Sunday 22 March 2015

आज भगत सिंह तुझे याद करना


साम्राज्यवाद के NGOवादी हमलों, चालों व बहुरूपों के सामयिक संदर्भ में भगत सिंह, राजगुरु और सुखदेव के शहादत दिवस पर हमारे लिए सोचने-विचारने (और करने) के लिए एक गंभीर चुनौती है। सबसे पहले तो हमें यह सवाल पूछने की ज़रूरत है कि क्या पूँजीवादी-ब्राह्मणवादी-पितृसत्तात्मक पाले में खड़े होकर इन शहीदों को श्रद्धाँजलि दी जा सकती है। असल में तो अगर हम इन विचार-व्यवस्थाओं के नुमाइंदे हैं और इन्हीं में हमारे प्राण व हित बस्ते हैं तो हम महज़ श्रद्धाँजलि का कर्मकांड निभा सकते हैं। इससे ज़्यादा न हम कर पाएँगे और न करना चाहेंगे। कर्मकांड रहित कार्यक्रम सादगी व जज़्बे से, वक्ता/प्रस्तुतकर्ता और श्रोताओं के बीच व्यवहार-इज़्ज़त की समानता से संचालित होंगे। उनमें एक क्या किसी के लिए भी कोल्ड-ड्रिंक्स, मालाएँ, सोफ़े, दीप-प्रज्वलन और वाहवाही या तारीफ के पुल नहीं होंगे। 
भगत सिंह और अन्य क्राँतिकारियों के तौर-तरीकों को अक्सर यह कहकर सही परिप्रेक्ष्य में रखने की कोशिश की जाती है कि उनका उद्देश्य खून बहाना या निर्दोषों की जान लेना नहीं था। उन्हें अंग्रेज़ों से कोई नस्लवादी नफरत या दुश्मनी नहीं थी। इसे न सिर्फ एसेंबली में फेंके गए बमों के संदर्भ से साबित किया जाता है बल्कि यह बात खुद भगत सिंह के बयानों और लेखों की मार्फत भी स्पष्ट हो जाती है। फिर भी हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि क्राँतिकारियों के लिए अहिंसा कोई नैतिकतावादी प्रश्न नहीं था। साथ ही, वो उस हद तक और उस कारण ही क्राँतिकारी थे जिस हद तक और जिस कारण वो मानवतावादी थे। भगत सिंह जैसे क्राँतिकारियों का प्रेरक मूल्य इंसानियत थी। रबिन्द्रनाथ ठाकुर से कई मायनों में विपरीत समझ रखते हुए भी उनमें एक समानता यह थी कि दोनों राष्ट्रभक्ति के वीभत्स व संकुचित रूपों से सावधान थे। भगत सिंह की राजनीति सुंदर समाज व देश ही नहीं बल्कि समानता व इन्साफ पर आधारित सुंदर संसार के निर्माण की थी। उन्हें देश की सीमाओं में बाँधकर, पहलवानी देशभक्ति का प्रतीक बनाकर सीमित कर देना उनके साथ धोखा है। असल में देशभक्ति से बेहतर शब्द देशप्रेम है। भक्ति से न सिर्फ कर्मकांड की बू आती है बल्कि यह उस तार्किकता व आलोचनात्मक, प्रश्नवाचक वैचारिकता के भी विपरीत जाती है जिसे भगत सिंह क्राँतिकारियों का अनिवार्य लक्षण मानते थे। दूसरी तरफ प्रेम एक नैसर्गिक अनुभूति है और एक से प्यार हमें अन्यों से प्यार करने से नहीं रोकता। भक्ति ईर्ष्यालु और संकुचित है, क्राँतिकारी प्रेम उदार और मानवता तक विस्तारित।
              इसी तरह भगत सिंह के घर छोड़ने का कारण परिवारजनों द्वारा उनकी शादी तय कर दिया जाना बताया जाता है। इस निर्णय को वैवाहिक बंधन से बचकर क्राँतिकारी रास्ते पर चलने की शर्त के रूप में व्याख्यायित किया जाता है। यह कहना पड़ता है कि यहाँ भगत सिंह या तो ग़लत समझ रखते थे या फिर पारम्परिक-रूढ़िवादी वैवाहिक रिश्ते की आशंका के संदर्भ में ही उन्होंने उक्त निर्णय लिया होगा। पितृसत्ता के ढाँचे के तहत एक रूढ़िवादी विवाह सचमुच में बंधन होगा - जिसमें स्त्री की बेड़ियाँ कहीं मज़बूत होंगी मगर उसे उनका एहसास बनिस्बत कम हो सकता है। एक क्राँतिकारी का दूसरे क्राँतिकारी से विवाह अथवा उसके विवाह को क्राँतिकारी स्वरूप दे देने से विवाह बंधन नहीं बल्कि आज़ादी का संबंध हो जाएगा, क्राँति की कड़ी होगा। क्राँतिकारियों की युगजनित व व्यक्तिगत सीमाओं को पहचानकर और रेखांकित करके, हमें अपने विद्यार्थियों को आदमी-औरत के ऐसे रूढ़िवादी, स्त्री-विरोधी विमर्श के प्रति सचेत करके इसे खत्म करने की ज़रूरत है।
