Wednesday 19 May 2021

समान व मुफ़्त सार्वजनिक स्वास्थ्य व शिक्षा व्यवस्था की लड़ाई को तेज़ करो !!!

हम कोरोना की महामारी के संदर्भ में देशभर में हुई लाखों ज्ञात-अज्ञात मौतों और पीड़ितों के प्रति अपनी संवेदना प्रकट करते हैं। हम तमाम प्रभावित परिवारों और पीड़ितों के संघर्षों के प्रति अपनी एकजुटता भी प्रकट करते हैं। इस त्रासदी के लिए हम राजनैतिक नेतृत्व व आर्थिक व्यवस्था की ज़िम्मेदारी व आपराधिक नाकामी को चिन्हित करते हैं। देश के विशाल बहुसंख्य को आज निश्चित ही एक आर्थिक व स्वास्थ्य आपातकाल के अभूतपूर्व संकट की स्थिति में पहुँचा दिया गया है। हम संगठित व एकताबद्ध होकर इसका मुक़ाबला करने के इरादे को दोहराते हैं। 
 
पिछले एक साल से ज़्यादा के समय में, और विशेषकर पिछले डेढ़ महीने में, देश के तमाम स्वास्थ्य कर्मियों, शिक्षा सहित विभिन क्षेत्रों के कर्मचारियों, राजनैतिक-सामाजिक समूहों, संगठनों और निजी हैसियत में अनेक लोगों ने विभिन्न तरीक़ों से अपने पेशे की उदात्त भूमिका, मानवीय प्रतिबद्धता व बहादुराना प्रयासों का परिचय दिया है। लाखों लोगों ने अपने प्रियजनों से दूर रहकर और अपनी सेहत को जोखिम में डालते हुए दिन-रात एक किया है। हम इनसे प्रेरणा लेते हुए इन्हें अपना सलाम पेश करते हैं। ऐसे में हम एक तरफ़ उन लोगों की भूमिका व भयावह स्थिति को दर्ज करते हैं जो नाम, पक्की नौकरी, सम्मानजनक वेतन और न्यूनतम सुरक्षा उपायों के बिना ही अस्पतालों में सफ़ाई के काम में लगे हैं, लाशें उठा रहे हैं, उन्हें कंधा व अंतिम संस्कार दे रहे हैं; तो दूसरी तरफ़ हम सावित्रीबाई फुले की विरासत को भी याद करते हैं जिन्होंने 1897 में प्लेग की महामारी के दौरान लोगों की मदद करते हुए अपना जीवन बलिदान कर दिया था।
श्रम व सार्वजनिक-प्राकृतिक संसाधनों की लूट और निजी मुनाफ़े की हवस पर टिकी अर्थव्यवस्था की कुरूपता आज हमारे सामने बेनक़ाब है। हमें इस सच को समझना-समझाना होगा और इस अमानवीय, अन्यायपूर्ण व्यवस्था को ख़त्म करने की ओर बढ़ना होगा। असल में पिछले एक साल से ज़्यादा के संकट ने हमारे सामने कुछ तथ्यों को रेखांकित ही किया है। हम ऐसे ही कुछ तथ्यों को यहाँ रखना चाहेंगे -

