माता-पिता चाहते हैं कि स्कूल जितनी जल्दी मुमकिन हो, खोले जाएँ। (यह सर्वे अगस्त 2021 के दौरान 15 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में किया गया था।) 
 
ऑनलाइन शिक्षा की मनगढ़ंत कहानी
यह सर्वे साफ़ करता है कि ऑनलाइन शिक्षा की पहुँच बहुत सीमित है: नियमित रूप से ऑनलाइन पढ़ाई करने वाले बच्चों का अनुपात शहरी व ग्रामीण इलाक़ों में क्रमशः 24% व 8% था। इसका एक कारण यह है कि सैंपल में शामिल कई परिवारों - गाँव के लगभग आधे - के पास स्मार्ट फ़ोन नहीं है। मगर यह तो पहली बाधा है: जिन परिवारों

के पास स्मार्ट फ़ोन है उनमें से भी नियमित रूप से ऑनलाइन पढ़ाई करने वाले बच्चों का अनुपात शहरों में 31% व गाँवों में 15% है। परिवार के कामकाजी बड़ों द्वारा इस्तेमाल किए जाने के चलते ख़ासतौर से छोटी उम्र के बच्चों के लिए स्मार्टफ़ोन उपलब्ध नहीं होते हैं; फिर ख़राब नेटवर्क व डाटा के लिए पैसों की कमी से जुड़ी समस्याएँ भी हैं।
ऐसे माता-पिता का अनुपात जिनको लगता था कि उनके बच्चे के पास पर्याप्त ऑनलाइन पहुँच थी शहरों में महज़ 23% व गाँवों में 8% था। एक बड़ी दिक़्क़त, ख़ासतौर से ग्रामीण इलाक़ों में, यह भी थी कि स्कूल ऑनलाइन सामग्री नहीं भेज रहे हैं, या अगर भेज भी रहे हैं तो माता-पिता को इसकी जानकारी नहीं है। वैसे भी, कुछ बच्चे, ख़ासतौर से छोटी उम्र के, ऑनलाइन पढ़ाई नहीं समझ पाते हैं, या उन्हें ध्यान लगाने में मुश्किल होती है।
ऑफ़लाइन बच्चों के बीच नियमित पढ़ाई के बहुत कम सबूत मिले। इनकी बड़ी बहुसंख्या या तो पढ़ ही नहीं रही है, या कभी-कभार घर पर जैसे-तैसे पढ़ रही है। सर्वे के दौरान पाया गया कि गाँवों के ऑफ़लाइन बच्चों में से लगभग आधे बिलकुल नहीं पढ़ रहे थे।
 
शिक्षकों से दूर [होते बच्चे]
सर्वे से पूर्व के 30 दिनों में अधिकतर बच्चे (शहरी इलाक़ों में 51% व ग्रामीण में 58%) अपने शिक्षक से नहीं मिले थे। इसके बावजूद, कुछ शिक्षकों ने अपनी ड्यूटी के परे जाकर ऑफ़लाइन बच्चों की मदद की। सर्वे से प्रयत्नशील शिक्षकों की कई पहलें उजागर हुईं। कुछ ने खुले में, या किसी के घर में या यहाँ तक कि अपने घर में, छोटे समूह की कक्षाएँ लीं। कुछ ने पैसों की तंगी से जूझ रहे बच्चों के फ़ोन रीचार्ज किए या ऑनलाइन पढ़ाई के लिए उन्हें कुछ समय के लिए अपने फ़ोन दिए। अन्यों ने [अपनी क्लास से इतर] कुछ बच्चों को फ़ोन पर या उनके घर जाकर भी पढ़ाया। ये सब बेशक़ीमती प्रयास थे, मगर इनसे तालाबंद स्कूलों और क्लासरूम की रुकी कक्षाओं की भरपाई नहीं हो सकती।

