Tuesday 24 May 2022

हमें दिल्ली के सरकारी स्कूलों में बढ़ते ठेकाकरण के ख़िलाफ़ अपनी आवाज़ उठानी होगी!


संविधान के वादों और उच्च न्यायालय से लेकर सर्वोच्च न्यायालय तक के तमाम 'अच्छे' फ़ैसलों के बावजूद नियुक्तियों में ठेकाकरण को लेकर ज़मीनी हक़ीक़त बिगड़ती जा रही है। दिल्ली के संदर्भ में हम 6 नवंबर 2013 को आए सोनिया गाँधी व अन्य बनाम दिल्ली सरकार व अन्य केस (जोकि दिल्ली सरकार के अस्पतालों में संविदा पर काम करने वाले पैरा-मेडिकलस्टाफ़ द्वारा दायर किया गया था) को याद कर सकते हैं। इसमें फ़ैसला देते हुए प्रदीप नंद्रजोग व वीकामेस्वरराओ की दिल्ली उच्च-न्यायालय की पीठ ने सरकार द्वारा ठेके पर नियुक्तियाँ करने की नीति को एक धोखा बताया था। अदालत ने सरकार को बढ़ती आबादी को संज्ञान में लेकर विभिन्न विभागों में पदों की संख्या को निर्धारित करने का निर्देश दिया था और ऐसा न करने को उसकी प्रशासनिक नाकामी माना था। इसके अलावा, अदालत ने सरकार को निर्देश दिया था कि वो एक-बार की राहत प्रदान करने के लिए ठेके पर रखे कर्मचारियों को पक्का करने की नीति लाए। समान काम के लिए समान वेतन के सिद्धांत व संविधान में बेगार पर पूर्णतः रोक का हवाला देते हुए अदालत ने न सिर्फ़ वेतन के मुद्दे पर संविदा कर्मचारियों के पक्ष में फ़ैसला सुनाया था, बल्कि ऐसे कर्मचारियों के लिए छुट्टियों के समान अधिकार को भी सुरक्षित किया था। इसके उलट, आज स्थिति क्या है?

1. आज दिल्ली सरकार के स्कूलों में लगभग 20,000 गेस्ट शिक्षक कार्यरत हैं। गेस्ट शिक्षकों को न तो समान काम का समान वेतन मिलता है, न वैतनिक छुट्टी, न स्वास्थ्य सुरक्षा, और न पेंशन लाभ आदि। गेस्ट शिक्षक सालों-साल इस अन्यायपूर्ण व्यवस्था में काम करते रहते हैं और फिर एक दिन छाँटकर बाहर कर दिए जाते हैं। व्यवस्था द्वारा जनित इस गैर-बराबरी को बढ़ाने में विभाग भी कोई कसर नहीं छोड़ता। जहाँ विभागीय जाँच में स्थायी शिक्षक को ससपेंशनऑर्डर देकर अपना पक्ष रखने का मौका दिया जाता है, वहीं गेस्ट शिक्षक को सीधा टर्मिनेशनऑर्डर थमा दिया जाता है। जब सरकारें ख़ुद अदालती आदेशों, अपने ही बनाए क़ानूनों व उस संविधान का उल्लंघन करती हैं जिसके नाम पर वो शपथ लेती हैं (तभी तो सालों-साल 'समान काम का समान वेतन' नहीं देतीं), तो फिर जनता को किस मुँह से नियम-कानूनों का पाठ पढ़ाती हैं या जनता पर हुक्म चलाती हैं?

2. स्कूलों में NSQF (राष्ट्रीय कौशल योग्यता फ्रेमवर्क) के तहत रखे गए वोकेशनल शिक्षकों व प्रशासनिक काम करने वाले IT स्टाफ़ की भर्तियाँ प्राइवेट कंपनियाँ करती हैं। औने-पौने वेतनों पर समान काम कर रहे ये कर्मचारी बेहद असुरक्षित समूह हैं।

