Saturday 31 August 2019

राष्ट्रीय खेल दिवस के अवसर पर 'फ़िट इंडिया'' कार्यक्रम के प्रसारण को स्कूलों में जबरन दिखाने के विरोध में

29 अगस्त को, मेजर ध्यानचंद के जन्मदिन पर मनाये जाने वाले राष्ट्रीय खेल दिवस के अवसर पर सभी स्कूलों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी द्वारा फ़िट 'इंडिया'' नाम के कार्यक्रम के उद्घाटन का सीधा प्रसारण विद्यार्थियों व शिक्षकों को दिखाने की व्यवस्था करनी पड़ी। इस बारे में, कम-से-कम दिल्ली में, प्रशासनिक आदेश 27 अगस्त को जारी किया गया था। लोक शिक्षक मंच ऐसे कार्यक्रमों को स्कूलों पर थोपने की निंदा करता है। ऐसा पहली बार नहीं हुआ है कि निज़ाम ने स्कूलों की दैनिक गतिविधियों को ताक पर रखकर इस तरह के अनिवार्य प्रसारण को स्कूलों पर थोपा है। एक तरफ़, ऐसे आयोजनों को करने में स्कूलों के संसाधन झोंक दिए जा रहे हैं, समय बर्बाद किया जा रहा है व शिक्षकों-विद्यार्थियों की ऊर्जा का बेजा इस्तेमाल हो रहा है, दूसरी तरफ़, प्रचारी जुनून में कई व्यावहारिक समस्याओं व बच्चों के कष्ट को अनदेखा किया जा रहा है।  

रही बात देशभर के बच्चों व सभी लोगों के फ़िट' रहने की, तो कोई भी इस उद्देश्य से असहमत नहीं हो सकता है। इस दिशा में बेहतर यह होता कि सरकार स्कूलों में खेल के मैदान व अवसर उपलब्ध कराने की ठोस प्रतिबद्धता दिखाती। उल्टे, राष्ट्रीय शिक्षा नीति के प्रारूप में प्रस्तावित किया जा रहा है कि स्कूलों पर मैदान जैसे इनपुट्स की क़ानूनी बाध्यता नहीं होनी चाहिए। साथ ही, विकास की पूँजीपरस्त व फूहड़ अवधारणा के चलते स्कूलों के बचे-खुचे खुले स्थलों व मैदानों को तेज़ी से घेरा जा रहा है, कंक्रीट से पाटा जा रहा है, टाइलयुक्त किया जा रहा है। रिहाइशी बस्तियों में भी उन्मुक्त खेल के स्थल व पार्क सिकुड़ते जा रहे हैं, विकास की बलि चढ़ाये जा रहे हैं। सेहत का एक अनिवार्य रिश्ता साफ़ हवा-पानी और पौष्टिक भोजन से भी है। यह मानना मुश्किल है कि हमारी राजनैतिक व आर्थिक व्यवस्था देश के आवाम की सेहत की इन बुनियादी ज़रूरतों को पूरा करने के लिए खड़ी की गई है। फिर वयस्कों के नियमित, सम्मानजनक रोज़गार के बिना कौन-से परिवार के बच्चे सेहतमंद रह सकते हैं? जिस नीति में वोकेशनल शिक्षा के नाम पर कोमल उम्र से ही मेहनतकश वर्ग के बच्चों को उनके बचपन से दूर, एक निष्ठुर बाज़ार के हवाले करने की ज़िद हो, वो बच्चों को सेहतमंद बनाने का नहीं, बल्कि उनकी सेहत छीनने का ही काम करेगी। यह कैसी विडंबना है कि कुछ समय पहले ही सरकार ने लेबर कानून में बदलाव करके ख़तरनाक उद्योगों की संख्या को कम किया और उसमें 14 वर्ष के बच्चों को काम करने के लिए खोल दिया है।  
असल में तो इस कार्यक्रम ने खेल व खेल दिवस पर एक परछाई डालने का ही काम किया है। जब बच्चों को खेलकूद या पढ़ाई या अपनी मर्ज़ी की गतिविधि में मशग़ूल होना चाहिए था, तब उन्हें जबरन एक कमरे में बंद करके टीवी पर प्रसारित कार्यक्रम और प्रधानमंत्री को देखने-सुनने के लिए मजबूर किया गया। खेल के लिए प्रोत्साहित करने का यह कैसा विडंबनापूर्ण तरीक़ा है! आज खेलों को भी एक व्यावसायिक तमाशे, प्रतियोगितावादी झूठे राष्ट्रीय अभिमान व कुलीनों के महँगे शौक़ के रूप में परोसा जा रहा है। आज से कुछ साल पूर्व तक जिन मैदानों व स्टेडियम में आप बच्चों को बेरोकटोक ले जा सकते थे, आज उन्हें सुरक्षा, सदस्यता नियमों व विशिष्ट दर्जों की बंदिशों में बाँधकर हमारी पहुँच से बाहर कर दिया गया है। वो कौन लोग हैं जो खेलने की सोच ही नहीं पाते, जिन्हें खेलने क्या आराम तक की फ़ुर्सत नहीं मिलती, लड़कियों के खेलकूद में कौन-सी बाधायें हैं; खेल जैसी नैसर्गिक चीज़ में इतनी असमानता क्यों है; कुछ खेल अश्लीलता की हद तक महँगे और अपव्ययी क्यों हैं और इन्हें सरकारों का प्रश्रय क्यों मिलता है, ऐसे तमाम सवालों से कन्नी काटकर खेलों से सेहत के रिश्ते की बात करना बेईमानी है। यह स्पष्ट है कि फ़िट इंडिया का जुमला खेल की संस्कृति के पक्ष में इन चलनों व चुनौतियों पर कोई वार नहीं करता है। बल्कि इस अभियान का संदेश यह है कि सेहतमंद रहना या न रहना  पूरी तरह व्यक्ति की अपनी इच्छा व कोशिश तथा निजी दारोमदार का मामला है, इसमें सरकार की भूमिका नहीं है और वह अपनी ज़िम्मेदारी से बरी है। दूसरी ओर, यह राजनैतिक सत्ता के उस अनैतिक दुरुपयोग का ताज़ा उदाहरण है जिसके तहत स्कूलों को क्षुद्र राजनैतिक स्वार्थों के लिए और उनमें पढ़ रहे बच्चों को निर्लज्जता से 'बंधक श्रोताओं'' की तरह इस्तेमाल किया जा रहा है। इस अमर्यादित क़वायद में देश के संघीय ढाँचे की धज्जियाँ उड़ाई जा रही हैं। चिंता की बात यह भी है कि न सिर्फ़ राज्य सरकारें व उनके शिक्षा विभाग इस असंवैधानिक अतिक्रमण को नहीं रोक रहे हैं, बल्कि दिल्ली जैसे राज्यों में तो मुख्यमंत्री, शिक्षामंत्री ख़ुद अपनी सत्ता का दुरुपयोग करके स्कूलों को घटिया प्रचार के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं। 

