Tuesday, 19 December 2023

एक 'नैतिक' कथा का पुनर्पाठ


 

Story of 2 Parrots

Once upon a time, a mother parrot was out in search of food for her 2 baby parrots. A hunter stole the 2 baby parrots from the nest and took off. One of the baby parrots managed to escape and flew off a distance and landed near a hermit’s cottage. The hermit took loving care of the baby parrot. The other parrot lived with the hunter and was taught to speak human language but the hunter spoke very rough language. One day a king who had lost his way passed the cottage of the hunter. The parrot saw the king and said, “O come, come hunter and seize this person who is coming on a horse, seize him, bind him, kill him kill him.” Hearing this, the king was very displeased with the parrot and rode further away. This time as he was passing the hermit’s cottage he heard another parrot who said, “O come soon dear hermit, for a guest is here we must welcome him and give him cool shade under this tree and treat our guest with cool waters and sweet fruits!” Hearing this the king stopped and asked the parrot, “It is so strange as I met another parrot who looked exactly same like you, but he spoke unkind words and was very rude while you are so sweet to listen to.”

The parrot related to the king the story of the hunter and how both brothers had been separated from their mother. And how they were raised by different people. The king rested in the hermit’s cottage and reached a conclusion. One learns to speak the language with whoever one is associated with.

Wisdom, Life Lessons, and Rules: We pick up the way we speak to others from the culture we are exposed to since childhood. We have learnt their style, their way of talking from the people we associate since childhood and we may not know any other way, so our language and even our way of thinking is vastly influenced by them.

Therefore, one has to choose circle of friends and company one keeps very wisely. We want to associate with people who are kind and of good character, good values and high principles.

Associating with bad company makes us cultivate more vices instead of virtues!

Credits: The Panchatantra by Visnu Sarma translated by Chandra Rajan

और ये भी 
       
       Panchantantra: The King And The Parrots
Once upon a time, a tribal king who was hunting in the forest caught two parrots in his nest. He was very pleased with this and thought that he would teach the parrots to talk and his children would be happy to play with the talking parrots.

As the tribal king was returning home with his catch, one of the parrots somehow escaped from the net and flew away to the other end of the forest. At the other end of the forest was a sage’s hut. The parrot that escaped started living here with the sage. The other parrot was carried to the tribal king’s home and he began living there with the tribal king and his family.
Many months later, one day, a king from a nearby kingdom was passing through the forest on his horse. While riding, he came near the tribal king’s house. As he came nearer to the house, the tribal king’s parrot who was kept in a cage outside the house, started shouting loudly, “Who is there? Catch this man who is coming here and beat him black and blue.”

The king was displeased on hearing the parrot talk in such a filthy way and decided to ride in the other direction. Soon, he reached the other end of the forest where the sage’s hut was situated. When the king came closer to the hut, the sage’s parrot, who was also kept in a cage outside the hut, said politely, “You are welcome, dear sir. Please come in and have a seat. Would you like a glass of water and some sweets?” After having welcomed the guest with proper manners, the parrot called out to his master, “Guruji, you have a visitor. Please take him inside and offer him some refreshment.”

The king was amazed to see the intelligence and manners of this parrot. He realized the contrast between the tribal king’s parrot who was extremely rude and the sage’s parrot who was polite and courteous. He understood that a good environment and training always give better results and that a man is known by the company he keeps. 

इसी तरह की एक अन्य कहानी में - जोकि दिल्ली के कुछ निजी स्कूलों की पाठ्यपुस्तक में शामिल है - दोनों तोते क्रमशः पंडित व क़साई के घर पलते हैं और इसी आधार पर एक के व्यवहार को श्रेष्ठ तथा दूसरे के व्यवहार को निकृष्ट दिखाया गया है। इस 'लोककथा' के कई संस्करण हैं। कुछ शिकारी को निशाना बनाते हैं, तो कुछ क़साई को या आदिवासियों को। मगर एक बात सबमें समान है - सभी में ऋषि/ब्राह्मण/पंडित का महिमामंडन किया गया है। इस तरह की घोर जातिवादी कहानियाँ निजी स्कूलों की पाठ्यपुस्तकों में आसानी से जगह पाती हैं। NCERT की एक अंग्रेज़ी की पाठ्यपुस्तक में भी इस तरह की कहानी को शामिल तो किया गया है, मगर उसमें जातिवादी पूर्वाग्रह से बचने की सावधानी ज़रूर बरती गई है - शिकारी या क़साई के बदले 'चोरों' को दिखाया गया है। लेकिन इसके बाद यह कहानी भी ऋषि के गुणगान पर जाकर ही टिकती है। लगता है जैसे इन कहानियों का उद्देश्य इंसानों के व्यवहार पर माहौल से पड़ने वाले असर को दर्शाना न होकर एक वर्ग की जन्मजात श्रेष्ठता और दूसरों की जन्मजात हीनता दिखाना हो।  

अब ये कहानी पढ़िए जो इन और इनसे मिलती-जुलती नैतिक कथाओं से प्रेरणा लेकर रची गई है।                  

                        दो काल्पनिक तोते, एक सच्ची कथा 


एक आदमी को तोते पालने का शौक़ चढ़ा। वो चिड़िया बाज़ार से दो तोते ख़रीद कर लाया। उसने उन्हें दो अलग-अलग पिंजरों में रखा और उनके खाने-पीने का इंतेज़ाम किया। कुछ दिन बाद उसने ग़ौर किया कि एक तोता हमेशा खाने, सोने, सुस्ताने और अनाप-शनाप रट लगाने में लगा रहता था। जो भी उसे दाना डालता, वो उसे ख़ुश करने के लिए टाएं-टाएं करता। कभी साधारण दाने डाले जाते तो मुँह फेरकर बैठ जाता, जबकि भूख लगने या स्वादिष्ट खाने की चाहत में टाएं-टाएं करने लगता। ये तोता कुछ ही दिनों में मुटा गया। जबकि दूसरा तोता अपने पंख फड़फड़ाता रहता और पिंजरे से निकलने की कोशिश करता रहता था। वो भूख के अनुसार खाता तो था, मगर किसी को ख़ुश करने के लिए टाएं-टाएं नहीं करता था। बल्कि, कभी कुंडी खोलने की जुगत भिड़ाता, तो कभी पिंजरे की सलाख़ों को अपनी चोंच से पकड़कर मोड़ने की कोशिश करता। उस आदमी को दोनों तोतों के बीच इस फ़र्क़ को देखकर बड़ी हैरानी हुई। वह इसका कारण समझ नहीं पा रहा था। उसने इस विचित्र बात का विश्लेषण करने के लिए अपनी बेटी की राय ली। उसकी बेटी ने बाज़ार जाकर चिड़ियों के उस दुकानदार से बात की जिससे उसके पिता ने तोते ख़रीदे थे। दुकानदार ने उसे बताया कि दोनों तोते उसे अलग-अलग घरों के लोगों ने बेचे थे। एक तोता क़साई के घर पला-बढ़ा था और दूसरा एक पंडित के घर। लड़की ने घर वापस आकर अपने पिता को समझाया कि तोतों के बर्ताव का कारण उनके अलग-अलग सामाजिक माहौल व अनुभव थे। तब कहीं जाकर उस आदमी की जिज्ञासा शांत हुई और अपनी बेटी की सलाह पर उसने दोनों तोतों को आज़ाद कर दिया। 

उपसंहार: सुनते हैं कि जो तोता मुटा गया था वो शिकारी पक्षियों की भेंट चढ़ गया, जबकि दूसरा तोता जंगल में अपने साथियों के बीच लौट गया। 

नैतिक शिक्षा: इस कहानी से हमें यह सबक़ मिलता है कि शोषक की पहचान कराने के लिए तोतों को बदनाम करना ठीक नहीं है और आलस्य में मुटाना भी ठीक नहीं है। ठीक तो है अपनी और दूसरों की मुक्ति के लिए प्रयास करते रहना। 
रही कहानियों के संदेश की बात, तो इनसे हमें यह भी पता चलता है कि कैसे प्रतिगामी राजनीतिक चेतना, संस्कृति व मूल्यों के चलते तथ्यों पर आधारित एक समाजशास्त्रीय परिघटना (कि हमारा मानस-व्यवहार एक सामाजिक संदर्भ में निर्मित होता है) को आधार बनाकर भी पूर्वाग्रह, अपमान व घृणा का पाठ परोसा जा सकता है - कामगार/श्रमिक जाति, वर्ग, समुदाय को उनके काम के आधार पर पतनशील साबित करना, वहीं श्रम न करने वाले व परजीवी वर्ग को नैतिक रूप से श्रेष्ठ दिखाना। हमें इन अनैतिक कहानियों का पर्दाफ़ाश करते हुए शिक्षकों तक इनकी आलोचना ले जानी होगी व बच्चों के लिए एक सुंदर तथा बेहतर दुनिया का दर्शन कराने वाला वैकल्पिक साहित्य रचना होगा।