3. आज सरकारी स्कूलों में अधिकतम सफाई कर्मचारी और गार्ड्स भी ठेके पर काम कर रहे हैं। सरकार की नाक के नीचे इनके ठेकेदार प्रत्येक कर्मी की तनख्वाह से प्रति माह हज़ारों रुपए काटकर अपनी जेबें भर रहे हैं लेकिन कोई भी सरकार इस भ्रष्टाचार  की न तो जाँच करती है और न ही भर्तियाँ अपने हाथ में लेती है। कर्मी बताते हैं कि उन्हें कोई पे-स्लिप भी नहीं मिलती जिससे वे अपनी पूरी तनख्वाह जाँच सकें और जिन कच्ची नौकरियों को पाने के लिए वो ठेकेदारों को हज़ारों रुपए घूस देने पर मजबूर हैं, उन नौकरियों में उन्हें बीमारी तक में एक दिन की छुट्टी नहीं मिलती। एक छुट्टी के बदले सीधे 500 रुपए तक काट लिए जाते हैं। इनके सर पर नौकरी से निकाल दिए जाने की तलवार हमेशा लटकी रहती है। जो सरकारें ठेकेदारों को स्कूलों में घुसा दें और अपने कर्मचारियों की भर्ती तक ख़ुद न कर सकें, वो किस शासन मॉडल की ढींग हाँकती हैं? 

4. हमारे स्कूलों में खाना बाँटने वाली महिलाओं की हालत तो और भी ख़राब है जिनकी देहाड़ी तक मार ली जाती है। जिन आँगनवाड़ियों से खेलकर बच्चे हमारे स्कूलों तक पहुँचते हैं, उनमें काम करने वाली वर्कर्स और हेल्पर्स तो बार-बार सड़कों पर उतरकर ये कह कर रही हैं कि सरकार उनसे बेगार करवाती है। काम करवाते समय तो सरकार उनके 24 घंटों पर अपना हक़ जमाती है लेकिन तनख्वाह देते समय उन्हें 'मज़दूर' तक नहीं मानती बल्कि 'वॉलंटियर' बताकर न्यूनतम मज़दूरी तक नहीं देती।

साफ़ है, पहले जनता को बेगारी उन्मूलन क़ानून बनवाने के लिए आंदोलन करने पड़े और अब इन कानूनों को लागू करवाने के लिए आंदोलन करने होंगे।

5. जब सरकारी स्कूलों का पूरा ढाँचा मज़दूर की मेहनत के शोषण पर खड़ा है, तो भला इन स्कूलों में पढ़ने वाले मज़दूरों के बच्चे क्या सीख रहे हैं? यही कि किताबों में सिखाए जाने वाले संवैधानिक अधिकार झूठे और कागज़ी हैं। तभी तो सरकारी स्कूल तक में मज़दूर कानूनों का पालन नहीं होता। शायद हमारे विद्यार्थी अपने स्कूलों से यह भी सीख रहे हैं कि बड़े होकर जब वो मज़दूर बनेंगे तो उन्हें भी इन्हीं परिस्थितियों में कच्ची, असुरक्षित नौकरियों में खटना होगा।

6. जब इन सभी कर्मियों के बिना स्कूल एक दिन भी नहीं चल सकते तो सरकार इनकी पक्की नियुक्तियाँ क्यों नहीं करती? जबकि सुप्रीम कोर्ट ने बार-बार अपने आदेशों में साफ़ किया है कि नियमित स्वरूप के काम के लिए नियमित नियुक्तियाँ होनी चाहिए। क्यों सरकार को कुछ सैकड़ों नियुक्तियाँ करने में सालों-साल लग जाते हैं, बार-बार पेपर लीक हो जाते हैं और धाँधलियाँ सामने आती रहती हैं? ऐसा नहीं है कि ये सरकारें निकम्मी हैं और पक्की नियुक्तियाँ करने में असमर्थ हैं। सच तो यह है कि ये मज़दूर-विरोधी सरकारें हैं जिनकी नीति ही है 'एक पक्के मज़दूर की तनख्वाह पर दो-तीन कच्चे मज़दूरों से काम करवाना'। जिस देश में 100 में से 93 लोग अनौपचारिक क्षेत्र में काम करते हैं (NSSO 2014), उस देश के मज़दूर को यह समझ लेना चाहिए कि ये मेहनतकश जनता की सरकारें नहीं हैं, बल्कि पूँजीपतियों की सरकारें हैं।