 स्वास्थ्य व्यवस्था  
   
    पिछले दिनों हमने पाया कि हमें पर्याप्त संख्या में बिस्तर व वेंटीलेटर और पर्याप्त मात्रा में मेडिकल ऑक्सीजन, दवाइयाँ व टीके चाहिए; मगर जब सरकार बाक़ी सार्वजनिक संस्थानों की तरह      दवा-टीके तैयार करने वाले सार्वजनिक संस्थानों को भी बेचने-बंद करने की नीति अपना चुकी है तो फिर आपदा में ये सामग्री रातों-रात नहीं बनने लगेगी। चलिए निजी कंपनियों के उत्पादन से      ये मिल भी गए तो ऊँचे दामों के चलते कितनों के काम आ पाएँगे? टीके व दवाओं के लिए निवेश व घाटे की दुहाई देने वाली वैश्विक कंपनियों की बपौती व मुनाफ़े को सुनिश्चित करने वाले सौदे किये गए। ऐसा करते वक़्त ये छुपा लिया गया कि प्रत्यक्ष व परोक्ष रूप से ये फ़ार्मा कंपनियाँ सार्वजनिक ज्ञान, संसाधनों व कर में छूट को इस्तेमाल करती हैं। हमें देश की जन-स्वास्थ्य नीति को  अपने हितों में ढालने वाली फ़ार्मा कंपनियों और उनके 'परोपकारी' मालिकों की बढ़ती ताक़त के ख़िलाफ़ लड़ना होगा।  
फिर निश्चित संख्या में प्रशिक्षित स्वास्थ्यकर्मियों की ज़रूरत भी उजागर हुई - आख़िर बिस्तर और ऑक्सीजन से अपने-आप इलाज नहीं हो सकता; यानी मेडिकल संस्थान चाहिए - मगर अगर वो निजी होंगे तो फिर लाखों-करोड़ों की फ़ीस देकर उनसे तैयार हुए कर्मी आख़िर किस तरह के संस्थान में और कैसी भावना से काम कर पाएँगे? और अगर सार्वजनिक मेडिकल कॉलेजों से मुफ़्त व बढ़िया शिक्षा लेकर कर्मी तैयार होंगे तो उन्हें अपनी विद्या से इंसाफ़ करने के लिए सार्वजनिक अस्पताल व स्वास्थ्य केंद्र चाहिए होंगे। लेकिन अगर वो संस्थान-अस्पताल संसाधनविहीन होंगे तो फिर, जैसा कि हमने इस आपदा के दौरान गिड़गिड़ाते और जुगाड़ लगाते हुए पाया, सार्वजनिक और मुफ़्त अस्पतालों से भी सब कुछ सुनिश्चित नहीं हो जाएगा। इसलिए हमें सार्वजनिक समान शिक्षा और सार्वजनिक समान स्वास्थ्य की लड़ाई को साथ-साथ लड़ना होगा। इन लड़ाइयों को समाज व आर्थिक-राजनैतिक-सांस्कृतिक व्यवस्था परिवर्तन की व्यापक लड़ाई से जोड़ना होगा।    
तमाम शोध-सर्वे व ख़ुद भारत सरकार के दस्तावेज़ यह बात सामने लाते हैं कि उपचार में निजी ख़र्च हर साल लाखों परिवारों को ग़रीबी रेखा तथा कर्ज़े के नीचे धकेलने का एक बड़ा कारण है। 'लॉकडाउन' और महामारी की आपदा ने बेरोज़गारी और विपन्नता में बेतहाशा इज़ाफ़ा किया है। नतीजतन बच्चों में कुपोषण बढ़ा है व स्वास्थ्य लक्षणों में गिरावट आई है। दूसरी तरफ़, चाहे वो सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) हो या बजट, हर पैमाने पर सरकार द्वारा स्वास्थ्य पर किया जाने वाला ख़र्च अंतर्राष्ट्रीय मानकों के ही नहीं, ख़ुद 2017 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति के हिसाब से भी बहुत कम है। आबादी के हिसाब से तय राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय मानकों के हिसाब से, अस्पताल हों, बिस्तर हों या आईसीयू तथा पैरामेडिकल स्टाफ़ हो या डॉक्टर-नर्स, सब न्यूनतम संख्या से बहुत कम हैं। ज़ाहिर है, सामान्य रूप से उपेक्षित व दमित क्षेत्रों में तो ये तमाम सुविधाएँ हमेशा ही आपातकालिक अवस्था में रहती हैं। इस बार आबादी के सामान्य रूप से ज़रा सुरक्षित वर्गों तक ने स्वास्थ्य आपातकाल की परिस्थिति को नज़दीक से देखा-जाना। अब ये हम पर निर्भर करता है कि हम मेडिकल पर्यटन व बीमा के नाम पर अरबों का धंधा करने वाले पाँच-सितारा अस्पतालों को राष्ट्रीय गर्व के लायक़ मानें या शर्म व आक्रोश के।              
आज हमारे सामने समान, मुफ़्त व सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था की अनिवार्यता और उसके लिए संघर्ष की ज़रूरत साफ़ हो गई है। चाहे वो स्वास्थ्य बीमा या स्मार्ट हेल्थ कार्ड का झुनझुना हो या नीति आयोग का निजी कंपनियों को मेडिकल कॉलेज खोलने के लिए ज़िला अस्पताल सौंपने का प्रस्ताव, 'एक जान, एक अहमियत' या 'हर जान, समान अहमियत' को सुनिश्चित करती सार्वजनिक स्वास्थ्य व्यवस्था के अलावा किसी भी पैंतरेबाज़ी से लोगों को बराबरी का स्वास्थ्य अधिकार नहीं मिल सकता है। इसके लिए हमें केंद्रीकृत सत्ता और चंदेक विशिष्ट अस्पतालों की नहीं, बल्कि स्थानीय व विकेंद्रित संस्थानों पर टिकी एक ऐसी स्वास्थ्य नीति अपनाने की ज़रूरत है जो सब लोगों को एक-समान व मुफ़्त पब्लिक सेवा उपलब्ध कराए। 