अधिकतर माता-पिता का मानना था कि [स्कूल की] तालाबंदी के दौरान उनके बच्चे की पढ़ने-लिखने की क़ाबीलियत में गिरावट आई है। ऑनलाइन पढ़ने वाले शहरी बच्चों के माता-पिता में भी ऐसा महसूस करने वालों का अनुपात 65% था। पूरे सैंपल में मिलाकर सिर्फ़ 4% माता-पिता को लगा कि तालाबंदी के दौरान उनके बच्चे के पढ़ने-लिखने की क़ाबीलियत में सुधार हुआ है - जोकि [बढ़ती उम्र व कक्षा के साथ] एक सामान्य चीज़ होनी चाहिए थी।

हालात की नज़ाकत को समझने के लिए हम स्कूली बच्चों की साक्षरता दर की तुलना 2011 की जनगणना के इसी उम्र के बच्चों की साक्षरता के आँकड़ों से कर सकते हैं। जनगणना के आँकड़ों के अनुसार उस वक़्त 10-14 साल के समूह में औसत साक्षरता दर [सर्वे के सैंपल में शामिल राज्यों में], बिहार के 83% को छोड़कर, 88% से 98% थी; अखिल-भारत औसत 91% था। हम उम्मीद करेंगे कि दस साल बाद [यानी, आज] इस उम्र के बीच साक्षरता दर के आँकड़े का 90% से ऊपर होना सामान्य होगा। इसके विपरीत, हम देखते हैं कि इस सैंपल में 10-14 साल के स्कूली बच्चों में साक्षरता दर शहरी इलाक़ों में महज़ 74%, ग्रामीण इलाक़ों में 66% व ग्रामीण दलित तथा आदिवासी [पृष्ठभूमियों के] बच्चों में 61% तक ही है। यह फ़र्क़ इसलिए और भी चौंकाने वाला है क्योंकि जनगणना में साक्षरता की औपचारिक परिभाषा (किसी भी भाषा में समझ कर पढ़ने-लिखने की क्षमता) इस सर्वे में इस्तेमाल की गई परिभाषा से अधिक कठोर है। यह फ़र्क़ इतना अधिक है कि इसे सैंपल में शामिल बच्चों की वंचित पृष्ठभूमि के आधार पर समझा नहीं जा सकता है।
इसे इस तरह से देखा जा सकता है - सैंपल के ग्रामीण अनुसूचित जाति/जनजाति [पृष्ठभूमियों] के परिवारों के 10-14 साल के बच्चों में 'निरक्षरता दर' (39%) दस पहले इन्हीं राज्यों के इसी उम्र के बच्चों के 'निरक्षरता दर' (9%) से चार गुना से भी अधिक है। ये भयावह हालात [समाज में] स्थाई ग़ैर-बराबरी और [सरकार द्वारा की गई] एक एकतरफ़ा तालाबंदी का मिश्रित नतीजा हैं।
चाहे ऑनलाइन शिक्षा को देखें, या नियमित पढ़ाई को, या पढ़ने की क्षमता को, वंचित परिवारों में भी दलित व आदिवासी [पृष्ठभूमियों] के परिवारों के आँकड़े अन्यों की तुलना में और भी चिंताजनक हैं। मिसाल की तौर पर, अन्य ग्रामीण बच्चों में 15% के मुक़ाबले केवल 4% अनुसूचित जाति/जनजाति [पृष्ठभूमियों के] ग्रामीण बच्चे नियमित ऑनलाइन पढ़ाई कर पा रहे हैं। 98% ग्रामीण अनुसूचित जाति/जनजाति [पृष्ठभूमियों के] माता-पिता चाहते हैं कि स्कूलों को जितनी जल्दी मुमकिन हो उतनी जल्दी खोला जाए।