7. वैसे तो कॉन्ट्रैक्ट लेबर एक्ट 1970 कहता है कि इसका उद्देश्य 'कॉन्ट्रैक्टलेबर ख़त्म करना' है लेकिन यहाँ तो सरकारें ख़ुद ही सारे नियम-कानून तोड़कर अपने ही स्कूलों, अस्पतालों, बसों, दफ़्तरों में ठेकाकरण बढ़ा रही हैं। ऐसी सरकारें एक हाथ में पुलिस का डंडा और दूसरे हाथ में कानून का चाबुक लेकर मज़दूरों पर हमला करती हैं। आँगनवाड़ी कर्मियों की 38 दिन लम्बी हड़ताल तोड़ने के लिए भी तो केंद्र सरकार और दिल्ली सरकार ने यही किया। एक तरफ ये सरकारें आँगनवाड़ी कर्मियों को कर्मचारी नहीं मानतीं, दूसरी तरफ़ इन्हीं सरकारों ने हड़ताल पर बैठी आँगनवाड़ी महिलाओं पर 'एस्मा' कानून लगा दिया जो कि असल में सरकारी कर्मचारियों को प्रदर्शन व हड़ताल करने से रोकने के लिए बनाया गया एक दमनकारी कानून है। जैसे ही इस कानून के लगाए जाने के कारण आँगनवाड़ी कर्मियों ने अपनी हड़ताल स्थगित की वैसे ही उन्हें सैकड़ों की संख्या में टर्मिनेशन लेटर्स भेजने शुरु कर दिए। यानी पहले कानून की मदद से हड़ताल तोड़ी, फिर डराना और नौकरी से निकालना शुरु कर दिया। अब हमें यह समझने के लिए और कौन-से सबूत चाहिए कि उद्योगपतियों की तरह सरकारें भी कम-से-कम तन्खवाह देकर मज़दूर से ज़्यादा-से-ज़्यादा काम करवाना चाहती हैं? यही सरकारें हर सरकारी सुविधा को प्राइवेट करने और हर सरकारी कंपनी को बेचने पर उतारू हैं। जब मीडिया, पुलिस और कानून उनका है, तो हम मज़दूरों के पास सिर्फ़ एक ही चीज़ बचती है, 'अपनी एकता'।

8. लेकिन यह एकता बनाना ही तो बहुत मुश्किल है। वर्ग-जाति-धर्म-नस्ल-लिंग में बँटे मज़दूर एकजुट कैसे हों? ऊपर से 4 नई श्रम संहिताओं (लेबरकोड) में तो कम्पनियों को मज़दूरों को ठेके पर रखने का कानूनी अधिकार मिल गया है। मैनेजमेंट को 60 दिन का नोटिस दिये बिना मज़दूर हड़ताल पर नहीं जा सकते और इतने दिनों में मालिक नए मज़दूरों का इंतज़ाम कर लेते हैं। जिन कारख़ानों में 300 तक मज़दूर हैं, पहले वहाँ मज़दूरों की छंटनी करने के लिए सरकार की इजाज़त की ज़रूरत पड़ती थी, पर इन नए लेबरकोड के आने पर अब इजाज़त के दिखावे की भी ज़रूरत नहीं होगी। (पहले यह संख्या 100 थी)।

9. ऐसा नहीं है कि इस माहौल में परमानेंट शिक्षक सुरक्षित बच पाएँगे। राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में नियमित नियुक्तियों को लेकर कोई गारंटी नहीं दी गई है, बल्कि नियुक्तियों की प्रक्रिया में इंटरव्यू प्रस्तावित करके पुराने घपलों व नित नई क़ानूनी अड़चनों को दावत दी गई है। एक ओर नियुक्तियों के बाद भी प्रोबेशन काल व ठेके की अवधियों को बढ़ाया गया है और दूसरी ओर प्रोन्नतियों के लिए शिक्षकों की 'प्रतिबद्धता' की जाँच करने की बात की गई है। जहाँ पहले प्रोन्नति के लिए शैक्षिक योग्यता, वरिष्ठता तथा सामाजिक न्याय के उसूलों जैसे पारदर्शी मानक मौजूद थे, अब 'परिणाम-आधारित योग्यता' जैसे अनिश्चित मापदंडों की बात की गई है। नतीजा यह होगा कि पक्की भर्तियों पर आए शिक्षकों का नियमितीकरण और उनकी पदोन्नति प्रशासन की मनमर्ज़ी की ग़ुलाम होगी।

10. एक तरफ मज़दूरों पर ये हमले तेज़ हो रहे हैं और दूसरी तरफ हमारे संगठन बेहद कमज़ोर हैं। हमें शिक्षकों की प्रतिनिधि यूनियन GSTA (गवर्नमेंट स्कूल टीचर्स एसोसिएशन) व MCTA (म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन टीचर्स एसोसिएशन) को मज़बूत करके सार्वजनिक शिक्षा पर हो रहे हर हमले को रोकना होगा। हमें माँग करनी होगी कि GSTA MCTA के तुरंत चुनाव करवाए जाएँ और इन चुनावों में कॉन्ट्रैक्ट/गेस्ट शिक्षकों द्वारा वोट डालने का प्रावधान किया जाए। हमारी सांगठनिक ताकत (जिसके बल पर हम लड़ते व मोलभाव करते हैं) तभी बढ़ेगी जब गेस्ट व परमानेंट शिक्षक साथ में लड़ेंगे।

