Saturday 20 July 2019

मीज़ल्स-रुबेला टीकाकरण अभियान: कुछ अनुत्तरित सवाल


देशभर के स्कूलों में चलाए जाने वाले राष्ट्रीय MR (measles – rubella) टीकाकरण अभियान को लेकर कुछ शंकाओं पर बातचीत करने के लिए कुछ शिक्षक साथी कुछ माह पूर्व एक डॉक्टर से मिलने गए थे| वे बच्चों के इलाज के विशेषज्ञ (pediatrician) हैं और टीकाकरण पर भी उनका लंबा शोध-अध्ययन रहा है। उनसे हुई बातचीत के आधार पर हम चिंता के निम्नलिखित बिंदु व सवाल साझा कर रहे हैं -  
1. नैतिक और कानूनी दोनों ही रूप से अभिभावकों को अपने बच्चों को यह टीका लगवाने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता| उन्होंने Parental consent पर ज़ोर दिया|
हम यह जानते हैं कि अभिभावकों और शिक्षक साथियों से consent लेना मात्र एक औपचारिकता बनकर रह गया है । अत: ज़रूरी है कि informed consent के निर्माण के लिए हम अपनी भूमिका निभाएं| अगर निजी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावकों से consent फॉर्म भरवाए जाते हैं तो क्या फिर सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चों के अभिभावकों से यह औपचारिकता भी नहीं निभाई जाएगी?
2. अगर शिशु सुरक्षा की सार्वजनिक स्वास्थ्य प्रणाली के तहत measles वैक्सीन सभी बच्चों को पहले ही दी जा चुकी है तो measles वैक्सीन के इस dose की क्या ज़रूरत है? क्योंकि rubella के साधारण बीमारी होने की वजह से शुद्ध मेडिकल आधार पर इस का यूनिवर्सल टीकाकरण करने के लिए पर्याप्त कारण नहीं हैं, तो क्या फिर इसलिए इस वैक्सीन को measles के साथ जोड़कर दिया जा रहा है?
3. उनके अनुसार rubella एक ऐसी साधारण बीमारी है जिसमें ज़ुकाम, बुख़ार, rash आदि होता है; यहाँ तक कि कई दफ़ा आपको पता भी नहीं लगेगा कि आपको यह हुआ हैI बचपन में लगभग सभी को यह होता है और इसका होना अच्छा है क्योंकि इसके प्राकृतिक रूप से फैलने से शरीर इससे लड़ने के लिए पर्याप्त प्रतिरोधक क्षमता विकसित कर लेता है|
4. अगर बचपन में यह बीमारी न हो और इसके खिलाफ़ प्रतिरोधक क्षमता विकसित न हो तो गर्भवती महिला को पहले 3 महीनों में कंजेनिटल rubella से ग्रस्त होने की संभावना हो सकती है जिससे नवजात को कंजेनिटल मोतियाबिंद (एक प्रकार का मोतियाबिन्द) हो सकता है, हालांकि इसकी सम्भावना बहुत ही न्यून है|
5. rubella भारतीय जनसंख्या में इतनी कम मात्रा में है कि इस पर कोई आंकड़े इकट्ठा करने की ज़रूरत नहीं महसूस की गई है और अपने अभियान में भी सरकार इस बीमारी के आंकड़े नहीं बता पाई है|
6. जो कीटाणु अब तक प्राकृतिक रूप से फैलते थे उनके खिलाफ़ हमारे शरीर खुद-ब-खुद प्रतिरोधक क्षमता भी विकसित करते थे; इस टीके के कारण यह स्वत: होने वाली प्रक्रिया रुक जाएगी| तथा जो भी लोग इस टीके से छूट जायेंगे उनके लिए यह साधारण बीमारी गम्भीर रूप ले लेगी|
7. कहने का मतलब है कि rubella जैसी एक साधारण बीमारी को राष्ट्रीय अभियान के तहत टीकाकरण में समाहित करने का एक दुष्परिणाम यह होगा कि rubella के गंभीर परिणाम वाले cases बढ़ जाएंगे|
यह एक दुष्चक्र/चक्रव्यूह जैसा है|  
8. डॉक्टर का कहना था कि अगर इस बीमारी से समस्या गर्भवती महिला को हो सकती है तो बेहतर यह होता कि rubella के खिलाफ़ टीकाकरण 13 साल की उम्र के बाद किया जाता ताकि प्राकृतिक बीमारी को फैलने और प्रतिरोधक क्षमता को स्वत: विकसित होने का अवसर मिल चुका होता|
(इस बात को ऐसे समझा जा सकता है कि एक ज़माने में measles भी एक साधारण बीमारी थी लेकिन अब नहीं रही| जब एक प्राकृतिक बीमारी खत्म होती है तो booster डोज़ की आवश्यकता भी बढ़ जाती है।)       
9. सामान्यत: इस टीके के दुष्प्रभाव (side effects) नहीं होते लेकिन उत्तर प्रदेश में कुछ बच्चों ने टीके के बाद कुछ दिक्कतों की शिकायत की| और जैसा कि सामान्यत: होता है, इन तथ्यों और खबरों को दबाने की कोशिश की गई है|
10. उनका यह कहना था कि DPT , टेटनस, पोलियो जैसी ख़तरनाक बीमारियों के खिलाफ़ टीके उपयोगी (तथा सस्ते) थे लेकिन Hep B, HIB, रोटा वायरस आदि के नाम पर दिए जाने वाले टीके वैज्ञानिक ज़रूरत (sufficiently useful/essential and cost benefit assessment) पर कम खरे उतरते हैं और दवा कंपनियों के बाज़ारवादी एजेंडा का नतीजा ज़्यादा हैं| सरकार के साथ मिलकर ये कंपनियां लोगों के डर और जानकारी की कमी का फ़ायदा उठा रही हैं|   
उनके साथ हुई बातचीत के अतिरिक्त शिक्षक होने के नाते हमारी एक बड़ी चिंता यह भी है कि कैसे स्कूलों को तरह-तरह के अभियानों के लिए इस्तेमाल किया जाता है|
इस वैक्सीन अभियान को सफल बनाने में जब हम शिक्षक सहायता करेंगे तो क्या हम जाने-अनजाने निजी दवा कम्पनियों के एजेंट की भूमिका नहीं निभा रहे होंगे?
टीकाकरण से जुड़ी सूचना का अधिकार अर्ज़ी - नादारद जवाब
मीज़ल्स-रुबेला टीकाकरण का दिल्ली चरण 16 जनवरी 2019 से शुरु होना था। जब इस टीका अभियान को लेकर कुछ सवाल उठने शुरु हुए और सरकार के रवैये से उन्होंने आशंकाओं का रूप ले लिया तो शिक्षा निदेशालय के एक आदेश में यह दावा किया गया इस टीकाकरण के राष्ट्रीय अभियान का हिस्सा होने के चलते इसके लिए विद्यार्थियों के अभिभावकों की सहमति लेनी ज़रूरी नहीं है। जबकि उन अभिभावकों से जिनके बच्चे निजी स्कूलों में पढ़ रहे हैं, सहमति के हस्ताक्षर लिए गए। इस बीच विभिन्न राज्यों से टीकाकरण के बाद बच्चों के अस्वस्थ होने की छिटपुट ख़बरें आ रही थीं। इसमें NDTV पर आई एक रपट भी शामिल थी। स्कूलों को मिले पर्चे में कहा गया था कि टीके के बाद होने वाले किसी भी साइड इफ़ेक्ट (प्रतिकूल प्रभाव) के लिए मेडिकल सहायता के लिए निकट के स्वास्थ्य केंद्र उपलब्ध रहेंगे। ज़ाहिर है कि यह किसी भी प्रकार से अतिरिक्त सहायता का वायदा नहीं था और न ही, विशेषकर कई स्कूलों में बच्चों की बड़ी संख्या के संदर्भ में, किसी भी संभावित आपातकालीन परिस्थिति से निपटने के लिए पर्याप्त इंतेज़ाम।
   
