Wednesday 9 January 2013

शिक्षक डायरी : कहने भर को सह-शिक्षा विद्यालय

परिवार के स्तर से शुरू होकर स्त्री और पुरुष के बीच बराबरी का मूल्य विद्यालय स्तर पर पैदा और पुख्ता किया जा सकता है, जिससे दोनों लिंगों के बीच समझदारी और सम्मान का भाव विकसित हो सके, पर हमारे समाज में इस पर विचार नहीं हो रहा है। परिवार से जो गैर बराबरी के मूल्य लड़के - लड़कियों को मिलते हैं विद्यालयों में भी उन पर अमल किया जा रहा है, अगर कोई अध्यापक स्कूल के स्तर पर बराबरी का मूल्य  देना चाहे तो अक्सर उसे निराश होना पड़ता है ......

 लोक शिक्षक मंच ब्लॉग के लिए शिक्षक साथियों को अपने विद्यालयी अनुभव साझा करने को आमंत्रित करता है। इस कड़ी में निगम विद्यालय के एक शिक्षक साथी की डायरी का अंश प्रस्तुत है।  ......

( यह आवश्यक नहीं है कि इस लेख  में दर्ज विचारों से मंच की सहमति हो।)


साथियों, 

मैं शिक्षक के पेशे को बहुत पसंद करता था और ख़ासतौर पर प्राथमिक शिक्षण को। मुझे एक शिक्षक के रूप में कार्य करते हुए लगभग छ: साल हो गए हैं। वैसे तो इतने समय में काफी खट्टे-मीठे अनुभव रहे हैं लेकिन अभी हाल ही में एक ऐसा अनुभव रहा जिसने मुझे काफी बदल दिया। इस अनुभव को मैं आपके साथ साझा करने जा रहा हूँ।
मैं वर्तमान में एक सह-शिक्षा विद्यालय में कार्यरत हूँ। इस विद्यालय में मैं अप्रैल से कार्य कर रहा हूँ। जब मुझे अपनी कक्षा मिली तो मैंने नोटिस किया की यह सिर्फ कहने भर को सह-शिक्षा विद्यालय है वास्तविकता तो कुछ और है। एक कमरे को दो हिस्सों में, आधा लड़कियों के लिए व आधा लड़कों के लिए, बांटा हुआ था। हमारी संसद ने भी अभी तक पचास प्रतिशत महिला आरक्षण विधेयक पास नहीं किया है लेकिन मेरी कक्षा की भूतपूर्व अध्यापिका ने तो यह नियम कक्षा में लागू भी कर दिया था! मैंने पाया कि कक्षा की लड़कियां लड़कों से दूर रहना ही पसंद करती हैं, एक साथ डेस्क पर बैठना तो उनकी सोच से भी परे है। मैं हमेशा से ही शिक्षकों की बजाय बच्चों के बीच ही रहना पसंद करता हूँ। मैं कक्षा में भी श्यामपट्ट पर कार्य कराने के बाद खाली समय में बच्चों के साथ डेस्क पर बैठ जाया करता हूँ। मैंने धीरे-धीरे लड़के व् लड़कियों दोनों से बात करनी शुरू की और  उनके बीच अंतर को दूर करने की कोशिश की लेकिन कुछ खास कामयाबी हासिल नहीं हो पा रही थी। फिर मैंने एक डेस्क पर एक लड़के और एक लड़की को बैठने को कहा। लड़कों ने तो कोई विरोध नहीं किया। लड़कियों ने सामने तो कोई विरोध नहीं किया लेकिन  उनकी मन: स्थिति को मैं समझ गया था। ऐसा चलता रहा और नवम्बर माह के शुरुआत में मुझे बच्चों का टेस्ट लेना था। मैंने देखा कि कुछ लड़कियों का एक ग्रुप है और वो आपस में नक़ल करती हैं। मैंने उन लड़कियों को दूर-दूर बिठा दिया और उनके साथ एक लड़के को बिठाया ताकि वो आपस में नक़ल न कर सकें। ऐसा करने के बाद उन लड़कियों के काफी कम अंक आये। मुझे पता चला कि कुछ लड़कियों के घरवालों ने पूछा कि  इतने कम अंक क्यों आये हैं। शायद उनकी घर पर व् ट्यूशन में  पिटाई भी हुई हो। उनसे कम अंक आने का कारण पूछा