Thursday, 2 September 2021

विद्यार्थियों को पाठ्य पुस्तकें देने के बदले खातों में राशि के भुगतान के विरोध में

 प्रति 

     शिक्षा मंत्री 
     भारत सरकार 

विषय: विद्यार्थियों को पाठ्य पुस्तकें देने के बदले खातों में राशि के भुगतान के विरोध में 

महोदय,
           लोक शिक्षक मंच शिक्षा के अधिकार के सार्वभौमीकरण व समान स्कूल व्यवस्था के निर्माण के लिए सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था को मज़बूत बनाने में विश्वास रखने तथा काम करने वाला संगठन है। हम आपके समक्ष केंद्रीय मंत्रिमंडल द्वारा हाल ही में (4 अगस्त 2021 को) लिए गए उस फ़ैसले के प्रति अपनी चिंता व विरोध जताना चाहते हैं मीडिया में जिसकी रपटों को पढ़कर जान पड़ता है कि शिक्षा अधिकार अधिनियम (2009) के अंतर्गत मिलने वाली पाठ्यपुस्तक जैसी अनिवार्य सामग्री तक को मूर्त रूप में देना बंद करके, उसके बदले विद्यार्थियों के खातों में राशि हस्तांतरित की जाएगी। अगर यह सच है तो हमारी नज़र में ऐसा करना न सिर्फ़ विद्यार्थियों के लिए नुक़सानदायक होगा, बल्कि इसका शिक्षण पर भी घोर नकारात्मक असर पड़ेगा। यहाँ हम अपनी राय के पक्ष में आपके साथ कुछ तथ्य व तर्क साझा कर रहे हैं।  

अव्वल बात तो यह है कि देशभर में कहीं भी इस तरह की माँग नहीं की गई है कि विद्यार्थियों को पुस्तकों के बदले पैसे दिए जाएँ। चाहे वो शिक्षाविद हों, शिक्षक हों, या ख़ुद विद्यार्थी व उनके परिवार, किसी ने भी ऐसी कोई माँग नहीं की है। ऐसे में यह समझ से बाहर है कि कामयाब होने के बावजूद पाठ्यपुस्तकों को सीधे उपलब्ध कराने की वर्तमान नीति को क्यों पलटा जा रहा है।

1. हमारा अभी तक का अनुभव बताता है कि जिस भी मूर्त चीज़ के बदले खातों में राशि हस्तांतरित करने की नीति अपनाई गई है वहाँ परिणाम अच्छे नहीं रहे हैं। उदाहरण के लिए, जब से वर्दी के कपड़े या सिली-सिलाई वर्दी की जगह खातों में पैसा भेजा जाने लगा है, तब से कई विद्यार्थी वर्दी से ही वंचित हो गए हैं। इसका एक कारण तो यही है कि सभी बच्चों के परिवारों के लिए 'आधार' व बैंक की प्रक्रियाओं से ग़ुज़र कर बच्चे-बच्ची का खाता खुलवाना एक-समान रूप से आसान नहीं होता है। देश के हर परिवार के पास इस प्रक्रिया में लगने वाले अतिरिक्त संसाधन नहीं हैं। 
2. फिर, हर रिहाइशी इलाक़े के पास न तो बैंक उपलब्ध हैं और न ही हर बैंक में उसके ग्राहकों व काम की तुलना में उपयुक्त संख्या में कर्मचारी हैं। नतीजा यह होता है कि खाता होने के बावजूद अपने पैसे निकालने के लिए बच्चों व उनके परिवारों को धक्के खाने पड़ते हैं और अपना वक़्त व क़ीमती संसाधन एक अनिश्चित प्रक्रिया में होम करना पड़ता है। परिवारों पर पड़ने वाले इन ख़र्चों के आलोक में शिक्षा के अधिकार का मुफ़्त होना बेमानी हो जाता है।  
3. जिन उच्च-कक्षाओं में अभी पाठ्यपुस्तकों के बदले पैसे दिए जाते हैं, प्रायः शिक्षक उनमें पाते हैं कि कुछ विद्यार्थियों के पास लागू पुस्तकें हैं, कुछ के पास निजी प्रकाशकों की दोयम दर्जे की किताबें हैं जो उन्होंने ग़लतफ़हमी या प्रचलन के प्रभाव में ख़रीद ली हैं और कुछ के पास कोई किताब नहीं है। अक्सर विद्यार्थियों को NCERT की पाठ्यपुस्तकें मिल ही नहीं पाती हैं क्योंकि दुकानदारों को निजी प्रकाशन की किताबों पर अधिक कमीशन मिलता है।
ज़ाहिर है कि इस परिस्थिति में किसी भी शिक्षक के लिए सब विद्यार्थियों को सुनियोजित ढंग से पढ़ाना असंभव हो जाता है; विद्यार्थियों के साथ तो अन्याय होता ही है। अगर आठवीं कक्षा तक भी किताबों के बदले राशि हस्तांतरण की नीति लागू कर दी जाएगी तो उच्च-कक्षाओं के संदर्भ में वर्णित पुस्तकीय असंतुलन की स्थिति और भयावह रूप में सामने आएगी। विद्यार्थियों के सीखने की प्रक्रिया पर इसके परिणाम भयानक तथा दूरगामी रूप में नकारात्मक साबित होंगे। 
4. देश के बहुत-से स्कूल, विशेषकर प्राथमिक कक्षाओं के, दूर-दराज़ के क्षेत्रों में स्थित हैं। ऐसे में यह कल्पना करना कठिन नहीं है कि पैसे मिलने पर भी उन इलाक़ों के परिवार अपने बच्चों के लिए पाठ्यपुस्तकें ख़रीदने का इंतेज़ाम नहीं कर पाएँगे। या उन्हें इसके लिए फिर संसाधनों व वक़्त की बड़ी क़ीमत चुकानी पड़ेगी। दोनों ही परिस्थितियों में शिक्षा के अधिकार का संवैधानिक वादा टूट जाएगा। 
5. पाठ्यपुस्तकों को मूर्त रूप में देने के बदले खातों में राशि हस्तांतरित करने से निजी प्रकाशकों की दोयम दर्जे की किताबों का बाज़ार फले-फूलेगा। इससे शिक्षा का ह्रास होगा। स्कूलों के स्तर पर भी प्रधानाचार्यों आदि पर सभी विद्यार्थियों को पाठ्यपुस्तकें उपलब्ध करवाने का दबाव बनेगा जिसके चलते कमीशनख़ोर बिचौलियों को साँठ-गाँठ करने का मौक़ा मिलेगा। इससे स्कूलों व उनके प्रशासन की छवि धूमिल होगी तथा उनका नैतिक बल कमज़ोर पड़ेगा।  

