Tuesday 27 December 2022

Condemns the Delhi University Vice-Chancellor's remarks against Trade Unions and democratic protests


Lok Shikshak Manch strongly condemns the remarks denigrating Trade Unions and people's right to protest and democratic struggles made by the Vice-Chancellor of DU in his Presiding comments on the occasion of the 75th Foundation Day Lecture of CIE, Department of Education, at the Delhi University on 19th December. Not only were these statements totally uncalled for in the context of the contents of the Lecture which had been delivered and on which his role called upon him to comment, they were also made in rather casual, indecorous and sweeping terms. His calumnious allegations against Trade Unions and belittling of people's democratic right to protest and agitate peacefully were not only unbecoming of the stature of his office but were also unfounded in facts and contrary to the letter and spirit of the very Constitution under whose guiding light we are supposed to be celebrating the 75th anniversary of Independence. It is inconceivable that, whether as students or teachers or workers or citizens or merely as humans, we would have come to share the rights, liberty, equality and justice that we do, though increasingly precariously, enjoy, without the struggles and sacrifices of people who came together, unionised and challenged the status-quo before us. A look at our increasingly perilous working conditions as teachers or challenging circumstances as students is sure to reveal the connection between the crisis facing us and the weakening of unions and protests rather than their culpability, as alleged by the Vice-Chancellor. Interestingly, irrespective of the point he was trying to make, the Vice-Chancellor's drawing attention to the plight of the kisans and mazdoors itself contradicted the accusations against unionised action since the landless among the former and the majority of the latter continue to suffer precisely because of their unorganised character. Moreover, dismissing unions and democratic protests as '20th century' anachronisms not only denigrates all the rich and inspiring inheritance from that condemned period, including the anti-colonial struggles and the Constitution, as a conceptual category it is also as empty as the so-called, much vaunted but unspecified '21st century skills'!

Indeed, to rail against Trade Unions and democratic agitations is not only a disparagement of the history of struggles waged by students, employees and working classes all over the world, it also insults the anti-colonial national freedom struggle and the proud legacy of movements against caste oppression, ableism, racism, sexism and patriarchy which derived, and continue to derive, their strength and success precisely from the coming together of the oppressed in the form of organisations and unions. Such a 'pedagogic' attack against unions also shows that not only are the ruling classes acutely aware of the challenge which such unity of the oppressed poses to their interests and hegemonic control, but they are in fact afraid that the latter may realise this fact and actualise it by organising themselves and forming strong unions. The fulmination against Trade Unions and democratic agitations cannot be divorced from the fulsome praise showered in the same address on private industry and the attempt to set it up as an ideal or a benchmark before Universities and scholars who were painted as dull and inefficient. Not only is this a caricature of the University's character, it can also be seen as an attempt to advance the agenda and interests of an industry which survives and thrives on private profit, as against the knowledge-generating, intellectual and critical public role of higher education institutions. Though DU has already been designated as an Institute of Eminence, a categorisation with grave financial and academic implications, we can only further wonder and stand guard as to what the Vice-Chancellor's remarks portend for our University and its institutions. 

It was unfortunate that while some in the audience could express their dissent with the Vice-Chancellor's disparaging and demoralising statements through murmurs and symbolic acts, the nature of the program, again in contradiction to the democratic spirit which needs to be nurtured in such academic spaces, didn't allow for any dialogue with the speakers which might have led to the expression of disagreements, raising of questions and engagement with the propositions advanced from the dais. As a teachers' collective with a long and loving association with CIE in particular and DU in general, we are appalled by the degradation of academic events and attempts to turn them into means of vilification and flattery. If left unchallenged, this propagandist culture threatens to subvert the values of democracy itself by enculturing young minds into a mockery of education. We can only imagine the message which was being conveyed and its implications for the way his office treats and intends to treat elected bodies such as DUTA, DUSU and DUCKU, not to speak of other particularly affiliated organisations trying to actively engage with the University administration and resist its anti-education, anti-student and anti-teacher moves.  

We call upon the Vice-Chancellor to reflect upon his remarks against Trade Unions and people's democratic right to protest and withdraw them. We also call upon teachers, students and all workers associated with DU to keep vigil against increasing onslaughts on the academic and democratic spirit of our institutions and uphold their right and responsibility to unionise and protest against undemocratic forces and policies.

 

Wednesday 30 November 2022

 निगम चुनाव से नदारद निगम स्कूल के सवाल 


दिल्ली के स्कूलों में शिक्षक होने के नाते हम दिल्ली नगर निगम के चुनावों पर टिप्पणी करने से ख़ुद को रोक नहीं सकते/को बाध्य हैं। स्थानीय निकाय के इन चुनावों में भी हम भारतीय लोकतंत्र की उसी बीमारी के लक्षण देख रहे हैं जिसके बारे में डॉक्टर अंबेडकर ने चेताया था। दो बड़े दलों के इश्तेहार उनके स्थानीय प्रत्याशियों का परिचय नहीं करा रहे, बल्कि अधिनायकवादी केंद्रीय नेता के नाम और चेहरे पर वोट माँग रहे हैं। उधर एक अन्य प्रमुख दल भी अपना नायक खड़ा करने की कोशिश में लगा है। फिर, हमें यह भी बता दिया गया है कि इस लोकतंत्र में इन दलों की नज़र में चुनाव लड़ने के लिए सबसे ज़रूरी क़ाबिलियत धन-दौलत है। सोने पर सुहागा यह है कि इसकी भी कोई गारंटी नहीं है कि हमारा समर्थन जीतने के बाद डर या लालच के चलते हमारा नुमाइंदा दल नहीं बदलेगा। फिर भी, वफ़ादार वेतनभोगी कर्मचारी के रूप में हम न सिर्फ़ लोकतंत्र के इस जश्न का डंका पीटते हैं, बल्कि स्कूलों में विद्यार्थियों को भी इसकी महिमा के गुणगान में दीक्षित करते हैं। 


ऐसे में कोई हैरानी की बात नहीं है कि दिल्ली में बहुत-से लोगों की राजनैतिक चेतना में नगर निगम की भूमिका व औचित्य को लेकर समझ साफ़ नहीं है। ख़ुद हमारे स्कूलों में पढ़ने वाले अधिकतर बच्चों के माता-पिता तक निगम के स्कूलों के प्रशासन व अस्तित्व को दिल्ली सरकार का ही हिस्सा समझते हैं। संविधान के संघीय ढाँचे व लोकतंत्र के विकेंद्रीकरण के आदर्श पर हो रहे लगातार हमलों के संदर्भ में तथा 'एक देश, सब कुछ एक' के दरिद्र व कुरूप दर्शन के आगे लोगों के बीच स्थानीय निकाय के स्वतंत्र औचित्य, महत्व और भूमिका को स्थापित करना और भी चुनौतीपूर्ण व ज़रूरी हो गया है। इस तरह की तैयारी व संघर्ष की कमी के चलते, फ़िलहाल ये चुनाव एक तरह की राजनैतिक निरक्षरता के माहौल में हो रहे हैं। इसी का नतीजा है कि सार्वजनिक स्कूलों का, जिनमें दिल्ली सरकार व निगम दोनों के स्कूल शामिल हैं, बेशर्मी से दलगत नेताओं के व्यक्तिवादी प्रचार व महिमामंडन के लिए असंवैधानिक इस्तेमाल किया जाना आम होता गया है। वहीं दूसरी तरफ़, प्रमुख दलों के प्रचार अभियान में निगम के स्कूल व इनके हालात ग़ायब हैं और इनके घोषणापत्रों/संकल्पों में स्कूलों या शिक्षा को लेकर कोई ख़ास फ़र्क़ नहीं दिखता है।
 
