Monday 14 December 2020

रिपोर्ट : कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ किसानों के आंदोलन पर आयोजित चर्चा की संक्षिप्त रपट

कृषि से जुड़े तीन क़ानूनों व बिजली क़ानून में प्रस्तावित संशोधन के ख़िलाफ़ चल रहे किसान आंदोलन को बेहतर ढंग से समझने के लिए लोक शिक्षक मंच द्वारा 13 दिसंबर को दोपहर 3:30 बजे एक ऑनलाइन चर्चा आयोजित की गई। यह चर्चा शाम 5:30 बजे तक चली। चर्चा का विषय था - 'कृषि क़ानून क्या हैं? किसान आंदोलन क्यों कर रहे हैं? हम शिक्षा कर्मियों के लिए इस विषय को समझना क्यों ज़रूरी है?' इसमें वक्ता के रूप में साथी जतिंदर ने बात रखी जोकि पंजाबी यूनिवर्सिटी (पटियाला) में पढ़ाते हैं एवं दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति विज्ञान विभाग में पीएचडी शोधार्थी हैं। 


साथी जतिंदर ने अपने वक्तव्य को मोटे तौर पर तीन हिस्सों में बाँटा। पहले हिस्से में उन्होंने इन अधिनियमों के संदर्भ व विषयवस्तु को प्रस्तुत करते हुए निम्नलिखित आलोचनाएँ पेश कीं -
1. कोरोना महामारी के आपातकाल के दौरान इन अध्यादेशों को लाना और फिर राज्य सभा में तिकड़मी रूप से इन क़ानूनों को पारित करना सरकार की मंशा पर गंभीर सवाल खड़े करता है।
2. इन क़ानूनों में विवाद के निपटारे व शिकायत के लिए न्यायपालिका का रास्ता बंद करके अफ़सरशाही को ज़िम्मेदार बनाया जाना नागरिक अधिकारों व लोकतंत्र के मौलिक चरित्र पर आघात करता है।
3. कृषि के विषय पर, जोकि संवैधानिक रूप से राज्यों के अधिकार क्षेत्र का मामला है, केंद्रीय क़ानून थोपना व इनमें राज्य सरकारों को केंद्र के तमाम निर्देशों-नियमों को मानने पर मजबूर करना संविधान व राज्य के संघीय चरित्र पर हमला है। 
4. आवश्यक वस्तुओं की परिभाषा को पूरी तरह पलट कर जमाख़ोरी का रास्ता साफ़ करना न सिर्फ़ कॉर्पोरेट पूँजी के हितों को साधना है, बल्कि आवश्यक खाद्य वस्तुओं के दामों में बेतहाशा बढ़ोतरी को निश्चित करने वाला जनविरोधी क़दम है। 
5. ठेके पर किसानी के सब्ज़बाग़ देखने के झाँसे में किसान इसलिए नहीं आ रहे हैं क्योंकि कंपनियों के साथ उनका कड़वा अनुभव उन्हें इसकी सच्चाई से वाक़िफ़ करा चुका है।

दूसरे हिस्से में उन्होंने इस आंदोलन की यात्रा को सामने रखा। उन्होंने मुख्यतः पंजाब, और साथ ही हरियाणा, में अध्यादेशों के आने की शुरुआत से ही किसान संगठनों द्वारा स्पष्ट विरोध की कार्रवाइयों को चिन्हित करते हुए लोगों के बीच आंदोलन की व्यापकता व गहराई को दर्शाया। इसी क्रम में उन्होंने आंदोलन के सांगठनिक आधार, उसकी विविध रणनीतियाँ, कार्रवाइयाँ, मज़बूती व क्रमशः विकास के सफ़र का वर्णन किया। उन्होंने यह स्थापित किया कि आंदोलन द्वारा दिल्ली आने, सड़कों पर डेरा डालने, सत्ता के केंद्र की घेराबंदी करने जैसे क़दम सरकार के अलोकतांत्रिक, असंवेदनशील व तानाशाही प्रतिक्रिया का परिणाम थे। एक तरह से, सरकार के अहंकार और ज़िद ने किसानों के सामने आंदोलन को मज़बूत करने के सिवाय कोई विकल्प नहीं छोड़ा। 