शिक्षा व्यवस्था 

शिक्षक होने के नाते हम इस बात से मुँह नहीं मोड़ सकते कि नैतिकता शून्य में नहीं फल-फूल सकती, उसको भी एक भौतिक आधार चाहिए। जब मुट्ठीभर नर्सों पर सैकड़ों मरीज़ों की ज़िम्मेदारी हो, तो उनकी इच्छा-शक्ति या नैतिकता किस काम आएगी, यह बिना अनुपात की कक्षाओं को संसाधनविहीन परिस्थितियों में पढ़ाने वाले हम सरकारी स्कूल के शिक्षकों से बेहतर कौन जान सकता है? इसके बावजूद, जहाँ दवाई, उपकरण, ऑक्सीजन, अस्पताल के बिस्तर, देखरेख, अंतिम संस्कार की यात्रा और उसका प्रबंधन, न सिर्फ़ बिक रहा हो बल्कि चोरी, जमाख़ोरी तथा मुनाफ़ाख़ोरी की भेंट चढ़ रहा हो, तब शिक्षा में इंसान तैयार करने के केंद्रीय महत्व को एक बार फिर संकल्पबद्ध करने की ज़रूरत है। हमें अपने स्कूलों में प्रतिस्पर्धा, होड़, इनामी मुक़ाबले, निजी जीत-कामयाबी और दिखावा-झूठ को बढ़ावा देती संस्कृति के बदले आपसी देखरेख, सह्रदयता और इंसाफ़-बराबरी को बढ़ावा देना होगा। नफ़रत-हिंसा-युद्धोन्माद के बदले स्नेह-दोस्ती-प्रेम और संकीर्ण पहचानों के बदले इंसानियत के वृहद सरोकारों को स्थापित करने की कोशिशें करनी होंगी।
इस इंसानी संकट से बेपरवाह, यहाँ तक कि मदमस्त होकर, विकास के नाम पर देश-दुनिया में साझे संसाधनों को हथियाती विशाल एवं अहंकारी परियोजनाएँ तथा विनाश व नरसंहार को समर्पित हथियारों की कारोबारी हमारे सामने संसाधनों के उपयोग, उनकी बर्बादी और सरकारों की प्राथमिकताओं के सवाल भी खड़े करती हैं। हमारे स्कूलों में भी संसाधनों के अनुचित इस्तेमाल के चुनौतीपूर्ण मौक़े आते हैं जब हमें कठिन फ़ैसले लेने होते हैं - मुख्य अतिथि को कैसे ख़ुश करें, उन्हें क्या भेंट दें, अधिकारियों-राजनेताओं के दबाव में स्कूल या कार्यक्रम को चमकाने में कितने बच्चों, शिक्षकों और संसाधनों को झोंक दें। हमें इन सवालों को अपनी कक्षाओं, सभाओं और अन्य स्कूली गतिविधियों का केंद्र बनाना होगा।
चाहे वो राष्ट्रीय शिक्षा नीति का छोटे स्कूल बंद करके बड़े स्कूल कॉम्प्लेक्स बनाने का प्रस्ताव हो या पर्यावरण संतुलन का विनाश व क़ानूनों का उल्लंघन करती विशाल योजनाओं, भव्य भवनों, विशालकाय मूर्तियों और झंडों के प्रति हमारा बढ़ता फ़ितूर, इस संकट के काल ने हमारे सामने हर पड़ोस में स्कूल, अस्पताल व समाज कल्याण के अन्य सार्वजनिक संस्थानों की ज़रूरत को रेखांकित किया है। आज हमें अपने विद्यार्थियों को 'विशालतम' की बीमार नतमस्तकता की पहचान कराकर, उन्हें 'स्मॉल इज़ ब्यूटीफ़ुल' की समझदारी और साझेपन की ख़ूबसूरती को देखना और अपनाना सिखाना होगा।

