Monday 14 December 2020

रिपोर्ट : कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ किसानों के आंदोलन पर आयोजित चर्चा की संक्षिप्त रपट

कृषि से जुड़े तीन क़ानूनों व बिजली क़ानून में प्रस्तावित संशोधन के ख़िलाफ़ चल रहे किसान आंदोलन को बेहतर ढंग से समझने के लिए लोक शिक्षक मंच द्वारा 13 दिसंबर को दोपहर 3:30 बजे एक ऑनलाइन चर्चा आयोजित की गई। यह चर्चा शाम 5:30 बजे तक चली। चर्चा का विषय था - 'कृषि क़ानून क्या हैं? किसान आंदोलन क्यों कर रहे हैं? हम शिक्षा कर्मियों के लिए इस विषय को समझना क्यों ज़रूरी है?' इसमें वक्ता के रूप में साथी जतिंदर ने बात रखी जोकि पंजाबी यूनिवर्सिटी (पटियाला) में पढ़ाते हैं एवं दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में पीएचडी शोधार्थी हैं। 


साथी जतिंदर ने अपने वक्तव्य को मोटे तौर पर तीन हिस्सों में बाँटा। पहले हिस्से में उन्होंने इन अधिनियमों के संदर्भ व विषयवस्तु को प्रस्तुत करते हुए निम्नलिखित आलोचनाएँ पेश कीं -
1. कोरोना महामारी के आपातकाल के दौरान इन अध्यादेशों को लाना और फिर राज्य सभा में तिकड़मी रूप से इन क़ानूनों को पारित करना सरकार की मंशा पर गंभीर सवाल खड़े करता है।
2. इन क़ानूनों में विवाद के निपटारे व शिकायत के लिए न्यायपालिका का रास्ता बंद करके अफ़सरशाही को ज़िम्मेदार बनाया जाना नागरिक अधिकारों व लोकतंत्र के मौलिक चरित्र पर आघात करता है।
3. कृषि के विषय पर, जोकि संवैधानिक रूप से राज्यों के अधिकार क्षेत्र का मामला है, केंद्रीय क़ानून थोपना व इनमें राज्य सरकारों को केंद्र के तमाम निर्देशों-नियमों को मानने पर मजबूर करना संविधान व राज्य के संघीय चरित्र पर हमला है। 
4. आवश्यक वस्तुओं की परिभाषा को पूरी तरह पलट कर जमाख़ोरी का रास्ता साफ़ करना न सिर्फ़ कॉर्पोरेट पूँजी के हितों को साधना है, बल्कि आवश्यक खाद्य वस्तुओं के दामों में बेतहाशा बढ़ोतरी को निश्चित करने वाला जनविरोधी क़दम है। 
5. ठेके पर किसानी के सब्ज़बाग़ देखने के झाँसे में किसान इसलिए नहीं आ रहे हैं क्योंकि कंपनियों के साथ उनका कड़वा अनुभव उन्हें इसकी सच्चाई से वाक़िफ़ करा चुका है।

दूसरे हिस्से में उन्होंने इस आंदोलन की यात्रा को सामने रखा। उन्होंने मुख्यतः पंजाब, और साथ ही हरियाणा, में अध्यादेशों के आने की शुरुआत से ही किसान संगठनों द्वारा स्पष्ट विरोध की कार्रवाइयों को चिन्हित करते हुए लोगों के बीच आंदोलन की व्यापकता व गहराई को दर्शाया। इसी क्रम में उन्होंने आंदोलन के सांगठनिक आधार, उसकी विविध रणनीतियाँ, कार्रवाइयाँ, मज़बूती व क्रमशः विकास के सफ़र का वर्णन किया। उन्होंने यह स्थापित किया कि आंदोलन द्वारा दिल्ली आने, सड़कों पर डेरा डालने, सत्ता के केंद्र की घेराबंदी करने जैसे क़दम सरकार के अलोकतांत्रिक, असंवेदनशील व तानाशाही प्रतिक्रिया का परिणाम थे। एक तरह से, सरकार के अहंकार और ज़िद ने किसानों के सामने आंदोलन को मज़बूत करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं छोड़ा। 

तीसरे हिस्से में उन्होंने किसानी की आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था से जुड़े जाति, महिला, भूमिहीन खेत मज़दूर, संपन्न भूपतियों के सामंती रवैया जैसे अनसुलझे गंभीर प्रश्नों को इस आंदोलन की सीमा के रूप में पहचाना। हालाँकि, उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि इसमें शामिल लोगों की विविध पृष्ठभूमियों के मद्देनज़र इसे मात्र संपन्न किसानों का आंदोलन बताना ग़लत होगा। दूसरी ओर, उनके अनुसार, इस आंदोलन के साथ खड़े होने और खेती के साथ जुड़े पर्यावरण व 'हरित क्रांति' के इन जटिल प्रश्नों को उठाने में कोई अनिवार्य विरोधाभास नहीं है। अंत में, उन्होंने इस आंदोलन के महत्व को आज के भारतीय राज्य के तानाशाही चलन के संदर्भ में लोकतंत्र को संजोये रखने व सत्ता तथा संसाधनों के केंद्रीकरण के ख़िलाफ़ उम्मीद की एक किरण के रूप में रेखांकित किया। 

उनके वक्तव्य के बाद लोक शिक्षक मंच के साथी फ़िरोज़ ने उनकी बातों को जोड़ते हुए मंच की ओर से बातें रखीं। इनमें मुख्यतः आंदोलनों को समझने को लेकर शिक्षकों की पेशागत व बौद्धिक ज़िम्मेदारी तथा प्रेरणा के महत्व को सामने रखते हुए, हालिया समय में राज्य की जनविरोधी नीतियों-क़ानूनों के ख़िलाफ़ मज़दूरों, किसानों, वकीलों, डॉक्टरों आदि के स्पष्ट विरोधों के बरक़्स शिक्षा के विषय में शिक्षकों की तुलनात्मक उदासीनता के प्रति चिंता ज़ाहिर की गई। इस 'निर्पेक्षता' के संभावित कारण ढूँढने की दिशा में स्कूली शिक्षकों का ख़ुद को बौद्धिक जनकर्मी के बजाय सरकारी कर्मचारी के रूप में देखना, शिक्षा का यथास्थितिवादी चरित्र, व्यापक विमर्श में भौतिक जगत व हितों से शिक्षा के रिश्ते पर पर्दा पड़े रहना, वर्गीय चेतना आदि को चिन्हित किया गया। किसानी के इन क़ानूनों की नवउदारवादी ज़मीन की तुलना शिक्षा की दुनिया में हुए व जारी समानांतर क़ानूनों-नीतियों से की गई। इनमें शिक्षा अधिकार अधिनियम (2009) द्वारा सार्वजनिक शिक्षा को मज़बूत करने के बदले (मुठ्ठीभर) लोगों को निजी स्कूलों का प्रलोभनकारी विकल्प देने की आड़ में सार्वजनिक व्यवस्था को कमज़ोर करने, विद्यार्थियों को मिलने वाले लाभों को सीधे नक़द हस्तांतरण में ढालकर उनके हक़ छीनने/उलझाने व शिक्षकों व स्कूलों पर केंद्रीकरण के लगातार बढ़ते शिकंजे को समानांतर उदाहरणों के रूप में चिन्हित किया गया। अंत में, इस ज़रूरत पर बल दिया गया कि शिक्षक संगठनों को किसानों के इस आंदोलन को वैचारिक मज़बूती से खड़ा करने में विभिन्न किसान संगठनों की जनचेतना की कार्रवाइयों से सीखकर तथा प्रेरणा लेकर शिक्षकों व जनता के बीच अध्ययन, जागरूकता व चेतना का काम करना होगा। 

