Thursday 31 January 2019

स्कूलों को दलगत राजनीति के प्रचार केन्द्र बनाने के खिलाफ बयान



लोक शिक्षक मंच, दिल्ली के मुख्यमंत्री श्री अरविंद केजरीवाल द्वारा 28 जनवरी को दिल्ली सरकार के स्कूलों में आयोजित मेगा पीटीएम के अवसर पर दिए गए दलगत प्रचारी संबोधन पर कड़ा ऐतराज़ और रोष ज़ाहिर करता है। कार्यक्रम के संदर्भ में स्कूलों में उपस्थित विद्यार्थियों, उनके अभिभावकों तथा शहर के अन्य नागरिकों से उनकी पार्टी के पक्ष में और नाम लेकर अपने राजनैतिक प्रतिद्वंद्वी के ख़िलाफ़ वोट देने की अपील करके मुख्यमंत्री ने अपने प्रोपागैंडा युक्त भाषण से न सिर्फ़ सार्वजनिक स्कूलों तथा अपने पद की मर्यादा को कुचलने का काम किया है, बल्कि तमाम संवैधानिक उसूलों की भी धज्जियाँ उड़ा दी हैं।  
साफ़ है कि चाहे वो लोगों का डाटा इकट्ठा करना हो या फिर अबतक सामान्य व सहज ढंग से होते आये कार्यक्रमों को मेगा आयोजनों में बदलना, सरकार की इन नीतियों से सत्ता का केन्द्रीकरण बढ़ रहा है तथा वो और निरंकुश हो रही है। इन क़वायदों का उद्देश्य न जनहित है और न ही लोकतंत्र को मज़बूत करना। दरअसल, मेगा पीटीएम के बहाने यह शिक्षक-अभिभावक सभाओं को सत्ता पक्ष द्वारा अपने क्षुद्र स्वार्थों के लिए अगवा करने की खुली साज़िश है। शिक्षक-अभिभावक संघ के रूप में जिस संस्था को शिक्षकों व अभिभावकों के विचार-विमर्श व मेलजोल का मंच होना चाहिए और जिसकी सभाएँ व कार्यक्रम आयोजित करने का फ़ैसला स्कूली स्तर पर, स्कूल की ज़रूरत के अनुसार होना चाहिए, मेगा पीटीएम सरीख़े सरकारी आदेशों द्वारा उसे दलगत प्रचार के लिए बंधक बनाया जा रहा है। यही  नहीं, निजी स्वार्थ के इस काम में सार्वजनिक फ़ंड्स व टेक्नोलॉजी का मनचाहा इस्तेमाल किया जा रहा है। ऐसे में हम इन दोनों ही क्षेत्रों में सरकार की उपलब्धियों व आदेशों को संदेह से ही नहीं बल्कि जन व शिक्षा विरोधी नीति के रूप में देखते हैं। सभी स्कूलों में नेताओं के प्रसारण का अनिवार्य इंतज़ाम करने व इश्तेहार लगाने के आदेशों को लागू करने में जनता की ख़ून-पसीने की कमाई की बेहिसाब बर्बादी होती है। वो भी एक ऐसे काम में जो न सिर्फ़ जनहित में नहीं है, बल्कि असल में शिक्षा-विरोधी है और ख़ालिस रूप से दलगत, चुनावी प्रचार व सत्ता की राजनीति से प्रेरित है। स्कूलों में 'दिल्ली सरकार द्वारा 11,000 कमरों का निर्माणका ऐलान करते जो बोर्ड्स लगाये गए थे वो कोई जनहित  संबंधित घोषणा नहीं थी बल्कि स्व-विज्ञापन था, वो भी एक ऐसे काम का जो अभी शुरु भी नहीं हुआ है|    