हमें विद्यार्थियों को अपने अधिकारों के लिए संघर्षशील बनाना होगा क्योंकि भविष्य को सुंदर बनाने की लड़ाई उनकी लड़ाई है। हमें इस विद्यार्थी-विरोधी व्यवस्था को रद्द करने के माँग करनी होगी जिसका 'लॉकडाउन' की ऑनलाइन पढ़ाई के फ़रेब से लेकर भूख, सेहत और ज़िंदगी-मौत से जूझती उनकी हक़ीक़त से कोई लेना-देना नहीं है। हमारे विद्यार्थियों की आर्थिक स्थिति तो हमेशा से ही त्रासद रही है, 'लॉकडाउन' व महामारी में उनके शिक्षा रूपी तिनके का सहारा भी छीन लिया गया। अगर सब बच्चे शिक्षा से एक-समान रूप से वंचित होने की हालत में होते, तो अन्याय की टीस कम होती। लेकिन हमें पता है कि जहाँ कुछ बच्चे, घरों में स्वस्थ व सुरक्षित, स्कूल की ऑनलाइन क्लास ही क्या, तरह-तरह की कोचिंग व कार्यक्रमों का लाभ ले रहे हैं, वहीं हमारे स्कूलों के विद्यार्थी और तेज़ी से शिक्षा व न्यूनतम पोषण-सेहत से दूर तथा बाल मज़दूरी के पास जा रहे हैं। ऐसे में, एक असमान सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था के बीच इसकी सीमाओं को पहचानते हुए, हमें समान स्कूल व्यवस्था की लड़ाई को मज़बूत करना होगा।  
 
पर्यावरण 

हमें महामारी व विनाश का सही विश्लेषण समझकर इसे जनता के साथ साझा करना होगा। पिछले कई वर्षों से अध्ययन ये चेतावनी देते आए हैं कि जल-जंगल-पहाड़ के संतुलन में 'विकास' का हस्तक्षेप न सिर्फ़ एक पर्यावरणीय संकट पैदा कर रहा है, बल्कि जीव-जंतुओं से इंसानों में नित नए संक्रमणों को भी बढ़ावा दे रहा है। हाल ही में अंडमान द्वीप समूह के नाज़ुक पर्यावरण व विलुप्त होते आदिवासी समूहों को प्राप्त क़ानूनी संरक्षण को ठेंगा दिखाते हुए अरबपतियों को समर्पित अति-विशिष्ट पर्यटन स्थल तथा युद्ध की तैयारी को समर्पित सामरिक केंद्र निर्मित करने की बड़ी योजना को अवश्यंभावी ढंग से थोपना शुरु कर दिया गया है। आर्थिक नीतियों का यह ताज़ा उदाहरण राष्ट्रीय शिक्षा नीति के उस दर्शन से हू-बहू मेल खाता है जिसमें पर्यावरण अध्ययन व पर्यावरण-संसाधनों के सवाल को दरकिनार कर दिया गया है। हमें संसाधनों के कॉर्पोरेटी दोहन के बदले आने वाली पीढ़ियों, आदिवासी व स्थानीय समुदायों की आवाज़ तथा हक़ों को सुनिश्चित करने वाली पर्यावरण नीतियों को लागू करने का दबाव बनाना होगा।
कुछ लोगों के स्वार्थ को साधती आर्थिक नीतियों की चकाचौंध हो या विनाशकारी हथियारों से गौरवांवित होती देश की महानता, पर्यावरण में हवसकारी या अहंकारी हस्तक्षेप की इजाज़त नहीं दी जा सकती। इसके लिए हमें देशों की सीमाओं और उनके बीच के संबंधों को भी शांति, न्याय व सह-अस्तित्व के हक़ में पुनर्व्याख्यायित करना होगा। हमें अपने विद्यार्थियों को पूँजीवाद जनित उस पर्यावरण संकट के प्रति सचेत करना होगा जो सर्वप्रथम तो सबसे कमज़ोर व हाशिये पर पड़े इंसानों को शिकार बनाता है, लेकिन अंततः समस्त मानवजाति और फिर प्राणी जगत तक के लिए अस्तित्व के लिए ख़तरा है। श्रम व सार्वजनिक-प्राकृतिक संसाधनों की लूट और निजी मुनाफ़े की हवस पर टिकी अर्थव्यवस्था की कुरूपता आज हमारे सामने बेनक़ाब है। हमें इस सच को समझना-समझाना होगा और इस अमानवीय, अन्यायपूर्ण व्यवस्था को ख़त्म करके एक संतुलित, स्वस्थ व सुंदर साझे संसार की ओर बढ़ना होगा।