हमारी यूनियन्स को आईटी, गार्ड, सफाई कर्मचारियों, डीटीसी, पीडबल्यूडी, नर्स आदि की यूनियन्स के साथ मिलकर ठेकारकरण के खिलाफ़ मज़बूत आंदोलन खड़ा करना होगा।

11. हमें सीखना होगा किसान आंदोलन से कि वे कैसे 1 साल तक बिना डरे और बिना बँटे लड़े। हमें सीखना होगा आँगनवाड़ी आंदोलन से कि कैसे मज़दूरों द्वारा प्रशासन की हर चाल को नाकामयाब किया जा सकता है – डीटीसी बस न बिठाए तो डीटीसी दफ़्तर पर धरना, महिला व बाल विभाग धमकाए तो उसके दफ़्तर का दरवाज़ा जाम करना, हड़ताली महिलाओं को अफसर धमकाए तो अफसर के ऊपर, मज़दूरों को अपने संवैधानिक अधिकारों का पालन करने से रोकने की शिकायत पर, एफआईआर दायर करना आदि। हमें सीखना होगा सीएए के खिलाफ़ सड़कों पर बैठी महिलाओं से कि संविधान को बचाती आवाज़ों को ‘देशद्रोही’ कहकर बदनाम करने वाली मीडिया से कैसे लड़ें।

हमारी माँगें –

1. ठेकाकरण की नीति ख़त्म की जाए।

2. सभी शिक्षकों, आईटी स्टाफ़, गार्ड, सफाई कर्मचारियों आदि को समयबद्ध ढंग से पक्का किया जाए। जब तक नियमितीकरण की प्रक्रिया पूरी नहीं होती तब तक ‘समान काम का समान वेतन’ के उसूल का सख़्ती से पालन किया जाए।

3. GSTA MCTA  के तुरंत चुनाव करवाए जाएँ।

4. GSTA में गेस्ट/कॉन्ट्रैक्ट शिक्षकों को भी सदस्यता दी जाए व उन्हें चुनावों में वोट डालने का अधिकार दिया जाए। 

5. सभी आँगनवाड़ीवर्कर्स और हेल्पर्स को नियमित किया जाए और संघर्षरत आँगनवाड़ी कर्मियों को भेजे गए टर्मिनेशनलेटर्स तुरंत रद्द किए जाएँ।

6. राष्ट्रीय शिक्षा नीति को रद्द किया जाए। 

 

Friday 6 May 2022

दिल्ली के सरकारी विद्यालयों में कक्षा X एवं XII नॉन-प्लान दाखिला प्रक्रिया में समस्याओं के निवारण हेतू


 

प्रति

शिक्षा मंत्री
दिल्ली सरकार

विषय : दिल्ली के सरकारी विद्यालयों में कक्षा X एवं XII नॉन-प्लान दाखिला प्रक्रिया में समस्याओं के निवारण हेतू

लोक शिक्षक मंच शिक्षा विभाग के 20 अप्रैल 2022 के कक्षा X XII में नॉन-प्लान दाखिले की प्रक्रिया संबंधी सर्कुलर में उल्लिखित दिशा-निर्देशों पर अपनी घोर आपत्ति दर्ज करता है। इस सर्कुलर का विषय 'Non Plan Admission to Classes X & XII for the Session 2022-23' है।

1. इस सत्र में सरकारी विद्यालय में कक्षा X XII में दाखिले के लिए एडमिशन टेस्ट की शर्त रखी गई है जो पूर्णतः बाल-विरोधी है। कक्षा 9 पास करने वाले प्रत्येक विद्यार्थी में स्वत: ही कक्षा 10 में दाखिले का अधिकार होता है लेकिन एडमिशन टेस्ट की शर्त इस सिद्धांत के उलट है। क्या ऐसे बच्चों को विद्यालय की नियमित पढ़ाई का अधिकार नहीं होगा जो कक्षा 9 तो पास कर चुके हैं लेकिन सम्भवतः एडमिशन टेस्ट में न्यूनतम अंक नहीं ला पाए? विभाग के पास ऐसे बच्चों की नियमित कक्षा X और XII की पढ़ाई के लिए क्या विकल्प है?