सर्वे से स्कूली व्यवस्था में दलितों व आदिवासियों के ख़िलाफ़ होने वाले भेदभाव के कुछ हैरतअंगेज़ करने वाले प्रसंग भी उजागर हुए। मिसाल के लिए, झारखंड के लातेहार ज़िले के कुटमु गाँव में अधिकतर परिवार दलित व आदिवासी [पृष्ठभूमियों से] हैं, लेकिन शिक्षक गाँव के चंद [तथाकथित] उच्च-जाति परिवारों में से एक परिवार से है। इन परिवारों के कुछ सदस्यों ने सर्वे दल से खुलकर पूछा, "अगर ये [अनुसूचित जाति/जनजाति के] बच्चे शिक्षित हो जाएँगे तो हमारे खेतों में कौन काम करेगा?" शिक्षिका क़रीब के शहर में रहती हैं, अपनी सुविधानुसार स्कूल आती हैं और कक्षा में भी ज़्यादा मेहनत नहीं करतीं। इस गाँव के 20 दलित व आदिवासी [पृष्ठभूमियों के] बच्चों में से एक भी धाराप्रवाह नहीं पढ़ पा रहा था। उनके माता-पिता शिक्षिका के ग़ैर-ज़िम्मेदाराना व्यवहार के बारे में बेइंतहा शिकायत कर रहे थे, लेकिन वो इसके बारे में कुछ भी कर पाने में असमर्थ थे।  
जब स्कूल खुलेंगे, बच्चे पाएँगे कि वो अपनी कक्षा की पाठ्यचर्या से 'तीन गुना' पीछे हैं। इस तीन गुना फ़ासले में (1) तालाबंदी के पूर्व का फ़र्क़, (2) तालाबंदी के दौरान साक्षरता व संबंधित क्षमताओं में आई गिरावट, तथा (3) इस बीच पाठ्यचर्या का लगातार आगे बढ़ते जाना शामिल है। उदाहरण लिए, तालाबंदी के पूर्व कक्षा 3 में पढ़ रही बच्ची, जोकि अपनी वंचित परिस्थिति की वजह से [उस वक़्त] कक्षा 2 के आगे की पाठ्यचर्या पर पकड़ नहीं बना पाई थी, [पढ़ाई छूट जाने के चलते] अब ख़ुद को कक्षा 1 के स्तर के नज़दीक पाएगी, जबकि आज वो कक्षा 5 में है! बेमेल परिस्थिति की इस विशाल खाई से निपटने के लिए पाठ्यचर्या व शिक्षणशास्त्र में महीनों नहीं बल्कि वर्षों की अवधि पर फैले बदलाव की दरकार है।
जबकि कुछ बच्चे मज़दूर बन गए हैं, अन्य ख़ालीपन, शारीरिक सक्रियता के अभाव, फ़ोन की लत, परिवार के तनावों तथा तालाबंदी के दूसरे दुष्प्रभावों से जूझ रहे हैं। उदाहरण के लिए, कुछ माता-पिता ने अपने बच्चों के अनुशासनहीन, आक्रामक और यहाँ तक कि हिंसक तक हो जाने की शिकायत की। अन्यों ने, ख़ासतौर से शहरों में, बच्चों के हर वक़्त घर पर होने को एक बोझ की तरह पाया, या अपने बच्चे के घर के बाहर की गतिविधियों व जान-पहचान को लेकर चिंता ज़ाहिर की। घर के बाहर काम करने वाली माताओं के लिए स्कूलों की तालाबंदी एक आफ़त है।  

