Saturday 22 December 2018

क्या हमारे लड़के #वीटू के लिए तैयार हैं?


#मीटू ने हमें अपने बच्चों से बात शुरु करने का एक सुनहरा मौक़ा प्रदान किया है 

                                                                             शैलजा सेन (द इंडियन ऐक्सप्रेस, दिसंबर 1, 2018)

एक 14 साल के लड़के ने, जिससे मैं हाल-ही में मिली थी, ऐलान किया, "अगर आप [लड़कों] किसी लड़की के साथ नहीं हैं तो आपको समलैंगिक समझा जायेगा!" उसने आगे बताया कि कैसे उसकी सचमुच में जोड़ी बनाने की इच्छा नहीं थी, मगर क्योंकि आपको स्वयं को मर्द सिद्ध करना है, इसलिए इसका और कोई उपाय नहीं था। क्योंकि मैं इस 'मर्द बनने' के मामले को जानने की जिज्ञासू थी, उसने मुझे लड़कों के बड़े होने की एक दहलीज पार करने की उस रस्म का संक्षिप्त परिचय दिया जिससे होकर उनमें से कम-से-कम कुछ का ग़ुज़रना अपेक्षित था। 
सर्वप्रथम, इसकी एक भाषा थी - लड़कियों को 'चिक्स' कहा जाता है; जो 'स्लट' ['बदचलन' औरत के लिए इस्तेमाल होने वाला दुर्वचन] स्वयं को 'उधर बाहर प्रस्तुत करतीं' वो 'हो' (वेश्या के लिए एक दुर्वचन) थीं; और "thot" का मायने था "दैट हो ओवर देयर" या यहाँ तक कि "थर्स्टी हो ओवर देयर"। इसमें "आक्रामक पॉर्न" देखने का ज़िक्र था, और ओरल सैक्स से जुड़ी अवश्यंभावी हाई स्कूली तल्लीनता।  
क्या आपको यह भाषा आपत्तिजनक लगी? क्या इस छोटे लड़के को ऐसी बेफ़िक्री से, बिना किसी असहजता के बात करते हुए देखकर मैं अचंभित थी? यक़ीनन। 
हालाँकि, जो चीज़ मुझे सबसे ज़्यादा महसूस हुई वो 'मर्द दिखने' और फ़िट होने की चाह में भरसक प्रयास कर रहे इस लड़के के प्रति करुणा थी। वो मुझसे पहली बार अपने भ्रमों के बारे में बात कर रहा था क्योंकि उसे लगता था कि उनकी "नासमझी" की वजह से उसका अपने माता-पिता से बात करना व्यर्थ था।   
हम अपने लड़कों से इन नाज़ुक मुद्दों पर बात करने से बचते क्यों हैं? जैसा कि 13 साल के एक लड़के की माँ ने मुझे बताया, "मैं जानती हूँ कि वो नेट पर पॉर्न देख रहा है, मगर मैं उससे इस बारे में बात नहीं कर सकती।" एक अन्य पिता ने इसे यह कहकर ख़ारिज कर दिया कि लड़के तो लड़के रहेंगे। यह स्तंभ लिखते हुए मैंने अपने दोस्तों, परिवारजनों और कुछ चिकित्सा ग्राहकों के बीच एक अनौपचारिक सर्वे किया और उनसे पूछा कि क्या उन्होंने अपने बच्चों के साथ #मीटू पर चर्चा की थी। जवाब "नहीं" से लेकर "सोचा भी नहीं कि मुझे इसकी ज़रूरत थी", "वो बहुत छोटे हैं", "वो इतने बड़े हैं कि अपना मत ख़ुद बना सकें", "समय नहीं मिला" तक मिले। बहुत कम लोगों ने "हाँ"में जवाब दिया और इनमें से अधिकांश ने अपनी बेटियों से बात की थी। और जब उन्होंने किया भी, तो यह अधिकतर #मीटू से जुड़ी ख़बरों पर चर्चा के रूप में था या यहाँ तक कि मज़ाक के तौर पर भी। 
अपने बच्चों व युवाओं के साथ #मीटू पर मेरी कुछ बेहद सार्थक चर्चाएँ हुई हैं और किसी अन्य चीज़ के मुक़ाबले मैंने उनसे कहीं अधिक सीखा है। 
अभिभावकों के रूप में हम क्या कर सकते हैं? क्या ऐसे तरीक़े हैं जिनसे हम अपने लड़कों को इन लैंगिक मुद्दों के बारे में और अधिक संवेदनशील व जागरूक बना सकते हैं? 

1. हमें अपने घरों और स्कूलों में अपने लड़कों के साथ लैंगिक राजनीति के संदर्भ में ताक़त पर बात करने की ज़रूरत है। बच्चों को "पुरुष और महिला बराबर हैं" का पाठ पढ़ाना बेमानी है, जबकि वो चारों ओर से पितृसत्ता से घिरे हैं। अपने बच्चों से बातचीत शुरु करने के अवसर के रूप में #मीटू एक बेहतरीन मौक़ा है। केवल एकबारगी नहीं, बल्कि विभिन्न उम्र व पड़ावों पर लगातार। अपने किशोरावस्था के लड़कों से पूछिए कि वो इसके बारे में क्या सोचते हैं। उन्हें नैतिकता के तराज़ू पर तौले या शर्मिंदा किये बिना सुनिए, तब भी जबकि आपको लगे कि वो सैक्सिस्ट या उपेक्षापूर्ण हैं। अगर आपको ये चर्चा असहज करती है तब भी ठीक है, क्योंकि वास्तविक होने के लिए इस विषय पर सभी चर्चाएँ असहज ही होंगी। उभरते शोध परिणाम व्यापक रूप से यह बताते हैं कि जो लड़के अपनी भावनाओं के संपर्क में रहते हैं और जिन्हें इसके बारे में बात करने के सुरक्षित अवसर मिलते हैं, वो अपने व्यवहार को अधिक कारगर ढंग से नियंत्रित कर पाते हैं।  

2. उन्हें कहिये कि वो एक लड़की के दृष्टिकोण को समझें व उसे जानने की पहल करें। मेरी 17-वर्षीय बेटी ने हमें एक पारिवारिक बातचीत में बताया, "जब मैं अकेले बाहर होती हूँ तब मैं कभी भी पूरी तरह-से आज़ाद नहीं होती हूँ - मेट्रो में, सड़कों पर चलते हुए, कॉलोनी में साइकिल चलाते वक़्त। लड़कियों के बतौर हमें इस भय के साथ जीना सिखाया जाता है, जोकि इस समय मेरा अभिन्न अंग है। मुझे नहीं लगता कि मैं कभी इससे उबर पाऊँगी।" एक अन्य किशोरी ने, पारिवारिक चिकित्सा के एक सत्र में, साझा किया कि उससे जुड़ी शर्म व कलंक के मारे कैसे वह बचपन में अपने साथ हुए यौन शोषण पर ख़ामोश रही। "तुमने मुझपर विश्वास ही नहीं किया होता, तो फ़ायदा ही क्या था?" जब उसके भाई ने उसे यह कहते हुए सुना तो उसके शब्दों के सच को महसूस करके वह रो पड़ा।  

