Sunday 4 September 2022

पत्र: विद्यालय निरीक्षण में नौकरशाही के बढ़ते गैर-पेशेवर और अपमानजनक व्यवहार के विरोध में

 प्रति 
शिक्षा मंत्री
दिल्ली सरकार

विषय : विद्यालय निरीक्षण में नौकरशाही के बढ़ते गैर-पेशेवर और अपमानजनक व्यवहार के विरोध में 

महोदय

लोक शिक्षक मंच इस पत्र के माध्यम से दिल्ली सरकार के स्कूलों में नौकरशाही के बढ़ते गैर-पेशेवर और अपमानजनक व्यवहार के प्रति अपनी चिंता और विरोध दर्ज कराना चाहता है।
किसी भी व्यवस्था की तरह विद्यालयों में भी नियमित और सामयिक निरीक्षण की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। निरीक्षण का मक़सद यह जाँचना होना चाहिए कि शिक्षण व विद्यालय की अन्य गतिविधियों में किस तरह की अड़चनें आ रही हैं और उन्हें कैसे दूर किया जा सकता है, आदि। लेकिन हमारे स्कूलों में जिस प्रकार का निरीक्षण हो रहा है, उसमें बहुत सी समस्याएँ हैं :
i. अकसर निरीक्षण पर आने वाले अफ़सर घोड़े पर सवार होकर आते हैं और स्कूल में एक डर और उथल-पुथल का माहौल पैदा करते हैं। ऐसा लगता है कि उनका उद्देश्य स्कूल की अकादमिक और गैर-अकादमिक गतिविधियों की चुनौतियों को समझना नहीं होता बल्कि शिक्षकों के अंदर यह डर बिठाना होता है कि अगर विभाग के पूर्व-निर्धारित एजेंडा को शब्दश: लागू नहीं किया तो शिक्षक के लिए अच्छा नहीं होगा। निरीक्षण से पहले स्कूलों में कृत्रिम चुप्पी का माहौल बनाया जाता है; बच्चों को बाहर खेलने से मना कर दिया जाता है; कक्षाओं, विशेषकर प्राथमिक, में होने वाली चर्चाओं-गतिविधियों को 'शोर' का नाम देकर दबा दिया जाता है, आदि। स्कूल की दिनचर्या में ऐसे निरीक्षण मदद नहीं कर रहे बल्कि खलल डालते हैं। 
ii. अक़सर निरीक्षक स्कूल दौरे के बाद शिक्षकों के साथ मीटिंग में बैठकर डायलॉग नहीं करते बल्कि उन्हें बेइज़्ज़त करते हैं। निरीक्षक इस अवधारणा से अपनी बात शुरु करते हैं कि शिक्षक कामचोर, बेईमान और नालायक हैं। सरकारी स्कूलों में हज़ारों शिक्षक रोज़ इस अपमान का घूंट पी रहे हैं कि अपने विद्यार्थियों से गहरे तौर पर जुड़े होने के बावजूद और अपने विषय-ज्ञान तथा शिक्षा दर्शन में पैठ रखने के बावजूद वे ऐसी पूर्वाग्रहयुक्त और अपमानजनक बातें सुनने को मजबूर हैं। कई बार महिला स्टॉफ को निरीक्षकों की सेक्सिस्ट भाषा और व्यवहार झेलना पड़ता है लेकिन उनके पास इसके खिलाफ़ शिकायत करने के ज़रिये नहीं हैं। यह अपमानजनक व्यवहार हम शिक्षकों का मनोबल तोड़ता है और पूरी व्यवस्था से हमारा अलगाव पैदा करता है। 
iii. निरीक्षण प्रक्रिया में फ़ौरन ससपेंशन/टर्मिनेशन ऑर्डर पकड़ाने का नया चलन भी जुड़ गया है। भले ही फिल्मों में ऐसे दृश्य ताली बँटोरने वाले होते हों लेकिन असल में यह न्यायिक प्रक्रिया से समझौता है तथा ताकत-संबंधों के दुरुपयोग को जन्म देता है। किसी भी व्यवस्था के ख़राब होने में कई लोगों का हाथ होता है लेकिन किसी एक को बलि का बकरा बनाकर सारा ठीकरा उसी के सर फोड़ने से बाकियों का दोष छिप जाता है। ऐसी तात्कालिक व मनमफ़िक़ कार्रवाई का अहसास शिक्षकों को अपना काम बेहतर ढंग व गहराई से करने को प्रेरित नहीं करता है, बल्कि महज़ 'रेकॉर्ड' ठीक-से प्रस्तुत करने और ख़ामोश रहने की प्रतिक्रिया पैदा करता है। इसका नतीजा व्यवस्था के सुधार में नहीं, बल्कि सच पर पर्दा डालने व हक़ीक़त छुपाने में सामने आता है। 
