Monday 19 April 2021

माटी कहे कुम्हार से ....

कुछ दिन पहले स्कूल के व्हाट्सऐप ग्रुप में एक कविता साझा की गई। मुझे इसका पता एक दिन बाद में चला, जब स्कूल के एक साथी ने इसका प्रशंसात्मक उल्लेख किया। उन्होंने कविता की जिन अंतिम पंक्तियों को उद्धृत किया था, उनके भाव से हममें से अधिकतर लोग परिचित हैं। इन पंक्तियों को जानकर मेरा मन पूरी कविता को पढ़कर एक प्रतिक्रिया देने का हुआ।  

कविता यूँ थी -

                   स्कूल में सब ख़ुश थे
                     
                   क्योंकि सारे बच्चे पास थे,
                   जो आये, वो पास;
                   जो नहीं आये, वो भी पास;  
                   जिसने परीक्षा दी, वो पास;
                   जिन्होंने नहीं दी, वो भी पास;
                 
                   बस दुखी था,
                   तो वह 'अध्यापक!'
                   जो खोखली नींव से,
                   भविष्य पतन देख रहा था। 

                   मगर क्या करता वह,
                   सरकारी तुग़लकी फ़रमान के आगे बेबस!
                   थाप लगाने, हाथ रखने तक का अधिकार,
                   छीन लिया हर कुम्हार से....!!

                   फिर कहते हैं,
                   हमें बर्तन 
                   साफ़-सुथरे, मज़बूत और अच्छे चाहिए ...!!  

 आइये, इस कविता के आग्रह के संदर्भ में कुछ तथ्यों और तर्कों पर नज़र डालते हैं।

8वीं कक्षा तक सबको 'प्रोन्नत' करना ('पास-फ़ेल' शब्द अब क़ानूनन भी और शिक्षाशास्त्रीय विमर्श में भी, मान्य नहीं है) इस या उस सरकार का तुग़लकी फ़रमान नहीं है, बल्कि शिक्षा अधिकार अधिनियम (2009) के अंतर्गत एक वैधानिक प्रावधान है। हाँ, यह ज़रूर सच है कि सभी क़ानून हमारी आज्ञाकारिता या सम्मान के लायक़ नहीं होते। संसद और सरकारों की समझ व नीयत, दोनों ही जनविरोधी हो सकती हैं, और शायद अक़सर होती भी हैं। इस क़ानून से पहले भी, अलग-अलग राज्यों में अलग-अलग कक्षाओं के स्तर तक 'फ़ेल न करने' की नीति लागू थी। इस क़ानून ने न सिर्फ़ इसे एक देशव्यापी स्वरूप दे दिया, बल्कि 8वीं तक एक-समान स्तर तक ला दिया। यह निश्चित तौर से जानना आसान नहीं है कि किसी संविधान, क़ानून, नियम आदि को किस उद्देश्य से लाया गया है। बहुत कुछ मंशा पर निर्भर करता है। फिर मंशा समझ पर तथा समझ ख़ुद मंशा पर निर्भर करती है। 'नोटबंदी' जैसे क़दमों का विश्लेषण उनके पीछे की मंशा के आधार पर भी हो सकता है और समझ के आधार पर भी। हो सकता है कि गड़बड़ इनमें से एक में हो, या फिर दोनों ही गड़बड़ हों। वैसे, अगर नीयत ही गड़बड़ है, तो 'अच्छी' समझ के कोई मायने नहीं रह जाते और अगर समझ ग़लत है तो नेक नीयत ज़्यादा भला नहीं कर सकती। वैसे, किसी व्यक्ति या वर्ग की मंशा जाँचने के लिए उसके शब्दों/बयानों से ज़्यादा उसका व्यवहार कारगर होता है। जैसे, प्रशासन के प्रचार बोलते हैं कि वो न्याय को समर्पित है, मगर हम सब जानते हैं कि सामान्यतः प्रशासन किसी मज़लूम और फटेहाल इंसान के साथ उस तरह पेश नहीं आता जिस तरह संपन्न पृष्ठभूमि के व्यक्ति से। 
 
                                               पिछले दस-बारह सालों से, लगभग इसके लागू होने की शुरुआत से ही, 8वीं तक अनिवार्य प्रोन्नति के प्रावधान का ज़बरदस्त विरोध हुआ है। चाहे वो एसयूसीआई जैसे वाम दल हों या केंद्र में वर्तमान सत्ताधारी दल या कई दलित संगठन, इस प्रावधान की शिक्षकों के एक बड़े वर्ग के इतर भी आलोचना हुई है। इतना सब होने के बाद भी, वर्तमान केंद्र सरकार ने, जोकि 'कठोर क़दम' उठाने के लिए जानी जाती है, इसे पूरी तरह नहीं पलटा, बल्कि संशोधन करके राज्य सरकारों पर छोड़ दिया कि वो इसे बदलना चाहें तो बदलें। यह संविधान के संघीय ढाँचे के उस उसूल से मेल भी खाता है जिसके अनुसार शिक्षा समवर्ती सूची का विषय है और इसमें केंद्र सरकार का एकतरफ़ा निर्णय लेना या नीति बनाना अनुचित है। (शिक्षा को आपातकाल के दौरान राज्यों की सूची से हटाकर समवर्ती सूची में डाला गया था, और अब कई संगठनों/विचारकों की यह माँग बढ़ती जा रही है कि इसे वापस राज्यों को सौंपा जाये क्योंकि अत्याधिक केन्द्रीकरण से लोकतंत्र, स्थानीय संस्कृति/भाषा व विद्यार्थियों का ही नहीं, बल्कि सबसे बढ़कर शिक्षा के आदर्शों का ही नुक़सान हो रहा है।) अब हमारे सामने सवाल ये हैं कि इसे लाया क्यों गया था, पूरी तरह न हटाकर अधूरे ढंग से क्यों हटाया गया तथा अगर अलग-अलग राज्य सरकारें इसपर कोई निर्णय ले/नहीं ले रहीं तो आख़िर क्यों। यह सिर्फ़ एक आमंत्रण है, यहाँ हम इनके उत्तर नहीं खोजेंगे। 