3. हर बच्चे को यह मंत्र सीखने की ज़रूरत है, "यह शरीर तुम्हारा है, तुम फ़ैसला करो।" कम उम्र के लड़कों को सहमति के मायने समझने में मदद करने के लिए आप दो अलग-अलग कथानकों की एक छोटी-सी नाटिका खेल सकते हैं जिसमें आप एक दूर के पुरुष रिश्तेदार (अंकल) की भूमिका निभा सकते हैं। पहले कथानक में आप उन्हें खींचकर बाहों में ले लें व दूसरे में आप उनसे पूछें, "क्या मैं तुम्हें गले लगा लूँ?" और अगर वो साफ़तौर से "हाँ" कहें तो आप उन्हें गले लगाएँ तथा अगर वो "नहीं" कहें तो शालीनता से इसे स्वीकार करें। नाटिका के बाद उनसे बात करें कि उन्हें कौन-सी स्थिति में अधिक आश्वस्त महसूस हुआ और किसमें उन्हें लगा कि उन्हें एक वस्तु मानकर उनकी मर्ज़ी या आवाज़ को दरकिनार किया गया। जैसा कि एक 18-वर्षीय युवक ने मुझे बताया, "जब आप पूछते हैं तो चीज़ें साफ़ हो जाती हैं; तब बीच की आशंका या शायद का ख़याल नहीं रहता है। "

4. अतिक्रमण व हदों को समझने के लिए लड़कों को यह जानने की ज़रूरत है कि इनमें चार तत्व शामिल हैं - सहमति, ताक़त की बराबरी, उम्र का लिहाज़ एवं संदर्भ (स्थान)। आप इसे एक उदाहरण से समझा सकते हैं। मान लीजिये कि एक स्कूल बस में बारहवीं कक्षा के एक लड़के ने छठी कक्षा की एक लड़की को उसकी सहमति से छुआ है, तब भी तीन कारणों से यह अतिक्रमण की श्रेणी में आयेगा - ताक़त की बराबरी (वह काफ़ी बड़ा है), यह उस लड़की की उम्र के लिहाज़ से उचित नहीं है और इस बर्ताव का संदर्भ ग़लत है। 

5. इस बात की चर्चा करें कि कैसे भाषा ताक़त से इस क़दर उलझी हुई है और कैसे "स्लट", "हो" या "थॉट" जैसे शब्द शर्मिंदा करने वाली उस संस्कृति को बढ़ावा देते हैं जिसका सामना महिलाओं को करना पड़ता है। आप अपने अनुभव भी साझा कर सकते हैं क्योंकि यह सीखना समृद्ध करता है। एक माँ का यह बताना कि कॉलेज की पुरुष-वर्चस्व वाली कक्षा में उसे कितना असहज लगा था या सड़क पर सुनी किसी टिप्पणी को साझा करना उन्हें लड़कियों के प्रति अधिक समानुभूतिपूर्ण बनाएगा। जब लड़के समानुभूति विकसित करेंगे, केवल तब ही वो लिंगभेद जैसे मुद्दों को समझ पायेंगे और जान पायेंगे कि लड़की होने के क्या मतलब हैं व अश्लील तथा भद्दी टिप्पणियों व चुटकुलों का असर क्या होता है। 

6. उन्हें मीडिया के विश्लेषण से परिचित करायें ताकि वो हमारी फ़िल्मों, प्रचारों व मीडिया में महिलाओं के प्रत्यक्ष व परोक्ष वस्तुकरण को भेद पायें। जब मेरे बच्चे छोटे थे तब हम मिलकर यह खेल खेला करते थे जहाँ हम यह भेद जानने की कोशिश करते थे कि प्रचारक हमें बेवक़ूफ़ बनाकर कौन-सा सामान ख़रीदने को फुसला रहे थे। 

7. यह बहुत ज़रूरी है कि वो, अपनी उम्र के स्तर के मुताबिक़, पॉक्सो अधिनियम में परिभाषित क़ानूनी निहितार्थ समझें, जिनके अनुसार, ग़लत या सही, यौन संबंध बनाने पर 18 साल से कम उम्र के बच्चों पर भी मुक़दमा चलाया जा सकता है, भले ही उसमें सहमति रही हो या नहीं। 
समस्या कहीं बाहर नहीं है, हम सब समस्या का हिस्सा हैं और पितृसत्ता की संस्कृति के शोरबे में तैर रहे हैं। तो वो क्या है जो हमें अभिभावकों, शिक्षकों व चिंतित व्यक्तियों के रूप में करना चाहिए? मेरे लिए इसका जवाब सरल है - संस्थागत स्तर पर मज़बूत करने वाला न्याय जो सबके लिए इंसाफ़ और ज़ख़्म भरने को तवज्जो देता है। इसे समझने के लिए #मीटू अहम था, लेकिन अब हमें #वीटू जैसे एक एकजुटता के आंदोलन की ओर आगे बढ़ने की ज़रूरत है। 

  (डॉ. सेन एक थेरेपिस्ट हैं और बाल व किशोर मानसिक स्वास्थ्य संस्थान, चिल्ड्रन फ़र्स्ट की सह-संस्थापक हैं।)      
(द इंडियन ऐक्सप्रेस से साभार)   

Friday 16 November 2018

छत्तीसगढ़: एनजीओ के जाल में फंसे सरकारी स्कूल

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छत्तीसगढ़ में रमन सिंह सरकार ने सरकारी स्कूलों को अपने चहेते लोगों के एनजीओ के हवाले करके बरबाद करने की जो साजिश की, उसके दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं।

chhattisgarh school

स्कूली बच्चों को पढ़ाने और शिक्षकों को प्रशिक्षण देने का काम अब एनजीओ के हवाले ही है।

नईदुनिया की रिपोर्ट के मुताबिक, बहुत सारे संस्थान अलग-अलग जिलों में अपना प्रयोग कर रहे हैं, और राज्य शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद (एससीईआरटी) में भी किताब लेखन के काम में ज्यादातर एनजीओ ही हावी हैं और शिक्षकों की भूमिका इसमें काफी सीमित हो गई है।

पिछले सालों में अपडेट हुईं किताबों में दिगंतर, विद्या भवन सोसाइटी, एकलव्य, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन, आइसीसी फाउंडेशन आदि ने काम किया है।

राज्य में बच्चों के किताब लेखन के लिए एससीईआरटी और जिलों के डाइट्स के औचित्य पर सवाल खड़े हो रहे हैं। इसी तरह, सर्व शिक्षा अभियान के तहत शाला त्यागी बच्चों के लिए हुमाना पीपुल टू पीपुल इंडिया की ओर से प्रस्तावित किताब कदम को छपवाकर पढ़ाया जा रहा है जो कि हरियाणा की संस्था है। रूम टू रीड संस्था बच्चों को लाइब्रेरी में किताबें उपलब्ध करा रही है।

यही हाल ट्रेनिंग व्यवस्था का है। एससीईआरटी और डाइट्स के बजाय एनजीओ ही यह काम कर रहे हैं। इसके तहत, एलएलएफ यानी लर्निंग लैंग्वेज फाउंडेशन शिक्षकों को ट्रेंड होने का सर्टिफिकेट देता है। चॉकलेट संस्था शरीर प्रताड़ना किये बगैर बच्चों को पढ़ाने का गुर सिखाता है। द टीचर एप संस्थान द टीचर एप के जरिए शिक्षकों को ऑनलाइन ट्रेनिंग देता है। इसी तरह, अजीम प्रेमजी फाउंडेशन शिक्षकों को टीचर्स प्रोफेशनल डेवेलपमेंट में काम कर रहा है। आइएफआइजी शिक्षकों में लैंग्वेज का काम रहा है।

नईदुनिया की रिपोर्ट के अनुसार, संपर्क क्लास के जरिए अंग्रेजी और गणित के लिए किट दी जा रही है। वहीं बाधवानी फाउंडेशन की ओर राष्ट्रीय माध्यमिक शिक्षा अभियान (आरएमएसए) में वोकेशनल कोर्स के लिए इस संस्थान के मॉड्यूल पर काम हो रहा है। आउटसोर्सिंग के जरिये वोकेशनल की पढ़ाई चल रही है। लर्निंग लिंक फाउंडेशन और मैजिक बस फाउंडेशन दोनों संस्थान मिलकर दिशा कार्यक्रम चला रहे हैं। राज्य के 89 मिडिल स्कूल में इसमें संज्ञानात्मक और सह संज्ञानात्मक क्षमता बढ़ाने के लिए काम कर रहे हैं।

इसी तरह, आरटीई वाच और प्रथम संस्था बच्चों के उपलब्धि स्तर और मूलभूत सुविधाओं की जांच कर रहे हैं।

कुल मिलाकर, सारी स्कूली व्यवस्था एनजीओ के सुपुर्द कर दी गई है और शिक्षकों की भूमिका बहुत सीमित हो चुकी है।
(hindi.sabrangindia.in से साभार) 

Monday 17 September 2018

स्कूलों को डाटा इकट्ठा करने के केंद्र बनाना बंद करो !!