लोक शिक्षक मंच सभी शिक्षक साथियों, विशेषकर शिक्षक यूनियनों से, अपील करता है कि स्कूलों व शिक्षा के लोकतांत्रिक व बौद्धिक चरित्र पर हमलों के रूप में इस्तेमाल किये जा रहे इन केंद्रीकृत आयोजनों का पुरज़ोर विरोध करें। साथ ही, मंच शिक्षा विभागों व सरकारों से यह माँग करता है कि ऐसे सभी केंद्रीकृत व शिक्षा-विरोधी कार्यक्रमों को अनिवार्य बनाकर स्कूलों पर थोपना बंद किया जाये। 

Wednesday 7 August 2019

राष्ट्रीय शिक्षा नीति के लिए एक माँग पत्र

संपादक मंडल को यह माँग पत्र कुछ समय पहले प्राप्त हुआ था किन्तु कुछ तकनीकी कारणों से इसे प्रकाशित करने में विलंब हुआ। संपादक मंडल इस देरी के लिए पाठकों एवं उन सभी साथियों से खेद व्यक्त करता है जिन्होंने इसे तैयार करने में अपनी भूमिका अदा की।  

सत्रहवीं लोक सभा के चुनाव के नतीजों के बाद के संदर्भ में, जबकि एनडीए सरकार दोबारा सत्ता में आ गई है और नई शिक्षा नीति की घोषणा को सरकार के पहले संभावित क़दम के रूप में बताया जा रहा है, लोक शिक्षक मंच सरकार, विभिन्न चुनावी दलोंशिक्षकों और तमाम जनता के बीच सार्वजनिक स्कूली शिक्षा व्यवस्था को समता तथा न्याय के उसूलों के आधार पर मज़बूती से खड़ा करने की दिशा में एक माँगपत्र जारी कर रहा है। कहना नहीं होगा कि इस माँगपत्र में मुख्य रूप से मंच के अवलोकन, अनुभव, विश्लेषण और संघर्ष दर्ज हुए हैं। इसे तैयार करने में हमने न सिर्फ़ अपने तईं चर्चा की है, बल्कि स्कूल व विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले अन्य साथियों की सलाह को भी शामिल किया है। 