स्कूलों को फिर से खोलने की माँग
हमारे द्वारा इंटरव्यू किए गए अधिकतर अभिभावक चाहते हैं कि स्कूल जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी खुलें। शहरी इलाक़ों में एक छोटी संख्या (6%) को इसे लेकर कुछ हिचकिचाहट थी, या - कुछ मामलों में - विरोध भी। हालाँकि, ग्रामीण इलाक़ों में 97% तक अभिभावक स्कूलों को दोबारा खोलने के पक्ष में थे। जब हमने पूछा कि क्या वो चाहेंगे कि स्कूल फिर से खोले जाएँ, तो अधिकतर ने महसूस किया कि इसका जवाब तो स्वाभाविक था। जैसा कि एक अचंभित माँ ने कहा, "ये भी कोई पूछने वाली बात है?"  

एक उभरती हुई आपदा
स्कूल अनिवार्य सेवा [देते] हैं। यह बुद्धिमानीपूर्ण ही कहा गया है कि इन्हें सबसे आख़ीर में बंद होना चाहिए और सबसे पहले खुलना चाहिए। भारत में इसके उलट ही हुआ है: 2020 की शुरुआत में भारत में कोविड-19 के संकट के आने के फ़ौरन बाद ही पलक झपकाए बिना सभी स्कूलों को बंद कर दिया गया और इनमें से अधिकतर आज भी बंद हैं। जब स्कूल दोबारा खुले हैं तो ध्यान उच्च कक्षाओं पर रहा है, नाकि छोटे बच्चों पर जिन्हें अपने शिक्षकों की मदद की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है। 17 महीनों तक ऑनलाइन शिक्षा के रुमाल से स्कूलों से बेदख़ली की लाश को ढका गया। इस ज़बरदस्त नाइंसाफ़ी पर इतने लंबे समय तक कोई सवाल नहीं खड़े किए जाना भारत के विशिष्ट लोकतंत्र का दोष सिद्ध करता है।
यह स्कूल सर्वे इस लंबी तालाबंदी - दुनिया की सबसे लंबी तालाबंदियों में से एक - द्वारा निर्मित प्रचंड विनाश का संकेत भर करता है। जैसा कि हमने देखा, अभिभावक ख़ुद इस विनाश से अनभिज्ञ नहीं हैं। उनमें से बहुतों ने अपनी मायूसी को इस तरह के शब्दों में बयाँ किया, "बच्चे का लाइफ़ तो ख़तम ही हो रहा है।"  

इस नुक़सान की भरपाई करने में वर्षों का धैर्यपूर्वक काम लगेगा। स्कूलों को दोबारा खोलना तो, जिसके बारे में अभी बहस ही हो रही है, [इस दिशा में] महज़ पहला क़दम है। हक़ीक़त तो यह है कि कई राज्यों में तो इस पहले क़दम के लिए ज़रूरी तैयारी (जैसे, स्कूल भवनों की मरम्मत करना, सुरक्षा दिशा-निर्देश जारी करना, शिक्षकों को प्रशिक्षित [नियुक्त] करना, [बेदख़ल हो गए बच्चों को वापस लाने के लिए] नामाँकन अभियान चलाना) भी नदारद है। उसके बाद, महज़ एक वाजिब पाठ्यचर्या तक बच्चों की पकड़ बनाने के लिए ही नहीं, बल्कि उनकी मनोवैज्ञानिक, सामाजिक व पोषणयुक्त ख़ुशहाली लौटाने के लिए भी स्कूली व्यवस्था को एक लंबे संक्रमण काल से ग़ुज़रना होगा। हालात देखकर तो यही लगता है कि स्कूलों के दोबारा खुलने पर व्यवस्था "सब कुछ सामान्य है" के पुराने ढर्रे की तरफ़ ही बढ़ेगी। यह आपदा को दावत देने वाला नुस्ख़ा है। 


Saturday, 4 September 2021

स्कूलों को खोलने के संदर्भ में विशेषकर प्राथमिक कक्षाओं के विद्यार्थियों की ज़रूरतों के मद्देनज़र

 प्रति 

     शिक्षा मंत्री 
     दिल्ली सरकार 

विषय: स्कूलों को खोलने के संदर्भ में विशेषकर प्राथमिक कक्षाओं के विद्यार्थियों की ज़रूरतों के मद्देनज़र 