इस सिलसले में हमने पिछले वर्ष के अंत में दिल्ली सरकार तथा केंद्र सरकार, दोनों के स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालयों में सूचना अधिकार अधिनियम (2005) के तहत अर्ज़ियाँ डाली थीं। दोनों से ही निश्चित समय में जवाब प्राप्त नहीं हुए। अलबत्ता, दिल्ली सरकार के उक्त निदेशालय ने हमारी अर्ज़ी विभिन्न अस्पतालों को अग्रेषित कर दी और फिर हमें, लगभग दो महीनों की अवधि के बीच, दिल्ली के 24 सार्वजनिक अस्पतालों से जवाब प्राप्त हुए। इसके अलावा, दिल्ली सरकार के परिवार कल्याण निदेशालय से एक पत्र, दिनांकित 13 फ़रवरी 2019, प्राप्त हुआ। इसमें बताया गया कि दिल्ली में 2016, 2017 व 2018 में मीज़ल्स से क्रमशः 7, 3 और 10 मौतें हुई थीं। ये आँकड़े भी WHO (विश्व स्वास्थ्य संगठन)-NPSP (राष्ट्रीय पोलियो निगरानी परियोजना) के हवाले से दिए गए थे। रुबेला से हुई मौतों के बारे में जानकारी उपलब्ध नहीं होने का जवाब दिया गया, जबकि अभियान पर होने वाले ख़र्चे को यह कहकर शून्य बताया गया कि इसे केंद्र सरकार वहन कर रही है। हमें जिन 24 अस्पतालों/मेडिकल संस्थानों से जवाब मिले उनमें से 13 ने कहा कि उनके पास पिछले तीन सालों में रुबेला का एक भी गंभीर अथवा जानलेवा केस दर्ज नहीं हुआ था; 2 के अनुसार अर्ज़ी की लिखावट साफ़ नहीं थी; 5 ने बताया कि उनके विशेष चरित्र/फ़ोकस के चलते उनके पास ऐसे केस आते ही नहीं हैं (उदाहरण के तौर पर, नेत्र चिकित्सालय); 3 ने कहा कि उनके पास ऐसे कोई रिकॉर्ड उपलब्ध नहीं हैं; और एक ने अस्पताल आकर संबद्ध फ़ाइलें देखने के लिए निमंत्रित किया। कुल मिलाकर, RTI अर्ज़ी से प्राप्त ये जवाब बताते हैं कि पिछले तीन सालों में दिल्ली में रुबेला का एक भी जानलेवा अथवा गंभीर केस भी दर्ज नहीं हुआ है। इसके बावजूद इस अभियान को बच्चों व स्कूलों पर, उनकी सहमति/असहमति के हक़ का सम्मान किये बिना, जबरन थोपा गया।   

उधर केंद्र सरकार के मंत्रालय में भेजी गई अर्ज़ी में हमने अधिक विस्तृत सूचना माँगी थी। इसमें हमने देशभर में मिलाकर क्रमशः पिछले तीन वर्षों में रुबेला के जानलेवा केसों के आँकड़े, इस टीके के प्रयोग की रपटें, प्रतिकूल प्रभावों के लिए अपनाया जाने वाला मेडिकल प्रोटोकॉल (दिशा-निर्देश), प्रतिकूल प्रभावों के एवज़ में देय हर्जाने/मुआवज़े की राशि के प्रावधान, टीकाकरण के लिए अनिच्छुक व्यक्तियों के ख़िलाफ़ संभावित क़ानूनी कार्रवाइयों का ब्यौरा, टीका बनाने वाली कंपनी का नाम तथा इसकी एक ख़ुराक की क़ीमत की जानकारी माँगी थी। जैसा कि ऊपर बताया गया, केंद्र से जवाब समयावधि के काफ़ी ग़ुज़र जाने तक भी नहीं आया। अंततः 12 फ़रवरी 2019 का दिनांकित एक पत्र मार्च में जाकर मिला जिसमें किसी भी सवाल का उत्तर नहीं दिया गया था, सिवाय इसके कि एक टीके का मूल्य 37.4199 रुपये है। एक मोटे अनुमान के हिसाब से भारत में 15 साल तक की उम्र के बच्चों की संख्या 40 करोड़ से कम नहीं है। इस हिसाब से टीके की ख़रीद पर ही कुल व्यय 1,500 करोड़ रुपये के आसपास बैठता है। यहाँ भी केंद्र सरकार रुबेला के जानलेवा अथवा गंभीर केसों के बारे में कोई आँकड़ा पेश नहीं कर सकी। बिना तथ्यों के योजना बनाना, उसे थोपना, फिर जबरन मनवाना, ये सब आज की सरकारों की तानाशाही का परिचायक हो गया है। इससे लोकतंत्र में उनके आधार और आस्था, दोनों की बची-खुची शिनाख़्त भी हो जाती है। क्या यह उचित है कि सरकारें पहले अपर्याप्त या गडमड आधार पर कोई अभियान/योजना लागू करें तथा फिर उसपर किये गए ख़र्च को जायज़ ठहराने के लिए उसे अनिवार्य बनाकर सब पर थोप दें? उचित हो या अनुचित, वैश्विक पूँजी की ग़ुलाम सरकारों के लिए आज यह संभव ज़रूर है। संभव ही नहीं, बल्कि उनकी सामान्य परिपाटी का हिस्सा। आख़िर, 'आधार' के मामले में भी तो सरकार ने यही किया है।   
  

जनवरी में दिल्ली के एक बड़े निजी स्कूल, डीपीएस, के कुछ विद्यार्थियों द्वारा इस टीकाकरण की अनिवार्यता को अदालत में दी गई चुनौती के संदर्भ में उच्च न्यायालय ने सरकार को नोटिस जारी करते हुए इस पर तब तक रोक लगा दी जब तक वो घोषित सहमति लेने और संभावित दुष्परिणामों की जानकारी देने को अपनी योजना में शामिल न कर ले। इसके पूर्व दिल्ली सरकार ने, इसके राष्ट्रीय अभियान होने और अन्य राज्यों में संपन्न चरणों का हवाला देते हुए अभिभावकों की मूक/मान्य सहमति निहित होने का तर्क दिया था। न्यायालय में यह भी बताया गया कि कैसे देश के विभिन्न राज्यों में 22 करोड़ से अधिक बच्चों को यह टीका पहले ही लगाया जा चुका है। न्यायालय ने मूक सहमति के इस तर्क को मानव अधिकार व शरीर की निजता का उल्लंघन क़रार देते हुए ख़ारिज कर दिया। अख़बारों के अनुसार दिल्ली-गुड़गाँव के सैकड़ों निजी स्कूलों की तरफ़ से अभियान को लेकर आपत्ति/असहयोग दर्ज किया गया था। यह स्पष्ट नहीं है कि दिल्ली सरकार ने इस फ़ैसले के बाद नई योजना बनाने पर काम किया है या इसे चुनौती दी है। वैसे, चुनौती देने का संकेत ख़बरों में था। कुछ भी हो, तब से लेकर अब तक इस बारे में सरकार की ओर से कोई ताज़ा आदेश नहीं आये हैं। मगर हम इस मुग़ालते में नहीं हैं कि कहानी का अंत हो गया है। हमें पता है कि नए संस्करण में सरकार अपनी योजनाएँ और वीभत्स रूप में लाएगी। इसमें सहमति, मानवाधिकार, निजता, गरिमा, अंतःकरण जैसे कोमल शब्दों व मूल्यों को बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। फिर चाहे वो उसी संविधान के मूलमंत्र हों जिसके आगे शीश नवाकर उसके बहुरूपिये स्वांग रचते हैं। इस बीच, पिछले कुछ हफ़्तों में दुनिया के अलग-अलग हिस्सों से मीज़ल्स के केसों में बढ़ोतरी होने की ख़बरें आई हैं। इसमें वो देश प्रमुखता से शामिल हैं जहाँ टीकाकरण का दर 80-90% से भी ज़्यादा है और धार्मिक (अंतःकरण की) आज़ादी के आधार पर टीका नहीं लगवाने वालों को मिलने वाली अपवादजनक छूट के अलावा कई सार्वजनिक सेवाओं के लिए टीका लगवाना अनिवार्य तक है। फिर भी इन रपटों में उस मेडिकल शंका का रत्तीभर ज़िक्र नहीं था जिसके अनुसार सार्वभौमिक टीकाकरण से आबादी की प्रतिरोधक क्षमता व छूट गए लोगों में गंभीर केसों की संख्या में इज़ाफ़ा हो सकता है। इसके उलट, सभी अख़बारी रपटों में यह 'सुखद' निष्कर्ष प्रस्तुत किया गया कि टीकाकरण के दर को और बढ़ाने व 100% तक लाने की ज़रूरत है! इससे इन रपटों के मासूम होने के प्रति शंका होती है। क्या गारंटी है कि ये दवा कंपनियों के किसी वैश्विक अजेंडे को बढ़ाती प्रायोजित रपटें न हों? हमें याद रखना चाहिए कि ये सभी रपटें मीज़ल्स की हैं। यानी, इनके आधार पर भी रुबेला के टीके की ज़रूरत के बारे में कोई निष्कर्ष नहीं निकाला जा सकता है। उधर, दिल्ली उच्च न्यायालय के आदेश के बारे में आई रपटों में, बिना किसी अधिकृत हवाले से, भारत में रुबेला के गंभीर केसों की वार्षिक संख्या 40,000 बताई गई थी। लेकिन कुछ देशों से मीज़ल्स के बढ़ते केसों की आई हालिया रपटों ने इच्छुक तत्वों (स्वास्थ्य संगठन, बहुराष्ट्रीय दवा निर्माता कंपनियों, अधिकारियों आदि) को अपने अजेंडा को बढ़ाने के लिए एक स्वागतयोग्य संदर्भ उपलब्ध करा दिया है। अब वो जन-स्वास्थ्य के लिए इस उभरते 'ख़तरे' (मीज़ल्स) की आड़ में रुबेला के टीकाकरण की ज़रूरत के गुण और बढ़-चढ़कर गा सकते हैं। और इस तरह, सच्चाई, जन-संसाधन व जन-स्वास्थ्य की क़ीमत पर, निजी स्वार्थों की पूर्ति को अंजाम दे सकते हैं। हमें यह पूछने की ज़रूरत है कि अगर संकट मीज़ल्स का है तो आप उसमें रुबेला का टीका क्यों जोड़ देते हैं और आख़िर रुबेला के आँकड़े सार्वजनिक क्यों नहीं किये जा रहे हैं। ये सब सवाल पूछते हुए हमें याद रखना होगा कि आज हमें एक ऐसे युग में धकेला जा रहा हैं जिसमें शिक्षा का अर्थ विवेक-समर्पण, मीडिया का अर्थ प्रायोजित व झूठी ख़बरें, कला का अर्थ राज-प्रशस्ति गान, लोकतंत्र का अर्थ तानाशाह व दमनकारी सरकार का चुनाव तथा चुनाव का अर्थ धोखाधड़ी, प्रशासनिक दबंगई व आर्थिक शक्ति प्रदर्शन से सत्ता हथियाना होगा। हमारे पास कोई कारण नहीं है कि ऐसे में हम स्वास्थ्य के क्षेत्र में निजी पूँजी का हित साधती कंपनियों और उनकी चाकरी करती सरकारों की योजनाओं, अभियानों व नीतियों को शक से न देखें। और जब सवाल अनुत्तरित रह जाएँ तो अपने लब खोलें, आवाज़ बुलंद करें, विरोध करें। वर्ना, ज़ंजीरों के अलावा खोने के लिए कुछ नहीं बचेगा।    