Monday, 27 November 2023

पत्र: दिल्ली के स्कूलों से लगातार घटते कच्चे मैदान, बच्चों के खेलने के अधिकार का हनन।

 प्रति

      शिक्षा मंत्री
      दिल्ली सरकार
विषय:- दिल्ली के स्कूलों से लगातार घटते कच्चे मैदान, बच्चों के खेलने के अधिकार का हनन।
महोदया,
लोक शिक्षक मंच आपके संज्ञान में दिल्ली सरकार व निगम के स्कूलों के मैदानों से जुड़ी एक गंभीर समस्या लाना चाहता हैI हम देख रहे हैं कि पिछले कुछ सालों से दिल्ली के सरकारी/निगम स्कूलों से खेल के कच्चे मैदान खत्म होते जा रहे हैं। एक समय तक अधिकांश स्कूलों में मिट्टी के कच्चे मैदान थे जहां प्राथमिक व अन्य कक्षाओं के बच्चे उन्मुक्त रूप से खेल पाते थेI लेकिन पिछले कुछ वर्षों में इन्हें, टाइल अथवा सीमेंट से पाट कर, लगातार 'पक्का' किया जा रहा है। मजबूरन छोटे बच्चों को पक्की ज़मीन पर ही खेलना पड़ता है जोकि उनके लिए, शारीरिक रूप से घायल होने की संभावना के कारण, बहुत जोखिम भरा होता है। ऐसे में, अधिकांश स्कूलों में बच्चों के चोटिल होने के डर के कारण उनके बाहर खुली जगह में खेलने पर ही पाबंदी लगाने की स्थिति बन जाती है। फिर अधिकतर देशज व बालसुलभ खेलों के लिए कच्ची मिट्टी के मैदान ही उपयुक्त होते हैं, उन्हें कंक्रीट पर नहीं खेला जा सकता है। यह बचपन और बच्चों के विकास की दृष्टि से बेहद ही चिंताजनक है कि बच्चे स्कूल के पांच से छः घंटे कक्षा की चारदीवारी में ही रहें। बच्चों का लंबे समय तक एक सीमित व बंद स्थान पर ही बैठे रहना उनके लिए स्कूल को बेहद ऊबाऊ और पढ़ने-लिखने तथा सीखने की प्रक्रिया को बहुत ही अरुचिकर बना देता है। 
स्कूल में शिक्षकों के अनुभवों से यह ज्ञात हुआ है कि जब बच्चों को खुली जगह में खेलने के अवसर मिलते हैं तो स्कूल में बच्चों की उपस्थिति और कक्षागत गतिविधियों में उनकी सहभागिता बढ़ती है। वहीं, जब इस तरह के अवसर घटाए जाते हैं या उनपर पाबंदी लगाई जाती है, तो उसके नकारात्मक परिणाम सामने आते हैं। स्कूलों में खेल के मैदान ख़त्म करना न केवल बच्चों के शिक्षा के अधिकार का हनन है, बल्कि यह उनके स्वस्थ तथा खुशहाल जीवन के अधिकार पर भी चोट करता है।
चूंकि हमारे सामाजिक-सांस्कृतिक माहौल में अधिकांश लड़कियों को घर से बाहर और घर के आसपास तक खेलने के अवसर वैसे भी नहीं दिए जाते हैं, इसलिए स्कूलों में खेल के मैदान तथा खेल से वंचित होने का नकारात्मक असर छात्राओं पर अधिक पड़ता है। अत: अगर विद्यालय में भी उनके मैदान व उन्मुक्त खेलने के अवसर छीन लिए जाएंगे तो छात्राओं के विकास व उनकी  चेतना पर हतोत्साहित करने वाला प्रभाव पड़ेगा। दिल्ली के बहुत से इलाकों में बच्चों के खेलने के लिए सार्वजनिक पार्क/ कच्चे मैदान वैसे भी उपलब्ध नहीं हैं। ऐसे में, स्कूलों के खेल के मैदान दिल्ली के अधिकतर, विशेषकर वंचित आबादियों से आने वाले, बच्चों के खेलने का एकमात्र विकल्प हैं। 
इसके साथ ही, कच्चे मैदानों का होना पर्यावरणीय दृष्टि से भी बेहद महत्त्वपूर्ण है। मैदानों को पक्का करने से न केवल भूजल स्तर गिरता है, बल्कि सतह पर एवं उसके आसपास गर्मी असहनीय रूप से बढ़ जाती है। एक तरफ़ हम बच्चों को भाषा तथा पर्यावरण अध्ययन के माध्यम से पर्यावरण संकट, भूजल संरक्षण आदि के बारे में सतर्क करने का दावा कर रहे हैं (देखें 'पानी रे पानी', पाठ 16, हिंदी की पाठ्यपुस्तक, रिमझिम-5 एवं 'बूँद-बूँद, दरिया-दरिया....', पाठ 6, पाँचवीं कक्षा के लिए पर्यावरण अध्ययन की पाठ्यपुस्तक आसपास) और लैंगिक बराबरी के पक्ष में व रूढ़ियों के ख़िलाफ़ लड़कियों के खेलकूद को बढ़ावा देने के उद्देश्य को पाठ्यचर्या का अभिन्न हिस्सा जता रहे हैं (देखें 'फाँद ली दीवार', पाठ 17, पाँचवीं कक्षा के लिए पर्यावरण अध्ययन की पाठ्यपुस्तक), वहीं दूसरी तरफ़ उनके स्कूलों के मैदानों का लगातार कंक्रीट में बदलते जाना बच्चों को विरोधाभासी तथा भ्रमित करने वाली शिक्षा देता है। 
शिक्षा संस्थानों के प्रांगणों को कंक्रीट से पाटना पर्यावरण संबंधी SDG लक्ष्यों (4 एवं 5, क्रमशः गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तथा लैंगिक बराबरी; 6, 11 एवं 13, क्रमशः जल, सतत शहर व समुदाय तथा पर्यावरणीय क़दम) के प्रति भारत सरकार की प्रतिबद्धता और 'खेलो इंडिया' मिशन के उद्देश्यों के भी विपरीत जाता है। स्कूलों में मैदानों व खुले स्थानों का इस तरह का कंक्रीटयुक्त संरचनात्मक विनाश देश के संविधान के अनुच्छेद 51क (नागरिकों के मूल कर्तव्य) के भी ख़िलाफ़ जाता है जिसमें 'प्राकृतिक पर्यावरण की रक्षा और उसका संवर्धन' करने के मूल्य को स्थापित किया गया है। 
उपरोक्त संदर्भों में हम आपसे मांग करते हैं कि सभी स्कूलों में कच्चे खेल के मैदान संरक्षित करने एवं, जहां उन्हें पक्का कर दिया गया है, पुन: उपलब्ध कराने हेतु आवश्यक निर्देश जारी करें ताकि बच्चों के अधिकारों तथा पर्यावरण को संरक्षित किया जा सके।

सधन्यवाद
लोक शिक्षक मंच 

    प्रतिलिपि
    दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग 
    खेल मंत्री, दिल्ली सरकार 
     NGT

पत्र: स्कूलों व शिक्षा विभाग के कार्यालयों में लैंगिक रूप से असंवेदनशील तथा महिला-विरोधी व्यवहार एवं भाषा के निषेध के लिए दिशा-निर्देश जारी करने हेतु

 

प्रति,

      अध्यक्षा 

      दिल्ली महिला आयोग 



विषय: स्कूलों व शिक्षा विभाग के कार्यालयों में लैंगिक रूप से असंवेदनशील तथा महिला-विरोधी व्यवहार एवं भाषा के निषेध के लिए दिशा-निर्देश जारी करने हेतु  