अंतिम सत्र में चर्चा में मौजूद विभिन्न साथियों ने अपनी शंकायें व टिप्पणियाँ साझा कीं और साथी जतिंदर ने धैर्यपूर्वक उनका क्रमवार जवाब दिया। मुख्यतः सवाल/टिप्पणियाँ आंदोलन के जातिगत चरित्र, मर्दानगी की छवि, पिछले कुछ सालों के अनुभव के संदर्भ में न्यायपालिका से उम्मीद रखने, सत्ता के दमनकारी रवैये के सामने आंदोलन के भविष्य आदि को लेकर थे। चर्चा आंदोलन को और गहराई से जानने-समझने व जुड़ने की मंशा के इज़हार तथा साथी जतिंदर को शुक्रिया अदा करने पर समाप्त हुई।  

Friday 4 December 2020

Some grave concerns regarding CBSE's plans to conduct exams for the session 2020-2021

 To


The Chairperson, CBSE
Shiksha Kendra 2 Community Centre
Preet Vihar
Delhi 110092

Subject: Some grave concerns regarding CBSE's plans to conduct exams for the session 2020-2021

Madam/Sir,

Lok Shikshak Manch would like to draw your urgent attention to and seek response regarding CBSE's plan to conduct board exams for class X and XII for the current academic session. To our mind, CBSE stands accused of causing immense financial, mental and emotional distress to students. It needs to answer the following questions -

1. Given that 2020 (session 2020-2021) has proven to be a highly disruptive year globally, and more so in India, we are shocked to know that CBSE intends to conduct the board exams as per the normal calendar schedule (as stated on page 186 of the CBSE document 'Framework and Significant Guidelines in the context of the Secondary and the Senior Secondary Certificate Examinations' dated 01/09/2020). Whether upholding the pretence of routine, in the face of the fatal twin attack of Corona-Lockdown upon the people of this country, should be considered a mark of efficiency or criminal elitism?

2. Does CBSE recognize that its student population doesn't consist of a homogenous group? In fact, it consists of two groups separated from each other by a vast socio-economic disparity. On the one hand, secondary and senior-secondary students in most private schools would have experienced more or less smooth online classes since the beginning of the session, aided with individual attention from schools and private coachings, and well-cushioned by academic support at home. On the other hand, almost all students of these grades in government schools have been struggling since months to gain access to any meaningful online education. We are asking this because if CBSE recognizes this disparity then it would have not let secondary and senior secondary students spend last few months in utter mental agony and made suitable announcements to soothe their fears and distress.

3. What justification can it provide to treat at par the academic preparations of, respectively, a private school student with full and independent access to a personal laptop/tab, a group of siblings trying to 'study' from a single, small-screen smartphone at home, and a student with no access at all to online classes?

4. Doesn't the decision to go ahead with 'business as usual' amount to accepting and promoting the false and dangerous idea that education can be broken down into disjointed parts and imparted to students in capsules of 45 minute videos and worksheets? What about those established conceptions of education, enshrined in almost all policy documents and taught in all respectable education institutions, according to which it is a dialogic and continuous process where engagement with surroundings and peers is the key?

5. If students can understand concepts, undertake projects and perform practicals even without physically attending classes and schools, then what will be the need and justification for employing teachers and ensuring intensive classroom teaching-learning processes in subsequent years? 

6. Has it conducted any survey (not an online one) with class X and XII students in order to ascertain whether and to what extent are they feeling prepared for board exams and welcoming the same? If so, CBSE may kindly make the details and findings of the said report public.

7. When meaningful academic learning has not happened this year, then why can the session not be extended? We demand that no exams should be thrust upon students without ensuring a decent minimum of classroom teaching-learning. 

8. Which market and political forces are pushing the CBSE to conduct board exams in an insensitively routine manner at the cost of the mental well-being of students and the whole idea of education? In any case, the CBSE must make its compulsions public.

We hope that the CBSE will have answers to these questions, if not for the public, then, at least, for the students at its mercy. Surely, it owes a self-convincing response to uphold its own academic credentials. Moreover, it can still act in the interest of students and education and, thereby, let its actions speak louder than words.  

Thanking you 

राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020: क्या हकीकत क्या फ़साना

चार साल के रुकते-रुकाते और गुपचुप सफ़र के बाद, आख़िर कोरोना-लॉकडाउन की आफ़त के दौरान केंद्रीय मंत्रिमंडल ने अचानक राष्ट्रीय शिक्षा नीति को स्वीकृति देने का आपद क़दम उठाया। हालाँकि, लोकतंत्र को चोग़े की तरह इस्तेमाल करती निरंकुश सरकारें अपनी असल नीति को लागू करने के लिए किसी औपचारिक स्वीकृति की मोहताज नहीं होती हैं। शिक्षा के संदर्भ में यह इस बात से भी साबित होता है कि इस नीति में प्रस्तावित बहुत-सी बातें तो बीते वर्षों से ही थोपी जा रही हैं। दूसरी तरफ़, कुछ प्रस्ताव ऐसे भी हैं जो या तो पहले से लागू हैं या बिना लागू हुए पिछली नीतियों में भी थे, मगर इन्हें अभूतपूर्व कहकर प्रचारित किया जा रहा है। एक अत्यंत गंभीर आलोचना नीति के निर्माण, स्वीकृति व कार्यान्वयन की प्रक्रिया को लेकर की गई है। शिक्षा संविधान की समवर्ती सूची का विषय है तथा इस पर राज्यों का संवैधानिक रूप से जायज़ और लोकतांत्रिक अख़्तियार है। भारतीय राज्य की संघीय सत्ता के ढाँचे और संवैधानिक तौर-तरीक़ों व मर्यादाओं के अनुसार यह अपेक्षित है कि राष्ट्रीय कहलाने वाली शिक्षा नीति राज्यों व CABE (केंद्रीय शिक्षा सलाहकार बोर्ड, जिसमें सभी राज्यों के शिक्षा मंत्री शामिल होते हैं) से सलाह-मशविरा करके  संसद में पेश होने, गहन चर्चा से गुज़रने और 'सबके साथ, सबके विश्वास' से पारित होने के बाद लागू की जाए। इसके उलट, इस नीति के निर्माण से लेकर इसे लागू करने तक की पूरी प्रक्रिया सत्ता के घोर संकेन्द्रीकरण का निर्लज्ज ऐलान करती है। नीति बनाने के लिए शिक्षकों, विद्यार्थियों, कर्मचारियों व इन सबके संगठनों से राय लेना तो दूर की बात रही। (हाँ, नीति का दस्तावेज़ ख़ुद घोषित करता है कि 