iv. हमारे स्कूलों में धूल-मिट्टी ढूंढ़कर प्रधानाचार्य को मेमो देने वाले व शिक्षकों को बेईमान और नाकारा कहकर सामंती व्यवहार प्रकट करने वाले अधिकारी, स्वयं हम शिक्षकों का विश्वास और सम्मान जीतने में असफल रहते हैं। हम देखते हैं कि स्कूलों द्वारा ज़ोन व जिला स्तर पर भेजी गयी फाइल्स का समय से जवाब नहीं आता, अकसर विद्यार्थियों और शिक्षकों की ज़मीनी समस्याओं का संज्ञान तक नहीं लिया जाता, शिक्षकों के ऊपर गैर-अकादमिक कार्यभार की समस्या पर आँख मूंद ली जाती है, सफाई कर्मचारियों की कमी के चलते क्षेत्रीय कार्यालयों की सफाई भी उस पैमाने पर खरी नहीं उतरती जिसकी अपेक्षा स्कूलों से की जाती है व दाखिलों से लेकर ट्रांसफर तक के बारे में भ्रष्टाचार की खबरें आती हैं। ऐसे में अफसरों का व्यवहार शिक्षकों में प्रेरणा नहीं जगाता बल्कि उनका रौब व्यवस्था की कमज़ोरी और खोखलेपन को प्रकट करता है। 
v. हम जानना चाहते हैं कि शिक्षा विभाग ने निरीक्षकों के लिए कौन-से दिशा-निर्देश बनाए हैं। विभागीय निरीक्षण के लिखित उद्देश्य क्या हैं? विभिन्न स्तर के अधिकारियों को किस समय-सारणी के अनुसार विद्यालयों का दौरा करना होता है? विद्यालयों को निरीक्षण की इस समय-सारणी से अवगत क्यों नहीं कराया गया है ताकि वे भी निरीक्षण प्रक्रिया की जाँच कर सकें? एक कक्षा में कम-से-कम 15-20 मिनट बैठे बिना निरीक्षक उस कक्षा के पठन-पाठन को बीच में रोककर उस पर टिप्पणियाँ कैसे कर सकते हैं? 
vi. विडंबना यह है कि हमारा शिक्षक प्रशिक्षण सिखाता है कि सच्चा शिक्षक वो है जो स्वतंत्र चिंतन कर सके और अपनी बात कह सके। लेकिन वर्तमान व्यवस्था में सरकारी शिक्षक को ऐसा कर्मचारी बनने पर मजबूर किया जा रहा है जो चुपचाप अफ़सर की खरी-खोटी सुनकर बस आदेश बजाता रहे। बैठकों से लेकर ट्रेनिंग्स में जो शिक्षक या प्रधानाचार्य किसी भी तरह का सवाल उठाते हैं, उन्हें शो-कॉज़ या ट्रांसफर की धमकियाँ दी जाती हैं। किसी नीति की आलोचना करना तो दूर की बात है, नीति के कार्यान्वयन पर सवाल पूछने को भी बर्दाश्त नहीं किया जाता। स्कूलों से विभाग या मंत्रालय तक ज़मीनी सवाल, विचार और ईमानदाराना फीडबैक भेजे जाने के लिए कोई खिड़की-दरवाज़े नहीं हैं। ऐसी कार्य-संस्कृति न केवल लोकतान्त्रिक मूल्यों को कमज़ोर करती है बल्कि आवश्यक आलोचना का भी दम घोंटती है। 