2. क्या अब सामान्य सरकारी विद्यालयों में भी निजी विद्यालयों की तरह बच्चों को टेस्ट द्वारा छाँट कर दाखिला दिया जाएगा? एडमिशन टेस्ट की शर्त सरकारी विद्यालयों के जनवादी चरित्र को कमज़ोर करती है इसलिए इसे तुरंत वापस लिया जाए।

3. इस सर्कुलर के निर्देशानुसार कक्षा X अथवा XII में दाखिले के लिए केवल वही बच्चे अप्लाई कर सकते हैं जिन्होंने अपनी कक्षा IX अथवा XI  सत्र 2021-22 में पूरी की हो। ऐसे में उन बच्चों का क्या होगा जिन्होंने अपनी कक्षा IX अथवा XI सत्र 2020-21 में पूरी की थी पर वे किसी कारणवश पिछले साल दाखिला नहीं ले पाए थे? हालांकि वे इस सत्र में उम्र-अनुसार दाखिले के लिए एलिजिबल हैं किन्तु सर्कुलर में दी गयी यह शर्त उन्हें शिक्षा के अधिकार से वंचित कर रही है। बहुत से बच्चे घरबन्दी वाले साल में फ़ीस न भर पाने के कारण निजी विद्यालयों से SLC नहीं ला पाए थे या उचित समय पर शहर में न होने के कारण विद्यालय पहुँचकर अपना दाखिला नहीं करवा पाए थे। विभाग गैप-वर्ष वाले विद्यार्थियों के साथ सहानुभूति रखने के बजाय उन्हें दंडित कर रहा है।

4. कक्षा X और XII में दाखिले के लिए दिया गया 10 दिन का समय - 25 अप्रैल से 4 मई, 2022 - बहुत ही कम है। इतने कम समय में तो अधिकतम अभिभावकों तक दाखिला खुलने की जानकारी भी नहीं पहुँच पाती। इस समय अवधि को पूर्व-निर्धारित ढंग से बढ़ाकर घोषित किया जाए। 

हमारी माँगें -
1. कक्षा X और XII में दाखिले की प्रक्रिया से एडमिशन टेस्ट की शर्त को हटाया जाए
2. पिछली क्लास सत्र 2021-22 में ही पास करने की शर्त को हटाकर आयु-अनुसार दाखिला दिया जाए
3. कक्षा X और XII में दाखिले के आवेदन की समय-सीमा को बढ़ाया जाए

सधन्यवाद

लोक शिक्षक मंच

CC:

शिक्षा मंत्री, दिल्ली सरकारmsisodia.delhi@gov.in
चेयरपर्सन, दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग, dcpcr@hotmail.com
चेयरपर्सन, राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग, cp.ncpcr@nic.in

 

दिल्ली के सरकारी विद्यालयों में कक्षा VI-IX नॉन-प्लान दाखिला प्रक्रिया में समस्याओं के निवारण हेतु



 

प्रति

शिक्षा मंत्री 

दिल्ली सरकार 

विषय : दिल्ली के सरकारी विद्यालयों में कक्षा VI-IX नॉन-प्लान दाखिला प्रक्रिया में समस्याओं के निवारण हेतु 

