Saturday 27 October 2012

पी . पी पी मॉडल स्कूल : शिक्षा के बाजारीकरण की बेशर्म पहल


2 comments:

Manoj Chahil said...

केंद्र सरकार की 6000 मॉडल स्कूल खोलने की घोषणा में 3500 स्कूल PPP के तहत शहरी इलाकों में खुलने का ज़िक्र है . इस बैठक की अखबारी रिपोर्ट में कहा गया कि PPP मॉडल स्कूलों की ओर कॉरपोरेट घरानों और निजी संस्थाओं को आकर्षित करने के लिए उन्हें स्कूलों में व्यावसायिक कार्यक्रम चलाने की छूट दी जाएगी और स्कूलों के भवन आदि के बारे में वर्तमान नियम -कानूनों में ढील दी जाएगी . देश के नीति निर्माता ये मान चुके हैं कि सिर्फ शिक्षा के लिए कोई व्यापारिक घराना स्कूल चलाने नहीं आएगा .

शिक्षकों के नाते हमारी सबसे बड़ी चिंता ये है कि अगर हमारे विद्यार्थी एक निजी संस्था द्वारा प्रायोजित (छद्म रूप में, क्योंकि असल में तो PPPके तहत सरकार इन संस्थाओं को प्रायोजित कर रही है)स्कूल में पढेंगे तो हमारी पहले से ही गंभीर शैक्षणिक चुनौती किस कद्र विकराल रूप धारण कर लेगी . क्या उस स्कूल में आप मुक्त करने वाली , सवाल खड़े करने वाली, आत्म -सम्मान और खुद्दारी वाली शिक्षा उस सहज ढंग से दे पाएँगे जैसा कि एक पूर्णतः सार्वजनिक वित्त पोषित , सरकारी विद्यालय में संभव है ? इन स्कूलों के माहौल का अन्य निजी स्कूलों से भी अधिक कृत्रिम होना संभव है . जब शिक्षक कॉरपोरेट घरानों की चाकरी करेंगे तो समता, न्याय , ईमानदारी , भ्रातृत्व ,ये मूल्य कहाँ से संप्रेषित करेंगे ? ये सच है कि शिक्षक वहां भी समाज ,शिक्षा ,विद्यार्थियों और अपने पेशे की गरिमा के लिए न्याय का संघर्ष करते रहेंगे पर क्या उन्हें ये सब बेरोकटोक और सहजता से करने दिया जाएगा ? पूँजी के हितों की प्रतिनिधि -मुखौटा संस्थाओं में शिक्षा व शिक्षण दोनों को चेरी बनाकर उनकी स्वायत्ता ख़त्म करना आसान होगा .
-- मॉडल स्कूलों की इस कवायद से शिक्षा व्यवस्था में दो परतें और जोड़ दी जाएंगी .सरकारी व्यवस्था में ही दशकों से परत -दर -परत बिछाने के बाद भी नीति निर्माता इससे जनहित या न्याय का कोई सबक सीखने को तैयार नहीं दिखते . इतिहास गवाह है कि जैसे ही किसी व्यवस्था में कुछ इकाईयों को ख़ास कह कर चिन्हित किया जाता है वैसे ही उसी व्यवस्था की अन्य इकाईयां अनदेखी और लापरवाही का शिकार होती चली जाती हैं .सरकार की इस घोषणा के तहत लुभावने अंदाज़ में खड़ी की जाने वाली ये उप -व्यवस्था न सिर्फ सार्वजनिक संसाधनों का बल्कि अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों तक का हद से अधिक ध्यान व ऊर्जा खीचेंगी।(कितने प्रतिनिधि अपने क्षेत्र के एक आम सरकारी स्कूल में सामान्यतः जाते रहते हैं ?) फिर RTE के 25% वाले प्रावधान की यह आलोचना कि इसे लोगों की समान स्कूल व्यवस्था की चेतना और उसकी लड़ाई को दिग्भ्रमित करने , उसे तोड़ने के लिए लाया गया है , इन मॉडल स्कूलों की योजना पर भी लागू होती है .(यहाँ एक साथी शिक्षक का विचार याद आता है कि किसी स्कूल का उत्कृष्ट होना तो उसके सदस्यों के काम से तय होगा और स्कूलों को आदेशों ,अतरिक्त संसाधनों और लेबल चस्पा करके श्रेष्ठ कहलवाने की नीति फूहड़पन है .)जिन इलाकों में ऐसे तथाकथित और प्रायोजित मॉडल स्कूल खुलते हैं वहां लोगों के बीच पहले से मौजूद दरारें बढ़ जाती हैं .शायद मेरा ही नसीब खुल जाए , मेरी ही लॉटरी खुल जाए , यह स्वाभाविक परन्तु समाज को विखंडित करने वाली सोच व्यापक जड़ पकड़ सकती है .इस तरह ये "उच्च -श्रेणी " स्कूल लोगों में बराबरी की भावना को ख़त्म करने का घटिया और असंवैधानिक का काम भी करते हैं।

जिस कुविचार को लोगों पर इतने सालों से फीकी मुस्कान और कुटिलता से आरोपित किया जा रहा था पर जिसे राष्ट्रीय दस्तावेजों व नीतियों में न्यूनतम लिहाज़ से स्वीकारा -घोषित नहीं किया गया था वो अब सरकारी स्तर पर बेशर्मी से लागू होने जा रही है - निजी स्कूल पैसा कमाने का जरिया हैं और शिक्षा बाज़ार की अन्य खरीद - फरोख्त की वस्तुओं की तरह मुनाफा कमाने का वैधानिक स्रोत . जिस बात की ओर हमने संकोचवश इशारा ही किया था ,उसे कपिल सिब्बल खुद ही प्रमाणित कर रहे हैं . निजी , कॉरपोरेट संस्थाएं स्कूलों में शिक्षार्थ नहीं आ रहीं बल्कि उनकी नज़र इनकी ज़मीनों व संसाधनों पर है .ये साफ़ है कि PPP सार्वजनिक संसाधनों को निजी हितों के लिए लुटवाने का माध्यम है.

Manoj Chahil said...

PPP के तहत स्थापित किये जाने वाले मॉडल स्कूलों की योजना के सन्दर्भ में हमें भूमि अधिग्रहण के मुद्दे को भी ध्यान में रखना होगा। बहुत संभव है कि PPP के स्कूलों को चलाने वाले खुद इन्हें ऐसे स्थलों की तरह देखें जहाँ मुख्यतः उनका व्यावसायिक काम होता है; 'स्कूल तो हैं ही'. यानि स्कूल और उसकी जरूरतें हमेशा निचले पायदान पर रहेंगी। इस नीति से शिक्षा के नाम पर दिखावा, बनावटीपन, फूहड़ता, प्रतियोगितावाद, बाजारू सफलता आदि का वर्चस्व बढेगा और सहजता, सहयोग, सुन्दरता, समता का लोप किया जायेगा। इन सबके बावजूद अनुभव यह भी बताता है कि इस मुद्दे पर बातचीत करके इसे आन्दोलन का मुद्दा बनाया जा सकता है। लोगों में सहज रूप से बराबरी के मूल्य के प्रति विश्वास भी रहता है- अगर हम चाहें और कोशिश करें तो नीति के इसी छल को लोगों के सामने उजागर करके इसे सही राजनीति की ओर बढ़ने के लिए इस्तेमाल कर सकते हैं।