महोदया,

दिनांक 24/09/2023 को आपके कार्यालय में लोक शिक्षक मंच द्वारा भेजे गए 'उप शिक्षा निदेशक द्वारा पहनावे के आधार पर एक शिक्षिका के मानसिक उत्पीड़न के खिलाफ़ विरोध पत्र' और 16/10/2023 को दिल्ली महिला आयोग में हुई मीटिंग के संदर्भ में हम इस पत्र के माध्यम से आपका ध्यान उन महिला-विरोधी निजी टिप्पणियों एवं व्यवहार पर दिलाना चाहते हैं जो दिल्ली के स्कूलों में सामान्य रूप से दिखाई देता है। हम, दिल्ली के सरकारी/निगम स्कूलों में कार्यरत शिक्षक, आपके साथ ऐसी कुछ टिप्पणियाँ साझा कर रहे हैं जिनके हम गवाह रहे हैं। पितृसत्तात्मक मनस से उपजी ये अनाधिकार टिप्पणियाँ महिलाओं के शरीर, पहनावे, पसंद-नापसंद, निजी फैसलों, भूमिका, यौनिकता आदि को नियंत्रित करने की कोशिश करती हैं और उनकी अस्मिता पर आघात पहुँचाती हैं। महिला एवं पुरुष अधिकारियों/सह-कर्मियों द्वारा की जाने वाली ऐसी टिप्पणियाँ सामने वाले व्यक्ति (महिलाओं) की निजता का अतिक्रमण करती हैं। साथ ही, ऐसी टिप्पणियाँ उन अधिकारों - जैसे स्वतंत्रता, समानता एवं गरिमापूर्ण जीवन का अधिकार - का हनन करती हैं जिन्हें महिलाओं ने लम्बे नारीवादी संघर्ष के बाद जीता है।

हाल ही में भारतीय सर्वोच्च न्यायालय ने भी 'Handbook on Combating Gender Stereotypes' (2023) जारी करके अदालतों में लैंगिक रूप से आपत्तिजनक भाषा के प्रयोग को चिन्हित करते हुए इसके प्रति गंभीरता जताई है। लैंगिक रूप से आपत्तिजनक एवं महिला-विरोधी भाषा-व्यवहार को लेकर हम शिक्षा विभाग से भी इसी गंभीरता व ज़िम्मेदारी की उम्मीद रखते हैं। 

 

आपकी जानकारी और कार्रवाई के लिए हम स्कूलों एवं कार्यालयों में की जाने वाली महिला-विरोधी टिप्पणियों की एक सांकेतिक सूची इस पत्र के साथ संलग्न कर रहे हैं। 



स्कूल में महिलाओं पर की जाने वाली टिप्पणियों की सांकेतिक सूची -

 

क) परिधान संबंधी टिप्पणियाँ 

दुपट्टा कहाँ है? दुपट्टा क्यों नहीं डाला?

ये कैसे कपड़े पहने हैं?

इतने टाइट कपड़े क्यों पहने हैं?

स्कूल में तो साड़ी ही पहनकर आना चाहिए।

स्कूल में जींस नहीं पहननी हैI

बिंदी क्यों नहीं लगाती?

साड़ी में तो मैडम बहुत कमाल लग रही हैं। 

किसे लाइन मारने को इतना सज कर आई हो?

 

ख) शरीर संबंधी टिप्पणियाँ

मोटी हो रही हो, प्रेगनेंट हो क्या?

थोड़ी साफ़-सुथरी और सुंदर बन कर आया करो।

'लंबू', 'गिठ्ठी', 'काली', 'मोटी', 'पतली' मैडम

इतनी 'सुंदर' हो फिर शादी क्यों नहीं हुई

मैडम, कुछ खा लिया करो। 

चश्मा हटाने का आपरेशन करा लो। 

 

ग) निजी फ़ैसले/जीवन संबंधी टिप्पणियाँ

देर रात तक व्हाट्स ऐप पर ऑनलाइन रहती हो!

घर में कोई काम नहीं है क्या

मैडम, खाना नहीं बनाना क्या घर जा कर?

व्हाट्स ऐप स्टेटस तो बड़ा जल्दी-जल्दी बदलती हो, स्कूल के मैसेज क्यों नहीं देखे?

उम्र हो रही है, शादी क्यों नहीं करती?

बुड्ढी होकर शादी करनी है क्या?

उम्र हो रही है, बच्चे क्यों नहीं पैदा करती?

इतना टाइम हो गया शादी को, बच्चे क्यों नहीं हो रहे हैं?

अभी तो पहले बच्चे की मैटरनिटी लीव से आईं थीं! अब फिर से छुट्टी चाहिए?

लव मैरिज की है इसने, काफ़ी तेज़ है!

आपके सास-ससुर आपके बारे में क्या सोचते हैं?

बच्चों का ध्यान रखना छोड़ रखा है क्या?

कितना फ़ालतू टाईम है आपके पास! (यदि पुरुष सहकर्मियों की तरह कार्यस्थल पर देर तक रुको तो, न रुको तो 'पता नहीं कैसी नौकरी करती हैं ये!')

यूनिवर्सिटी में पढ़ती हो तो वहीं कोई लड़का क्यों नहीं फँसा लेती? यूनिवर्सिटी में होता ही क्या है, लड़के-लड़कियाँ एक-दूसरे की गोद में ही बैठे रहते हैं!

आजकल किसके साथ घूम रही हो?

बाहर की संस्कृति में क्यों जीती हो?

 

घ) महिलाओं की परम्परागत भूमिका संबंधी टिप्पणियाँ

टीचर तो बच्चे की मां की तरह होती है। उनमें नैतिक गुण डालना उनकी ज़िम्मेदारी है।

कुछ काम महिलाओं को ही शोभा देते हैं। 

इतना तर्क करती है, ससुराल में किसी को बोलने नहीं देगी। 

 

 ड.) खान-पान संबंधी टिप्पणियाँ

स्कूल में मांसाहारी खाना नहीं ला सकते।

ये सब खाना है तो अलग बैठकर खाओ।

(आशय यह होता है कि 'अच्छी'/'संस्कारी' महिलाओं, खासतौर से शिक्षिकाओंके लिए, माँसाहार वर्जित है! यानीमाँसाहार करने वाली महिलाएँ 'बुरी' होती हैं।)

 

अत: हम अपील करते हैं कि दिल्ली महिला आयोग इस मुद्दे की गंभीरता से संज्ञान लेते हुए दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग को कार्यस्थल पर (स्कूलों व कार्यालयों में) लैंगिक रूप से संवेदनशील व्यवहार एवं उचित भाषा संबंधी दिशा-निर्देश जारी करने और ट्रेनिंग आयोजित करने का प्रस्ताव देI

 

सधन्यवाद

लोक शिक्षक मंच

Monday, 20 November 2023

दिल्ली सरकार व नगर निगम के स्कूलों में FLN (आधारभूत साक्षरता एवं संख्यात्मकता) की नीति के दुष्प्रभाव

 

प्रति
      शिक्षा मंत्री,
      दिल्ली सरकार 

विषय: दिल्ली सरकार व नगर निगम के स्कूलों में FLN (आधारभूत साक्षरता एवं संख्यात्मकता) की नीति के दुष्प्रभाव 

महोदया,
            लोक शिक्षक मंच आपके समक्ष FLN (आधारभूत साक्षरता एवं संख्यात्मकता) एवं 'मिशन बुनियाद' को लेकर, जोकि मुख्यतः FLN की संकल्पना पर आधारित है, अपने आलोचनात्मक अनुभव, अवलोकन एवं आपत्तियाँ दर्ज करना चाहता है। हालाँकि, हमारा मानना है कि FLN की अवधारणा में ही कुछ बुनियादी समस्याएँ हैं, फिर भी यहाँ हम सैद्धांतिक बहस में न जाते हुए अपनी बात को केवल व्यावहारिक पक्ष तक सीमित रखेंगे।