हमारे स्कूलों के संदर्भ में हमें यह भी पूछने-जानने की ज़रूरत है कि 'जो नहीं आए' या 'जिन्होंने परीक्षा नहीं दी', उनका अनुपात कितना था व उनकी ग़ैर-हाज़िरी के कारण क्या थे। 'कोरोना-लॉकडाउन' के संदर्भ में तो यह सवाल और भी मानीख़ेज़ हो जाता है। जिन स्कूलों में हम पढ़ाते हैं, उनके विद्यार्थियों के आर्थिक, स्वास्थ्य-संबंधी हालातों से हम अपरिचित नहीं हैं। रही बात उनकी जो उपस्थित रहे और जिन्होंने परीक्षा दी, तो हमें यह भी पूछना चाहिए कि इस व्यवस्था में आख़िर उन्हें भी क्या ही मिल रहा है या मिलेगा। चाहे कोई एक रिक्शा चलाने वाले की बेटी की कामयाबी की मिसाल देकर कुछ भी सिद्ध करने की कोशिश करे, प्रचारी कामयाबी के एक अपवाद के बदले मेहनत के बावजूद नाकामी के लाखों उदाहरण साबित करते हैं कि यह व्यवस्था न्याय पर नहीं टिकी है। मान लेते हैं कि कुछ विद्यार्थी इस नियम का आत्मघाती 'फ़ायदा' उठाने के लिए जानबूझकर नहीं आये और उन्हें फुसलाने के लिए 'कुछ' दे दिया गया; जबकि अन्यों ने मेहनत की और उन्हें 'कुछ' नहीं मिला। हमारी चिंता का सबब क्या होना चाहिए - 'कुछ' को कुछ निरर्थक मिल जाना या 'बहुतों' को कुछ भी नहीं मिलना? ये वही अधूरा व ख़तरनाक तर्क है जिसकी परछाईं हम राशन व्यवस्था, वज़ीफ़े आदि की बदली जा रही व्यवस्था में भी देख सकते हैं: इस दावे के आधार पर (जिसे किसी रिपोर्ट या क़ानूनी कार्रवाई से साबित नहीं किया जाता है, बस बोला चला जाता है) कि कुछ लोग बेईमानी करते हैं, शर्तें व व्यवस्था इतनी जटिल कर दो कि चाहे सब लोग परेशान हो जाएँ या बहुत-से ज़रूरतमंदों को उनका हक़ न भी मिले, हमें यह संतोष हो जाये कि कोई 'अनुचित' लाभ नहीं ले पा रहा है। 
 
दूसरी बात, यह प्रस्तावना कि मेरे विद्यार्थी परीक्षा के डर से या किसी बाहरी पुरस्कार के लोभ से पढ़ाई करेंगे, मेरे शिक्षक होने का अपमान है। अगर उन्हें डर और लालच से ही सीखना है, तो फिर ज्ञान की आंतरिक प्रेरणा का, इंसान की सहज खोजी प्रवृत्ति का और मेरे शिक्षणशास्त्रीय हुनर का मतलब ही क्या रह जाता है?          

यह बिंब कि हम शिक्षक 'कुम्हार' हैं और हमारे विद्यार्थी 'मिट्टी', समस्यागत है। कुम्हार-कुम्हारिन अपनी मर्ज़ी से (या फिर बाज़ार की माँग के अनुसार भी) बर्तन बनाते हैं। जबकि शिक्षण कर्म का उद्देश्य विवेक व न्याय के आदर्शों के तहत एक प्रबुद्ध समाज के निर्माण में योगदान देने का होता है। कुम्हार-कुम्हारिन ख़राब बर्तन फेंक देते हैं। और हम? वो अपने बनाये बर्तन, अपनी मेहनत के जायज़ मोल में बेच देते हैं। और हम? बर्तन बनने में निर्जीव मिट्टी की मर्ज़ी शामिल नहीं होती। क्या सचेतन बच्चों की तुलना मिट्टी से की जा सकती है? ये बिंब उस पुरातन व्यवस्था से मेल खाते हैं जिसमें बहुत-सी तर्कहीन और असंगत बातें थीं। मिट्टी के बर्तन बनाने के लिए उन्हें 'थाप लगाना', उनपर 'हाथ रखना' अनिवार्य है। किसी इंसान को शिक्षित व समझदार बनाने की प्रक्रिया में न ही ये अनिवार्य है, न वाँछनीय। यह भी केवल एक 'सरकारी फ़रमान' नहीं है, बल्कि क़ानून का हिस्सा और अदालतों का निर्देश भी है। हाँ, अदालतें ग़लत भी हो सकती हैं। 

