Sunday 4 September 2022

पत्र: विद्यालय निरीक्षण में नौकरशाही के बढ़ते गैर-पेशेवर और अपमानजनक व्यवहार के विरोध में

 प्रति 
शिक्षा मंत्री
दिल्ली सरकार

विषय : विद्यालय निरीक्षण में नौकरशाही के बढ़ते गैर-पेशेवर और अपमानजनक व्यवहार के विरोध में 

महोदय

लोक शिक्षक मंच इस पत्र के माध्यम से दिल्ली सरकार के स्कूलों में नौकरशाही के बढ़ते गैर-पेशेवर और अपमानजनक व्यवहार के प्रति अपनी चिंता और विरोध दर्ज कराना चाहता है।
किसी भी व्यवस्था की तरह विद्यालयों में भी नियमित और सामयिक निरीक्षण की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। निरीक्षण का मक़सद यह जाँचना होना चाहिए कि शिक्षण व विद्यालय की अन्य गतिविधियों में किस तरह की अड़चनें आ रही हैं और उन्हें कैसे दूर किया जा सकता है, आदि। लेकिन हमारे स्कूलों में जिस प्रकार का निरीक्षण हो रहा है, उसमें बहुत सी समस्याएँ हैं :
i. अकसर निरीक्षण पर आने वाले अफ़सर घोड़े पर सवार होकर आते हैं और स्कूल में एक डर और उथल-पुथल का माहौल पैदा करते हैं। ऐसा लगता है कि उनका उद्देश्य स्कूल की अकादमिक और गैर-अकादमिक गतिविधियों की चुनौतियों को समझना नहीं होता बल्कि शिक्षकों के अंदर यह डर बिठाना होता है कि अगर विभाग के पूर्व-निर्धारित एजेंडा को शब्दश: लागू नहीं किया तो शिक्षक के लिए अच्छा नहीं होगा। निरीक्षण से पहले स्कूलों में कृत्रिम चुप्पी का माहौल बनाया जाता है; बच्चों को बाहर खेलने से मना कर दिया जाता है; कक्षाओं, विशेषकर प्राथमिक, में होने वाली चर्चाओं-गतिविधियों को 'शोर' का नाम देकर दबा दिया जाता है, आदि। स्कूल की दिनचर्या में ऐसे निरीक्षण मदद नहीं कर रहे बल्कि खलल डालते हैं। 
ii. अक़सर निरीक्षक स्कूल दौरे के बाद शिक्षकों के साथ मीटिंग में बैठकर डायलॉग नहीं करते बल्कि उन्हें बेइज़्ज़त करते हैं। निरीक्षक इस अवधारणा से अपनी बात शुरु करते हैं कि शिक्षक कामचोर, बेईमान और नालायक हैं। सरकारी स्कूलों में हज़ारों शिक्षक रोज़ इस अपमान का घूंट पी रहे हैं कि अपने विद्यार्थियों से गहरे तौर पर जुड़े होने के बावजूद और अपने विषय-ज्ञान तथा शिक्षा दर्शन में पैठ रखने के बावजूद वे ऐसी पूर्वाग्रहयुक्त और अपमानजनक बातें सुनने को मजबूर हैं। कई बार महिला स्टॉफ को निरीक्षकों की सेक्सिस्ट भाषा और व्यवहार झेलना पड़ता है लेकिन उनके पास इसके खिलाफ़ शिकायत करने के ज़रिये नहीं हैं। यह अपमानजनक व्यवहार हम शिक्षकों का मनोबल तोड़ता है और पूरी व्यवस्था से हमारा अलगाव पैदा करता है। 
iii. निरीक्षण प्रक्रिया में फ़ौरन ससपेंशन/टर्मिनेशन ऑर्डर पकड़ाने का नया चलन भी जुड़ गया है। भले ही फिल्मों में ऐसे दृश्य ताली बँटोरने वाले होते हों लेकिन असल में यह न्यायिक प्रक्रिया से समझौता है तथा ताकत-संबंधों के दुरुपयोग को जन्म देता है। किसी भी व्यवस्था के ख़राब होने में कई लोगों का हाथ होता है लेकिन किसी एक को बलि का बकरा बनाकर सारा ठीकरा उसी के सर फोड़ने से बाकियों का दोष छिप जाता है। ऐसी तात्कालिक व मनमफ़िक़ कार्रवाई का अहसास शिक्षकों को अपना काम बेहतर ढंग व गहराई से करने को प्रेरित नहीं करता है, बल्कि महज़ 'रेकॉर्ड' ठीक-से प्रस्तुत करने और ख़ामोश रहने की प्रतिक्रिया पैदा करता है। इसका नतीजा व्यवस्था के सुधार में नहीं, बल्कि सच पर पर्दा डालने व हक़ीक़त छुपाने में सामने आता है। 