लोक शिक्षक मंच शिक्षा विभाग के 04 अप्रैल 2022 के 'दिल्ली के सरकारी विद्यालयों में कक्षा VI-IX में दाखिले की प्रक्रिया' संबंधी सर्कुलर में उल्लिखित दिशा-निर्देशों पर अपनी घोर आपत्ति दर्ज करता है -
1. कोरोना घरबन्दी के दौरान शारीरिक दूरी के नियमों का हवाला देते हुए दाखिले आवेदन की प्रक्रिया को अनिवार्यत: ऑनलाइन किया गया था। लेकिन अब जब परिस्थितियाँ सामान्य हैं, तो विद्यालयों में ऑफलाइन दाखिले क्यों नहीं किए जा रहे?
2. दिल्ली सरकार इस सच्चाई से अनभिज्ञ नहीं हो सकती कि सरकारी विद्यालयों में अपने बच्चे का दाखिला करवाने के लिए आने वाले अधिकतम अभिभावक स्मार्ट फोन पर ऑनलाइन फ़ॉर्म भरना नहीं जानते। उन्हें इंटरनेट कैफ़े वालों के पास जाकर 50-100 रु खर्च करने पड़ते हैं। फ़ॉर्म भरने में कैफे वाले कई तरह की ग़लतियाँ भी कर देते हैं। जब इन अभिभावकों के लिए सीधे स्कूल आकर बच्चे का दाखिला करवाना ही सबसे सुलभ विकल्प है, तो फिर इन्हें ऑनलाइन फ़ॉर्म भरने के लिए मजबूर क्यों किया जा रहा है?
3. यह शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 के उन प्रावधानों का भी उल्लंघन है जिनके तहत कक्षा 1-8 तक की शिक्षा पूर्णतः मुफ़्त होनी चाहिए। यहाँ तो दाखिले की प्रक्रिया में ही अभिभावक को पैसे खर्च करने पड़ रहे हैं!
4. ऑनलाइन आवेदन प्रक्रिया का बहुत बड़ा नुकसान यह भी है कि नॉन-प्लान के रास्ते से आने वाले बच्चों की 40-50 दिनों की पढ़ाई बर्बाद हो रही है। जहाँ हम यह मान सकते हैं कि प्लान एडमिशन से आए बच्चों की पढ़ाई 1 अप्रैल, 2022 से ही शुरु हो गई, वहीं नॉन-प्लान से आए बच्चों का 21 मई, 2022 से पहले स्कूल में दाखिला नहीं होगा। भले ही बच्चा 1 अप्रैल से दाखिला चाहता हो और उसने 11 अप्रैल को ही फ़ॉर्म भर दिया हो लेकिन उसकी पढ़ाई 21 मई के बाद ही शुरु होगी। क्या बच्चों की 40-50 दिनों की पढ़ाई का नुकसान शिक्षा अधिकार अधिनियम का उल्लंघन नहीं है?
5. पहले अभिभावक सीधा स्कूल आते थे और उनके बच्चे का 1-2 दिन में दाखिला हो जाता था लेकिन अब 'अति-सक्रिय' प्रशासनिक व्यवस्था व डिजिटल इंडिया की मार ने इस प्रक्रिया को बहुत जटिल और अभिजात बना दिया है।
6. इसका सबूत अभिभावकों का वो डर भी है जो दाखिला करवाते समय उनके चेहरों पर साफ़ नज़र आता है। उन्हें डर होता है कि उनके बच्चे को दाखिला मिलेगा या नहीं, कहीं उनसे कोई ऐसा दस्तावेज़ न माँग लिया जाए जो उनके पास नहीं है, अगर उनके दस्तावेज़ों में लिखी स्पेलिंग्स मेल नहीं खाईं तो कहीं उनके बच्चे को दाखिला देने से मना न कर दिया जाए आदि। अभिभावकों को स्कूलों में कोई पोस्टर, रेडियो-अख़बार का कोई विज्ञापन, एसएमसी / पीटीएम की कोई बैठक यह नहीं बताती कि 'शिक्षा' बच्चों का मौलिक अधिकार है इसलिए उनके पड़ोस के सरकारी स्कूल किसी बच्चे को दाखिला देने से मना नहीं कर सकते। 

हमारी माँगें -
1. सभी कक्षाओं में दाखिले की प्रक्रिया को पुन: ऑफलाइन किया जाए।
2. नॉन-प्लान दाखिले का फ़ॉर्म भरने वाले बच्चों को बिना देर किए स्कूलों में दाखिला दिया जाए।
3. प्रत्येक स्कूल में पोस्टर लगवाए जाएँ कि RTE 2009 के तहत पड़ोस के स्कूल में उम्र-अनुसार कक्षा में दाखिला प्रत्येक बच्चे का मौलिक अधिकार है।
4. विद्यालयों में दाखिले जैसे प्रशासनिक कामों के लिए गैर-अकादमिक स्टॉफ की भर्ती की जाए ताकि अध्यापकों को पढ़ाना छोड़कर ये ज़िम्मेदारियाँ न निभानी पड़ें।
5. जब तक गैर-अकादमिक स्टॉफ की भर्ती नहीं की जाती तब तक एडमिशन करने वाले शिक्षकों की ट्रेनिंग्स करवाई जाएँ जिनमें उन्हें शिक्षा अधिकार अधिनियम का उद्देश्य और प्रावधान समझाए जाएँ ताकि कोई भी बच्चा दाखिले से वंचित न रह जाए।

सधन्यवाद
लोक शिक्षक मंच

CC:

अध्यक्ष, दिल्ली बाल अधिकार संरक्षण आयोग 

अध्यक्ष, राष्ट्रीय बाल अधिकार संरक्षण आयोग