एक छात्र संगठन से ज़रूर बात की गई थी। आप सहज ही अनुमान लगा सकते हैं कि वह कौन-सा संगठन था!) अब शिक्षा संस्थानों में व शिक्षक-विद्यार्थियों के बीच, तमाम प्रशासनिक हथकंडे अपनाकरनीति का ज़ोर-शोर से प्रचार व महिमामंडन किया जा रहा है तथा नीति के विश्लेषण के लिए नहीं, बल्कि इसे लागू करने के लिए 'विचार' 'आमंत्रित' किये जा रहे हैं! जब नीतियाँ जनता की ज़रूरतों-माँगों व शिक्षा के कर्मियों, अध्येताओं व विचारकों की समझ-बूझ के अनुसार नहीं बनाई जातीं, तब हमें यह सवाल अवश्य ही पूछना चाहिए कि उन्हें कौन-सी ताक़तें तय कर रही हैं और वो किसके इशारों पर बन रही हैं। ऐसे में हम नीति के स्कूली शिक्षा वाले बिंदुओं पर अपना ध्यान सीमित करके अपना विश्लेषण और नज़रिया साझा कर रहे हैं।       

आइये देखते हैं कि नई राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 देश के विद्यार्थियों की ज़रूरतों पर कितनी खरी उतरती है -  

 पहली ज़रूरत - सभी बच्चे स्कूल से बारहवीं तक की पढ़ाई पूरी कर पाएँ। किसी बच्चे को कक्षा 12 से पहले नियमित पढ़ाई न छोड़नी पड़े, बल्कि जो नियमित स्कूल नहीं कर पा रहे हैं वो भी स्कूलों में आ पाएँ, इसके लिए कुछ ठोस प्रस्ताव हों।   

 i. ज़रूरत यह थी कि कक्षा 12 तक की नियमित स्कूली शिक्षा को मौलिक अधिकार बनाया जाता ताकि सरकार की ज़िम्मेदारी बन जाती अधिक उच्चत्तर-माध्यमिक स्कूल खोलना। अकसर बच्चों को यह कहकर दाख़िला देने से मना कर दिया जाता है कि स्कूल में सीट नहीं है। बड़ी कक्षाओं में कई बार बच्चों के पास दाख़िले के लिए माँगे गए काग़ज़ नहीं होते या नंबर कम होने पर उन्हें आगे की पढ़ाई ओपन से करने के लिए कह दिया जाता है या उपस्थिति कम होने पर उनका नाम काट दिया जाता है। अगर इस नीति में बच्चों को कक्षा 12 तक की मुफ़्त और अनिवार्य स्कूली शिक्षा का अधिकार दे दिया जाता तो ये समस्याएँ कम हो सकती थीं। बच्चों पर जो सीबीएसई बोर्ड की फ़ीस का बोझ बढ़ रहा है वो भी नहीं पड़ता। लेकिन इस नीति ने शिक्षा का अधिकार कक्षा 8 से बढ़ाकर कक्षा 12 तक नहीं किया। यानी बच्चों की पहली ज़रूरत को पूरा नहीं किया।    

 ii. शिक्षा के अधिकार को विस्तार देने की बजाय इस नीति के बिंदु 3.5 में कक्षा 3, 5 और 8 के बच्चों के लिए भी ओपन स्कूलिंग (NIOS/SIOS) का प्रावधान डाला गया है। आख़िर सरकार यह क्यों चाहती है कि इतने छोटे बच्चे भी ओपन से पढ़ें? ताकि सरकार का ख़र्चा बचे? जो बच्चे दसवीं और बारहवीं ओपन से करते हैं, वही कितने परेशान हो जाते हैं। ग़रीब माँ-बाप न ओपन के धक्के खा पायेंगे और न ओपन की फ़ीस भर पाएँगे। इस तरह तो बहुत-से छोटे बच्चे भी स्कूलों से बाहर हो जाएँगे। फिर कक्षा 8 तक के शिक्षा के अधिकार का मतलब ही क्या रह जाता है? और अगर 7-14 साल के ये बच्चे नियमित रूप से स्कूल न आकर ओपन से पेपर देंगे तो साल-भर क्या करेंगे? ज़ाहिर है कि काम-धंधों पर ही लगाए जाएँगे। इस प्रावधान को राष्ट्रीय शिक्षा नीति के पटल पर रखकर क्या सरकार बाल श्रम बढ़ाना चाहती है?

 iii. हम जानते हैं कि कक्षा 9-12 में बहुत से बच्चे फ़ेल हो जाते हैं और पढ़ाई छोड़ देते हैं। इस नीति ने इनके लिए क्या किया है? इस नीति में नौवीं से बारहवीं तक की कक्षाओं के लिए न्यूनतम PTR (शिक्षक-विद्यार्थी अनुपात) निश्चित नहीं किया गया है। क्या 50-100 बच्चों पर एक टीचर ढंग से पढ़ा सकती है, सभी बच्चों पर ध्यान दे सकती है, धीरे सीखने वाले बच्चों को अतिरिक्त समय दे सकती है? नहीं! इस समस्या को सुलझाने के लिए नीति ने कक्षा 12 तक पर्याप्त शिक्षकों की भर्ती करने की गारंटी क्यों नहीं दी? क्योंकि उसमें सरकार को ज़्यादा शिक्षकों को तनख़्वाह देने का ख़र्च उठाना पड़ता। इसलिए नीति ने सस्ता रास्ता चुना। एक ऐसी व्यवस्था को बनाया रखा जिसमें फ़ेल होने वाले बच्चे ख़ुद ही स्कूल छोड़ देते हैं। परिणाम भी चमकते रहेंगे और ज़्यादा टीचर भी नहीं भर्ती करने पड़ेंगे।