आख़िर ऐसा क्यों है कि अपने स्कूलों के हालात में क्रांतिकारी बदलाव लाने का दावा करने वाली सरकार का सत्ताधारी दल निगम के स्कूलों की बदहाली को मुद्दा बनाने का हौसला नहीं दिखाया? उधर 15 वर्षों तक निगम की सत्ता संभालने वाले दल के पास भी क्यों अपने स्कूलों के बारे में कहने के लिए कुछ नहीं है? इसका एक जवाब उन ताक़तों में है जो एक-समान रूप से इन दलों व इनकी सरकार/प्रशासन को संचालित करती हैं तथा एक-जैसी शिक्षा नीति में प्रकट होती हैं। उदाहरण के तौर पर, 'प्रथम' नाम की जिस बड़ी संस्था की सिफ़ारिश और प्रचार का असर राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 द्वारा स्कूलों की पढ़ाई में 'मूलभूत साक्षरता और गणना' पर विशेष ज़ोर देने में सामने आया है, उसी के इशारों पर दिल्ली सरकार के स्कूलों में 'मिशन बुनियाद' जैसे शिक्षा व बाल विरोधी कार्यक्रम चलाए जा रहे हैं और हाल ही में तीसरे दल से जुड़े एक ट्रस्ट द्वारा उसी को 'शांति, निरस्त्रीकरण व विकास के लिए इंदिरा गाँधी पुरस्कार' से भी नवाज़ा गया है। इसी तरह, जहाँ दिल्ली सरकार मुट्ठीभर बच्चों के लिए कुछ मलाईदार स्कूल (SoSE) खोलकर वाहवाही लूटने की कोशिश कर रही है, वहीं निगम में भी ढेर-सारे स्कूलों को साधारण और चुनिंदा को 'प्रतिभा' का तमग़ा देकर बच्चों के बीच भेदभाव किया जा रहा है। इधर केंद्र सरकार ने भी देशभर के लाखों स्कूलों में से 16,000 स्कूलों को ख़ासतौर से चमकाकर एक और मलाईदार परत बिछाने की शिक्षा नीति की घोषणा की है। लोकतंत्र के रहते हुए भी स्कूलों की इस भेदभावपूर्ण व्यवस्था को सभी प्रशासन अपनी शान मानते हैं। ज़ाहिर है कि स्कूली शिक्षा को लेकर इन प्रमुख दलों की समझ और नीयत में कोई ख़ास मतभेद नहीं हैं। 
इसका एक और सबूत यह है कि तमाम दलगत टकराव के बावजूद, निगम प्रशासन का शिक्षा विभाग पिछले कुछ सालों से, अपनी संवैधानिक स्वायत्तता को ख़ुद ही दरकिनार करते हुए, लगातार दिल्ली सरकार के शिक्षा निदेशालय के पदचिन्हों पर चल रहा है। चाहे वो एनजीओ की घुसपैठ हो या मिशन बुनियाद को लागू करके बच्चों को बाँटना व उन्हें घटिया दर्जे का कोर्स पढ़ाना या देखादेखी 'हैप्पीनेस करिकुलम' अपनाना या महज़ नक़ल की एक होड़ के चलते 'मेगा पीटीएम' का शोर मचाना और कुछ शिक्षकों को शिक्षण व साथी शिक्षकों से काटकर 'मेंटर टीचर' बनाना, आज निगम और दिल्ली सरकार के स्कूलों के बीच संसाधनों के आधार पर कितना ही फ़र्क़ क्यों न हो, शिक्षा के नाम पर दोनों ही में बच्चों के साथ एक-सा क्रूर मज़ाक किया जा रहा है। इन सबके अलावा, निगम में भी शिक्षकों व स्कूलों के लिए उसी तरह की अड़ियल अफ़सरशाही से काम लिया जा रहा है जिसे दिल्ली सरकार के स्कूल व शिक्षक पिछले कई सालों से भुगत रहे हैं। इन स्कूलों व इनमें पढ़ने वाले विद्यार्थियों की हक़ीक़त से बेपरवाह होकर, सत्ता के नशे में धुत्त और फ़ोन के/ऑनलाइन घोड़े पर सवार ऐसे आदेश जारी किए जाते हैं जिनका एक नतीजा यह होता है कि पढ़ाई को एक किनारे करके स्कूल व शिक्षक डाटा भरने-भेजने में लग जाते हैं और दूसरा यह कि आनन-फ़ानन में यह डाटा गड़बड़ हो जाता है। जबकि अगर आप सूचना के अधिकार क़ानून के तहत भी निगम से ये डाटा माँगेंगे तो वो नहीं दे पाएगा! अब इस तानाशाही का ख़ामियाज़ा बच्चों के माता-पिता भी भुगत रहे हैं जिन्हें बिना किसी पूर्व जानकारी के, महज़ फ़ोन पर तुरत भेजे गए संदेश की ताक़त पर, दिहाड़ी व कामकाज छोड़कर, स्कूल में किसी ऐसी मीटिंग में शामिल होने का फ़रमान पहुँचा दिया जाता है जिसकी तैयारी करने का वक़्त या संसाधन स्कूल के पास भी नहीं होता। प्रशासन ने यह मान लिया है कि सब बच्चों के माता-पिता के पास सुचारु स्मार्टफ़ोन हैं जिन्हें वो बढ़िया ढंग से इस्तेमाल करना जानते हैं और जिन्हें उन्होंने स्कूलों के संदेशों/आदेशों के लिए समर्पित कर रखा है। अक़सर ये मीटिंग बच्चों या माता-पिता के हित में कम, और किसी प्रचारी हित में ज़्यादा होती हैं। विडंबना ये है कि इस प्रशासनिक ज़िद के चलते जिन माता-पिता के पास स्मार्टफ़ोन नहीं हैं, उनके बच्चों को योजनाओं से बाहर कर दिया जा रहा है और जिनके पास ये हैं वो परेशान हो रहे हैं! दिल्ली सरकार व निजी स्कूलों जैसी अन्य व्यवस्थाओं से ग़लत सीख लेते हुए अब निगम के स्कूलों में भी विद्यार्थियों के माता-पिता पर, उनकी जीवन-परिस्थितियों के प्रति असंवेदनशील होकर, यह नियम थोपने की कोशिश हो रही है कि वो निर्धारित समय में ही स्कूल आकर शिक्षक या प्रिंसिपल से मिलें। अलबत्ता, स्कूल प्रशासन भले ही, ऊपरी आदेशों के पालन के दबाव में, उन्हें कभी भी बुला सकता है!  
 
एक नज़र निगम के स्कूलों पर डालते हैं। शहर की शिक्षा व्यवस्था में निगम के स्कूलों पर एक महत्वपूर्ण ज़िम्मेदारी है। आज शहर के लगभग बीस फ़ीसदी बच्चे इन स्कूलों में पढ़ते हैं, हालाँकि 2012-13 में यह अनुपात 23 प्रतिशत था। जहाँ 2012-13 में निगम के 1,801 स्कूल थे जिनमें 9,36,841 बच्चे पढ़ते थे, वर्ष 2020-21 तक स्कूलों की संख्या घटकर 1,670 और बच्चों की संख्या 7,94,776 हो गई। यानी, इन 8 वर्षों में निगम ने अपने 131 स्कूल बंद कर दिए और लगभग डेढ़ लाख कम बच्चों को शिक्षा देने लगा। पिछले 10 सालों में ऐसा कोई साल नहीं था जिसमें निगम ने अपने स्कूल ख़त्म न किए हों। 2014 से 2017 के बीच तो 75 से ज़्यादा स्कूल ख़त्म कर दिए गए और पिछले 4 सालों में 50! एक तरह से निगम ने इन सालों में इतनी तरक़्क़ी की कि उसके 5 विद्यार्थियों में से 1 कम हो गया। 2012-13 से 2019-20 के दौरान निगम के स्कूलों की प्रथम कक्षा में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या लगभग डेढ़ लाख से घटकर एक लाख से कम पर आ गई। बच्चों व स्कूलों की घटती संख्या निगम की घोर नाकामी का सबूत है, ख़ासतौर से तब जब हम शहर की बढ़ती आबादी और शिक्षा की ज़रूरत को ध्यान में रखें। हालाँकि, पिछले साल बच्चों की संख्या 9 लाख के ऊपर पहुँच गई, मगर इसका मुख्य कारण स्कूलों में आई कोई बेहतरी नहीं, बल्कि कोरोना-'लॉकडाउन' के चलते छोटे निजी स्कूलों का बड़ी संख्या में बंद होना और एक बड़े वर्ग पर छाया वित्तीय संकट था। जो भी हो, बीते वर्ष ही, अपनी ज़िम्मेदारी से बेख़बर, निगम ने 9 स्कूल और बंद कर दिए। स्कूलों के ख़त्म किए जाने के इस दौर में, पिछले 5 वर्षों में पार्षदों द्वारा निगम के सदनों में इस बाबत महज़ 3 सवाल और नए स्कूलों के बारे में केवल 5 सवाल पूछे गए। ऐसा नहीं है कि बच्चों के कम होने से छात्र-शिक्षक अनुपात (पीटीआर) बेहतर हो गया। जबकि क़ानून के हिसाब से प्राथमिक कक्षाओं में पीटीआर 30 होना चाहिए, निगम के स्कूलों में यह 43 है। हाँ, अफ़सरशाही की मनमानी का ताज़ा सबूत देते हुए निगम प्रशासन ने हाल ही में स्कूलों को यह अवैध संदेश ज़रूर दिया है कि शिक्षकों के पदों की माँग स्कूल में पढ़ने वाले बच्चों की संख्या के अनुसार नहीं, बल्कि बच्चों की औसत हाज़िरी के हिसाब से आँकी जाएगी। (यह बात अलग है कि निगम के भंग हुए तीनों सदनों की शिक्षा समितियों में ख़ुद पार्षदों की हाज़िरी 70% से ऊपर नहीं पहुँची!) ज़ाहिर है कि इस अवैध आदेश का मक़सद शिक्षकों के पदों में कटौती करना और बच्चों की शिक्षा के हक़ को चोट पहुँचाना है। मज़ेदार बात यह है कि एक तरफ़ तो, जाने किन रहस्यमयी ताक़तों के चलते, निगम के स्कूलों के भवन अकसर अपने निर्माण के कुछ सालों के बाद ही जर्जर अवस्था में पहुँचने लगते हैं, वहीं दूसरी तरफ़ पिछले कुछ सालों में ऐसे नए भवन भी बने जिन्हें, क्योंकि कभी लोकसभा चुनाव होने थे, तो कभी विधानसभा और कभी निगम के ही, बारंबार उद्घाटन समारोह का सौभाग्य प्राप्त हुआ, भले ही बच्चों को उनमें खेलने-पढ़ने का अवसर कई-कई साल न मिला हो!  

निगम के शिक्षा बजट की बात करें तो वर्ष 2019-20 से 21-22 के बीच इसके अनुमान में 7% की कमी आई तथा वर्ष 21-22 में 65% शिक्षा बजट इस्तेमाल ही नहीं किया गया। वहीं एक बच्चे की शिक्षा पर निगम ने 2019-20 में लगभग 60,000 रुपये का अनुमान लगाया, जबकि ख़र्च महज़ 41,000 किया; यानी 3 का वादा करके 2 देना। वर्ष 2020-21 में यह राशि क्रमशः 53,000 रुपये और 35,000 थी (यानी, 5 के बदले साढ़े तीन)। निगम की बेशर्मी और हमारी चुप्पी का आलम ये है कि वर्ष 21-22 के लिए हर बच्चे पर महज़ 46,841 ख़र्च करने का अनुमान है, तो 22-23 में यह 29,077 रुपये होगा। मतलब, पिछले 4 सालों में ही निगम ने अपने स्कूल में पढ़ने वाले बच्चे पर किया जाने वाला ख़र्च आधा कर दिया है। यह समझना मुश्किल है कि इस गिरते ख़र्च से निगम अपने स्कूलों और कक्षाओं को 'स्मार्ट' बनाने का दावा किस आधार पर करती आई है। शायद यह कटौती बच्चों के परिवारों को आत्मनिर्भरता का पाठ पढ़ाने के लिए की जा रही हो! यही कारण है कि इस वर्ष अभी तक निगम के विद्यार्थियों को क़ानूनी हक़ के तहत मिलने वाली कॉपियाँ नहीं बाँटी गई हैं। यहाँ तक कि 'स्कूलबंदी' के दिनों के लिए देय पूरा मिड-डे-मील राशन भी अभी तक सभी विद्यार्थियों को नहीं मिल पाया है। बच्चों को वज़ीफ़े तो कई सालों से वैसे भी नहीं मिल पा रहे हैं क्योंकि एक तो बहुत-से बच्चों के पास बैंक खाते नहीं हैं और फिर इनकी शर्तें व आवेदन प्रक्रिया बेहद जटिल बनाई जा रही हैं। एक ताज़ा आदेश के अनुसार, जोकि केंद्र सरकार द्वारा नागरिकों को अधिकारों के बदले कर्त्तव्य का एहसास कराने की कोशिश का हिस्सा है, आठवीं कक्षा तक तो वैसे भी अनुसूचित जाति/जनजाति/पिछड़ा वर्ग/अल्पसंख्यक आदि बच्चों को वज़ीफ़े नहीं दिए जाएँगे क्योंकि उन्हें शिक्षा के अधिकार के क़ानून के तहत मुफ़्त में जो पढ़ाया जा रहा है! इस क़ानून की निरीह मौजूदगी में हालत ये है कि निगम के अधिकतर स्कूलों में बच्चे वर्दी, जूते से लेकर पढ़ाई के लिए कॉपी, बस्ते तक का ख़र्च ख़ुद उठाने को मजबूर हैं। इस साल तो बच्चों को किताबें भी गर्मी की छुट्टियों के ख़त्म होने के बहुत बाद में मिलीं, जबकि स्कूलबंदी के बाद होना तो यह चाहिए था कि किताब-कॉपी और भी वक़्त से बँटतीं। जब पढ़ाई-लिखाई के लिए शिक्षकों की उपलब्धता से लेकर, किताब-कॉपी के वितरण, वज़ीफ़े और पाठ्यचर्या की गंभीरता पर इतने सवाल खड़े हैं तो फिर खेलकूद की स्थिति अलग नहीं हो सकती है। दिल्ली प्रशासन के स्कूलों और देशभर में विकास तथा स्वच्छता की चमक-धमक का अनुसरण करते हुए निगम भी तेज़ी से अपने स्कूलों से खेल के मैदान ख़त्म करने पर लगा हुआ है। कहीं टाइल्स बिछाई जा रही हैं तो कहीं इन्हें सीमेंट से पाटा जा रहा है। एक तो नासमझी की पढ़ाई-लिखाई थोपकर बच्चों के स्कूल में खुलकर खेलने वाले मौक़े वैसे ही ख़त्म किए जा रहे हैं, ऊपर से रही-सही कसर इन कंक्रीट के फ़र्शों ने निकाल दी है। स्कूल के मैदानों को पक्का करने से कुछ लोगों की 'पक्की कमाई' ज़रूर हो जाती है। हाँ, कुछ स्कूलों में झूलेयुक्त पार्क विकसित हुए हैं, मगर इन झूलों को सामान्यतः निगम कोष से नहीं, बल्कि किसी निजी संस्था ने, संभवतः सीएसआर (कॉरपोरेट सामाजिक ज़िम्मेदारी की क़ानूनी बाध्यता) या किसी अन्य लाभ-हानि के सौदे के तहत लगाया है।   