1. FLN पर ज़ोर देने के चलते पढ़ाई के स्तर से समझौता हो रहा है। न केवल बाक़ी विषयों की अनदेखी हो रही है, बल्कि भाषा व गणित में भी विषयवस्तु और उद्देश्य सीमित हुए हैं। उदाहरण के तौर पर, खेल व कला के साथ-साथ सामाजिक अध्ययन व पर्यावरण अध्ययन जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों को दिया जाने वाला समय व महत्त्व कम हो रहा है। वहीं दूसरी तरफ़, नगर निगम के स्कूलों के संदर्भ में, प्रथम व द्वितीय कक्षाओं के पाठ्यक्रम में परिवेश अध्ययन के समेकित विषय को मौखिक स्तर पर पढ़ाने के बदले, इसे सामाजिक अध्ययन व पर्यावरण अध्ययन में तोड़कर, अलग-अलग किया गया है। प्रथम दो कक्षाओं में, पाठ्यचर्या के मानकों के विपरीत जाकर, पर्यावरण अध्ययन नामक विषय में लिखित परीक्षा ली जा रही है। कक्षाई स्तर से असंबद्ध विषय तथा परीक्षा-प्रणाली थोपना न सिर्फ़ पाठ्यचर्या के स्थापित व सर्वसम्मत मानकों के विरुद्ध है, बल्कि विषयों तथा बाल-विकास सिद्धांतों के भी विपरीत है।  

2. शिक्षकों के लिए विषय की गहराई में जाकर पढ़ाना मुश्किल होता जा रहा है। विषयों को आपस में जोड़कर व सुगठित पाठ्यपुस्तकों के माध्यम से पढ़ाने के बदले, विषयों को अलग-थलग ज्ञान क्षेत्रों की तरह बरता जा रहा है। पाठ्यपुस्तकों की जगह एकाकी वर्कशीट्स ले रही हैं जिनमें अक़सर कोई सतत व जीवंत संदर्भ नहीं होता है। नतीजतन, ये वर्कशीट्स न विद्यार्थियों से संवाद स्थापित कर पाती हैं और न ही शिक्षकों को प्रेरित करती हैं।

3. FLN के कारण बच्चों को चिन्हित करके उनके बीच वर्गीकरण किया जा रहा है। इससे बच्चों की कक्षाई इकाई टूट रही है और उनके मनस पर (श्रेष्ठता व हीनता का) नकारात्मक असर पड़ रहा है। शिक्षा तथा इंसानी अस्तित्व के तमाम आयामों को दरकिनार करके, मात्र साक्षरता/संख्यात्मकता के न्यूनतम स्तरों के आधार पर विद्यार्थियों को चिन्हित व वर्गीकृत करने से विद्यार्थियों के आत्मबोध का धरातल संकुचित हो रहा है। इस अलगाववादी पहचान से उनके आपसी मासूम रिश्तों व दोस्तियों पर बुरा असर पड़ रहा है। FLN में केवल अक्षर तथा संख्या ज्ञान को महत्त्वपूर्ण बना देने के कारण विद्यार्थियों की अन्य क्षमताओं और गुणों को कक्षा में पहचान नहीं मिलती जिससे उनका आत्मविश्वास टूटता है। इससे इन विद्यार्थियों तथा उनके 'साक्षर' सहपाठियों को भी उस सर्वांगीण विकास का अवसर नहीं मिल पाता जो कि शिक्षा का असल व मूल लक्ष्य है और जिसकी प्राप्ति के लिए एक-दूसरे का साथ और एक-दूसरे से चर्चा अनिवार्य है।
सांस्कृतिक व अधिगमात्मक विविधता कक्षा को कमज़ोर नहीं करती, बल्कि साथ तथा मिलकर सीखने व जीने के मूल्यों से कक्षा को समृद्ध करती है। एक ही कक्षा के विद्यार्थियों को अलग-अलग करके, उन्हें अलग-अलग स्तर के कोर्स पढ़ाने से शिक्षा समानता के मूल्य के प्रति अपनी ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी निभाने से विमुख हो रही है।  इस तरह के आंकलन से बच्चों में यह ख़तरनाक व झूठा संदेश प्रेषित हो रहा है कि वो (हम सब) अपनी-अपनी स्थिति के लिए ख़ुद ज़िम्मेदार हैं। यह शिक्षा न केवल हमारे समाज की क्रूर हक़ीक़त को झुठलाती है, बल्कि स्वार्थी व्यक्तिवाद तथा परस्पर उदासीनता का अनैतिक चित्रण पेश करती है।   

4. FLN के डाटा-केंद्रित होने के चलते शिक्षकों का बहुत-सा वक़्त त्वरित रपटें बनाने और डाटा भरने में जा रहा है। इससे शिक्षकों को वैसे भी सीमित हुई पढ़ाई के लिए और कम वक़्त मिल रहा है। शिक्षकों को अप्रत्यक्ष रूप से यह जताया जा रहा है कि पढ़ाने से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण काम डाटा भरना और रपट तैयार करना है। लगातार होने वाले मूल्यांकन तथा परीक्षण के चलते नियमित रूप से व सघन पढ़ाई कराना बाधित हो रहा है। ऐसी पढ़ाई दुर्लभ होती जा रही है जो ग़ैर-अकादमिक आदेशों के पालन के दबाव से मुक्त हो। विद्यार्थियों को लगातार परीक्षण की नहीं, नियमित शिक्षण की ज़रूरत है।

5. बच्चों के विविध गति से सीखने की सहज परिघटना को अस्वीकार करके उनकी पढ़ाई को  एक तयशुदा व डाटा-निर्धारित पैमाने पर कसने से न सिर्फ़ बच्चों पर अनावश्यक दबाव बन    रहा है, बल्कि शिक्षक भी वृहत्तर तथा ईमानदाराना शिक्षण से दूर हो रहे हैं। शिक्षक उस        गहरे व व्यापक शिक्षण के लिए कम समय का निवेश कर पा रहे हैं जो सही मायनों में शिक्षा    को सार्थक बनाता है।  
    
6. FLN के चलते समय-सारणी, साप्ताहिक/ दैनिक विषयवस्तु, शिक्षण गतिविधियाँ, परीक्षण, सबका केंद्रीकरण हो रहा है। इन्हें स्कूलों व शिक्षकों के विवेक और निर्णयों के दायरों से बाहर करके शिक्षकों की बौद्धिक/ पेशागत स्वायत्तता तथा पहलक़दमी को ख़त्म किया जा रहा है। यह हमारी कमज़ोरी है कि ग़ुस्से से ज़्यादा हम शिक्षक ख़ुद को लाचार, विवेकहीन और एजेंसीहीन महसूस कर रहे हैं। महज़ आदेशपालन की यह स्थिति शिक्षकों के मनोबल के लिए हानिकारक है और हमारी पेशागत अस्मिता को कमज़ोर कर रही है। 

7. अब तक एक शिक्षिका प्रथम से पंचम कक्षा तक अपने विद्यार्थियों के नियमित, सघन संपर्क में रहती थी और सभी विषय पढ़ाती थी। FLN के तहत प्राथमिक कक्षाओं की शिक्षणशास्त्रीय रूप से स्थापित इस कामयाब व सुंदर कक्षा-शिक्षक व्यवस्था को भी ख़त्म किया जा रहा है। प्राथमिक कक्षाओं में शिक्षकों को विषयों तथा स्तरों (लेवल) तक सीमित करके उनकी कक्षाओं को ही नहीं तोड़ा जा रहा है, बल्कि ख़ुद शिक्षकों के उनकी कक्षाओं व विद्यार्थियों से संबंध विच्छेद किए जा रहे हैं। हमारे अधिकतर स्कूलों की परिस्थितियों के मद्देनज़र यह व्यवस्था न सिर्फ़ अव्यावहारिक है, बल्कि इससे शिक्षकों के अपने विद्यार्थियों व उनके अभिभावकों के साथ के रिश्ते बिखर रहे हैं। कहना न होगा कि प्राथमिक कक्षाओं में शिक्षक-कक्षा/ विद्यार्थियों के बीच नियमित व लंबा साथ आपसी रिश्तों, बच्चों के भावनात्मक स्थायित्व, बच्चों को क़रीब से जानने और उनके सर्वांगीण विकास के लिए कितना ज़रूरी है। हम जानना चाहेंगे कि शिक्षक-कक्षा के संबंधों को कमज़ोर करने वाला यह कदम किस शिक्षाशास्त्रीय सिद्धांत व शोध के आधार पर उठाया गया है। कुल मिलाकर, हमें लगता है कि FLN व इसके तहत अपनाए जा रहे दिशा-निर्देश बच्चों के समतामूलक शिक्षा के अधिकार, शिक्षकों के गहन शिक्षण के अधिकार व पेशागत गरिमा का हनन कर रहे हैं। नतीजतन, स्कूल बच्चों के सर्वांगीण विकास के प्रति समर्पित व जवाबदेह रहने वाले शिक्षा संस्थानों के बदले महज़ साक्षरता/ ट्यूशन केंद्रों में परिवर्तित हो रहे हैं। इस नाते कि हमारे स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकतर विद्यार्थी वंचित-शोषित वर्गों से आते हैं जिन्हें बराबरी पर टिकी तथा गहन पढ़ाई की और अधिक ज़रूरत है, FLN के ये प्रभाव विशेषकर चिंताजनक हैं।
हम आपसे माँग करते हैं कि FLN के उपरोक्त दुष्प्रभावों के मद्देनज़र इस नीति पर पुनर्विचार किया जाए, शिक्षाविदों तथा शिक्षकों के साथ विमर्श किया जाए और इस बाज़ारवादी नीति को हटाया जाए।