vii. पर हम इसे कुछ अफसरों और व्यक्तियों की समस्या नहीं मानते। दरअसल यह व्यवस्था की समस्या है जो बढ़ती जा रही है। चाहे देश हो या विभाग, अगर जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों का शीर्ष नेतृत्व यह मानकर चलेगा कि उसे किसी व्यवस्थित सामाजिक ज्ञान की आवश्यकता नहीं है, बल्कि नीति और नियम बनाने के लिए उसकी निजी सोच ही काफी है तो इसी तरह की व्यक्तिवादी संस्कृति पनपेगी। एक ऐसी संस्कृति जिसमें प्रशासनिक पदानुक्रम में शीर्ष पर बैठे कुछ लोग मानकर चलेंगे कि 'सोचने' का काम केवल उनका है और बाकी सब लोग 'सोचने-समझने' की क्षमता नहीं रखते।
viii. इस निरीक्षण प्रक्रिया की आपा-धापी का एक कारण यह भी है कि अब विद्यालयों का दिन अपने पूर्व-निर्धारित कैलेंडर के अनुसार नहीं चलता, बल्कि नित नए राजनीतिक एजेंडा व विभागीय आदेशों/सर्कुलर/प्रोग्राम के अनुसार चलता है। हमने शिक्षा की उस समझ को पीछे छोड़ दिया है जो कहती थी कि अधिगम सतत परन्तु धीमी गति से चलने वाली प्रक्रिया है जिसमें दूरगामी उद्देश्यों की तरफ़ निरंतरता से बढ़ा जाता है। आज स्कूलों के पास शान्ति से अपनी पाठ्यचर्या पढ़ाने का न समय है और न स्वायत्तता। ऐसे में स्कूल किसी भी समय-किसी भी एजेंसी द्वारा-किसी भी उद्देश्य से भेजे गए अकादमिक - गैर-अकादमिक आदेशों को लागू करवाने के केंद्र बन गए हैं और स्कूलों के निरीक्षण इस निरंतर उथल-पुथल की व्यवस्था को किसी तरह क़ाबू में रखने के साधन बन गए हैं।
ix. शिक्षा व्यवस्था की इस मायोपिक कार्यशैली के पीछे दो कारण हैं। एक शिक्षा का बढ़ता राजनीतिकरण और दूसरा शिक्षा का बढ़ता एनजीओकरण। चूँकि दिल्ली सरकार हर जगह अपने 'शिक्षा मॉडल' का प्रचार करती है इसलिए उसे शिक्षा से भी जल्द-से-जल्द चमकते हुए परिणाम चाहिए; भले ही इसके लिए शिक्षण प्रक्रिया को तोड़ा-मरोड़ा जाए, झूठे परिणाम बनवाए जाएँ, कम अंकों वाले बच्चों को स्कूलों से निकालकर ओपन में भेजा जाए आदि। दूसरी तरफ विपक्ष सतही आलोचनाओं के दम पर इस विज्ञापन के गुब्बारे को फोड़ने की ताक में रहता है। स्कूल 'शिक्षा' के नहीं राजनीतिक तू-तू-मैं-मैं के केंद्र बनते जा रहे हैं। और इस प्रतिस्पर्धा का सीधा असर स्कूलों की स्वायतत्ता पर यूँ पड़ता है कि किसी भी तरह के सवाल और आलोचना को गद्दारी मानकर दण्डित किया जाता है।
ऊपर से शिक्षा मंत्रालय ने नीति बनाने का काम एनजीओ के हवाले कर दिया है जिनके अपने स्वार्थ नीतियों पर हावी हैं। शिक्षा दर्शन में कच्चे लेकिन बाज़ारवाद में पक्के ये एनजीओज़ दशकों से शिक्षा व्यवस्था की समस्याओं के लिए शिक्षक को दोषी बताकर अपनी रोटियाँ सेंकते आए हैं। जब तक शिक्षा मंत्रालय में इन एनजीओ का दबदबा रहेगा तब तक शिक्षक को बौद्धिक प्राणी मानकर उनसे संवाद नहीं किया जाएगा।
x. विभाग को यह जाँचने की ज़रूरत है कि इस दमघोंटू और गैर-पेशेवर निरीक्षण संस्कृति का स्कूलों पर क्या असर पड़ रहा है : क्या यह असंवेदनशील और अपमानजनक व्यवहार प्रधानाचार्य और शिक्षकों से गुज़रते हुए विद्यार्थियों तक भी रिस रहा है, क्या ऐसे निरीक्षणों से शिक्षकों का पठन-पाठन के प्रति मनोबल घट रहा है, क्या हमारे स्कूलों में दिखावे और जी-हुज़ूरी की संस्कृति बढ़ रही है आदि?