सूचना प्रबंधन एवं प्रोपागैंडा 

हमने यह भी देखा कि दूसरों पर डंडे बरसाने वाले, ज़ुल्म करने वाले जिस 'कठोर प्रशासन' का हम स्वागत करते हैं, यह निश्चित है कि उसका निर्मम तथा ग़ैर-जवाबदेह चरित्र देर-सवेर ख़ुद को 'मुख्यधारा' में समझने वाले लोगों पर भी क़हर बरपाएगा। प्रथम 'लॉकडाउन' में मज़दूर-मेहनतकशों के निर्दयी आर्थिक निष्कासन से लेकर जमाख़ोरी, चोरबाज़ारी वाले इस स्वास्थ्य आपातकाल तक के दौरान, हमने न्यायपालिका, मीडिया जैसी संस्थाओं का पक्षपात देखा। हमने उनकी उस स्वतंत्रता की अहमियत को भी महसूस किया जो सत्ता से सवाल करे, उसकी जवाबदेही तय करे और लोगों के हक़ों की रक्षा करे। इस त्रासद व क्रूर घटनाक्रम ने हमारे सामने शिक्षा को सत्ता के शिकंजे से स्वतंत्र रखने तथा विवेकशील और जनपक्षधर दिशा देने के महत्व को रेखांकित किया है। प्रधानमंत्री के कहने-भर से देश में बड़े स्तर पर मोमबत्ती-दीप जलाने और घंटी-थाली बजाने की कोरियोग्राफ़ी होना लोकतंत्र की सेहत के लिए तो ख़तरनाक था ही; यह, बिना किसी प्रशासनिक आदेश के - बल्कि सिर्फ़ सुझाव या इशारे भर के दबाव के चलते - अपना विवेक गिरवी रखकर पूर्ण आदेशपालक बनते, व अपने विद्यार्थियों के विवेक को भी कमज़ोर करने वाले, हम शिक्षकों पर टिकी इस शिक्षा व्यवस्था के आईसीयू में होने का सबूत भी था। ऐसे में हमें अपने आत्म-सम्मान के लिए भी चेतना होगा।
इस आपातकाल के दौरान भी जनता के स्वास्थ्य से खिलवाड़ करते हुए पुनरुत्थानवादी व अवैज्ञानिक इलाजों का ख़तरनाक महिमामंडन किया गया; झूठे अभिमान के चलते यथार्थ या आपातकाल, किसी भी स्थिति के लिए उचित योजना बनाने की ज़रूरत महसूस नहीं की गई। दूसरी तरफ़ सरकारों द्वारा बीमारी, टेस्टों व मौतों के आँकड़ों को दबाने-छुपाने की रपटें आती रहीं। यहाँ तक कि स्वास्थ्य मद में बजट के आवंटन को भी चतुराई से पेश करके अभूतपूर्व बढ़ोतरी का आधारहीन प्रचार किया गया। शिक्षक होने के नाते पिछले कुछ सालों में हमने ख़ुद सरकारों के दिखावटी प्रचार व प्रशासनिक दबाव के आगे स्कूलों को आँकड़ों की बाज़ीगरी के स्थल बनते देखा है। लोगों को भ्रमित करने वाले आँकड़े और प्रचारी झूठ आपदा के विरुद्ध लड़ाई को कमज़ोर करते हैं तथा शिक्षा को खोखला बनाते हैं। हमें शिक्षा व राजनीति में पसर रहे झूठ, बनावटी प्रबंधन व डर-दबाव-दबंगई की संस्कृति के ख़िलाफ़ लामबंद होना होगा। इस संदर्भ में हम शिक्षा पर सत्ता के नित नए हमलों का शिद्दत से विरोध करते हैं। 