शिक्षकों की वार्षिक गोपनीय रिपोर्ट (ए सी आर)


जैसे-जैसे शिक्षा नीतियों को बाज़ार के प्रबंधन मॉडल की तर्ज पर निर्मित किया जा रहा है, वैसे-वैसे हमारे सामने विकृतियों के नए उदाहरण प्रकट हो रहे हैं। इनमें से कई बदलाव ऐसे रहे हैं जिनका संज्ञान लेकर शिक्षकों द्वारा विरोध हुआ है। वहीं, कुछ महत्वपूर्ण फेरबदल बिना किसी विरोध के स्वर के लागू किये जा चुके हैं। विरोध नहीं होने के कई कारण तलाशे जा सकते हैं। बहुत संभव है कि शिक्षा के बौद्धिक व सार्वजनिक उद्देश्यों से बेमेल आदेशों की जैसी बाढ़ पिछले कुछ सालों में आई है, उसमें हर निर्णय पर प्रतिक्रिया देना मुश्किल हो गया है। दूसरी तरफ़, हम इसे शिक्षक समुदाय की वर्गीय/राजनैतिक चेतना में आ रहे बदलावों व शिक्षक यूनियनों के कमज़ोर पड़ते जाने की निशानी के रूप में भी देख सकते हैं। जो भी हो, इस बात से इंकार नहीं किया जा सकता है कि आज पूँजीवाद के तहत वैश्विक निगमों ने न सिर्फ़ चुनावी प्रक्रिया के माध्यम से सत्ता में आने का दंभ भरने वाली सरकारों को अपने अधीन कर लिया है, बल्कि संस्कृति का एक संसार रचकर बहुत बड़े स्तर पर लोगों के दिलो-दिमाग़ पर भी प्रभाव जमा लिया है। इसका एक असर सिद्धांतों व आदर्शों के मूल्य को नकारने में प्रकट हुआ है। सरकार से लेकर आमजन में एक धारणा मज़बूत हुई है कि साध्य और साधन की संगतता अपरिहार्य नहीं है तथा साधन को उसके परिणाम की सफलता से आँकना चाहिए। यह 'कामयाबी' का बाज़ारवादी दर्शन है। जो 'कामयाब' है, वही सही है; बाक़ी उचित-अनुचित की बहस निरर्थक है। इसी दर्शन के आधार पर पठन व गणना के 'मूलभूत' कौशलों की परीक्षा लेकर स्कूलों में बच्चों को उनके तथाकथित स्तर के हिसाब से चिन्हित व बाँट करके पढ़ाया जा रहा है। यही दलील देकर बच्चों को फ़ेल करने की नीति को वापस लाया जा रहा है। सवाल सिर्फ़ ये नहीं है कि यहाँ 'कामयाबी' से क्या मतलब है और वो असल में किसके हित में है। (उदाहरण के तौर पर, सफ़ाई कर्मचारी व संसाधनों की अनुपलब्धता के संदर्भ में भी एक स्कूल का 'साफ़-सुथरा' दिखना उसके प्रशासन की कामयाबी प्रदर्शित कर सकता है, मगर हमें जानना होगा कि इसकी क़ीमत कितने और कौन-से बच्चों ने अपनी पढ़ाई व सेहत गँवाकर चुकाई है।) मगर हक़ीक़त ये भी है कि क्योंकि 'कामयाबी' के ये पैमाने और मूल्याँकन ख़ुद तथ्यों से जुदा हैं, इसलिए अक़्सर ये अपनी ही घोषित ज़मीन पर असफल सिद्ध होते हैं। समस्या ये है कि 'सच' व 'सिद्धांत' जैसे मूल्यों के प्रति कोई निष्ठा न होने के चलते, सत्ता द्वारा इस नाकामी को सामने नहीं आने दिया जाता है या स्वीकारा नहीं जाता है। 
आलोचना के उपरोक्त संदर्भ में हम यहाँ एक ऐसे मौलिक नीतिगत बदलाव का उदाहरण लेंगे जो सीधा शिक्षकों की उन परिस्थितियों से जुड़ा है जिसको लेकर आंदोलित होना यूनियनों के प्रथम दायित्वों में शामिल रहा है। हम जिस बदलाव की बात कर रहे हैं वो शिक्षकों की वार्षिक मूल्याँकन रपट (ACR) के स्वरूप में आया है। नई शिक्षा नीति के बनने से पहले ही इसे लागू करना यह भी दिखाता है कि आज सरकारों के लिए नीति निर्माण, विमर्श, लोकतांत्रिक चलन-प्रक्रियाएँ कोई मायने नहीं रखते हैं। उसे जो निर्णय लागू करने होंगे उन्हें प्रशासनिक आदेशों के तहत थोप दिया जायेगा। निगम में यह बदलाव पिछले तीन सालों से लागू है, मगर इसका विरोध क्या, इसकी चर्चा भी कम ही सुनने को मिली है। जबकि ACR के पैमानों में किये गए ये बदलाव केवल सैद्धांतिक तौर पर ही आपत्तिजनक नहीं हैं, बल्कि शिक्षकों की कार्य-परिस्थितियों, मुख्यतः प्रोन्नति की संभावनाओं पर इनका एक व्यावहारिक (नकारात्मक) असर भी पड़ेगा, और पड़ रहा है। इससे यह भी स्पष्ट होता है कि किसी भी पेशागत सांगठनिक हस्तक्षेप के लिए उसूलों की समझ व व्याख्या का कितना महत्व है। 
                            रपट के पुराने स्वरूप के पहले खंड में शिक्षक द्वारा पढ़ाई कक्षा के वार्षिक परिणाम के अतिरिक्त 13 बिंदु थे, जबकि अब इस हिस्से में 11 ही हैं। इस खंड के बिंदुओं के लिए कोई अंक नहीं मिलता है। इसका मतलब है कि ये दर्ज तो होते हैं, मगर इनका मूल्याँकन नहीं होता। वैसे तो पुराने व वर्तमान दोनों ही स्वरूपों के इस पहले खंड में अधिकांशतः शिक्षक की निजी जानकारी मात्र होती थी, फिर भी इसमें कुछ ठोस परिवर्तन हुए हैं। अव्वल तो अब शिक्षक की लिखाई व निजी स्वास्थ्य के बिंदुओं को इस खंड से ही नहीं, बल्कि रपट से ही बाहर कर दिया गया है। दूसरी तरफ़, कक्षा परिणाम को, जोकि पहले केवल दर्ज होता था, वर्तमान स्वरूप में 5 अंकों के मूल्य के साथ अगले हिस्से में रखा गया है। अब इस हिस्से में शिक्षक की बायोमेट्रिक पहचान संख्या दर्ज होती है, जोकि पहले नहीं होती थी। स्पष्ट है कि अब राज्य को अपने कर्मचारी की स्वास्थ्य-स्थिति जानने में भी दिलचस्पी नहीं है, मगर बायोमेट्रिक आई डी जानने में ज़रूर है। साथ ही, नवउदारवादी नीतियों के तहत शिक्षकों को परिणाम-आधारित मूल्याँकन के अधीन ले आया गया है। इसकी पैरवी पूँजीवादी 'विचारक', कॉरपोरेट नेतृत्व, 'अधिगम के संकट' (क्राइसिस ऑफ़ लर्निंग) की ग़लत विवेचना पर पाठ्य-सामग्री, परीक्षण व मूल्याँकन का वैश्विक बाजार खड़ा करती कंपनियों से लेकर निर्माणाधीन नई शिक्षा नीति द्वारा ज़ोर-शोर से होती रही है। यह बच्चों के परिणामों का ठीकरा शिक्षकों पर फोड़ कर व्यवस्था की नाकामी पर पर्दा डालने का उपाय है। एक तरफ़ इससे लोगों, विशेषकर मध्यवर्ग में सरकार के गंभीर होने का संदेश जाता है, दूसरी तरफ़ इससे सत्ता को शिक्षकों को दबाने का एक और व ख़तरनाक हथियार हासिल होता है।              