हाँ, हमें सभी बर्तन साफ़-सुथरे व मज़बूत चाहिए, तथा इसके लिए, ज़रूरी संसाधन उपलब्ध कराने के बाद, एकमात्र ज़िम्मेदारी कुम्हार को दी जा सकती है। (वैसे, हो सकता है कि कुम्हार भी ये बताये कि कैसे जल के सार्वजनिक स्रोतों और साझी ज़मीन को विकास तथा निजी मुनाफ़े की भेंट चढ़ाने से उनके लिए अच्छी मिट्टी व पानी प्राप्त करना मुश्किल होता जा रहा है; कि शहर में जिस कच्ची कॉलोनी में या सड़क के किनारे वो रहते हैं, शहर के मास्टर-प्लान के चलते वहाँ उनका बसे रहना दूभर होता जा रहा है।) मगर शिक्षक होने के नाते हमें तो ये सवाल पूछना - और समाज को पूछना सिखाना - है कि इस देश के सब बच्चों को भरपेट भोजन, खेलकूद के समान अवसर, खुली हवा व खुला वातावरण उपलब्ध क्यों नहीं हैं। सब बच्चों को एक समान स्कूल व्यवस्था के तहत बराबर और बराबरी की शिक्षा क्यों नहीं मिल रही है? आख़िर इंसान के बच्चे कोई बर्तन नहीं हैं कि उन्हें केवल एक कुम्हार (शिक्षक) तैयार कर दे। स्वस्थ-विवेकी बच्चे तैयार करना एक सहज-स्वाभाविक प्रक्रिया होनी चाहिए, कभी रही भी होगी और शायद विकास-विनाश के लालच व डर से कम संचालित कुछ अछूते, अहिंसक समाजों में आज भी हो। मगर हमारे जैसी विकृत व्यवस्था में आज ये अफ़्रीक़ी कहावत और भी सारगर्भित है कि एक बच्चे को बड़ा करने में पूरा गाँव लगता है। इट टेक्स ए विलेज टू रेज़ ए चाइल्ड। स्वस्थ-विवेकी बच्चे को तैयार करना न केवल एक शिक्षक के बस में नहीं है, बल्कि यह एकमात्र उसका ही काम है भी नहीं; इसमें तो समस्त राजनैतिक, आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक शक्ति लगाने की ज़रूरत है।

'स्पेयर द रॉड ऐंड स्पॉयल द चाइल्ड' जैसी कहावतें अनेकों संस्कृतियों व भाषाओं में मिलती हैं, मगर वो सच का नहीं, बल्कि अपने काल व सत्ता के पूर्वाग्रहों का प्रतिनिधित्व करती हैं। (इस कहावत का स्रोत बाइबल है।) अगर अतीत में भी देखें तो, आख़िर जब 'हाथ रखने' का अधिकार था, क्या तब सबका भविष्य उज्ज्वल बन रहा था? फिर इस आलोचना को महज़ 'पश्चिमी' चलन कहकर भी ख़ारिज नहीं किया जा सकता है, क्योंकि एक तो ख़ुद 'पश्चिम' में ही हाल तक बच्चों को शारीरिक दंड देने को मज़बूत क़ानूनी व सांस्कृतिक आधार प्राप्त था, और फिर हमारे 'अपने' इतिहास तथा पूर्व की कई संस्कृतियों में बच्चों को शारीरिक रूप से प्रताड़ित करना एक अनजानी परिघटना थी। शिक्षक और विद्यार्थियों के बीच एक जीवंत, दो-तरफ़ा, गर्माहट-भरा रिश्ता होता है। इस रिश्ते को 'कुम्हार-मिट्टी' की एक-तरफ़ा छवि में ढालकर हम इसके साथ न्याय नहीं कर रहे। 

कविता व कवि की भावनाओं में बच्चों और भविष्य के प्रति एक जायज़ चिंता है, मगर जिस बिंब का इस्तेमाल हुआ है वो हमारे दर्शन और विचारों को माँझने की माँग करता है। 'कुम्हार और मिट्टी' के बदले 'माली-मलिन और फूल-पौधे' रखकर देखिये, पाठ बदल जाता है। कुम्हार की तरह बग़ीचे का माली अपनी मेहनत के ख़ूबसूरत परिणाम के साथ मालिक-संपत्ति के रिश्ते का या मुनाफ़े की वस्तु-सा व्यवहार नहीं करता, बल्कि वो फूल-पौधों की रखवाली करता है। हालाँकि, यह भी पूर्ण सत्य नहीं, अपनी सीमाओं के साथ एक कलात्मक बिंब ही है। मगर एक ज़्यादा ख़ूबसूरत और मानवीय बिंब। 