स्कूलों पर जनविरोधी व गैरआकादमिक आदेश नहीं सहेंगे !!


दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग द्वारा 11 सितम्बर को केवल अंग्रेज़ी में जारी किए गए सर्कुलर ‘Collecting comprehensive data in respect of students studying in Govt. Schools of Delhi’ (संख्या- No. DE.23 ( Z63)/ Sch.Br./2018/87) में स्कूलों को यह निर्देश दिए गए कि वे बच्चों से उनके परिवार के सदस्यों (माता-पिता/अभिभावक तथा सभी भाई-बहन) के वोटर कार्ड, आधार कार्ड, वर्तमान एवं स्थाई निवास के मालिकाना स्वरूप तथा शैक्षिक योग्यता की जानकारी इकट्ठा करें|

लोक शिक्षक मंच इस सर्कुलर का पुरज़ोर विरोध करता है| इस आदेश को अनुचित और तरनाक मानते हुए हम इसे ख़ारिज करते हैं और निम्नलिखित आपत्तियाँ दर्ज करते हैं -

1. ऐसा प्रतीत होता है कि सरकारों ने विशेषकर सरकारी स्कूलों को डाटा इकट्ठा करने के केंद्र बना दिया है| शिक्षकों पर बच्चों की आधार संख्या, बैंक अकाउंट, फ़ोन नं. आदि जानकारियों को इकट्ठा करने के लिए ज़बरदस्त दबाव है| सरकार ने हमें शिक्षक से ज़्यादा आधार व बैंकों के एजेंट बना दिया है| इस कड़ी में यह सर्कुलर हमें हमारे कादमिक और शैक्षणिक काम से और दूर ले जाता है और इस मायने में ग़ैरक़ानूनी भी है|

2. यह स्पष्ट हो चला है कि दुनियाभर की नवउदारवादी सरकारें नागरिकों के आँकड़ों को अपने प्रचार और लोगों की एक-एक बात पर नज़र रखने और उनपर नियंत्रण करने के लिए इस्तेमाल कर रही हैं| साथ ही, यह इन आँकड़ों को कंपनियों को उपलब्ध कराकर उनके व्यापारिक हित साधने का खेल भी है| ऐसे में हम इस सर्कुलर को शक की निगाह से क्यों न देखें?

3. इस सर्कुलर ने शिक्षकों को अभिभावकों के सामने कटघरे में खड़ा करना शुरु कर दिया है| अभिभावक शक और डर के साथ स्कूल आकर शिक्षकों से सवाल कर रहे हैं कि उन्हें ये आँकड़े क्यों चाहिए| आँकड़े देने से इंकार करने वाले या दिए हुए आँकड़ों को वापस माँगने वाले अभिभावकों की संख्या बढ़ेगी और इस घटना के बाद माता-पिता का स्कूलों तथा शिक्षकों पर विश्वास घटेगा| समुदाय में शिक्षकों की जिस वैधता का दुरुपयोग करके सरकार यह काम करना चाह रही है, ऐसे आदेशों से वह वैधता ही ख़तरे में पड़ रही है|

4. यह तानाशाही का अभिमान नहीं तो क्या है कि विद्यार्थियों की इतनी महत्वपूर्ण जानकारी माँगने से पहले सरकार को कोई झूठे या लुभावने कारण भी बताना ज़रूरी नहीं लगा| क्या विभाग चाह रहा था कि शिक्षक कैसे भी, साम-दाम-दंड भेद का इस्तेमाल करके यह जानकारी इकट्ठा कर लें?
5. दस दिन में इतनी गम्भीर और विस्तारपूर्वक जानकारी इकट्ठा करने की क्या एमरजेंसी हो सकती है? स्पष्ट है कि सरकार चाहती थी कि इससे पहले कि शिक्षक व अभिभावक इस आदेश की चाल समझ पाएँ या इसपर प्रश्न उठा पाएँ या इसके खिलाफ़ आंदोलित हो पाएँ या अदालत जा पाएँ, लाखों बच्चों व उनके परिवारों की जानकारी उस तक पहुँच चुकी हो|   

6. यह अफ़सोसजनक है कि इस सर्कुलर ने स्कूलों में शिक्षकों को दोराहे पर खड़ा कर दिया हैI जहाँ एक तर हमारा पेशा हमें अपने विद्यार्थियों को निजता, गरिमा, आज़ादी और अधिकारों के प्रति सचेत करने का दायित्व देता है, वहीं दूसरी तर इस तरह के आदेश शिक्षकों को विद्यार्थियों के हितों और अधिकारों के खिलाफ़ जाकर बिचौलिये की भूमिका निभाने पर मजबूर करते हैं

7. सर्कुलर के साथ दिये गए फ़ॉर्म में परिवार के मकान के स्वामित्व के बारे में भी जानकारी माँगी गयी है - यानि, बच्चे के परिवार को बताना होगा कि वो अपने मकान में रहता है या किराए के मकान में| इससे आदेश की नीयत के बारे में हमारा संदेह और गहरा हो जाता है| आज देशभर में जनता को भारतीय–ग़ैरभारतीय, राष्ट्रवादी-देशद्रोही में बाँटने की जो राजनीति चल रही है, उसमें क्या गारंटी है कि आज धोखे से इकट्ठे किये गए ये आँकड़े कल दिल्ली में रहने वालों को दिल्लीवाले और बाहरवालेसाबित करने के लिए इस्तेमाल नहीं किये जायेंगे? हम जानते हैं कि हमारे स्कूलों के बच्चे जिस वर्ग से आते हैं, उसमें सभी परिवारों के पास ऐसे दस्तावेज़ नहीं होंगे या वे देना नहीं चाहेंगे| दस्तावेज़ का न होना कोई अपराध नहीं है, लेकिन यह बहुत संभव है कि भविष्य में शिक्षा विभाग की यह मुहिम ऐसे लोगों को बेहद असुरक्षित बना दे या अपराधी तक घोषित कर दे|

8. विभाग द्वारा डाटा की ‘जाँच, डिजिटलाइज़ेशन और विश्लेषण’ जैसे उद्देश्यों का क्या अर्थ निकाला जाए? इस सर्कुलर में एक रहस्यमयी थर्ड पार्टी का उल्लेख है जिसे इकट्ठा की गयी सारी जानकारियों की ‘जाँच, डिजिटलाइज़ेशन और विश्लेषण’ का ठेका दिया जाएगा| जबकि यह भी स्पष्ट नहीं है कि ये थर्ड पार्टीनिजी है या सार्वजानिक, इस बात पर भरोसा नहीं किया जा सकता है कि यह रहस्यमयी एजेन्सी इस डाटा का दुरुपयोग नहीं करेगी|

हम सरकार को याद दिलाते हैं कि स्कूल शिक्षा का केंद्र हैं, डाटा उत्पादन केंद्र नहीं, हमारे विद्यार्थी चिंतनशील प्राणी हैं, मात्र आँकड़े नहीं और हम शिक्षक जनता से जुड़े बुद्धिजीवी हैं, मूक आदेशपालक नहीं| हम सरकार से माँग करते हैं कि इस आदेश को तुरंत प्रभाव से निरस्त किया जाए और स्कूलों पर इस तरह के जनविरोधी व गैरआकादमिक आदेश थोपना बंद किया जाए|   