गया तो उन्होंने कहा कि वे कक्षा में पढ़ नहीं पाती क्योंकि सर उनके साथ एक लड़के को बिठाते हैं और इस कारण कक्षा में  उनका मन भी नहीं लगता। सर जबरदस्ती हमें लड़कों के साथ बिठाते हैं और उनसे बात करने को कहते हैं और एक लड़की ने तो यहाँ तक कह दिया कि सर भी हमारे साथ बैठ जाते हैं, कभी हमारे सर पर हाथ रखते है। यह सब बातें उन लड़कियों ने ट्यूशन में बताई क्योंकि वे सभी लड़कियां एक ही जगह ट्यूशन पढ़ती थीं। उनके साथ एक लड़का भी था जिसने मुझे वहां हुई बातचीत के बारे में बताया। उनकी ट्यूटर ने कहा, "मुझे लगता है कि तुम्हारे सर ही बदतमीज हैं, अपने घरवालों को लेकर प्रधानाचार्या के पास जाओ और उनकी शिकायत करो, साथ ही अपना सेक्शन बदल लेना।" अगले दिन उन लड़कियों के माता-पिता विद्यालय आ गए। मैं इस घटना से स्तब्ध रह गया। मेरी प्रधानाचार्या ने मेरा पूरा पक्ष लिया जिसकी मुझे बिलकुल उम्मीद नहीं थी। उन्होंने साफ़ मना कर दिया कि किसी बच्चे का कोई सेक्शन नहीं बदला जाएगा। उनमे से एक लड़की के पिता ने तो कहा कि हमारी लड़की तो इन सर के पास ही पढ़ेगी, सर अच्छा पढ़ाते हैं। मुझे उस दिन अपने आप पर बहुत गुस्सा आया। मुझे लगा कि ज्यादा अच्छे तो  वो लोग हैं जो बच्चों से कोई मतलब नहीं रखते, इन बच्चों को हीन दृष्टि से देखते हैं। मुझे उन अभिभावकों की यह सोच अच्छी नहीं लगी। मैं परेशान इस बात से भी था कि यदि यह मामला क्षेत्रीय कार्यालय पहुँच जाता तो मेरे लिए कितनी शर्मनाक बात होती। मैं किसी से आँखे मिलाने के काबिल नहीं रहता और मेरी बात का कोई यकीन भी नहीं करता। यह सोच कर मैं बहुत परेशान रहने लग गया था। मैं उन बच्चों से नफरत करने लग गया था। मेरा विद्यालय जाने का मन नहीं करता था। एक दो दिन बाद ही मुझे लगभग 10 दिन के लिए अवकाश पर जाना था। मैं यह सोच कर राहत महसूस कर रहा था कि अब दस दिनों के लिए उनकी शक्ल नहीं देखनी पड़ेगी। इस बीच मैंने तय किया कि मैं इस पेशे को जल्द से जल्द छोड़ दूंगा क्योकि चाहे आपने कितने भी साल अच्छा किया हो कोई मायने नहीं रखता। एक छोटी सी गलती आपके कैरियर के साथ आपकी जिन्दगी भी  बर्बाद कर सकती है। मैंने तय किया है कि मैं कोई और पेशा चुनूँगा जहाँ पर कम से कम इज्जत तो सुरक्षित रहेगी। अवकाश पर रहने  के बाद विद्यालय  ज्वाइन करने पर मैंने तटस्थ रहना शुरू कर दिया। अब मुझे बच्चों से ज्यादा मतलब नहीं होता कि वो पढ़ाई कर रहे हैं या अपना समय बर्बाद कर रहे हैं। मेरे लिए वो अब स्लम में रहने वाले बच्चे हैं जैसाकि बाकी के टीचर सोचते हैं। यह मेरी वर्तमान की सोच है। मुझे पता है मेरी यह सोच गलत है। मुझे ऐसा नहीं सोचना चाहिए लेकिन आज भी मैं उस घटना को याद करता हूँ तो लगता है कि एक नई जिन्दगी मिल गई। यदि मामला शांत नहीं होता और क्षेत्रीय कार्यालय पहुँच जाता तो मेरे पास आत्म-हत्या के अलावा और कोई विकल्प नहीं था। हो सकता है कि वक्त के साथ मेरी सोच बदल जाये क्योंकि कहा जाता है कि वक्त हर घाव और जख्म  को भर देता है। आप सबकी प्रतिक्रियाएं आमंत्रित हैं। 




3 comments:

LOK SHIKSHAK MANCH said...