मुख्यमंत्री द्वारा सरकारी स्कूलों के प्राँगण व शिक्षक-अभिभावक संघ के मंच का अपने चुनावी प्रचार के लिए इस्तेमाल करना न केवल स्कूलों व पीटीएम के दलगत रूप से निर्पेक्ष चरित्र पर सीधा हमला है, बल्कि यह उन नागरिकों के साथ भी एक भद्दा मज़ाक व धोखा है जिन्हें ऐसे कार्यक्रमों में अपने समय व दिहाड़ी की क़ीमत चुकाकर आना पड़ता है। इस तरह के छल का एक दुष्परिणाम अभिभावकों व अन्य नागरिकों के बीच सार्वजनिक स्कूलों व शिक्षकों पर से भरोसा उठने में भी प्रकट होगा। ऐसे आयोजनों के अनुभव के चलते वो कैसे यक़ीन करेंगे कि स्कूल में उन्हें जायज़ उद्देश्य व काम से बुलाया जा रहा है? दूसरी तरफ़, इस कार्यक्रम के आयोजन के माध्यम से दलगत प्रचार के लिए सिर्फ़ सरकारी स्कूलों के संसाधन, समय व स्थान का ही नहीं, बल्कि शिक्षकों व अन्य कर्मचारियों के श्रम का भी अवैधानिक व अनैतिक दोहन किया गया। सरकारी कर्मचारी के रूप में शिक्षकों को बंधुआ मानकर, एक प्रशासनिक आयोजन के बहाने से वस्तुतः उनसे जबरन एक दलीय कार्यक्रम के लिए काम लिया गया है। शिक्षकों ने दर्ज किया कि कैसे उन्हें उनकी समझ और सहमति के ख़िलाफ़ दलगत प्रचार के लिए इस्तेमाल किए जाने का अपमानजनक एहसास हुआ| ऐसे क़दम निष्पक्ष कार्यपालिका के संवैधानिक मूल्य पर चोट करते हैं| बार-बार यह दबाव बनाकर कि सरकारी कर्मचारी होने के नाते हम प्रत्येक विभागीय आदेश मानने के लिए बाध्य हैं, हमें अनुचित आदेशों का पालन करने के लिए विवश नहीं किया जा सकता| साथ ही, ऐसे आयोजनों से विद्यार्थियों की पढ़ाई का अपूर्णीय नुक़सान हुआ है। लगातार होते ऐसे आयोजनों से होने वाले शैक्षिक नुक़सान से बेपरवाही शिक्षा के प्रति सरकार की गंभीरता का छद्मावरण उघाड़ देती है। 
चाहे वो प्रधानमंत्री के तयशुदा कथानक का अनिवार्य प्रसारण हो या फिर मुख्यमंत्री का विद्यार्थियों के माध्यम से दलगत चुनावी अपील करना, स्पष्ट है कि सत्ताधारी ताक़तें, सभी नैतिक-संवैधानिक मूल्यों को ताक़ पर रखकर, सार्वजनिक स्कूलों को अपने निजी स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करने पर आमादा हैं। एक तरफ़ तो यह हमारे सामने मुख्यधारा की चुनावी राजनीति के घटिया स्तर का उदाहरण पेश करता है, वहीं दूसरी तरफ़ यह चलन न सिर्फ़ हमारे स्कूलों व शिक्षा की गरिमा और स्वायत्तता पर कुठाराघात कर रहा है, बल्कि लोकतंत्र की जड़ें भी खोखली कर रहा है। एक ओर प्रधानमंत्री के साथ बच्चों के बीच एक सार्वजनिक कार्यक्रम को उनकी किताब की सेल्समैनशिप से जोड़ दिया जाता है और बच्चों से उनके नाम का सामूहिक जाप कराया जाता है, दूसरी ओर एक सरकारी कार्यक्रम में मुख्यमंत्री अभिभावकों को उनके बेटों के भविष्य की भावनात्मक दुहाई देते हुए अपनी पार्टी के प्रचारक की भूमिका निभाते हैं। ज़ाहिर है कि जनकोष से और सरकारी स्थलों पर आयोजित इन कार्यक्रमों से वर्तमान व भावी मतदाताओं में ओछे प्रचार का काम लिया जा रहा है। स्कूलों को इस तरह से राजनेताओं व सत्ताधारी दल के निजी प्रचार के स्थल में बदल दिए जाने को इस दौर में सार्वजनिक व संवैधानिक संस्थानों को कमज़ोर-बर्बाद करने वाले हमलों की कड़ी में देखने की ज़रूरत है। यह आचरण या तो राजनैतिक अपरिपक्वता दर्शाता है या फिर निर्लज्जता। दोनों ही स्थितियों में देश के शीर्ष नेतृत्व का यह बेहूदा व्यवहार लोकतंत्र के लिए बेहद ख़तरनाक है। छल-बल से बच्चों के बीच अपनी या अपने दल की हीरोनुमा छवि स्थापित करना राजनैतिक अश्लीलता है। जब यह कृत्य संवैधानिक मापदंडों के विरुद्ध जाकर और सार्वजनिक संसाधनों को इस्तेमाल करके किया जाये तब सत्ता का यह तानाशाही दुरुपयोग एक अपराध भी हो जाता है। 
   