महोदया /महोदय,
लोक शिक्षक मंच स्कूलों को एक प्रक्रिया के तहत खोलने के फ़ैसले के संदर्भ में अपने कुछ विचार व अपील साझा करना चाहता है। जैसा कि सभी जानते हैं कि मार्च 2020 से कोरोना महामारी के चलते दिल्ली के सभी स्कूलों को बंद कर दिया गया था| तब से लेकर अब तक दिल्ली के सभी स्कूल, विशेषकर प्राथमिक शालाएं, बच्चों के लिए बंद रहे हैं| चूँकि यह बच्चों के स्वास्थ्य और सुरक्षा की दृष्टि से लिया गया निर्णय था इसलिए, ख़ासकर पर्याप्त ढाँचे के अभाव  संदर्भ में, यह ज़रूरी था| 
परन्तु यह भी ध्यान देने योग्य है कि हमारे स्कूलों में खासी संख्या में वो बच्चे आते हैं जिनके पास स्मार्ट फोन नहीं है और यदि है भी तो या तो एक फ़ोन से सभी भाई-बहनों की पढ़ाई संभव नहीं है या पर्याप्त डाटा खरीदने के लिए पैसे नहीं है क्योंकि अधिकांश अभिभावक बेरोजगारी की मुश्किल चुनौतियों का सामना कर रहे हैं| इसके साथ ही, कुछ ऐसे माता-पिता भी हैं जो तालाबंदी के इस पूरे दौर में यह कहते रहे, "स्कूल से मिलने वाली प्रिंट वर्कशीट को न हम खुद पढ़ पाते हैं और न ही समझ पाते हैं तो अपने बच्चों को ये वर्कशीट कैसे कराएँ!? फ़ोन रिचार्ज नहीं होता इसलिए कक्षा अध्यपिका को फोन भी नहीं कर पाते| यदि फ़ोन कर भी पाते हैं तो फ़ोन पर बच्चे ठीक से समझ नहीं पाते हैं| इस पर स्कूल में बच्चों को लाने की मनाही है|" कुछ अभिभावकों का यह भी कहना था कि वे स्कूल में अपने बच्चों की कक्षा अध्यापिका से मिल भी नहीं पा रहे हैं क्योंकि वह कोविड ड्यूटी पर हैं| ऐसे में वे बच्चे जिनके पास किसी भी तरह की तकनीकी व गैर-तकनीकी सुविधा नहीं है, सीखने की प्रक्रिया से बिल्कुल कट चुके हैं| माता-पिता अक्सर कहते हैं – “हमारा बच्चा [बच्ची] कक्षा तीन या चार में आने के बाद भी न किताब पढ़ पा रहा है और पढ़ने के बाद भी न समझ पा रहा [रही] है। ऐसे में ये वर्कशीट और किताबी काम उसे कैसे करवाएँ? हम तो खुद पढ़े-लिखे नहीं हैं और ट्यूशन लगवाने के पैसे नहीं हैं।" इस तरह ये माता -पिता अपने बच्चे/बच्चियों की पढ़ाई और उनके भविष्य को लेकर खासे चिंतित हैं| 
इस बात से शायद ही कोई इंकार करे कि प्राथमिक स्तर पर शिक्षण-अधिगम की प्रक्रिया में बुनियादी रूप से शिक्षक और विद्यार्थियों के बीच संवाद की गहन आवश्यकता होती है। संवाद की इस प्रक्रिया में शिक्षक द्वारा हर विद्यार्थी के पढ़ने-लिखने की ज़रूरतों से संबंधित बारीक अवलोकनों से ही किसी शिक्षक/शिक्षिका को यह पता चलता है कि किस विद्यार्थी को कहाँ और किस तरह के अतिरिक्त सहयोग की ज़रूरत है। यह प्रक्रिया एक तरह की निरंतरता की माँग करती है। चूँकि इस महामारी के दौर में अधिकांश शिक्षक कोविड ड्यूटी के चलते या अन्य आर्थिक व तकनीकी कारणों से अपने विद्यार्थियों के साथ संवाद की इस प्रक्रिया को सुचारू या सार्थक रूप से चला ही नहीं पा रहे हैं, इसलिए जीवंत संपर्क की यह अनुपस्थिति और भी अधिक चिंता का विषय बन जाती है। 
हाल में DDMA की रिपोर्ट के आधार पर दिल्ली सरकार ने कक्षा VI-XII के विद्यार्थियों के लिए स्कूल खोलने की योजना सार्वजनिक की है। प्राथमिक कक्षाओं को लेकर कोई ठोस प्रस्ताव नहीं है। हालाँकि दुनियाभर के अनुभवों और ख़ुद आईसीएमआर जैसी मेडिकल संस्था की राय से प्राथमिक कक्षाओं को खोलने को लेकर तुलनात्मक रूप से कम आशंकाएँ उत्पन्न होती हैं। 