आपदा में अवसरवादिता 

हमने यह भी देखा कि जनता पर आपदा की इस घड़ी को निर्लज्जता से धार्मिक पूर्वाग्रह, नफ़रत व ध्रुवीकरण फैलाने, फ़ार्मा कंपनियों की लूट बढ़ाने व छोटी-बड़ी-मनगढ़ंत, हर कामयाबी के लिए प्रधानमंत्री को श्रेय देकर उनकी छवि चमकाने के अवसर की तरह इस्तेमाल किया गया। इसका एक परिणाम यह हुआ कि बड़ी संख्या में लोगों के मन में टीके की प्रक्रिया व उपयोगिता को लेकर संकोच व संदेह घर कर गया। जबकि इतिहास गवाह है कि अगर विज्ञान व स्वास्थ्य-संबंधी खोजबीन और आविष्कारों की सफलता को राजनेताओं के निजी श्रेय व चुनावी-प्रचारी छवि भुनाने के लिए इस्तेमाल किया जाता है तो यह उन उपलब्धियों या वैज्ञानिक दावों की विश्वसनीयता के लिए घातक सिद्ध हो सकता है। कोई परिपक्व या ज़िम्मेदार राजनैतिक सत्ता ऐसा नहीं करेगी। मगर यहाँ आत्म-प्रचार की क्षुद्र महत्वकांक्षा की हद ये है कि दुनिया में शायद एक हमारा ही देश है जहाँ एक राजनेता अथवा प्रधानमंत्री की फ़ोटो टीके के सर्टिफ़िकेट पर सुशोभित है। जबकि फ़्लोरेंस नाइटिंगेल हों या सावित्रीबाई, डॉक्टर कोटणीस हों या डॉक्टर बिधान चंद्र रॉय, देश-दुनिया में ऐसी प्रेरक हस्तियों की कोई कमी नहीं है जिन्होंने जन-उपचार और आपदा में ख़ुद को समर्पित कर दिया।
यहाँ तक कि इस महामारी को राष्ट्रीय स्वास्थ्य आपदा क़रार देकर जन-स्वास्थ्य के लिए ज़रूरी ढाँचा खड़ा करने व उपाय करने के लिए नहीं, बल्कि शिक्षक-विद्यार्थी-जन विरोधी राष्ट्रीय शिक्षा नीति, मज़दूर विरोधी लेबर कोड और किसान विरोधी कृषि संबंधी क़ानून लाने के लिए इस्तेमाल किया गया। राजनैतिक-सामाजिक कार्यकर्ताओं, जनांदोलनों व आम नागरिकों की असहमति-विरोध का दमन तो बदस्तूर जारी रहा ही है। महामारी की आपदा से निपटने के नाम पर आमजन, सरकारी कर्मचारियों व कंपनियों से हज़ारों करोड़ का चंदा उगाहकर बड़ी बेशर्मी से उसको निजी ट्रस्ट घोषित कर दिया गया तथा हिसाब उजागर करने से इंकार कर दिया गया। जनता के हाहाकार और व्यापक विरोध के बीच भी सत्ता के वैभव व जनता से उसकी दूरी को समर्पित सेंट्रल विस्टा के दसियों हज़ार करोड़ की योजना को न सिर्फ़ विराम नहीं दिया गया है, बल्कि उसे मनमाने ढंग से 'एसेंशियल सर्विस' घोषित करके सभी प्रतिबंधों से छूट दे दी गई है! हमें जनता के बीच सत्ता के इस घिनौने चरित्र का पर्दाफ़ाश करना होगा। 
हम माँग करते हैं कि:

1. 2017 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति को ख़ारिज करते हुए केंद्र सरकार व सभी राज्य सरकारें जल्द-से-जल्द एक समग्र स्वास्थ्य नीति लाएँ जिसमें बच्चों के भोजन, पोषण, प्रदूषणरहित पर्यावरण, खेलकूद और मुफ़्त इलाज के अधिकारों को सुनिश्चित किया जाए।  
2. एक तयबद्ध समय सीमा में, सुनियोजित ढंग से सभी निजी स्वास्थ्य संस्थानों का राष्ट्रीयकरण करके इन्हें एक मुफ़्त व समान सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवा का हिस्सा बनाया जाए।
3. सरकार निजी क्षेत्र के तमाम मेडिकल शिक्षा संस्थानों के प्रबंधन व संचालन को अपने हाथ में ले।
4. मेडिकल शोध, आविष्कार व खोजबीन को समर्पित किसी भी सार्वजनिक संस्थान को बंद न किया जाए, बल्कि ज़रूरी संख्या में और संस्थान खोले जाएँ।
5. आँगनवाड़ी कर्मियों और आशा वर्कर्स से लेकर स्वास्थ्य संस्थानों में काम करने वाले/वाली सभी कर्मचारियों को नियमित करते हुए उनकी पक्की नियुक्तियाँ की जाएँ। 
6. सरकार अस्पताल के बिस्तरों से लेकर टीके तक, तमाम स्वास्थ्य सुविधाओं को प्राप्त करने के लिए डिजिटल उपकरण की अनिवार्यता व संसाधनयुक्त पहुँच पर रोक लगाए तथा इन्हें बिना किसी शर्त के सार्वभौमिक रूप से व मुफ़्त उपलब्ध कराए।
7. जब तक किसी राज्य में बच्चों की सुरक्षा के मेडिकल इंतेज़ाम सुनिश्चित करके भौतिक रूप से स्कूल खुलने की स्थिति नहीं हो जाती है, तब तक उस राज्य में 'ज़ीरो अकेडमिक ईयर' माना जाए। इस दौरान डिजिटल स्तर पर व स्कूल या पड़ोस में यथासंभव प्रत्यक्ष पढ़ाई की कोशिशें जारी रहें मगर इन्हें अकेडमिक ईयर का हिस्सा न मानकर ज़रूरी अकादमिक सहयोग माना जाए। इसके साथ ही, सत्र 2021-22 को हर राज्य की अपनी परिस्थिति के अनुसार लचीले ढंग से परिभाषित किया जाए, जिसमें इसके व इसके बाद के सत्र की अवधि को छोटा-बड़ा करने की गुंजाइश हो।
8. मिड-डे-मील के क़ानूनी अधिकार से लेकर बच्चों-विद्यार्थियों के लिए तमाम तरह की योजनाएँ व वज़ीफ़े अधर में लटके पड़े हैं। जबकि इसी दौरान बाल मज़दूरी व बाल विवाह में बढ़ोतरी हो रही है और वंचित वर्गों के लाखों बच्चे शिक्षा से बेदख़ल हो रहे हैं। ऐसे में मिड-डे-मील तथा आँगनवाड़ी पोषण को मज़बूत व सुनिश्चित किया जाए; बारहवीं कक्षा तक संपूर्ण स्कूली शिक्षा को मुफ़्त करने का क़ानून लाया जाए; विकलाँगजन, लड़कियों व दमित वर्गों के बच्चों के वज़ीफ़े बढ़ाए जाएँ व 'आधार', बैंक खातों जैसी बहिष्करणवादी शर्तें हटाकर उन्हें बिलकुल सुलभ बनाया जाए; और अनाथ व सिंगल-पैरेंट बच्चों के लिए वज़ीफ़े तथा विशेष सहायता लागू की जाए। 
9. सरकार छोटे स्कूल बंद करने की नीति पर तत्काल प्रभाव से रोक लगाए और सभी बच्चों तक स्कूल की पहुँच सुनिश्चित करने के लिए पड़ोसी स्कूल की नीति अपनाकर ज़रूरी संख्या में नए स्कूल खोले जाएँ। 
10. सरकारों द्वारा सभी निजी स्कूलों का योजनाबद्ध तरीक़े से अधिग्रहण करके उन्हें जनता को समर्पित किया जाए व पड़ोस पर आधारित समान स्कूल व्यवस्था लागू की जाए। 
11. बोर्ड की परीक्षा नहीं आयोजित होने पर विद्यार्थियों को परीक्षा फ़ीस लौटाई जाए।
12. सेंट्रल विस्टा योजना को तत्काल रोका जाये और ऐसी तमाम बड़ी योजनाओं का वित्तीय, पर्यावरणीय व जन हित में मूल्याँकन करके उन पर सभी फ़ैसले जनता की प्राथमिक ज़रूरतों के अनुसार व जनता की सभाओं में लिए जाएँ। इन पर्यावरण और जनविरोधी योजनाओं के हिस्से के संसाधनों को सार्वजनिक स्वास्थ्य व शिक्षा संस्थान खड़ा करने के लिए ख़र्च किया जाए।
13. 'पीएम केयर्स' को सूचना के अधिकार अधिनियम के तहत लाया जाए और इसका पूरा हिसाब-किताब जनता को पेश किया जाए।  
14. कोविड-टीके के सर्टिफ़िकेट से प्रधानमंत्री की फ़ोटो हटाई जाए।