Thursday 24 December 2015

कहानी: हरामखोर


राजेश आज़ाद
प्राथमिक शिक्षक

रामफल शर्मा जी आज कुछ जल्दी ही स्कूल पहुँच गए हैं। कल उनकी फैक्टरी पर कुछ मजदूरों ने बवाल कर दिया था। उसी को सुलटाने के चक्कर में वो स्कूल से जल्दी ही निकल गए थे। आज जल्दी आकर पूरे हक़ से हाजरी पूरी की और सीधे प्रार्थना सभा में चले गए।
शर्मा मास्टर जी अपनी कक्षा में बैठे ऊँघ रहे हैं। कल पूरी रात उन्होंने समाचार चैनल पर समाचार देखते हुए बितायी है। कल याक़ूब मेमन की फाँसी की सजा पर सुप्रीम कोर्ट में पूरी रात सुनवाई चली है और जब तक उसको फाँसी न दिला दी तब तक उन्हें नींद न आ पायी। बच्चे क्लास में उछल-कूद मचा रहे हैं और बार-बार कभी पानी पीने के लिए तो कभी शौचालय जाने के लिए पूछने के लिए मास्टर जी को झकझोर रहे हैं। ऐसा नहीं है कि मास्टर जी आज ही इतने सुस्त हैं। वो अक्सर ही कक्षा में ऊँघते हुए पाए जाते हैं। यदि कोई साथी टोक दे तो गर्व मिश्रित अंगड़ाई लेते हुए बोलते हैं, “अपनी फैक्टरी अब काफी अच्छी चल रही है। स्कूल तो मैं आप लोगों से मिलने आ जाता हूँ। आप लोग तो जानते ही हैं कि मेरे पास कितना काम है।"
मास्टर जी का शिक्षण कौशल भी साथी शिक्षकों के बीच मज़ाक का विषय बना रहता है। उनकी कक्षा के बच्चों को नाम लिखना आए या नहीं पर सबको ये बात रटी हुई है कि कश्मीर भारत का अभिन्न अंग है। मास्टर जी कक्षा में पहुँचते ही गाइड खोलकर उसमें से पूरा बोर्ड भर देते हैं और अपनी फ़ैक्टरी का हिसाब-किताब लेकर बैठ जाते हैं। अब यह बच्चों पर है कि वे बोर्ड पर से कितना ग्रहण कर पाते हैं।
हाँ, एक काम में मास्टर जी का कोई तोड़ नहीं है - किसी भी विषय पर चर्चा के समय वो पूरे स्टाफ के लिए चाय-समोसे का प्रबंध अपने खर्चे पर करवाते हैं। आज भी मास्टर जी ने गोपाल को बुलाने के लिए बच्चे को भेजा, और उसको 500 रुपए का नोट थमाते हुए चाय-समोसे का इंतजाम करने का फरमान सुनाते हुए बोले, “गोपाल, आज कुछ मिठाई का भी इंतजाम करना।" हालाँकि गोपाल कभी भी मास्टर जी से कुछ पूछता नहीं है,पर आज हिम्मत करके उसने पूछ ही लिया, “सर, कोई खुशखबरी है क्या?” मास्टर जी रहस्यमयी मुस्कुराहट के साथ बोले, “जा लेकर तो आ फिर बताऊँगा।”  
मास्टर जी बेचैनी से आधी छुट्टी का इंतज़ार कर रहे हैं क्योंकि आज उनके पास बोलने का काफी मसाला है। हालाँकि पहले वो आधी छुट्टी का इंतज़ार भी नहीं करते थे मगर पिछले दिनों स्कूल में कुछ बदतमीज़ युवा शिक्षकों ने जॉइन किया है जो उन्हें टोक देते हैं। अब इस उम्र में किसी को क्या मुँह लगाना! उन्होने पूरी रात समाचार चैनल पर याक़ूब से जुड़ी हर खबर को अच्छी तरह से देखते हुए बितायी है और उन्हें लगता है कि आज वो युवा शिक्षकों के उस उस समूह को पटखनी देंगे जो हर बात पर उनका विरोध करते हैं। अरे, समूह क्या है, एक-दो नए लौंडे है, बिलकुल संस्कारहीन,न वरिष्ठों की शर्म, न उम्र का लिहाज।
मास्टर जी जिस भी दिन स्कूल समय से पहुँचते हैं, प्रार्थना सभा में जरूर उपस्थित रहते हैं। प्रार्थना में उनकी नज़र हरेक बच्चे पर होती है। सुबह यदि किसी बच्चे ने गायत्री मंत्र आँखें खोल कर बोल दिया तो वो गुस्सा हो जाते हैं। इसलिए बच्चे मास्टर जी के सामने हमेशा आँखें बंद करके रखते हैं क्योंकि एक भी गलती होने पर मास्टर जी विद्यार्थियों और शिक्षकों दोनों की 15 मिनट की नैतिक शिक्षा पर कक्षा ले लेते हैं। मास्टर जी का मानना है कि सुबह की प्रार्थना सभा से ही बच्चे संस्कारी और देश-प्रेमी होंगे, जिसका कि समाज में अभी अभाव हो चला है।
आधी छुट्टी की घंटी बजी और स्कूल में खाना बांटा जाने लगा तो मास्टर जी ने भी अपनी कक्षा को खाना लेने के लिए भेजा। हालाँकि मास्टर जी को कभी भी मिड डे मील योजना पसंद नहीं आई क्योंकि उन्हें लगता है कि यह योजना बच्चों में मुफ्तखोरी को प्रोत्साहित करती है। यही नहीं, स्कूल में किताब-कॉपी, वर्दी बांटे जाने के भी वो प्रबल विरोधी हैं। कुछ बुदबुदाते हुए शर्मा जी स्टाफ-रूम की ओर चले। अभी वो ठीक से वहाँ पहुँचे भी नहीं थे कि उनकी कक्षा का एक बच्चा अपने पिता के साथ उनके सामने प्रकट हो गया। बच्चे को उसके पिता के साथ देखकर मास्टर जी के चेहरे पर ऐसे भाव आए जैसे कि काली बिल्ली ने उनका रास्ता काट दिया हो। बाप ने मास्टर जी को नमस्ते किया और बोला, “क्या बच्चों की वर्दी आई है?” इतना सुनना था कि मास्टर जी आपे से बाहर हो गए। सरकार का इतना कीमती पैसा इस तरह बर्बाद होते देखना उन्हें गवारा न था। मास्टर जी ने बच्चे के पिता को क्या बुरा-भला कहा इसकी खबर तो नहीं पता चली पर स्टाफ-रूम में घुसते ही उनके पहले शब्द थे, “सरकार ने स्कूल शिक्षा देने के लिए खोले हैं या हरामखोरी को बढ़ावा देने के लिए?"   


Tuesday 22 December 2015

शिक्षक डायरी: मोनू धनिया बेचता है !!!