हम माँग करते हैं कि 
  • ·         स्कूलों को चुनावी व दलगत प्रचार के लिए इस्तेमाल करने पर तत्काल व पूर्णतः रोक लगाई जाए। 
  • ·         स्कूलों पर केंद्रीकृत कार्यक्रम व आयोजन थोपना तथा उन्हें अनिवार्य बनाना बंद किया जाए।   
  • ·         स्कूलों के स्थानिक चरित्र व स्वायत्तता की इज़्ज़त व हिफ़ाज़त की जाए।   

  
                  हम शिक्षक साथियों व लोकतांत्रिक मूल्यों तथा सार्वजनिक शिक्षा की गरिमा में यक़ीन रखने वाले तमाम लोगों से अपील करते हैं कि वे स्कूलों को दलगत व चुनावी प्रचार के लिए इस्तेमाल करने वाले आदेशों, व्यवहारों तथा आयोजनों का विरोध करें।    


Thursday 24 January 2019

पत्र: परीक्षा फीस भरने में विद्यार्थियों को आती कठिनाईयाँ


प्रति,
मानव संसाधन विकास मंत्री
शास्त्री भवन
दिल्ली – 01

विषय: कक्षा 10 और कक्षा 12 में CBSE परीक्षा फीस भरने में विद्यार्थियों को आती कठिनाईयाँ

महोदय,
हम आपका ध्यान इस ओर खींचना चाहते हैं कि सत्र 2018 में कक्षा 10 के विद्यार्थियों से 500 रुपए और कक्षा 12 के विद्यार्थियों से 1000-1200 रुपए तक CBSE परीक्षा फीस के रूप में मांगे गए| शिक्षक होने के नाते हमने विद्यार्थियों को इतनी फीस मांगे जाने पर होने वाली परेशानियों से जूझते हुए करीब से देखा| बढ़ती हुई फीस के चलते सामाजिक और आर्थिक रूप से कमज़ोर पृष्ठभूमि से आते विद्यार्थियों, विशेषकर लड़कियों, की पढ़ाई छूटने का खतरा है|
एक तरफ भारत सरकार जगह-जगह ‘बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ’ के पोस्टर लगा रही है और दूसरी तरफ छात्राओं को 12वीं तक की मुफ़्त शिक्षा का अधिकार नहीं प्रदान कर रही|
हमारा आपसे अनुरोध है कि -
·         कक्षा 10 और कक्षा 12 की CBSE परीक्षा फीस बच्चों से न मांगी जाए बल्कि इसका इंतज़ाम सरकार स्वयं करे| 

·         कक्षा 12 तक की शिक्षा पूर्णत: मुफ़्त की जाए | 


प्रति,
शिक्षा मंत्री
दिल्ली सरकार, दिल्ली

विषय: कक्षा 10 और कक्षा 12 में CBSE परीक्षा फीस भरने में विद्यार्थियों को आती कठिनाईयाँ

महोदय,

हम आपका ध्यान इस ओर खींचना चाहते हैं कि सत्र 2018 में कक्षा 10 के विद्यार्थियों से 500 रुपए और कक्षा 12 के विद्यार्थियों से 1000-1200 रुपए तक CBSE परीक्षा फीस के रूप में मांगे गए| शिक्षक होने के नाते हमने विद्यार्थियों को इतनी फीस मांगे जाने पर होने वाली परेशानियों से जूझते हुए करीब से देखा| बढ़ती हुई फीस के चलते सामाजिक और आर्थिक रूप से कमज़ोर पृष्ठभूमि से आते विद्यार्थियों, विशेषकर लड़कियों, की पढ़ाई छूटने का खतरा है|
दिल्ली सरकार ने शिक्षा बजट में अभूतपूर्व बढ़ोतरी की है लेकिन 12वीं तक की शिक्षा को नि:शुल्क करने जैसी मौलिक ज़रुरत को प्राथमिकता नहीं दी|