xi. सार्वजनिक स्कूल जनता के स्कूल हैं पर बढ़ता अफसरशाहीकरण इनके जनचरित्र और लोकतान्त्रिक चरित्र को खत्म कर रहा है। इसलिए हमारी विभाग से अपील है कि:
- विभागीय निरीक्षण के उद्देश्य और दिशा-निर्देश सार्वजनिक किए जाएँ। 
- विभागीय निरीक्षण की समय-सारणी विद्यालयों के साथ साझा की जाए ताकि अफसरशाही की जवाबदेही भी तय हो। 
- नौकरशाही को निरीक्षण के पेशेवर और अकादमिक मूल्यों में प्रशिक्षित किया जाए।  
- निरीक्षकों द्वारा सेक्सिस्ट, जातिगत, साम्प्रदायिक और दलगत भाषा का इस्तेमाल व व्यवहार पूरी तरह निषेध हो।  
- किसी भी स्तर पर अपमाजनक भाषा का इस्तेमाल पूरी तरह निषेध हो। 
- लोकतान्त्रिक संवाद की संस्कृति और ईमानदाराना फीडबैक लेने के तंत्र बनाए जाएँ। 
- नित नए आदेश भेजकर स्कूल के अपने कैलेंडर और अधिगम प्रक्रिया के साथ छेड़छाड़ न की जाए। 
- ट्रांसफर/ससपेंशन जैसी कार्रवाई सवाल पूछने या सच बोलने वाले शिक्षकों के ख़िलाफ़ बदले की भावना से या डर बैठाकर उन्हें चुप कराने के लिए न हो, बल्कि पारदर्शी, विधिवत व न्यायसंगत प्रक्रिया के तहत ही हो। 
- शिक्षा में एनजी के हस्तक्षेप को तुरंत ख़त्म किया जाए। 

सधन्यवाद 
    

प्रतिलिपि: 
निदेशक, दिल्ली शिक्षा विभाग
अध्यक्ष, GSTA

स्कूलों में जातिगत भेदभाव और हिंसा को ख़त्म करना है तो द्रोणाचार्य के नहीं, सावित्रीबाई फूले के दिखाए रास्ते पर चलना होगा


 
लोक शिक्षक मंच राजस्थान के जालौर ज़िले के एक निजी स्कूल में शिक्षक के हाथों हिंसा का शिकार हुए दलित पृष्ठभूमि के तीसरी कक्षा के छात्र इंद्र कुमार मेघवाल की मौत पर गहरा दुःख और आक्रोश व्यक्त करता है।
राजस्थान भारत के उन कई राज्यों में से एक है जहाँ जातिगत आधार पर सामाजिक-राजनैतिक सत्ता व दमन का बोलबाला है। सत्ता के जातिगत चरित्र का पता इस बात से ही लग जाता है कि हिंसा की घटना के बाद लगभग तीन हफ़्तों तक तो इंद्र कुमार मेघवाल के परिवारजन एक तरफ़ अस्पतालों के चक्कर काटते रहे, और दूसरी तरफ़ उन पर 'समझौते' का दबाव बनाया गया। आख़िरकार, छात्र की मौत के बाद और परिवार तथा समुदाय के संघर्ष के चलते मीडिया व प्रशासन इस हत्या का संज्ञान लेने पर मजबूर हुए।
अख़बारों व अन्य मीडिया पटलों पर आई रपटों के अनुसार 20 जुलाई को शिक्षक छैल सिंह ने, जोकि उक्त स्कूल के प्रिंसिपल भी हैं, इंद्र को जातिगत आधार पर अलग से इस्तेमाल के लिए रखे गए मटके से पानी पीने पर जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करते हुए मारा। छात्र की चोट गहराती गई और अंततः 13 अगस्त को इंद्र की मौत हो गई।  
एक तरफ तनाव से निपटने के नाम पर क्षेत्र में सभाओं आदि पर निषेधाज्ञा लगाकर पीड़ित परिवार से सामाजिक-दलित संगठनों को मिलने से रोक दिया गया, दूसरी तरफ जातिगत रूप से दबंग समूहों की 'महापंचायतें' धड़ल्ले से आयोजित की गईं। 