 iv. क्या सरकार के पास इस बात का जवाब है कि फेल या किसी वजह से अनुपस्थित रह गए बच्चे जब स्कूल छोड़ देते हैं तो उनकी पढ़ाई कैसे जारी रहती है, कौन उन्हें प्रवेश देता है, कौन उन्हें पढ़ाई में मदद करता है? कोई नहीं। बस उनका बहिष्करण करके सरकारी स्कूलअपना पल्ला झाड़ लेते हैं। इस नीति के बाद यही जारी रहेगा और बढ़ेगा। बल्कि अकादमिक रूप से पिछड़ गए बच्चों के लिए नीति में अतिरिक्त शैक्षिक सहायता के प्रोग्राम चलाए जाने का प्रावधान होना चाहिए था। जैसे कक्षा 8 तक के लिए STC (स्पेशल ट्रेनिंग सेंटर) प्रोग्राम है। हालाँकि, इसमें भी बहुत सुधारों की ज़रूरत है, जैसे STC शिक्षकों की नौकरी पक्की नहीं होती, एक ही शिक्षिका पर कई बच्चे होते हैं, उन्हें स्कूल के दूसरे कामों में लगा लिया जाता है आदि। ये समस्याएँ भी दूर होनी चाहिए। ऐसे ही इस नीति को कक्षा 9-12 के लिए भी, नियमित शिक्षकों की मदद से, अतिरिक्त सहायता प्रोग्राम चलाने की ज़रूरत थी। हम यह कहकर बच्चों को स्कूलों से बाहर नहीं होने दे सकते कि वे फ़ेल हो गए थे। 

 v. 2020 में सीबीएसई ने दसवीं और बारहवीं के विद्यार्थियों पर 1,800 और 2,400 रु की बोर्ड परीक्षाओं की फ़ीस लगाई। कोरोना काल में न जाने कितने बच्चों के राज्य बदले, हालात बदले और पढ़ाई भी नहीं हुई; लेकिन मालूम होता है कि सीबीएसई के लिए कुछ नहीं बदला! इस संस्था की फ़ीस पिछले 6 सालों में 10 गुना बढ़ी है। सीबीएसई का कहना है कि क्योंकि वो एक स्वायत्त इकाई है जिसे अपना ख़र्चा ख़ुद निकालना होता है, इसलिए इसने बच्चों की फ़ीस बढ़ाई है। तो जनता किस बात का टैक्स और शिक्षा उपकर (cess) दे रही है। ऐसे तो सरकार एक-एक करके अपनी सभी संस्थाओं को पैसा देना बंद कर देगी और फ़िर ये जनता से पैसे लेंगी। बढ़ती फ़ीस पर रोक लगाने का एक ही तरीक़ा है - कक्षा 12 तक की शिक्षा को मुफ़्त और अनिवार्य करना। लेकिन यह मौलिक बात देश की शिक्षा नीति बनाने वालों को आज़ादी के 73 साल बाद भी समझ नहीं आती।

vi. इस नीति में एक और ख़तरा है।  बिंदु 4.2 में  कक्षा 10 के बाद स्कूल छोड़ने (exit option) का प्रावधान है। कहा गया है कि बच्चे दसवीं के बाद सर्टिफ़िकेट लेकर वोकेशनल या अन्य विशिष्ट स्कूलों में जा सकते हैं। आख़िर हमने कितने बच्चों को अपनी मर्ज़ी और ख़ुशी से, बेहतर विकल्प की आड़ में, दसवीं के बाद स्कूल छोड़ते हुए देखा है? सच्चाई यह है कि बच्चे सामाजिक-आर्थिक मजबूरियों में दसवीं के बाद पढ़ाई छोड़ते हैं। आज तक जो बच्चे किसी भी कारण से कक्षा 10 के बाद पढ़ाई छोड़ते थे, उन्हें भी तो दसवीं का सर्टिफ़िकेट मिल ही जाता था; तो इस exit option का क्या मतलब है? होगा यही कि अब प्रशासन और शिक्षक भी कम रिज़ल्ट देने वाले बच्चों को दसवीं के बाद नियमित स्कूल छोड़ने को प्रोत्साहित करने लगेंगे। किस बच्चे का मन कब पढ़ाई में लग जाए, हम पहले से तय नहीं कर सकते। नियमित स्कूल आकर बच्चे सिर्फ़ पढ़ना नहीं सीखते, वे और भी कई चीज़ें सीखते हैं। उनका समाजीकरण भी होता है। स्कूलों का काम होता है बच्चों को समाज व पर्यावरण के प्रति ज़िम्मेदार बनाना। देश की शिक्षा नीति को बच्चों की बारहवीं पूरी करवाने की कोशिश करनी चाहिए थी नाकि पढ़ाई बीच में छुड़वाने की।    

vii. नीति का बिंदु 7.5 बड़े स्कूल कॉम्प्लेक्स बनाने की बात करता है। अगर इसके लिए छोटे पड़ोसी स्कूल बंद किए जाएँगे तो घरों से दूरी बढ़ने के कारण बच्चों का नामाँकन तथा उपस्थिति घटेगी। पिछले दिनों मध्य-प्रदेश और उड़ीसा में दसियों हज़ारों स्कूलों के बंद होने की ख़बर है। उड़ीसा में 8,000 छोटे स्कूलों को बंद करने के ख़िलाफ़ अभिभावकों ने प्रतिरोध किया। घर के नज़दीक स्कूल खोलना सरकार की ज़िम्मेदारी है क्योंकि इससे हर बच्चे तक पढ़ाई पहुँचती है। यह कोई दुकानदारी और व्यापार देखकर किए जाने वाला सौदा नहीं है। 

 ये सभी बिंदु साबित करते हैं कि इस नीति के लागू होने के बाद सरकारी स्कूल और तेज़ी से बंद किए जाएँगे, बच्चों को ओपन में धकेला जाएगा और बड़ी संख्या में बच्चे बारहवीं से पहले स्कूल छोड़ने पर मजबूर होते रहेंगे। इसलिए हमें इस नीति के ख़िलाफ़ लड़ना होगा। 

शिक्षा नीति से हमारी दूसरी ज़रूरत - हमारे स्कूलों में अकादमिक रूप से गहरी पढ़ाई कराई जाए। ऐसी पढ़ाई जो बच्चों को समझदार व आलोचनात्मक बनाए। 

 i. विद्यार्थियों की गहरी अकादमिक समझ कब बन पाएगी? जब वे किसी भी विषय को गहराई और समग्रता से पढ़ पाएँगे। क्या 2020 की नीति इसे ज़रूरी मानती है?

 इस नीति में गहन पढ़ाई को नहीं, कामचलाऊ साक्षरता को ज़रूरी माना गया है। नीति के कई बिंदुओं से साफ़ है कि अब साक्षरता और गणना सिखाना ही राष्ट्रीय मिशन होगा। इसी के हिसाब से नई किताबें आएँगी और नए टाइम-टेबल बनाए जाएँगे। बच्चों के द्वारा एक-दूसरे को साक्षरता सिखाने और इस काम के लिए बाहर से वॉलंटियर्स को स्कूलों में लाने के प्रावधान हैं। (बिंदु 2.2, 2.4, 2.7) बीएड आदि में भी यही सिखाया जाएगा। 

पर बच्चों को साक्षरता सिखाने में क्या ग़लत है? कुछ नहीं, लेकिन साक्षरता को ही शिक्षा का उद्देश्य बना देना ग़लत है। इतिहास गवाह है कि मज़दूरों के बच्चों को पहले 'पढ़ना-लिखना तो आ जाए' और फिर 'बस पढ़ना-लिखना ही आ जाए' के हवाले छोड़ दिया जाता है। दरअसल साक्षरता तो मुखौटा है जिसके पीछे इस देश के बच्चों पर खोखली शिक्षा थोप दी जाएगी। याद रहे यह सब सिर्फ़ सरकारी स्कूलों में होगा क्योंकि महँगे निजी विद्यालयों में एक तबक़े के बच्चों को बाबू बनाने की पढ़ाई जारी रहेगी। 

