Monday 1 October 2012

टेक महिंद्रा शिक्षक सम्मान वापिस करने का फैसला


टेक महिंद्रा शिक्षक सम्मान वापिस करने का फैसला 
दोस्तों 
मैंने दिसम्बर 2011 में अपने एक मित्र और सहकर्मी के कहने पर इस सम्मान के लिए अपना आवेदन पत्र भरा . उस समय मेरे मन में पूर्व के सम्मान विजेता शिक्षकों से बात करके भी- यही धारणा बनी कि यह सम्मान शिक्षकों को उनकी काबीलियत के अनुसार ही मिलता है. इसमें हमारे विभाग द्वारा दिए जाने वाले पुरस्कारों का तत्व शामिल नहीं है अर्थात यह पुरस्कार आपको अपने विद्यार्थियों के साथ शिक्षण को ध्यान में रख कर, बिना किसी भेदभाव के दिया जाता है . मैं  यहाँ यह स्पष्ट कर दूँ  कि ऐसा नहीं है कि टेक महिंद्रा द्वारा दिए जाने वाले इस अवार्ड में किसी तरह का भेदभाव किया जाता है और मेरा इसको स्वीकार न करने का फैसला  भी इस पर आधारित नहीं है . बल्कि किसी भी शिक्षक को सम्मानित करने के लिए जिस तरह की प्रणाली अपनाई जानी चाहिए उसका इन्होंने बेहतर ढंग से पालन किया है . सबसे पहले ये आपसे आवेदन मांगते हैं इसके पश्चात उसमें से कुछ का चुनाव साक्षात्कार के लिए करते हैं और साक्षात्कार में दिल्ली के विश्वविद्यालयों के शिक्षाविद भी शामिल होते हैं. इसके पश्चात वो साक्षात्कार के आधार  पर आपका चुनाव आपकी कक्षा का निरीक्षण करने के लिए करते हैं और फिर आवेदन, साक्षात्कार और कक्षा निरीक्षण के आधार पर आपका चुनाव इस सम्मान के लिए करते हैं .

मेरी परेशानी आवेदन के साथ ही शुरू हो गयी. चूंकि मैंने अपना संपर्क एक मित्र के पते पर दिया हुआ था जो कि दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कॉलेज में पढ़ाते हैं. इसलिए मुझे अपने मित्र के द्वारा अपने साक्षात्कार के लिए चयनित होने का पता चला. उनको भी उनके एक सहकर्मी प्राध्यापक ने बताया जिनका कोई रिश्तेदार टेक महिंद्रा में कार्यरत है. मेरा साक्षात्कार नोएडा में टेक महिंद्रा के कॉर्पोरेट ऑफिस में हुआ. वहां का माहौल इस प्रकार का था जो कि मुझे सहज नहीं होने दे रहा था. वहां पूरा जमावड़ा अंग्रेजीजदा लोगों का था. और ऐसा नहीं था कि वहां सिर्फ मैं ही असहज अनुभव कर रहा था वहां मुझे और भी शिक्षक मित्र मिले जो कि असहज व्यवहार कर रहे थे. एक शिक्षक जो कि मुझे हर साल निगम के खेल आयोजनों में मिलते थे, और काफी गरमजोशी से मिलते थे, उनके  व्यव्हार में एक रूखापन था और वो मुझसे अंग्रेजी में बात करने की नाकाम कोशिश कर रहे थे. इसके पश्चात मुझे  साक्षात्कार लेने वाली टीम में मेरे एक परिचित दिखाई दिए वो मुझे देख कर मंद-मंद मुस्कुरा रहे थे. मेरा साक्षात्कार अच्छा हुआ, चूंकि अपने आवेदन में मैंने अपने द्वारा बच्चों के लिए पुस्तकालय चलाने  और हमारे समूह द्वारा विद्यालयों में शारीरिक दंड विषय पर पुस्तिका निकालने का जिक्र किया था. मार्च, 2012 में एक तीन सदस्य टीम ने मेरी कक्षा का निरीक्षण किया और अप्रैल 2012 में मुझे फ़ोन द्वारा सूचित किया कि मेरा चुनाव शिक्षक सम्मान के लिए कर लिया गया है 