इस बीच मीडिया के एक हिस्से में इस तरह की रपटें भी आने लगीं कि स्कूल में अलग से कोई मटका नहीं था और शिक्षक ने इंद्र कुमार मेघवाल को जातिगत आधार पर नहीं, बल्कि बच्चों की आपसी लड़ाई के नतीजतन मारा था। लेकिन इस सच से कौन मुकर सकता है कि जातिगत तिरस्कार हमारी संस्कृति व मान्यताओं में रचा-बसा है, तथा हर रोज़ सैकड़ों लोग प्रत्यक्ष जातिगत हिंसा का शिकार होते हैं लेकिन उनमें से कुछ ही अपनी शिकायत दर्ज करा पाते हैं।

शिक्षा संस्थानों में जातिगत हिंसा की यह घटना: न पहली है और, अफ़सोस, न आख़िरी 
जब राजस्थान में सरस्वती विद्या मंदिर नामक स्कूल से इस घटना की खबर आई, उन्हीं दिनों उत्तर-प्रदेश के बहराइच ज़िले के एक निजी स्कूल में फ़ीस न दे पाने पर दलित पृष्ठभूमि के एक विद्यार्थी की पिटाई की गई जिसके चलते कुछ दिन बाद उसकी मौत हो गई; मध्य-प्रदेश के सिंगरौली ज़िले के एक सरकारी स्कूल की बारहवीं कक्षा की छात्राओं ने एक शिक्षिका पर जातिगत भाषा द्वारा अपमानित करने व पढ़ाने में भेदभाव बरतने के गंभीर आरोप लगाए गए; उत्तराखंड में जातिगत रूप से कुछ दबंग परिवारों द्वारा अपने बच्चों के स्कूल में दलित पृष्ठभूमि की महिला के हाथ का बना खाना लेने से इंकार कराने का उदाहरण सामने आया आदि।
विद्यालयों के ऊपर तो सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ़ नई पीढ़ी को तैयार करने की ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी होती है। सावित्री बाई जैसे शिक्षकों ने तो शिक्षा को जातीय और लैंगिक विषमताओं पर चोट करने का ज़रिया बनाया था। ऐसे में स्कूलों के संदर्भ में जातिगत हिंसा की प्रत्येक घटना और भयावह हो जाती है।
आख़िर क्यों हमारे विद्यालय जातिवाद के खिलाफ़ लड़ने के बजाय जातिवाद के गढ़ बन जाते हैं? 

जातिगत बहिष्करण और हिंसा की जड़ें: सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक हैं 
इतिहास गवाह है कि सदियों से बहुजनों के शरीर, श्रम और ज्ञान को लूटकर विशिष्ट समूहों ने अपने साम्राज्य खड़े किए हैं। शूद्रों और 'अछूतों' को यह सिखाया गया कि 'उनका जन्म अन्य तीन वर्णों की सेवा' के लिए हुआ है ताकि इनके लिए काम करते रहना को ही वो अपना धर्म समझें। उन्हें ज़मीन, औपचारिक शिक्षा तंत्र और औज़ारों से वंचित रखकर 'आश्रित' समुदायों में बदल दिया गया ताकि न वो आगे बढ़ सकें और न सेवकों की संख्या में कमी आए। उनके सामाजिक ज्ञान को बेकार बताकर 'वर्ण व्यवस्था' को ही 'ज्ञान' बना दिया गया ताकि ऊपर वाला ऊपर और नीचे वाला नीचे बना रहे।