इस संदर्भ में हमारी मांग है कि –
1. प्राथमिक कक्षाओं के लिए भी उन बच्चों को विद्यालय में बुलाकर छोटे समूहों में पढ़ाने की अनुमति दें जिनके घरों में ऑनलाइन कक्षा के साधन या सामाजिक पूंजी नहीं है। अभिभावकों की सहमति के साथ व सभी तरह के कोविड नियमों का पालन करते हुए, छोटे समूहों में प्राथमिक कक्षाओं के विद्यार्थियों का भी स्कूल आना बेहद ज़रूरी है, अन्यथा उनके साथ अन्याय जारी रहेगा। 
2. इन व्यक्तिगत या लघु समूह मीटिंग्स में कक्षा अध्यापिका उन्हें विभाग द्वारा भेजी गई वर्कशीट सम्बन्धी कार्य व विषय के सिद्धांत समझा सकती हैं। फ़िलहाल शिक्षा का अधिकार इन गरीब बच्चों के लिए मात्र औपचारिकता बनकर रह गया है।
3. कोविड ड्यूटी पर लगाए गए सभी शिक्षकों को बिना विलम्ब वापस उनके स्कूल बुलाया जाए क्योंकि फ़िलहाल स्कूलों में शिक्षकों की भारी कमी है जिसके चलते पढ़ाई का काम सार्थक व सुचारू तरीके से नहीं हो पा रहा है, अन्यथा स्कूल खोलने पर भी पढ़ाई नहीं हो पाएगी।

धन्यवाद 

Thursday, 2 September 2021

विद्यार्थियों को पाठ्य पुस्तकें देने के बदले खातों में राशि के भुगतान के विरोध में

 प्रति 

     शिक्षा मंत्री 
     भारत सरकार 

विषय: विद्यार्थियों को पाठ्य पुस्तकें देने के बदले खातों में राशि के भुगतान के विरोध में 

महोदय,
           लोक शिक्षक मंच शिक्षा के अधिकार के सार्वभौमीकरण व समान स्कूल व्यवस्था के निर्माण के लिए सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को मज़बूत बनाने में विश्वास रखने तथा काम करने वाला संगठन है। हम आपके समक्ष केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा हाल ही में (4 अगस्त 2021 को) लिए गए उस फ़ैसले के प्रति अपनी चिंता व विरोध जताना चाहते हैं मीडिया में जिसकी रपटों को पढ़कर जान पड़ता है कि शिक्षा अधिकार अधिनियम (2009) के अंतर्गत मिलने वाली पाठ्यपुस्तक जैसी अनिवार्य सामग्री तक को मूर्त रूप में देना बंद करके, उसके बदले विद्यार्थियों के खातों में राशि हस्तांतरित की जाएगी। अगर यह सच है तो हमारी नज़र में ऐसा करना न सिर्फ़ विद्यार्थियों के लिए नुक़सानदायक होगा, बल्कि इसका शिक्षण पर भी घोर नकारात्मक असर पड़ेगा। यहाँ हम अपनी राय के पक्ष में आपके साथ कुछ तथ्य व तर्क साझा कर रहे हैं।  