सिर्फ़ साक्षरता देने से विद्यार्थी पढ़ना तो सीख जाएँगे, लेकिन गहराई से सोचना-समझना-लिखना नहीं सीखेंगे। जब हम उन्हें अच्छी कहानियों/कविताओं की मदद से साक्षरता सिखाते हैं, तो उनकी कल्पनाशक्ति, अभिव्यक्ति और शब्दावली बढ़ती है; जब हम उन्हें विज्ञान के साथ साक्षरता सिखाते हैं, तो उनका वैज्ञानिक नज़रिया बनता है; जब हम उन्हें सामाजिक विज्ञान के साथ साक्षरता सिखाते हैं, तो उन्हें समाज की हक़ीक़त का बोध होता है। इन सबके बिना बच्चे साक्षर तो बन जाएँगे लेकिन शिक्षित नहीं। अभी तक हमारी शिक्षा व्यवस्था में जो कमियाँ थीं वो ठीक नहीं होंगी। हम बच्चों को बढ़िया शिक्षा नहीं दे पाएंगे बल्कि अब बढ़िया शिक्षा देना उद्देश्य ही नहीं रह जाएगा। अब हमें सिर्फ़ काम-चलाऊ साक्षरता देनी है।

एक छोटा बच्चा भी बोलना और सोचना-समझना साथ-साथ सीखता है, नाकि पहले बोलना और बाद में सोचना। लेकिन सरकार को शिक्षाशास्त्र से नहीं एनजीओ से सरोकार है जो ऐसे खोखले और ख़तरनाक प्रोग्राम बेचते हैं। क्योंकि ये एनजीओ भी अक़सर उन्हीं कंपनियों के एजेंट होते हैं जो आगे चलकर हमारे विद्यार्थियों में से ही सस्ते मज़दूर छाँटती हैं।

ii. इसके अलावा नीति में साल-भर और दिन-भर अलग-अलग कार्यक्रम चलाए जाने की बात है। अभी भी स्कूलों के टाइम-टेबल के साथ रोज़ छेड़खानी होती है। रोज़ इतने नए आदेश, सर्कुलर, प्रोग्राम आते हैं कि शिक्षक परेशान हो जाते हैं और पढ़ाई ठन्डे बस्ते में चली जाती है। अभी भी हम शिक्षक यह महसूस करते हैं कि पढ़ाने का समय घटता जा रहा है। अब तो और घटेगा क्योंकि बिंदु 4.5 खुले रूप से कहता है कि पाठ्यचर्या को हल्का करके सिर्फ़ मौलिक सिद्धाँत सिखाए जाएँगे। बिंदु 7.11 कहता है कि बच्चों को हर हफ़्ते बाल-भवन ले जाना है। अनुभवजनित अधिगम (experiential learning) के नाम पर बिखरे हुए खेल परोसे गए हैं। बच्चों को स्कूल में पढ़ाना नहीं बस 'टाइमपास' करवाना है। क्या हम शिक्षकों को यह मंज़ूर है?

इन बिंदुओं से ज़ाहिर है कि यह नीति बच्चों को गहन शिक्षण से दूर करेगी। जैसे अंग्रेज़ों ने भारतीयों के साथ किया कि इन्हें सिर्फ़ क्लर्क बनाने वाली पढ़ाई कराओ, वैसे ही आज बहुजन व मेहनतकश वर्ग के बच्चों के साथ किया जा रहा है कि इन्हें सिर्फ़ सस्ते-ग़ुलाम मज़दूर बनाने वाली पढ़ाई कराओ।

शिक्षा नीति से हमारी तीसरी ज़रूरत - शिक्षा बच्चों को कुशल बनाए ताकि वे जब भी काम-धंधों में उतरें तो आत्मविश्वासी महसूस करें। 

i. इस नीति का वोकेशनल शिक्षा पर बहुत ज़ोर है। आलम ये है कि एक जगह तो वोकेशनल शिक्षा का ज़िक्र प्री-प्राइमरी के संदर्भ में भी आया है। नीति में नौकरी के लिए तैयार करने के नाम पर बिंदु 16.4 में कक्षा 6 से ही बच्चों को काम सिखाने की बात की गई है। काम तो मज़दूरों के बच्चों को हालात वैसे भी सिखा देते थे, स्कूल तो वे अपने बच्चों को पढ़ने के लिए भेजते थे।

पहले भी तो हमारे स्कूलों में SUPW (समाजोपयोगी उत्पादक कार्य) जैसे विषय चलते थे जिनका उद्देश्य बच्चों में हुनर व हॉबी विकसित करना था। उनका क्या हुआ? क्यों ये विषय बच्चों में हाथ के कौशल विकसित करने में सफल नहीं हो पाए? इस सवाल का उत्तर खोजने के बजाय यह नीति कक्षा 6 से ही नौकरी के लिए पढ़ने को सही ठहराती है। दरअसल इसका एजेंडा कौशल सिखाना भी नहीं है। इसका एजेंडा है 'नौकरी के डर' को शिक्षा के केंद्र में इस तरह स्थापित करना कि शिक्षा अपने उद्देश्यों से ही भटक जाए। वरना क्या यह सच नीति निर्माताओं से छिपा है कि नौकरियों का गणित मुख्यत: आर्थिक सत्ता पर क़ाबिज़ ताक़तें (social relations of production) तय करती हैं, नाकि शिक्षा! 

आज हम शिक्षक Enterpreneurship Curriculum (EMC) सिखाने के नाम पर बच्चों के साथ धोख़ा कर रहे हैं। वो कौन-सा अर्थशास्त्र है जो यह कहता है 'कोई भी पैसे कमा सकता है बस सोच की बात है'? क्या इतिहास इसकी गवाही देता है?