विद्यालयों के अन्दर
दाखिले
·         हम साफ़ देख रहे हैं कि 6 से 14 साल तक के बच्चों की तालीम को मौलिक हक़ का दर्जा देने वाला शिक्षा अधिकार अधिनियम आज विफल हो गया है। इसके बावजूद कि इस क़ानून के वायदे के तहत जन्म प्रमाणपत्रआधार कार्ड, बैंक खाता, रिहाइशी पते का सबूत या ऐसा कोई और दस्तावेज़ नहीं होने पर भी स्कूल को बच्चे को दाखिला देना चाहिए, ज़मीनी हकीक़त कुछ और ही है| बच्चों को दाखिले लेने में मुश्किलें आती हैं, कई बार पुरानी क्लास दोहरानी पड़ती है, कई बार उनका साल बर्बाद हो जाता है या पढ़ाई छूट जाती है| हमारा अनुमान है कि ऐसे बच्चों की संख्या बढ़ती जा रही है जिन्हें दस्तावेज़ों की कमी के चलते दाखिले नहीं मिल रहे और उनके शिक्षा के अधिकार का हनन हो रहा है|
·         सरकारी स्कूलों में दाखिले की प्रक्रिया का डिजीटलीकरण करके भले ही सरकारें अपनी नीतियाँ, जैसे आधार या पते के पक्के कागज़ की मांग, ज़ोर-ज़बरदस्ती थोपने में सफ़ल हो रही हैं लेकिन बच्चों की छंटाई करके सार्वजनिक शिक्षा का उद्देश्य धूमिल होता जा रहा हैं| ऐसे आदेशों को तुरंत रद्द किया जाए जो दाखिले की प्रक्रिया को जटिल बना रहे हैं| बाल अधिकार संरक्षण अधिकार कार्यालय जैसी संस्थाएं जो शिक्षा अधिकार अधिनियम के कार्यान्वन पर नज़र रखने के लिए ज़िम्मेदार हैं, इसके हनन की जवाबदेही तय करें और जो बच्चे स्कूलों से बाहर हैं उनका स्कूल आना सुनिश्चित करें|
·         हर स्कूल के बाहर बच्चों के अधिकारों की और दाखिला न मिलने पर कहाँ शिकायत करें इसकी जानकारी एक बोर्ड पर बड़े-बड़े अक्षरों में लिखी होनी चाहिए| स्थानीय शिक्षा अधिकारियों, बाल अधिकार संरक्षण अधिकार कार्यालय, शिक्षा मंत्री आदि के पते-संपर्क स्कूलों के बाहर प्रमुखता से प्रदर्शित होने चाहिए। 
·         सरकारी स्कूलों की प्राइमरी कक्षाओं में एक सेक्शन में 40 बच्चे हो जाने पर सीटें भर जाने का हवाला देकर दाखिले से मना कर दिया जाता है| बताया जाता है कि यह नीतिगत मामला है| कभी कह दिया जाता है कि आखिरी तारीख निकल गयी| ये दोनों ही दलीलें कानून के खिलाफ़ हैं| यह सरकार की संवैधानिक ज़िम्मेदारी है कि वह सभी बच्चों का दाखिला उनके पड़ोस के स्कूल में, सरल ढंग सेबिना किसी औपचारिक प्रताड़ना की अवरोधी प्रक्रियाओं/शर्तों के सुनिश्चित करे और जहाँ कक्षाओं और स्कूलों की कमी है, वहां जल्द-से-जल्द इनका निर्माण हो| पर पड़ोस के स्कूल में दाखिला देना सर्वप्रथम है|
·         प्रत्येक वार्ड स्तर पर स्थानीय निकाय, बाल अधिकार संरक्षण आयोग व समग्र शिक्षा अभियान के दफ़्तर व कर्मचारियों का दल हो जिसकी ज़िम्मेदारी यह सुनिश्चित करना हो कि क्षेत्र का कोई बच्चा नियमित शिक्षा से वंचित न रहे। इन कार्यालयों व अधिकारियों की जानकारी प्रत्येक स्कूल के बाहर और स्थानीय जन-प्रतिनिधियों के दफ़्तरों में स्थानीय भाषा में प्रमुखता से प्रदर्शित हो। 

वज़ीफ़ा
·         दाखिले के साथ-साथ हर बच्चे को वजीफे का भी अधिकार है| अगर बच्चे का बैंक खाता या आधार नहीं है तब भी उसे वज़ीफ़ा मिलना चाहिए| सभी स्तर के विद्यार्थियों के हक़ों को मारने वाली और मेहनतकश वर्ग को प्रताड़ित करने वाली 'आधार DBT व्यवस्था को जबरन थोपना बंद किया जाये। 
·         विद्यार्थियों को मिलने वाले शिक्षा से जुड़े सभी हक़ - जैसे, वर्दी, पुस्तकें, कॉपियाँ आदि - सीधे ठोस वस्तु के रूप में दिए जायें, न कि इन हक़ों को छीनने व कमज़ोर करने के लिए राशि का हस्तांतरण किया जाये। बैंक खाते में राशि हस्तांतरण से पैसा सबको  मिलता भी नहीं है, कम भी पड़ता है और जिसको पाने के लिए परिवारों व विद्यार्थियों का बेशक़ीमती वक़्त, पैसा और मेहनत अलग लगती है। यह प्रक्रिया न केवल अनिश्चितता भरी है, बल्कि अपनी अपारदर्शिता से स्कूलों में शिक्षकों व अभिभावकों के बीच असमंजस तथा अविश्वास पैदा कर रही है।   