अवश्य ही यह आसान नहीं था इसलिए सदियों से इस उत्पीड़न को बनाए रखने के लिए राजशाही के बल और कानून के छल का इस्तेमाल होता आया है। इसी बाल और छल का हिस्सा थी वो 'आरंभिक शिक्षा व्यवस्था' जिसमें शिक्षा विशेष वर्गों के पुरुषों के लिए आरक्षित थी और जिसमें द्रोणाचार्य जैसे शिक्षक एकलव्य के अंगूठे की बलि लेकर वर्ण व्यवस्था को बचाना अपना धर्म समझते थे।
लेकिन आज भी शिक्षकों का एक बड़ा वर्ग इसी गुरु-शिष्य परम्परा के महिमामंडन से चिपका है और इसका गुणगान करता सुनाई देता है। हमारे स्टाफ रूम्स में खानपान की विविधता को लेकर पूर्वाग्रह मौजूद हैं, आरक्षण जैसे मुद्दों पर अनैतिहासिक समझ व्यापक है, विद्यार्थियों और उनके अभिभावकों को वज़ीफ़ों के संदर्भ में 'लालची' कहकर अपमानित किया जाता है, जातिगत टिप्पणियों को बर्दाश्त किया जाता है, कक्षा में असंवेदनशील ढंग से आरक्षित जातियों के बच्चों को सम्बोधित किया जाता है आदि। सच यह है कि हम शिक्षकों के अंदर भी वो सारी जातिगत-लैंगिक-सांप्रदायिक विषमताएँ मौजूद हैं जो बाकी समाज में व्याप्त हैं। हमें अपने अंदर और आसपास इन विषमताओं को खत्म करने के लिए लड़ना होगा।

हमारी शिक्षा व्यवस्था: वर्ण व्यवस्था का पुनरुत्पादन करती है 
लेकिन यह केवल शिक्षक वर्ग का किया-धरा नहीं है; पूरी शिक्षा नीति और शिक्षा व्यवस्था इसकी दोषी है। बहुजन बच्चों की समान गुणवत्ता वाली शिक्षा पूरी होने में कई तरह के व्यवस्थागत अवरोध हैं, जैसे:  
- पाठ्यचर्या से उन उद्धरणों को हटाया गया जो वर्ण व्यवस्था का सच उजागर करते थे: एनसीआरटी किताबों में छंटाई के नाम पर हटाए गए उद्धरण - कैसे जन्म से वर्ण निश्चित होता है, कैसे शूद्रों और महिलाओं को वेद सुनने की इजाज़त नहीं, कैसे कृषि उत्पादन में वृद्धि का आधार दास-दासियों के श्रम का उत्पीड़न था आदि। कक्षा 9 की इतिहास की किताब से ट्रेवनकोर की नादर महिलाओं के साथ पहनावे को लेकर हुई जातिगत हिंसा और उनके जवाबी आंदोलन के उद्धरण को हटाया गया। हमें यह पहचानना होगा कि ये कौन-सी ताकतें हैं जिन्हें जातिगत संघर्ष के उदाहरण इतना डराते हैं कि वे युवाओं को इनसे रू-ब-रू नहीं होने देना चाहते। एक प्रबुद्ध समाज अपनी विरासत में मौजूद उत्पीड़न एवं अन्याय को पहचानता, स्वीकारता और उसकी माफ़ी माँगता है, नाकि छिपाता है। ऐसे में हमें अपनी पाठ्यचर्या के न्यायप्रिय तत्वों को बचाने के लिए लड़ना होगा।