राजेश आज़ाद
प्राथमिक अध्यापक 

मैं कुछ दिनों से काफी परेशान हूँ। ये परेशानी व्यक्तिगत भी है और सामाजिक-शैक्षणिक भी है। मोनू ने मेरी कक्षा से पाँचवीं पास की है और वो फिलहाल नौवीं में पढ़ रहा है। मेरा यह विद्यार्थी मुझे हर वीरवार को मेरे इलाके में ही लगने वाले साप्ताहिक बाज़ार में धनिया बेचता हुआ मिल जाता है। अब सवाल यह है कि मैं उसे धनिया बेचते हुए देखना बर्दाश्त क्यों नहीं कर पाता हूँ। मोनू के बारे में याद करता हूँ तो याद आता है कि वह स्कूल को कई प्रतियोगितायें जितवाने वाला एक अच्छा धावक था और पढ़ाई-लिखाई में भी ठीक था। उसने अभी तक पढ़ाई नहीं छोड़ी है यह तो मेरे लिए संतुष्टि का विषय है पर उसका इस 14-15 साल की उम्र में ही कमाने लग जाना मुझे बर्दाश्त नहीं होता है....निराशा में घिरने के बाद मैं यहाँ तक सोचने लगता हूँ कि यदि मोनू या उस जैसे मेरे विद्यार्थियों की नियति यही है तो क्यों नहीं मैं उन्हें केवल गणित विषय तक ही सीमित रखूँ जो कि उनके काम में उपयोगी रहेंगे, क्यों उन्हें भारत का इतिहास और भूगोल पढ़ाकर उनका समय बर्बाद करता हूँ। एक शिक्षक साथी से इस विषय पर बातचीत करके कुछ समाधान निकालने का निरर्थक प्रयास किया। उनका सोचना था कि हमारे विद्यार्थियों में से यदि कोई इस तरह के काम अपनी मर्ज़ी से करता है तो इतना परेशान होने की बात नहीं है, पर मेरा सवाल है कि क्या इस समाज में कोई अपनी मर्ज़ी से इस तरह के पेशे को चुनेगा और क्या हमारे विद्यार्थियों के पास चुनने की आज़ादी है? मेरे पास अपने लिए एक ही सवाल है कि मैं अपने शैक्षणिक पेशे में संतुष्टि किसे मानूँ। मोनू के स्कूल की छुट्टी हो जाने के बाद बाज़ार में रात 11 बजे तक सब्जियाँ बेचने में लग जाने के बाद भी अगले दिन स्कूल में नागा न करने को और शिक्षा पाने के संघर्ष को जारी रखने को?
मोनू या मेरे हर विद्यार्थी के पास क्या कोई सपना है? जो शिक्षा किसी संभ्रांत विद्यालय के विद्यार्थियों को बेहतर रोजगार दिला पाने में सक्षम हो पा रही है वही शिक्षा उन्हें क्या दे रही है? जब उन्हें अपना पारंपरिक व्यवसाय ही करना है तो फिर वे स्कूलों में अपना समय बर्बाद क्यों करें?
जब मैंने अपनी कक्षा के विद्यार्थियों से पूछा कि वो कहाँ तक पढ़ना चाहते हैं और क्या बनना चाहते हैं, तो इसपर अधिकतर बच्चों ने बताया कि वे बारहवीं तक पढ़कर डॉक्टर बनना चाहते हैं। 'बारहवीं तक' इसलिए क्योंकि अधिकतर को उससे आगे की पढ़ाई की जानकारी नहीं है; आगे की पढ़ाई के बारे में बात करने पर वो कॉलेज में पढ़ने की इच्छा जताते हैं। पर आज की स्थिति में मेरे इन मासूम विद्यार्थियों को ये पता नहीं है कि सरकार ने - जिसे कि इन बच्चों के माँ-बाप ने 'अच्छे दिनों' की उम्मीद में चुना है - फैसला ले लिया है कि इन बच्चों को स्कूलों में वोकेशनल शिक्षा ही दी जाएगी। यानि कि अब ये बच्चे खाना बनाना, सिलाई-कढ़ाई और इस तरह के विषय ही पढ़ेंगे जिन्हें पढ़कर वो कॉलेज में दाखिला तो नहीं ले पाएंगे। अब ये तो पूरी तरह से तय हो गया है कि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों को ऊंचा सोचने की अनुमति नहीं है, उनके पर स्कूलों में ही क़तर दिये जाएंगे। इस साल के अंत तक तो इन गरीब मासूम बच्चों के लिए सरकार एक और सौगात लेकर आ रही है। वह दिसम्बर के महीने में शिक्षा को विश्व व्यापार संगठन का हिस्सा बनाने जा रही है जिससे यदि ये लड़-भिड़ कर कॉलेज तक पहुँच भी गए तो भी उनको शिक्षा से बाहर ही रहना पड़ेगा क्योंकि इसको खरीदने की औकात इनके माँ-बाप की होगी नहीं। 
अब मेरे पास रास्ता क्या है? क्या इसी तरह बच्चों को गुलामी के लिए तैयार करूँ और हर सप्ताह मोनू को देखकर उससे नज़रें चुराऊँ या फिर अपने विद्यार्थियों के भविष्य के साथ खिलवाड़ करने वाली सत्ता के खिलाफ लोगों को लामबंद करके हल्ला बोल दूँ?
   