गुणवत्ता
·         बजाय इसके कि प्रवेश सुलभ हो और विषयवस्तु गहरी, हम देख रहे हैं कि दोनों ही स्तरों पर बच्चों से धोखा हो रहा है - प्रवेश प्रक्रिया जटिल की जा रही है और विषयवस्तु के साथ खिलवाड़ करने वाले समझौते किये जा रहे हैं, उसे हल्का किया जा रहा है।  
·         किसी भी विद्यार्थी को कम-से-कम आठवीं कक्षा तक फेल न किया जाये। 
·         शिक्षा अधिकार क़ानून को 12 वीं तक बढ़ाया जाये। 
·         जो बच्चे कक्षा 9 से फेल हो रहे हैं, उन्हें ओपन या पत्राचार में भेजने के संस्थानिक प्रयासों को तुरंत रोका जाए| इन बच्चों को स्कूल की ज़्यादा ज़रूरत है, न कि स्कूल से बाहर धकेल दिए जाने की| हमारी व्यवस्था ऐसी नहीं होने चाहिए जो स्कूलों के परिणाम फुलाने के लिए बच्चों को ही बाहर कर दे, बल्कि ऐसी होनी चाहिए कि हर बच्चे की नियमित शिक्षा सुगम ढंग से पूरी हो|
·         विद्यार्थियों के लिए, हर स्तर व विषय के संदर्भों के अनुसार, हाथ से की जाने वाली अधिकाधिक गतिविधियों को शामिल किया जाये। 
·         सभी उच्चतर-माध्यमिक स्कूलों में विज्ञान की स्ट्रीम का और इसके लिए प्रयोगशालाओं का प्रबंध हो। विद्यार्थियों को उनकी शौक़ के विषय पढ़ने की आज़ादी दी जाये। 
·         किसी भी स्कूल मेंकिसी भी स्तर पर वोकेशनल या स्किल शिक्षा के नाम पर विद्यार्थियों को आकादमिक शिक्षा से बाहर नहीं निकाला जाये। किसी भी बच्चे पर वोकेशनल विषय न थोपे जाएं| विशेषकर टैब जब नयी शिक्षा नीति 2016 के प्रारूप के संदर्भ में यह खतरा बढ़ता दिखाई दे रहा है| ये विकल्प बारहवीं कक्षा व 18 साल के बाद ही दिए जायें। 
·         विद्यार्थियों को समय-समय पर विभिन्न पेशों व पेशागत कोर्सों से, बिना किसी लैंगिक, जातिगत अथवा वर्गीय पूर्वाग्रह के प्रभाव के, परिचित कराया जाये। इसमें कोई टारगेट व अपेक्षाएँ आरोपित न की जाएँ और विद्यार्थियों की रुचि का ख़याल रखा जाये। बल्कि शारीरिक-मानसिक श्रम के संतुलन को शिक्षण का हिस्सा इस ढंग से बनाया जाए कि वह समान रूप से सभी बच्चों के लिए हो और फूले-गांधी-फ्रेरे द्वारा चिन्हित उच्च मूल्यों से प्रेरित हो|
·         किसी भी स्तर पर विद्यार्थियों को टेस्टों के आधार पर चिन्हित करने व बाँटकर पढ़ाने पर पूरी तरह रोक लगे। 
·         शिक्षकों को अधिगम को आँकने के वैकल्पिक तरीक़ों से परिचित कराया जाये तथा इन्हें परीक्षा व्यवस्था में स्थान दिया जाये।  
·         स्कूलों की पाठ्यचर्या व संस्कृति को विद्यार्थियों को संवेदनशीलसंघर्षशीलतार्किक और प्रबुद्ध बनाने की ओर समर्पित किया जाये। स्कूलों से घोषित-अघोषित रूप से शामिल अवैज्ञानिक व भेदभावपरक तत्वों को बाहर किया जाये। 
·         पाठ्यचर्या व स्कूली संस्कृति को लैंगिकजातिगतसाम्प्रदायिकनस्लीयभाषाईक्षेत्रीयराष्ट्रीय पूर्वाग्रह तथा नफ़रत ख़त्म करने की ओर मज़बूती से ढाला जाये। इन पूर्वाग्रहों व नफ़रतों को मिटाने के लिए सक्षम पाठ्यचर्या के सहयोग के अलावा स्कूलों को सामुदायिक स्तर पर हस्तक्षेप करने को समर्थ बनाया जाये। 
·         स्कूलों को अकादमिक रूप से गहन बनाने के लिए उनका माहौल तनाव-रहित होना चाहिए।  
·         स्कूली स्तर पर विद्यार्थियों को मिलजुलकर अधिकाधिक निर्णयों में लोकतांत्रिक हस्तक्षेप करने व भूमिका निभाने के मौके दिए जायें। 
·         पुस्तकालय को पढ़ने के आनंद के तहत विविध सामग्री से परिचित होने हेतु इस्तेमाल करने को प्रेरित किया जाये, न कि परीक्षाओं के सीमित उद्देश्यों की नज़र से। 
·         बच्चों में अभिव्यक्ति, संवाद, आत्मविश्वास, आनंद व एकजुटता प्रेरित करने के लिए मंच व प्रदर्शन कलाओं के अवसर उपलब्ध कराये जायें। 
·         एक-दूसरे को जानने और उनकी दुनिया का विस्तार करने के लिए बच्चों को खेल, कला आदि के अंतर्विद्यालयी कार्यक्रमों में भाग लेने के नियमित अवसर दिए जायें। इन कार्यक्रमों का स्वरूप प्रतियोगी न होकर, दोस्ताना व सहयोग का रखा जाये। 
·         शिक्षकों को माहवारी सहित स्वास्थ्य व स्वास्थविज्ञान तथा यौनिकता शिक्षा पर बच्चे-बच्चियों से बात करने व उनकी आशंकाओं, सवालों को आमंत्रित करने के लिए तैयारी किया जाना चाहिए। इसमें यौन शोषण शामिल हो लेकिन यह केवल उस तक सीमित न होकर महिला-पुरुष संबंध, यौनिकताओं  जेंडर जैसे मुद्दों पर छात्र-छात्राओं में एक विवेकशील व न्यायसंगत समझ विकसित करने हेतु हो। 
·         हर स्कूल में विशेष चुनौती वाले बच्चों (CWSN) की शिक्षा के पुख़्ता इंतेज़ाम किये जायें। इसके लिए प्रत्येक ऐसे बच्चे-बच्ची के लिए सक्षम शिक्षक, सुगम भौतिक ढाँचा व शैक्षिक उपकरण उपलब्ध कराये जायें। हर क्षेत्र में, जोकि शहरों में वार्ड से बड़ा न हो, एक होस्टल-युक्त विशेष स्कूल की व्यवस्था की जाये जिसमें प्रवेश लेना माता-पिता के निर्णय पर निर्भर हो।  
·         अंग्रेज़ी माध्यम की कक्षायें व अलग स्कूल खोलने पर पूरी तरह रोक लगाई जाये। मातृभाषा को माध्यम के रूप में व स्थानीय भाषाओँ को विषय के रूप में स्कूलों में अनिवार्य जगह दी जाये। अंग्रेज़ी की पढ़ाई प्रथम कक्षा से हो लेकिन इसमें पास होने को किसी भी स्तर पर अगली कक्षा में जाने की शर्त न बनाया जाये। साथ ही, कुल परीक्षा-परिणाम में अंकों के प्रतिशत की गणना में अंग्रेज़ी को तभी शामिल किया जाये जब किसी अन्य विषय में विद्यार्थी के अंक उससे भी कम हों। जहाँ मातृभाषा में शिक्षण की तत्काल व्यवस्था न हो, वहाँ आगे की योजना के लिए बच्चों की मातृभाषा की सटीक जानकारी का नियमित ब्यौरा रखा जाये। तृतीय भाषा को ईमानदारी से, बच्चों की पसंद, स्थानीय संदर्भ और देश की भाषाई विविधता को जानने के उस उसूल के रूप में लागू किया जाये जिस उद्देश्य से त्रि-भाषा-सूत्र अपनाया गया था।  