पूर्व की रपट में निजी जानकारी वाले खंड क के अलावा 5 खंड और थे - 'गुण तथा विशेषताएँ' (12 बिंदु, 41 अंक), संबंध (4 बिंदु, 14 अंक), 'विद्यालय अभिलेख का रखरखाव' (5 बिंदु, 16 अंक), 'मूल्याँकन तथा अनुसरण' (2 बिंदु, 5 अंक) एवं 'कक्षा का निरीक्षण' (5 बिंदु, 20 अंक)। इस तरह पिछली रपट में 5 खंडों में विभाजित 28 बिंदुओं के आधार पर शिक्षकों का मूल्याँकन कुल 96 अंकों में से होता था। इसके विपरीत, रपट के नए स्वरूप में, निजी जानकारी वाले पहले हिस्से के 10 बिंदुओं के अतिरिक्त 24 बिंदु और हैं मगर इन्हें खंडों में विभाजित नहीं किया गया है और अब आँकलन 100 में से  होता है। इसका मतलब है कि, अगर हम परीक्षा परिणाम के बिंदु की स्थिति बदले जाने पर ग़ौर करें, तो असल में 5 बिंदु कम हुए हैं। हम कह सकते हैं कि ACR के पिछले स्वरूप के मुक़ाबले नए स्वरूप को कम बारीकी व गहराई से तैयार किया गया है। इसे हम एक उदाहरण से और बेहतर समझ सकते हैं। मूल्याँकन रपट को शिक्षण से संबद्ध विभिन्न ज़िम्मेदारियों/कौशलों में विभाजित करने से एक शिक्षक को यह आसानी से समझ आ सकता है कि उसे किस क्षेत्र में कम-ज़्यादा समस्या आ रही है। बल्कि, मूल्याँकन करने वालों के लिए भी यह तार्किक वर्गीकरण सुसंगत विश्लेषण करने व फ़ीडबैक देने का ज़रिया मुहैया कराता है। तो, कम-से-कम प्रथमदृष्ट्या, रपट का नया स्वरूप मूल्याँकन का बेहतर औज़ार उपलब्ध नहीं कराता है। बल्कि, लगता है कि इसे जल्दबाज़ी में, महज़ किसी प्रशासनिक आदेश के समयबद्ध पालन के दबाव में, बिना पर्याप्त शैक्षिक विमर्श व समझदारी के तैयार किया गया है। 
एक समग्र आलोचना प्रस्तुत करने से पहले हम कुछ ऐसे बिंदुओं पर ग़ौर करेंगे जिन्हें या तो हटा दिया गया है या जोड़ा गया है। निम्नलिखित 15 बिंदु पुरानी मूल्याँकन रपट में शामिल थे, लेकिन अब नहीं हैं -
शिक्षक की अपनी 'स्वच्छ्ता व शुद्धता', उत्साह, आचार-व्यवहार, निजी स्वास्थ्य, भावनात्मक स्थिरता, कार्य में रुचि, अनुशासन, लिखाई, पहल करने की योग्यता, व्यावसायिक उन्नति, विद्यार्थियों के साथ संबंध, परीक्षाओं का मूल्याँकन, परीक्षाओं के फलस्वरूप अनुसरण, कार्य योजना व प्रस्तुतिकरण का निरीक्षण और कार्यानुभव में रुचि। इसी प्रकार, निम्नलिखित 10 बिंदु नई मूल्याँकन रपट में शामिल हैं, लेकिन पहले नहीं थे -
परीक्षा में 60% से अधिक अंक लाने वाले विद्यार्थियों की संख्या/मेधावी छात्रवृत्ति प्राप्त करने वाले विद्यार्थियों की संख्या, विद्यालय छोड़कर जाने वाले बच्चों की संख्या, डायरी का साप्ताहिक मूल्याँकन, चार्ज रिकॉर्ड का रखरखाव, श्रुतलेख, पुस्तकालय का प्रयोग, स्कूली आयोजनों में कक्षा की भागीदारी, क्षेत्रीय/वार्ड स्तरीय आयोजनों में कक्षा की भागीदारी, पर्यावरण व समुदाय सेवा के प्रति जागरूकता और शिक्षक-अभिभावक बैठक का आयोजन।
उपरोक्त विवरण के आधार पर हम कुछ सरसरी टिप्पणियाँ कर सकते हैं। 
1. शिक्षकों के मूल्याँकन के लिए उत्साह, रुचि, पहल करना, भावनात्मक स्थिरता, व्यावसायिक उन्नति (जिसमें पत्र-पत्रिकाओं का अध्ययन व सेमिनार में भागीदारी शामिल था) जैसे कारकों को नकारने का मतलब है शिक्षण के कर्म व पेशे को मनःस्थिति तथा बौद्धिकता से काटकर परिभाषित करना। यह पूँजीवादी प्रबंधन के उस मॉडल पर आधारित है जिसमें हर उस चीज़ का कोई स्थान/मूल्य नहीं है जो कर्मी की अपनी इच्छा-रुचि ज़ाहिर करती है तथा जिसे नापा नहीं जा सकता है। विडंबना यह है कि न सिर्फ़ उत्साह व रुचि जैसे सूक्ष्म परंतु महत्वपूर्ण तत्वों को नज़रंदाज़ कर दिया गया है, बल्कि शिक्षण जैसे बौद्धिक कर्म के लिए पढ़ने-लिखने व अध्ययन करने तक को अनावश्यक क़रार दे दिया गया है। इस तरह यह भी प्रतिपादित किया जा रहा है कि शिक्षण के काम को बिना किसी आंतरिक प्रेरणा के बख़ूबी अंजाम दिया जा सकता है। हम जानते हैं कि यह झूठ है। चूँकि आंतरिक प्रेरणा कोई आसमान से नहीं टपकती, इसलिए इस झूठ को रपट में स्थान देने का अर्थ यह भी है कि सार्वजनिक प्रबंधन के इस नए मॉडल में व्यवस्था उन परिस्थितियों के निर्माण की ज़िम्मेदारी से भी मुक्त हो जाती है जो असल में किसी श्रेष्ठ आंतरिक प्रेरणा को जन्म देने के लिए ज़रूरी हैं। मूल्याँकन के इस नए मॉडल में आपको परिणाम दिखाने ही हैं, भले ही आपकी अपनी (आंतरिक) व व्यवस्था की (बाह्य) परिस्थितियाँ कैसी भी क्यों न हों।
2. जहाँ पिछली मूल्याँकन रपट में शिक्षक के विद्यार्थियों के साथ संबंधों को 4 अंकों की तरजीह दी गई थी, वहीं अब इस संबंध के महत्व को पूरी तरह ख़ारिज कर दिया गया है। यह रोचक है क्योंकि अधिकारियों, साथी शिक्षकों व अभिभावकों के साथ संबंधों को पहले जितना ही महत्व दिया गया है। ज़ाहिर है कि मूल्याँकन की इस नई प्रणाली में शिक्षक केवल विद्यार्थियों के परीक्षा परिणामों के लिए ज़िम्मेदार है, उनके साथ जीवंत संबंध बनाने के लिए नहीं। अब शिक्षक को, अर्जुन की तरह, केवल निशाने पर नज़रें गड़ानी हैं, इधर-उधर की बातों पर समय नष्ट नहीं करना है। जबकि अधिकतर शिक्षक इस बात को अच्छी तरह समझते हैं कि विद्यार्थियों के साथ उनका रिश्ता न केवल उनके शिक्षण में बेशक़ीमती भूमिका अदा करता है बल्कि यह उन्हें, ख़ासतौर से कठिन दिनों में, अपने पेशे में जिलाये रखता है। इस रिश्ते को नकारने का अर्थ है शिक्षण को उसके मानवीय स्पर्श से अलहदा कर देना। 
3. एक तरफ़ चारों ओर से शिक्षक पर परीक्षा परिणाम सुधारने का दबाव डाला जा रहा है, दूसरी तरफ़ नई ACR में शिक्षक द्वारा परीक्षाओं के मूल्याँकन व उसके नतीजे में अनुसरण करने को मूल्याँकन के क़ाबिल नहीं समझा गया है! प्रथमदृष्टि में यह एक विरोधाभास लग सकता है, मगर शिक्षा नीति के विमर्श पर नज़र डालने से हमें समझ आता है कि इसमें एक तारतम्यता है। नई शिक्षा नीति के प्रायोगिक दस्तावेज़ों में और शिक्षा अधिकार अधिनियम के फ़ेल न करने वाले नियम को ख़ारिज करने वाले संशोधन के विमर्श में यह प्रस्तावित किया गया है कि बच्चों की 'असल' परीक्षा स्कूली स्तर पर नहीं बल्कि एक तरह से आउटसोर्स्ड/केंद्रीकृत होगी। आशय यह है कि बच्चों के सीखने को लेकर शिक्षकों द्वारा स्कूली स्तर पर तैयार प्रश्न-पत्र व उनका मूल्याँकन स्वार्थपूर्ण भी हो सकता है और निम्नस्तरीय भी। संभवतः इसीलिए इसे ACR में स्थान देने की ज़रूरत नहीं समझी गई क्योंकि अब यह काम शिक्षकों के ज़िम्मे, विकेन्द्रीकृत ढंग से नहीं होगा।