Tuesday 1 December 2015

शिक्षा के हक़ के पक्ष में दो छात्राओं के संघर्ष और बलिदान की दास्तान

फ़िरोज़ 

पिछले दिनों दो राज्यों से दो छात्राओं से जुड़ी खबरें आईं जिनसे हमें शिक्षा के अधिकार के रास्ते में उपस्थित आर्थिक-सामाजिक असमानता के अवरोध के उदाहरण मिले। ग्यारह अक्टूबर को ट्रिब्यून न्यूज़ सर्विस ने हरियाणा के सिरसा में रहने वाली ज्योति की खबर प्रकाशित की। ज्योति को इसी साल बारहवीं पास करने के बाद चौधरी देवी लाल विश्वविद्यालय में दाखिला मिला था। पढ़ने के लिए उसे घर से विश्वविद्यालय आने-जाने पर रोज़ 120 रुपये खर्च करने पड़ रहे थे - एक तरफ के 60 रुपये। ज्योति एक आम मेहनतकश परिवार से संबंध रखती है। सामाजिक रूप से ये परिवार दलित पृष्ठभूमि का है। ज़ाहिर है कि इस तरह का खर्चा वहन करना इस परिवार के बूते के बाहर ही था। तो इस तरह ज्योति की उच्च-शिक्षा पर आर्थिक अयोग्यता की पाबंदी लग गई। यूँ ज्योति कोई अकेली नहीं है - भारत में लाखों-करोड़ों बच्चे इस नाइंसाफ़ी के शिकार होते हैं और देश के विकास की चकाचौंध में यह कोई खबर नहीं बनती। मगर ज्योति की पढ़ाई छूटने की संभावना की भनक किसी तरह कुछ स्थानीय NGO को लग गई और उनसे देखा नहीं गया। उन्होंने ज्योति व उसके परिवार को तीन साल पढ़ने के लिए यात्रा पर आने वाले खर्च का हिसाब लगाकर 63,000 रुपये देने की पेशकश की घोषणा कर दी। ज्योति ने इसे यह कहते हुए ठुकरा दिया कि उसे किसी का अहसान लेकर अपनी पढ़ाई का बंदोबस्त नहीं करना है। बल्कि उसने राज्य सरकार से बस पास की माँग की। इसे उसने सरकार का फ़र्ज़ और विद्यार्थियों का हक़ बताया। यह ग़ौरतलब है कि हरियाणा में यूँ तो छात्राओं को बस पास दिया जाता है पर वर्तमान नियम इसे एक निश्चित दूरी तक सीमित करते हैं, जोकि ज्योति जैसे विद्यार्थियों की परिस्थितियों व हितों के खिलाफ है। ज्योति की माँग में यह स्पष्टता भी है कि अगर बस पास बनाने के आदेश जारी भी होते हैं तो वो सिर्फ उस अकेली के लिए नहीं होंगे बल्कि उस जैसे सभी विद्यार्थियों पर लागू होंगे। इस घटना के बारे में ताज़ा सूचना तो प्राप्त नहीं है लेकिन इतने से ही हम कुछ सबक रेखांकित कर सकते हैं। देश के मेहनतकश और वंचित-शोषित वर्गों से आने वाले विद्यार्थियों में भ्रातृत्व-बहनापे, सामूहिकता, बराबरी और इन्साफ के प्रति वो सहज जज़्बा है जोकि राज्य से संवैधानिक ज़िम्मेदारियाँ निभाने की माँग करता है। वहीं, समाज के विभिन्न वर्गों में NGO की भूमिका को लेकर यह समझ गहरा रही है कि ये मुद्दों को टुकड़ों में बाँटकर तथा लोगों को एकाकी दृष्टि देकर जनसंघर्ष, जनांदोलन और राजनीति को भटकाते हैं, कुंद करते हैं। तीसरी महत्वपूर्ण बात यह है कि विद्यार्थी शिक्षा के अधिकार को उसके वास्तविक आयाम में समझ रहे हैं - यह सिर्फ प्रवेश और फीस का मामला नहीं है। शायद ऐसा इसलिए भी हो रहा है क्योंकि समाज के वंचित वर्गों से अब जाकर कुछ संख्या में बच्चे उच्च-शिक्षा के संस्थानों में पहुँच पा रहे हैं और वहाँ जाकर वो देख रहे हैं कि ये व्यवस्था तो उनके लिए नहीं बल्कि उन्हें बाहर रखने के लिए ही रची गई है - तो इसे व इसकी संभ्रांत मान्यताओं-सीमाओं को चुनौती देने के अलावा उनके पास कोई विकल्प नहीं है। 
दूसरी घटना महाराष्ट्र के लातूर ज़िले की है जहाँ 14 अक्टूबर को ग्यारहवीं कक्षा की स्वाति ने इसलिए खुदकुशी कर ली क्योंकि उसका परिवार उसके मासिक बस पास के 260 रुपये का खर्च उठा सकने में भी असमर्थ था। लातूर महाराष्ट्र के आठ सूखा-पीड़ित ज़िलों में से एक है और स्वाति की मौत के समाचारों में आ जाने के बाद परिवहन मंत्री ने इन ज़िलों के प्रथम वर्ष और उससे आगे के विद्यार्थियों को मुफ्त बस पास उपलब्ध कराने की घोषणा कर दी। न सिर्फ बस पास मुफ्त कराने के लिए एक विद्यार्थी को अपनी जान की क़ुरबानी देनी पड़ी, बल्कि इसके बावजूद इसे केवल सूखा-पीड़ित क्षेत्र के लिए जारी किया गया - जैसे कि कहा जा रहा हो कि एक हक़ लेने के लिए आपको मौत के मुँह में पहुँचकर अपनी पात्रता सिद्ध करनी होगी और फिर वहीं रहना होगा। (ज़ाहिर है कि राशन से लेकर वज़ीफों में पहले से ही पात्र व्यक्तियों का प्रतिशत तय करना इसी क्रूर और अतार्किक नीति का उदाहरण है।) स्वाति कुछ दिनों से कॉलेज इसलिए नहीं गई थी क्योंकि पैसों की कमी की वजह से उसका बस पास फिर से जारी नहीं हुआ था। एक दिन उसकी माँ ने उधार लेकर उसे कॉलेज भेजा। (यह स्पष्ट नहीं है कि उन्होंने एक दिन का किराया उधार लिया या फिर मासिक पास की रक़म।) अपने अंतिम नोट में स्वाति ने तीन-चार बातें लिखीं। वह रोज़-रोज़ का आर्थिक दबाव नहीं झेल पा रही थी। उसने लिखा कि वो अपने माता-पिता की कड़ी खेतिहर मेहनत को बेकार जाते देख रही थी और ईश्वर की निर्दयिता पर बहुत ग़ुस्सा थी। उसने यह भी लिखा कि उसके नहीं रहने से दहेज को लेकर उसके माता-पिता की चिंता तो आधी हो जाएगी। (वो अपने माता-पिता की दो बेटियों में से थी।) अपने पिता के बारे में उसने लिखा कि उसे याद नहीं कि आखरी बार वो कब हँसे थे। शिक्षा को कर्ज़े के नव-उदारवादी 'उपाय' (हथकंडे) के हवाले करने की मंशा रखने वालों के लिए इस त्रासदी में एक ही सबक है - पहले ही कर्ज़े के नीचे दबे मगर अभी ज़िंदा बचे लोगों को कैसे कर्ज़े के माध्यम से ग़ुलाम बनाया जाए या फिर उनको मरने पर मजबूर करके उनकी सम्पत्ति ज़ब्त की जाए। एक अखबार में यह भी छपा कि महाराष्ट्र के एक सिख संगठन ने उसके परिवार को उसकी बहन की, जोकि दूरस्थ प्रणाली से पढ़ रही है, तीन साल की पढ़ाई के खर्चे का सहयोग करने का प्रस्ताव दिया है। इसी संगठन के एक पदाधिकारी का यह बयान भी उसी खबर में छपा कि अमीर-ग़रीब के बीच इतनी असमानता कभी नहीं थी। यहाँ हम व्यैक्तिक सदाशयता की सीमा से एक बार फिर परिचित होते हैं। ग़ैर-बराबरी को एक ऐतिहासिक संदर्भ में देखने का दावा करने के बावजूद ये सहायता एक तात्कालिकता में फँस कर समस्या की जड़ को और अदृश्य बना देती है। 
दोनों ही उदाहरण शिक्षा पाने के लिए यात्रा पर आने वाले खर्च की वर्ग-संगत समस्या को प्रस्तुत करते हैं। दिल्ली में भी हम देखते हैं कि जहाँ एक ओर निजी स्कूलों के विद्यार्थियों के लिए केवल निजी बसें ही नहीं खुद DTC की सरकारी बसें धड़ल्ले से सेवा प्रदान करती हैं, वहीं सरकारी स्कूल के विद्यार्थी कहीं घंटों का इंतज़ार कर रहे होते हैं, कहीं अपने परिवार की सीमित और महँगाई में सिकुड़ती आय का भारी हिस्सा स्कूल-कॉलेज आने-जाने पर लगाने को विवश हैं और कहीं मीलों पैदल चलकर या खतरनाक ढंग से लटककर सफर कर रहे हैं व अपनी इस 'बदतमीज़ी' पर गालियाँ भी खा रहे हैं। ऐसी परिस्थितियों में यह हैरानी की बात नहीं है कि लाखों बच्चे या तो पढ़ाई बीच में ही छोड़ने को या ओपन नाम के शिक्षा संस्थानों में नाम लिखाने को मजबूर कर दिए जाते हैं। दिल्ली में तो DTC ने बाक़ायदा वर्ष 2006 के बाद खुले शिक्षा संस्थानों के विद्यार्थियों को बस पास जारी न करने का निर्णय लिया था। जिन विद्यार्थियों के पास बनते भी हैं वो भी सार्वजनिक बसों की भारी कमी के कारण हर महीने यात्रा पर मोटी रक़म खर्च को मजबूर हैं। मेट्रो की चमक-धमक में यह बात नज़रंदाज़ की जा रही है कि कॉलेज के विद्यार्थियों के लिए चलने वाली U-Special बसें लगभग बंद कर दी गई हैं, विद्यार्थी बस पास वातानुकूलित बसों में मान्य नहीं हैं और मेट्रो सस्ती नहीं है। नॉन-नेट वज़ीफ़ा बंद करने और उच्च-शिक्षा को विश्व-व्यापार की मुनाफाखोरी के लिए WTO के तहत सौंपने के फैसलों के संदर्भ में ज्योति का आह्वान और स्वाति का बलिदान विद्यार्थियों के संघर्षों को एक प्रेरणा व गतिशीलता प्रदान करता है। हमारी माँग यहाँ से शुरु होगी कि हर विद्यार्थी को उसके स्कूल-कॉलेज आने-जाने के लिए मुफ्त यात्रा का अधिकार है। यह शिक्षा के अधिकार का ही हिस्सा है और इसमें सभी प्रकार के सार्वजनिक वाहन शामिल हैं। खासतौर से स्कूली व अन्य वर्दीधारी विद्यार्थियों के लिए तो इसके लिए किसी पास की भी ज़रूरत नहीं होनी चाहिए - उनकी वर्दी, उनका पहचान-पत्र, उनके चढ़ने-उतरने के स्थान ही उनका पास हैं। मगर हमारे संघर्ष की परिणीति उस दुनिया के निर्माण में होगी जो बंधुत्व और सामूहिकता के ऐसे ताने-बाने में रचा होगा जिसमें हर सार्वजनिक सेवा-ज़रूरत मुफ्त होगी।       

Wednesday 18 November 2015

नो-डिटेंशन नीति को हटाने का निर्णय शिक्षा, स्कूल व सामाजिक व्यवस्था के प्रति ग़लत समझ का नमूना