निगम के स्कूलों में सफ़ाई की स्थिति को लेकर अक्सर माता-पिता को शिकायत रहती है। वो इसका दोष स्कूल प्रशासन व सफ़ाई कर्मचारी को देते हैं, जोकि निगम प्रशासन व किसी भी सत्ता के लिए बेहद अनुकूल है। असलियत यह है कि जहाँ छोटे बच्चों के लिए स्वाभाविक रूप से अधिक सफ़ाई कर्मचारियों की ज़रूरत पड़ेगी, वहीं निगम की नीति इस बारे में अनजान बनी हुई है। दिल्ली विश्वविद्यालय के शिक्षा विभाग में, जहाँ परिसर में बड़ी उम्र के 100-150 विद्यार्थी व कोई 50-100 कर्मी होते हैं, दर्जनभर सफ़ाई कर्मचारी तैनात हैं, जबकि, एक आरटीआई अर्ज़ी के जवाब के अनुसार, निगम के हर स्कूल में, चाहे उसमें 100 बच्चे पढ़ते हों या 2,000, केवल एक पद स्वीकृत है। ज़ाहिर है, ऐसे में यह तय है कि विशेषकर बच्चों की बड़ी संख्या वाले स्कूलों में सफ़ाई बरतना नामुमकिन होगा। इस आरटीआई अर्ज़ी का जवाब देते वक़्त निगम ने इस बात को भी याद रखना ज़रूरी नहीं समझा कि ख़ुद उसके एक पुराने नियम/दिशा-निर्देश के अनुसार, किसी स्कूल में तैनात सफ़ाई कर्मचारी की संख्या छात्रों की संख्या के हिसाब से तय होगी। अर्ज़ी के जवाब के अनुसार तो निगम के सभी (1,661) स्कूलों में मिलाकर सिर्फ़ 1,314 सफ़ाई कर्मचारी तैनात थे, जबकि इनमें से महज़ 755 नियमित थे। एक अन्य अर्ज़ी के जवाब में निगम ने बताया कि निगम के 410 स्कूल ऐसे थे जहाँ नर्सरी व केजी कक्षाएँ बिना आया के चल रही थीं। ऐसे भी स्कूल हैं जहाँ निगम ने 4-5 साल से नर्सरी-केजी कक्षाएँ खोली हुई हैं मगर एक भी नर्सरी शिक्षिका तैनात नहीं की है। यानी, शिशुकाल से ही आत्मनिर्भरता को प्रेरित करना! नतीजतन, नर्सरी-केजी के नाम पर कम जागरूक माता-पिता की आँखों में धूल झोंकी जा रही है। इन 1,661 स्कूलों के लिए निगम ने महज़ 595 नर्सरी आया नियुक्त की हैं और उनमें से भी अधिकतर नियमित नहीं हैं। चाहे वो आया हों, सफ़ाई कर्मचारी या ऑफ़िस अटेंडेंट, निगम के स्कूलों में इन अनियमित/ठेके/दिहाड़ी पर रखे गए कर्मचारी को औसतन 14,000-15,000 से ज़्यादा नहीं मिलता है। इस मायने में, चाहे वो नियमित कर्मचारियों को नियुक्त करने का मामला हो या वक़्त से और सम्मानपूर्वक जीने के लिए वेतन देने का, निगम एक नाकाम नियोक्ता साबित हुआ है। 

शिक्षकों की स्थिति भी बद से बदतर होती गई है। समय से वेतन का भुगतान न होना व अन्य बकाया राशि का न मिलना तो शहर की गुमनाम ख़बर हो गया है। बीच-बीच में विरोध-प्रदर्शन व हड़तालें भी हुईं, मगर कुछ शिक्षक यूनियन की कमज़ोर स्थिति के चलते, कुछ दिल्ली सरकार व निगम की खींचातानी से उपजे असमंजस के चलते और कुछ एकीकरण से उम्मीद के चलते, ये कोशिशें शिथिल पड़ती गईं।  उधर शिक्षा विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार में कोई कमी नहीं आई है, बल्कि शिक्षक यूनियन की नामौजूदगी के चलते शिक्षकों ने इसे अपनी नियति मान लिया है। अपने जायज़ और सामान्य कामों के लिए रिश्वत देने को मजबूर हो चुके शिक्षक के लिए यह समझना मुश्किल नहीं है कि शिक्षित, संगठित कर्मचारी होते हुए जब उनका ये हाल है तो फिर निगम का तंत्र आमजन से कैसे पेश आता होगा। निगम में शिक्षकों के लिए एकमात्र (किंतु कई मायनों में बड़ा) संतोष का कारण उनको मिली शिक्षाशास्त्रीय संभावना थी। निगम की शिक्षाशास्त्रीय प्रणाली की ख़ूबसूरती थी कि एक शिक्षक कक्षा प्रथम को पढ़ाना शुरु करती थी और सभी विषय पढ़ाते हुए पाँचवीं कक्षा तक उनके साथ रहती थी। इससे न केवल घनिष्ठ आपसी संबंध बनते थे, बल्कि यह व्यवस्था समग्र व सर्वांगीण शिक्षा की अवधारणा को भी मूर्त करती थी। पिछले कुछ समय से आत्ममुग्ध प्रशासनिक नासमझी के चलते निगम के स्कूलों में इन तमाम बेहतर संभावनाओं को भी कुचला जा रहा है। साथ ही शिक्षकों पर अपमानजनक आदेश व नियम थोपे जा रहे हैं। उन्हें यह लिखित में प्रमाणित करने को कहा जाता है कि वो व उनके परिवार का कोई भी सदस्य खुले में शौच नहीं करता है! विभागीय कामों व दायित्वों-आदेशों को निभाने के लिए उन्हें जबरन अपने निजी यंत्र की सेवा देने के लिए डराया-धमकाया जा रहा है; यहाँ तक कि, वेतन काटने की अवैध व अनैतिक धमकी के सहारे, उन्हें तीन स्तरों पर हाज़िरी दर्ज करने को मजबूर किया जा रहा है, जिसमें अपने निजी स्मार्टफ़ोन पर एक ऐप डाउनलोड करके उसपर सेल्फ़ी भेजना शामिल है। शासन की डिजिटल व ऑनलाइन की सनक तथा डाटा की भूख के चलते शिक्षकों पर, स्कूलों में ही नहीं बल्कि घर पर भी, काम का बोझ बढ़ता जा रहा है, मगर ऐसे में भी निगम इन स्कूलों में कोई आईटी कर्मचारी नहीं दे पाया है। साफ़ है कि इसका ख़ामियाज़ा बच्चों को अपनी पढ़ाई व खेल की क़ीमत चुकाकर उठाना पड़ता है। आज निगम के स्कूलों के अधिकतर शिक्षक बेहद तनाव और निराशा की हालत में हैं। आलम ये है कि बहुत-से शिक्षक अपने काम को लेकर अब उत्साहित महसूस नहीं करते और उनका मनोबल तेज़ी से गिर रहा है। वक़्त से पहले रिटायर होने की चर्चा, चाहे वो हँसी हो और किसी अंजाम तक न पहुँचे, आम हो गई है। वरिष्ठ शिक्षक बिना किसी प्रेरणा के, मगर ढेर सारी सरदर्दी के साथ आने वाले, प्रिंसिपल के पद से भाग रहे हैं। कुल मिलाकर, निगम के शिक्षक ख़ुश नहीं हैं; तो फिर वो बच्चों को बेहतर ढंग से कैसे पढ़ा सकते हैं?