आज की सच्चाई यह है कि सरकारी स्कूलों के बच्चे वोकेशनल शिक्षा के नाम पर कक्षा 11-12 में पार्लर में जाकर काम करते हैं, रिटेल की दुकान पर सामान बेचते हैं आदि, और प्राइवेट स्कूलों के बच्चे फ़ैशन डिज़ाइनिंग और इंजीनियरिंग की ट्रेनिंग करते हैं। क्या यह नीति कोई जादू कर देगी और अब यह ग़ैर-बराबरी ख़त्म हो जाएगी? क्या अब संसाधनपूर्ण प्राइवेट स्कूलों के बच्चे भी कमतर समझे जाने वाले कामों को कौशल विकास मानकर सीखना-करना शुरू कर देंगे

जब  बिंदु 4.27 कहता है कि बच्चे 10 दिन बिना-बस्ता (bagless) ग़ुज़ारेंगे और आस-पास के वोकेशनल विशेषज्ञों से मिलेंगे, जैसे बढ़ई, माली,कुम्हार, मैकेनिक आदि, तो क्या उन्हें यह भी समझने दिया जाएगा कि भारत में हाथ के काम कैसे जातिगत ढंग से बँटे थे और बँटे हैं? इनके काम का मेहनताना कम क्यों हैं? इन्हें बड़ी पूँजी से प्रतिस्पर्धा करने में क्या दिक्क़तें आती हैं? हर हाथ को काम और काम का पूरा दाम क्यों नहीं मिलता? सरकार की श्रम नीतियों में क्या कमियाँ हैं? आदि। क्या हम मध्य-वर्गीय शिक्षक इस बात के लिए राज़ी हो जाएँगे कि हमारे अपने बच्चों को पंखा ठीक करना तो सिखाओ लेकिन बिजली के भौतिक विज्ञानी सिद्धाँत नहीं; गाड़ी की मरम्मत करना तो सिखाओ लेकिन उसका विज्ञान नहीं; काउंटर पर खड़े होकर कपड़ा बेचना तो सिखाओ लेकिन कपड़े की डिज़ाइनिंग व इतिहास नहीं; डॉक्टर के यहाँ सफ़ाई करना तो सिखाओ लेकिन डॉक्टर बनना नहीं?

ii. वोकेशनल शिक्षा में सचमुच सुधार करना था तो जो दसवीं कक्षा के बाद आई. टी.आई.और पॉलीटेक्निक संस्थानों का ढाँचा पहले-से ही खड़ा था, उसे क्यों नहीं सुधारा गया? उसे कितना ताज़ा किया गया है और औद्योगिक विज्ञान से कितना जोड़ा गया है? क्या उसमें फ़ंड और प्रैक्टिकल ट्रेनिंग बढ़ाने पर विचार किया गया?

स्कूल में 1-1, 2-2 साल अलग-अलग हॉबी सिखाने से बच्चे कौन-से वोकेशन में माहिर हो जाएँगे? 8वीं, 10वीं पास वोकेशनल सर्टिफ़िकेट वाले बच्चों को नौकरियाँ मिल भी जाएँगी तो उनकी तनख़्वाहें कितनी होंगी? यहां स्नातक/आई.टी.आई. पास किए हुए को 10-15,000 रुपये की नौकरी नहीं मिल रही, इन्हें क्या मिलेगा! बल्कि, इनकी कम शिक्षा और कम उम्र के चलते इनसे सस्ते मज़दूर का काम लिया जायेगा और बाज़ार में बाक़ियों का वेतन भी गिरेगा। 

iii. इसे इस बात से भी जोड़ कर देखने की ज़रूरत है कि बिंदु 4.38 कहता है कि बोर्ड परीक्षाएँ सरल कर दी जाएँगी। जिसका सीधा मतलब है कि आकादमिक जगत या बाज़ार में बोर्ड परीक्षाओं की कोई क़ीमत नहीं रहेगी। बोर्ड के नंबर के आधार पर किसी यूनिवर्सिटी में दाख़िला नहीं मिलेगा।

जैसे मेडिकल और इंजीनियरिंग के लिए नीट (NEET) परीक्षा होती है, उसी तरह बिंदु 4.43 में लिखा है कि NTA (नेशनल टेस्टिंग एजेंसी) विज्ञान, वाणिज्य, कला, वोकेशनल कोर्सों के बच्चों के लिए भी समान प्रवेश परीक्षा लेगी। विश्वविद्यालय इन नंबरों का इस्तेमाल करके दाख़िला देंगे। यानी कोचिंग और गलाकाट प्रतिस्पर्धा अब सामान्य स्नातक कोर्स में प्रवेश के लिए भी शुरू। बोर्ड की मेरिट लिस्ट से अब तक जो थोड़े-बहुत 'साधारण' घरों के बच्चे यूनिवर्सिटी पहुँच पाते थे, अब तो वो भी ख़त्म हो जायेगा। उनके लिए नियमित बी.ए. करना और  मुश्किल होता जायेगा। नीति ने कोचिंग का बोझ कम करने का यह निराला तरीक़ा निकाला है! नए कॉलेजों को खोलने के बजाय यूनिवर्सिटी में दाख़िले मुश्किल करके आमजन के बच्चों को बाहर रखने का सस्ता रास्ता अपनाया गया है।  

नीति के रटन पद्धति ख़त्म करने के दावे का पर्दाफ़ाश करने के लिए इससे बड़ा सबूत क्या हो सकता है कि हर परीक्षा बहु-विकल्प (MCQ) टेस्ट आधारित होती जा रही है और होती जाएगी। क्या इस शिक्षा ने रटन पद्धति ख़त्म करने के लिए उचित संसाधन (शिक्षक, लैब्स आदि) बढ़ाए, गहन शिक्षण और लेखन अभ्यास का समय सुनिश्चित किया, आदि?

ऊपर लिखी बातों से यह तो साफ़ है कि इस नीति में साक्षरता और वोकेशनल शिक्षा के नाम पर गहन शिक्षण को हटा दिया गया है। देखा जाए तो बाज़ार की ज़रूरत भी यही है। पढ़े-लिखे बच्चों के लिए वैसे ही नौकरियाँ नहीं है और देश-दुनिया की बड़ी ताक़तें आगे ऑटोमेशन लादने पर आमादा हैं। जो सरल बुद्धि और कम वेतन माँगने वाले मज़दूर इस दौर को चाहिए, वो शिक्षा व्यवस्था तैयार करके देती रहेगी। यह पूरा मामला कौशल और शिक्षा का है ही नहीं, बल्कि ग़ैर-बराबर व्यवस्था को बनाए रखने का है।

शिक्षा नीति से हमारी चौथी ज़रूरत - बच्चों को समय पर उनके लाभ और वजीफ़े पहुँचे। आर्थिक स्थिति को देखते हुए वज़ीफों का दायरा बढ़ाया जाए। 

बिंदु 6.2.1. में यह तो चिन्हित किया गया कि यू-डाइस (U-DISE) 2016-17 डाटा के अनुसार SC पृष्ठभूमि के विद्यार्थियों की संख्या प्राथमिक कक्षाओं में 19.6% से घटकर उच्च माध्यमिक कक्षाओं में 17.3% रह जाती है, ST पृष्ठभूमि के विद्यार्थियों की संख्या 10.6% से घटकर 6.8% रह जाती है, विशेष ज़रूरत वाले बच्चों की संख्या 1.1% से घटकर 0.25% रह जाती है और इन सभी में लड़कियों की संख्या में तुलनात्मक रूप से ज़्यादा गिरावट आती है। लेकिन नीति में इस समस्या से जुड़ा कोई वस्तुपरक विशेलषण या सुझाव नहीं है, बल्कि अब यह समस्या और विकराल बनेगी। 