आठवीं कक्षा तक नो-डिटेंशन नीति को हटाने का निर्णय लेकर दिल्ली सरकार ने अधिगम (सीखने), शिक्षा, स्कूल व सामाजिक व्यवस्था के प्रति अपनी ग़लत समझ का सबूत दिया है। बच्चों में सीखने के स्तर को सुधारने हेतु 'फेल होने का डर' न तो वास्तव में एक कारगर उपाय है और न ही इस विचार को उसूलन सही माना जा सकता है। यह कहना कि इसकी माँग शिक्षकों व अभिभावकों द्वारा की जा रही थी, महज़ मक्कारी व ग़ैर-ज़िम्मेदारी है। वैसे भी, लोकतान्त्रिक व्यवस्था में लोगों की माँगों को किन्हीं उदात्त मूल्यों व आदर्शों पर खरा उतरना होता है। फिर किसी विषय विशेष से जुड़े मुद्दे पर एक राय बनाने के लिए उस क्षेत्र के विशेषज्ञों, शोधकर्ताओं आदि से सलाह करना भी लोकतंत्र को क़ानून-संविधान, तथ्य-तर्क, ज्ञान-सिद्धांत व नैतिकता के धरातल पर सुविचारित बनाने का एक तरीका है जिसे नज़रंदाज़ करना खुद लोकतंत्र के लिए घातक होगा। 
यह कहना कि 'डर' के बिना बच्चे सीख नहीं सकते, शिक्षकों के कर्म और शिक्षाशास्त्र पर अविश्वास जताना है। फेल करने की नीति को दोबारा अमल में लाने से मेहनत-मज़दूरी करने वाले वर्गों के बच्चों, उसमें भी खासतौर से लड़कियों, के स्कूल से बेदखल होने की संभावना बढ़ जाएगी क्योंकि हमारी आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था उन्हें एक बेगानी व निष्फल शिक्षा व्यवस्था में अतिरिक्त साल लगाने का खर्चा उठाने की मोहलत नहीं देती है। साथ ही, विशेष ज़रूरतों वाले बच्चों (CWSN) के लिए भी इस पहले से पराई स्कूल व्यवस्था में प्रवेश पाना और टिके रहना और मुश्किल हो जाएगा। हम फिर प्रवेश परीक्षा और पास/फेल की उन प्रक्रियाओं के सहारे शिक्षा के स्तर को सुधारने का आग्रह पाल रहे हैं जोकि ऐतिहासिक रूप से हाशिये पर धकेल दिए गए समूहों के बच्चों के लिए सदमा पहुँचाने वाली, भेदभाव बरतने वाली व खुद तमाम विसंगतियों से ओतप्रोत रही हैं।
            हमें यह भी पूछने की ज़रूरत है कि सरकार यह कैसे सुनिश्चित करने जा रही है कि अनुत्तीर्ण घोषित बच्चों को सीखने के लिए उचित माहौल मिले और उनमें से किसी का भी स्कूल न छूटे। आखिर शिक्षा अधिकार क़ानून देश के बच्चों को आठवीं कक्षा तक पढ़ने का जो मामूली व भ्रामक हक़ देता है, सरकार के पास उसे ही सुनिश्चित करने के क्या उपाय हैं?
शिक्षा में सभी के लिए बराबरी के हक़ और स्तर को सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था में स्थित असमानता को धराशायी किये बग़ैर हासिल नहीं किया जा सकता है। ऐसे में, यहाँ तक कि समान स्कूल व्यवस्था की बात भी किये बग़ैर, यह दावा करना कि नो-डिटेंशन नीति को फिर से लागू करने से शिक्षा का स्तर बढ़ जाएगा, एक क्रूर मज़ाक व धोखा है। यह सच है कि राज्य द्वारा बिना समुचित वित्त-संसाधन उपलब्ध कराए, बिना ज़रूरी नियुक्तियाँ करे और, सबसे बढ़कर, बिना मेहनतकश वर्गों के पक्ष में राजनैतिक प्रतिबद्धता के बच्चों को फेल करने की नीति का भी उसी तरह नाकाम होना तय है जिस तरह फेल न करने की नीति अपने एकाकी स्वरूप में नाकाम रही। फिर भी, फेल न करने की नीति के पक्ष में कम-से-कम इतना तो कहा जा सकता है कि यह वर्तमान व्यवस्था के रहते भले ही क्रांतिकारी न हो मगर शिक्षास्त्रीय दृष्टि से प्रगतिशील और सामाजिक दृष्टि से संवेदनशील है। 
           सरकार का यह फैसला अप्रत्याशित नहीं है और पीड़ितों को ही दोष देने की मानसिकता पर आधारित है। यह एक ऐसी बाल-विरोधी भावना है जिसे हम सरकार के शीर्ष से आये और अखबारों में प्रमुखता से छपे उन प्रस्तावों में भी देख चुके हैं जिनमें कुछ अपराधों के लिए वयस्कों की तरह सज़ा देने के लिए आरोपी की उम्र घटाकर 15 वर्ष करने की वकालत की गई है। जब अधिकारों को सीमित करने या हटाने को सुधार और सुरक्षा के उपायों के तौर पर पेश किया जाने लगे तो हमें समझ लेना चाहिए कि विमर्श खतरनाक तथा जनविरोधी रुख अख्तियार कर चुका है। ज़ाहिर है कि जब बच्चे फेल करके ग़ैर-अकादमिक प्रवृत्ति/योग्यता वाले घोषित कर दिए जाएँगे तो उनके लिए दो ही विकल्प छोड़े जाएँगे - या तो स्कूल छोड़कर बाल-मज़दूरी करो या फिर कौशल-विकास के लिए वोकेशनल कोर्स में नाम लिखाओ। दोनों ही स्थितियों में श्रम के शोषण को लेकर ज़्यादा फ़र्क़ नहीं है।मतलब, आपका अकादमिक सफर यहीं खत्म होता है। आज भी सरकारी स्कूलों में आठवीं के बाद की कक्षाओं में एक बार फेल कर दिए गए विद्यार्थियों को उनके अपने नियमित स्कूल से धक्के देकर बाहर निकालकर ओपन स्कूल में नाम लिखाने को मजबूर करने की घोषित-अघोषित नीति अमल में लाई जा रही है। व्यवस्था के दर्शन और व्यवहार की यह कड़वी सच्चाई डिटेंशन को फिर से लागू करके स्तर सुधारने के दावे की पोल खोलने के लिए काफी है। 
लोक शिक्षक मंच दिल्ली सरकार द्वारा नो-डिटेंशन नीति हटाने के फैसले को अनुचित मानते हुए इस नीति को लागू रखने की माँग करता है। इस संबंध में मंच आँगनवाड़ी से लेकर उच्च-शिक्षा संस्थानों तक को पर्याप्त संसाधन मुहैया कराने व समाजवाद के लिए अनिवार्य समान स्कूल व्यवस्था लागू करने की माँग को भी दोहराता है।       

Monday 2 November 2015

पर्चा: विश्व व्यापार संगठन (WTO) से शिक्षा को बचाएँ!

लोक शिक्षक मंच द्वारा एक से पन्द्रह  नवम्बर तक WTO में शिक्षा को शामिल करने के प्रस्ताव के खिलाफ अभियान का पर्चा 
हमने देखा है पहली कक्षा में बच्चों को उत्साह से स्कूल में दाखिला लेते हुए
हमने देखा है उन्हें कभी आठवीं कभी दसवीं कभी ग्यारहवीं में स्कूल पूरा ना कर पाते हुए
हमने उन्हें बारहवीं के बाद कॉलेज में दाखिले के लिए भागते-दौड़ते भी देखा है
कॉलेज के दरवाजे बंद देखकर अनियमित शिक्षा के अवसर समेटते भी देखा है
हमने छोटी-छोटी नौकरियों के लिए उन्हें भटकते देखा है
हर नौकरी में अपनी मेहनत को कम दाम पर बेचते देखा है.......

दिसंबर 2015 में भारत सरकार द्वारा WTO  के साथ कुछ ऐसे प्रस्तावों को अंतिम रूप देने की संभावना है जिनके तहत भारत की उच्च शिक्षा में दूरगामी व खतरनाक बदलाव होंगे| ये प्रस्ताव UPA सरकार ने 2005 में ही WTO के सामने रख दिए थे| NDA सरकार उन्हीं प्रस्तावों को आगे बढ़ाने में लगी है| अगर WTO के व्यापार सम्बन्धी नियम भारत की उच्च शिक्षा में लागू हो गये तो  ये शिक्षा को पूरी तरह से बाजार की वस्तु बना देंगे।

कल हमारे स्कूलों और कॉलेजों में जो चुनौतियां दस्तक देने वाली हैं, यह उसी खतरे की घंटी है|

विश्व व्यापार संगठन (WTO) क्या है?