अव्वल बात तो यह है कि देशभर में कहीं भी इस तरह की माँग नहीं की गई है कि विद्यार्थियों को पुस्तकों के बदले पैसे दिए जाएँ। चाहे वो शिक्षाविद हों, शिक्षक हों, या ख़ुद विद्यार्थी व उनके परिवार, किसी ने भी ऐसी कोई माँग नहीं की है। ऐसे में यह समझ से बाहर है कि कामयाब होने के बावजूद पाठ्यपुस्तकों को सीधे उपलब्ध कराने की वर्तमान नीति को क्यों पलटा जा रहा है।

1. हमारा अभी तक का अनुभव बताता है कि जिस भी मूर्त चीज़ के बदले खातों में राशि हस्तांतरित करने की नीति अपनाई गई है वहाँ परिणाम अच्छे नहीं रहे हैं। उदाहरण के लिए, जब से वर्दी के कपड़े या सिली-सिलाई वर्दी की जगह खातों में पैसा भेजा जाने लगा है, तब से कई विद्यार्थी वर्दी से ही वंचित हो गए हैं। इसका एक कारण तो यही है कि सभी बच्चों के परिवारों के लिए 'आधार' व बैंक की प्रक्रियाओं से ग़ुज़र कर बच्चे-बच्ची का खाता खुलवाना एक-समान रूप से आसान नहीं होता है। देश के हर परिवार के पास इस प्रक्रिया में लगने वाले अतिरिक्त संसाधन नहीं हैं। 
2. फिर, हर रिहाइशी इलाक़े के पास न तो बैंक उपलब्ध हैं और न ही हर बैंक में उसके ग्राहकों व काम की तुलना में उपयुक्त संख्या में कर्मचारी हैं। नतीजा यह होता है कि खाता होने के बावजूद अपने पैसे निकालने के लिए बच्चों व उनके परिवारों को धक्के खाने पड़ते हैं और अपना वक़्त व क़ीमती संसाधन एक अनिश्चित प्रक्रिया में होम करना पड़ता है। परिवारों पर पड़ने वाले इन ख़र्चों के आलोक में शिक्षा के अधिकार का मुफ़्त होना बेमानी हो जाता है।  
3. जिन उच्च-कक्षाओं में अभी पाठ्यपुस्तकों के बदले पैसे दिए जाते हैं, प्रायः शिक्षक उनमें पाते हैं कि कुछ विद्यार्थियों के पास लागू पुस्तकें हैं, कुछ के पास निजी प्रकाशकों की दोयम दर्जे की किताबें हैं जो उन्होंने ग़लतफ़हमी या प्रचलन के प्रभाव में ख़रीद ली हैं और कुछ के पास कोई किताब नहीं है। अक्सर विद्यार्थियों को NCERT की पाठ्यपुस्तकें मिल ही नहीं पाती हैं क्योंकि दुकानदारों को निजी प्रकाशन की किताबों पर अधिक कमीशन मिलता है।
ज़ाहिर है कि इस परिस्थिति में किसी भी शिक्षक के लिए सब विद्यार्थियों को सुनियोजित ढंग से पढ़ाना असंभव हो जाता है; विद्यार्थियों के साथ तो अन्याय होता ही है। अगर आठवीं कक्षा तक भी किताबों के बदले राशि हस्तांतरण की नीति लागू कर दी जाएगी तो उच्च-कक्षाओं के संदर्भ में वर्णित पुस्तकीय असंतुलन की स्थिति और भयावह रूप में सामने आएगी। विद्यार्थियों के सीखने की प्रक्रिया पर इसके परिणाम भयानक तथा दूरगामी रूप में नकारात्मक साबित होंगे। 
4. देश के बहुत-से स्कूल, विशेषकर प्राथमिक कक्षाओं के, दूर-दराज़ के क्षेत्रों में स्थित हैं। ऐसे में यह कल्पना करना कठिन नहीं है कि पैसे मिलने पर भी उन इलाक़ों के परिवार अपने बच्चों के लिए पाठ्यपुस्तकें ख़रीदने का इंतेज़ाम नहीं कर पाएँगे। या उन्हें इसके लिए फिर संसाधनों व वक़्त की बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ेगी। दोनों ही परिस्थितियों में शिक्षा के अधिकार का संवैधानिक वादा टूट जाएगा। 
5. पाठ्यपुस्तकों को मूर्त रूप में देने के बदले खातों में राशि हस्तांतरित करने से निजी प्रकाशकों की दोयम दर्जे की किताबों का बाज़ार फले-फूलेगा। इससे शिक्षा का ह्रास होगा। स्कूलों के स्तर पर भी प्रधानाचार्यों आदि पर सभी विद्यार्थियों को पाठ्यपुस्तकें उपलब्ध करवाने का दबाव बनेगा जिसके चलते कमीशनख़ोर बिचौलियों को साँठ-गाँठ करने का मौक़ा मिलेगा। इससे स्कूलों व उनके प्रशासन की छवि धूमिल होगी तथा उनका नैतिक बल कमज़ोर पड़ेगा।  

