Saturday, 18 September 2021

 6 सितंबर 2021 को Locked Out : Emergency Report on School Education नाम से एक रपट जारी की गई जिसे 100 लोगों के ज़मीनी सहयोग से ज्याँ द्रेज़, निराली बाखला, रीतिका खेरा व विपुल पाइक्रा की टीम ने तैयार किया था। रपट तैयार करने की प्रक्रिया के पहले चरण में 15 राज्यों व केंद्र-शासित प्रदेशों में कक्षा एक से आठ तक में नामाँकित बच्चों वाले 1362 घर-परिवारों के बीच सर्वे किया गया था। रपट स्कूलों की तालाबंदी के भयावह असर और ऑनलाइन पढ़ाई की हक़ीक़त को, विशेषकर वंचित वर्गों के संदर्भ में, बख़ूबी सामने लाती है। हालाँकि, रपट में 'आधारभूत साक्षरता व गणना' की शिक्षा-विरोधी संकल्पना जो स्कूलों को अधिगम व अधिगम को फिर महज़ पढ़ना-लिखना सीखने तक सीमित करके उसके नुक़सान (लर्निंग लॉस) को अन्य किसी भी आयाम व चिंता से ऊपर रखता है - का प्रभाव झलकता है, रपट में कुल मिलाकर शिक्षा में ग़ैर-बराबरी को लेकर व्यक्त की गई चिंता राजनैतिक ईमानदारी दर्शाती है। ऊपर वर्णित शंका को चिन्हित करते हुए, हम यहाँ इस रपट के चुनिंदा अंशों का अनुवाद साझा कर रहे हैं ताकि यह महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हिंदीभाषी पाठकों तक पहुँच सके और तालाबंदी व ऑनलाइन पढ़ाई के धोखे को प्रमाण-सहित सामने रखते हुए शिक्षकों व अभिभावकों के बीच विमर्श को सही दिशा देने तथा जनदबाव बनाने के काम आए। मूल रपट के लिंक को नीचे संलग्न किया गया है।                                                                                                                                                                                                                                                                           संपादक


लॉक्ड आउट: स्कूल शिक्षा पर आपातकालिक
रपट


सारांश
लगभग 1400 वंचित परिवारों के बीच किया गया हालिया सर्वे पिछले डेढ़ साल की लंबी स्कूलबंदी के विनाशकारी नतीजे सामने लाता है। इस सैंपल में ग्रामीण इलाक़ों के महज़ 8% बच्चे नियमित रूप से ऑनलाइन पढ़ाई कर रहे हैं और 37% बिलकुल नहीं पढ़ रहे हैं। अधिकतर माता-पिता चाहते हैं कि स्कूल जितनी जल्दी मुमकिन हो, खोले जाएँ। (यह सर्वे अगस्त 2021 के दौरान 15 राज्यों व केंद्र शासित प्रदेशों में किया गया था।) 
 
ऑनलाइन शिक्षा की मनगढ़ंत कहानी
यह सर्वे साफ़ करता है कि ऑनलाइन शिक्षा की पहुँच बहुत सीमित है: नियमित रूप से ऑनलाइन पढ़ाई करने वाले बच्चों का अनुपात शहरी व ग्रामीण इलाक़ों में क्रमशः 24% व 8% था। इसका एक कारण यह है कि सैंपल में शामिल कई परिवारों - गाँव के लगभग आधे - के पास स्मार्ट फ़ोन नहीं है। मगर यह तो पहली बाधा है: जिन परिवारों

के पास स्मार्ट फ़ोन है उनमें से भी नियमित रूप से ऑनलाइन पढ़ाई करने वाले बच्चों का अनुपात शहरों में 31% व गाँवों में 15% है। परिवार के कामकाजी बड़ों द्वारा इस्तेमाल किए जाने के चलते ख़ासतौर से छोटी उम्र के बच्चों के लिए स्मार्टफ़ोन उपलब्ध नहीं होते हैं; फिर ख़राब नेटवर्क व डाटा के लिए पैसों की कमी से जुड़ी समस्याएँ भी हैं।
ऐसे माता-पिता का अनुपात जिनको लगता था कि उनके बच्चे के पास पर्याप्त ऑनलाइन पहुँच थी शहरों में महज़ 23% व गाँवों में 8% था। एक बड़ी दिक़्क़त, ख़ासतौर से ग्रामीण इलाक़ों में, यह भी थी कि स्कूल ऑनलाइन सामग्री नहीं भेज रहे हैं, या अगर भेज भी रहे हैं तो माता-पिता को इसकी जानकारी नहीं है। वैसे भी, कुछ बच्चे, ख़ासतौर से छोटी उम्र के, ऑनलाइन पढ़ाई नहीं समझ पाते हैं, या उन्हें ध्यान लगाने में मुश्किल होती है।
ऑफ़लाइन बच्चों के बीच नियमित पढ़ाई के बहुत कम सबूत मिले। इनकी बड़ी बहुसंख्या या तो पढ़ ही नहीं रही है, या कभी-कभार घर पर जैसे-तैसे पढ़ रही है। सर्वे के दौरान पाया गया कि गाँवों के ऑफ़लाइन बच्चों में से लगभग आधे बिलकुल नहीं पढ़ रहे थे।
 