इधर ज्यों-ज्यों निगम के स्कूलों पर सवाल उठे हैं, त्यों-त्यों निगम ने, अलोकतांत्रिक प्रशासनिक चरित्र का सबूत देते हुए, बाड़ लगाने का चिर-परिचित रवैया अपनाया है। कभी वैध उद्देश्यों के लिए आने वाले मीडिया व लोगों के भी स्कूल में आने पर रोक लगा दी जाती है तो कभी सूचना के अधिकार की अर्ज़ी को मनमर्ज़ी से भटका दिया जाता है। ऐसे में हमें याद रखना चाहिए कि वो चमक-धमक वाले संस्थान जहाँ संतरी हमें गेट पर ही रोक और दुत्कार कर हमारी औक़ात बता देता है, कभी भी हमारे पक्ष में खड़े, लोकतांत्रिक संस्थान नहीं हो सकते। एक तरफ़ सत्ता सीसीटीवी लगाकर निगरानी और पारदर्शिता क़ायम करने का दावा करती है, वहीं दूसरी तरफ़ लोगों के आने-जाने और चीज़ों को ख़ुद देखकर सच्चाई जानने की आज़ादी पर सुरक्षा के नाम पर पाबंदी लगाती है। जवाब में हमें चुनना होगा लोकतांत्रिक समाज में टिकी उस समान स्कूल व्यवस्था को जिसमें निगम (या किसी भी तरह के राजकीय) स्कूलों को दयाभाव से महज़ 'ग़रीबों के बच्चों' के लिए नहीं, बल्कि बराबरी, इंसाफ़ व भ्रातृत्व के मूल्यों से सब बच्चों के लिए संचालित किया जाएगा। चूँकि जब ये स्कूल आपके-हमारे, पड़ोस के सब बच्चों के लिए होंगे, तभी तो हमें किसी स्कूल को ख़त्म करके उसकी जगह पार्किंग स्थल, बारात घर या दुकानें बनाना चुभेगा। आख़िर, कमिश्नर, मेयर व निदेशक से शुरुआत करते हुए सभी पार्षदों के लिए अपने बच्चों को निगम के स्कूलों में पढ़ाना अनिवार्य क्यों नहीं होना चाहिए? आइए, निगम चुनाव में राजनैतिक दलों व प्रत्याशियों से निगम स्कूलों व शिक्षा व्यवस्था के बारे में सवाल पूछें, अपने इलाक़े के निगम स्कूल को पहचानें व उससे जुड़ें और निगम स्कूलों को समान स्कूल व्यवस्था में स्थापित करने की माँग करें। 

Monday 28 November 2022

दिल्ली के सरकारी विद्यालय का एक दिन और दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार की शिक्षा नीतियाँ  


 

I.                    बहिष्करण की संस्कृति : सबसे कमज़ोर तबके को बाहर निकालती दाखिले की नीतियाँ

मई – जून, 2022 के महीनों में दिल्ली के सरकारी विद्यालयों में दाखिले चल रहे हैं। कई अभिभावक अपने बच्चे का दाखिला करवाने के लिए, जो कागज़ बन पड़े, सारे लेकर स्कूल आ जाते हैं। अकसर उनके मन में यह डर होता है कि न जाने कौन सा कागज़ कम पड़ जाए और बच्चे को दाखिला देने से मना कर दिया जाए। आख़िर उन्होंने अपने पड़ोस में सुन रखा होता है कि ‘दिल्ली के सरकारी स्कूलों में दाखिला मिलना आसान नहीं है’।

जिनके पास आधार या पते का पक्का कागज़ नहीं होता, वो तो अकसर यह सोचकर स्कूल ही नहीं आते कि बिना आधार के बच्चे को दाखिला नहीं मिलेगा! भले ही कानून कुछ भी कहे, व्यवहार में तो उन्होंने यही देखा होता है!

स्कूल पहुँचने पर एक टीचर– या कभी-कभी दरवाज़े पर खड़े गार्ड ही- पेरेंट्स को यह बता देते हैं कि ‘सरकरी स्कूल में दाखिले के लिए उन्हें खुद ऑनलाइन फॉर्म भरना होगा। उन्हें आता है तो खुद भर लें नहीं तो किसी जानकार की मदद से या पैसे देकर इंटरनेट कैफ़े से फॉर्म भरवा लें’।

अभिभावक हैरान होकर पूछते हैं कि अगर उनका ऐसा कोई रिश्तेदार/पड़ोसी नहीं है, तो वो क्या करें? कैफ़े वाले कितने पैसे लेंगे? विडंबना यह है कि कोई अभिभावक यह नहीं पूछता कि ‘जो अभिभावक ऑनलाइन फॉर्म नहीं भर सकते वो स्कूल में आकर ऑफलाइनफॉर्म क्यों नहीं भर सकते? सारे नियम-कानून उसी को ध्यान में रखकर क्यों बनाए जाते हैं, जिसके पास पहले से ही सब कुछ होता है!

इस दौरान एक अभिभावक आकर कक्षा 10 में दाखिले के बारे में पूछती है। स्कूल बताता है कि दसवीं के फॉर्म तो मई के पहले हफ़्ते में ही ख़त्म हो गए। जिन बच्चों ने फॉर्म भरा था, उनका एंट्रेंसटेस्ट भी हो चुका है। अभिभावक परेशान होकर पूछती हैं ‘मई में तो सत्र लगभग शुरु ही होता है और दसवीं के दाखिले बंद भी हो गए! कृपया कुछ करिए नहीं तो मेरी बेटी का साल बर्बाद हो जाएगा।‘ विडंबना यह है कि कोई अभिभावक यह नहीं पूछती कि ‘जब मेरी बच्ची नौवीं पास है तो टेस्ट किस चीज़ का? 1 हफ़्ते में दाखिले शुरु करके बंद करने का क्या मतलब है?’

और इस तरह शुरु होता है आम इंसान का दिल्ली के सरकारी स्कूलों के जटिल और इलीटिस्ट चरित्र की सच्चाई से रूबरू होने का सफर। जो सरकार घरबंदी और कामबंदी के दौरान निजी विद्यालय छोड़कर आए बच्चों को दाखिला देकर यह विज्ञापन कर रही थी कि “सरकारी स्कूल बने पेरेंट्स की पहली पसंद”, वो गरीबों के बच्चों को दाखिला देने में इतनी आनाकानी क्यों करती है? जो स्कूल यह नहीं जानते कि मज़दूर परिवारों की क्या समस्याएं हैं, वो मज़दूरों के बच्चे की ज़रूरतों को कैसे समझ पाएँगे?

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 भी हर बच्चे को रेगुलर स्कूल पढ़ाना ज़रूरी नहीं समझती। तभी बिंदु 3.5 में कक्षा 3,5 और 8 में ही बच्चों को ओपन से पढ़ाने की बात कहती है। अभी तक तो सरकार के ऊपर 14 साल तक के हर बच्चे को स्कूली शिक्षा देने का दबाव था। लेकिन नई नीति के बाद वो दबाव भी खत्म हो जाएगा। यह नीति कक्षा 12 तक की रेगुलर स्कूली शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाने के बजाय कक्षा 10 में ही बच्चों को स्कूल छोड़ने (exit option) का प्रावधान भी देती है (बिंदु 4.2)।

स्कूलों में न तो कक्षा IX-XII के बच्चों के लिए पर्याप्त कमरे हैं और न ही पर्याप्त शिक्षक हैं। फिर भी 2020 में भी इस देश की शिक्षा नीति ने अपने बच्चों को यह गारंटी नहीं दी कि कक्षा 12 तक की शिक्षा को अनिवार्य बनाएँगे, बारहवीं तक हर 30 बच्चों के लिए एक कमरा और शिक्षक देंगे बल्कि यह नीति उन्हें तीसरी, पाँचवी, आठवीं, दसवीं, बारहवीं ओपन से करने में रास्ते सुझाती है।

 

II.                  मंदबुद्धि बनाने की संस्कृति : न्यूनतम उद्देश्य बना अधिकतम ; अब सरकारी स्कूल सिर्फ साक्षरता और गणना सिखाने के केंद्र हैं

स्कूल में एडमिशन चार्ज देखने वाली शिक्षिका अपनी कक्षा को पढ़ाना छोड़ एडमिशन के काम करना जारी रखती है। आख़िर सरकारी स्कूल की शिक्षिका स्कूल में ‘सिर्फ़’ पढ़ाने थोड़ा ही आती है। भले ही प्राइवेट स्कूलों में एडमिशनकरने, फ़ीस इकठ्ठा करने, डाटा भरने, बच्चे लाने-ले जाने आदि के लिए प्रशासनिक स्टाफ रखा जाता हो लेकिन सरकारी स्कूलों में अतिरिक्त स्टॉफ रखकर पैसा बर्बाद नहीं किया जाता। इसलिए सभी काम शिक्षकों से ही करवाया जाता है।

अभी स्कूल लगे 1 घंटा ही हुआ होता है कि खबर आती है कि अभी आधे घंटे में भ्रष्टाचार के खिलाफ़ शपथ खाते हुए बच्चों की फोटो भेजो और दो घंटे में प्लास्टिक के उपयोग के खिलाफ़ बच्चों से पोस्टर बनवाकर फोटो और रिपोर्ट भेजो। शिक्षक तुरंत आकाओं के आदेश पालन में लग जाते हैं। कुछ बच्चे भी मदद करने में लगा लिए जाते हैं। पूरे स्कूल में (रोज़ की तरह) आपाधापी मच जाती है। शिक्षक लगे रहते हैं और बच्चे अपनी कक्षाओं में बैठकर समय काटते हैं।

बचे हुए समय में पढ़ाई भी होती है। पिछले चार सालों से सरकारी विद्यालयों में कक्षा 3-9 के लिए पढ़ाई का मतलब “मिशन बुनियाद” है। मिशन बुनियाद का मतलब है कक्षा 3-9 के बच्चों को सिर्फ धाराप्रवाह हिंदी पढ़ना और जमा-भाग सिखाना।

दसियों साल की कोशिशों के बाद दिल्ली सरकार को एनजीओज़ का यह ज्ञान समझ आ गया कि “सरकारी स्कूलों के बच्चों को हिंदी पढ़ना और जमा-घटा करना नहीं आता इसलिए उनकी कक्षा की पढ़ाई बंद करो और सिर्फ साक्षरता और जमा-घटा सिखाओ। क्योंकि बच्चों को ढंग से हिंदी पढ़नी-लिखनी नहीं आती इसलिए इन बच्चों को बढ़िया कहानियाँ पढ़ाना, विज्ञान-इतिहास-भूगोल की बातें सिखाना बेकार है। इन्हें दिन-रात सिर्फ़ साक्षर बनाओ।

क्योंकि ये एनसीआरटी किताबें पढ़ने के लायक नहीं है इसलिए इनके लिए हम अलग किताबें तैयार करके आपको देंगे। हम इन्हें इतनी आसान कहानियाँपढ़ाएँगे कि इनके दिमाग़ पर कोई ज़ोर ही न पड़े। ऐसी कहानियाँ जिनमें न हाव-भाव होगा, न लॉजिक; न सच्चाई से जुड़ाव होगा, न कल्पना की उड़ान; न सर्वनाम निकलते होंगे, न कहानी का कोई मतलब निकलता होगा। आख़िर इन सब गुणों से भरी किताबें न बच्चे समझ पाते हैं और न शिक्षक समझा पाते हैं।“

मेंटर शिक्षक कक्षाओं में बैठकर जाँच कर रहे हैं कि मिशन बुनियाद में कहीं कोई शिक्षक अपने ढंग से तो नहीं पढ़ा रहा, जितना कहा गया है उससे ज़्यादा तो नहीं पढ़ा रहा, कक्षा की किताब से तो नहीं पढ़ा रहा। एक शिक्षक यह पूछना चाहती है पर पूछ नहीं पाती कि “बीएड में तो हम यह पढ़ते थे कि अच्छी विषयवस्तु बच्चों को ऊपर उठने में मदद करती है, यहाँ तो पूरी पढ़ाई ही नीचे आ गई है। क्या बढ़िया विषय-वस्तु के बिना बढ़िया शिक्षा की नींव रखी जा सकती है? सरकार ने कभी इतनी ताकत और निरीक्षण कक्षानुसार पढ़ाई करवाने में क्यों नहीं लगाया जितना इस साक्षरता प्रोग्राम में लगा रही है?