महोदय, हम शिक्षक इस फ़ैसले का, अपने विद्यार्थियों के हितों के मद्देनज़र, एकमत से विरोध करते हैं। हम इस बात के प्रति भी आश्वस्त हैं कि अभिभावकों में भी इस फ़ैसले को लेकर चिंता है। हक़ीक़त तो यह है कि बस्तर के कई गाँवों के आदिवासी स्कूली शिक्षा के जिन बिंदुओं को लेकर आंदोलित हैं उनमें से एक छात्रवृत्ति को खातों में देने की नीति को बंद करके सीधे राशि हाथ में देने की माँग भी है। ज़ाहिर है कि मूर्त राशि अथवा वस्तु के बदले खातों में नक़द हस्तांतरण की नीति से विशेषकर वंचित वर्गों को बेहद नुक़सान हुआ है। जो नीति सबसे कमज़ोर वर्ग के हित में न हो, एक लोकतांत्रिक तथा लोगों के प्रति जवाबदेह सरकार के लिए उसे लागू करना या रखना जायज़ नहीं है। 

हम माँग करते हैं कि 
. सरकार आठवीं तक के सभी विद्यार्थियों को सीधे उनके स्कूलों में मूर्त रूप में मुफ़्त पाठ्यपुस्तकें उपलब्ध करवाने की नीति जारी रखे। 
. बारहवीं कक्षा तक जहाँ-जहाँ मूर्त पाठ्यपुस्तकों के बदले खातों में राशि हस्तांतरित की जा रही है, वहाँ डीबीटी की नीति बंद करके सभी विद्यार्थियों को स्कूल में ही मुफ़्त पाठ्यपुस्तकें उपलब्ध कराई जाएँ। 
. वर्दी जैसी जिस सामग्री को पहले मूर्त रूप में उपलब्ध करवाया जाता था, उसे भी पूर्व की तरह ही मूर्त रूप में उपलब्ध कराया जाए। 
. छात्रवृत्ति प्राप्त करने के लिए खाते की शर्त हटाई जाए। इसे विद्यार्थियों पर छोड़ा जाए कि वो छात्रवृत्ति की राशि पूर्व नीति की भांति सीधे हाथ में प्राप्त करना चाहते हैं या अपने खातों में। 
. सरकार एक विस्तृत अध्ययन कराकर मूर्त सामग्री व छात्रवृत्ति की राशि देने की नीति तथा उनके बदले अनिवार्य रूप से डीबीटी की नीति के बीच फ़ायदे-नुक़सान की तुलना करे। इस तुलना में निरपेक्ष रूप से विद्यार्थियों, अभिभावकों व शिक्षकों के अनुभवों तथा राय को आधार बनाया जाए। अध्ययन की रपट को सार्वजनिक करके वर्तमान नीति की समीक्षा की जाए। 

सधन्यवाद 

संयोजक समिति 
लोक शिक्षक मंच 

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