शिक्षकों से दूर [होते बच्चे]
सर्वे से पूर्व के 30 दिनों में अधिकतर बच्चे (शहरी इलाक़ों में 51% व ग्रामीण में 58%) अपने शिक्षक से नहीं मिले थे। इसके बावजूद, कुछ शिक्षकों ने अपनी ड्यूटी के परे जाकर ऑफ़लाइन बच्चों की मदद की। सर्वे से प्रयत्नशील शिक्षकों की कई पहलें उजागर हुईं। कुछ ने खुले में, या किसी के घर में या यहाँ तक कि अपने घर में, छोटे समूह की कक्षाएँ लीं। कुछ ने पैसों की तंगी से जूझ रहे बच्चों के फ़ोन रीचार्ज किए या ऑनलाइन पढ़ाई के लिए उन्हें कुछ समय के लिए अपने फ़ोन दिए। अन्यों ने [अपनी क्लास से इतर] कुछ बच्चों को फ़ोन पर या उनके घर जाकर भी पढ़ाया। ये सब बेशक़ीमती प्रयास थे, मगर इनसे तालाबंद स्कूलों और क्लासरूम की रुकी कक्षाओं की भरपाई नहीं हो सकती।

अधिकतर माता-पिता का मानना था कि [स्कूल की] तालाबंदी के दौरान उनके बच्चे की पढ़ने-लिखने की क़ाबीलियत में गिरावट आई है। ऑनलाइन पढ़ने वाले शहरी बच्चों के माता-पिता में भी ऐसा महसूस करने वालों का अनुपात 65% था। पूरे सैंपल में मिलाकर सिर्फ़ 4% माता-पिता को लगा कि तालाबंदी के दौरान उनके बच्चे के पढ़ने-लिखने की क़ाबीलियत में सुधार हुआ है - जोकि [बढ़ती उम्र व कक्षा के साथ] एक सामान्य चीज़ होनी चाहिए थी।