            इसी  दौरान हमारे समूह ने विद्यालयों में गैर-सरकारी संघटनों  ( एन. जी. ओ. ) के बढ़ते हस्तक्षेप पर जांच-पड़ताल और पढ़ना शुरू किया और पाया कि गैर सरकारी संघटनों  ( एन. जी. ओ. ) और कार्पोरेट घरानों ( कार्पोरेट सोशल  रेस्पोंसिबिलिटी के तहत) की निगम के विद्यालयों में कुछ अधिक ही रूचि हो रही है. ये गैर सरकारी संघटन  ( एन . जी . ओ ) और कार्पोरेट घराने अपनी रिपोर्ट में ये साबित करने में लगे हुए हैं कि निगम में शिक्षा के गिरते स्तर का कारण शिक्षकों की पढ़ाने में रूचि का न होना है. और जब से इन लोगों ने यह काम शुरू किया है तब से बच्चों की शिक्षा के स्तर में गुणात्मक वृद्धि  हुई. ये बात हमने " सावधान आगे खतरा है  ! " नामक पर्चे में विस्तार से आप लोगों के साथ साझा की थी. जब हम लोगों ने शिक्षकों, शिक्षाविदों और शिक्षा के क्षेत्र में काम करने वाले लोगों से बात की तो हमें पता चला कि ये कोई अचानक घटी परिघटना नहीं है बल्कि ये सरकार की नव-उदारवादी नीतियों  का हिस्सा है (और साथ ही पुराने  शिक्षकों से बात करके पता चला कि पिछले चार पांच सालों में शिक्षकों के ऊपर गैर- शैक्षणिक कार्यों का बोझ बढ़ा है). इसके अलावा हम जिस सामाजिक-आर्थिक पृष्ठभूमि के विद्यार्थियों को पढ़ाते हैं उसमें से एक बड़ी संख्या पहली पीढ़ी विद्यार्थियों की है. इसके अतिरिक्त पिछले 15-20 सालों में विद्यालयों में जरुरी आधारभूत सहयोग भी नदारद है. इसके बरक्स गैर-सरकारी संघटनों  ( एन. जी. ओ. ) और कार्पोरेट घरानों की नजर सरकारी भूमि और भवन पर टिकी हुई है. इसका एक उदाहरण हमें निजामुद्दीन के निगम विद्यालय में देखने को मिला जहाँ ये बताने के बावजूद कि हम निगम के शिक्षक हैं वहां उपस्थित गार्ड ने हमें अन्दर तक नहीं जाने दिया. बातचीत करने पर पता चला कि यहाँ एक बजे तक तो निगम का विद्यालय चलता है और उसके पश्चात एक गैर-सरकारी संघटनों  ( एन. जी. ओ. ) का कम्प्यूटर कोर्स, पर्सनैलिटी डेवेलपमेंट कोर्स और अन्य शॉर्ट कोर्स चलते हैं और इसके लिए वहां आने वाले बच्चों से पैसा भी लिया जाता है. उन बच्चों को देख कर और उनके  बारे में बात करने पर पता चला कि इनमें से बहुत ही कम सरकारी विद्यालयों के बच्चे हैं- अधिकतर मध्यवर्गी परिवारों से आते हैं जो वहां अंग्रेजी बोलना और कम्पुटर सीखने आते हैं. इस प्रकार मेरी यह समझ बनी कि एक तरफ इस काम को करने के एवज में ये  गैर-सरकारी संघटन  (एन. जी. ओ.) देशी -विदेशी चंदा इकठ्ठा करते हैं और साथ ही वहां आने वाले बच्चों से भी पैसा वसूलते हैं, जबकि इनको भवन और अन्य सुविधाएँ निगम ने दे रखी हैं .
अब मैं फिर वापिस लौटता हूँ अपनी पहली बात पर कि मैंने टेक महिंद्रा शिक्षक सम्मान वापिस क्यों किया. इसके पीछे कई कारण हैं जो कि मै बिन्दुवार आप लोगों के सामने रखूँगा :