WTO एक अंतर्राष्ट्रीय संस्था है जिसकी स्थापना 1995 में हुई थी । इसका मुख्यालय स्विट्ज़रलैंड में है। भारत को मिलाकर दुनिया के 161 देश इसके सदस्य हैं। यह सदस्य देशों के बीच विश्व व्यापार के लिए नियम-कानून तय करती है। यह नए व्यापार समझौते तैयार करने और उन्हें लागू करने का काम करती है। इसके दायरे में खेती, पेयजल, स्वास्थ्य, राशन आदि भी आते हैं। कहने को सभी सदस्य देश बराबर अधिकार रखते हैं मगर इसमें अमीर देशों और बहुराष्ट्रीय कंपनियों का ही दबदबा रहता है।

अगर भारत सरकार ने दिसम्बर में होने वाली WTO की बैठक में अपने शिक्षा के प्रस्तावों को अमली जामा पहना दिया तो -

v  इन देशों के कॉरपोरेट घराने या अन्य शिक्षा व्यापारी यहाँ कॉलेज, विश्वविद्यालय, अन्य तकनीकी एवं पेशेवर संस्थाएं खोल सकेंगेविदेशी कंपनियों द्वारा जो कॉलेज व विश्वविद्यालय यहाँ खोले जाएँगे उन्हें व्यावसायिक मुनाफ़ा कमाने की पूरी छूट होगी| मतलब वे यहाँ शिक्षा संस्थानों के नाम पर दुकानें खोलेंगे जिनमें शिक्षा भी वैसे ही बिकेगी जैसे दुकानों में महंगे कपड़े बिकते हैं| आओ और अपनी औकात के हिसाब से खरीद लो और अगर नहीं खरीद सकते तो चलते बनो|  ग़रीब, अनुसूचित जाति/जनजाति, अन्य पिछड़ा वर्ग, अल्पसंख्यक, विकलांग और हाशिये पर धकेल दिए गए अन्य समूह इन संस्थानों में नहीं पहुँच पाएँगे, क्योंकि फीस, वजीफा, दाखिला व अन्य सुविधाओं में संविधान के सामाजिक न्याय के उसूल लागू नहीं होंगे। भारत के सभी शैक्षिक संस्थान WTO के नियमों के अधीन होंगे और किसी भी शिकायत के लिए भारत की संसद व अदालत को दखल देने तक का अधिकार नहीं होगा। मतलब देश के ज़्यादातर बच्चों के लिए ये कॉलेज वैसे ही सपनों की तरह  होंगे जैसे आज मुट्ठीभर महंगे इंटरनेशनल स्कूल हैं|
v   दरअसल निजी कॉलेजों का असर सरकारी कॉलेजों पर यूँ पड़ेगा कि उनको मिलने वाले पैसे/अनुदान धीरे-धीरे कम कर दिए जाएंगे और यूनिवर्सिटी अपना खर्चा विद्यार्थियों की फीसें बढ़ाकर पूरा करेंगी| साम्राज्यवादी ताक़तें WTO द्वारा भारत पर यह दबाव बनाएँगी कि सरकारी संस्थानों को मिलने वाली सब्सिडी कम हो ताकि उनकी शिक्षा का धंधा फल–फूल सके। जब तक सरकारी कॉलेज महंगे या बर्बाद नहीं कर दिए जाएंगे तब तक इन निजी कॉलेजों की दुकान कैसे चलेगी? अभी हाल ही में UGC ने गैर-NET स्कालरशिप को बंद करने का निर्णय लेकर इसी दबाव का प्रमाण दिया है| साथ ही विज्ञान के शोध-संस्थानों को दिये जाने वाले फंड में कटौती करने और उन्हें स्वयं फंड जुगाड़ने के लिए कंपनियों की जरूरतों के हिसाब से काम करने के आदेश सरकार जारी कर चुकी है। सरकार शिक्षा से हाथ खींचकर WTO में जाने के पूर्व संकेत दे रही है।
v  इन संस्थानों में पढ़ने के लिए कर्जा लेना पड़ेगा। इसका मतलब है कि शिक्षा पर हमारे बच्चों का न हक़ होगा और न ही वह सरकारों की ज़िम्मेदारी रह जाएगी। कर्ज़ लेकर शिक्षा पाना कोई समाधान नहीं है। दुनियाभर में विद्यार्थी व उनके परिवार कर्ज़ के जाल में फंसते जा रहे हैं| हमारे देश में लाखों किसानों की आत्महत्यायें भी कर्ज़ के इस घिनौने जाल का सबूत हैं। दूसरी तरफ जो महंगी फीस और भारी कर्ज़ लेकर शिक्षा हासिल कर भी पाएगा उससे हम समाज के प्रति किस वफादारी की उम्मीद रख सकते हैं?  
v  WTO के हस्तक्षेप से शिक्षा के चरित्र में भी ज़बरदस्त बदलाव होंगे| WTO  की माँग के अनुसार अपने शिक्षा संस्थानों को ढालने का मतलब होगा पूंजीवादी हितों के हिसाब से पाठ्यक्रम, शिक्षण व मूल्यांकन को बनाना| WTO पूंजीपतियों का एजेंट है और वह उन्हीं विषयों और रिसर्च को समर्थन देगा जिससे उन्हें अधिक से अधिक मुनाफा होगा। साहित्य, कला, दर्शन, समाजशास्त्र जैसे विषयों की जगह, जिनमें समाज के प्रति समझ, संवेदना व संघर्षशीलता विकसित करने की संभावना होती है, समाज से विमुख करने वाले विषयों का ज्ञान महत्वपूर्ण हो जाएगा| बाजार को व्यक्तित्व के पूर्ण विकास से कोई सरोकार नहीं है बल्कि बाजार केवल उन कौशलों को विकसित करने की ज़रूरत समझता है जो मजदूर को मशीन में बदलकर पूँजीपतियों के लिए अधिक से अधिक मुनाफा कमा कर दे सकें देखा जाए तो शिक्षा का चरित्र ही नहीं शिक्षा का पूरा उद्देश्य ही बदल जाएगा|

हमें क्या करना होगा?

एक बार WTO के साथ करार हो जाएगा तो भारत की शिक्षा नीति भारत की जनता से ज्यादा WTO को जवाबदेह होगी| हम बहुत सी चीज़ों के लिए बाध्य हो जाएँगे । यह देश की जनता की स्वायत्तता पर सीधा हमला है और ग़ुलामी का नया रूप है| यूरोपियन यूनियन अफ्रीकन यूनियन के साथ बहुत से देश WTO को शिक्षा बेचने से पहले ही मना कर चुके हैं|  हमें भी पूरी ताकत के साथ भारत सरकार को दिसंबर में यह गठबंधन करने से रोकना होगा और इसके खिलाफ देश भर में चल रहे संघर्षों के साथ खड़ा होना होगा|


लोक शिक्षक मंच आपसे आह्वान करता है कि
·         WTO के खिलाफ देशभर में चल रही मुहिम से जुड़ें ।
·         शिक्षा को खरीदने-बेचने का सामान बनाने का विरोध करें ।
·         भारत सरकार से माँग करें कि WTO को दिए प्रस्ताव को वापिस ले ।


WTO शिक्षा छोड़ो !! भारत छोड़ो !!

Tuesday 13 October 2015

लेख : हिंसक घटनाओं के बीच बेनकाब होती शिक्षा व्यवस्था

फ़िरोज़ 
पिछले दो-चार दिनों में दो अलग-अलग घटनाओं ने हमारे सामने मानवाधिकार के नृशंस उल्लंघन के उदाहरण प्रस्तुत किये। शिक्षक होने के नाते दोनों हिंसक घटनाओं ने हमारे समक्ष इस देश की शिक्षा व्यवस्था के चरित्र व नाकामी पर ही नहीं बल्कि बच्चों के अस्तित्व मात्र के बारे में भी एक बार फिर गंभीर सवाल खड़े कर दिए। 
दादरी में हुई सामूहिक हत्या ने एक ओर समाज में फैले नफरत के बीजों को लेकर चिंता में डाला तो दूसरी ओर इसने साम्प्रदायिकता, क़ानून-न्याय, तर्कशीलता जैसे मुद्दों से जूझने में काफी हद तक शिक्षा की असफलता को भी बयाँ किया। आखिर इस बात के क्या मायने हैं कि हमलावरों में अधिकतर के नौजवान और 'पढ़े-लिखे' रहे होने की खबरें हैं? वहीं आस्था की 'भावनाओं' से उपजी यह हिंसा हमें उन लोगों से सवाल पूछने को भी मजबूर करती है जिनके अनुसार धर्म व संस्कृति की कमी के कारण समाज में अनैतिकता बढ़ रही है। क्या नैतिकता में साहस, तर्कशीलता, विवेक, व्यैक्तिक स्वतंत्रता, सत्यता, इन्साफ, संयम आदि मूल्य नहीं आते? हम यह भी जानते हैं कि इस घटना के बाद एक हिंसा पर्दे के पीछे अंजाम दी जाती रहेगी। चाहे वो जातिगत उत्पीड़न की वारदातें हों या भाषाई, क्षेत्रीय अथवा धार्मिक पहचान के आधार पर हुए क़त्लेआम, हर बार निशाने पर रहे समुदाय के बच्चों को विस्थापन और स्कूल छूट जाने का परिणाम भुगतना पड़ता है। प्रभावित इलाक़े के स्कूलों का माहौल बदल जाता है। समाज की अन्यायपूर्ण व्यवस्था को लेकर वहाँ का समझौतावादी वातावरण और दमघोटू व वीभत्स हो जाता है। संबंध नए रंग-रूप ले लेते हैं। 'कुछ' बच्चे आना ही बंद कर देते हैं। शिक्षा अधिकार क़ानून के बावजूद। लड़कियों का स्कूल छूट जाता है। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ की नेकनीयती के बावजूद। इस तरह की हिंसा स्थानीय सार्वजनिक स्कूलों के साझे चरित्र को खत्म कर देती है। लोग 'अपने-अपने' सुरक्षित इलाक़ों में जाकर बसने और सिमट कर रहने को मजबूर हो जाते हैं तो सार्वजनिक स्कूल की लोकतांत्रिक संभावनाएँ भी कमज़ोर पड़ जाती हैं। असुरक्षित लोग अपने बच्चों के लिए 'अपने' स्कूल खोजने-खोलने लगते हैं। ऐसे हिंसक समाज और संस्कृति की स्वाभाविक परिणति सार्वजनिक शिक्षा व्यवस्था के क्षरण में होगी।
दूसरी घटना मुनाफे के मूल्य पर चलाए जा रहे निजी स्कूलों की हिंसा को उजागर करती है। तेलंगाना राज्य के करीमनगर ज़िले के ब्रिलियंट मॉडल स्कूल की दसवीं कक्षा में पढ़ने वाले एक विद्यार्थी ने इसलिए खुदकुशी कर ली क्योंकि उसे स्कूल प्रशासन द्वारा फीस नहीं जमा कर पाने पर सार्वजनिक रूप से अपमानित किया जा रहा था। स्कूल प्रशासन ने उन बच्चों को चिन्हित करके कक्षा के बाहर खड़े रहने की सज़ा दी और आने वाली परीक्षाओं में बैठने नहीं देने की धमकी भी दी। हमारे अपने (प्राथमिक) स्कूलों में कई बच्चे ऐसे हैं जोकि निजी स्कूल छोड़कर आए हैं। उनसे भी बात करने पर यह पता चलता है कि उन स्कूलों ने इस मासूम उम्र में ही उन्हें उनकी औक़ात जानने की शिक्षा बखूबी दे दी है। कई बच्चे बताते हैं कि उन्हें व उनके माता-पिता को फीस न देने या देर से देने पर वहाँ सबके सामने बेइज़्ज़त किया जाता था। फीस व स्कूल प्रशासन के व्यवहार को वे स्कूल छोड़ने का मुख्य कारण बताते हैं। शायद नई शिक्षा नीति को तैयार करने के लिए हो रहे अभूतपूर्व देशव्यापी विचार-विमर्श में लोगों के ये मत/अनुभव भी स्थान पाएँ। वैसे इस संदर्भ में क़ानून का दामन बिलकुल पाक-साफ़ है - शिक्षा अधिकार अधिनियम निजी स्कूलों की पहली कक्षा में प्रवेश ले रहे कुल बच्चों की 25 फीसदी संख्या को ग़रीबी के आधार पर आठवीं तक पढ़ने का सुनहरा अवसर उपलब्ध कराता है और ये छात्र इसकी कोई शर्त पूरी नहीं करता था। अनुभव व उसूल दोनों के धरातल पर ये साफ़ है कि राज्य द्वारा वित्त-पोषित और सबके लिए पूर्णतः मुफ्त शिक्षा के संस्थानों के बिना सब बच्चों को भेदभावरहित, समान और गरिमापूर्ण शिक्षा उपलब्ध कराना सम्भव नहीं है। जिन स्कूलों में फीस देने वाले विद्यार्थियों के साथ इस बाबत हिंसा की जाए कि वो समय पर फीस नहीं दे पाए, तो फिर वहाँ कानूनन फीस देने से मुक्त विद्यार्थियों के प्रति कैसी हिंसा व्याप्त होगी? आखिर फीस और शिक्षा का संबंध ही क्या है? इस संदर्भ में दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले कुछ देश के छात्रों की एक सवाल पर प्रतिक्रिया का ज़िक्र करना प्रासंगिक है। जब उनसे उनके देश में स्कूलों में ली जाने वाली फीस के बारे में पूछा गया तो उनमें से कई असमंजस में पड़ गए क्योंकि उन्हें प्रश्न ही समझ नहीं आया। फीस लेने वाले स्कूल की संकल्पना ही उन्हें विचित्र लगी। बहुत समझाने पर उन्होंने बताया कि उनके देश में स्कूली शिक्षा सबके लिए मुफ्त है। खैर, बजाय इन देशों के उदाहरण सामने रखने के जिन्होंने सभी बच्चों के लिए एक मज़बूत और मुफ्त सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था खड़ी की है हम उन देशों और मुक्त बाजार की उन अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं से अभिभूत होकर नीति-निर्माण कर रहे हैं जिनके लिए स्कूल एक धंधा है, शिक्षा एक बिकाऊ माल है, सब विद्यार्थी-अभिभावक समान रूप से चयन का अधिकार रखने वाले खरीदार हैं और राज्य राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पूँजी का दलाल है। 
सम्पूर्ण दक्षिण एशिया में तर्कवादियों पर बढ़ रहे हमलों, तकनीक को साधे धार्मिक असहिंष्णुता के खूनी रथ और पूँजी की कसती अमानवीयता के बीच एक साझी हिंसा का रिश्ता है। इन्हें विभिन्न मंचों से, कई तौर-तरीकों से, एक साथ चुनौती देने की ज़रूरत है।शिक्षा इन क्रूरताओं का निशाना है तो यह हमारा औज़ार भी है।           

Sunday 6 September 2015

शिक्षक दिवस की मौलिकता पर कुठाराघात के विरोध में


एक बार फिर बच्चों, शिक्षकों व स्कूलों के प्रति घोर असंवेदनशीलता का परिचय देते हुए शिक्षक दिवस के अवसर पर प्रधानमंत्री के कार्यक्रम का सीधा प्रसारण दिखाना अनिवार्य कर दिया गया। बल्कि इस बार तो राष्ट्रपति द्वारा कक्षा लिए जाने के कार्यक्रम को दिखाना भी अनिवार्य करके प्रशासन ने शिक्षा के प्रति अपनी सतही समझ को हमारे सामने सार्वजनिक कर दिया है। अगर इन कार्यक्रमों के औचित्य को मान भी लिया जाए तो भी बच्चों की उम्र व शारीरिक जरूरतों को नज़रअंदाज़ करके उन्हें जबरन एक  आदेशात्मक कार्यक्रम में घंटों बिठाए रखना उन्हें सत्ता की निरंकुशता का ही पाठ पढ़ाएगा। हमें यह भी याद रखना चाहिए कि शिक्षक दिवस अपने आप में कोई राजपत्रित दिवस नहीं है और न ही इसे लेकर संसद में कोई क़ानून पारित हुआ है। परिणामस्वरूप देशभर के शिक्षक, बच्चे व स्कूल इसे कब और कैसे मनाने के लिए तो स्वतंत्र हैं ही, इसे नहीं मनाने के लिए भी आज़ाद हैं।
अबतक अधिकतर स्कूलों में इस दिन उच्च कक्षाओं के विद्यार्थियों द्वारा शिक्षकों की भूमिका निभाने की परम्परा रही है। ऐसा प्रतीत होता है कि बच्चों व शिक्षकों द्वारा इस दिन को अपने ढंग से मनाने की परंपरा को दफ्न करने का प्रयास किया जा रहा है। स्कूलों पर इस प्रकार के कार्यक्रम लाद देना स्कूलों के बौद्धिक चरित्र पर सीधा अतिक्रमण है। स्कूल मुख्यतः अकादमिक स्थल हैं, और एक स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए स्कूलों के इस चरित्र को बरकरार रखना आवश्यक है
आदेशों के अनुसार इस दिन सुबह के सभी स्कूलों की दिनचर्या बदल दी गई और उन्हें सीधे प्रसारण दिखाने के इंतज़ाम करने का आदेश दिया गया। संसाधनों की कमी का रोना रोती सत्ता को ऐसे तुग़लकी व शिक्षा-विरोधी फरमानों का पालन कराने के लिए संसाधनों को लुटाने में कोई संकोच नहीं होता है। स्पष्ट है कि ऐसे कार्यक्रमों को आयोजित करके सत्ता शिक्षकों व शिक्षा व्यवस्था की मूलभूत समस्याओं से लोगों का ध्यान भटकाना चाहती है।  
मगर इन परिस्थितियों में भी विभिन्न स्कूलों से प्राप्त बच्चों के विरोध दर्ज करने के उदाहरण भविष्य के प्रति उम्मीद जिलाए रखते हैं।  










शिक्षक डायरी: शिक्षक दिवस या मोदी दिवस

यह अनुभव दिल्ली सरकार के स्कूल में पढ़ाने वाली एक शिक्षिका साथी ने साझा किया है। साथी ने अनुरोध किया है कि इसके साथ इनका नाम न दिया जाए। संपादक समिति इनके अनुरोध को स्वीकार करते हुए यह अनुभव साझा कर रही है।             
जब स्कूल के सभी बच्चों को सुबह 9.30 बजे से दोपहर 1 बजे तक बिना अपनी मर्ज़ी के डर के मारे एक ही जगह पर बैठे रहना पड़ा तो उन्होंने अपने शिक्षकों से बार-बार पूछा – “मैम टॉयलेट चले जाएं, पानी पी आयें, खड़े हो जाएँ?” जब तक मजबूर शिक्षकों से मना हो सका तब तक उन्होंने मना किया| शिक्षक अधिकारियों के डर से बैठे रहे और शिक्षकों के डर से बच्चे बैठे रहे| फिर इस ‘शिक्षक दिवस’ पर बच्चों ने नया क्या सीखा? राष्ट्रपति की बात अंग्रेज़ी में थी जो ना ज़्यादातर बच्चों को समझ आई और ना ज़्यादातर शिक्षकों को| वे बस यही पूछते रह गए, “मैम, कब ख़त्म होगा?”
‘शिक्षक दिवस’ को प्रधानमन्त्री ने ना सिर्फ अलोकतांत्रिक बना दिया बल्कि एक और दिन को उन्होंने अपने नाम कर लिया| ज़रूर कुछ शिक्षकों को उनकी बातें अच्छी लगी लेकिन जिन्हें अच्छी नहीं लगी उन्हें वहाँ से उठ कर जाने की आजादी क्यों नहीं थी? कक्षा 1 से कक्षा 7 के बेचैन छात्रों को वहाँ से उठ कर जाने की आज़ादी क्यों नहीं थी?
अगर किसी दिन 15 अगस्त का भाषण देखना भारत के हर नागरिक के लिए अनिवार्य हो जाए तो क्या इस देश के लोग इसे तानाशाही मानेंगे? फिर 5 सितम्बर का भाषण सुनना शिक्षकों और विद्यार्थियों का अपना चयन, अपनी चॉइस क्यों नहीं हो सकता? एक ऐसे व्यक्ति जो सिर्फ इस देश के प्रधानमंत्री नहीं बल्कि भारतीय जनता पार्टी के नेता भी हैं, गुजरात के दागदार इतिहास के उत्तरदायी भी हैं, किस अधिकार से अपनी बातें सुनने के लिए हमें मजबूर कर सकते हैं?
आज शिक्षा और शिक्षकों के मुद्दों से हटाकर ‘शिक्षक दिवस’ को भी मोदी दिवस बना दिया गया है| यह अनुमान लगाना ज़्यादा मुश्किल नहीं है कि इस प्रोग्राम में बच्चों द्वारा पूछा हर सवाल पूर्व-निर्धारित, पूर्व-प्रशिक्षित होता है| फिर हर साल बच्चों के ज़्यादातर सवाल प्रधानमंत्री का गुणगान ही क्यों कर रहे होते हैं?
इतनी सख्ती से स्कूलों में इस कार्यक्रम को दिखाने की क्या वजहें हो सकती हैं? इसके दो कारण हो सकते हैं| एक, प्रधानमंत्री चाहते हैं कि स्कूलों को उनके भाषण और पहुँच के नियमित स्थल बना दें जहाँ बच्चों को उनकी बातें सुनने की आदत पड़ जाए| दूसरा कारण हो सकता है कि शिक्षक दिवस पर होने वाले विमर्श को पूर्व-निर्धारित कर देना| पूरे विमर्श की सीमाएं और स्वरूप तय कर देना|  
आखिरकार प्रधानमंत्री मोदी द्वारा दिए गए हर सवाल का जवाब यही क्यों था कि अगर एक शिक्षक चाहे तो ‘सुपरमैन’ स्वरूपी व्यक्तिगत काबिलियत के आधार पर हर समस्या का हल निकाल सकता है? कम संसाधनों में अटल-अचल पढ़ाती जाऊं तो मैं एक अच्छी शिक्षिका हूँ लेकिन अगर सारे शिक्षक साथ मिलकर ज़्यादा संसाधनों के लिए हड़ताल कर दें तो हम कामचोर शिक्षक हैं! अपनी साड़ी फाड़कर रुमाल बनाती आंगनवाड़ी महिला की कहानी और एक 'मेधावी' छात्र के सवाल ‘आज कोई शिक्षक क्यों नहीं बनना चाहता?’ पर प्रधानमंत्री ने जो जवाब दिया उसमें अच्छे शिक्षक की परिभाषा है ‘वो जो चुप-चाप, बिना सवाल उठाये अपना काम करता जाए|’
अगर इस दिन शिक्षकों को स्वयं अपने सवाल उठाने होते, तो वे कैसे सवाल उठाते? क्या हज़ारों शिक्षक ठेके पर काम करने का सवाल नहीं उठाते, एक कक्षा में 60-70 बच्चों को पढ़ाने का सवाल नहीं उठाते, बिना ताज़े पानी के बच्चों के पढ़ने का सवाल नहीं उठाते, स्कूलों से निकलने वाले बच्चों में सिर्फ मुट्ठीभर बच्चों के लिए उच्च-शिक्षा में सीटों का सवाल नहीं उठाते?

अगर शिक्षकों को यह (या ऐसा कोई भी दिन) अपने हाथ में लेना है तो इस प्रथा को तोड़ना होगा| मँहगी होती शिक्षा, विमुख होती शिक्षा, असलियत से दूर होती शिक्षा और कुछ हाथों में मजबूर होती शिक्षा को बचाने के लिए शिक्षकों का साथ मिलकर लड़ना भी ज़रूरी है|  

Friday 24 July 2015

खबर : प्राइवेट स्‍कूलों का राष्‍ट्रीयकरण क्‍यों जरूरी?