Wednesday 5 September 2018

पांच सितंबर "शिक्षक दिवस " पर कुछ सवाल

फ़िरोज़ 
प्राथमिक शिक्षक

हर साल की तरह इस बार भी 'शिक्षक दिवस' पर विचलित करने के लिए प्रर्याप्त कारण हैं। मगर यह लगभग तय है कि हर साल की तरह इस बार भी हमारे अधिकतर स्कूलों में यह दिन पारंपरिक ढर्रे से मनाया जाएगा। अलबत्ता यह ख़बर ज़रूर आई थी कि दिल्ली के कई निजी स्कूलों ने, शिक्षकों के ख़िलाफ़ हुई अनुचित कार्रवाइयों के प्रति अपना विरोध दर्ज करने के उद्देश्य से, शिक्षक दिवस नहीं मनाने या फिर हल्के ढंग से मनाने का फ़ैसला किया है। यह कहना मुश्किल है कि इन स्कूलों ने यह फ़ैसला शिक्षकों के स्तर पर लिया है या प्रबंधन के स्तर पर। बहरहाल, अख़बार की रिपोर्ट के अनुसार उनके विरोध का मुख्य कारण शिक्षकों को उन घटनाओं के लिए भी ज़िम्मेदार ठहराया जाना है जो उनके बस में नहीं हैं। इधर दिल्ली सरकार के स्कूलों के शिक्षकों के चयनित संगठन ने भी एक पत्र द्वारा बायोमेट्रिक हाज़िरी के प्रति अपना विरोध जताया है, हालांकि उन्होंने न तो इसे शिक्षक दिवस से जोड़ा है और न ही निजता व मानव गरिमा के हनन तथा राज्य-कारपोरेट गठजोड़ की निरंकुश सत्ता के ख़तरे से। कार्य परिस्थितियों व पेशागत गरिमा पर तमाम तरह के कुठाराघात झेलने के बावजूद हमारे बीच किसी सैद्धांतिक, सुविचारित विरोध की कोई सुगबुगाहट नहीं है, आंदोलन की बात तो छोड़ दीजिए। आपसी बातचीत में यह विचार प्राय: सुनने में आता है कि हमारे संगठनों ने आंदोलन की राह छोड़ दी है और उनकी वो भूमिका नज़र नहीं आती है वक़्त को जिसकी दरकार है। उदाहरण के लिए निम्नलिखित फ़रमानों को देखा जा सकता है जिनका सांगठनिक विरोध सुनने में नहीं आया -
शिक्षकों को अपने घर में शौचालय होने और हर सदस्य द्वारा उसके इस्तेमाल के बारे में एक हलफ़नामा देना होगा।
शिक्षकों की वार्षिक रिपोर्ट में स्कूल से बाहर हो जाने वाले विद्यार्थियों के लिए उन्हें ज़िम्मेदार ठहराकर उनके अंक काटे जाएंगे।
शिक्षकों को 'शालीनता' दिखाने वाले वस्त्र पहनने होंगे और जींस आदि जैसे वस्त्र पहनने की इजाज़त नहीं होगी।
शिक्षकों को अमुक विषय, अमुक प्रकार से, अमुक समय पर कराना होगा।
ज़ाहिर है कि यह फ़ेहरिस्त लंबी है और यहां एक बानगी ही दी गई है। आशय यह है कि न सिर्फ़ हमारे पेशे के अकादमिक व बुद्धिजीवी चरित्र पर हमले किए गए हैं, बल्कि हमारे इंसानी अस्तित्व तक को कुचलने की कोशिश की गई है। और हमारी प्रतिक्रिया एक शर्मनाक व समझौतापरस्त तटस्थता अथवा समर्पण की रही है। स्कूलों में न न्यूनतम संरचनात्मक सुविधाएं मुहैया कराई जाएंगी और न ही उचित संख्या में कर्मचारी दिए जाएंगे - बल्कि यह नेक आदेशात्मक सलाह दी जाएगी कि ऊंची तनख़्वाह लेने वाले शिक्षक ख़ुद ही चंदा करके एक अनियमित सफ़ाई कर्मचारी रख लें। मगर हां, सफ़ाई न रहने पर दंडात्मक कार्रवाई ज़रूर की जाएगी। इसी तर्ज पर देश के राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार के लिए पढ़ाने से ज़्यादा महत्वपूर्ण सरकारी कार्यक्रमों में योगदान देना और स्कूल के लिए चंदा जुटाना हो गया है। 
उधर देश के अधिकतर शिक्षकों को शायद यह भी नहीं पता कि जिसके नाम पर वो और उनके स्कूल शिक्षक दिवस नाम का जश्न मनाते हैं उनका सामाजिक-शैक्षिक योगदान क्या था। अंग्रेजी शासन के दौरान भी न वो राजनीतिक रूप से सक्रिय थे और न ही सामाजिक बदलाव की किसी मुहिम से जुड़े थे। हालांकि अपने आप में इसे कोई अपराध क़रार देना ज़्यादती होगी मगर इस तथ्य से इंकार नहीं किया जा सकता कि उनके जन्मदिन को शिक्षक दिवस के रूप में मनाकर हम एक समर्पित या संघर्षशील शिक्षक को इज़्ज़त नहीं दे रहे होते हैं बल्कि राष्ट्रपति के रूप में सत्ता के शीर्ष पर विराजमान शक्ति व सफलता को नतमस्तक हो रहे होते हैं। फिर उस इंसान की विनम्रता के बारे में अधिक कुछ क्या कहा जा सकता है जो अपने जन्मदिन को ख़ुद ही एक सार्वजनिक दिवस के रूप में मनाने का प्रस्ताव देता है! जब देश के अलग-अलग इलाक़ों के कई संगठन व बहुत से शिक्षक पांच सितंबर की जगह तीन जनवरी या ग्यारह अप्रैल को शिक्षक दिवस के रूप में मना रहे हैं तो हमें भी यह जानने की कोशिश करनी चाहिए कि ये तिथियां किन लोगों से जुड़ी हैं और उनके सामाजिक-शैक्षिक योगदान में ऐसा क्या था जो हमें वैज्ञानिक चेतना तथा जनता के प्रति समर्पित कर्म की प्रेरणा देता है। मेरे जैसे व्यक्ति को भी, जिसने ख़ासा समय विश्वविद्यालय में बिताया, यह बहुत बाद में पता चला कि जिस शख़्स की सालगिरह को देशभर में सरकारी प्रयोजन से शिक्षक दिवस के रूप में मनाया जाता है, उसपर एक विद्यार्थी ने उसके शोधग्रंथ के अंशों की नक़ल करके अपनी किताब में इस्तेमाल करने के गंभीर इल्ज़ाम लगाए थे। यह इल्ज़ाम साबित नहीं हुए मगर क्योंकि दोनों पक्षों में एक प्रकार का समझौता हो गया इसलिए इतिहास ने इन्हें ख़ारिज भी नहीं किया। वैसे, अगर द्रोणाचार्य और एकलव्य को याद करें तो ऐसे इल्ज़ामों को हमारी राष्ट्रीय परंपरा में कोई विसंगति नहीं माना जा सकता है। यह कृतज्ञ राष्ट्र एक को सर्वश्रेष्ठ कोच के इनाम के नाम से सम्मानित करता है और दूसरे के नाम शिक्षक दिवस कर देता है।
इस बीच स्कूलों में इस पेशे के नाम समर्पित मौक़े पर विद्यार्थी शिक्षकों की भूमिका निभाकर सजते-संवरते हैं, पार्टी करते हैं और शिक्षक से ज़्यादा वयस्क होने व ताक़त का छद्म स्वाद चखते हैं। सिवाय महिमा मंडन व आत्म-प्रशंसा के, शिक्षा, शिक्षक या शिक्षण पर कोई सार्थक चर्चा नहीं होती है। न स्कूलों में और न ही सरकारी पुरस्कार समारोहों में। चाहे वो स्कूलों के अंदर शिक्षक दिवस मनाने का हमारा व विद्यार्थियों का सतही अंदाज़ हो या फिर सत्ता की अपमानजनक नीतियों व कर्मकांडी समारोहों की कवायद, 5 सितंबर के शिक्षक दिवस का इतिहास इससे अधिक उम्मीद पालने या हैरान होने की गुंजाइश नहीं छोड़ता है। ज़रूरत इतिहास को खंगालकर एक नई राह चलने की है।  