निःसंदेह हमें चिंता करने की ज़रूरत है क्योंकि हुक्मरानों की नीयत ठीक नहीं होती है। आज हमारे सामने शिक्षा में ज़्यादा बड़ी चिंता की बात ये होनी चाहिए कि अमीर-ग़रीब के लिए अलग-अलग स्कूल ही नहीं, बल्कि अलग-अलग कोर्स, अलग-अलग विषयों तक की नीति कार्यान्वित हो रही है। चाहे वो वोकेशनल कोर्स हों या महज़ पढ़ना-लिखना-गणना सिखाना (फ़ाउंडेशनल लिटरेसी ऐंड न्यूमेरेसी), हमें बताया जा रहा है कि हमारे विद्यार्थियों के लिए इतना ही काफ़ी है, कि उन्हें आकादमिक गहराई की ज़रूरत नहीं है। ये शिक्षा, हमारे विद्यार्थियों को सावित्रीबाई, भगत सिंह, टैगोर के अर्थों में मुक्त नहीं करेगी, बल्कि ख़ुद उनके पैरों की बेड़ी, उनके सपनों का ग्रहण बनकर हमारे बीच की असमानता को और मज़बूत करेगी। अगर हमारे विद्यार्थियों की शिक्षा की विषयवस्तु इतनी हल्की कर दी जाएगी, उसके उद्देश्य इतने छितले करके हमें पढ़ाने को कहा जायेगा, तब 'हाथ रखकर', 'थाप देकर' भी हम कौन-सा तीर मार लेंगे? अगर नीतिगत स्तर पर शिक्षा के उद्देश्यों के साथ समझौता व छल किया जा रहा है तो फिर विद्यार्थियों पर नियंत्रण रखने की ताक़त को बचाकर हमें या उन्हें क्या मिलेगा? जब ख़ुद शिक्षा को ही पैसे व दबंगई ताक़त का ग़ुलाम बनाया जा रहा हो, तो हम इस अन्यायपूर्ण साम्राज्य की अधीनता स्वीकार करके अपनी छोटी सामंती ज़मींदारी बचाने की लड़ाई में अपनी सार्थकता नहीं ढूँढ सकते। हाँ, तब हमारी ज़िम्मेदारी और बढ़ जाती है, विद्यार्थियों, उनके परिवारों, आमजन को यह समझाने की कि उनके वर्ग के साथ सामूहिक रूप से व उनके साथ व्यक्तिगत रूप से कैसा षड्यंत्र रचा जा रहा है। 

निःसंदेह हम 'बेबस' हैं, मगर विद्यार्थियों के ऊपर शिक्षकों के सामंती अधिकारों के ढीले होते शिकंजे पर बेबसी जताना शिक्षण के पेशे की बड़ी चिंताओं से भटकना है। ज़रूरत इस बात पर चिंतित होने की है कि हम कैसे सत्ता में बैठे वर्गों व सत्ता व्यवस्था के सामने बेबस न हों, अपनी रीढ़ सीधी रखें, अपना जायज़ अधिकारक्षेत्र, अपनी गरिमा बरक़रार रखें। शिक्षकों को निर्बाध पढ़ने-पढ़ाने का हक़ है या नहीं, अपनी बात खुलकर कहने-लिखने का हक़ है या नहीं, संगठित होकर अपने व शोषित वर्गों के लिए लड़ने का हक़ है या नहीं, ये सब और ऐसे कितने ही सवाल हमारी बेबसी का बयान करते, हमारे सामने मुँह बाये खड़े हैं। हमें अपने निजी समय में, अपने संसाधन लगाकर, पर्यावरण, निजता व स्वास्थ्य विरोधी यंत्रों से, अपने शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य की क़ीमत पर, 'सरकारी' काम करने को कहा जा रहा है; सेल्फ़ी लेने-अँगूठा लगाने के अपमानजनक तरीक़ों से हाज़िरी लगाने को कहा जा रहा है; झूठे अंक, झूठे परिणाम आँकड़े दर्ज करने का प्रत्यक्ष-परोक्ष दबाव बनाया जा रहा है। सार्वजनिक स्कूलों में शिक्षण को एक ज़िम्मेदार-गरिमामय-आनंदमयी बौद्धिक कर्म की जगह झूठ-फ़रेब की चाकरी में बदला जा रहा है। ऐसे में अगर हम अपने बौद्धिक कर्म और विद्यार्थियों के हक़ों को बचाने की न्यूनतम लड़ाई लड़ेंगे तो ही हम अपने विद्यार्थियों के प्यार के क़ाबिल बन पाएँगे और उन्हें भी निडरता का पाठ पढ़ाने का दावा कर पाएँगे। अन्यथा, हमें उस शिक्षाशास्त्री के वर्णन को स्वीकार करना होगा जिसके अनुसार शिक्षक एक 'मूक तानाशाह' है - प्रशासनिक-सत्ता की दबंगई के प्रति मूक और अपनी कक्षा में विद्यार्थियों के समक्ष तानाशाह। इसका परिणाम एक ऐसे शिक्षित वर्ग के रूप में सामने आएगा जो ख़ुद तो संघर्ष नहीं ही करता है, बल्कि अन्य मेहनतकश-दमित वर्गों के बहादुराना संघर्षों को नीचा दिखाने की कोशिश भी करता है। एक अन्यायपूर्ण व्यवस्था में हम शिक्षकों की भूमिका आदेशपालक, अनुशासित ग़ुलाम तैयार करने की नहीं, बल्कि विवेकी और विद्रोही मानस निर्माण की ही हो सकती है।  

Monday 12 April 2021

पढ़े हुए को भुलाना

 मालविका गुप्ता और फ़ीलिक्स पडेल 

(14 जनवरी 2021 को द हिंदू संडे मैगज़ीन में छपी कवर स्टोरी, 'अनलर्निंग द लिट्रेट', का अनुवाद)
      