4. इसी कड़ी में, अधिगम की चिंता का शोरग़ुल मचाती नई शिक्षा नीतियों के विमर्श के दौरान कक्षाई शिक्षण प्रक्रिया के प्रत्यक्ष निरीक्षण पर आधारित बिंदुओं को दरकिनार करना अटपटा लग सकता है। वस्तुतः नई ACR में कक्षा का निरीक्षण करके कार्य योजना, पाठ प्रस्तुति व चित्रकला जैसी गतिविधियों का मूल्याँकन करना अनावश्यक समझा गया है। इस अनुपस्थिति से नई मूल्याँकन रपट में सीखने-सिखाने को लेकर कक्षाई अंतःक्रिया के प्रति रुचि व समझ की कमी का पता चलता है। यह ग़ैरमौजूदगी ऊपर उल्लिखित दूसरे बिंदु को भी पुष्ट करती है जिसके अनुसार परीक्षा परिणाम तो महत्वपूर्ण हैं लेकिन (उसके लिए भी) शिक्षण की असल प्रक्रिया को देखने की ज़रूरत नहीं है। दूसरी तरफ़, यह आने वाले समय में स्कूल निरीक्षकों की ढलती संख्या व भूमिका की नीति का संकेत भी हो सकता है।
5. ACR के नए स्वरूप में कक्षा तृतीय तक विषयों में 60% से अधिक अंक लाने वाले विद्यार्धियों के अनुपात और चौथी-पाँचवीं के लिए मेधावी छात्रवृत्ति पाने वालों के अनुपात को 5 अंकों का मूल्य दिया गया है। परिणाम-आधारित यह मूल्याँकन न केवल शिक्षण की प्रक्रिया की चुनौती से ध्यान हटाता है - जैसा कि ऊपर स्पष्ट किया गया - बल्कि एक ऐसी चीज़ के लिए शिक्षकों को ज़िम्मेदार ठहराता है जिसको कई आर्थिक-सामाजिक परिस्थितियाँ प्रभावित करती हैं। मेधावी परीक्षा को तरजीह देने के दुष्परिणामों से भी हम वाक़िफ़ हैं। इनमें नियमित पाठ्यचर्या की अनदेखी व पर्तिस्पर्धा की अस्वस्थ संस्कृति को प्रोत्साहन प्रमुख हैं। नए ACR में इस नीतिगत अनदेखी के कम-से-कम दो उदाहरण और मिलते हैं; एक तो विद्यालय छोड़कर जाने वाले बच्चों की संख्या के लिए शिक्षक का 4 अंकों का मूल्याँकन रखा गया है और दूसरे, शिक्षक के प्रयास द्वारा बढ़े दाख़िलों की संख्या को मूल्याँकन के लिए 5 अंक दिए गए हैं। इस तरह, लगभग 20% मूल्याँकन अंक ऐसी चीज़ों के लिए निर्धारित किये गए हैं जिनपर शिक्षक का कोई बस नहीं है। चाहे वो परीक्षा-परिणाम हो, बच्चों का स्कूल से बाहर हो जाना हो या स्कूल में दाख़िला लेना हो, अपवाद स्वरूप ही शिक्षक अपनी व्यक्तिगत हैसियत में इनके लिए एकल रूप से ज़िम्मेदार होते हैं। उदाहरण के तौर पर, जबकि किसी ख़ास प्रसंग में यह संभव है कि कोई छात्र किसी शिक्षक के कारण स्कूल छोड़ दे या उसमें प्रवेश ले ले, सामान्य तौर पर ये समाजशास्त्रीय परिघटनाएँ हैं। हमारे देश में अधिकतर बच्चों का स्कूल इसलिए छूट जाता है कि उनके परिवार आर्थिक रूप से अस्थिर जीवन जीते हैं, उन्हें विस्थापित कर दिया जाता है, उनके स्कूल में पर्याप्त संसाधन नहीं होते, स्कूल नज़दीक व सामाजिक रूप से सुलभ नहीं होता है आदि। इसके अलावा, ऐसे अन्यायपूर्ण व शिक्षा के चरित्र से असंगत मूल्याँकन बिंदु शिक्षकों के बीच में अनुचित भेदभाव रचते हैं। ज़ाहिर है कि सभी शिक्षक एक-समान स्थितियों में काम नहीं कर रहे हैं। ऐसे में उनपर परिणाम, छात्रवृत्ति, 'ड्राप-आउट' व दाख़िलों में बढ़ोतरी की समान मूल्याँकन शर्तें थोपना बेहद अनुचित है। अगर कहीं स्कूल बंद होने की कगार पर हैं, आसपास की आबादी घट गई या सामाजिक रूप से सरकारी स्कूल के लिए बदल गई है, पड़ोस में खेत उजाड़ दिए गए हैं, बस्तियाँ ढहा दी गई हैं या कारख़ाने बंद हो गए हैं तो फिर शिक्षक संख्या के घटने-बढ़ने में क्या भूमिका अदा कर सकते हैं? सिवाय इसके कि वो अपनी सामाजिक कार्यकर्ता की भूमिका में आकर संगठित व आंदोलित हों और अर्बन नक्सल का ख़िताब पायें। हाँ, इसके लिए उन्हें क्या मिलेगा यह कहना मुश्किल है, लेकिन ACR में कोई अंक तो नहीं मिलेंगे। इसी तरह, हर स्कूल के परिवेश, पड़ोस के समुदाय की आर्थिक-सामाजिक ही नहीं बल्कि भाषाई व शैक्षिक परिस्थिति भी अलग-अलग होती है। कहीं दी गई पाठ्यचर्या के हिसाब से पढ़ाना आसान होता है, कहीं बेहद मुश्किल। ऐसे में इन अनिश्चित व असमान अवयवों को ACR में मूल्याँकन के लिए इस्तेमाल करना शिक्षकों के साथ समग्र रूप में व उनके बीच में बड़े वर्ग के साथ बेईमानी है। क्या इस बात पर ग़ौर किया गया है कि जब ऐसे मूल्याँकन का शिक्षकों, प्रधानाचार्यों आदि की सेवा-परिस्थितियों व लाभों पर नकारात्मक असर नज़र आना शुरु होगा तब संभावित दंड/नुक़सान से बचने के लिए चुनौतीपूर्ण बच्चों व स्कूलों से दूर रहने, उनसे बचने के हथकंडे भी अपनाये जायेंगे? ऐसे में हम पिछली ACR के उस बिंदु की सराहना करते हैं जिसमें क्षेत्रीय व वार्ड स्तर पर विभिन्न कार्यक्रमों व परीक्षाओं में विद्यार्थियों की हिस्सेदारी के लिए प्रधानाचार्यों का 10 अंकों का मूल्याँकन तय था, मगर यह परिणाम-आधारित नहीं था। 
6. शिक्षण की स्वायत्तता ख़त्म करके उसे एक निर्धारित ढर्रे पर चलाने के स्पष्ट संकेत ACR के नए स्वरूप में मिलते हैं। तीन उदाहरण उल्लेखनीय हैं - नैतिक शिक्षा को, पहले की तरह अव्याख्यायित न छोड़कर, 'निर्धारित कार्यक्रम' के अनुसार संपन्न कराने, साप्ताहिक डायरी को पाठ्यक्रम के अनुसार तैयार करने व सप्ताह में लिए जाने वाले श्रुतलेखों की न्यूनतम संख्या के ज़िक्र। इस तरह से तक़रीबन 10-15% मूल्याँकन शिक्षक को स्कूल/कक्षा में तयशुदा व्यवहार करने को बाध्य करता है। यह शिक्षकों के बौद्धिक कर्म में सीधा हस्तक्षेप ही नहीं बल्कि उसपर एक हमला है। ऊपर के उस बिंदु से यह पूरी तरह मेल खाता है जिसमें न सिर्फ़ शिक्षक की स्वायत्तता को नकारा गया है बल्कि शिक्षण को एक बौद्धिक कर्म के रूप में भी नहीं देखा गया है। तय रूपरेखा के अनुसार नैतिक शिक्षा देने की बात करना तो नैतिकता व विवेक के साथ भी धोखा है क्योंकि नैतिकता बहस और तर्क करने व कठिन सवाल खड़े करने की सार्वजनिक, ईमानदार व निर्भीक क़वायद की माँग करती है। इस निर्देश में एक डर काम कर रहा है जो स्कूलों के माध्यम से समस्त समाज व सोच को अपने कब्ज़े में लेकर एक साँचे में डालना चाहता है। तेज़ी से उभरते इस केंद्रीकृत व तानाशाही विधान में शिक्षक को बुद्धिजीवी के रूप में बर्दाश्त नहीं किया जायेगा। उसे सरकारी मुलाज़िम होने के नाते महज़ एक अनुशासित, मूक व विवेकहीन आदेशपालक बनकर रहना है। ऐसा नहीं है कि इसका फ़ायदा केवल सरकारें उठायेंगी। शिक्षक व शिक्षण की यह बाह्य-संचालित संकल्पना शिक्षा को बाज़ार की वस्तु बनाकर व्यापार करने वाली देशी-विदेशी कंपनियों के भी काम आएगी। उनके लिए व्यावसायिक एवं घटिया स्तर की तयशुदा पाठ-योजनाओं, टेस्ट, शिक्षण सामग्री आदि को शिक्षकों पर लादना व कक्षाओं में घुसाना आसान हो जायेगा। 