1 .  भोपाल गैस कांड --- दो दिसम्बर 1984 की रात को भोपाल कि कार्बाइड फैक्टरी में एक दुर्घटना हुई और इसके फलस्वरूप  भोपाल के (राज्य सरकार के हलफनामे के अनुसार) लगभग 3787 लोग गैस लीक से उसी समय मारे गये, 8000 लोग दुर्घटना के दो सप्ताह के अन्दर मर गये और 8000 लोग गैस से होने वाली बीमारियों से मारे गये. दुर्घटना का कारण प्लांट के रखरखाव में बरती जाने वाली अनियमिततायें और क्षमता से अधिक इस्तेमाल था. भोपाल गैस कांड पर जो भी रिपोर्ट आई उसमें यही बात निकल कर आयी कि रखरखाव पर किये जाने वाले खर्चे में कटौती करके लाखों लोगों की जानों के साथ समझौता किया गया. आज भी भोपाल गैस कांड के पीड़ित लोग न्याय के लिए संघर्ष कर रहे हैं. 25 सालों बाद जब फैसला आया तब केशुब महिंद्रा को दो साल की सजा दी गयी और सजा के तुरंत बाद ही उन्हें जमानत भी दे दी गयी. केशुब महिंद्रा भोपाल गैस कांड के समय उस कम्पनी के चेयरमैन थे. ये ही केशूब महिंद्रा अभी कुछ समय पहले तक महिंद्रा एंड महिंद्रा के कर्ता-धर्ता थे . इनके नाम से बहुत से गैर सरकारी संघटन  ( एन . जी . ओ ) चलाये जा रहे हैं. ये किस प्रकार का 'भलाईवादी' चरित्र है जिसमें कुछ पैसों के लालच में आप हजारों लोगों की जान को दाँव पर लगा देते हैं?

२.   विशेष शिक्षक का दर्जा : मैंने टेक महिंद्रा फाउंडेशन द्वारा आयोजित एक सेमिनार में भाग लिया और पाया कि वहां के लोग इन विजेता शिक्षकों / शिक्षिकाओं  को ये महसूस कराने में लगे थे कि गोया ये लोग कोई विशिष्ठ श्रेणी के शिक्षक हों. मेरा मानना है कि जिन शिक्षकों को ये अवार्ड दिया गया है वो बिना शक मेहनती और ईमानदार शिक्षक हैं और यह या इस जैसा कोई भी पुरुस्कार उनके काम की सराहना है. पर टेक महिंद्रा  फाउंडेशन  उन शिक्षकों को विशेष शिक्षक घोषित करके बाकी के शिक्षकों का परोक्ष अपमान ही कर रहा है. ये औपनिवेशिक मानसिकता की उपज है-  औपनिवेशिक काल में कुछ भारतीयों को अंग्रेजी शासकों द्वारा सर, खान बहादुर इत्यादि की उपाधि देकर विशेष दर्जा दिया जाता था. और बाकी के भारतीयों से उनका अलगाव बढाया जाता था. ये पुरुस्कार विजेता शिक्षक अपना काम बेहतर ढंग से ही कर थे हैं जिसके लिए ये लोग प्रशंसा के हकदार हैं पर इस काम के लिए इन्हें निगम से मोटी सेलरी मिलती है. क्या फर्क है निगम अवार्ड की राजनीती-दर्शन व ऐसे कोर्पोरेट अवार्ड्स में? क्या हमें रोमिला थापर के अनुसार केवल ऐसे सम्मानों को स्वीकार करना चाहिए जिन्हें पेशेवर/पेशागत समूहों ने स्थापित किया व चुना हो? सरकारी अवार्ड के अतिरिक्त निजी संस्था से अवार्ड प्राप्त करने का मतलब है कि आप उसकी शिक्षणशास्त्रीय-राजनीतिक विश्वसनीयता को प्रमाणित कर रहे हैं. इससे हमें अनुग्रहित होने, रीढ़ कमजोर होने, दखलंदाजी, तीनों का सबूत मिलता है. फिर यह निजी शक्तियों की दखलंदाजी है जिससे स्वायत्तता का हनन होता है. अनुग्रहित होने की सम्भावना से इनकार नहीं किया जा सकता. 