भोपाल में मुस्कान नाम के शिक्षा केंद्र के एक युवा कवि-लेखक, तसवीर, हमें बताते हैं कि कैसे लेखन को उनके ऐतिहासिक रूप से लाँछित समुदाय को सशक्त करने के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। "पारधियों का एक समृद्ध इतिहास है। मगर आज दूसरों के द्वारा हमें जिस तरह से चिन्हित किया जाता है वो ग़लत है। मेरा मानना है कि हमें अपनी कहानियों को लिखना और प्रकाशित करना होगा। हमारी ज़िंदगियों को सुने जाने की ज़रूरत है। हमारा समुदाय अपनी पहचान खो रहा है, हमारी संस्कृति को मिटाया जा रहा है, जंगल के साथ हमारे रिश्ते को भुलाया जा रहा है।"  
ब्रिटिश हुकूमत द्वारा पारधियों को एक 'आपराधिक जनजाति' के रूप में वर्गीकृत किया गया था, और आज़ादी के बाद उन्हें 'विमुक्त जनजाति' का नया नाम दिया गया। मगर तसवीर जिस साक्षरता की बात करते हैं वो उस शिक्षणशास्त्र से आती है जिसमें आदिवासी बच्चों को शिक्षकों को अपनी भाषाएँ सिखाने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है और जहाँ शिक्षा की जड़ें बच्चों के सामाजिक व सांस्कृतिक परिवेश में स्थित हैं। ये समझने के लिए कि ये औपनिवेशिक-काल के उस पदानुक्रम से कितना अलग है जो आज भी आदिवासी स्कूली शिक्षा पर हावी है, हमें इतिहास की कई उपेक्षित लड़ियों को सुलझाना होगा। 
1960 में आई ऐल्विन समिति रपट ने - जोकि आज़ाद भारत की प्रारंभिक जनजाति नीति घोषणाओं में से थी - इस बात को स्वीकारा कि जनजातियों की सीखने-सिखाने की अपनी संस्थाएँ हैं, तथा 'मिलाने' के बदले 'एकीकरण' की नीति के तहत इन्हें स्कूलों के प्रतिद्वंद्वी की तरह नहीं, बल्कि सहयोगी की तरह बरतना होगा।  
इन देशज संस्थाओं में से सबसे प्रसिद्ध शायद बस्तर का घोटुल है जहाँ बड़ी उम्र के मुरिया गोंड बच्चे अपने से छोटों को, काम-खेल के सातत्य व ज्ञान को मौखिक रूप से हस्तांतरित करने की परिष्कृत तमीज़ के माध्यम से, शिक्षित करते हैं। मिथकों, पहेलियों, गीतों, नृत्यों को साझा करते हुए बच्चे असंख्य कौशल हासिल करते हैं, तथा प्रतिस्पर्धा के बदले मिलकर बाँटने के मूल्यों पर टिकी आचार-नीति में रमते हैं। झारखंड में धुमकुरिया और ओड़िसा में डंगरीबासा भी ऐसी ही संस्थाएँ हैं।  
                 आज साक्षरता का ख़ास मोल है। सवाल ये है कि इसे आदिवासी ज्ञान व मूल्यों को मिटाये बिना कैसे प्रदान किया जाये। शुरुआत में आदिवासियों के लिए अधिकतर स्कूल ईसाई मिशनों द्वारा खोले गए थे। 1920-50 के दशकों के दौरान इसके ख़िलाफ़ एक प्रतिक्रिया ने जड़ पकड़ा। शिक्षा के औपनिवेशीकरण को पलटकर हाथ, दिमाग़ और दिल को एक करने तथा स्थानीय ज्ञान परंपरा व मातृभाषाओं को महत्व देने के लिए लाई गई गाँधी की 'नई तालीम' इन प्रतिक्रियाओं में से एक थी। 'हिंदुत्व' एक अन्य थी, जो 50 के दशक में तब मज़बूत हुई जब आर के देशपांडे ने वनवासी कल्याण आश्रम (वीकेए) स्थापित किया जिसके तहत जल्दी-ही स्कूलों का एक विशाल जाल बिछ गया। 
                   आदिवासियों के बारे में वीकेए की समझ उनके 'पिछड़े हिंदू' होने के विचार से प्रभावित थी, एक विचार जिसे कि कैंब्रिज में 1920 के दशक में नृतत्वशास्त्र में प्रशिक्षित, भारतीय समाजशास्त्र के संस्थापकों में से एक, जी एस घुरिये ने बढ़ावा दिया था। घुरिये ने आदिवासियों को 'मिला लेने' के प्रस्ताव पर बल दिया, ठीक वैसे ही जैसे कि प्रभावशाली आश्रमशाला मॉडल स्थापित करने वाले ए वी ठक्कर (ठक्कर बापा) ने किया। हाल के वर्षों में, आरएसएस के स्कूलों में समावेशित 'हिंदू' प्रथाओं ने कई आदिवासियों को हिंसक साम्प्रदायिक राजनीति में खींच लिया है।  हालाँकि ठक्कर गाँधी के अनुयायी थे, मगर आश्रमशाला शिक्षणशास्त्र में कुछ भी गाँधीवादी नहीं है। आदिवासी मसलों पर सरकार की सबसे हालिया समिति, जिसके अध्यक्ष [समाजशास्त्री] वर्जीनियस खाखा थे, आदिवासी शिक्षा के 'आश्रमीकरण' की बात करती है। कई आश्रम स्कूल परोक्ष रूप से तो हिंदू राष्ट्रवादी बन गए, मगर वर्दियों, सख़्त (अक़सर क्रूर) अनुशासन, घोर पदानुक्रम में लिप्त ढाँचे, रट कर याद किए गए अजनबी 'ज्ञान', छोटे-छोटे बाल तथा आदिवासी नामों की जगह हिंदू नामों को अपनाकर ईसाई मिशन स्कूलों के ढर्रे पर ही चलते रहे। 1941 में पुणे में दिए गए अपने एक भाषण में ठक्कर ने आदिवासी 'काहिली', 'उच्श्रृंखलता', 'निरक्षरता' तथा 'झूम खेती के प्रति नशे' की नकारात्मक रूढ़िबद्ध छवियों को उभारा। इन रूढ़िबद्ध छवियों में निहित सांस्कृतिक नस्लवाद आदिवासियों के ख़िलाफ़ जारी भेदभाव और उनके निरादर की पृष्ठभूमि रचता है।   