आज अधिकतर वज़ीफ़ों का आवेदन डिजिटल किया जा रहा है जिस कारण ज़्यादातर बच्चे वज़ीफों के आवेदन कर ही नहीं पाते। अल्पसंख्यक विद्यार्थियों के लिए pre and post matric स्कॉलरशिप के बेहद कम आवेदन इसका ताज़ा उदाहरण है। ज़माने से चली आ रही सच्चाई तो यह है कि अनुसूचित जाति/जनजाति/पिछड़ा वर्ग के न जाने कितने बच्चे जाति प्रमाण-पत्र बनवा ही नहीं पाते; इस पर अब ज़िला अधिकारी से प्रमाणित आय प्रमाण-पत्र (इनकम सर्टिफ़िकेट) जैसे काग़ज़ों को अनिवार्य बनाया जा रहा है, जिसे ज़्यादातर परिवार ला ही नहीं पाते। 

इस नीति में जिन योग्यता-आधारित छात्रवृत्तियों (merit based scholarship) का गुणगान किया गया है, वो तो हमारे स्कूलों में पहले ही लागू हो गई हैं। स्टेशनरी वज़ीफ़े को 'मेरिट' से जोड़कर उन बच्चों को भी स्टेशनरी के पैसे से वंचित कर दिया गया जिनके अंक कक्षा 9-10 में 50% से कम और 11-12 में 60% से कम थे। 2021-22 से विशेष ज़रूरत वाले बच्चों (CWSN) को भी उनका पूरा वज़ीफ़ा तभी मिलेगा जब उनकी न्यूनतम उपस्थिति 50-40% होगी। 

हज़ारों-लाखों बच्चों के टाले गए वज़ीफ़ों के पैसों पर सरकारी खातों में ब्याज मिलता रहता है। शिक्षक होने के नाते हम अपने-अपने स्कूलों में ये आँकड़े इकट्ठे कर सकते हैं कि साल-दर-साल कितने बच्चे वज़ीफों से वंचित हो रहे हैं, इसके पीछे कौन-से संस्थागत व अन्य कारण हैं; हमें अभिभावकों को सचेत करना होगा और बच्चों को उनके हक़ के प्रति जागरूक करना होगा। इस मुद्दे को हर आवश्यक पटल पर उठाना होगा। वज़ीफों को लेकर नीति का पक्ष साफ़ है - जनख़र्च से हाथ खींचना। बच्चों को मौलिक कर्त्तव्य सिखाने की नीति की रट (जिसे हमारे स्कूलों में लागू भी कर दिया गया है) और मौलिक अधिकारों पर पूरी चुप्पी यह साफ़ करती है कि नीति-निर्माता जागरूक नागरिकों का नहीं, बल्कि आदेशपालक प्रजा का निर्माण करना चाहते हैं। 

जब यह नीति ऊपर लिखी किसी आधारभूत माँग पर खरी नहीं उतरती तो हमें शहद में लिपटे कुछ और शब्दों को भी सच्चाई की कसौटी पर जाँचना होगा।

i. बिंदु 4.9 & 4.10 में 'विषय चुनने में लचीलेपन' की बात की गई है। सुनने में भी अच्छा लगता है कि बच्चे विषयों के जो विकल्प पढ़ना चाहेंगे, पढ़ सकेंगे। लेकिन क्या यह इतना आसान होगा कि हमारे सरकारी स्कूलों में बच्चे भौतिक विज्ञान और संगीत साथ पढ़ सकेंगे? आज जो विज्ञान और कॉमर्स के विकल्प हैं, वो तो घटते जा रहे हैं। 2019-20 में कक्षा 11 में विज्ञान, वाणिज्य और कला विकल्प में बच्चों के नामांकन प्रतिशत का सच यह है - 7.5%, 12.9%, 79.5% (शेष वोकेशनल)। यानी दिल्ली के सरकारी स्कूलों में 10% विद्यार्थी भी कक्षा 11 में विज्ञान नहीं ले पा रहे और इसके पीछे के कारण हमसे छिपे नहीं है। ऐसे में यह दावा किस ज़मीन पर खड़ा है कि अब हमारे विद्यार्थियों के सामने ठोस विकल्पों का भंडार खुलेगा।

ii. हालाँकि, नीति में आलोचनात्मक शिक्षण, वैज्ञानिक चिंतन के नाम तो लिए गए हैं लेकिन औपचारिकता भर के लिए। राष्ट्रीय पाठ्यचर्या रूपरेखा (NCF) 2005 के केंद्र में भी आलोचनात्मक चिंतन था। पिछले 15 सालों में इसके लागू न हो पाने के क्या कारण रहे, जो अब 4.31 में नया NCF लाने की बात कही गई है? बल्कि अब तो यह और मुश्किल होगा क्योंकि जब आठवीं कक्षा तक साक्षरता ही सिखाएँगे तो नौवीं से बच्चे गहन आलोचनात्मक चिंतन के लिए सक्षम कैसे होंगे? वैसे भी एक समय में एक ही विकल्प संभव है - या तो सचेत, आलोचनात्मक, जुझारू जनता या गर्दन झुकाकर चुपचाप काम करने वाली और जयकारा लगाने वाली भीड़। 

iii. इस नीति में शिक्षकों की पदोन्नति को लेकर जो दूरगामी बदलाव सुझाए गए हैं; हम शिक्षकों के लिए उन पर बात करना बेहद ज़रूरी है। हमारे स्कूलों में कार्य-समीक्षा की वार्षिक रपट (APAR) के बदलते स्वरूप में परीक्षा परिणाम अहम है। बिंदु 5.17 में योग्यता-आधारित टेन्योर, प्रोन्नति और वेतन के ढाँचे की बात की गई है। तो अब उन शिक्षकों का क्या होगा जिनके पास कम अंक वाले बच्चों की संख्या ज़्यादा है या जिनके पास प्रवासी मज़दूरों के बच्चों की संख्या ज़्यादा है या जिनके पास CWSN ज़्यादा हैं? इसके अलावा शिक्षकों के 'समर्पित' होने को भी पैमाना माना जायेगा, जिसका मतलब साफ़तौर से यही होगा कि स्कूलों में शिक्षकों द्वारा विद्यार्थियों के हितों व विवेक को तरजीह देने को नहीं, बल्कि प्रशासन-अधिकारियों के सही-ग़लत आदेश मानने को पुरस्कृत किया जायेगा। पुरानी व्यवस्था में पदोन्नति के जो मायने थे - शैक्षिक योग्यता, अनुभव (कार्यसेवा अवधि) और सामाजिक न्याय - उन वस्तुपरक पैमानों का क्या होगा? इसका सीधा असर यह होगा कि शिक्षक लर्निंग आउटकम (परिणाम) वाली बाज़ारनुमा शिक्षा देने के लिए बाध्य होंगे और प्रशासन के लिए उन पर नियंत्रण कसना आसान हो जाएगा। अमरीकी शिक्षाविद्व डायेन रैविच (Dianne Ravitch) अपनी किताब 'The Death and the Life of the Great American School System' में इस पद्धति के ख़तरों को तमाम सबूतों के साथ उजागर कर चुकी हैं।