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 का तो मिशन ही देशभर के स्कूलों को शिक्षा के बजाय साक्षरता केंद्र बनाना है। नीति का बिंदु 2.2 कहता है, “शिक्षा प्रणाली की सर्वोच्च प्राथमिकता 2025 तक प्राथमिक विद्यालय में सार्वभौमिक मूलभूत साक्षरता और संख्या-ज्ञान प्राप्त करना होगा.. सभी प्राथमिक और उच्चतर प्राथमिक विद्यालयों में सार्वभौमिक मूलभूत साक्षरता और संख्या-ज्ञान के लिए राज्य या केंद्रशासित प्रदेश की सरकारें, 2025 तक प्राप्त किए जा सकने वाले चरण-वार कार्यों और लक्ष्यों की पहचान करते हए और उसकी प्रगति की बारीकी से जांच और निगरानी करते हए अविलम्ब एक क्रियान्वयन योजना तैयार करेंगी।”

मध्य प्रदेश में मिशन अंकुर, बिहार में मिशन आधार, गुजरात में प्रिय बालक जैसे फंक्शनल साक्षरता और गणना प्रोग्राम भी ज़ोर-शोर से चल रहे हैं। बस एक बार ये सरकारी स्कूलों के बच्चे साक्षर बन जाएँ, उसके बाद ज़रूरत लगे तो आगे पढ़ें, नहीं तो अपना आठवीं या दसवीं का सर्टिफिकेट लेकर कोई काम सीख लें। आख़िर जितना जल्दी ये काम-धंधा सीखेंगे, उतनी जल्दी देश के काम आएँगे।

 

III बेदख़ल करने की संस्कृति : अधिकतम बच्चों को नहीं मिलते ‘टारगेटेड’ वजीफ़े

स्कूली दिन के तीसरे घंटे में आर्डर आता है कि सभी कक्षा अध्यापिकाएँ जल्द से जल्द अपने बच्चों के खाते चेक करवाएँ कि उनके खातों में विभिन्न ग्रांट और वजीफों के पैसे आए हैं या नहीं। अगले दिन सभी बच्चों को पासबुकअपडेट करवाकर लाने को कहा जाता है। कई कोशिशों के बाद आधे बच्चे पासबुक लाते हैं और आधे बच्चे यह शिकायत करके रह जाते हैं कि बैंक वाले पासबुकअपडेट करने के लिए बार-बार चक्कर लगवा रहे हैं या उनका खाता लॉक हो गया क्योंकि न्यूनतम बैलेंस नहीं बचा था।

शिक्षक आपस में बात करते हैं कि “वैसे भी वजीफ़े कितने ही बच्चों को मिल पाते हैं? न जाने कितने अभिभावक तो कभी जाति प्रमाण पत्र ही नहीं बनवा पाते। जो जाति प्रमाण पत्र बनवा लेते हैं, उनमें से ज़्यादातर के पास आय प्रमाण पत्र नहीं होता। सबसे ग़रीब अभिभावक आय प्रमाण पत्र बनवाने के लिए ज़रूरी दस्तावेज़ कहाँ से जुटा पाएगा? कहाँ जाएगा बच्चों के हक़ का वो पैसा जो उन्हें नहीं मिलेगा?’

एक शिक्षक ने अपने नगर निगम स्कूल में एडमिशन के दौरान किए गए अध्ययन में पाया कि “2020-21 में हुए दाख़िलों में से 118/472 (25%) अनुसूचित जाति व 158 (33%) पिछड़े वर्ग की पृष्ठभूमियों से थे। यानी, प्रवेश लेने वालों में से लगभग 60% बच्चियाँ इन वर्गों से थीं। वहीं, इनमें से 10% के पास भी जाति प्रमाणपत्र नहीं था।“

एक अन्य विद्यालय पर नज़र डालें तो 2021-22 में कक्षा 9-12 के कुल विद्यार्थियों में 7.5% एससी और 2.5% ओबीसी विद्यार्थी नामांकित थे। क्योंकि इनमें से केवल 9% एससी और 22% ओबीसी पृष्ठभूमि के बच्चे आय प्रमाण पत्र जमा करा पाए इसलिए केवल इन्हें वजीफ़ा मिला। यानी 91% एससी और 78% ओबीसी बच्चों को कोई वजीफ़ा नहीं मिला।दिल्ली के आंकड़ें बताते हैं कि 2021-22 में कक्षा 11-12 के एससी पृष्ठभूमि के 6242 विद्यार्थियों ने पोस्टमैट्रिक वजीफ़े का फॉर्म भरा लेकिन 41% की याचिका ख़ारिज कर दी गई। इसका सबसे बड़ा कारण आय प्रमाण पत्र की कमी थी।

राष्ट्रीय शिक्षा नीति, 2020 का भी यही मानना है कि वज़ीफ़े उन्हीं बच्चों को दिए जाने चाहिएँ जो merituous/इनके योग्य हैंजैसाकिबिंदु 6.4 एवं6.16 मेंस्पष्टहोताहै। कभी स्टेशनरी का पैसा पाने के लिए बच्चों के कक्षा परिणाम देखे जाने की शर्त डाल दी जाती है, कभी विशेष ज़रूरतों वाले बच्चों को वजीफ़ा देने से पहले न्यूनतम उपस्थिति की शर्त डाल दी जाती है और कभी दस्तावेज़ों की सूची बढ़ा दी जाती है। वज़ीफों को लेकर नीति का पक्ष साफ़ है –जनख़र्च से हाथ खींचना।

 

IV विज्ञापन की संस्कृति : गैर बराबरियों को ‘अवसर’ बताकर बेचना

छुट्टी की घंटी बजती है और विद्यार्थी गलियारों के पोस्टर पार करते हुए निकलते हैं:

- “दिल्ली के हैप्पीनेसकरिकुलम (खुशी की पाठ्यचर्या; कक्षा VIII तक) ने लाखों बच्चों को सिखायाखुशरहना”। आख़िर जब बच्चे यह सीख जाएँगे कि ‘कभी शिकायत नहीं करनी चाहिए’ तो खुश ही रहेंगे।जब बच्चे यह सीख जाएँगे कि‘अगर तुम ख़ुश नहीं हो तो यह तुम्हारी कमी है नाकि तुम्हारे समाज कीतोअपनीहालतकेलिएखुदकोहीज़िम्मेदारठहराएँगे

- “एंटरप्रेन्यूरकरिकुलम (निजी धंधे की पाठ्यचर्या; कक्षा IX-XII)दिल्लीकेबच्चोंकोनौकरीलेनेवालानहींनौकरीदेनेवालाबनाएगी”।जबयुवाठेलालगाकर,ऑटोचलाकर, अर्बनक्लैपआदिसेघर-घरजाकरसेवाप्रदानकरके 10-15,000 कमाएंगेतोयहसोचकरखुशहोनासीखेंगेकिकम-से-कमहमकिसीकीनौकरीतोनहींकररहे।नौकरीलेनेवालेबनगएतोसरकारकेसामनेपक्कीनौकरियोंकेलिएआंदोलनखड़ेकरें।

- “दिल्ली के बच्चे देशभक्ति पाठ्यचर्या पढ़कर बनेंगे कट्टर देशभक्त”। क्योंकि ‘मध्यवर्गीय देशभक्ति’ बच्चों को देशसेइतनाप्यारकरनासिखाएगीकिउन्हेंदेशमेंमौजूदगैर-बराबरीजैसीसमस्याएँनज़रहीनआए।जैसेउन्हेंअपनेहीस्कूलों में ठेके पर काम कर रहे गार्ड, सफ़ाई कर्मचारी, शिक्षक और आईटी सिर्फ़भारतीय नज़र आएँगे, परेशान मज़दूर नहीं।

NEP 2020 काबिंदु 4.28 कहताहैबच्चोंकोछोटीउम्रसेही‘सहीकामकरनाऔरनैतिकनिर्णयलेना’सिखायाजाएगा।नीतिकेऐसेकईप्रावधानपाठ्यचर्या को छोटे-छोटे ग़ैर-विषयगतकोर्सों में बाँटकर इसका शिथिलीकरण करनेऔरबिनागहनअकादमिकजाँच-पड़तालकेनितनएकोर्सडालनेकोबढ़ावादेतेहैं।

- “कक्षा 8 पास बच्चे स्कूल्सऑफ़एक्सीलेंस में दाखिले के लिए एंट्रेंसटेस्ट का फॉर्म भरें”। क्योंकि सभी सरकारी स्कूलों में समान ढाँचे और गुणवत्ता वाली शिक्षा देने से काफ़ी सस्ता है कुछ स्कूलों को चमकाकर उनका विज्ञापन करना।

Sunday 4 September 2022

पत्र: विद्यालय निरीक्षण में नौकरशाही के बढ़ते गैर-पेशेवर और अपमानजनक व्यवहार के विरोध में

 प्रति 
शिक्षा मंत्री
दिल्ली सरकार

विषय : विद्यालय निरीक्षण में नौकरशाही के बढ़ते गैर-पेशेवर और अपमानजनक व्यवहार के विरोध में 