प्रिय साथी,
मैं मानती हूँ कि जो लोग अलग तरीके से काम करते है उनके साथ बहुत मुश्किल होती है। परंतु इसमें हिम्मत हारने वाली कोई बात नही है। मेरे साथ भी यह सब हो चुका है, जब मैं मुकर्जीनगर सर्वोदय विद्यालय में पढाती थी। मैने वहां छह साल पढाया है। वह स्कूल भी सह-शिक्षा विद्यालय है। लडके-लडकियां अलग अलग बैठते है। आपस में बात नही करते और यदि करते थे तो ताने या फिकरे जैसे एक दूसरे को कसते थे। मैने जब दोनों को मिलाकर सांस्कृतिक कार्यक्रम कराने शुरु किये तब यह दूरिया धीरे-धीरे कम हुई। वहां पर मैने बालमेला आयोजित किया जिसमें मुझे शिक्षको ने कहा कि तू लडके लडकियों को भगवाएगी लेकिन कोई बच्चा नही भागा और आशा के विपरित बहुत अच्छा बालमेला हुआ। बच्चों ने खूब इंजोय किया। फिर मैने एक नाटक तैयार करवाया जिसमें लडके लडकियां दोनों थे। नाटक की तैयारी में शिक्षक वर्ग मुझसे बहुत नाराज था पर नाटक के कारण बच्चों में दोस्ती की भावना पनपी। पूरे स्कूल का माहौल बदल गया। हमारे बच्चों ने पुरस्कार जीतने शुरु कर दिए। बदनाम स्कूल अच्छे स्कूलों मे गिना जाने लगा था। मैं यह सब इसलिये बता रही हूं कि इस सिस्टम में बहुत खामियां है मैं मानती हूँ पर हम धीरे-धीरे सुधार सकते है. हमें हिम्मत नही हारनी चाहिए साथी।
आपकी एक शिक्षिका दोस्त
अनिता भारती

LOK SHIKSHAK MANCH said...

Ashwinikumar Singh
थोप कर कोई भी बदलाव लाया नहीं जा सकता .... ना नास्तिकता ना आधुनिकता ना ही स्त्री पुरुष समानता .... आप गलत नहीं है पर जिस तरह से लडकियों की परवरिश की जाती है वेसी स्थिति में उनके लिए आपकी क्लास में बैठना ही दुर्लभ हो गया होगा समझना तो दूर की बात है .... हमारे समाज की सारी बंदिशे लड़कियों के लिए है अतः लड़कों के लिए तो यह एक अवसर था .. अपनी दमित इक्षावों को जाहिर करने का. इसलिए असहज होते हुए भी असहज ना होने का . आपको इस तरह से लड़का लड़की समानता लाने और "तालिबानी" तरीके से लडके लड़की में असमानता पैदा करने में कोई अंतर नहीं है ... बेहतर होता की आप ग्रुप एक्टिविटी करवाते जिसमे बिना अपने डेक्सों को बदले भी लडके और लड़कियों को साथ मिलकर बराबरी के साथ काम करने का अनुभव मिलता ...... ये में अपने द्वारा किये प्रयोगों के अनुभव से लिख रहा हूँ ..........

firoz said...

दोस्त, आप की नीयत को सलाम करते हुए भी मैं आपकी रणनीतिक समझ में कमी की ओर ध्यान खींचना चाहूँगा। मेरा अनुभव बताता है कि पहली कक्षा के विद्यार्थी भी हमारे पास अच्छे खासे समाजीकरण के प्रभाव लेकर ही आते हैं पर उस दशा में जब आप समूह को प्रथम कक्षा से पढ़ा रहें हो आपके पास लैंगिक समानता का सहज माहौल रचने की फिर भी कुछ गुंजाईश रहती है। मैं आपका ध्यान उन दो प्रतिक्रियाओं की और भी खींचूंगा जिनसे हम आशान्वित रह सकते हैं- आपकी प्रधानाचार्या का समर्थन और शिकायत करने वाले अभिभावक का भी आपके शिक्षण को सम्मान देना। मिश्रित कक्षाओं और विद्यालयों को सहज बनाना तब आसान होगा जब विद्यार्थी प्राथमिक वर्षों से ही एक लैंगिक बराबरी व न्याय के माहौल में पढ़ रहें हों। आज की परिस्थितियों में यह रोचक है कि शहरों में सरकारी स्कूलों में पढने वाले बच्चों के माता-पिता सह-शिक्षा को लेकर जितने आशंकित है उतनी चिंता शायद ग्रामीण इलाकों के स्कूलों को लेकर नहीं है। मेरा मानना रहा है और मेरे अपने शिक्षण का अनुभव भी यह बताता है कि एक न्यायोचित माहौल में लड़के-लड़कियों के साथ-साथ पढने (खेलने, काम करने आदि) से यौन हिंसा व दुर्भाव कम होते हैं। अफ़सोस तो यह है की स्वयं निगम में अधिकतर स्कूल सह-शिक्षा के नहीं हैं और जो हैं भी वो, जैसा की हमारा अनुभव बताता है, गैर-बराबरी और रुढ़िवादी संस्कृति को ही प्रोत्साहित कर रहें हैं। साथी शिक्षकों एवं विभाग से इस मुद्दे को लेकर बातचीत करनी चाहिए।