सधन्यवाद 
लोक शिक्षक मंच 

प्रतिलिपि 
महापौर, दिल्ली नगर निगम 
शिक्षा मंत्री, केंद्र सरकार 
दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग 
राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग 
GSTA 
MCTA

Wednesday, 1 November 2023

स्कूलों में करवा चौथ, EMC के बहाने छात्राओं का शोषण

पिछले कुछ वर्षों से हमारे सरकारी स्कूलों में करवा चौथ के अवसर पर एक बेहद चिंताजनक चलन देखने में आ रहा है। कई स्कूलों में न सिर्फ़ कुछ शिक्षिकाएँ इसके एक दिन पहले स्कूल के समय व प्रांगण में ही मेहँदी लगवाने का काम करती हैं, बल्कि इस काम के लिए अकसर वरिष्ठ कक्षाओं की छात्राओं को इस्तेमाल किया जाता है। एक चिंताजनक पहलू यह है कि स्कूलों में इस तरह के सांस्कृतिक आयोजन किशोर बच्चियों को इस व्रत और इससे जुड़े संस्कारों व मूल्यों के माध्यम से सामाजिक रूप से एक रूढ़ घेरे से निर्मित सामाजिक संरचना में ढालने का काम करते हैं। ऐसे आयोजन कराकर स्कूल छात्राओं को साज-सज्जा से इतर अपने जीवन को देखने की दृष्टि देने की ज़िम्मेदारी से पलायन कर रहा है। इन मौक़ों पर हमारे स्कूल एक तरह से मैरिज गार्डन की पूर्व तैयारियों में जुटे भवन में तब्दील हो जाते हैं। 

इस संदर्भ में कुछ आपत्तियाँ तो ऐसी हैं जो किसी बारीक तार्किकता या संवैधानिक दुहाई की भी मोहताज नहीं हैं। हम शिक्षक स्कूली समय में एक सार्वजनिक भूमिका में होते हैं। अगर इस दौरान हम अपने निजी विश्वासों, रस्म-रिवाजों को तरजीह देंगे तो उसका सीधा असर हमारे कामकाज पर पड़ेगा। ज़ाहिर है कि मेहँदी लगवाने में समय लगेगा और उस अवस्था में हम विद्यार्थियों के प्रति अपनी ज़िम्मेदारी पूरी तरह से नहीं निभा पाएँगे। आज वंचित-शोषित वर्गों के विद्यार्थियों की पाठ्यचर्या को बर्बाद और कमज़ोर करने की नीतिगत साज़िश स्कूलों में घटित हो रही है। जब हम शिक्षक अपनी छात्राओं से मेहँदी लगवाने को EMC के नाम पर उचित ठहराते हैं तब हम भी उनके ख़िलाफ़ इस साज़िश का हिस्सा बन जाते हैं। क्या कारण है कि कला या कौशल विकास के विषयों के अंतर्गत मेहँदी के डिज़ाइन बनाने का जो अभ्यास साल में किसी भी समय विद्यार्थी काग़ज़ों पर करते थे, आज वो उनसे करवा चौथ के अवसर पर ही सस्ते या मुफ़्त श्रमिकों के रूप में अपनी शिक्षिकाओं के हाथों पर कराया जा रहा है? इस बात को नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता कि त्यौहार के सीज़न के संदर्भ में जिस काम का मोल बाज़ार में 500 रुपये तक है, उसके लिए हम अपनी छात्राओं को मात्र 100 रुपये में (प्रोत्साहित करके!) निपटा रहे हैं। एक तो उनकी पढ़ाई छीन ली, ख़ुद काम से बच गए और फिर छात्राओं के श्रम का निर्लज्ज दोहन भी किया। क्या हम इसीलिए अपने विद्यार्थियों को इस पुरातन संस्कृति में दीक्षित करते हैं क्योंकि इसमें गुरु की महिमा अपरंपार है? यह देखना-जानना रोचक होगा कि निजी स्कूलों में इस तरह का चलन किस हद तक है। और अगर नहीं है तो क्यों। अगर निजी विद्यालयों में पढ़ने वाले हमारे बच्चों के शिक्षक उनसे मुफ़्त या 100 रु में मेहंदी लगवाएं, कक्षा में शिक्षक पढ़ाने के बदले मेहंदी लगवाएं या विशेष छात्राओं को कक्षा से निकालकर उनसे मेहंदी लगवाएं तो अभिभावक के रूप में हमारी प्रतिक्रिया क्या होगी?

हम मध्य-वर्गीय शिक्षकों का यह मानना कि 'इन बच्चों की तो मेहंदी लगाकर प्रैक्टिस ही हो रही है', हमारे और विद्यार्थियों के बीच के वर्गीय अंतर को ही उजागर करता है। दरअसल हम उन्हें बाज़ार की उसी वास्तविकता का स्वाद चखा रहे हैं जिसमें उनके श्रम का शोषण होता/होना है। इस तरह से हम, करवा चौथ पर या EMC के नाम पर, छात्राओं को मेहँदी लगाने के काम में लगाकर उन्हें बाज़ार के 'आदर्श' बाशिंदे बनना सिखा रहे होते हैं। हालाँकि यह भी सच है कि ऐसे भी अनेक शिक्षक हैं जो इस चलन का समर्थन नहीं करते, लेकिन धर्म और संस्कृति के नारों के शोर में अक्सर वे अपने विवेक तथा विरोध की आवाज़ दबा लेते हैं।         

आज सार्वजनिक संस्थानों और उनमें कार्यरत कर्मियों की भूमिका को लेकर एक अनुचित धारणा पसरती जा रही है - निजी तथा सार्वजनिक जीवन के बीच लक्ष्मण-रेखा की मर्यादा का पालन दुर्लभ होता जा रहा है। ऐसा नहीं है कि पूर्व में हमारे सार्वजनिक संस्थान धर्मनिरपेक्षता जैसे मूल्यों का पूर्णतः पालन करते थे, मगर तब मर्यादाहीन आचरण न इतना व्यापक व निर्लज्ज था और न ही उसे संस्थानों के शीर्ष पदों से संरक्षण-प्रोत्साहन प्राप्त था। इस असंवैधानिक समझ को बढ़ावा देने में देश के राजनैतिक नेतृत्व का योगदान स्पष्ट है। योजनाओं के उद्घाटन से लेकर उनके नामकरण तथा चुनावी वायदों एवं सरकारी नीतियों तक में शीर्ष पदों पर नियुक्त राजनेता सार्वजनिक दायित्वों के निर्वाह में निजी आस्था का धड़ल्ले से घालमेल कर रहे हैं। ऐसा किसी मासूम आस्था के प्रभाव से नहीं, बल्कि चुनावी रणनीति और सत्ता प्राप्ति के लौकिक उद्देश्य से किया जा रहा है। अनेक विपक्षी दल भी इस ओछे खेल में शामिल हो गए हैं। अदालतें भी इस मामले में मौन रही हैं। 

करवा चौथ पर छात्राओं से मेहँदी लगवाने का यह उदाहरण साफ़ करता है कि मेहनतकश वर्गों के बच्चों के स्कूलों में संस्कृति व रस्म-रिवाज का उत्सव मनाने का एक परिणाम इन विद्यार्थियों के बुनियादी तथा शैक्षिक हक़ों की क़ुर्बानी है। आमजन को समझना होगा कि संस्कृति-आस्था को गौरवान्वित करने के नाम पर सार्वजनिक संस्थानों के चरित्र व कामकाज को संचालित करने का असर उनके अधिकारों व हितों के विपरीत होगा।