iv. हमारे स्कूलों में धूल-मिट्टी ढूंढ़कर प्रधानाचार्य को मेमो देने वाले व शिक्षकों को बेईमान और नाकारा कहकर सामंती व्यवहार प्रकट करने वाले अधिकारी, स्वयं हम शिक्षकों का विश्वास और सम्मान जीतने में असफल रहते हैं। हम देखते हैं कि स्कूलों द्वारा ज़ोन व जिला स्तर पर भेजी गयी फाइल्स का समय से जवाब नहीं आता, अकसर विद्यार्थियों और शिक्षकों की ज़मीनी समस्याओं का संज्ञान तक नहीं लिया जाता, शिक्षकों के ऊपर गैर-अकादमिक कार्यभार की समस्या पर आँख मूंद ली जाती है, सफाई कर्मचारियों की कमी के चलते क्षेत्रीय कार्यालयों की सफाई भी उस पैमाने पर खरी नहीं उतरती जिसकी अपेक्षा स्कूलों से की जाती है व दाखिलों से लेकर ट्रांसफर तक के बारे में भ्रष्टाचार की खबरें आती हैं। ऐसे में अफसरों का व्यवहार शिक्षकों में प्रेरणा नहीं जगाता बल्कि उनका रौब व्यवस्था की कमज़ोरी और खोखलेपन को प्रकट करता है। 
v. हम जानना चाहते हैं कि शिक्षा विभाग ने निरीक्षकों के लिए कौन-से दिशा-निर्देश बनाए हैं। विभागीय निरीक्षण के लिखित उद्देश्य क्या हैं? विभिन्न स्तर के अधिकारियों को किस समय-सारणी के अनुसार विद्यालयों का दौरा करना होता है? विद्यालयों को निरीक्षण की इस समय-सारणी से अवगत क्यों नहीं कराया गया है ताकि वे भी निरीक्षण प्रक्रिया की जाँच कर सकें? एक कक्षा में कम-से-कम 15-20 मिनट बैठे बिना निरीक्षक उस कक्षा के पठन-पाठन को बीच में रोककर उस पर टिप्पणियाँ कैसे कर सकते हैं? 
vi. विडंबना यह है कि हमारा शिक्षक प्रशिक्षण सिखाता है कि सच्चा शिक्षक वो है जो स्वतंत्र चिंतन कर सके और अपनी बात कह सके। लेकिन वर्तमान व्यवस्था में सरकारी शिक्षक को ऐसा कर्मचारी बनने पर मजबूर किया जा रहा है जो चुपचाप अफ़सर की खरी-खोटी सुनकर बस आदेश बजाता रहे। बैठकों से लेकर ट्रेनिंग्स में जो शिक्षक या प्रधानाचार्य किसी भी तरह का सवाल उठाते हैं, उन्हें शो-कॉज़ या ट्रांसफर की धमकियाँ दी जाती हैं। किसी नीति की आलोचना करना तो दूर की बात है, नीति के कार्यान्वयन पर सवाल पूछने को भी बर्दाश्त नहीं किया जाता। स्कूलों से विभाग या मंत्रालय तक ज़मीनी सवाल, विचार और ईमानदाराना फीडबैक भेजे जाने के लिए कोई खिड़की-दरवाज़े नहीं हैं। ऐसी कार्य-संस्कृति न केवल लोकतान्त्रिक मूल्यों को कमज़ोर करती है बल्कि आवश्यक आलोचना का भी दम घोंटती है। 
vii. पर हम इसे कुछ अफसरों और व्यक्तियों की समस्या नहीं मानते। दरअसल यह व्यवस्था की समस्या है जो बढ़ती जा रही है। चाहे देश हो या विभाग, अगर जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों का शीर्ष नेतृत्व यह मानकर चलेगा कि उसे किसी व्यवस्थित सामाजिक ज्ञान की आवश्यकता नहीं है, बल्कि नीति और नियम बनाने के लिए उसकी निजी सोच ही काफी है तो इसी तरह की व्यक्तिवादी संस्कृति पनपेगी। एक ऐसी संस्कृति जिसमें प्रशासनिक पदानुक्रम में शीर्ष पर बैठे कुछ लोग मानकर चलेंगे कि 'सोचने' का काम केवल उनका है और बाकी सब लोग 'सोचने-समझने' की क्षमता नहीं रखते।
viii. इस निरीक्षण प्रक्रिया की आपा-धापी का एक कारण यह भी है कि अब विद्यालयों का दिन अपने पूर्व-निर्धारित कैलेंडर के अनुसार नहीं चलता, बल्कि नित नए राजनीतिक एजेंडा व विभागीय आदेशों/सर्कुलर/प्रोग्राम के अनुसार चलता है। हमने शिक्षा की उस समझ को पीछे छोड़ दिया है जो कहती थी कि अधिगम सतत परन्तु धीमी गति से चलने वाली प्रक्रिया है जिसमें दूरगामी उद्देश्यों की तरफ़ निरंतरता से बढ़ा जाता है। आज स्कूलों के पास शान्ति से अपनी पाठ्यचर्या पढ़ाने का न समय है और न स्वायत्तता। ऐसे में स्कूल किसी भी समय-किसी भी एजेंसी द्वारा-किसी भी उद्देश्य से भेजे गए अकादमिक - गैर-अकादमिक आदेशों को लागू करवाने के केंद्र बन गए हैं और स्कूलों के निरीक्षण इस निरंतर उथल-पुथल की व्यवस्था को किसी तरह क़ाबू में रखने के साधन बन गए हैं।