iv. हर शिक्षा नीति कहती आई है कि जीडीपी का 6% पैसा शिक्षा पर ख़र्च किया जाएगा। इस नीति ने भी यही कहा है, लेकिन कोई समय-सीमा या बाध्यता तय नहीं की है। ऐसे तो स्थिति ज्यों-की-त्यों बनी रहेगी। बल्कि, बार-बार प्राइवेट परोपकारी संस्थाओं की मदद लेने की बात करके, बच्चों को ओपन में भेजने, पक्के शिक्षकों की बजाय एनजीओ-वॉलंटियर्स को रखने तथा स्कूल कॉम्पलेक्स बनाने की बात करके सरकार द्वारा शिक्षा में ख़र्च कम करने के इशारे ही किये गए हैं। ज़रूरत तो यह थी कि 6% जीडीपी नहीं, बल्कि दशकों की कमी को पूरा करने के लिए 10% जीडीपी ख़र्च करने की ठोस और समय निर्धारित योजना बताई जाती ।

ऊपर लिखी समस्याओं के अलावा हम तीन और मुद्दे रेखांकित करना चाहेंगे जिन पर चुप्पी तोड़नी होगी - 

i. आज सरकारी स्कूलों की भूमिका बेहद ख़तरे में है। सरकारी स्कूल जनता के स्कूल हैं लेकिन इन पर लगातार हमला करके इनका चरित्र बदला जा रहा है। इनकी इमारतों और कर्मचारियों की भूमिका सरकारी आदेशों को लागू करवाने भर की रह गई है - 'आधार' बनवाना, खाते खुलवाना, टीकाकरण आदि। यहाँ पर बच्चों को साक्षरता सिखाई जाएगी, लेकिन उन्हें अशिक्षित रखा जाएगा। बचपन से ही बार-बार बच्चों को प्रधान मंत्री और मुख्य मंत्री आदि के कार्यक्रम जबरन दिखाकर और उनका प्रचार सुनाकर 'वफ़ादार जनता' के ढाँचे में डाला जा रहा है।

नव-उदारवाद के दौर में सरकारें सार्वजनिक स्कूल व्यवस्था से एक और काम लेती हैं - रेलवे, एयरवे, खदान जैसे अन्य जन संसाधनों की तरह इन्हें भी प्राइवेट पूँजी के मुनाफ़े का स्रोत बनाना। सरकारी स्कूलों के बने-बनाये ढाँचे से पैसे कमाने के ज़रिये खोजना। इसका ताज़ा उदाहरण है - स्टार्स कार्यक्रम जिसे विश्व बैंक की योजना के अमल में पहली से बारहवीं कक्षा तक, 6 राज्यों के सरकारी स्कूलों में लागू किया जा रहा है। आख़िर विश्व बैंक का, जोकि एक अंतर्राष्ट्रीय वित्तीय संस्था है, शिक्षा से क्या लेना-देना है जो सरकार इसे हमारी शिक्षा व्यवस्था की बागडोर सौंप रही है? न ही उसे ये जनादेश व अख़्तियार मिला है, और न ही वो शिक्षा के विषय में क़ाबीलियत रखता है। हाँ, उसकी क़ाबीलियत कुछ और ज़रूर है जो हमारी सरकारों को रास आ रही है! हमें शिक्षा को दाँव पर लगाने वाली इस निर्लज्ज सौदेबाज़ी को बर्दाश्त नहीं करना चाहिए।   

ii. भविष्य में पर्यावरण संकट इंसानी समाज को नियंत्रित करने वाला सबसे बड़ा कारक हो सकता है। कोरोना-महामारी ने हमें अपनी व्यवस्था के असंतुलन की झलक-भर दी है। इस संदर्भ में शिक्षा को अपने किरदार को पुन: खंगालना होगा। अफ़सोस कि इस नीति में समस्त जीवन पर मंडरा रहे मानव-निर्मित पर्यावरणीय संकट पर गंभीर चिंता तो क्या, न्यूनतम सच्चाई बयान करने की ईमानदारी व हिम्मत भी नहीं दिखाई गई है। 

iii. जिस दिशा में वैश्विक अर्थव्यवस्था जा रही है, उसमें मशीनीकरण और ऑटोमेशन बड़ी वास्तविकताएँ होंगी। ऑटोमेशन की तकनीकी को इस्तेमाल करने वाले क्षेत्रों को बहुत कम संख्या में मामूली पढ़े-लिखे कुशल मज़दूर चाहिए होंगे और अधिकतर लोग अकुशल मज़दूरों की तरह काम करने को विवश होंगे। नौकरियाँ कम होती जाएँगी और बेरोज़गारी बढ़ती जाएगी। जिन्हें नौकरियाँ मिलेंगी भी, उन्हें अधिकांशत: ठेके पर और कम वेतन वाली नौकरियाँ ही मिलेंगी। वैसे ही, अधिकतम जनता दिन-रात अपना श्रम बेचकर किसी तरह पेट पाल रही है। यह स्थिति और संकटग्रस्त बनेगी। ऐसे में हमें तय करना होगा कि शिक्षा और शिक्षक किस तरफ़ खड़े होंगे और कैसी शिक्षा की माँग करेंगे।

हमें ऐसी शिक्षा नीति चाहिए -

i. जिसमें हर बच्चे को KG से लेकर PG तक मुफ़्त और समान स्तर की शिक्षा मिले। दाख़िले सरल व अनिवार्य हों और शिक्षा गहरी हो।

ii. जो स्कूलों की ग़ैर-बराबर परतों की व्यवस्था (सर्वोदय/प्रतिभा/schools of excellence/प्राइवेट आदि) को ख़त्म करे। 

iii. जिसमें शिक्षण से जुड़ी हर कर्मचारी की पक्की नियुक्ति हो और तय समय-सीमा में पर्याप्त संख्या में भर्तियाँ सुनिश्चित हों। 

iv. जो सामाजिक न्याय को मज़बूत करे; नामाँकन, वज़ीफों, नियुक्तियोंपदोन्नति आदि में सामाजिक न्याय के उसूलों व प्रावधानों का मुकम्मल पालन हो।

 v. जो बच्चों को मुनाफ़े की ग़ुलाम मानसिकता की बजाय पर्यावरण को केंद्र में रखकर सोचना सिखाए। vi. जो श्रम के शोषण को पहचानना और उसके ख़िलाफ़ लड़ना सिखाये। 

vii. जो विविधताओं को ससम्मान शामिल करे और लिंग-जाति-वर्ग-धर्म-क्षेत्र-भाषा-शरीर आधारित विषमताओं के ख़िलाफ़ खड़ी हो।  

viii. जो सरकारी स्कूलों के ढाँचों व प्रक्रियाओं को निजीकरण-बाज़ारीकरण के हवाले न करे।