हमारा आपसे अनुरोध है कि -
·         कक्षा 10 और कक्षा 12 की CBSE परीक्षा फीस बच्चों से न मांगी जाए बल्कि इसका इंतज़ाम सरकार स्वयं करे|  
·         कक्षा 12 तक की शिक्षा पूर्णत: मुफ़्त की जाए|  

“नो-फ़ेल पॉलिसी तालीम का नहीं देश की सुरक्षा का मसला है”

लोकेश मालती प्रकाश

{हाल ही में संसद ने शिक्षा अधिकार कानून में संशोधन कर कानून में बच्चों को आठवीं तक फ़ेल नहीं करने की नीति को बदल दिया। अब राज्य चाहें तो बच्चों को आठवीं कक्षा से पहले भी परीक्षा लेकर फ़ेल करने का नियम बना सकते हैं। इस मामले में सरकार ने दुनिया भर के तमाम अनुभवों, शोधों और शिक्षाविदों की सलाह को ताक पर रख कर बच्चों को स्कूल में सीखने-सिखाने का बेहतर माहौल देने की बजाय उनको फ़ेल कर स्कूल से बाहर करने का आसान रास्ता चुन लिया। प्रस्तुत व्यंग्य इस मामले में हमारे सार्वजनिक व नीतिगत विमर्श की दरिद्रता को रेखांकित करता है।} संपादक
अब हम बच्चों को फ़ेल करेंगे। बिना फ़ेल किए भला पढ़ाई-लिखाई होती है? बच्चे फ़ेल होने के डर से ही पढ़ते हैं। नो- फ़ेल का मतलब है नो-पढ़ाई। सीखने-सिखाने की प्रक्रिया कष्टप्रद होनी चाहिए। यह मज़े-मज़े की पढ़ाई में बच्चे बिगड़ रहे हैं। और तो और, इससे शिक्षक भी बिगड़ रहे हैं – फ़ेल नहीं करना है तो पढ़ा कर क्या होगा! मास्टरों की पोल तभी खुलेगी जब बच्चे फ़ेल होंगे।
देश अब तक परीक्षा और फ़ेल होने के गूढ़ व दूरगामी प्रभावों को समझ नहीं सका है। इन्हें सामने लाना बेहद ज़रूरी है ताकि इस मसले पर सहीं मायने में एक सुलझी हुई व गम्भीर राष्ट्रीय बहस हो।
सबसे ज़रूरी बात तो यह है कि परीक्षा का डर बच्चों को देश का सच्चा नागरिक बनाता है। असल में,स्कूलों का सबसे बड़ा काम बच्चों को यह सिखाना है कि वे डरें -परीक्षा से, टीचर से, प्रिंसीपल से, फ़ेल होने से। नो- फ़ेल पॉलिसी से इस तरह के तमाम भय अपना प्रभाव खो रहे हैं। बच्चे बिगड़ रहे हैं। वे ढंग से डरना नहीं सीख रहे हैं।
भाषा,गणित, विज्ञान, सामाजिक विज्ञान, वगैरह वगैरह यह सब ऊपरी ज्ञान है जो इंसान कभी भी सीख सकता है और न भी सीखे तो कोई बहुत बड़ी बात तो नहीं। और इस नीति से पहले बच्चे यह सब अच्छे से सीख रहे थे इसका भी कोई पुख्ता सबूत नहीं। सो उसकी बात करना बेमानी है। असल बात है कि नो- फ़ेल पॉलिसी से बच्चों में स्कूलों और तालीम का डर कहीं न कहीं कमज़ोर पड़ रहा है जो देश के लिए डरावना है।
डरे हुए लोग ही देश के सबसे अच्छे नागरिक होते हैं। निडर नागरिक देश के लिए खतरा होते हैं। आजकल के पैमाने पर तो वे देशद्रोही हैं। नागरिकों का निडर हो जाना राष्ट्रीय सुरक्षा को खतरे में डाल देगा। देश की एकता और अखण्डता चरमराने लगेगी। मिसाल के लिए,अगर खाकी वर्दी का ख़ौफ़ न हो तो अराजकता नहीं आ जाएगी? अभी तो बस अपराधियों के हौसले बुलंद हैं कल को हर ऐरे-गैरे के हौसले आसमान छूने लगेंगे।