Saturday 9 June 2018

पत्र: एनडीटीवी के प्राइमटाइम की प्रतिक्रिया

 यह पत्र दिल्ली के स्कूलों में काम करने वाले शिक्षकों ने एनडीटीवी के प्राइमटाइम पर दिल्ली सरकार के स्कूलों पर दी गयी रिपोर्ट की प्रतिक्रिया में लिखी गयी, हालाँकि इसका जबाव अभी तक भी नहीं आया है. ..... ........                 संपादक 

आदरणीय रवीश जीसोमवार दिनांक 28 मई को आपके कार्यक्रम Primetime पर दिल्ली सरकार के स्कूलों पर एक रिपोर्ट देखी। रिपोर्ट देख कर कुछ निराशा सी हुई। आपके programme पर propaganda देखने की आदत नही है। यह सही है कि दिल्ली सरकार ने अपने स्कूलों में infrastructure को काफी बेहतर बनाया हैऔर यह ज़रूरी भी है। लेकिन शिक्षा सिर्फ स्कूलों के infrastructure improve हो जाने से बेहतर नहीं हो जाती। ना ही CBSE की board की परीक्षा में आये नंबर इसका मापदंड हो सकते हैं। CBSE marks are only an indicator of good rote learning and we are sure you know that! फिर इसे भी नज़रंदाज़ नहीं किया जा सकता कि 'अच्छेपरिणामों को पाने के लिए कैसे 'साधारणविद्यार्थियों को पहले ही बाहर कर दिया जाता है और कैसे व्ययव्था तरह-तरह के समझौतावादी हथकंडे अपनाती है।आम जनता आजकलinfrastructure की चकाचौंध और नम्बरों जैसे ऊपरी दिखावों को ही कई बार पूरा सत्य मान लेती है। और जब वह सत्य आपके कार्यक्रम में दिखाया जाता है तब तो कोई संदेह बचता ही नहीं।
हम कुछ teachers सरकारी स्कूलों में पढ़ाते हैं। हम इस दिखावे से त्रस्त हैं। शिक्षा का स्तर गिराया जा रहा है। सारा ध्यान infrastructure और दिखावे की चीज़ों पर है। एक swimming pool से सजी इमारत के अंदर किस स्तर और तरह की शिक्षा दी जा रही हैकितने स्कूलों में ये सहूलियतें हैं और कितने विद्यार्थियों को उपलब्ध हैं
केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार की शिक्षा नीतियों में फ़र्क़ हो सकता है लेकिन दिल्ली के सरकारी स्कूलों में भी कमज़ोर तबकों से आने वाले बच्चों को उसी तरह जबरन वोकेशनल विषयों की तरफ़ धकेला जा रहा है जिस तरह केंद्र सरकारस्किलिंग के नाम परअपनी घोषित-अघोषित नीतियों में निर्देश दे रही है। इससे न सिर्फ़ लैंगिक भेदभाव मज़बूत हो रहा है - छात्रों एवं छात्राओं के स्कूलों के वोकेशनल कोर्सों की तुलना करके देख सकते हैं - और स्कूलों के अकादमिक चरित्र की क़ीमत पर सतही व बाज़ारू विषयों को घुसाया जा रहा हैबल्कि इन बच्चों की उच्च शिक्षा के रास्ते भी सिकुड़ रहे हैं। इसी तरह,अगर एक तरफ़ केंद्र सरकार कोर्स को आधा करने की मंशा जता रही है तो दिल्ली सरकार ने भी तीसरी कक्षा से नौवीं कक्षा तक बच्चों को न सिर्फ़ उनके तथाकथित अधिगम स्तर के अनुसार बांटने का शिक्षाशास्त्रीय दृष्टि से बेहद ग़लत काम किया है बल्कि NCERT की किताबों व पाठ्यक्रम की जगह हल्की सामग्री लागू कर दी है। असल मेंअगर आप छानबीन करेंगे तो पायेंगे कि दोनों ही सरकारों में एक ही तरह की निजी संस्थाओं के कर्ताधर्ता बहुत ताक़तवर मगर ग़ैर-जवाबदेह स्थिति में हैं। दिल्ली सरकार के शिक्षा विभाग के नीति-निर्माण और कार्यवाही में NGOs का बहुत दख़ल है। ये अपने आप में एक चिंता का विषय है क्योंकि एक तो इनकी शिक्षा की समझ ही ग़लत हैऔर दूसरे इससे SCERT/NCERT/विश्वविद्यालयों के शिक्षा विभागों जैसे सार्वजनिक व अकादमिक संस्थान कमज़ोर किए जा रहे हैं। इसी कड़ी में आपको उस निर्णय को भी देखना होगा जिसके तहत इस सरकार ने सभी विद्यालयों को बराबरी के आधार पर चलाने के बजाय पिछली और बाक़ी सरकारों की तरह ही एक और विशिष्ट श्रेणी के स्कूल (schools of excellence) खोलकर असमानता की परतों को और गहरा कर दिया है। (आम व ख़ास ट्रेनों के बीच का फ़र्क़ और इससे होने वाले नुक़सान को आप से बेहतर कौन समझ सकता है!) यह सूची लंबी है पर एक तो एक अपीलीय ख़त की शिष्टता व सीमा भी कोई चीज़ होती है और दूसरे हमें आपकी छानबीन की पेशागत क़ाबीलियत पर भी भरोसा है। लगे हाथों आपको यह भी बताते चलें कि शिक्षकों को बिना इजाज़त सरकार की नीतियों और कार्यक्रमों पर मीडिया में बोलने-लिखने की अनुमति नहीं है।
आपको निराश करने का मन तो नहीं था मगर क्या करेंहम शिक्षा से जुड़े हुए और इससे प्यार करने वाले लोग इस डर से चुप नहीं बैठ सकते कि दिल्ली सरकार की शानदार दिखने वाली शिक्षा नीतियों की आलोचना करके हम भाजपा-कांग्रेस के हाथ मज़बूत कर देंगे या एक तुलनात्मक रूप से कम हिंसक व अधिक साफ़ ऐसी सरकार को नुक़सान पहुंचा देंगे जिससे आम तथा प्रगतिशील लोगों ने काफ़ी उम्मीद रखी थी/है। ऐसा भी नहीं है कि कुछ भी अच्छा नहीं हुआ है। निश्चित ही स्कूल मैनेजमेंट समितियां पहले से बहुत मज़बूत हुई हैं और स्कूलों के भवनों व उनके रखरखाव में सुधार हुआ है। हालांकियह भी एक पड़ताल का विषय हो सकता है कि क्या ये सभी जगह एक सा या ज़रूरत के हिसाब से हुआ है। हमारी चिंता वहीं है जो आपकी पत्रकारिता में झलकती है - मीडिया मैनेजमेंट और ऊपरी चकाचौंध के प्रकाश में हक़ीक़त कहीं छुप न जाए। ये ख़तरा तब और बढ़ जाता है जब 'कुछ अच्छेके साथ और उसकी आड़ में बहुत कुछ ख़राब व ख़तरनाक भी हो रहा हो और जनता के हितैषी-विश्वसनीय पत्रकार व बुद्धिजीवी भी न सिर्फ़ इसे देख न पा रहे हों बल्कि अनजाने में ही उसके यशगान में शामिल हो जाएं। 
            अगर आपको ज़रूरी लगे तो हम इस विषय पर आपसे और बातें साझा कर सकते हैं।
                        दिल्ली के कुछ शिक्षक