सांस्कृतिक नरसंहार 
संयुक्त राज्य अमरीका में 19वीं शताब्दी से लेकर 20वीं शताब्दी के मध्य तक मूल निवासियों को जबरन मिलाना आधिकारिक नीति का हिस्सा था। 1970 के दशक तक इसमें बदलाव आया और आदिवासी पहचान को मिटाने के लिए बनाये गए आवासीय स्कूलों को बंद कर दिया गया। इसके बीस साल बाद, कनाडा व ऑस्ट्रेलिया के प्रधानमंत्रियों ने इस नीति में निहित सांस्कृतिक नरसंहार के लिए सार्वजनिक रूप से माफ़ी माँगी। खाखा रपट (2014) यह संकेत करती है कि भारत में भी 'एकीकरण' की आधिकारिक नीति में विलय की नीति छुपी हुई है। 
विलय के दो महत्वपूर्ण आयाम हैं, समुदाय के जीवन से कटे हुए आवासीय स्कूल और प्रभुत्वशाली क्षेत्रीय भाषाओं का थोपा जाना। प्रत्येक आदिवासी भाषा में ज्ञान, सृष्टि-दर्शन और मूल्यों की पूरी एक दुनिया समाये रहती है। यह एक आंशिक कारण है कि क्यों, सामान्य रूप से उल्लंघन होते रहने के बाद भी, संविधान का अनुच्छेद 350A, जोकि हर बच्चे को उसकी मातृभाषा में शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार देता है, इतना महत्वपूर्ण है। शोध दिखाते हैं कि बहुभाषी शिक्षा संज्ञानात्मक विकास में सहायक होती है और बौद्धिक आत्मविश्वास को कहीं अधिक कारगर ढंग से उत्प्रेरित करती है।  
नियमगिरि को बॉक्साइट खनन से बचाने के अभियान के डोंगरिया कोंध नेता लाडो सिकाका के शब्दों में, "अगर हमारी भाषा ज़िंदा है, तभी हमारी संस्कृति फले-फूलेगी। अपनी भाषा खोकर हम अपनी पहचान, अपने जंगल, नदियों और पहाड़ों को खो देंगे।" 1941 में दिया ठक्कर का भाषण आदिवासी भाषाओं को एक 'सेतु' की तरह इस्तेमाल करने की वकालत करता है, मगर हक़ीक़त में इतना भी नहीं हुआ। 1949 के दौरान संविधान सभा में चली बहसों में जयपाल सिंह मुंडा ने ठक्कर बापा को अपने स्कूलों में आदिवासी भाषाएँ इस्तेमाल न करने के लिए आड़े हाथों लिया। 
1960 के दशक से आदिवासी बच्चों के लिए खोले गए आवासीय स्कूलों में तेज़ी से वृद्धि हुई; इन स्कूलों के केंद्र में आदिवासी नागरिकों को औद्योगिक परियोजनाओं में नौकरियों के लिए प्रशिक्षित करना था और साफ़ है कि इस चलन का उद्देश्य आदिवासी क्षेत्रों में फैल रहे उद्योगों के लिए आज्ञाकारी कर्मी उपलब्ध कराना था। यह चलन 1990 के दशक में और मज़बूत हुआ जब राज्य-संचालित कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय और एकलव्य मॉडल आवासीय स्कूल तथा भुबनेश्वर के कलिंगा इंस्टिट्यूट ऑफ़ सोशल साइंसेज़ (KISS) जैसे निजी संस्थानों की तरह कई नए आदिवासी आवासीय स्कूलों को शुरु किया गया।  
2005 के बाद से, जब से माओवादी संघर्ष तेज़ हुआ है और खनन कंपनियों में जंगल की ज़मीनों को कब्ज़ाने की होड़ बढ़ी है, आदिवासी गाँवों के सैंकड़ों स्कूलों को बंद किया जा चुका है। इनके बदले, आदिवासी बच्चों को बड़ी संख्या में, 'माओवादी प्रभावित' गाँवों से, एक-साथ हटाकर, दक्षिण छत्तीसगढ़ में पोर्टाकेबिन स्कूलों को स्थापित किया गया था। यह वही वक़्त था जब कंपनियों ने अपने ख़ुद के निजी आदिवासी स्कूल फ़ंड करने शुरु किए। राष्ट्रीय खनिज विकास निगम ने छत्तीसगढ़ में 'शिक्षा नगर' स्थापित किए; पिछले साल अडानी ने KISS के साथ मिलकर मयूरभंज में एक संयुक्त स्कूल खोला। इन कंपनियों की तरह वेदांता और नाल्को ने भी KISS के साथ समझौते किये हैं जिसमें वो खनन-लाभ के अपने क्षेत्रों के बच्चों के इन स्कूलों में प्रवेश को फ़ंड करते हैं। 