निडर लोग सवाल उठाने लगेंगे। सोचने लगेंगे और अपने लिए फ़ैसले लेने की जुर्रत करेंगे। अगर ऐसा हुआ तो संविधान की कसमें खाकर बनी सरकारें क्या करेंगी? इतनी लम्बी-चौड़ी-फैली शासन व्यवस्था,नेता, मंत्री, अफ़सर – ये सब क्या करेंगे? यह सब इसी लिए तो है कि लोकतंत्र का लोक फ़ैसले लेने का काम तंत्र (और उसके नियंताओं) पर छोड़ दे। बड़ी मेहनत से यह सब खड़ा किया गया है।
नो-फ़ेल पॉलिसी से ये सारा ताना-बाना ही बिखरने की कगार पर आ सकता है। पता नहीं किसी ने अब तक यह तर्क क्यों नहीं दिया मगर नो-फ़ेल पॉलिसी महज़ तालीम का नहीं देश की हिफाज़त का, राष्ट्रीय सुरक्षा का मसला है।
कम-से-कम भाजपा से उम्मीद थी कि वह इस पक्ष की तरफ लोगों का ध्यान आकर्षित करती ताकि इस नीति पर वाकई एक गंभीर और सार्थक राष्ट्रीय बहस हो सके। इतने विकट राष्ट्रवादियों से ऐसी भूल हो जाना अपनेआप में बेहद खतरनाक संकेत है। मोदी जी को इसके लिए नैतिक आधार पर तत्काल इस्तीफा देना चाहिए। (चूंकि नैतिक आधार पर इस्तीफा देने का नैतिकता से कोई असल सम्बन्ध नहीं होता इसलिए इसमें कोई मुश्किल नहीं।)
मेरा तो यह भी मानना है कि नो-फ़ेल पॉलिसी देश की परम्परा के साथ भी खिलवाड़ कर रही है। (संस्कृति रक्षक दल के लोग यहाँ भी चूक गए। हद है!)। जब हम बच्चों को परीक्षा के मैदान में उतारते हैं तो उनको समझ में आता है कि उनका असल तारणहार भगवान ही है। परीक्षा के मौसम में लोगों की ईश्वर भक्ति बढ़ जाती है। अास्था मजबूत हो जाती है। जैसे गर्मी में लू चलती है वैसे ही परीक्षा के मौसम में भक्ति और ईश्वर प्रेम की सामूहिक लहर चलती है।
फिर जो परीक्षा में पास होते हैं वे ईश्वर को धन्यवाद देते हैं और जो फ़ेल होते हैं वे अपने भाग्य को कोसते हैं। होनी को कौन टाल सकता है! नियति के लिखे को कौन बदल सकता है! और फिर पिछले जन्मों के कर्म भी तो अपना कमाल दिखाएँगे ही! जी हाँ, फ़ेल होना पूर्व-जन्म के कर्मों का फल है। फ़ेल होने वाले पूर्व-जन्मों के पापी हैं। उनको सज़ा मिलनी ही चाहिए।
देश की शिक्षा व्यवस्था इतने सालों से यह काम बखूबी कर रही है। नो-फ़ेल पॉलिसी शिक्षा व्यवस्था के इस पारलौकिक उद्देश्य के साथ खिलवाड़ है। अगर स्कूल फ़ेल नहीं करेंगे तो आने वाली नस्लों का ईश्वर, भाग्य और पूर्व-जन्म के कर्मों के फल जैसी सनातन धारणाओं से विश्वास उठ जाएगा। देश की संस्कृति खतरे में पड़ जाएगी।
फ़ेल होने की व्यवस्था का विभागीय अनुशासन को मजबूत करने में भी अहम योगदान होता है। जब ढेर सारे बच्चे फ़ेल होते हैं तो अधिकारी मास्टरों को नोटिस जारी करते हैं। कारण बताओ कि तुम्हारी कक्षा के इतने बच्चे कैसे फ़ेल हुए?
नोटिस का कारण-वारण जानने से कोई लेना-देना नहीं। जान कर भी क्या करना? विधि के विधान से छेड़छाड़ कौन कर सकता है?