Thursday, 5 October 2023

स्कूलों में नफ़रत और हिंसा के बढ़ते माहौल के बीच हम शिक्षकों को अपनी भूमिका तय करनी होगी


 आम मेहनतकश आबादी के लिए हमारे देश की सत्तोन्मुखी व मुख्यधारा की शिक्षा व्यवस्था हमेशा से ही भेदभावपूर्ण व हिंसक रही है। एकलव्य के वर्णाधारित बहिष्करण के दृष्टान्त से लेकर सावित्रीबाई फुले के क्रांतिकारी प्रयासों के विरोध तक, शिक्षा व 'शिक्षक समुदाय' के इस हिस्से ने प्रगति और मानव मुक्ति का साथ नहीं दिया है, बल्कि दमन तथा अन्याय को क़ायम रखने की भूमिका निभाई है। दूसरी तरफ, बौद्ध, चार्वाक दर्शनों से लेकर जाति-व्यवस्था की मान्यताओं को नकारते मध्ययुगीन भक्ति-सूफी-संतों के आंदोलन और उसके बाद दमित-शोषित वर्गों की मुक्ति को समर्पित आधुनिक भारत के अनगिनत आंदोलनों तक, हमारे पास इस संकीर्ण 'शिक्षा' व्यवस्था को चुनौती देने का भी एक गौरवशाली इतिहास तथा समृद्ध परंपरा है। भले ही हम गुरु की महिमा के कितने दोहे पढ़-पढ़ा लें, दैनिक सभा में गुरुओं के सम्मान के भक्तिगीत शामिल कर लें और विद्यार्थियों व समाज के सामने अपनी ही तारीफ़ को नैतिकता का पैमाना बनाकर पेश करें, हक़ीक़त तो यह है कि इस देश में शिक्षकों के बड़े वर्ग की आदत, संस्कार और प्रवृत्ति स्वाभाविक रूप से कमज़ोर की शिक्षा से बेदखली, शिक्षा में असमानता और अन्याय के पक्ष में रही हैं। पिछले कुछ समय से शिक्षा जगत में जिस तरह की प्रत्यक्ष-परोक्ष संकीणर्ता तथा हिंसा की घटनाएँ सामने आई हैं उन्हें इसी कड़ी में देखते हुए भी उनके नए स्तर व रूप को पहचानने की ज़रूरत है। हमें तय करना होगा कि हमें क्या भूमिका निभानी है - शिक्षा को संकीर्णता, अवैज्ञानिक विचारों तथा दमन-उत्पीड़न के औज़ार की तरह इस्तेमाल करने की या मानव मुक्ति, न्याय व समानता के पक्ष में खड़ा करने की?

 इस देश में शायद ही कोई दिन बीतता हो जिसमें सामाजिक स्तर पर दलित उत्पीड़न का क्रूर अपराध सामने न आता हो। शिक्षा संस्थानों में भी दलित व महिला-विरोधी पूर्वाग्रहों व घृणा से उपजने वाला भेदभाव व हिंसा एक ऐसा सामान्य अनुभव है जिसे अकसर क़ानून व मुख्यधारा का मीडिया दर्ज ही नहीं करता है। मिड-डे-मील बनाने व परोसने को लेकर दलित महिला कर्मी के खिलाफ स्थानीय दबंग जाति से जुड़े लोगों द्वारा उकसाने पर बच्चों का भोजन लेने से इंकार (उत्तराखंड, तमिल नाडु), ख़ास वर्ग के शिक्षकों के लिए रखे गए मटके से पानी पीने पर दलित छात्र की पिटाई व उससे होने वाली मौत (राजस्थान), जातिगत अहंकार व दबंगई के चलते छात्रों द्वारा दलित भाई-बहन के घर पर घुसकर हमला (तमिलनाडु), तथाकथित उच्च-जाति के शिक्षक की मोटर साइकल छूने पर दलित छात्र की पिटाई (उत्तर-प्रदेश), उच्च-शिक्षा के श्रेष्ठतम संस्थानों में वंचित वर्गों के छात्र-छात्राओं की नियमित 'आत्महत्याएँ' आदि हिंसा के तमाम ऐसे सबूत हैं जो दबाए नहीं दबते और जिनका कड़ा प्रतिरोध भी होता है। इनके अलावा वज़ीफ़ों की कटौती, फ़ीस की बढ़ोतरी, नियुक्तियों में सामाजिक न्याय के प्रावधानों की अवहेलना जैसे अन्य नीतिगत प्रहारों की भी लंबी सूची है। 

 

ऐसा नहीं है कि जातिगत भेदभाव व दमन हमारी आधुनिक शिक्षा व्यवस्था में कोई अकेला विकार रहा है। शिक्षा संस्थानों व शिक्षकों के एक बड़े वर्ग के बीच जातिगत हिंसा के साथ साम्प्रदायिक पूर्वाग्रह तथा भेदभाव सामान्य संस्कृति के अभिन्न अंगों की तरह रहते आए हैं। फ़र्क़ यह है कि इससे पहले राजकीय मशीनरी ने इतना खुलकर साम्प्रदायिक घृणा को प्रोत्साहित नहीं किया था। अब मुख्यधारा सहित सोशल मीडिया के सघन दुष्प्रचारी अजेंडा की बदौलत भारतीय समाज का कोई पहलू साम्प्रदायिक ज़हर से अछूता नहीं रह गया है। राजनीति व मीडिया के इस तालमेल से अकादमिक स्तर व सभ्य व्यवहार में बहुत गिरावट आई है। ऐसा नहीं है कि पहले स्कूलों में शिक्षकों द्वारा बच्चों के साथ प्रत्यक्ष सांप्रदायिक भेदभाव की घटनाएँ नहीं घटती थीं, लेकिन अब ऐसी घटनाएँ तेज़ी से बढ़ रही हैं और ख़तरनाक रूप से सामान्य होती जा रही हैं। इसका कारण हवाओं में घुला हुआ है। पिछले कुछ सालों में मुसलमानों के रहन-सहन, खान-पान, पहनावे, त्यौहारों, इबादत करने के तरीके, व्यवसायों, राजनीतिक माँगों आदि के खिलाफ़ लगातार इतनी ग़लतफहमियाँ पैदा की गयी हैं कि आपसी रिश्ते तेज़ी से बिगड़ रहे हैं। यह कतई अपने-आप नहीं हुआ है। फिल्मों से लेकर टीवी प्रसारणों और व्हाट्सऐप संदेशों के माध्यम से, लगातार व सुनियोजित ढंग से भारत की पहली सबसे बड़ी सामुदायिक आबादी (हिंदुओं) के दिमाग़ में यह बिठलाया जा रहा है कि उसकी सबसे बड़ी दुश्मन ग़रीबी, बेरोज़गारी, महंगी शिक्षा, चिकित्सा, प्रदूषित पानी-हवा नहीं है, बल्कि भारत की दूसरी सबसे बड़ी सामुदायिक आबादी (मुसलमान) है। इस संदर्भ में स्कूल पूर्वाग्रह व घृणा के इस तनावपूर्ण माहौल से अछूते नहीं रह सकते। शिक्षकों का एक हिस्सा भी इसी प्रोपेगेंडा का शिकार होता जा रहा है। आज शिक्षकों का एक वर्ग विद्यार्थियों के प्रति समान व्यवहार रखने की मर्यादा बरतना तो दूर, ख़ुद विद्यार्थियों में इस नफ़रती तथा हिंसक भाव को खुलकर प्रेषित कर रहा है।  