डिजीटलीकरण
·         सरकार द्वारा पारदर्शिता के छद्म दावे के नाम पर स्कूलों की तमाम प्रक्रियाओं में कंप्यूटरीकरण और डिजीटलीकरण को थोपना बंद किया जाये। पहले जो काम आसानी से स्कूल के स्तर पर हो जाते थे अब उनका केन्द्रीकरण करके जनता की मुश्किलें बढ़ा दी गई हैं| उदाहरण के तौर पर आज एक एसएलसी (स्कूल लीविंग सर्टिफिकेट) निकलवाने में बच्चे के कई दिन की पढ़ाई बर्बाद होती है और अभिभावकों के कई चक्कर लगते हैं| दाखिलों, SLC, परिणाम, तबादलों, निर्माण आदि में विकेन्द्रीकृत तौर-तरीक़े अपनाये जायें, जिनमें जवाबदेही लोकतांत्रिक ढंग से तय हो। 
·         ई-गवर्नेंस व डिजिटलीकरण के नाम पर शिक्षाशिक्षक व विद्यार्थी-विरोधी आदेशों और प्रक्रियाओं को थोपना बंद किया जाये|
·         स्कूलों में शिक्षा तथा विद्यार्थियों के हितों की नज़र से प्रायः बेमक़सद लेकिन बेतहाशा बढ़ता हुये काम की उपयोगिता की समग्र समीक्षा की जाये।तब तक इसके लिए क्षेत्रीय स्तर पर आईटी केंद्र स्थापित किये जायें ताकि शिक्षक इन ग़ैर-आकादमिक कामों से मुक्त रहें तथा किसी भी बच्चे का कोई हित प्रशासनिक-तकनीकी अड़चनों की भेंट न चढ़े।   