महोदय, हम शिक्षक इस फ़ैसले का, अपने विद्यार्थियों के हितों के मद्देनज़र, एकमत से विरोध करते हैं। हम इस बात के प्रति भी आश्वस्त हैं कि अभिभावकों में भी इस फ़ैसले को लेकर चिंता है। हक़ीक़त तो यह है कि बस्तर के कई गाँवों के आदिवासी स्कूली शिक्षा के जिन बिंदुओं को लेकर आंदोलित हैं उनमें से एक छात्रवृत्ति को खातों में देने की नीति को बंद करके सीधे राशि हाथ में देने की माँग भी है। ज़ाहिर है कि मूर्त राशि अथवा वस्तु के बदले खातों में नक़द हस्तांतरण की नीति से विशेषकर वंचित वर्गों को बेहद नुक़सान हुआ है। जो नीति सबसे कमज़ोर वर्ग के हित में न हो, एक लोकतांत्रिक तथा लोगों के प्रति जवाबदेह सरकार के लिए उसे लागू करना या रखना जायज़ नहीं है। 

हम माँग करते हैं कि 
. सरकार आठवीं तक के सभी विद्यार्थियों को सीधे उनके स्कूलों में मूर्त रूप में मुफ़्त पाठ्यपुस्तकें उपलब्ध करवाने की नीति जारी रखे। 
. बारहवीं कक्षा तक जहाँ-जहाँ मूर्त पाठ्यपुस्तकों के बदले खातों में राशि हस्तांतरित की जा रही है, वहाँ डीबीटी की नीति बंद करके सभी विद्यार्थियों को स्कूल में ही मुफ़्त पाठ्यपुस्तकें उपलब्ध कराई जाएँ। 
. वर्दी जैसी जिस सामग्री को पहले मूर्त रूप में उपलब्ध करवाया जाता था, उसे भी पूर्व की तरह ही मूर्त रूप में उपलब्ध कराया जाए। 
. छात्रवृत्ति प्राप्त करने के लिए खाते की शर्त हटाई जाए। इसे विद्यार्थियों पर छोड़ा जाए कि वो छात्रवृत्ति की राशि पूर्व नीति की भांति सीधे हाथ में प्राप्त करना चाहते हैं या अपने खातों में। 
. सरकार एक विस्तृत अध्ययन कराकर मूर्त सामग्री व छात्रवृत्ति की राशि देने की नीति तथा उनके बदले अनिवार्य रूप से डीबीटी की नीति के बीच फ़ायदे-नुक़सान की तुलना करे। इस तुलना में निरपेक्ष रूप से विद्यार्थियों, अभिभावकों व शिक्षकों के अनुभवों तथा राय को आधार बनाया जाए। अध्ययन की रपट को सार्वजनिक करके वर्तमान नीति की समीक्षा की जाए। 

सधन्यवाद 

संयोजक समिति 
लोक शिक्षक मंच