Sunday 20 May 2018

शिक्षा की बुनियाद को कमज़ोर करता ‘मिशन बुनियाद’




हाल में दिल्ली शिक्षा मंत्रालय ने अपनी सारी जान स्कूलों में मिशन बुनियाद चलाने में लगाई | यह एक ऐसा कार्यक्रम है जो कहता है कि 30 जून 2018 तक कक्षा 3 - 9 के प्रत्येक विद्यार्थी को  हिंदी में सरल कहानी पढ़ना, 1-2 वाक्य लिखना और गणित में घटा भाग के सवाल हल करना जाएगा | 30 जून तक हर स्कूल को लिखित में certify करना होगा कि उसका हर विद्यार्थी यह कर पा रहा है | और अगर किसी स्कूल में ऐसा नहीं हुआ तो उसके प्रधानाचार्य     और शिक्षक जवाबदेह होंगे कि ऐसा क्यों नहीं हो पाया तो इसमें समस्या क्या है? अगर प्रत्येक विद्यार्थी हिंदी पढ़ना-लिखना सीख जाए और घटा-भाग कर पाए तो इसमें समस्या क्या है?  

पहली समस्या: मिशन बुनियाद शिक्षा की बुनियादकमज़ोर करता है

मिशन बुनियाद की रूप रेखा तैयार करने वालों ने यह कैसे तय किया कि मौलिक कौशल केवल भाषा और गणितमें तय होने चाहिए? उन्होंने यह किस आधार पर तय किया कि भाग कर पानागणित का अंतिम टेस्ट है? इसके पीछे कौन-सी रिसर्च है कि हल्की-फुल्की कहानियाँ पढ़ाना हिंदी सिखाने का बढ़िया तरीका है? उनके पास क्या अनुभव है कि बच्चे बिना हिंदी लिखे पर्यावरण या इतिहास का बोध विकसित नहीं कर सकते?

अगर हम मिशन बुनियाद के तहत आईं हिंदी की कहानियों का विश्लेषण करें तो पाएंगे कि ये 1-2 पन्नों के अनुच्छेदकहानीकहलाने के लायक नहीं हैं | अपने विद्यार्थियों को पढ़ाने से पहले हमें स्वयं इन कहानियों का विश्लेषण करने की ज़रुरत है | क्या साहित्य में कहानी के कुछ मानक होते हैं? अगर हाँ, तो क्याप्रथमकी ये कहानियाँ उन मानकों पर खरी उतरती हैं? ये कहानियाँ संदर्भविहीन हैं जिनमें एक झूठी चमक, मुस्कराहट पैदा करने की कोशिश की जाती है | क्या इन कहानियों में सामाजिक सच्चाई की झलक मिलती है? अगर ये कहानियाँ बच्चों के स्मृतिकोष नहीं बढाएंगी तो ये खोखली और बनावटी हैं | हमें अपने अनुभव से याद करना होगा कि जीवन में श्रेष्ठ साहित्य का क्या महत्व है |

इन कहानियों से क्या मूल्य निकलते हैं? क्या ऐसी कहानियां पढ़कर हमारे विद्यार्थी सामाजिक सच्चाई को समझने और व्यक्त करने के औज़ार विकसित कर पाएंगे ? क्या ऐसी सामग्री उन्हें उच्चस्तरीय चिन्तन और संवाद करने में मदद करेगी ? कोई पाठ धाराप्रवाह पढ़ने का यह अर्थ नहीं होता कि उस पाठ का बोध भी हो जाए | क्या घटिया सामग्री पढ़ाकर हम अपने विद्यार्थियों में साहित्य के प्रति रूचि जगा सकते हैं ? बल्कि ऐसा करके तो हम अपने विद्यार्थियों को गहरी सामग्री पढ़ने की आदत से दूर ले जाएंगे | अगर साथ में विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, खेल, कला की शिक्षा चलती रहती तो कौन-सा समय निकल जाता? सरकार को किसको आंकड़ें पूरे करके दिखाने थे? हमें खोजना होगा कि प्रथम NGO और NCERT द्वारा कहानियों की छंटाई करने में क्या फ़र्क है | हर विषय का एक शिक्षादर्शन होता है जो उस विषय की पाठ्यचर्या का आधार होता है | प्रथम की इन किताबों का कोई शिक्षा दर्शन नहीं है |
     
बार-बार यह दोहरा कर कि बच्चों को कुछ नहीं आता हम उन्हें घटिया शिक्षा नहीं परोस सकते | शिक्षा को नीचे गिराकर ऊँचे अकादमिक उद्देश्य नहीं पा सकते | हमारा यह सोचना कि ऐसी किताबें मात्र 2 महीने पढ़ानी हैं हमारी भूल होगी | पिछले 2 सालों से हम प्रगति की किताबें पढ़ा रहे हैं और आगे भी किसी--किसी रूप में पढ़ाते रहेंगे | केवल सरल भाषा हो जाने से किताब अच्छी नहीं हो जाती | बार-बार यह कहने से कि सरकारी स्कुल के बच्चे पढ़ नहीं पा रहे , यह अफ़वाह सच में नहीं बदल जायेगी | अगर 35-40 बच्चों की कक्षा में किन्हीं कारणवश 10-20 बच्चे अपनी कक्षा की किताब नहीं पढ़ पा रहे तो उन पर विशेष ध्यान देने की आवश्यकता है लेकिन उनकी शिक्षा के स्तर को गिराकर हम उनका भला नहीं कर रहे | सरकारों को अपने आंकड़ें प्रदर्शित करने होते हैं इसलिए वे ऐसे ही मानक चुनते हैं जिन्हें गिना और नापा जा सके इसलिए पूरी शिक्षा को सरल कहानी और भाग के प्रश्नों में सिकोड़ दिया गया है | हमें यह भी समझना होगा कि ऐसी घटिया किस्म की शिक्षा परोसने की योजना में दिल्ली सरकार और MCD में कोई मतभेद या टकराव क्यों नहीं है | 

दूसरी समस्या: मिशन बुनियाद बच्चों को अनिवार्यत: बांटकर पढ़ाने की हिमायत करता है

कक्षा III – IX के विद्यार्थियों को नवनिष्ठा, निष्ठा, प्रतिभा नाम के समूहों में बाँटकर उनकी कक्षाओं को तोड़ दिया गया है | यह शिक्षा में जातिवाद नहीं तो क्या है जहाँ 814 साल के बच्चों को होशियारऔर ‘non readers’ में बाँट दिया गया है | सरकार अवश्य हर सेमिनार में यह कहे कि बच्चों के अंदर हीन भावना विकसित होने दें पर जैसे मंत्रियों द्वारा कुछ दलितों के घर खाना खा लेने से दलित उत्पीड़न खत्म नहीं हो जाता, वैसे ही शब्दों के फ़ेर बदल करने से यह संस्थागत ऊँच-नीच खत्म नहीं हो जाती |

पिछले 2-3 सालों में कितने ही बच्चे अपने शिक्षकों के सामने गिड़गिडाएं हैं कि उन्हें निष्ठा/B सेक्शन में डाला जाए | उन्होंने अपने शिक्षकों से धमकियाँ सुनी हैं कि तुम्हें निष्ठामें डाल देंगे | बच्चों के मनोविज्ञान पर इससे जो क्षति पहुंची होगी उसे अभी लम्बे समय तक नहीं समझा जा सकता | कहाँ गया वो शिक्षा दर्शन जो कहता था कि बच्चे एक दुसरे से सीखते हैं, शिक्षा समतामूलक होनी चाहिए ? बच्चों को बाँट कर पढ़ाना उनके बीच ऊँच-नीच पैदा करने से कम नहीं है |