महोदय

लोक शिक्षक मंच इस पत्र के माध्यम से दिल्ली सरकार के स्कूलों में नौकरशाही के बढ़ते गैर-पेशेवर और अपमानजनक व्यवहार के प्रति अपनी चिंता और विरोध दर्ज कराना चाहता है।
किसी भी व्यवस्था की तरह विद्यालयों में भी नियमित और सामयिक निरीक्षण की महत्वपूर्ण भूमिका होती है। निरीक्षण का मक़सद यह जाँचना होना चाहिए कि शिक्षण व विद्यालय की अन्य गतिविधियों में किस तरह की अड़चनें आ रही हैं और उन्हें कैसे दूर किया जा सकता है, आदि। लेकिन हमारे स्कूलों में जिस प्रकार का निरीक्षण हो रहा है, उसमें बहुत सी समस्याएँ हैं :
i. अकसर निरीक्षण पर आने वाले अफ़सर घोड़े पर सवार होकर आते हैं और स्कूल में एक डर और उथल-पुथल का माहौल पैदा करते हैं। ऐसा लगता है कि उनका उद्देश्य स्कूल की अकादमिक और गैर-अकादमिक गतिविधियों की चुनौतियों को समझना नहीं होता बल्कि शिक्षकों के अंदर यह डर बिठाना होता है कि अगर विभाग के पूर्व-निर्धारित एजेंडा को शब्दश: लागू नहीं किया तो शिक्षक के लिए अच्छा नहीं होगा। निरीक्षण से पहले स्कूलों में कृत्रिम चुप्पी का माहौल बनाया जाता है; बच्चों को बाहर खेलने से मना कर दिया जाता है; कक्षाओं, विशेषकर प्राथमिक, में होने वाली चर्चाओं-गतिविधियों को 'शोर' का नाम देकर दबा दिया जाता है, आदि। स्कूल की दिनचर्या में ऐसे निरीक्षण मदद नहीं कर रहे बल्कि खलल डालते हैं। 
ii. अक़सर निरीक्षक स्कूल दौरे के बाद शिक्षकों के साथ मीटिंग में बैठकर डायलॉग नहीं करते बल्कि उन्हें बेइज़्ज़त करते हैं। निरीक्षक इस अवधारणा से अपनी बात शुरु करते हैं कि शिक्षक कामचोर, बेईमान और नालायक हैं। सरकारी स्कूलों में हज़ारों शिक्षक रोज़ इस अपमान का घूंट पी रहे हैं कि अपने विद्यार्थियों से गहरे तौर पर जुड़े होने के बावजूद और अपने विषय-ज्ञान तथा शिक्षा दर्शन में पैठ रखने के बावजूद वे ऐसी पूर्वाग्रहयुक्त और अपमानजनक बातें सुनने को मजबूर हैं। कई बार महिला स्टॉफ को निरीक्षकों की सेक्सिस्ट भाषा और व्यवहार झेलना पड़ता है लेकिन उनके पास इसके खिलाफ़ शिकायत करने के ज़रिये नहीं हैं। यह अपमानजनक व्यवहार हम शिक्षकों का मनोबल तोड़ता है और पूरी व्यवस्था से हमारा अलगाव पैदा करता है। 
iii. निरीक्षण प्रक्रिया में फ़ौरन ससपेंशन/टर्मिनेशन ऑर्डर पकड़ाने का नया चलन भी जुड़ गया है। भले ही फिल्मों में ऐसे दृश्य ताली बँटोरने वाले होते हों लेकिन असल में यह न्यायिक प्रक्रिया से समझौता है तथा ताकत-संबंधों के दुरुपयोग को जन्म देता है। किसी भी व्यवस्था के ख़राब होने में कई लोगों का हाथ होता है लेकिन किसी एक को बलि का बकरा बनाकर सारा ठीकरा उसी के सर फोड़ने से बाकियों का दोष छिप जाता है। ऐसी तात्कालिक व मनमफ़िक़ कार्रवाई का अहसास शिक्षकों को अपना काम बेहतर ढंग व गहराई से करने को प्रेरित नहीं करता है, बल्कि महज़ 'रेकॉर्ड' ठीक-से प्रस्तुत करने और ख़ामोश रहने की प्रतिक्रिया पैदा करता है। इसका नतीजा व्यवस्था के सुधार में नहीं, बल्कि सच पर पर्दा डालने व हक़ीक़त छुपाने में सामने आता है। 
iv. हमारे स्कूलों में धूल-मिट्टी ढूंढ़कर प्रधानाचार्य को मेमो देने वाले व शिक्षकों को बेईमान और नाकारा कहकर सामंती व्यवहार प्रकट करने वाले अधिकारी, स्वयं हम शिक्षकों का विश्वास और सम्मान जीतने में असफल रहते हैं। हम देखते हैं कि स्कूलों द्वारा ज़ोन व जिला स्तर पर भेजी गयी फाइल्स का समय से जवाब नहीं आता, अकसर विद्यार्थियों और शिक्षकों की ज़मीनी समस्याओं का संज्ञान तक नहीं लिया जाता, शिक्षकों के ऊपर गैर-अकादमिक कार्यभार की समस्या पर आँख मूंद ली जाती है, सफाई कर्मचारियों की कमी के चलते क्षेत्रीय कार्यालयों की सफाई भी उस पैमाने पर खरी नहीं उतरती जिसकी अपेक्षा स्कूलों से की जाती है व दाखिलों से लेकर ट्रांसफर तक के बारे में भ्रष्टाचार की खबरें आती हैं। ऐसे में अफसरों का व्यवहार शिक्षकों में प्रेरणा नहीं जगाता बल्कि उनका रौब व्यवस्था की कमज़ोरी और खोखलेपन को प्रकट करता है। 
v. हम जानना चाहते हैं कि शिक्षा विभाग ने निरीक्षकों के लिए कौन-से दिशा-निर्देश बनाए हैं। विभागीय निरीक्षण के लिखित उद्देश्य क्या हैं? विभिन्न स्तर के अधिकारियों को किस समय-सारणी के अनुसार विद्यालयों का दौरा करना होता है? विद्यालयों को निरीक्षण की इस समय-सारणी से अवगत क्यों नहीं कराया गया है ताकि वे भी निरीक्षण प्रक्रिया की जाँच कर सकें? एक कक्षा में कम-से-कम 15-20 मिनट बैठे बिना निरीक्षक उस कक्षा के पठन-पाठन को बीच में रोककर उस पर टिप्पणियाँ कैसे कर सकते हैं? 
vi. विडंबना यह है कि हमारा शिक्षक प्रशिक्षण सिखाता है कि सच्चा शिक्षक वो है जो स्वतंत्र चिंतन कर सके और अपनी बात कह सके। लेकिन वर्तमान व्यवस्था में सरकारी शिक्षक को ऐसा कर्मचारी बनने पर मजबूर किया जा रहा है जो चुपचाप अफ़सर की खरी-खोटी सुनकर बस आदेश बजाता रहे। बैठकों से लेकर ट्रेनिंग्स में जो शिक्षक या प्रधानाचार्य किसी भी तरह का सवाल उठाते हैं, उन्हें शो-कॉज़ या ट्रांसफर की धमकियाँ दी जाती हैं। किसी नीति की आलोचना करना तो दूर की बात है, नीति के कार्यान्वयन पर सवाल पूछने को भी बर्दाश्त नहीं किया जाता। स्कूलों से विभाग या मंत्रालय तक ज़मीनी सवाल, विचार और ईमानदाराना फीडबैक भेजे जाने के लिए कोई खिड़की-दरवाज़े नहीं हैं। ऐसी कार्य-संस्कृति न केवल लोकतान्त्रिक मूल्यों को कमज़ोर करती है बल्कि आवश्यक आलोचना का भी दम घोंटती है। 
vii. पर हम इसे कुछ अफसरों और व्यक्तियों की समस्या नहीं मानते। दरअसल यह व्यवस्था की समस्या है जो बढ़ती जा रही है। चाहे देश हो या विभाग, अगर जनता द्वारा चुने गए प्रतिनिधियों का शीर्ष नेतृत्व यह मानकर चलेगा कि उसे किसी व्यवस्थित सामाजिक ज्ञान की आवश्यकता नहीं है, बल्कि नीति और नियम बनाने के लिए उसकी निजी सोच ही काफी है तो इसी तरह की व्यक्तिवादी संस्कृति पनपेगी। एक ऐसी संस्कृति जिसमें प्रशासनिक पदानुक्रम में शीर्ष पर बैठे कुछ लोग मानकर चलेंगे कि 'सोचने' का काम केवल उनका है और बाकी सब लोग 'सोचने-समझने' की क्षमता नहीं रखते।
viii. इस निरीक्षण प्रक्रिया की आपा-धापी का एक कारण यह भी है कि अब विद्यालयों का दिन अपने पूर्व-निर्धारित कैलेंडर के अनुसार नहीं चलता, बल्कि नित नए राजनीतिक एजेंडा व विभागीय आदेशों/सर्कुलर/प्रोग्राम के अनुसार चलता है। हमने शिक्षा की उस समझ को पीछे छोड़ दिया है जो कहती थी कि अधिगम सतत परन्तु धीमी गति से चलने वाली प्रक्रिया है जिसमें दूरगामी उद्देश्यों की तरफ़ निरंतरता से बढ़ा जाता है। आज स्कूलों के पास शान्ति से अपनी पाठ्यचर्या पढ़ाने का न समय है और न स्वायत्तता। ऐसे में स्कूल किसी भी समय-किसी भी एजेंसी द्वारा-किसी भी उद्देश्य से भेजे गए अकादमिक - गैर-अकादमिक आदेशों को लागू करवाने के केंद्र बन गए हैं और स्कूलों के निरीक्षण इस निरंतर उथल-पुथल की व्यवस्था को किसी तरह क़ाबू में रखने के साधन बन गए हैं।
ix. शिक्षा व्यवस्था की इस मायोपिक कार्यशैली के पीछे दो कारण हैं। एक शिक्षा का बढ़ता राजनीतिकरण और दूसरा शिक्षा का बढ़ता एनजीओकरण। चूँकि दिल्ली सरकार हर जगह अपने 'शिक्षा मॉडल' का प्रचार करती है इसलिए उसे शिक्षा से भी जल्द-से-जल्द चमकते हुए परिणाम चाहिए; भले ही इसके लिए शिक्षण प्रक्रिया को तोड़ा-मरोड़ा जाए, झूठे परिणाम बनवाए जाएँ, कम अंकों वाले बच्चों को स्कूलों से निकालकर ओपन में भेजा जाए आदि। दूसरी तरफ विपक्ष सतही आलोचनाओं के दम पर इस विज्ञापन के गुब्बारे को फोड़ने की ताक में रहता है। स्कूल 'शिक्षा' के नहीं राजनीतिक तू-तू-मैं-मैं के केंद्र बनते जा रहे हैं। और इस प्रतिस्पर्धा का सीधा असर स्कूलों की स्वायतत्ता पर यूँ पड़ता है कि किसी भी तरह के सवाल और आलोचना को गद्दारी मानकर दण्डित किया जाता है।
ऊपर से शिक्षा मंत्रालय ने नीति बनाने का काम एनजीओ के हवाले कर दिया है जिनके अपने स्वार्थ नीतियों पर हावी हैं। शिक्षा दर्शन में कच्चे लेकिन बाज़ारवाद में पक्के ये एनजीओज़ दशकों से शिक्षा व्यवस्था की समस्याओं के लिए शिक्षक को दोषी बताकर अपनी रोटियाँ सेंकते आए हैं। जब तक शिक्षा मंत्रालय में इन एनजीओ का दबदबा रहेगा तब तक शिक्षक को बौद्धिक प्राणी मानकर उनसे संवाद नहीं किया जाएगा।
x. विभाग को यह जाँचने की ज़रूरत है कि इस दमघोंटू और गैर-पेशेवर निरीक्षण संस्कृति का स्कूलों पर क्या असर पड़ रहा है : क्या यह असंवेदनशील और अपमानजनक व्यवहार प्रधानाचार्य और शिक्षकों से गुज़रते हुए विद्यार्थियों तक भी रिस रहा है, क्या ऐसे निरीक्षणों से शिक्षकों का पठन-पाठन के प्रति मनोबल घट रहा है, क्या हमारे स्कूलों में दिखावे और जी-हुज़ूरी की संस्कृति बढ़ रही है आदि?
xi. सार्वजनिक स्कूल जनता के स्कूल हैं पर बढ़ता अफसरशाहीकरण इनके जनचरित्र और लोकतान्त्रिक चरित्र को खत्म कर रहा है। इसलिए हमारी विभाग से अपील है कि:
- विभागीय निरीक्षण के उद्देश्य और दिशा-निर्देश सार्वजनिक किए जाएँ। 
- विभागीय निरीक्षण की समय-सारणी विद्यालयों के साथ साझा की जाए ताकि अफसरशाही की जवाबदेही भी तय हो। 
- नौकरशाही को निरीक्षण के पेशेवर और अकादमिक मूल्यों में प्रशिक्षित किया जाए।  
- निरीक्षकों द्वारा सेक्सिस्ट, जातिगत, साम्प्रदायिक और दलगत भाषा का इस्तेमाल व व्यवहार पूरी तरह निषेध हो।  
- किसी भी स्तर पर अपमाजनक भाषा का इस्तेमाल पूरी तरह निषेध हो। 
- लोकतान्त्रिक संवाद की संस्कृति और ईमानदाराना फीडबैक लेने के तंत्र बनाए जाएँ। 
- नित नए आदेश भेजकर स्कूल के अपने कैलेंडर और अधिगम प्रक्रिया के साथ छेड़छाड़ न की जाए। 
- ट्रांसफर/ससपेंशन जैसी कार्रवाई सवाल पूछने या सच बोलने वाले शिक्षकों के ख़िलाफ़ बदले की भावना से या डर बैठाकर उन्हें चुप कराने के लिए न हो, बल्कि पारदर्शी, विधिवत व न्यायसंगत प्रक्रिया के तहत ही हो। 
- शिक्षा में एनजी के हस्तक्षेप को तुरंत ख़त्म किया जाए। 