पिछले वर्ष दिसंबर में मनिपाल विश्वविद्यालय के एक मुस्लिम छात्र द्वारा अपने शिक्षक की एक फूहड़ व साम्प्रदायिक टिप्पणी के खिलाफ उसी वक़्त कक्षा में ही अपनी शिकायत दर्ज करने का वीडियो सामने आया था। उस कक्षा के अन्य विद्यार्थी खामोश थे। कुछ साल पहले दिल्ली के वज़ीराबाद इलाक़े के एक निगम स्कूल में धार्मिक आधार पर छात्रों के अलग-अलग सेक्शंस बनाने की खबर आई थी। मीडिया में आने के बाद इसकी कड़ी आलोचना और प्रशासनिक शिकायत हुई तो स्कूल के स्तर पर यह दलील सामने आई कि ऐसा छात्रों के बीच लड़ाई-झगड़ा रोकने के लिए किया गया था। 2020 में दिल्ली के उत्तर-पूर्व के क्षेत्र में हुई साम्प्रदायिक हिंसा में स्कूली छात्रों द्वारा उपद्रवी भीड़ का हिस्सा बनने और धार्मिक स्थलों को निशाना बनाने की चिंताजनक खबरें/फ़ोटो सामने आई थीं। हाल ही में दिल्ली सरकार के एक स्कूल की शिक्षिका द्वारा कक्षा में पूर्वाग्रहों से ग्रसित तथा मुसलमानों के विरुद्ध नफरत फैलाने वाली टिप्पणियाँ करने की शिकायत आई। पुलिस द्वारा केस दर्ज किया गया है, लेकिन प्रशासन ने शिक्षिका तो क्या, विद्यार्थियों तक की काउन्सलिंग करने जैसा भी कोई क़दम नहीं उठाया है। सुनने में आया कि शिक्षिका की अभद्र टिप्पणियों के दौरान बाक़ी विद्यार्थी ताली बजा रहे थे। उधर जम्मू के कठुआ के एक सरकारी स्कूल में एक शिक्षक व प्रिंसिपल द्वारा एक छात्र को ब्लैकबोर्ड पर 'जय श्रीराम' लिखने पर पीटने की खबर आई। शिक्षकों को निलंबित कर दिया गया और पुलिस ने हिरासत में भी ले लिया। उत्तर-प्रदेश के मुज़फ़्फ़रनगर के एक निजी स्कूल में एक शिक्षिका द्वारा एक मुस्लिम छात्र को कक्षा के अन्य छात्रों द्वारा सबक स्वरूप पिटवाये जाने की घटना की निंदा होने पर शिक्षिका व उनकी जातिगत पृष्ठभूमि के कुछ स्थानीय लोगों ने इसका बचाव यह कहकर भी किया कि शारीरिक दंड उनके इलाक़े का आम चलन है और उनके संस्कारों का हिस्सा है। पुलिस ने पीड़ित परिवार पर समझौता करने का दबाव बनाया मगर अंततः शिक्षिका के खिलाफ असंज्ञेय धाराओं में शिकायत दर्ज की गई, जिसके बाद से मीडिया में उनके कई साक्षात्कार आ चुके हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने इस मामले में पुलिस द्वारा दर्ज की गयी एफआईआर से असंतुष्टि जताई है। हाल ही में कर्नाटका के एक सरकारी स्कूल की शिक्षिका ने अपने विद्यार्थियों को डाँटते हुए उनकी धार्मिक पहचान को निशाना बनाया। शिकायत होने पर उनका तबादला कर दिया गया। इन घटनाओं में एक नई चीज़ खतरनाक ढंग से शिक्षा व्यवस्था व कक्षाओं में प्रवेश करती दिखाई दे रही है - छात्र-छात्राओं के बीच बढ़ती दूरियाँ, अविश्वास व बोई जा रही नफरत। कई प्रसंगों में खुद विद्यार्थियों ने जातिगत विभेद व साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों से रची हिंसा में हिस्सा/मज़ा लिया है या अपने सहपाठियों के खिलाफ हुई इस हिंसा को मौन गवाही (स्वीकृति) दी है। ज़ाहिर है कि यह एक परिणाम है जिसका दोष उन पर नहीं डाला जा सकता।ऐसा सभी तरह के स्कूलों में हो रहा है - सस्ते निजी स्कूल, राज्य सरकारों द्वारा संचालित स्कूल, केंद्र सरकार के जवाहर नवोदय जैसे विशिष्ट स्कूल आदि। अति-विशिष्ट निजी स्कूल इस प्रत्यक्ष हिंसा का अपवाद लग सकते हैं, मगर सिर्फ़ इसलिए कि वंचित वर्गों व मुस्लिम पृष्ठभूमि के बच्चे पहले-से ही उनसे बेदखल हैं। हालाँकि, 12 शहरों में 145 बच्चों व उनके अभिभावकों से की गई बातचीत पर आधारित नाज़िया इरम की 'मदरिंग अ मुस्लिम' किताब वो खामोश सच सामने लाती है जिसपर बात करने से हम हिचकते हैं - कि तथाकथित एलिट निजी प्रगतिशील स्कूलों में भी बच्चों-बच्चियों द्वारा पहचान-आधारित बुलींग (धमकी-प्रताड़ना) झेलना आम बात है। 
 लेकिन भारत का मीडिया स्थायी वैमनस्य का ऐसा माहौल क्यों रच रहा है और सरकार उसे रोक क्यों नहीं रही? सच यह है कि सांप्रदायिक संगठन तभी अपना फन फैला पाते हैं जब राज्य-पुलिस की ताकत उनके साथ हो। ब्रिटिश भारत में भी यही हुआ था। ब्रिटिश हुकूमत ने एक तरफ़ भारतीय जनता में पनप रहे जनवादी, मज़दूर-किसान आंदोलनों की ज़मीन कमज़ोर करने के लिए और दूसरी तरफ़ राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन की ताक़त कमज़ोर करने की नीयत से प्रमुख समुदायों के दक्षिणपंथी संगठनों के उभार को प्रेरित किया। 'फूट डालो और राज करो' सिर्फ़ ब्रिटिश हुकूमत का सिद्धांत नहीं था, बल्कि यह हर दमनकारी और अलोकतांत्रिक सत्ता का सनातन औज़ार है। इतिहास में ऐसे अनेक उदाहरण मौजूद हैं जब राजसत्ता ने जनता को परस्पर विरोधी समुदायों में बांटकर उनके वैमनस्यकारी संगठनों को प्रश्रय दिया और खुद को कानूनी वैधता प्रदान की।
 इतिहास के सबक़, आज का संदर्भ और हमारी भूमिका 
 दुनिया भर में औपचारिक/राजकीय शिक्षा व्यवस्था असमानता को पुनरुत्पादित करती आयी है। पूर्व-आधुनिक भारत में गुरुकुल शिक्षा व्यवस्था ने दलितों और महिलाओं को शिक्षा से दूर रखा। नस्लवादी दक्षिण अफ्रीका के बांटू शिक्षा अधिनियम 1952 ने काले मूल के लोगों की पढ़ने की उम्र, पठन सामग्री, प्रति छात्र शिक्षकों की संख्या (PTR), शिक्षकों की गुणवत्ता, उच्च शिक्षा के मौके, फंडिंग आदि के पैमानों को श्वेत बच्चों के लिए तय पैमानों से निम्नतर बनाया। नाज़ी जर्मनी में भी राज्य ने किताबों को बदल दिया, पाठ्यचर्याओं में यहूदी-विरोधी भाव भर दिए, नस्ल के अध्ययन (रेस स्टडीज़) की कक्षाओं में बच्चों को यह सिखाया गया कि जर्मनी की सभी समस्यायों के लिए यहूदी ज़िम्मेदार हैं और उनसे नफ़रत की जानी चाहिए। इसका नतीजा वही हुआ जो सत्ता चाहती थी - न सिर्फ़ जर्मन शिक्षक यहूदियों के ख़िलाफ़ पूर्वाग्रह व घृणा के पाठ पढ़ाते, बल्कि जर्मन बच्चों द्वारा अपने यहूदी सहपाठियों का तिरस्कार करना तथा मज़ाक़ उड़ाना आम हो गया। यह एक पीढ़ी का मॉब लिंचर्स (ख़ूनी भीड़) में बदल जाना था। इसका अंजाम यहूदियों के सामूहिक क़त्लेआम, यातना शिविरों, द्वितीय विश्वयुद्ध तथा अंततः जर्मनी की तबाही में सामने आया। आज हमारी कक्षाओं और स्कूलों में भी वही माहौल बनाया जा रहा है। हम एक डरावने और बेहद ख़तरनाक मुहाने पर खड़े हैं। इस स्थिति का प्रतिकार किए बिना हम इतिहास में आगे नहीं बढ़ सकते।  
 संस्कृति के नाम पर हमारे राजकीय संस्थानों में वर्चस्वशाली समूहों के प्रतीक छाए रहते हैं। राजस्थान उच्च न्यायालय में मनु की मूर्ति सम्मान-सहित स्थापित है। इन प्रतीकों का आधार सांप्रदायिक-जातिगत होता है। ऐसे में, हमारे सार्वजनिक शिक्षा संस्थानों पर तो और भी निरपेक्ष, उदार और संवेदनशील होने की ज़िम्मेदारी थी। प्रतीक चिन्हों के रूप में स्कूलों में इस सांस्कृतिक भेदभाव के अनेक सबूत दिखाई देते हैं। एक समय तक इनका असर मूक था, लेकिन अब कई स्कूलों के स्टाफ़रूम की चर्चाएँ सीधा टीवी मीडिया की विषैली व तनावपूर्ण बहसों से प्रभावित नज़र आती हैं। एक वर्ग मुफ्त शिक्षा के सीमित अधिकार से लेकर मामूली मिड-डे-मील व घटते वजीफो सहित विद्यार्थियों को दी जानी वाली सहायता के अन्य प्रावधानों तक के प्रति केवल अपनी सैद्धांतिक असहमति नहीं बल्कि हिकारत का भाव तथा तीव्र नफरत व्यक्त करता रहता है। शारीरिक दंड के निषेध के अदालती आदेशों, संविधान द्वारा प्रदत्त सामाजिक न्याय के प्रावधानों और शिक्षा अधिकार अधिनियम के आधे-अधूरे व कमज़ोर वायदों के बावजूद 'अशिक्षित व पिछड़े तबकों' से आने वाले विद्यार्थियों के खिलाफ़ शरीरिक दंड का लम्बा इतिहास रहा है। यह कैसे मुमकिन है कि फिर यही वर्ग वंचित वर्गों के विद्यार्थियों के खिलाफ कोई पूर्वाग्रह व्यक्त न करे या भेदभाव प्रकट न करे! एक तरफ़ हम 'भय बिनु होइ न प्रीति' जैसे कथनों का सहारा लेकर शारीरिक हिंसा को उचित ठहराने की कोशिश करते हैं, तो दूसरी तरफ़ 'पाँचों उँगलियाँ बराबर नहीं होतीं' जैसे मुहावरों के आधार पर असमानता व ऊँच-नीच को एक प्राकृतिक नियम के समान स्थापित करते हैं।
 इस ऐतिहासिक संदर्भ में हालिया राजनैतिक-सांस्कृतिक सत्ता ने शिक्षा जगत पर 'करेला, उस पर नीम चढ़ा' का उदाहरण पेश किया है। उभरते हुए नए भारत में राष्ट्रीय शिक्षा नीति (राशिनी) 2020 के तहत इंडियन नॉलेज सिस्टम (भारतीय ज्ञान प्रणाली) के नाम पर भारतीय ज्ञान के प्रगतिशील पहलुओं को पीछे धकेलकर अवैज्ञानिक तथ्यों व मान्यताओं को महिमामंडित और स्थापित किया जा रहा है। मनुस्मृति जैसे ग्रंथों को अकादमिक आलोचना के तहत नहीं, प्रेरणा के पाठों के रूप में कोर्स में प्रस्तावित किया जा रहा है। शिक्षा को सामाजिक ढाँचे, संस्कृति व राज्य की नीतियों में निहित अलोकतांत्रिक तथा अन्यायपूर्ण तत्वों के प्रति चेतना व आलोचनात्मक नज़रिया विकसित करने से रोकने की कोशिशें हो रही हैं। इसके विपरीत, विभिन्न कोर्सों, कार्यक्रमों द्वारा विद्यार्थियों की चेतना को कुंद करने और उन्हें मूक बनाने की कोशिश की जा रही है।  
 हम जिन स्कूलों में पढ़ाते हैं उनमें भी हमें खतरे के संकेत पहले ही पहचानने होंगे। चाहे वो विद्यार्थियों की साइकलों और व्हाट्सऐप स्टेटसों पर उभर रहे धार्मिक पहचान के मासूम अथवा आक्रामक प्रतीक हों, चाहे उनके द्वारा अपनाए जा रहे पहनावे या शरीर पर धारण निशान हों, हमें उन्हें इस बात के लिए प्रताड़ित करने का कोई हक़ नहीं है। ज़रूरत है उन्हें विश्वास में लेकर इन विषयों पर धैर्यपूर्वक बात करने की। न्याय न हिजाब पहनने वाली छात्रा को स्कूल से बेदखल करने में है और न ही 'जय श्री राम' के नारे लगाने वाले छात्र को दंडित करने में। शिक्षक होने के नाते हमें अपनी कक्षा या स्कूलों में किसी भी भेदभावपूर्ण या पूर्वाग्रहजनित विचार-व्यवहार के विरुद्ध अपना सख़्त ऐतराज़ दर्ज करना होगा। हाँ, विद्यार्थियों के विरुद्ध धार्मिक, जातिगत या पहचान के किसी भी आधार पर भेदभाव करने, पूर्वाग्रहों को संप्रेषित करने व शारीरिक हिंसा अपनाने वाले शिक्षकों को निश्चित ही काउन्सलिंग की ज़रूरत है। भेदभावपूर्ण, पूर्वाग्रहजनित व हिंसात्मक व्यवहार शिक्षकों की पेशागत गरिमा के प्रतिकूल तो है ही, यह संवैधानिक-वैधानिक रूप से भी नाजायज़ है। ऐसा व्यवहार दर्शाने पर ऐसे शिक्षकों का नैतिक साथ नहीं दिया जा सकता है और न ही बचाव किया जा सकता है।