- बहुजन बच्चों का शिक्षा पूरी करना मुश्किल किया: आज भी कक्षा 8 के बाद स्कूल छोड़ने वाले बच्चों में सबसे ज़्यादा अनुपात वंचित वर्गों से आने वाले बच्चों का है (बिंदु 6.2.1, एनईपी 2020)। एक तरफ सरकारी स्कूलों के बच्चों पर फ़ीस का बोझ बढ़ता जा रहा है (बोर्ड परीक्षा के नाम पर सीबीएसई ने कई गुना फ़ीस बढ़ाई) और दूसरी तरफ आरक्षित जातियों को दी जाने वाली फ़ीस रियायत का दर घटा है। कक्षा 9-12 में सरकारी स्कूल भी अपने परिणाम चमकाने के लिए 'कमज़ोर' बच्चों के नाम काटकर उन्हें ओपन में भेजने में लगे हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति भी कक्षा 3, 5, 8 तक में ओपन से पढ़ाई करवाने को बल देती है और खर्च बचाने के लिए सरकारी स्कूल मर्ज/बंद करने की कवायद करती है जिसका खामियाज़ा सबसे पहले सबसे कमज़ोर तबके के बच्चों को उठाना होगा।
- दमित जातियों को वजीफ़े न देने के लिए एनईपी 2020 कई हथकंडे अपनाती है: एक तरफ केंद्र सरकार ने वजीफों का बजट घटाया है और दूसरी तरफ आवेदन की प्रक्रिया को जटिल बनाकर बच्चों की पहुँच से दूर कर दिया गया है। उदाहरण : (क) शिक्षा विभाग से प्राप्त एक जानकारी के अनुसार दिल्ली सरकार के स्कूलों में कक्षा 9-12 में नामांकित विद्यार्थियों में से 15.3% विद्यार्थी SC (पृष्ठभूमि के) हैं, 7.2% OBC (पृष्ठभूमि के) हैं और 0.22% ST (पृष्ठभूमि के) हैं। यानी, इन आँकड़ों के हिसाब से, एक-चौथाई से भी कम विद्यार्थी इन वंचित जाति-समूहों से हैं, जबकि सच्चाई यह है कि जाति प्रमाण-पत्र न बनवा पाने के कारण अधिकतर बहुजन बच्चे स्कूलों में अदृश्य कर दिए जाते हैं और उन तक उनके हक़ नहीं पहुँचते। (ख) दिल्ली में 2021-22 में कक्षा 11-12 में केवल 17.12% SC लड़कियाँ ही पोस्ट मेट्रिक स्कॉलरशिप का ऑनलाइन आवेदन कर पाईं और इनमें से 41% लड़कियों का आवेदन आय प्रमाण-पत्र की कमी के कारण नामंज़ूर हो गया। अंततः केवल 10.1% SC छात्राओं को पोस्ट मेट्रिक वजीफा मिला। आज यह सच शिक्षकों के बीच आम हो गया है कि क्योंकि सरकार वजीफ़े देना नहीं चाहती इसलिए नित नयी शर्तें जोड़ती जा रही है।
- 'लायक' को छाँटकर विज्ञान और रोबोटिक्स पढ़ाने और बाकियों को वापस 'पारम्परिक कामों' में धकेलने वाली दोगली पढ़ाई कराई जा रही है : आज भी अंग्रेज़ी माध्यम सैक्शन में तथा कक्षा 11 में विज्ञान के सैक्शन में SC/ST/OBC पृष्ठभूमि के बच्चों का अनुपात कम दिखाई पड़ता है जो इस वास्तविकता की गवाही देता है कि शिक्षा की सीढ़ियाँ चढ़ने में आज भी वर्णगत पृष्ठभूमि की भूमिका महत्वपूर्ण है। एक तरफ राष्ट्रीय शिक्षा नीति चाहती है कि बच्चे कक्षा 10 के बाद अकादमिक पढ़ाई छोड़कर वोकेशनल शिक्षा में जाएँ और दूसरी तरफ दिल्ली सरकार 'नौकरी देने वाले बनो' के नाम पर बच्चों को वापस उन्हीं जातिगत काम-धंधों में भेज रही है जिनसे निकलने के लिए वे शिक्षा लेने स्कूल आए थे। ये कौन-सी पृष्ठभूमियों के बच्चे होंगे जो डॉक्टर-इंजीनियर-वकील-प्रोफेसर बनेंगे जिनकी कोर्स फ़ीस लाखों में जाती है? और वे कौन-सी पृष्ठभूमियों के बच्चे होंगे जो मैकेनिक, पार्लरवाले, ज़ोमाटो, ऑटो वाले बनेंगे? 