सधन्यवाद 
    

प्रतिलिपि: 
निदेशक, दिल्ली शिक्षा विभाग
अध्यक्ष, GSTA

स्कूलों में जातिगत भेदभाव और हिंसा को ख़त्म करना है तो द्रोणाचार्य के नहीं, सावित्रीबाई फूले के दिखाए रास्ते पर चलना होगा


 
लोक शिक्षक मंच राजस्थान के जालौर ज़िले के एक निजी स्कूल में शिक्षक के हाथों हिंसा का शिकार हुए दलित पृष्ठभूमि के तीसरी कक्षा के छात्र इंद्र कुमार मेघवाल की मौत पर गहरा दुःख और आक्रोश व्यक्त करता है।
राजस्थान भारत के उन कई राज्यों में से एक है जहाँ जातिगत आधार पर सामाजिक-राजनैतिक सत्ता व दमन का बोलबाला है। सत्ता के जातिगत चरित्र का पता इस बात से ही लग जाता है कि हिंसा की घटना के बाद लगभग तीन हफ़्तों तक तो इंद्र कुमार मेघवाल के परिवारजन एक तरफ़ अस्पतालों के चक्कर काटते रहे, और दूसरी तरफ़ उन पर 'समझौते' का दबाव बनाया गया। आख़िरकार, छात्र की मौत के बाद और परिवार तथा समुदाय के संघर्ष के चलते मीडिया व प्रशासन इस हत्या का संज्ञान लेने पर मजबूर हुए।
अख़बारों व अन्य मीडिया पटलों पर आई रपटों के अनुसार 20 जुलाई को शिक्षक छैल सिंह ने, जोकि उक्त स्कूल के प्रिंसिपल भी हैं, इंद्र को जातिगत आधार पर अलग से इस्तेमाल के लिए रखे गए मटके से पानी पीने पर जातिसूचक शब्दों का प्रयोग करते हुए मारा। छात्र की चोट गहराती गई और अंततः 13 अगस्त को इंद्र की मौत हो गई।  
एक तरफ तनाव से निपटने के नाम पर क्षेत्र में सभाओं आदि पर निषेधाज्ञा लगाकर पीड़ित परिवार से सामाजिक-दलित संगठनों को मिलने से रोक दिया गया, दूसरी तरफ जातिगत रूप से दबंग समूहों की 'महापंचायतें' धड़ल्ले से आयोजित की गईं। 
इस बीच मीडिया के एक हिस्से में इस तरह की रपटें भी आने लगीं कि स्कूल में अलग से कोई मटका नहीं था और शिक्षक ने इंद्र कुमार मेघवाल को जातिगत आधार पर नहीं, बल्कि बच्चों की आपसी लड़ाई के नतीजतन मारा था। लेकिन इस सच से कौन मुकर सकता है कि जातिगत तिरस्कार हमारी संस्कृति व मान्यताओं में रचा-बसा है, तथा हर रोज़ सैकड़ों लोग प्रत्यक्ष जातिगत हिंसा का शिकार होते हैं लेकिन उनमें से कुछ ही अपनी शिकायत दर्ज करा पाते हैं।

शिक्षा संस्थानों में जातिगत हिंसा की यह घटना: न पहली है और, अफ़सोस, न आख़िरी 
जब राजस्थान में सरस्वती विद्या मंदिर नामक स्कूल से इस घटना की खबर आई, उन्हीं दिनों उत्तर-प्रदेश के बहराइच ज़िले के एक निजी स्कूल में फ़ीस न दे पाने पर दलित पृष्ठभूमि के एक विद्यार्थी की पिटाई की गई जिसके चलते कुछ दिन बाद उसकी मौत हो गई; मध्य-प्रदेश के सिंगरौली ज़िले के एक सरकारी स्कूल की बारहवीं कक्षा की छात्राओं ने एक शिक्षिका पर जातिगत भाषा द्वारा अपमानित करने व पढ़ाने में भेदभाव बरतने के गंभीर आरोप लगाए गए; उत्तराखंड में जातिगत रूप से कुछ दबंग परिवारों द्वारा अपने बच्चों के स्कूल में दलित पृष्ठभूमि की महिला के हाथ का बना खाना लेने से इंकार कराने का उदाहरण सामने आया आदि।
विद्यालयों के ऊपर तो सामाजिक कुरीतियों के खिलाफ़ नई पीढ़ी को तैयार करने की ऐतिहासिक ज़िम्मेदारी होती है। सावित्री बाई जैसे शिक्षकों ने तो शिक्षा को जातीय और लैंगिक विषमताओं पर चोट करने का ज़रिया बनाया था। ऐसे में स्कूलों के संदर्भ में जातिगत हिंसा की प्रत्येक घटना और भयावह हो जाती है।
आख़िर क्यों हमारे विद्यालय जातिवाद के खिलाफ़ लड़ने के बजाय जातिवाद के गढ़ बन जाते हैं? 

जातिगत बहिष्करण और हिंसा की जड़ें: सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक और सांस्कृतिक हैं 
इतिहास गवाह है कि सदियों से बहुजनों के शरीर, श्रम और ज्ञान को लूटकर विशिष्ट समूहों ने अपने साम्राज्य खड़े किए हैं। शूद्रों और 'अछूतों' को यह सिखाया गया कि 'उनका जन्म अन्य तीन वर्णों की सेवा' के लिए हुआ है ताकि इनके लिए काम करते रहना को ही वो अपना धर्म समझें। उन्हें ज़मीन, औपचारिक शिक्षा तंत्र और औज़ारों से वंचित रखकर 'आश्रित' समुदायों में बदल दिया गया ताकि न वो आगे बढ़ सकें और न सेवकों की संख्या में कमी आए। उनके सामाजिक ज्ञान को बेकार बताकर 'वर्ण व्यवस्था' को ही 'ज्ञान' बना दिया गया ताकि ऊपर वाला ऊपर और नीचे वाला नीचे बना रहे।
अवश्य ही यह आसान नहीं था इसलिए सदियों से इस उत्पीड़न को बनाए रखने के लिए राजशाही के बल और कानून के छल का इस्तेमाल होता आया है। इसी बाल और छल का हिस्सा थी वो 'आरंभिक शिक्षा व्यवस्था' जिसमें शिक्षा विशेष वर्गों के पुरुषों के लिए आरक्षित थी और जिसमें द्रोणाचार्य जैसे शिक्षक एकलव्य के अंगूठे की बलि लेकर वर्ण व्यवस्था को बचाना अपना धर्म समझते थे।
लेकिन आज भी शिक्षकों का एक बड़ा वर्ग इसी गुरु-शिष्य परम्परा के महिमामंडन से चिपका है और इसका गुणगान करता सुनाई देता है। हमारे स्टाफ रूम्स में खानपान की विविधता को लेकर पूर्वाग्रह मौजूद हैं, आरक्षण जैसे मुद्दों पर अनैतिहासिक समझ व्यापक है, विद्यार्थियों और उनके अभिभावकों को वज़ीफ़ों के संदर्भ में 'लालची' कहकर अपमानित किया जाता है, जातिगत टिप्पणियों को बर्दाश्त किया जाता है, कक्षा में असंवेदनशील ढंग से आरक्षित जातियों के बच्चों को सम्बोधित किया जाता है आदि। सच यह है कि हम शिक्षकों के अंदर भी वो सारी जातिगत-लैंगिक-सांप्रदायिक विषमताएँ मौजूद हैं जो बाकी समाज में व्याप्त हैं। हमें अपने अंदर और आसपास इन विषमताओं को खत्म करने के लिए लड़ना होगा।