7. पिछले और वर्तमान ACR स्वरूपों में एक फ़र्क़ यह भी है कि अब स्व-मूल्याँकन का कोई स्थान नहीं है। इसके पहले लिखाई व स्वास्थ्य को शिक्षक द्वारा ख़ुद भी, अंकों के निर्धारण के बिना, मूल्याँकित किया जाता था और इन दो तत्वों का प्रधानाचार्य द्वारा भी मूल्याँकन (अंकों में) होता था। इस रोचक तथ्य का घोषित कारण तो ज्ञात नहीं है मगर इतना ज़रूर कहा जा सकता है कि एक तो इससे शिक्षक अपने बारे में कोई मूल्यपरक घोषणा कर पाते थे और फिर यह किसी प्रकार के भेदभावपूर्ण मूल्याँकन के प्रति एक तरह का उपाय भी था। आख़िर, कोई पूछ सकता था कि लिखाई व सेहत को लेकर उसके व प्रधानाचार्य के मूल्याँकन के बीच में इतना ज़्यादा अंतर् क्यों है। इस बदलाव के बदले, हमारा मानना है कि शिक्षकों के लिए स्व-मूल्याँकन व साथियों के मूल्याँकन को भी समुचित महत्व देना चाहिए। इससे न सिर्फ़ आत्मविश्वास, जवाबदेह होने का अहसास, कर्ता का बोध आदि बढ़ता है बल्कि एक पेशागत क़ाबीलियत को भी प्रोत्साहन मिल सकता है।
ऐसा भी नहीं है कि पिछले ACR में कोई कमी नहीं थी और नई में तारीफ़ के क़ाबिल कुछ भी नहीं है। दरअसल, आधुनिक और लोकतांत्रिक व्यवस्था में हम यह उम्मीद करते हैं कि पिछली ग़लतियाँ दोहराई नहीं जाएँगी और भले ही सबकुछ ठीक न हो, समग्र रूप से बेहतर समझ और इंसाफ़ की एक मोटी रेखा तो दिखाई देगी। तो, इसके बावजूद कि पिछली रपट के स्वरूप में भी अभिभावकों व स्टाफ़ से अधिक उच्च-अधिकारियों के साथ संबंध मधुर होने पर ज़ोर था या फिर नए स्वरूप में पुस्तकालय, पर्यावरण के प्रति जागरूकता व शिक्षक-अभिभावक बैठकें कराने जैसे सकारात्मक तत्वों पर बल दिया गया है, हमारे पास नई ACR से निराश होने व इसका विरोध करने के पर्याप्त कारण हैं। यह सच है कि शिक्षकों को हतोत्साहित करने के लिए ACR के स्वरूप में विशिष्ट बदलाव किये गए हैं, मगर हमें याद रखना चाहिए कि अलग-अलग तरीक़ों से ऐसा सार्वजनिक क्षेत्र के सभी कर्मचारियों के साथ हो रहा है।   
एक बिंदु इससे अधिक पड़ताल की माँग करता हैं और विस्तृत नज़रिये की ज़मीन भी तैयार करता है। जहाँ पिछली ACR में 95% से अधिक की उपस्थिति पर अधिकतम 5 अंक मिलते थे और शून्य 75% से कम के लिए तय था, वहीं नई रपट में 81% से अधिक के लिए अधिकतम 5 तथा 20% से कम के लिए भी 1 तय है। इसी तरह, समग्र रूप से जो चार श्रेणियाँ तय थीं, उत्कृष्ट, बहुत अच्छा, अच्छा व साधारण, उनके न्यूनतम मापदंड क्रमशः 83% से 75%, 67% से 61%, 52% से 50% एवं 36% से शून्य ('50 से कम') कर दिए गए हैं। मूल्याँकन के इस पहलू को हम अधिक उदार कह सकते हैं लेकिन इसकी और सटीक व्याख्या करनी होगी। संभव है कि वार्षिक उपस्थिति व समग्र मूल्याँकन को लेकर ये पैमाने इस कारण शामिल हुए हों कि नई ACR को तैयार करने में प्रशासन के उन विभागों व अधिकारियों ने काम किया है जिन्हें स्कूली शिक्षा व्यवस्था की जानकारी नहीं है। वहीं अगर हम इस तथ्य पर ग़ौर करें कि कैसे नई ACR के अंतर्गत शिक्षकों के लिए लगभग 30% मूल्याँकन अंक तो वैसे भी पारिस्थितिक अनिश्चितता के घेरे में आते हैं एवं अनुचित माँग करते हैं तो हम इस नए स्वरूप की 'उदारता' के नक़ाब को उतार के फेंक सकते हैं। यह स्वरूप शिक्षाविदों या शिक्षा अधिकारियों द्वारा भी नहीं बल्कि उस DoPT द्वारा तैयार किया गया है जिसने निश्चित ही सातवें वेतन आयोग व नीति आयोग के आदेशानुसार कर्मचारियों के सालाना मूल्याँकन को उनके 'काम के तयशुदा परिणामों' (आउटकम्ज़) के आधार पर सख़्ती से कसने की नीति अपनाई है। ऐसा करके कर्मचारियों की प्रोन्नति के लिए ज़रूरी न्यूनतम मूल्याँकन मापदंड भी बढ़ा दिए गए हैं और प्रोन्नति की संभावना को दूर की कौड़ी बनाया जा रहा है। आज कार्य की कठिन परिस्थितियों से जूझ रहे कई कर्मचारियों के सामने जबरन सेवा-निवृत्ति (वॉलन्टरी रिटायरमेंट) व बिना प्रोन्नति की उम्मीद के नौकरी के विकल्प मुँह उठाये खड़े हैं। उधर सरकार ने तय कर लिया है कि वो उच्च प्रशासनिक पदों पर निजी क्षेत्र से सीधे नियुक्तियाँ करेगी। कई लोग इसे संविधान के विरुद्ध बता रहे हैं ,मगर सरकार अपनी पूँजीवाद-परास्त तानाशाही के नशे में मदहोश है। इसी तर्ज पर, 'नाकाम' शिक्षकों के बदले स्कूलों में एनजीओ व कॉरपोरेट जगत के अप्रशिक्षित 'वालंटियर्स' को स्कूलों में पढ़ाने की ज़िम्मेदारी देने का चलन तेज़ी पकड़ता जा रहा है। नई शिक्षा नीति के ताज़े ड्राफ़्ट में गणित व पढ़ने के मौलिक कौशलों के विकास के लिए 'अधिगम के संकट' की दुहाई देते हुए एक राष्ट्रीय ट्यूटर्स एजेंसी निर्मित करने की बात की गई है। इस तरह सरकार की नाक के नीचे और उसकी शह से जो काम अब तक शिक्षा अधिकार अधिनियम के ख़िलाफ़ जाकर हो रहा था, अब उसे वैधानिकृत ढंग से किया जायेगा। इधर सार्वजनिक व्यवस्था के कर्मचारियों को प्रताड़ित करके, उनपर तरह-तरह से दबाव डालकर उन्हें हतोत्साहित करने की नीति अपनाई जा रही है; उधर निजी क्षेत्र की भलमनसाहत और कार्यकुशलता के क़सीदे रचकर उसे सार्वजनिक संसाधन कब्ज़ाने और हमारी ज़िंदगी तय करने वाली ग़ैर-जवाबदेह ताक़त सौंपी जा रही है। हम शिक्षकों को वार्षिक गोपनीय रपट के अन्यायपूर्ण मूल्याँकन मापदंडों व शिक्षा को पूँजी की गिरफ़्त में धकेलती अपमानजनक कुशिक्षा नीति के ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी होगी, वर्ना कल हमारी और हमारे पेशे, दोनों की रही-सही गरिमा भी नहीं बचेगी। 