- शिक्षक पदोन्नतियों में सामाजिक न्याय को कमज़ोर करना : अभी तक शिक्षकों की पदोन्नतियों के लिए अनुभव की वरीयता, अकादमिक योग्यता व सामाजिक न्याय के स्थापित व वैधानिक प्रावधान इस्तेमाल होते थे। लेकिन एनईपी 2020 इनकी जगह 'समर्पण' व 'मेरिट' जैसे कारकों को प्रस्तावित करती है जिसका सीधा मतलब है जातिगत काँट-छाँट की वापसी। आख़िर कौन यह तय करेगा कि कौन-सा शिक्षा समर्पित है और कौन नहीं? संभव है कि न्याय से ज़्यादा सत्ता के प्रति समर्पण को पुरस्कृत किया जाए। जातिगत उत्पीड़न को ढाँकने के लिए यह नीति दमित जातियों को साफ़गोई से संबोधित न करके SDG (सोशली डिसअडवांटेज्ड ग्रुप) जैसी भ्रामक शब्दावली का इस्तेमाल करती है। निजी विद्यालयों को बढ़ावा देती है और ऊपर से उनमें सामाजिक न्याय के अनुसार आरक्षित जातियों से शिक्षकों की नियुक्तियाँ करने के प्रावधान डालने की बात नहीं करती।
अगर शिक्षा में जातिगत भेदभाव व्यस्थागत है तथा राज्य के संरक्षण में फल-फूल रहा है तो इसके खिलाफ़ हमारी लड़ाई भी सामूहिक और व्यवस्थित होनी होगी।

हमारी लड़ाई : शिक्षकों की भूमिका 
अगर हम, दिल्ली के शिक्षक राजस्थान की इस घटना का भरसक विरोध करते हैं तो हमारे अपने व्यवहार और स्कूलों में जातिगत भेदभाव, छींटाकशी और अन्याय के अनगिनत रूपों को पहचानना, उजागर करना और उन्हें ख़त्म करने के लिए संघर्ष करना भी हमारा कर्तव्य है। शिक्षक होने के नाते हमारी भूमिका शिक्षा के माध्यम से जातिगत भेदभाव व अपमान-हिंसा की संस्कृति को चुनौती देने तथा विद्यार्थियों में इस चेतना को गढ़ने की है। अन्यथा हम कितनी भी आलोचना कर लें या दुःख जताएँ, ऐसी क्रूर घटनाएँ रुकेंगी नहीं, बल्कि नियमित ख़बर की तरह एक-के-बाद-एक सामने आती रहेंगी। हम माँग करते हैं कि -
i. राजस्थान सरकार जालोर के सुराणा गाँव के सरस्वती विद्या मंदिर नामक निजी स्कूल में जातिगत हिंसा के शिकार हुए छात्र इंद्र कुमार मेघवाल के परिवार की सुरक्षा व पूर्ण स्वतंत्रता सुनिश्चित करे तथा उन्हें उचित मुआवज़ा प्रदान करे।  
ii. हिंसा की निष्पक्ष जाँच सुनिश्चित करते हुए क़ानूनसम्मत कार्रवाई की जाए। iii. राजस्थान सरकार हिंसा के स्थल रहे उक्त स्कूल सहित तमाम निजी स्कूलों को अपने अधीन लेकर मुफ़्त शिक्षा सुनिश्चित करने वाली सार्वजनिक व्यवस्था में लाए तथा सामाजिक न्याय के प्रावधानों के अनुसार शिक्षकों की नियुक्तियाँ करे। 
iv. सभी स्कूलों को जातिगत भेदभाव व सूक्ष्म अथवा परोक्ष हिंसा के ख़िलाफ़ सतर्क रहने व शिकायत मिलने पर उसे दर्ज करने के दिशा-निर्देश जारी किए जाएँ।   
v. राज्यों से लेकर केंद्र के स्तर तक पाठ्यक्रमों में वर्ण व्यवस्था को जायज़ ठहराने व जातिगत विषमता के ख़िलाफ़ उठी धाराओं व आवाज़ों को हटाने/विकृत करने की प्रक्रिया को ख़ारिज किया जाए।
vi. विद्यार्थियों के लिए सामाजिक न्याय पर आधारित वज़ीफ़ों व अन्य ज़रूरी सहायता सामग्री/राशि के दायरे का विस्तार करते हुए इनकी प्रक्रिया को सहज-सुलभ बनाया जाए। 
vii. सामाजिक न्याय विरोधी राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को रद्द किया जाए। सार्वजनिक स्कूलों को बर्बाद व बंद करने अथवा उनका परोक्ष निजीकरण करने की नीति को पलटा जाए।