तीसरे हिस्से में उन्होंने किसानी की आर्थिक-सामाजिक व्यवस्था से जुड़े जाति, महिला, भूमिहीन खेत मज़दूर, संपन्न भूपतियों के सामंती रवैया जैसे अनसुलझे गंभीर प्रश्नों को इस आंदोलन की सीमा के रूप में पहचाना। हालाँकि, उन्होंने यह भी रेखांकित किया कि इसमें शामिल लोगों की विविध पृष्ठभूमियों के मद्देनज़र इसे मात्र संपन्न किसानों का आंदोलन बताना ग़लत होगा। दूसरी ओर, उनके अनुसार, इस आंदोलन के साथ खड़े होने और खेती के साथ जुड़े पर्यावरण व 'हरित क्रांति' के इन जटिल प्रश्नों को उठाने में कोई अनिवार्य विरोधाभास नहीं है। अंत में, उन्होंने इस आंदोलन के महत्व को आज के भारतीय राज्य के तानाशाही चलन के संदर्भ में लोकतंत्र को संजोये रखने व सत्ता तथा संसाधनों के केंद्रीकरण के ख़िलाफ़ उम्मीद की एक किरण के रूप में रेखांकित किया। 

उनके वक्तव्य के बाद लोक शिक्षक मंच के साथी फ़िरोज़ ने उनकी बातों को जोड़ते हुए मंच की ओर से बातें रखीं। इनमें मुख्यतः आंदोलनों को समझने को लेकर शिक्षकों की पेशागत व बौद्धिक ज़िम्मेदारी तथा प्रेरणा के महत्व को सामने रखते हुए, हालिया समय में राज्य की जनविरोधी नीतियों-क़ानूनों के ख़िलाफ़ मज़दूरों, किसानों, वकीलों, डॉक्टरों आदि के स्पष्ट विरोधों के बरक़्स शिक्षा के विषय में शिक्षकों की तुलनात्मक उदासीनता के प्रति चिंता ज़ाहिर की गई। इस 'निर्पेक्षता' के संभावित कारण ढूँढने की दिशा में स्कूली शिक्षकों का ख़ुद को बौद्धिक जनकर्मी के बजाय सरकारी कर्मचारी के रूप में देखना, शिक्षा का यथास्थितिवादी चरित्र, व्यापक विमर्श में भौतिक जगत व हितों से शिक्षा के रिश्ते पर पर्दा पड़े रहना, वर्गीय चेतना आदि को चिन्हित किया गया। किसानी के इन क़ानूनों की नवउदारवादी ज़मीन की तुलना शिक्षा की दुनिया में हुए व जारी समानांतर क़ानूनों-नीतियों से की गई। इनमें शिक्षा अधिकार अधिनियम (2009) द्वारा सार्वजनिक शिक्षा को मज़बूत करने के बदले (मुठ्ठीभर) लोगों को निजी स्कूलों का प्रलोभनकारी विकल्प देने की आड़ में सार्वजनिक व्यवस्था को कमज़ोर करने, विद्यार्थियों को मिलने वाले लाभों को सीधे नक़द हस्तांतरण में ढालकर उनके हक़ छीनने/उलझाने व शिक्षकों व स्कूलों पर केंद्रीकरण के लगातार बढ़ते शिकंजे को समानांतर उदाहरणों के रूप में चिन्हित किया गया। अंत में, इस ज़रूरत पर बल दिया गया कि शिक्षक संगठनों को किसानों के इस आंदोलन को वैचारिक मज़बूती से खड़ा करने में विभिन्न किसान संगठनों की जनचेतना की कार्रवाइयों से सीखकर तथा प्रेरणा लेकर शिक्षकों व जनता के बीच अध्ययन, जागरूकता व चेतना का काम करना होगा। 

अंतिम सत्र में चर्चा में मौजूद विभिन्न साथियों ने अपनी शंकायें व टिप्पणियाँ साझा कीं और साथी जतिंदर ने धैर्यपूर्वक उनका क्रमवार जवाब दिया। मुख्यतः सवाल/टिप्पणियाँ आंदोलन के जातिगत चरित्र, मर्दानगी की छवि, पिछले कुछ सालों के अनुभव के संदर्भ में न्यायपालिका से उम्मीद रखने, सत्ता के दमनकारी रवैये के सामने आंदोलन के भविष्य आदि को लेकर थे। चर्चा आंदोलन को और गहराई से जानने-समझने व जुड़ने की मंशा के इज़हार तथा साथी जतिंदर को शुक्रिया अदा करने पर समाप्त हुई।  

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