Monday 1 July 2019

दिल्ली सरकार के स्कूलों में दाखिलों में आ रही रुकावटों के सन्दर्भ में


प्रति
शिक्षा मंत्री
दिल्ली सरकार, दिल्ली

विषय : दिल्ली सरकार के स्कूलों में दाखिलों में आ रही रुकावटों  के सन्दर्भ में

महोदय,
लोक शिक्षक मंच बच्चों के शिक्षा के अधिकार को बाधित कर रहे कुछ कारणों को आपके संज्ञान में लाना चाहता है। पिछले कुछ समय से हमने दिल्ली के कुछ इलाक़ों में ऐसे बच्चों की शिनाख़्त की है जिन्हें या तो स्कूल में दाख़िला कभी मिला ही नहीं या फिर विभिन्न मजबूरी-भरी परिस्थितियों के चलते उनका 'नाम कट गया' और जब उन्होंने दोबारा पढ़ाई जारी रखने की इच्छा जताई तो उन्हें स्कूल से निराशा हाथ लगी| हम आपके सामने शिक्षा का अधिकार अधिनियम (2009) जैसे मौलिक हक़ के क़ानूनी वायदे के बावजूद बहुत-से बच्चों को प्रवेश न मिल पाने के कुछ कारण प्रस्तुत कर रहे हैं -      
·         शिक्षा अधिकार अधिनियम के प्रावधानों के ख़िलाफ़ जाकर: पहली या नर्सरी कक्षा में भी प्रवेश लेना चाह रहे बच्चों के माता-पिता से बच्चे का जन्म-प्रमाण पत्र जमा कराने की अनिवार्य शर्त रखी जाती है और प्रवेश लेने के लिए अंतिम तिथियाँ घोषित कर दी जाती हैं| जिस शहर और देश में बहुसंख्यक लोग असंगठित क्षेत्रों में असुरक्षित व अस्थाई रूप से काम करते हों तथा जिनका आवास भी स्थाई न हो बल्कि जो एक जगह से दूसरी जगह लगातार प्रवास करने को मजबूर हों, उनके बच्चों पर अंतिम तिथि कहकर स्कूल के दरवाज़े बंद करने का क्या मतलब है?
·         ऐसे अनेक माता-पिता हैं जो यह सोचकर ही बच्चे का दाखिला स्कूल में करवाने नहीं जा रहे हैं कि उनके पास बच्चे का आधार कार्ड नहीं है| पिछले 2-3 सालों के दाखिले की प्रक्रिया के अनुभवों/दुष्प्रचार ने ही उनकी इस ग़लतफ़हमी को जन्म दिया है पर जिस दौर में सरकारी नीतियों के प्रचार के लिए अक्सर रेडियो, पीटीएम अथवा एसएमसी मीटिंग्स का इस्तेमाल किया जाता है उस दौर में अभिभावकों को बिना शर्त दाखिले की बात समझाने के लिए कोई प्रयास होता नहीं दिखाई देता|
·         ऐसे अनेक बच्चे हैं जिनके पास दिल्ली के पते के पक्के कागज़ न होने के कारण दाखिले नहीं दिए जा रहे हैं| आज तक ऐसे अभिभावक एफिडेविट/घोषणा पत्र के आधार पर ही दाखिला लेते आए थे और धीरे-धीरे अन्य कागज़ जमा किया करते थे| परन्तु इस साल सरकार द्वारा दाखिलों के लिए ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन की प्रक्रिया शुरू की गई है जिसमें घोषणा/शपथ-पत्र का विकल्प ही नहीं रखा गया है| इसका मतलब यह हुआ कि जब तक बच्ची स्कूल में दिल्ली की रिहाइश के पक्के कागज़ जमा नहीं करेगी, उसका दाखिला तो दूर की बात रजिस्ट्रेशन तक नहीं होगा| यह उनके साथ धोखेबाज़ी है|
·         एक बड़ी समस्या यह भी है कि अगर बच्चे अपने रिश्तेदारों – नानी, दादी, मामा, बुआ, चाचा, मौसी आदि- के घर रहकर सरकारी स्कूल में दाखिला लेना चाहते हैं तो भी उन्हें ऑनलाइन रजिस्ट्रेशन में समस्या आ रही है| या अगर वे अपने माता-पिता के कार्यस्थल के नज़दीक वाले स्कूल में दाखिला लेना चाहते हैं तो भी बिना घोषणापत्र के विकल्प के उनका दाखिला तकनीकी दांव-पेंच में अटक जाएगा| दरअसल जो विशिष्ट वर्ग ऐसी नीतियाँ और संबंधित कंप्यूटरीकृत प्रोग्राम बनाता है वह सरकारी स्कूलों के बच्चों की सच्चाई से कोसों दूर हैं या कोई और ही उल्लू सीधा कर रहा है|
·         ऐसे भी अनेक केस सामने आए जिनमें आधार में बच्चे या माता-पिता के नाम अथवा बच्चे की जन्म तिथि में कुछ गलती के चलते भी बच्चों के दाखिले टल रहे हैं| बावजूद इसके कि माता-पिता घोषणा पत्र में सही जानकारी लिखकर दे रहे हैं और आधार में सुधार करने का समय मांग रहे हैं, विद्यालय दाखिले का फॉर्म न ही दे रहे हैं न ही जमा कर रहे हैं
·         अगर बच्चे यह भी कह रहे हैं कि वे किसी मान्यता प्राप्त स्कूल से पढ़कर नहीं आए हैं या कभी स्कूल नहीं गए हैं, तब भी उन्हें यह कहकर स्कूल से लौटाया जा रहा है कि किसी भी तरह पुराने स्कूल से एसएलसी लाओ| यह बच्चों को बाहर धकेलना का एक और बहाना मात्र है|
·         ये सभी बहाने उन स्कूलों में गंभीर रूप ले रहे हैं जिनमें पहले से ही बच्चों की संख्या ज़्यादा है और कक्षाएं कम हैं| इसमें दो राय नहीं है कि ऐसे में कक्षाओं और स्कूलों की संख्या बढनी चाहिए| लेकिन अगर किसी स्कूल में कमरों व शिक्षकों की RTE अधिनियम सम्मत संख्या के हिसाब से जगह नहीं है तो भी इसका समाधान यह नहीं है कि अन्य बच्चों को दाख़िला ही न दिया जाये। कितने ही अभिभावकों ने कहा, "अगर सरकारी स्कूल दाखिला नहीं देंगे तो बच्चे कहाँ पढ़ेंगे?' या अगर किसी इलाके का निगम स्कूल भी दिल्ली सरकार के स्कूलों की तरह सीटें भर जाने का तर्क दे, तो फिर इन बच्चों का दाख़िला कहाँ होगा?
·         दाख़िला प्रक्रिया को तकनीकी के जाल में लपेटकर इस क़दर जटिल बना दिया गया है कि अक़्सर सदाशयी शिक्षक व प्रधानाचार्य भी बच्चों के हितों की रक्षा कर पाने की स्थिति में नहीं होते। ऑनलाइन प्रक्रिया में प्रवेश लेना चाह रहे बच्चों की ऐसी जानकारी को भरना अनिवार्य कर दिया जाता है जोकि क़ानून की दृष्टि से अनिवार्य नहीं है। कहा जाता है कि इस जानकारी के बिना विद्यार्थी की पहचान संख्या (आई डी) जारी नहीं हो पायेगा और फिर उसे वज़ीफ़े आदि नहीं मिल पायेंगे। मगर यह एक ग़लत तर्क है क्योंकि जब दाख़िला ही नहीं मिलेगा तो वज़ीफ़ा कहाँ से आएगा?