“भारत में निशुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का कानून लागू है। सरकारी कार्यालयों में चाय पहुंचाते बच्चों को देख कर ये बखूबी जाना जा सकता है कि हमारे देश में ये कानून किस तरह लागू है। शिक्षा न तो निशुल्क है और न ही अनिवार्य। निजी विद्यालयों में मोटी फीस वसूलते हैं, सरकारी विद्यालय भी किसी न किसी बहाने कुछ पैसा वसूल ही लेते हैं।”
दुनिया के सभी विकसित देशों व कई विकासशील देशों ने भी 99-100 प्रतिशत तक साक्षरता की दरें हासिल कर ली हैं। भारत में आधे बच्चे विद्यालय स्तर की पढ़ाई पूरी नहीं कर पाते। यहां सबसे बड़ी दिक्कत है समान शिक्षा प्रणाली का न होना और उसके साथ पड़ोस के विद्यालय की अवधारणा को लागू न करना। यदि ये दोनों बातें लागू होती हैं तो सभी बच्चों को लगभग एक गुणवत्ता वाली शिक्षा हासिल करने का अवसर उपलब्ध होगा। दुनिया के जिन देशों ने 99 या 100 प्रतिशत साक्षरता की दर हासिल कर ली है उसमें बड़ा योगदान इन अवधारणाओं का है।

एक समान शिक्षा प्रणाली नहीं
भारत में अब दो तरह की शिक्षा व्यवस्थाएं हैं - एक पैसे वालों के लिए जो अपने बच्चों को निजी विद्यालयों में पढ़ाते हैं तो दूसरी गरीब लोगों के लिए जो अपने बच्चे सरकारी विद्यालय में भेजते हैं जहां पढ़ाई ही नहीं होती। यही लोग उच्च शिक्षा के लिए सरकारी संस्थानों जैसे भारतीय प्राद्योगिकी संस्थान या भारतीय प्रबंध संस्थान में दाखिला लेना पसंद करते हैं क्योंकि इस स्तर पर मान्यता है कि निजी महाविद्यालयों या विश्वविद्यालयों में गुणवत्ता नहीं। इससे साफ है कि गुणवत्ता का ताल्लुक निजी या सरकारी से नहीं, इच्छा शक्ति से है।
इस तरह शिक्षा विषमता को बढ़ा देती है। गरीब का बच्चा जिसे गुणवत्तापूर्ण शिक्षा नहीं मिलती अपनी शिक्षा के आधार पर अपना विकास नहीं कर पाता। इसलिए ज्यादातर गरीबों के बच्चे शिक्षा व्यवस्था से ही बाहर हो जाते हैं। अंग्रेजी और कम्प्यूटर का ज्ञान इन बच्चों को स्पष्ट दो वर्गों में विभाजित कर संविधान में दिए गए समानता के अधिकार का मखौल उड़ाता है।
शिक्षा पूरी करने में गरीबों के लिए एक बड़ी बाधा कुपोषण भी है। जनवरी 2013 में प्रधान मंत्री ने एक रपट जारी करते हुए कहा कि यह राष्ट्रीय शर्म का विषय है भारत में आधे बच्चे कुपोषित हैं। अब यदि प्रधानमंत्री ही शिकायत करने लगें तो समाधान कौन ढूंढेगा? यह राजनीतिक इच्छा शक्ति का स्पष्ट प्रमाण है।
अमरीका जैसे घोर पूंजीवादी देश में विद्यालय स्तरीय शिक्षा पड़ोस के विद्यालय में पूरी होती है जिसका संचालन स्थानीय निकाय करता है। यहां कोई शुल्क नहीं लगता बल्कि किताबें, यूनिफॉर्म और घर से आने-जाने के लिए बस का खर्च भी विद्यालय ही वहन करता है। सबसे बड़ी बात है कि सभी बच्चों के लिए एक समान शिक्षा व्यवस्था उपलब्ध रहती है। जो काम दुनिया के कई विकसित एवं विकासशील देशों ने कर दिखाया है वह दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र क्यों नहीं कर रहा?

लखनऊ में 31 बच्चों को नहीं मिला दाखिला
भारत में 1968 में कोठारी आयोग ने समान शिक्षा प्रणाली एवं पड़ोस के विद्यालय की अवधारणा को लागू करने की सिफारिश की थी। किंतु तब से लेकर अब तक सभी सरकारों ने उसे नजरअंदाज किया है। 2009 में मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू हुआ जिसने कमजोर तबकों के परिवारों के बच्चों को सभी विद्यालयों में 25 प्रतिशत आरक्षण देने की व्यवस्था की। पहले तो सरकारें इस प्रावधान को क्रियान्वित करने में गम्भीर नहीं थीं। अब निजी विद्यालय कानून के इस प्रावधान की काट निकालने की तमाम कोशिश कर रहे हैं।
लखनऊ के बेसिक शिक्षा अधिकारी ने 2015-16 शैक्षणिक सत्र के लिए दिनांक 6 अप्रैल, 2015 को 31 गरीब परिवारों के बच्चों को शहर के जाने माने विद्यालय सिटी मांटेसरी स्कूल में मुफ्त एवं अनिवार्य शिक्षा के अधिकार अधिनियम, 2009, के अंतर्गत प्रत्येक विद्यालय में 25 प्रतिशत गरीब परिवारों के बच्चों हेतु आरक्षण के प्रावधान के तहत दाखिले का आदेश किया। सिटी मांटेसरी स्कूल ने बच्चों को दाखिला देने के बजाए न्यायालय में याचिका दायर करने का निर्णय लिया। वह बच्चों को दाखिला न देने के तमाम कारण गिना रहा है। पहले तो वह कह रहा है कि उसके पास जगह की कमी है क्योंकि उसने पहले ही जितनी क्षमता थी उतने दाखिले ले लिए हैं। फिर वह सवाल कर रहा है कि बच्चों के घर के पास एक सरकारी प्राथमिक विद्यालय व कुछ निजी विद्यालय भी हैं तो दाखिले का आदेश सिटी मांटेसरी स्कूल में ही क्यों किया गया?
उ.प्र. सरकार के इस वर्ष के शासनादेश के मुताबिक एक वार्ड को पड़ोस माना गया है। शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत गरीब परिवारों के बच्चों को आरक्षण का लाभ पड़ोस के विद्यालय में ही मिलेगा। जो सरकारी विद्यालय बच्चों के घर के पास में है वह उनके वार्ड में नहीं जबकि सिटी मांटेसरी की इंदिरा नगर शाखा उसी वार्ड में स्थित है। शासनादेश के अनुसार सरकारी विद्यालय में यदि कक्षा 1 में 40 से ज्यादा बच्चों का दाखिला हो चुका है तभी आप निजी विद्यालयों में दाखिले का दावा कर सकते हैं। उपर्युक्त सरकारी विद्यालय में 52 बच्चों का दाखिला हो चुका है। न्यायालय ने सिटी मांटेसरी स्कूल द्वारा खड़े किए गए सवालों का जवाब शिक्षा विभाग से मांगा है। उसने दाखिले पर कोई रोक नहीं लगाई और न ही स्थगनादेश दिया है। इसके वाबजूद सिटी मांटेसरी बच्चों को दाखिला नहीं दे रहा।
सिटी मांटेसरी विद्यालय जिसकी 20 शाखाओं में करीब 47,000 बच्चे पढ़ते हैं, दुनिया के सबसे बड़े विद्यालय की जिसे गिनीज़ बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड ने मान्यता दी है, 31 गरीब बच्चों को दाखिला न देने के लिए जगह की कमी होने का बहाना बना रहा है। सिटी मांटेसरी यह भी कह रहा है कि सरकार एक बच्चे को पढ़ाने का जो रु. 450 प्रति माह का खर्च देने वाली है वह कम है।

निजी विद्यालयों का राष्ट्रीयकरण जरूरी      
इससे बड़ा मजाक क्या होगा कि पूरे उत्तर प्रदेश के सभी जिलों के बेसिक शिक्षा अधिकारियों ने मिल कर अभी तक करीब तीन हजार से थोड़ा कम ही बच्चों का दाखिला कराया है। इतने थोड़े से बच्चों का दाखिला करा कर सरकार हर गरीब बच्चे को गुणवत्तापूर्ण शिक्षा प्रदान करने की अपनी जिम्मेदारी कैसे पूरी करेगी? ऐसी व्यवस्था में सरकार को निजी विद्यालयों का राष्ट्रीयकरण करके उनको समान शिक्षा प्रणाली की व्यवस्था के तहत संचालित करना चाहिए। इन विद्यालयों में शिक्षण कार्य का प्रबंधन भले ही निजी हाथों में हो किंतु प्रशासनिक संचालन सरकार को अपने हाथों में ले लेना चाहिए ताकि सरकार अपने हिसाब से गरीब बच्चों को यहां पढ़ा सके।
सकल घरेलू उत्पाद की विकास दर के हिसाब से भारत दुनिया में अग्रणी देशों में है किंतु सामाजिक मानकों के हिसाब से हमारी गिनती सबसे पिछड़े देशों में होती है। दक्षिण एशिया में आजादी के समय सामाजिक मानकों की दृष्टि से श्रीलंका के बाद हमारा स्थान था। अब पाकिस्तान को छोड़ बाकी सभी देश हमसे आगे निकल गए हैं।
( आउटलुक हिंदी से साभार )