विकेंद्रीकरण
·         स्कूलों व विद्यार्थियों पर केंद्रीकृत परीक्षाएँ न थोपी जाएँ। दसवीं के पहले की सभी परीक्षाएँ स्कूली स्तर पर हों। 
·         शिक्षकों को  शिक्षण के लिए सहायक सामग्री ख़रीदने या बनाने के लिए उचित व नियमित संसाधन उपलब्ध कराये जायें। इस प्रक्रिया को जटिल न बनाकर विकेन्द्रीकृत रखा जाये। शिक्षकों के लिए पुस्तकालय, सहायक सामग्री व इनसे जुड़े शोध उपलब्ध करने वाले संस्थान क्षेत्रीय स्तर पर हों। सेवाकालीन शिक्षकों को शिक्षा संस्थानों के पुस्तकालयों में पढ़ने की व्यवस्था की जाये। 
·         पाठ्यचर्या की गति व क्रम पर केंद्रीकृत लगाम न लगाई जाये, बल्कि इसे स्कूल के विशिष्ट संदर्भ और शिक्षक की योजना व प्रणाली की ज़िम्मेदारी मानकर लचीला रखा जाये। 
·         स्कूलों में तदर्थवाद की परिस्थिति को समाप्त किया जाये। शिक्षकों व स्कूलों को उनके विशेष संदर्भों के आलोक में पढ़ने-पढ़ाने के फ़ैसले लेने की अधिक स्वायत्तता दी जाये।  
·         स्कूलों के प्रशासन को शिक्षकों पर तानाशाही आदेशों, निगरानी तंत्र   दंडात्मक कार्रवाइयों के ज़रिये चलाने की सुनियोजित कोशिशें हो रही हैं। इससे न केवल शिक्षकों का मनोबल टूट रहा है बल्कि वो अपने पेशे के प्रति बौद्धिक रूप से उदासीन होते जा रहे हैं। इसका सीधा नुक़सान सिर्फ़ विद्यार्थियों की पढ़ाई व स्कूलों के स्थायित्व को ही नहीं होगा, बल्कि  आने वाले समय में इससे देश की लोकतांत्रिक संस्कृति व नैतिक बल में भी गिरावट आएगी।   
·         केंद्रीकरण के तहतशिक्षकों व स्कूलों कीपूरी ज़िम्मेदारी के साथपढ़ने-पढ़ानेआयोजनों के प्रकार व तौर-तरीक़ों तथा रोज़मर्रा की प्रक्रियाओं में बौद्धिक स्वायत्तता का सम्मान किया जाये। इस कड़ी में स्कूलों पर मुख्यमंत्री से लेकर प्रधानमंत्री के संबोधनों को जबरन दिखाने के हालिया मर्यादाहीन चलन पर रोक लगाई जाये। स्कूलों को, परोक्ष या प्रत्यक्ष, किसी भी तरह से दलगत प्रचार या प्रोपागैंडा के लिए, जैसा कि पिछले वर्षों में ख़तरनाक रूप से हुआ है, इस्तेमाल न किया जाये। 

नीतिगत स्तर पर
ढांचागत बदलाव
·         शिक्षा पर बजट का 20% ख़र्च किया जाये, जिसमें से आधा कम-से-कम स्कूली व्यवस्था के लिए आवंटित हो।  
·         दूसरी पाली में चल रहे स्कूलों को अलग ज़मीन परनए भवनों में स्थानांतरित किया जाये। तब तक दो पालियों में चल रहे स्कूलों में संसाधनों व समय का इंतेज़ाम एकल पाली के स्कूलों के स्तर पर लाने की योजना बनाई जाये। 
·         सभी स्कूलों में कच्चे मैदानखेलकूद, पुस्तकालय व पाठ्यचर्या की सहायक गतिविधियों के पुख़्ता व सुलभ इंतेज़ाम हों। 
·         स्कूलों में शिक्षक, सफ़ाई कर्मचारीचौकीदारआयाप्रयोगशाला सहायक, आईटी, अकाउंटेंट जैसे सभी पदों पर तय समय-सीमा के अन्दर नियमित नियुक्तियाँ की जाएँ और ठेकाकरण अथवा आउटसोर्सिंग पर पूरी तरह रोक लगाई जाये। नियमित नियुक्तियों में देरी के चलते कामगार मज़दूरों को एरियर दिए जाएं| सभी शिक्षकों को नियमित किया जाये और समान काम,  समान वेतन के आधार पर नियुक्त किया जाये। पेशागत अर्हता के बिना किसी को शिक्षक पद पर नियुक्त न किया जाये। 
·         शिक्षकों पर से सभी ग़ैर-अकादमिक ज़िम्मेदारियों को हटाया जाये और इन कामों के लिए क्लर्क व ऑफ़िस सहायक जैसे कर्मी नियुक्त किये जायें। 
·         बायोमेट्रिक हाज़िरी व सीसीटीवी जैसे गरिमा धूमिल करने वाले तमाम निगरानी उपायों पर स्कूलों में रोक लगाई जाये।  
·         स्कूलों को डाटा केंद्र बनाना और कार्यक्रमों की फ़ोटो व वीडियो रपटें माँगना बंद किया जाये। विद्यार्थियोंउनके अभिभावकों व शिक्षकों की निजता और गरिमा की सुरक्षा की जाये। 