सरकारी की उदासीनता और नाकामी की सज़ा बच्चे नहीं भुगत सकते। उपरोक्त बिंदुओं से लगता है कि सरकार शिक्षा अधिकार अधिनियम के कुछ प्रावधानों का इस्तेमाल करके इसके मुख्य उद्देश्य और वायदे, एक संवैधानिक मौलिक अधिकार, को ही विफल कर रही है। हम मांग करते हैं –
·    सरकार स्वयं बच्चों को दाखिले में आने वाली समस्याओं की ज़मीनी हक़ीक़त का ईमानदारी से पता लगाए और फिर उन कारणों को दूर करे जो बच्चों का हक़ मार रहे हैं। सरकार व बाल अधिकार संरक्षण आयोग को एक निर्पेक्ष व खुली जाँच कराकर यह पता लगाना चाहिए कि प्रवेश व वज़ीफे-लाभ की कौन-सी व्यवस्था बच्चों के अधिकारों को अधिक आसानी से सुनिश्चित करती है तथा उनके अभिभावकों के लिए सुलभ-सुगम साबित होती है। इसके लिए सिर्फ़ स्कूल के अंदर के नहीं, बल्कि ज़मीन पर जाकर उन परिवारों से बात करनी होगी जिनके बच्चे स्कूलों से बाहर हैं। साथ ही, पता लगाना होगा कि फ़ीडर स्कूल से आये कितने बच्चों की नियमित कक्षाएँ एक अप्रैल से लग रही हैं और जिनकी नहीं लग रहीं तो क्यों।   
·      हमारा मानना है कि प्रवेश फ़ॉर्म व प्रक्रिया में 'आधार' और बैंक खाते का कोई उल्लेख ही नहीं होना चाहिए ताकि बच्चों के अधिकार के उल्लंघन की नौबत ही न आये।
·      हमें ज्ञात हुआ कि स्कूलों पर यह दबाव रहता है कि वो सत्र शुरु होने के बादएक समय-सीमा के अंदर सभी विद्यार्थियों के 'आधार' व खातों की सूची विभागीय कार्यालय को भेजें। इस सूची में विलंब अथवा इसके अधूरे होने पर स्कूलों (प्रधानाचार्यों/शिक्षकों) से जवाब माँगा जाता है जिससे बचने के लिए फिर वो प्रवेश से पहले ही बच्चों के माता-पिता पर इन 'वैकल्पिक' दस्तावेज़ों को जमा करने का दबाव बनाते हैं। ज़ाहिर है कि प्रशासन/सरकार की नीति के चलते ही अभिभावकों व स्कूलों के बीच एक अस्वस्थ रिश्ता व व्यवहार पनप रहा है और बच्चों की शिक्षा का हक़ मारा जा रहा है। स्कूलों पर यह अनुचित दबाव बनाना बंद किया जाए|
·         हमारा अनुभव बताता है कि प्रवेश प्रक्रिया को जबरन ऑनलाइन करने के पूर्व के वर्षों में न सिर्फ़ फ़ीडर स्कूलों के सभी बच्चों का दिल्ली सरकार के स्कूलों की छठी कक्षा में दाख़िला आसानी से हो जाता था, बल्कि उनकी नई कक्षा की पढ़ाई भी बिना एक दिन की देरी के, एक अप्रैल से ही शुरु हो जाती थी। यह समझ से बाहर है कि जो बच्चे नियमित स्कूली व्यवस्था (नगर निगम या अन्य मान्यता-प्राप्त स्कूल) से पढ़कर आ रहे हैं और जिनकी रिपोर्ट कार्ड व SLC जैसे प्रामाणिक दस्तावेज़ पहले-ही पड़ोस के दिल्ली सरकार के स्कूल को भेज दिए जाते हैं, उनके माता-पिता को दोबारा दाख़िले की प्रक्रिया में कई दिनों तक क्यों उलझाया जाता है। इस प्रक्रिया को पहले की तरह सुलभ बनाया जाए|  
·         इसी तरह, हमारा मानना है कि विद्यार्थियों को वर्दी, किताबें, बस्ते आदि प्रत्यक्ष रूप से दिया जाना इनके बदले राशि देने से (वो भी खातों की शर्त के साथ) कहीं सरल-सुलभ है। उस व्यवस्था में न किसी बच्चे को प्रशासनिक दबाव के चलते प्रवेश से वंचित होना पड़ता था और वज़ीफ़े या सामग्री भी, बिना अपवाद और बिना धक्के खाये, सबको मिल जाते थे।
·         सरकार द्वारा जारी कुछ आदेशों में स्कूल के अंदर अभिभावकों की मदद के लिए हैल्प-डेस्क, बैनर आदि की व्यवस्था करने की बात कही गई है। हमारा अनुभव बताता है कि इनकी ज़रूरत स्कूल के बाहर भी है। साथ ही, CRC या SMC अदि के नाम से जो समितियाँ या अधिकारी बच्चों के अधिकार को सुनिश्चित करने के लिए निर्देशित हैं, उनके नाम, पते, संपर्क की जानकारी तो हर स्कूल के बाहर तथा स्थानीय जन-प्रतिनिधियों के दफ़्तरों में प्रमुखता से लगी होनी चाहिए। 
·         हमने यह भी पाया कि जब कहीं और से छठी-सातवीं पढ़कर कोई 14 साल से अधिक उम्र का बच्चा-बच्ची दिल्ली सरकार के स्कूल की आठवीं कक्षा में प्रवेश लेना चाहता/चाहती है तो उसे शिक्षा अधिकार अधिनियम का ग़लत हवाला देकर, कि उसकी उम्र क़ानून में निर्दिष्ट दायरे से बाहर हो गई है, मना कर दिया जाता है। हमारी जानकारी में उक्त क़ानून हर बच्चे को आठवीं कक्षा तक की पढ़ाई पूरी करने का हक़ देता है, चाहे उसकी उम्र 14 से अधिक भी क्यों न हो गई हो। अगर सरकार ने सचमुच अपने दफ़्तरी आदेशों में ऐसी ग़लत व्याख्या रखी है, तो उसे जल्द-से-जल्द क़ानून सम्मत बनाने की ज़रूरत है। 

एक विद्यालय की एडमिशन इंचार्ज के शब्दों में, 'मैं न्यायपूर्ण ढंग से दाखिले तभी कर सकती हूँ जब मेरी जवाबदेही सिर्फ बच्चों के प्रति हो|'

सधन्यवाद


सदस्य, संयोजक समिति          सदस्य, संयोजक समिति

लोक शिक्षक मंच                               लोक शिक्षक मंच




प्रतिलिपि : 
मानव संसाधन विकास मंत्री, भारत सरकार
नेता विपक्ष, दिल्ली विधान सभा
राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग
दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग