Thursday 21 May 2020

दिल्ली के स्कूलों में कार्यान्वित करने हेतु कुछ प्रस्ताव

प्रति 
शिक्षा मंत्री,
दिल्ली सरकार,
दिल्ली। 

महोदया/महोदय,

लोक शिक्षक मंच कोरोनावायरस के इर्द-गिर्द रचे माहौल के संदर्भ में शिक्षा व समाज से जुड़े एक गंभीर मुद्दे पर आपका ध्यानाकर्षित करके स्कूलों में कार्यान्वित करने हेतु कुछ प्रस्ताव साझा करना चाहता है। बहुत संभव है कि लॉकडॉउन ख़त्म होने के बाद जब स्कूल खुलें तो कोरोना को लेकर सोशल मीडिया व कुछ मीडिया घरानों के नियोजित सांप्रदायिक अभियान की गूँज हमारे स्कूलों और कक्षाओं तक भी पहुँचे। 

आज दुनिया के कई अन्य देशों की तरह हमारे देश में भी 'फ़ेक न्यूज़' द्वारा चलाए जा रहे दुष्प्रचार के चलते लोगों में न सिर्फ़ भ्रमित करने वाली और झूठी सूचनाएँ फैल रही हैं, बल्कि विभिन्न समुदायों के बीच अविश्वास और संदेह भी बढ़ रहा है। कहावत भी है कि सच अपने जूतों के फ़ीते ही बाँध रहा होता है और झूठ सारी दुनिया का चक्कर लगा आता है। शिक्षक होने के नाते हमें डर है कि झूठ और नफ़रत का यह दुष्प्रचार स्कूलों और कक्षाओं में भी तनाव व भेदभाव का रूप ले सकता है। हमारा मानना है कि लोगों के रोज़मर्रा के आपसी रिश्तों व बंधुत्व पर हो रहा ये आघात कोई स्वतः-स्फूर्त प्रक्रिया नहीं है, बल्कि प्रयोजित है। इस कारण इसे रोकने के हमारे प्रयासों को भी सुविचारित, सुनियोजित और अथक होना होगा। 

शिक्षा को समाज में पसर रही अज्ञानता व नफ़रत से निपटने के लिए आगे आना होगा। स्कूलों को अपनी बौद्धिक और संवैधानिक सांस्थानिक ज़िम्मेदारी निभानी होगी। इस नाते हम आपके समक्ष स्कूलों में हस्तक्षेप हेतु कुछ सुझाव प्रस्तुत कर रहे हैं - 

1. स्कूल खुलने के पहले-ही शिक्षा विभाग को स्कूलों में सांप्रदायिक सौहार्द को बनाए रखने और मज़बूत करने से संबंधित सर्कुलर जारी करने चाहिएं। एक तरफ़ ऐसे निर्देश शिक्षकों को सही राह पर आगे बढ़ने के लिए प्रेरित करते हैं, तो दूसरी तरफ़ भेदभावपूर्ण व्यवहार को रोकने की भूमिका भी निभाते हैं।

2. 'फ़ेक न्यूज़' को पहचानने और इसकी कड़ी को तोड़ने के लिए विद्यार्थियों और हम शिक्षकों को भी मीडिया व इसे परखने के औज़ारों में शिक्षित होना होगा। बीबीसी के एक ताज़ा अध्ययन (The Value of News – and the Importance of Trust) के अनुसार 72% भारतीय सही जानकारी और फ़ेक न्यूज़ के बीच फ़र्क़ नहीं कर पाते हैं | ऐसे में हमें विद्यार्थियों को 'जानकारी के स्रोत जाँचने' का कौशल भी सिखाना होगा ताकि वे आगे चलकर नफ़रत और डर से लैस अफ़वाहों के शिकार न बनें। हम याद दिलाना चाहेंगे कि इस साल फ़रवरी में हुई साम्प्रदायिक हिंसा के बाद दिल्ली सरकार ने भी फ़ेक न्यूज़ के खिलाफ Delhi Assembly For Peace And Harmony Committee बनाई थी। 

कोरोना को लेकर भारत की आबादी के एक बड़े हिस्से के बीच कई तरह की फ़ेक न्यूज़ फैली - जैसे, उत्तर-पूर्व के लोगों को कोरोना का कारण बताना, मुस्लिम रेहड़ी विक्रेताओं द्वारा सब्ज़ी पर थूक लगाने का इलजाम लगाना, या क्वारंटाइन में रखे गए तब्लीग़ी जमात के लोगों द्वारा स्वास्थ्यकर्मियों से अभद्र व्यवहार करने के वीडियो प्रचारित करना आदि। इनका असर यह हुआ कि निर्दोषों को निशाना बनाया गया और विशेष समुदाय को कलंकित किया गया। साफ़ है कि ऐसी फ़ेक न्यूज़ का मक़सद चिन्हित पहचान के लोगों के ख़िलाफ़ घृणा और हिंसा फैलाना ही होता है। अक्सर विद्यार्थी घर-बाहर से मिली ऐसी जानकारियाँ कक्षाओं में भी लाते हैं। ऐसे में अगर शिक्षक फ़ेक न्यूज़ या पूर्वाग्रहों से निपटने के लिए पहले से तैयार न हों, तो ऐसे दुराग्रही प्रचारों के परिणाम घातक व दूरगामी हो सकते हैं। 

फ़ेक न्यूज़ को पहचानने व इसके ख़तरों के प्रति सचेत करने के लिए विभाग द्वारा हम शिक्षकों के बीच नियमित कार्यशालाएँ आयोजित की जानी चाहिए। जैसे स्कूलों में साइबर क्राइम से संबंधित कार्यशालाएँ कराई जाती हैं या दैनिक सभाओं व विशेष अवसरों पर यौन शोषण के ख़िलाफ़ छात्र-छात्राओं को जागरूक किया जाता है, उसी तरह फ़ेक न्यूज़ के खिलाफ भी जागरूकता अभियान चलाने होंगे। इस दिशा में अनेक राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं जारी दिशा-निर्देशों की मदद भी ली जा सकती है। 

3. यह चिंताजनक है कि आज हम सच और झूठ, समाचार और दुष्प्रचार, तथ्यपरक मत और पूर्वाग्रह, अभिव्यक्ति की आज़ादी और घृणा की भाषा (हेट स्पीच) के बीच भेद कर पाने में अक्सर मात खा जाते हैं। हालाँकि, पूर्वाग्रहों को सामाजिक वैज्ञानिकता ही काट सकती है लेकिन इसमें संवैधानिक मूल्यों की गहरी समझ भी हमारे काम आ सकती है। हमारा सुझाव है कि विभाग द्वारा कराए जाने वाले सेवाकालीन प्रशिक्षणों में एक प्रशिक्षण धर्मनिरपेक्षता, न्याय व बंधुत्व जैसे संवैधानिक मूल्यों पर भी होना चाहिए। सार्वजनिक व्यवस्था में काम करने के नाते हमें यह याद रखने की ज़रूरत है कि जब राज्य और उसके अधिकारी सभी धार्मिक-सांस्कृतिक पहचान के लोगों के साथ निर्पेक्ष होकर व्यवहार करते हैं तो साम्प्रदायिक झगड़ों की जड़ें ख़ुद ही कमज़ोर पड़ जाती हैं। 

4. हमें पाठ्यचर्या को अंतर्सामुदायिक एकता और साझी संस्कृति के उदहारणों से सींचना होगा। एक महत्वपूर्ण प्रेरणा इतिहास में बिखरे उन ढेरों प्रसंगों में मिलती है जो भाईचारे, इंसाफ़ व मानवता की मिसालें हैं। चाहे वो दिल्ली में हुई हिंसा हो या कोरोना व लॉकडाउन के संकट का माहौल, ऐसे लोगों की भी कमी नहीं थी जिन्होंने संकुचित पहचान से परे जाकर त्याग, प्रेम और इंसानियत की भावनाओं को ज़िंदा रखा। इसके अलावा स्कूलों में राष्ट्रीय त्योहारों के कार्यक्रमों को संविधानसम्मत व सांस्कृतिक विविधता के मूल्यों को प्रस्तुत करने वाले तरीक़ों से मनाना भी इस दिशा में एक कारगर क़दम सिद्ध होगा। 

मनोविज्ञान के क्षेत्र में किये गए शोध बताते हैं कि बुद्धिमता में कमी व कूपमंडूकता का आपस में और इन दोनों का पूर्वाग्रहों से गहरा संबंध है (Gordon Hodson and Michael A. Busseri, Psychological Science, 2012; http://pss.sagepub.com/content/23/2/87)। ऐसे में अगर हम अब भी समाज में फैलाये जा रहे झूठ और नफ़रत के ख़िलाफ़ कमर कसने के लिए तैयार नहीं होते हैं, तो न सिर्फ़ 'विविधता में एकता' और 'सत्यमेव जयते' महज़ खोखले नारे बनकर रह जायेंगे, बल्कि स्कूली शिक्षा भी एक मूल्यहीन, विवेकहीन व निरर्थक प्रक्रिया होकर रह जायेगी। 

आपकी ओर से पहलक़दमी की उम्मीद में


संयोजक समिति 

लोक शिक्षक मंच