नव-उदारवादी हमले
·         उत्कृष्टता के नाम पर या PPP की नीति के बहाने, सरकारी स्कूल व्यवस्था में ऊँची-नीची परतें बिछाना बंद किया जाये। पहले से मौजूद नवोदय, प्रतिभा स्कूल इन परतों के उदाहरण थे, अब नित नए मॉडल स्कूल, स्कूल ऑफ एक्सीलेंस (SOI) भी खड़े किए जा रहे हैं जो हर बच्चे के लिए उपलब्ध नहीं होते| कुछ स्कूलों को चमकाने की यह राजनीति अपव्ययी और भ्रामक है|
·         स्कूलों मेंपाठ्यचर्या-पाठ्यक्रम-पाठ्यपुस्तक निर्माण या शिक्षण-खेल-पुस्तकालय अथवा किसी भी बहाने से PPP और एनजीओकरण को स्थान नहीं दिया जाये। सभी प्रक्रियाएँपूरी जवाबदेही व लोकतंत्रात्मक ढाँचों के तहत सार्वजनिक हों। 
·         स्कूली शिक्षा के तमाम आयामों में एनजीओ की भूमिका व हस्तक्षेप को बंद किया जाये। मिड-डे-मील जैसी प्रक्रिया में भी, जहाँ एनजीओ को एक ज़िम्मेदारी दी गई है, अधिक पारदर्शिता व जवाबदेही की ज़रूरत है। इसके न रहते इनका काम करती और इनसे मेहनताना पाती महिलाकर्मी आर्थिक शोषण का शिकार हो रही हैं तथा उनकी शिकायत की सुनवाई का कोई तंत्र नहीं है।  
·         स्कूलों को प्रतियोगितावादनिजी प्रबंधन व बाज़ार के फूहड़ दर्शन के आधार पर जाँचने व रैंक देने की नीति पर तत्काल रोक लगाई जाये। 
·         शिक्षकों व स्कूलों पर परिणाम-आधारित मूल्याँकन थोपने की शिक्षा-विरोधी नीति पर रोक लगाई जाये और शिक्षा के चरित्र को हक़सामाजिक दायित्व तथा बहु-आयामी एवं सतत प्रक्रिया की समझ के आधार पर राज्य की ज़िम्मेदारी तय की जाये। परिणाम-आधारित जवाबदेही के बदले शिक्षकों को उनके शिक्षण की प्रक्रिया से आँका जाये।  
·         शिक्षकों के सेवाकालीन प्रशिक्षण को सुनियोजित ढंग से खड़ा किया जाये। शिक्षकों के प्रशिक्षण में ज़ोर केवल परीक्षाओं और परिणामों को केंद्र में रखकर पढ़ाने पर न हो। इन प्रशिक्षणों में अकादमिक रूप से क़ाबिल व अपने अनुशासन पर मज़बूत पकड़ रखने वाले लोगों की मदद ली जाये।  सेवाकालीन प्रशिक्षण प्रासंगिक, रोचक व अनवरत कार्यक्रमों के ज़रिये हों। तथापि इसमें शिक्षकों की रुचि व उपलब्धता का विशेष ख़याल रखा जाये। शिक्षकों के प्रशिक्षण, शैक्षणिक सक्षमता व पेशागत विकास को बढ़ाने की नज़र से लाये गए कार्यक्रमों की अकादमिक व खुली समीक्षा करके इसे सार्वजनिक किया जाये। समय-समय पर शिक्षा एवं बच्चों से जुड़े कानूनों की सही व्याख्या/जानकारी हेतु अधिकारियों और शिक्षकों के लिए सेमिनारों का आयोजन कराया जाये ताकि जनवादी कानूनों का सही और संवेदनशील समझ के साथ कार्यान्वन हो| कानून की अनभिज्ञता के चलते इसके अभाव का खामियाज़ा शिक्षकों और बच्चों को भुगतना पड़ता है
·         सरकार सभी निजी शिक्षक प्रशिक्षण संस्थानों को अपने नियंत्रण में ले और इनमें क़ाबिल फैकल्टी, ज़रूरी ढाँचा, न्यायपूर्ण प्रवेश तथा न्यूनतम (ग़ैर-मुनाफ़ा) फ़ीस की परिस्थितियाँ सुनिश्चित करे। 
·         शिक्षा विभागों में कोरे अफ़सरशाहों की जगह शिक्षा से जुड़े व इसके अनुशासन की पृष्ठभूमि के लोग नियुक्त होने चाहिए। शिक्षा अधिकारियों द्वारा स्कूलों में सामान्य रूप से आने की व्यवस्था को स्वस्थ संवादईमानदारी तथा शिक्षा की सही समझ पर खड़ा करने की ज़रूरत है। इसके लिए कुकुरमुत्तों की तरह फैलते कॉर्पोरेट एनजीओ और शिक्षा की भ्रामक समझ व बाज़ारवादी नीयत से संचालित निजी संस्थाओं के बदले SCERT, DIET आदि सार्वजनिक संस्थानों के अलावा उच्च-शिक्षा संस्थानों के शिक्षा विभागों का सहयोग लिया जाये।        
·         अकादमिक पहचान रखने वाले क़ाबिल शिक्षाविदों व शिक्षकों के समूह द्वारा पाठ्यचर्या की समीक्षा व पुनर्रचना की जाये। पाठ्यचर्या के केंद्र में अकादमिक विषय एवं अनुशासन की चिंता हो।   