३. पिछले विजेताओं को सेमिनार के लिए बुलाना : टेक महिंद्रा  फाउंडेशन ने नगर निगम के साथ जो समझौता किया है या निगम से उन्हें जो आज्ञा पत्र मिला है उसमें साफ तौर पर इस बार के विजेता शिक्षकों को आधे दिन का जोड़ो-ज्ञान की कार्यशाला का उल्लेख है. कार्यशाला में टेक महिंद्रा  फाउंडेशन  ने पिछले  वर्षों के विजेता शिक्षकों को भी बुलाया हुआ था जो अपना विद्यालय छोड़ कर आये थे और इस कार्यशाला को करवाने में टेक महिंद्रा  फाउंडेशन की सहायता ( किट को बंटवाना, फोटोस्टेट करवाना, प्रतिभागियों से हस्ताक्षर करवाना, आदि) कर रहे  थे. इसी प्रकार तीन दिवसीय कार्यशाला  और घूमना-फिरना में भी पिछले विजेताओं ने भागीदारी की और यह कार्यक्रम भी शैक्षणिक कार्य-दिवसों में ही हुआ. इस तरह के शिक्षकों को कैसे बेहतर शिक्षक मान लिया जाये जिनकी शैक्षणिक कार्य-दिवसों में घूमने में अधिक रूचि हो! किसी एक प्रतिभागी ने भी इस पर अपनी आपत्ति दर्ज नहीं कराई कि अप्रैल में जब विजेताओं की घोषणा कर दी गयी थी तो घुमाने और कार्यशाला का आयोजन गर्मियों की छुट्टियों में क्यों नहीं किया गया. (इसके विपरीत जब मैंने ये बात कुछ प्रतिभागियों से की तो उनका जबाब था कि वो भी ऐसा ही चाहते हैं कि ये घूमने का कार्यक्रम विद्यालय समय में ही हो). 

४.   सीधे बात न करके विश्वास को भंग करना : टेक महिंद्रा  फाउंडेशन कि पहली मीटिंग में मै अपने व्यक्तिगत कारणों से जा नहीं पाया था. इसके पश्चात टेक महिंद्रा  फाउंडेशन की मैनेजर ने मेरे एक भूतपूर्व अफसर से शिकायत की. उन अफसर ने मुझे धमकाते हुए उनसे बात करने का आदेश सुनाया इसके बारे में मैं अपने पिछले अनुभवों में लिख चुका हूँ. जब मैंने इस अवार्ड के लिए आवेदन किया था तो यह मेरे और टेक महिंद्रा  फाउंडेशन  के बीच की बात थी इसके लिए मैंने किसी से भी कोई संस्तुति नहीं करवाई थी. जब मैं उस मीटिंग में नहीं गया तो टेक महिंद्रा  फाउंडेशन को मुझसे बात करनी चाहिए थी इसके बजाय उन्होंने मेरे  भूतपूर्व अफसर से शिकायत की और मुझ पर अपनी बातों को मनवाने का दबाव बनाया. यह मेरे और  टेक महिंद्रा  फाउंडेशन  के मध्य विश्वास को भंग करना था. इसके अतिरिक्त मुझे ये भी सूचना मिली कि 10 सितम्बर 2011  को टेक महिंद्रा के पिछले सभी विजेताओं का एक सेमिनार शक्ति नगर संस्थान में कराया गया था. उसमें उपस्थित न हो पाने वाले शिक्षकों को सहायक शिक्षा निदेशक के माध्यम से कारण बताओ नोटिस दिए गये और साथ ही 8  अक्टूबर 2011  को होने वाली कार्यशाला में शामिल होने के आदेश भी जारी किये गये. ये अवार्ड विजेता लोगों का सम्मान है या बंधुआ मजदूरी इसका फैसला मैं आप लोगों पर ही छोड़ता हूँ .  

५. अवार्ड देने पर दुबारा विचार करना : जब मैंने टेक महिंद्रा  फाउंडेशन  की मैनेजर से अपने भूतपूर्व  अधिकारी के कहने से बात की थी (जिसका जिक्र मैं पहले भी कर चुका हूँ ) तो उन्होंने सामंती ढंग से लगभग अपमानित करने के अंदाज में मुझसे कहा था कि मेरा उनकी मीटिंग में आना जरुरी है, चाहे उस समय मुझे कितना ही जरुरी काम हो, नहीं तो वो मुझे अवार्ड देने पर दुबारा विचार कर सकते हैं. यह बात किसी भी व्यक्ति के आत्म सम्मान को ठेस पहुँचाएगी.