हालात की नज़ाकत को समझने के लिए हम स्कूली बच्चों की साक्षरता दर की तुलना 2011 की जनगणना के इसी उम्र के बच्चों की साक्षरता के आँकड़ों से कर सकते हैं। जनगणना के आँकड़ों के अनुसार उस वक़्त 10-14 साल के समूह में औसत साक्षरता दर [सर्वे के सैंपल में शामिल राज्यों में], बिहार के 83% को छोड़कर, 88% से 98% थी; अखिल-भारत औसत 91% था। हम उम्मीद करेंगे कि दस साल बाद [यानी, आज] इस उम्र के बीच साक्षरता दर के आँकड़े का 90% से ऊपर होना सामान्य होगा। इसके विपरीत, हम देखते हैं कि इस सैंपल में 10-14 साल के स्कूली बच्चों में साक्षरता दर शहरी इलाक़ों में महज़ 74%, ग्रामीण इलाक़ों में 66% व ग्रामीण दलित तथा आदिवासी [पृष्ठभूमियों के] बच्चों में 61% तक ही है। यह फ़र्क़ इसलिए और भी चौंकाने वाला है क्योंकि जनगणना में साक्षरता की औपचारिक परिभाषा (किसी भी भाषा में समझ कर पढ़ने-लिखने की क्षमता) इस सर्वे में इस्तेमाल की गई परिभाषा से अधिक कठोर है। यह फ़र्क़ इतना अधिक है कि इसे सैंपल में शामिल बच्चों की वंचित पृष्ठभूमि के आधार पर समझा नहीं जा सकता है।
इसे इस तरह से देखा जा सकता है - सैंपल के ग्रामीण अनुसूचित जाति/जनजाति [पृष्ठभूमियों] के परिवारों के 10-14 साल के बच्चों में 'निरक्षरता दर' (39%) दस पहले इन्हीं राज्यों के इसी उम्र के बच्चों के 'निरक्षरता दर' (9%) से चार गुना से भी अधिक है। ये भयावह हालात [समाज में] स्थाई ग़ैर-बराबरी और [सरकार द्वारा की गई] एक एकतरफ़ा तालाबंदी का मिश्रित नतीजा हैं।
चाहे ऑनलाइन शिक्षा को देखें, या नियमित पढ़ाई को, या पढ़ने की क्षमता को, वंचित परिवारों में भी दलित व आदिवासी [पृष्ठभूमियों] के परिवारों के आँकड़े अन्यों की तुलना में और भी चिंताजनक हैं। मिसाल की तौर पर, अन्य ग्रामीण बच्चों में 15% के मुक़ाबले केवल 4% अनुसूचित जाति/जनजाति [पृष्ठभूमियों के] ग्रामीण बच्चे नियमित ऑनलाइन पढ़ाई कर पा रहे हैं। 98% ग्रामीण अनुसूचित जाति/जनजाति [पृष्ठभूमियों के] माता-पिता चाहते हैं कि स्कूलों को जितनी जल्दी मुमकिन हो उतनी जल्दी खोला जाए।
सर्वे से स्कूली व्यवस्था में दलितों व आदिवासियों के ख़िलाफ़ होने वाले भेदभाव के कुछ हैरतअंगेज़ करने वाले प्रसंग भी उजागर हुए। मिसाल के लिए, झारखंड के लातेहार ज़िले के कुटमु गाँव में अधिकतर परिवार दलित व आदिवासी [पृष्ठभूमियों से] हैं, लेकिन शिक्षक गाँव के चंद [तथाकथित] उच्च-जाति परिवारों में से एक परिवार से है। इन परिवारों के कुछ सदस्यों ने सर्वे दल से खुलकर पूछा, "अगर ये [अनुसूचित जाति/जनजाति के] बच्चे शिक्षित हो जाएँगे तो हमारे खेतों में कौन काम करेगा?" शिक्षिका क़रीब के शहर में रहती हैं, अपनी सुविधानुसार स्कूल आती हैं और कक्षा में भी ज़्यादा मेहनत नहीं करतीं। इस गाँव के 20 दलित व आदिवासी [पृष्ठभूमियों के] बच्चों में से एक भी धाराप्रवाह नहीं पढ़ पा रहा था। उनके माता-पिता शिक्षिका के ग़ैर-ज़िम्मेदाराना व्यवहार के बारे में बेइंतहा शिकायत कर रहे थे, लेकिन वो इसके बारे में कुछ भी कर पाने में असमर्थ थे।  
जब स्कूल खुलेंगे, बच्चे पाएँगे कि वो अपनी कक्षा की पाठ्यचर्या से 'तीन गुना' पीछे हैं। इस तीन गुना फ़ासले में (1) तालाबंदी के पूर्व का फ़र्क़, (2) तालाबंदी के दौरान साक्षरता व संबंधित क्षमताओं में आई गिरावट, तथा (3) इस बीच पाठ्यचर्या का लगातार आगे बढ़ते जाना शामिल है। उदाहरण लिए, तालाबंदी के पूर्व कक्षा 3 में पढ़ रही बच्ची, जोकि अपनी वंचित परिस्थिति की वजह से [उस वक़्त] कक्षा 2 के आगे की पाठ्यचर्या पर पकड़ नहीं बना पाई थी, [पढ़ाई छूट जाने के चलते] अब ख़ुद को कक्षा 1 के स्तर के नज़दीक पाएगी, जबकि आज वो कक्षा 5 में है! बेमेल परिस्थिति की इस विशाल खाई से निपटने के लिए पाठ्यचर्या व शिक्षणशास्त्र में महीनों नहीं बल्कि वर्षों की अवधि पर फैले बदलाव की दरकार है।
जबकि कुछ बच्चे मज़दूर बन गए हैं, अन्य ख़ालीपन, शारीरिक सक्रियता के अभाव, फ़ोन की लत, परिवार के तनावों तथा तालाबंदी के दूसरे दुष्प्रभावों से जूझ रहे हैं। उदाहरण के लिए, कुछ माता-पिता ने अपने बच्चों के अनुशासनहीन, आक्रामक और यहाँ तक कि हिंसक तक हो जाने की शिकायत की। अन्यों ने, ख़ासतौर से शहरों में, बच्चों के हर वक़्त घर पर होने को एक बोझ की तरह पाया, या अपने बच्चे के घर के बाहर की गतिविधियों व जान-पहचान को लेकर चिंता ज़ाहिर की। घर के बाहर काम करने वाली माताओं के लिए स्कूलों की तालाबंदी एक आफ़त है।  