बात यह है कि नोटिस से मास्टरों के मन में भय पनपता है और उन पर विभाग का और अधिकारियों का दबदबा मजबूत होता है। नो-फ़ेल पॉलिसी इस विभागीय व्यवस्था के साथ खिलवाड़ कर रही है।
कुछ बुद्धिजीवियों और एक्टिविस्टों का कहना है कि बच्चों को सिखाने की व्यवस्था होनी चाहिए न कि फ़ेल करने की। ये लोग सीखने के लिए स्कूलों में उन्मुक्त वातावरण की वकालत करते हैं। स्कूलों में लाइब्रेरी, सीखने-सिखाने के बेहतर तरीकों और बढ़िया सामग्री, खेल-कूद के सामान, कम शिक्षक-छात्र अनुपात, आकर्षक जगह आदि जैसी चीज़ों की बात करते हैं। कहते हैं कि सरकार तालीम पर पैसा ज़्यादा खर्च करे। शिक्षकों को बेहतर शिक्षा दे। सीखने की प्रक्रिया में बच्चों को मज़ा आना चाहिए। वगैरह वगैरह। लम्बी लिस्ट है। ऐसी गैर-ज़रूरी बातों की लिस्ट आमतौर पर लम्बी ही होती है ताकि असल मुद्दों से ध्यान भटक जाए।
इन फालतू बातों को छोड़िए। सबसे पहले तो ऐसे लोगों की जाँच होनी चाहिए। ये या तो खुद गुमराह हैं या देश को गुमराह कर रहे हैं। जो बातें देश के नागरिकों को सीखनी चाहिए वह तो स्कूल सिखा रहे हैं। बाकी रट-पिट कर डाक्टरी, इंजीनियरी आदि कि पढ़ाई भी थोड़े बहुत कर ही लेते हैं। उससे देश का काम चल ही रहा है (हम महाशक्ति ऐसे ही बन गए हैं क्या!)।
स्कूल क्या कोई सर्कस है कि वहाँ बच्चों को मज़ा आना चाहिए? उन्मुक्त वातावरण के चलते जेएनयू देशद्रोहियों का अड्डा बन गया और आप स्कूलों को भी वैसा ही बनाना चाहते हैं? आप चाहते क्या हैं? स्कूलों का काम डरी हुई राष्ट्रभक्त क़ौम पैदा करना है न कि उन्मुक्त ख़यालों के देशद्रोही व अराजक तत्व।
सरकार तालीम पर ज़्यादा खर्च करे?क्यों करे? जिनके भाग्य में पढ़ाई लिखी ही नहीं है उन पर खर्च करना देश के पैसे की बरबादी है। बल्कि इस एंगल से देखें तो बच्चों को फ़ेल करना राष्ट्रीय बचत के लिए ज़रूरी है। पैसा बचेगा तभी तो रॉफेल आएगा। देश बम बनाएगा। दुश्मनों को डराएगा। राष्ट्रवाद की भावना मजबूत होगी।
तो जो लोग बिना डर की तालीम की बात कर रहे हैं वे तो देश की सुरक्षा और संस्कृति के सबसे बड़े दुश्मन हैं। यह भी सवाल उठता है कि हमारी इतनी मुकम्मल शिक्षा व्यवस्था के बावजूद ऐसे तर्क देने वाले कहाँ से आ जाते हैं। इनके शिक्षा विरोधी और राष्ट्र विरोधी विचारों का स्रोत क्या है? इन्हें कौन फंड दे रहा है? द नेशन वॉन्ट्स टू नो!
अंत में इतना ही कहना है कि असफलता ही सफलता की सीढ़ी है। जो असफल नहीं होगा वह कभी सफल भी नहीं होगा। जो परीक्षा में फ़ेल नहीं होगा वह ज़िन्दगी में पास नहीं होगा। फ़ेल होना ही सबसे बड़ी सीख है। देश के नौनिहालों को फिर से फ़ेल करने की सरकार की मुहिम में उम्मीद है राज्य सरकारें और देश का प्रबुद्ध वर्ग सभी असहमतियों को एक तरफ रख कर एकजुट हो जाएगा। यह नए साल का सबसे बड़ा तोहफ़ा होगा जो हम अपने बच्चों को देंगे।
(samkaleenjanmat.in से साभार)