६.   अवार्ड दिलवाना : मैंने इस लेख की शुरुआत में ही बताया की मैंने या मेरे जैसे बहुत से शिक्षकों ने इस अवार्ड के लिए अपना आवेदन इसलिए किया ताकि किसी से यह सुनने को न मिले कि ये अवार्ड किसी व्यक्ति ने दिलवाया है, चूंकि इस बात में ये निहित है कि आपकी क्षमताओं में कमी है जिसको कि अमुक व्यक्ति पूरा करता है. सबसे पहले तो मेरे मित्र के साथी प्राध्यापक ने ये जता दिया कि चूंकि मैं उनके साथी प्राध्यापक का मित्र हूँ तो मुझे ये अवार्ड मिलना तय था. इसके पश्चात साक्षात्कार समूह में बैठे मेरे परिचित व्यक्ति के हाव-भाव  ने ये जाहिर कर दिया कि वो ही मेरे अवार्ड के माई-बाप हैं और अंत में मेरे भूतपूर्व अफसर ने तो बोल ही दिया कि ये अवार्ड उन्होंने मुझे दिलवाया है. अब यदि मैं यह अवार्ड लेता हूँ तो मुझे ताउम्र अपनी क्षमताओं पर शक ही रहेगा.

७.   गैर सरकारी संघटनों  ( एन . जी . ओ ) और कार्पोरेट घरानों कि विद्यालयों में घुसपैठ : हमने पिछले कुछ महीनों में एन. जी. ओ.  और कार्पोरेट घरानों की निगम के विद्यालयों में खासी रूचि का कारण खोजना शुरू किया और पाया कि ये  गैर सरकारी संघटन  ( एन. जी. ओ.) और कार्पोरेट घराने लगातार निगम कि शिक्षा व्यवस्था में घुसपैठ कर रहे हैं और ये स्थापित करने में लगे हैं कि निगम की शिक्षा व्यवस्था के उद्धारक ये ही हैं. ये लोग लगातार अपनी रिपोर्ट में इस बात को स्थापित कर रहे हैं कि निगम की शिक्षा का स्तर गिर रहा है और इसका कारण निगम के शिक्षकों का पढ़ाने-लिखाने में रूचि न लेना है. लगातार शिक्षकों पर गैर-शैक्षणिक बोझ बढ़ाया जा रहा है और शिक्षा में  एन. जी. ओ.  और कार्पोरेट घरानों के लिए जगह बनाई जा रही है. यह सब स्वत: स्फूर्त नहीं हो रहा है बल्कि यह नीतियों के स्तर पर किया जा रहा है. लगातार सार्वजनिक-निजी-साझेदारी (पी. पी .पी.) की  नीतियों को लागू किया जा रहा है. एन. जी. ओ.  और कार्पोरेट घरानों की लालची नज़र सरकारी विद्यालयों द्वारा  समुदाय के बीच बर्षों की मेहनत से तैयार किये गये  सम्मान और भरोसे पर है. ये हमें सम्मानित करके समुदाय और शिक्षकों के बीच अपने लिए जगह बना रहे हैं  और ये एक तरह से सरकारी शिक्षा व्यवस्था के निजीकरण  की राह ही है. जैसा कि मुंबई में हो रहा है जहाँ कि सरकारी विद्यालयों को एन. जी. ओ.  और कार्पोरेट घरानों  को दे दिया गया है और कारण ये बताया जा रहा है कि अब मुंबई नगर पालिका इनको ठीक ढंग से चला नहीं पा रही है .

बाकी मैं ये  आप लोगों के विवेक पर छोड़ता हूँ कि आप मुझे सनकी समझें या स्वाभिमानी. पर मैंने पालतू होने से जो इंकार किया है वो मुझे दृढ़ता दे रहा है.  आप लोग यदि मेरे तर्कों से सहमत न हों तो मै बातचीत के लिए सदैव उपलब्ध हूँ.

2 comments:

JK Jorwal said...

Great decision you have taken my friend. Self respect is costlier than any award.

Bihari Ki Duniya said...

True feelings , i support.....