ix. शिक्षा व्यवस्था की इस मायोपिक कार्यशैली के पीछे दो कारण हैं। एक शिक्षा का बढ़ता राजनीतिकरण और दूसरा शिक्षा का बढ़ता एनजीओकरण। चूँकि दिल्ली सरकार हर जगह अपने 'शिक्षा मॉडल' का प्रचार करती है इसलिए उसे शिक्षा से भी जल्द-से-जल्द चमकते हुए परिणाम चाहिए; भले ही इसके लिए शिक्षण प्रक्रिया को तोड़ा-मरोड़ा जाए, झूठे परिणाम बनवाए जाएँ, कम अंकों वाले बच्चों को स्कूलों से निकालकर ओपन में भेजा जाए आदि। दूसरी तरफ विपक्ष सतही आलोचनाओं के दम पर इस विज्ञापन के गुब्बारे को फोड़ने की ताक में रहता है। स्कूल 'शिक्षा' के नहीं राजनीतिक तू-तू-मैं-मैं के केंद्र बनते जा रहे हैं। और इस प्रतिस्पर्धा का सीधा असर स्कूलों की स्वायतत्ता पर यूँ पड़ता है कि किसी भी तरह के सवाल और आलोचना को गद्दारी मानकर दण्डित किया जाता है।
ऊपर से शिक्षा मंत्रालय ने नीति बनाने का काम एनजीओ के हवाले कर दिया है जिनके अपने स्वार्थ नीतियों पर हावी हैं। शिक्षा दर्शन में कच्चे लेकिन बाज़ारवाद में पक्के ये एनजीओज़ दशकों से शिक्षा व्यवस्था की समस्याओं के लिए शिक्षक को दोषी बताकर अपनी रोटियाँ सेंकते आए हैं। जब तक शिक्षा मंत्रालय में इन एनजीओ का दबदबा रहेगा तब तक शिक्षक को बौद्धिक प्राणी मानकर उनसे संवाद नहीं किया जाएगा।
x. विभाग को यह जाँचने की ज़रूरत है कि इस दमघोंटू और गैर-पेशेवर निरीक्षण संस्कृति का स्कूलों पर क्या असर पड़ रहा है : क्या यह असंवेदनशील और अपमानजनक व्यवहार प्रधानाचार्य और शिक्षकों से गुज़रते हुए विद्यार्थियों तक भी रिस रहा है, क्या ऐसे निरीक्षणों से शिक्षकों का पठन-पाठन के प्रति मनोबल घट रहा है, क्या हमारे स्कूलों में दिखावे और जी-हुज़ूरी की संस्कृति बढ़ रही है आदि?
xi. सार्वजनिक स्कूल जनता के स्कूल हैं पर बढ़ता अफसरशाहीकरण इनके जनचरित्र और लोकतान्त्रिक चरित्र को खत्म कर रहा है। इसलिए हमारी विभाग से अपील है कि:
- विभागीय निरीक्षण के उद्देश्य और दिशा-निर्देश सार्वजनिक किए जाएँ। 
- विभागीय निरीक्षण की समय-सारणी विद्यालयों के साथ साझा की जाए ताकि अफसरशाही की जवाबदेही भी तय हो। 
- नौकरशाही को निरीक्षण के पेशेवर और अकादमिक मूल्यों में प्रशिक्षित किया जाए।  
- निरीक्षकों द्वारा सेक्सिस्ट, जातिगत, साम्प्रदायिक और दलगत भाषा का इस्तेमाल व व्यवहार पूरी तरह निषेध हो।  
- किसी भी स्तर पर अपमाजनक भाषा का इस्तेमाल पूरी तरह निषेध हो। 
- लोकतान्त्रिक संवाद की संस्कृति और ईमानदाराना फीडबैक लेने के तंत्र बनाए जाएँ। 
- नित नए आदेश भेजकर स्कूल के अपने कैलेंडर और अधिगम प्रक्रिया के साथ छेड़छाड़ न की जाए। 
- ट्रांसफर/ससपेंशन जैसी कार्रवाई सवाल पूछने या सच बोलने वाले शिक्षकों के ख़िलाफ़ बदले की भावना से या डर बैठाकर उन्हें चुप कराने के लिए न हो, बल्कि पारदर्शी, विधिवत व न्यायसंगत प्रक्रिया के तहत ही हो। 
- शिक्षा में एनजी के हस्तक्षेप को तुरंत ख़त्म किया जाए। 

सधन्यवाद 
    

प्रतिलिपि: 
निदेशक, दिल्ली शिक्षा विभाग
अध्यक्ष, GSTA

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