और तो और PTM को भी सरकारी प्रचार का प्लेटफार्म बना दिया गया है जिसमें हम अभिभावकों को मिशन बुनियाद, आधार संख्या, GST, छोटी बच्चियों के लिए प्रोविडेंट फण्ड आदि सरकारी कार्यक्रम बेच रहे होते हैं | हमारे समाज में आज भी अभिभावक अपने बच्चों के भले-बुरे के लिए शिक्षक की सलाह पर विश्वास करते हैं और शायद इसलिए सरकारें हमेशा शिक्षकों का इस्तेमाल सेल्सपर्सन्स की तरह करना चाहती हैं |

तीसरी समस्या : यहशिक्षकों की बुनियादको कमज़ोर करता है

इस कार्यक्रम का एक असर यह भी हो रहा है कि शिक्षक उदासीन महसूस कर रहे हैं, बोर हो रहे हैं क्योंकि उनके काम में कोई रस, कल्पनाशीलता तथा originality नहीं बची है | ऐसे कार्यक्रम विद्यार्थियों के साथ शिक्षकों को भी dumbify कर रहे हैं | हमारे हाथों में ट्रेनिंग मैन्युअल पकड़ा दिए गए हैं और हमारा काम केवल उन्हें कार्यान्वित करना है | एक-एक स्कूल की एक-एक कक्षा की एक-एक गतिविधि पर नज़र रखी जा रही है; यह सुनिश्चित किया जा रहा है कि किस कक्षा में, किस दिन, क्या, कितना तथा कैसे पढ़ाया जाए | निरीक्षण का ऐसा भय बिठा दिया गया है कि शिक्षक आकाओं को खुश करने वाले बने-बनाए प्लान कॉपी-पेस्ट करने में लगे हैं |

दुनियाभर में एनजीओ यह साबित करने में लगे हैं कि स्कूलों में DIET, B.El.Ed., B.Ed. आदि कोर्स पढ़कर आए शिक्षकों की नहीं बल्कि ऐसे कर्मचारियों की ज़रुरत है जो उनके बनाए lesson plans deliver कर सकें | एक दिन वे यह भी साबित करेंगे कि उनके action plans इतने फूलप्रूफ हैं कि होटल या बैंक कर्मचारी भी कक्षाओं में कार्यान्वित कर सकते हैं | इसलिए शिक्षक कोई ऐसा विशेष मानसिक श्रम नहीं कर रहे जिसके लिए उन्हें ज़्यादा तनख्वाहें दी जाएं|

बुनियादमें प्रदर्शन के आधार पर ACR में प्रविष्टियाँ दर्ज करने और शिक्षक दिवस पर पुरस्कृत किये जाने की बात करना ऐसे प्रायोजित कार्यक्रमों की मक्कारी उजागर करता है | यह मैच फिक्स्ड है| अगर आप इस मॉड्यूल से सिखा नहीं पाते हैं तो आपके प्रयास में कमी है और अगर सिखा देते हैं तो यह मॉड्यूल की सफलता है और फिर शिक्षा शिक्षकों की क़ब्र खोदने के लिए देशभर में इसका प्रचार-प्रसार किया जायेगाI

हमें भुला दिया गया है कि शिक्षक के उद्देश्य कक्षानुसार या उससे भी ऊपर होने चाहियें | आज हम यह सोच कर जश्न मनाने लगे हैं कि मेरे बच्चों कोभाग गया | ये तो कभी भी हमारे मानक नहीं थे ! यह हमारी शब्दावली और सोच पर गहरी चोट छोड़ देने वाला प्रहार है | हमें भुला दिया गया है कि सीखना-सिखाना एक जटिल प्रक्रिया है जो फ़ास्ट-फॉरवर्ड नहीं की जा सकती |

हमारे बीच कुछ शिक्षक बीमार हो रहे हैं, स्ट्रेस में हैं क्योंकि उनके सामने 8-9 साल के ऐसे बच्चे भी हैं जो विभिन्न कारणों से कक्षानुसार नहीं सीख पाएं ; अनुपस्थिति, विशेष ज़रूरतों वाले बच्चे, अपनी दुनिया में मस्त रहने वाले बच्चे आदि | कहा जाता है कि शिक्षण तो ऐसा पेशा है जिसमें बच्चे अपनी गति से, समय से सीखते हैं लेकिन मिशन बुनियाद इस सच्चाई को नकारता है | इसके अंतर्गत बच्चों के बीच व्यक्तिगत विभेद सराहनीय नहीं डरावने तथा अवांछनीय हैं | अगर हम शिक्षकों को इतना स्ट्रेस है तो बच्चों के मानस पर इसका क्या असर हो रहा होगा ? क्या हम विद्यार्थियों से यह पूछ पाने की स्थिति में हैं किक्या वे एक ही ढंग से एक ही तरह की कहानियाँ पढ़ कर बोर हो गए हैं, रोज़ एक ही तरह के प्रश्न करके बोर तो नहीं हो गए ?’ अगर नहीं, तो हम अपने विद्यार्थियों के साथ अपना स्वायत्त रिश्ता खो रहे हैं | हमारी हालत नोटबंदी के दौरान उन बैंक कर्मचारियों की तरह हो गयी है, जिन्हें बैंकिंग के अलावा सरे अन्य काम करने में खपा दिया गया था |

अगर कोई शिक्षिका अपने विवेक से आपत्ति उठाए तो एक जवाब अटल सत्य की तरह तैयार खड़ा है  हम सरकारी नौकर हैं इसलिए आँख बंद करके आदेशों का पालन करना होगा | अगर निरीक्षण हुआ तो आपका काम नहीं आपका आज्ञापालन जांचा जाएगा’ | ऐसे गुलाम शिक्षकों के बच्चे क्या आज़ाद परिंदे हो सकते हैं? ऐसे डरे हुए शिक्षक क्या कक्षा में बच्चों को भयमुक्त माहौल दे सकते हैं?

चौथी समस्या : मिशन बुनियाद अत्यधिक केन्द्रीकरण और निगरानी पर आधारित है 

जैसे अंग्रेजों ने अपनी नीतियाँ सफल बनाने के लिए वफ़ादार ज़मींदारों की फ़ौज खड़ी की थी, वैसे ही दिल्ली सरकार ने अपनी नीतियाँ सफ़ल बनाने के लिए मेंटर टीचर्स और TDC आदि की फ़ौज खड़ी की है जिनसे अपेक्षित है सूक्ष्म निगरानी रखना, योजनाओं को लागू करवाना, शिक्षकों के व्यवहार को संचालित करना, आकाओं का डर बिठाना आदि | अगर कोई शिक्षिका अपने विवेक से आपत्ति उठाए तो एक जवाब अटल सत्य की तरह तैयार खड़ा है  हम सरकारी नौकर हैं इसलिए आँख बंद करके आदेशों का पालन करना होगा | अगर निरीक्षण हुआ तो आपका काम नहीं आपका आज्ञापालन जांचा जाएगा’ | ऐसे गुलाम शिक्षकों के बच्चे क्या आज़ाद परिंदे हो सकते हैं? ऐसे डरे हुए शिक्षक क्या कक्षा में बच्चों को भयमुक्त माहौल दे सकते हैं?
अक्सर यह सुनने में आता है कि बहुत से शिक्षक अपने काम को लेकर ईमानदार नहीं हैं, ठीक से पढ़ाते नहीं है और उनकी वजह से ऐसे कार्यक्रम शुरू करने पड़ते हैं | पर सवाल यह उठता है कि कामचोर लोग तो हर पेशे में होते हैं; नेता, प्रशासक, डॉक्टर आदि तो क्या उन्हें केंद्र में रखकर पेशे के उद्देश्य दोयम दर्जे के बनाना सही है? क्या इसकी कल्पना भी की जा सकती है कि शिक्षित-प्रशिक्षित डॉक्टरों को कोई एनजीओ यह बताये कि वो इलाज कैसे करें? तो फिर हम प्रशिक्षित शिक्षकों को क्यों ये एनजीओ बताने पर तुले हैं कि कैसे पढ़ाएँ?