                      विश्व के सबसे बड़े आवासीय स्कूल होने का दावा करने वाले KISS में 27,000 विद्यार्थी हैं, जोकि समस्त रूप से जनजाति समुदायों से आते हैं। अपने को 'नृतत्वशास्त्र की विश्व की सबसे बड़ी प्रयोगशाला' के रूप में वर्णित करने वाला यह संस्थान जनवरी 2023 में नृतत्वशास्त्र के अगले विश्व सम्मेलन की मेज़बानी करने वाला था। आदिवासी कार्यकर्ताओं व नृतत्वशास्त्रियों के विरोध के बाद इसे रद्द करना पड़ा। प्रकट रूप से KISS और अमरीकी आवासीय स्कूलों के ख़ास पहलुओं में समानता है, और 'कर का लाभ लेने वालों को कर देने वालों में बदलने' के इसके घोषित लक्ष्य में आदिवासी संस्कृतियों को 'आदिम' [पिछड़ा] मानने का विचार निहित है। आदिवासी समाज और अर्थव्यवस्था के प्रति यह असंवेदनशीलता, KISS का भयावह आकार और गाँवों से इसकी दूरी, ये सब बच्चों को उनकी जड़ों से काट देते हैं। मुफ़्त शिक्षा को आदिवासी बच्चों के लिए एक 'भेंट' की तरह प्रचारित किया जाता है - मगर फिर बच्चों को स्कूल लाने में पुलिस इतनी बड़ी भूमिका क्यों अदा करती है?
KISS हिंदू त्योहारों और संस्कृत प्रार्थनाओं को बढ़ावा देता है, नाकि आदिवासी भाषाओं, प्रार्थनाओं या पर्वों को। इसके एक भूतपूर्व छात्र कहते हैं, "KISS में ईश्वर केवल संस्कृत समझते हैं। हमारे कोंध बच्चे कुई [भाषा] में प्रार्थना करना भूल जाते हैं। 
KISS के करिश्माई संस्थापक, अच्युत सामंता ने अ-साक्षर आदिवासी माता-पिता को 'कुछ नहीं समझने वाले' लोग कहकर पुकारा है। ऐसे स्कूलों में विद्यमान सांस्कृतिक नस्लवाद की जड़ें औपनिवेशिक रूढ़िबद्ध छवियों तक जाती हैं। झारखंड के एक कस्तूरबा गाँधी बालिका विद्यालय में शिक्षकों ने हमें अपने विद्यार्थियों के बारे में बताते हुए व्यापक रूप से प्रचलित नकारात्मक रूढ़िबद्ध छवियों का इस्तेमाल किया। एक ग़ैर-आदिवासी शिक्षक [शिक्षिका?] ने कहा, "इन लड़कियों को शिक्षित करना संभव नहीं है। इनकी रुचि सिर्फ़ सजने-सँवरने में है और ये अपने गाँवों में बहुत बुरी [यौन] आदतों का पालन करती हैं।" हालाँकि, एक लंबे चले संवाद के अंत में उक्त शिक्षक [शिक्षिका?] ने आत्मचिंतन करते हुए कहा, "मुझे लगता है कि इन लड़कियों के पास, एक तरह से हमसे कहीं ज़्यादा आज़ादी और एजेंसी है। हमें तो अपना जीवन-साथी तक चुनने की आज़ादी नहीं है।" 
मूलनिवासियों की शिक्षा के बारे में बनाये गए प्रमुख राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय दिशा-निर्देशों का पालन नहीं किया गया है। 1961 के ढेबर [धेबर? ढेबार?] आयोग ने आदिवासी ज्ञान और भाषाओं को पाठ्यचर्या में समेकित करने तथा यह सुनिश्चित करने की अनुशंसा की थी कि स्कूल के कैलेंडर का आदिवासी त्योहारों व कृषि कार्य से, जोकि सीखने के जीवंत स्थल हैं, कोई टकराव न हो। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 की इसी तरह की अनुशंसाओं का भी पालन नहीं हुआ है। मूलनिवासियों के अधिकारों की 2006 की संयुक्त राष्ट्र की घोषणा उनके द्वारा शैक्षिक संस्थान स्थापित व संचालित करने के हक़ को रेखांकित करती है। 