 

चाहे वो ब्रह्मकुमारीज़ व इस्कॉन जैसी धर्म-विशेष संबंधी संस्थाओं को स्कूलों में कार्यक्रम आयोजित करने हेतु प्रवेश देना हो या दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग द्वारा आयोजित विभिन्न वर्कशॉप के समारोहों में धर्म-सापेक्ष कर्मकांड/तत्वों को शामिल करना हो; हमें इस पक्षपातपूर्ण, असंवैधानिक व शिक्षा-विरोधी नीति का विरोध करके राज्य के पंथनिरपेक्ष मूल्य को बचाना होगा। हमें स्वयं पंथनिरपेक्षता के पाठ और उद्देश्य को ताज़ा करना होगा कि क्यों राज्य का कोई धर्म नहीं होना चाहिए, क्यों धर्म को जनता का निजी मामला रहना चाहिए, क्यों पंथनिरपेक्षता के बिना लोकतंत्र खोखला है।

 हम स्कूलों में 15 अगस्त, 26 जनवरी, संविधान दिवस मनाने के अलावा, डॉ. अंबेडकर-गाँधी-भगत सिंह-सुभाष से जुड़े दिवसों पर इनका नाम लेते हैं, स्तुतिगान करते हैं, शपथ लेते-दिलाते हैं, लेकिन आज़ादी के आंदोलन, संविधान और इन लोगों द्वारा दिए गए कौमी-एकता के तथा इंसानियत की साझी गरिमा को स्थापित करने वाले विचारों को भूल चुके हैं। जिस तरह यौनिकता, यौन शिक्षा और यौन हिंसा जैसे मुद्दों पर समझदारी से बात करने की हमारी कोई तैयारी नहीं है, उसी तरह से हम जातिगत व धार्मिक पूर्वाग्रहों के विषय पर भी या तो नकार की स्थिति में होते हैं या एक डरे हुए मौन की स्थिति में। जबकि हमारे पास भारत के अतीत में रही विविध दार्शनिक व लोक धाराओं से लेकर मध्यकालीन भक्ति-सूफ़ी संतों से होते हुए 1857 की क्रांति में साझी क़ुर्बानियों और आज़ादी के राष्ट्रीय आंदोलन में शहीद उधम सिंह, ख़ुदाई ख़िदमतगार, आज़ाद हिन्द फ़ौज जैसी बेहतरीन विरासत भी मौजूद है। अगर हमें अपनी इस विरासत को सच्चे अर्थों में ज़िंदा रखना है तो हमें स्कूलों को यांत्रिक व अर्थहीन कार्यक्रमों की जकड़न से निकालकर जीवंत, उदार व प्रगतिशील संवाद के स्थल बनाना होगा। तभी हम शिक्षक दुनिया को ख़ूबसूरत और न्यायपूर्ण बनाने की अपनी ऐतिहासिक भूमिका निभा पाएँगे।