स्कूलों को फिर से खोलने की माँग
हमारे द्वारा इंटरव्यू किए गए अधिकतर अभिभावक चाहते हैं कि स्कूल जितनी जल्दी हो सके उतनी जल्दी खुलें। शहरी इलाक़ों में एक छोटी संख्या (6%) को इसे लेकर कुछ हिचकिचाहट थी, या - कुछ मामलों में - विरोध भी। हालाँकि, ग्रामीण इलाक़ों में 97% तक अभिभावक स्कूलों को दोबारा खोलने के पक्ष में थे। जब हमने पूछा कि क्या वो चाहेंगे कि स्कूल फिर से खोले जाएँ, तो अधिकतर ने महसूस किया कि इसका जवाब तो स्वाभाविक था। जैसा कि एक अचंभित माँ ने कहा, "ये भी कोई पूछने वाली बात है?"  

एक उभरती हुई आपदा
स्कूल अनिवार्य सेवा [देते] हैं। यह बुद्धिमानीपूर्ण ही कहा गया है कि इन्हें सबसे आख़ीर में बंद होना चाहिए और सबसे पहले खुलना चाहिए। भारत में इसके उलट ही हुआ है: 2020 की शुरुआत में भारत में कोविड-19 के संकट के आने के फ़ौरन बाद ही पलक झपकाए बिना सभी स्कूलों को बंद कर दिया गया और इनमें से अधिकतर आज भी बंद हैं। जब स्कूल दोबारा खुले हैं तो ध्यान उच्च कक्षाओं पर रहा है, नाकि छोटे बच्चों पर जिन्हें अपने शिक्षकों की मदद की सबसे ज़्यादा ज़रूरत होती है। 17 महीनों तक ऑनलाइन शिक्षा के रुमाल से स्कूलों से बेदख़ली की लाश को ढका गया। इस ज़बरदस्त नाइंसाफ़ी पर इतने लंबे समय तक कोई सवाल नहीं खड़े किए जाना भारत के विशिष्ट लोकतंत्र का दोष सिद्ध करता है।
यह स्कूल सर्वे इस लंबी तालाबंदी - दुनिया की सबसे लंबी तालाबंदियों में से एक - द्वारा निर्मित प्रचंड विनाश का संकेत भर करता है। जैसा कि हमने देखा, अभिभावक ख़ुद इस विनाश से अनभिज्ञ नहीं हैं। उनमें से बहुतों ने अपनी मायूसी को इस तरह के शब्दों में बयाँ किया, "बच्चे का लाइफ़ तो ख़तम ही हो रहा है।"  

इस नुक़सान की भरपाई करने में वर्षों का धैर्यपूर्वक काम लगेगा। स्कूलों को दोबारा खोलना तो, जिसके बारे में अभी बहस ही हो रही है, [इस दिशा में] महज़ पहला क़दम है। हक़ीक़त तो यह है कि कई राज्यों में तो इस पहले क़दम के लिए ज़रूरी तैयारी (जैसे, स्कूल भवनों की मरम्मत करना, सुरक्षा दिशा-निर्देश जारी करना, शिक्षकों को प्रशिक्षित [नियुक्त] करना, [बेदख़ल हो गए बच्चों को वापस लाने के लिए] नामाँकन अभियान चलाना) भी नदारद है। उसके बाद, महज़ एक वाजिब पाठ्यचर्या तक बच्चों की पकड़ बनाने के लिए ही नहीं, बल्कि उनकी मनोवैज्ञानिक, सामाजिक व पोषणयुक्त ख़ुशहाली लौटाने के लिए भी स्कूली व्यवस्था को एक लंबे संक्रमण काल से ग़ुज़रना होगा। हालात देखकर तो यही लगता है कि स्कूलों के दोबारा खुलने पर व्यवस्था "सब कुछ सामान्य है" के पुराने ढर्रे की तरफ़ ही बढ़ेगी। यह आपदा को दावत देने वाला नुस्ख़ा है। 


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