अन्य संस्थाएं 
·         बच्चों के पोषण व शारीरिक, सामाजिक तथा भावात्मक स्वास्थ्य के साथ-साथ सभी तरह के संभावित शोषण से बचाव व उसके प्रति कार्रवाई की तैयारी को लेकर एक सतत अभियान का रवैया अपनाया जाये। इसके लिए आँगनवाड़ियों की व्यवस्था मज़बूत करने के साथ-साथ स्कूली अल्पाहार कम-से-कम दसवीं तक बढ़ाया जाये; स्वास्थ्य विभाग की तरफ़ से नियमित जाँच हो; स्कूलों व क्षेत्रीय कार्यालयों में यौन शोषण की शिकायत के लिए समितियाँ गठित की जायें और बच्चों को सभी तरह की सूक्ष्म हिंसा के ख़तरों के प्रति सचेत और संरक्षित किया जाये। इन सबके लिए स्कूलों को बच्चों की भावनाओं, डर, चिंताओं और शिकायतों को खुलकर अभिव्यक्त करने के लोकतांत्रिक व जवाबदेह केंद्रों की तरह खड़ा किया जाये। इसके लिए स्कूलों में बच्चों को नागरिक होने का मतलब, नागरिक अधिकारों की अहमियत व सामूहिक संघर्षों के पाठों से जीवंत रूप से रू-ब-रू कराया जाना होगा। हमारा मानना है कि परीक्षा-परिणामों के आधार पर की जाने वाली रैंकिंग में तमाम तरह की गंभीर ख़ामियाँ हैं और इसमें आर्थिक-सामाजिक असमानता व राज्य की नीतियों पर पर्दा डालकर केवल बच्चों व शिक्षकों पर एक-तरफ़ा दोष मढ़ दिया जाता है। इसके बदले स्कूलों को एक लोकतांत्रिक इंडेक्स (पैमाने) पर आँकना शिक्षा व जन दोनों के हित में होगा।  
·         राज्यों व केंद्रीय स्तर पर काम कर रहे बाल अधिकार संरक्षण आयोगों को अकादमिक, प्रशासनिक व वित्तीय रूप से बच्चों के प्रति इनकी संवैधानिक ज़िम्मेदारी निभाने के लिए सक्षम बनाया जाये। ऐसा प्रतीत होता है कि आज ये संस्थाएँ न सिर्फ़ सरकारों की ग़लत नीतियों से बच्चों के हक़ों की रक्षा करने, सरकारों का विरोध करने में अक्षम हैं, बल्कि ये ख़ुद भी तमाम तरह की बाज़ारवादी व ग़ैर-अकादमिक निजी संस्थाओं के चंगुल में फँसकर काम कर रही हैं। इन आयोगों की शक्तियाँ भी, जहाँ ये इन्हें इस्तेमाल करने की चेष्टा करती प्रतीत होती हैंबेहद क़ाग़ज़ी हैं। इन आयोगों को हर तरह से मज़बूत किये बिना बच्चों के अधिकारों पर हो रहे आघातों को रोका नहीं जा सकता है।  
·         इसी तरह SCERT NCERT जैसी संस्थाओं को मज़बूत किया जाये ताकि वो स्कूली पाठ्यचर्या व पुस्तक निर्माण में अकादमिक रूप से श्रेष्ठ योगदान दे पायें। इनमें किये जा रहे शोधों से शिक्षकों व अधिकारियों को परिचित कराया जाये। 
·         स्कूलों व अभिभावकों और पड़ोस के समुदायों के बीच परस्पर सम्मान व लोकतांत्रिक व्यवहार के रिश्ते-ढाँचे खड़े किये जायें। असल में तो स्कूलों को जवाबदेह बनाने के लिए तकनीकी निगरानी व प्रशासनिक दंडात्मक कार्रवाई पूरी तरह भ्रामक उपाय हैं। इसके बदले इससे बेहतर कोई उपाय नहीं हो सकता कि, जब तक कि वो बच्चों व अन्यों की निजता का उल्लंघन न करें तथा स्कूल की गतिविधि में हस्तक्षेप न करेंपत्रकारों, शोधार्थियों व अभिभावकों को स्कूलों में बिना किसी रोकटोक के आने की आज़ादी हो।