जैसे पितृसत्ता व सामंती ताक़तें बलात्कार की पीड़िता को ही दोष देती हैं, उसी तर्ज पर यह संदेश दिया जा रहा है कि अगर बच्चे नहीं सीख पा रहे हैं तो यह उनका दोष है और अगर शिक्षक सिखा नहीं पा रहे हैं तो यह उनकी कमी हैI इसमें व्यवस्था की ख़ामियों, भाषाई भेदभाव, आर्थिक असमानता जैसी चुनौतियों को सत्ता की सहूलियत के लिए विश्लेषण से दोषमुक्त कर दिया जाता हैI

पांचवी समस्या : समानांतर संस्थाएं खड़ी करना

आख़िर प्रथमकी शैक्षिक योग्यता क्या है और फिर अगर ऐसी संस्थाओं के आसरे ही शिक्षा नीति तैयार करनी है तो फिर NCERT, SCERT जैसे समर्पित अकादमिक संस्थानों का औचित्य ही क्या रह जाता है? इस दौर में सरकारें ऑटोनोमस संस्थाओं को कमज़ोर कर, बिना वैधानिक अथवा अकादमिक रूप से अनिवार्य प्रक्रियायें अपनाए अपनी विचारधारा के तहत शिक्षा को तोड़ने-मोड़ने का काम कर रही हैं | देश-भर में कहीं इतिहास की किताबें बदली जा रही हैं, कहीं व्यक्ति का महिमामंडल करती प्राइवेट पब्लिशर की किताबें अनिवार्य की जा रही हैं, कहीं शिक्षा दर्शन का मज़ाक उड़ातीं प्रगति किताबें पढ़वाई जा रही हैं | आज PPP मात्र स्कूल-कॉलेज की इमारतें बनाने, उनमें सुविधाएंदेने या ठेके पर नौकरियाँ देने तक ही सीमित नहीं है, बल्कि इस मक्कारी ने शिक्षा की आत्मा - पाठ्यचर्या - पर भी अपने पंजे गड़ा दिए हैं|

क्या सरकार को ये सब नहीं पता ?

दरअसल इन सब निर्णयों के पीछे न तो कोई शिक्षा दर्शन है, न कोई रिसर्च और न ही शिक्षाविद्द अनुभव | यह एजेंडा भारत या दिल्ली सरकार ने नहीं वैश्विक पूंजीवादी संस्थाओं ने बहुत पहले ही तय कर दिया था | नवउदारवादी दौर में सरकारें इन संस्थाओं की एजेंट मात्र बनकर काम कर रही हैं |

विश्व बैंक ने 1980 के दशक में ही यह तय करके विभिन्न देशों की सरकारों को बताना शुरू कर दिया था कि उसे जो सस्ते मज़दूर चाहिए उन्हें इतनी भाषा आती हो कि वे मालिकों के दिशानिर्देश समझ पाएं, जिस तरफ बताया जाए उस तरफ़ मशीन के पुर्ज़े घुमा सकें, विज्ञापनों में जो बेचा जाए उसे समझ सकें | ऐसी संस्थाओं ने भारत जैसे देशों पर कर्ज़े चढ़ाकर और यहाँ के मालिकों से हाथ मिलाकर यह तय किया कि ऐसे साक्षर लेकिन अशिक्षित मज़दूरतैयार करने का काम स्कूलों को दिया जाए, विशेषकर सरकारी स्कूलों को जहाँ मजदूरों व छोटे किसानों के बच्चे पढ़ते हैं, जो बिना प्रश्न उठाए काम करते जाएं| | वे चाहते हैं कि भाषा को संदर्भविहीन करके पढाया जाए जिसका सीधा-सीधा मतलब है भाषा की शिक्षा से’ ज्ञान और चिंतन’ खत्म कर देना| यह शिक्षा नहीं, प्रति-शिक्षा है; कौश्लीकरण नहीं अकुशल बनाना है; सोचने-समझने वाले दिमागों को खाली बर्तनों में तब्दील करना है| शिक्षा के उद्देश्यों को हल्का करके स्कूलों को मात्र साक्षरता/ट्यूशन केंद्र बनाना है |

चाहे पूर्व-आधुनिक काल हो या औपनिवेशिक काल शासक वर्ग हमेशा शिक्षा के उद्देश्यों को अपने फ़ायदे के अनुसार तय करता है | ब्राह्मणों ने कहा उनके अलावा कोई वेद नहीं सीख सकता, अंग्रेज़ों ने कहा हिन्दुस्तानी क्लर्कगिरी से ज़्यादा कुछ नहीं सीख सकते और अब नव उदारवादी सरकारें यह साबित करने में लगी हैं कि ये मज़दूरों के बच्चे जो सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे हैं, सरल हिंदी और गणित से ज़्यादा कुछ नहीं सीख सकते | दिल्ली सरकार ने जिन संस्थाओं के साथ क़रार किया है उनमें प्रथम, टीच फ़ॉर इंडिया और सेंटर स्क्वायर फाउंडेशन शामिल हैं I इनके दस्तावेज़ व कार्यक्रम ख़ुद बयान करते हैं कि इनके वैचारिक व वित्तीय तार वैश्विक पूँजी के हितों से जुड़े हैं I 

आज सरकारी और प्राइवेट स्कूलों के बच्चों के लिए शिक्षा के उद्देश्य बदल चुके हैं| बड़े, प्राइवेट स्कूलों के बच्चों को उच्चशिक्षा के ज़रिये वाइट कॉलर नौकरियां करनी हैं, जबकि सरकारी स्कूलों के विद्यार्थियों को सस्ते, अनुशासित श्रमिक बनाना है|चाहे वो किताबों के पाठ काटकर कोर्स आधा करना हो, मौलिक कौशल के नाम पर कोर्स हल्का करना हो या फिर सरकारी स्कूलों के बच्चों पर जबरन वोकेशनल कोर्स थोपना हो, इन सबका उद्देश्य शिक्षा के माध्यम से ग़ैर-बराबरी बनाये रखना हैI  

इस फैक्ट्री व्यवस्था में 30 जून तक हर बच्चे को मशीन से तय माल की तरह तैयार होकर निकालना है | अगर हम मिशन बुनियाद को शिक्षा के लिए ख़तरनाक मानते हैं तो हमें इसे नकारने के लिए रचनात्मक और सशक्त तरीके ढूँढने होंगे| हमें याद करना होगा कि जोतिबा फूले, सावित्री बाई, गिजूभाई, रबिन्द्रनाथ टैगोर, अम्बेडकर, भगत सिंह, गांधी, पॉल फ्रेरे, जॉन टेलर जैसे चिंतकों ने शिक्षा से किस ज़िम्मेदारी की उम्मीद की थी ? हमें रेखांकित करने की ज़रूरत है कि शिक्षा क्या है और क्या नहीं |

मिशन बुनियाद और केंद्र और दिल्ली सरकार की अन्य शिक्षा विरोधी नीतियों के खिलाफ अभियान जारी रहेगा | कृपया अपने विचार/टिप्पणियाँ साझा करके इस आलोचना को और मज़बूत करने में हमारी मदद करें |