हमारी शिक्षा व्यवस्था: वर्ण व्यवस्था का पुनरुत्पादन करती है 
लेकिन यह केवल शिक्षक वर्ग का किया-धरा नहीं है; पूरी शिक्षा नीति और शिक्षा व्यवस्था इसकी दोषी है। बहुजन बच्चों की समान गुणवत्ता वाली शिक्षा पूरी होने में कई तरह के व्यवस्थागत अवरोध हैं, जैसे:  
- पाठ्यचर्या से उन उद्धरणों को हटाया गया जो वर्ण व्यवस्था का सच उजागर करते थे: एनसीआरटी किताबों में छंटाई के नाम पर हटाए गए उद्धरण - कैसे जन्म से वर्ण निश्चित होता है, कैसे शूद्रों और महिलाओं को वेद सुनने की इजाज़त नहीं, कैसे कृषि उत्पादन में वृद्धि का आधार दास-दासियों के श्रम का उत्पीड़न था आदि। कक्षा 9 की इतिहास की किताब से ट्रेवनकोर की नादर महिलाओं के साथ पहनावे को लेकर हुई जातिगत हिंसा और उनके जवाबी आंदोलन के उद्धरण को हटाया गया। हमें यह पहचानना होगा कि ये कौन-सी ताकतें हैं जिन्हें जातिगत संघर्ष के उदाहरण इतना डराते हैं कि वे युवाओं को इनसे रू-ब-रू नहीं होने देना चाहते। एक प्रबुद्ध समाज अपनी विरासत में मौजूद उत्पीड़न एवं अन्याय को पहचानता, स्वीकारता और उसकी माफ़ी माँगता है, नाकि छिपाता है। ऐसे में हमें अपनी पाठ्यचर्या के न्यायप्रिय तत्वों को बचाने के लिए लड़ना होगा।
- बहुजन बच्चों का शिक्षा पूरी करना मुश्किल किया: आज भी कक्षा 8 के बाद स्कूल छोड़ने वाले बच्चों में सबसे ज़्यादा अनुपात वंचित वर्गों से आने वाले बच्चों का है (बिंदु 6.2.1, एनईपी 2020)। एक तरफ सरकारी स्कूलों के बच्चों पर फ़ीस का बोझ बढ़ता जा रहा है (बोर्ड परीक्षा के नाम पर सीबीएसई ने कई गुना फ़ीस बढ़ाई) और दूसरी तरफ आरक्षित जातियों को दी जाने वाली फ़ीस रियायत का दर घटा है। कक्षा 9-12 में सरकारी स्कूल भी अपने परिणाम चमकाने के लिए 'कमज़ोर' बच्चों के नाम काटकर उन्हें ओपन में भेजने में लगे हैं। राष्ट्रीय शिक्षा नीति भी कक्षा 3, 5, 8 तक में ओपन से पढ़ाई करवाने को बल देती है और खर्च बचाने के लिए सरकारी स्कूल मर्ज/बंद करने की कवायद करती है जिसका खामियाज़ा सबसे पहले सबसे कमज़ोर तबके के बच्चों को उठाना होगा।
- दमित जातियों को वजीफ़े न देने के लिए एनईपी 2020 कई हथकंडे अपनाती है: एक तरफ केंद्र सरकार ने वजीफों का बजट घटाया है और दूसरी तरफ आवेदन की प्रक्रिया को जटिल बनाकर बच्चों की पहुँच से दूर कर दिया गया है। उदाहरण : (क) शिक्षा विभाग से प्राप्त एक जानकारी के अनुसार दिल्ली सरकार के स्कूलों में कक्षा 9-12 में नामांकित विद्यार्थियों में से 15.3% विद्यार्थी SC (पृष्ठभूमि के) हैं, 7.2% OBC (पृष्ठभूमि के) हैं और 0.22% ST (पृष्ठभूमि के) हैं। यानी, इन आँकड़ों के हिसाब से, एक-चौथाई से भी कम विद्यार्थी इन वंचित जाति-समूहों से हैं, जबकि सच्चाई यह है कि जाति प्रमाण-पत्र न बनवा पाने के कारण अधिकतर बहुजन बच्चे स्कूलों में अदृश्य कर दिए जाते हैं और उन तक उनके हक़ नहीं पहुँचते। (ख) दिल्ली में 2021-22 में कक्षा 11-12 में केवल 17.12% SC लड़कियाँ ही पोस्ट मेट्रिक स्कॉलरशिप का ऑनलाइन आवेदन कर पाईं और इनमें से 41% लड़कियों का आवेदन आय प्रमाण-पत्र की कमी के कारण नामंज़ूर हो गया। अंततः केवल 10.1% SC छात्राओं को पोस्ट मेट्रिक वजीफा मिला। आज यह सच शिक्षकों के बीच आम हो गया है कि क्योंकि सरकार वजीफ़े देना नहीं चाहती इसलिए नित नयी शर्तें जोड़ती जा रही है।
- 'लायक' को छाँटकर विज्ञान और रोबोटिक्स पढ़ाने और बाकियों को वापस 'पारम्परिक कामों' में धकेलने वाली दोगली पढ़ाई कराई जा रही है : आज भी अंग्रेज़ी माध्यम सैक्शन में तथा कक्षा 11 में विज्ञान के सैक्शन में SC/ST/OBC पृष्ठभूमि के बच्चों का अनुपात कम दिखाई पड़ता है जो इस वास्तविकता की गवाही देता है कि शिक्षा की सीढ़ियाँ चढ़ने में आज भी वर्णगत पृष्ठभूमि की भूमिका महत्वपूर्ण है। एक तरफ राष्ट्रीय शिक्षा नीति चाहती है कि बच्चे कक्षा 10 के बाद अकादमिक पढ़ाई छोड़कर वोकेशनल शिक्षा में जाएँ और दूसरी तरफ दिल्ली सरकार 'नौकरी देने वाले बनो' के नाम पर बच्चों को वापस उन्हीं जातिगत काम-धंधों में भेज रही है जिनसे निकलने के लिए वे शिक्षा लेने स्कूल आए थे। ये कौन-सी पृष्ठभूमियों के बच्चे होंगे जो डॉक्टर-इंजीनियर-वकील-प्रोफेसर बनेंगे जिनकी कोर्स फ़ीस लाखों में जाती है? और वे कौन-सी पृष्ठभूमियों के बच्चे होंगे जो मैकेनिक, पार्लरवाले, ज़ोमाटो, ऑटो वाले बनेंगे? 
- शिक्षक पदोन्नतियों में सामाजिक न्याय को कमज़ोर करना : अभी तक शिक्षकों की पदोन्नतियों के लिए अनुभव की वरीयता, अकादमिक योग्यता व सामाजिक न्याय के स्थापित व वैधानिक प्रावधान इस्तेमाल होते थे। लेकिन एनईपी 2020 इनकी जगह 'समर्पण' व 'मेरिट' जैसे कारकों को प्रस्तावित करती है जिसका सीधा मतलब है जातिगत काँट-छाँट की वापसी। आख़िर कौन यह तय करेगा कि कौन-सा शिक्षा समर्पित है और कौन नहीं? संभव है कि न्याय से ज़्यादा सत्ता के प्रति समर्पण को पुरस्कृत किया जाए। जातिगत उत्पीड़न को ढाँकने के लिए यह नीति दमित जातियों को साफ़गोई से संबोधित न करके SDG (सोशली डिसअडवांटेज्ड ग्रुप) जैसी भ्रामक शब्दावली का इस्तेमाल करती है। निजी विद्यालयों को बढ़ावा देती है और ऊपर से उनमें सामाजिक न्याय के अनुसार आरक्षित जातियों से शिक्षकों की नियुक्तियाँ करने के प्रावधान डालने की बात नहीं करती।
अगर शिक्षा में जातिगत भेदभाव व्यस्थागत है तथा राज्य के संरक्षण में फल-फूल रहा है तो इसके खिलाफ़ हमारी लड़ाई भी सामूहिक और व्यवस्थित होनी होगी।

हमारी लड़ाई : शिक्षकों की भूमिका 
अगर हम, दिल्ली के शिक्षक राजस्थान की इस घटना का भरसक विरोध करते हैं तो हमारे अपने व्यवहार और स्कूलों में जातिगत भेदभाव, छींटाकशी और अन्याय के अनगिनत रूपों को पहचानना, उजागर करना और उन्हें ख़त्म करने के लिए संघर्ष करना भी हमारा कर्तव्य है। शिक्षक होने के नाते हमारी भूमिका शिक्षा के माध्यम से जातिगत भेदभाव व अपमान-हिंसा की संस्कृति को चुनौती देने तथा विद्यार्थियों में इस चेतना को गढ़ने की है। अन्यथा हम कितनी भी आलोचना कर लें या दुःख जताएँ, ऐसी क्रूर घटनाएँ रुकेंगी नहीं, बल्कि नियमित ख़बर की तरह एक-के-बाद-एक सामने आती रहेंगी। हम माँग करते हैं कि -
i. राजस्थान सरकार जालोर के सुराणा गाँव के सरस्वती विद्या मंदिर नामक निजी स्कूल में जातिगत हिंसा के शिकार हुए छात्र इंद्र कुमार मेघवाल के परिवार की सुरक्षा व पूर्ण स्वतंत्रता सुनिश्चित करे तथा उन्हें उचित मुआवज़ा प्रदान करे।  
ii. हिंसा की निष्पक्ष जाँच सुनिश्चित करते हुए क़ानूनसम्मत कार्रवाई की जाए। iii. राजस्थान सरकार हिंसा के स्थल रहे उक्त स्कूल सहित तमाम निजी स्कूलों को अपने अधीन लेकर मुफ़्त शिक्षा सुनिश्चित करने वाली सार्वजनिक व्यवस्था में लाए तथा सामाजिक न्याय के प्रावधानों के अनुसार शिक्षकों की नियुक्तियाँ करे। 
iv. सभी स्कूलों को जातिगत भेदभाव व सूक्ष्म अथवा परोक्ष हिंसा के ख़िलाफ़ सतर्क रहने व शिकायत मिलने पर उसे दर्ज करने के दिशा-निर्देश जारी किए जाएँ।   
v. राज्यों से लेकर केंद्र के स्तर तक पाठ्यक्रमों में वर्ण व्यवस्था को जायज़ ठहराने व जातिगत विषमता के ख़िलाफ़ उठी धाराओं व आवाज़ों को हटाने/विकृत करने की प्रक्रिया को ख़ारिज किया जाए।
vi. विद्यार्थियों के लिए सामाजिक न्याय पर आधारित वज़ीफ़ों व अन्य ज़रूरी सहायता सामग्री/राशि के दायरे का विस्तार करते हुए इनकी प्रक्रिया को सहज-सुलभ बनाया जाए। 
vii. सामाजिक न्याय विरोधी राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 को रद्द किया जाए। सार्वजनिक स्कूलों को बर्बाद व बंद करने अथवा उनका परोक्ष निजीकरण करने की नीति को पलटा जाए।