उम्मीद के निशाँ 
यह निराशाजनक परिस्थिति एक अलग तरह की उम्मीद जगाने वाले वैकल्पिक स्कूलों के बढ़ते जाल की तुलना में बिलकुल विपरीत है। व्यापक समर्थन प्राप्त व एकरूपी बनाने वाले विशाल स्कूलों की तुलना में ये छोटे पैमाने के स्कूल विविधता का सम्मान करते हैं तथा बच्चों के राजनैतिक व सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ के प्रति संवेदनशील हैं। जनजातियों के कूड़ा बीनने वाले बच्चों के साथ काम करने वाली भोपाल की मुस्कान नाम की संस्था के काम का दिशा-स्रोत पाउलो फ़्रेरे का 'उत्पीड़ितों का शिक्षाशास्त्र' है। शिक्षक हिंदी व अंग्रेज़ी के अलावा पारधी व गोंडी और अन्य आदिवासी भाषाएँ इस्तेमाल करते हैं। यह कक्षा की अंतःक्रिया को सार्थक व रुचिकर बनाता है तथा बच्चों के आत्मविश्वास को निर्मित करता है। समुदाय के सदस्य शिक्षकों, कथाकारों, कलाकारों व पाठ्यपुस्तक लेखकों के रूप में भाग लेते हैं। 
मध्य-प्रदेश के बड़वानी ज़िले में गाँव-केंद्रित आधारशिला अधिगम केंद्र, स्थानीय भाषा बारेली व आदिवासी ज्ञान परंपराओं को समाहित करते हुए, इसी तरह के सिद्धांतों पर चलता है। आकादमिक अध्ययन करने के अलावा, बच्चों ने स्कूल के ख़ासे हिस्से को निर्मित किया है और इसके चारों तरफ़ खेत व सब्ज़ियों की क्यारियाँ तैयार की हैं। आधारशिला की शुरुआत 20 साल पहले तब हुई थी जब इसके संस्थापक सरकारी आश्रम स्कूलों में पढ़ रहे आदिवासी बच्चों से मिले थे और बच्चों में अपने स्कूल को लेकर डर तथा स्कूल द्वारा उनमें अपनी पहचान, हुनर व भाषा के बारे में विकसित की गई हीन भावना को लेकर स्तब्ध रह गए थे।
ओड़िसा के रायगढ़ में कोंध माता-पिता 'डांगर पाठ' (पर्वत की पढ़ाई) और 'कागज पाठ' (औपचारिक पढ़ाई) में फ़र्क़ करते हैं। यह पूछने पर कि वो किसे तरजीह देते हैं, कई माता-पिता जवाब में 'दोनों' कहते हैं। यह आदिवासियों द्वारा महसूस की जाने वाली एक गहरी ज़रूरत को दर्शाता है: स्थानीय भाषा या अंग्रेज़ी में अच्छी पकड़ के साथ, साक्षरता महत्वपूर्ण है; मगर जल-जंगल-ज़मीन के साथ जुड़ी भाषा व ज्ञान परंपराओं के प्रति सम्मान भी उतना ही महत्वपूर्ण है। 
2020 की राष्ट्रीय शिक्षा नीति आदिवासी ज्ञान को एकीकृत करने के महत्वपूर्ण प्रश्न पर मौन है। यह बहुभाषी शिक्षा को बढ़ावा देने का आभास देती है मगर शिक्षा अधिकार अधिनियम (2009) को लागू करने के बदले बाज़ार के लिए मज़दूर तैयार करने पर केंद्रित 'परोपकारी' (असल में कॉर्पोरेट) निवेश को आह्वान देती है। 
कुछ ज़्यादा ही कक्षाओं में, कुछ ज़्यादा ही समय तक, आदिवासी बच्चे ख़ामोश बैठे रहे हैं। मुस्कान में एक गोंड शिक्षिका, बाली, जिन्होंने मुख्यधारा के स्कूलों में बरसों अपमान झेला, बताती हैं कि कैसे कई गोंडी बच्चों को अक़सर पीटा जाता था और गोंडी बोलने से मना किया जाता था, जिस कारण कई बच्चों ने स्कूल छोड़ दिया। वो कहती है, "अगर हमारी भाषाओं को नीची नज़रों से नहीं देखा जाता तो हममें से कई और भी पढ़ाई जारी रखते। हममें से और अधिक लोगों ने उच्च शिक्षा हासिल की होती। हमने बेरोज़गारी या मुद्रास्फीति या वन संरक्षण की संकल्पनाओं को अपने नज़रिये से और अपनी भाषा में व्यक्त किया होता।"
उनकी कक्षा में बच्चे भाषाओं के बीच मुक्त होकर आवाजाही करते हैं। "पारधी बच्चे मेरा अभिवादन गोंडी में करते हैं और कंजर बच्चे पारधी बोलते हैं। मेरे चार्टों में हमारे द्वारा इस्तेमाल होने वाली सभी भाषाओं के शब्द होते हैं।" ऐसे तरीक़े सीखने को प्रेरित करते हैं और उन्हें, दूसरों के बारे में सीखने की प्रक्रिया में, अपनी संस्कृति में गर्व महसूस कराते हैं। 
'मुख्यधारा' के विचार को सिर्फ़ इसलिए चुनौती देने की ज़रूरत नहीं है कि आदिवासी संस्कृति को कुचला जा रहा है, बल्कि इसलिए भी क्योंकि आदिवासी मूल्य व जीने के तरीक़े ऐसी अंतर्दृष्टि उपलब्ध कराते हैं जिनकी 'मुख्यधारा' को सख़्त ज़रूरत है। अगर हम पारिस्थितिकी तंत्र के विनाश को रोकना चाहते हैं, तो हमें समझना होगा कि जैव-विविधता व सांस्कृतिक विविधता किस क़दर एक-दूसरे से गुँथी हुई हैं। शायद समय आ गया है कि हम अपनी निगाह को पलटें और नए सिरे से आदिवासियों से सीखना शुरु करें।      
                                                                                                                                           
 (मालविका गुप्ता ऑक्सफ़ोर्ड विश्वविद्यालय के इंटरनैशनल डेवलपमेंट विभाग में डी. फ़िल कर रही हैं। 
फ़ीलिक्स पडेल ऑक्सफ़ोर्ड व दिल्ली विश्वविद्यालयों में प्रशिक्षित समाज विज्ञानी हैं, जोकि वर्तमान में ससेक्स विश्वविद्यालय में रिसर्च एसोसिएट हैं। )