                भगत सिंह के मुक़दमे से लेकर उनकी फाँसी और अंतिम संस्कार तक में बरती गई सत्ता की डर भरी क्रूरता को भी बखूबी याद रखने की ज़रूरत है। अध्यादेश द्वारा प्राकृतिक न्याय के सिद्धांतों को ताक़ पर रखते हुए ट्रिब्यूनल का गठन करके उनपर मुक़दमा चलाया गया। इस ट्रिब्यूनल का मक़सद त्वरित कार्रवाई था और इसके ऊपर सुनवाई की गुंजाइश नहीं थी। इसी तरह तय तारीख से एक दिन पहले ही उन्हें फाँसी दे दी गई थी, वो भी सुबह की जगह शाम के वक़्त। उनके घरवालों को अंतिम मुलाक़ात का मौक़ा नहीं दिया गया और फिर रातों-रात जेल की पिछली दीवार तोड़कर उनके शवों को - कहते हैं कि टुकड़े-टुकड़े करके - चुपके से जलाकर हुसैनीवाला में सतलुज में फेंक दिया गया। यह बात विशेष महत्व की है कि अपने अंतिम समय में वो प्रार्थना नहीं कर रहे थे बल्कि लेनिन की जीवनी पढ़ रहे थे। ज्ञान व समझ के प्रति ऐसी आस्था, ऐसा प्रेम-लगाव कि मरने से ठीक पहले पढ़ने की ललक हो एक अनोखी मनोदशा का परिचायक है। यह जानकर कि अब मरना ही है और न पुनर्जन्म में यक़ीन है और न ही ईश्वर में - तो फिर उसके रचे स्वर्ग-नर्क का तो कहना ही क्या - अगर कोई अधूरा पन्ना, अधूरा अध्याय पूरा करने की इच्छा जताता है तो यह केवल उसकी महत्ता नहीं है बल्कि एक झलकी है इंसान होने की संभावना की। मन्मथनाथ गुप्त लिखते हैं कि नेश्नल कॉलेज में जयचंद्र विद्यालंकार नाम के एक शिक्षक के प्रभाव से भगत सिंह और उनकी मित्र-मंडली का प्रवेश क्राँतिकारी दल में हो गया। वो आगे लिखते हैं, 'गुरु गुड़ ही रह गए और चेले चीनी हो गए।' इन्हीं शिक्षक का एक प्रभाव वो भगत सिंह के विद्याप्रेमी होने का भी मानते हैं। आज भी अगर हम अपने विद्यार्थियों को करियर महत्वाकांक्षा की जगह शिक्षाप्रेम की प्रेरणा दें पाएँ तो भी क्राँति के काम में परोक्ष योगदान दे सकेंगे। 
पूँजीवादी-साम्राज्यवादी NGO का चरित्र ही इस शिक्षाप्रेम के विरुद्ध है। भले वो कहीं मुफ्त में बस्ते बाँटें या स्कूलों में पुस्तकालय, कम्प्यूटर दें या शिक्षकों को प्रशिक्षित करने के लिए प्रारूप तैयार करें, उनकी भूमिका उस काठ के घोड़े जैसी है जिसे दुश्मन तोहफे के रूप में छोड़ जाता है और जिसमें छुपे सैनिक अंदर से शहर का द्वार आक्रमणकारियों के लिए चुपके-से खोल देते हैं। भलाई के नाम पर कॉर्पोरेट घरानों और उनके NGOs के चलाए जा रहे कार्यक्रमों के चरित्र व उसके खतरे को कोई भी शिक्षाप्रेमी व्यक्ति, बिना अधिक बारीक राजनैतिक विश्लेषण में जाए भी, कुछ तुलनात्मक उदाहरणों से समझ सकता है। अगर किसी धारावाहिक को चेहरे की क्रीम बनाने वाली कम्पनी प्रायोजित कर रही है तो क्या उसमें बाजार, नस्ल और लिंग के रंगभेदी उपकरणों को पहचानकर उनपर सवाल उठाने और उन्हें ध्वस्त करने के संदेश देने की संभावना व्यक्त होने दी जाएगी? आखिर क्यों सरकारी कर्मचारियों पर तोहफे लेने पर कुछ विशेष रोक है? इसका औचित्य इतना गूढ़ नहीं है। आखिर क्यों यह कहा जाता है कि अगर शोध में निजी शक्तियाँ प्रायोजकों की भूमिका में हैं तो उनके परिणामों पर संदेह जायज़ है? असल में निजी पूँजी द्वारा प्रायोजित शोध, कला, शिक्षा आदि को अपनी सम्भवनाओं, गरिमा और स्वतंत्रता की कीमत चुकानी ही पड़ेगी या यूँ कहें कि उनसे वसूल ली जाएगी। 
वहीं दूसरी तरफ इसी भलाईवादी काम को निजी पूँजी अपने प्रचार के साथ-साथ अपनी छवि चमकाने, जनसंसाधन हथियाने और सस्ते-समर्पित कामगार तैयार करने में इस्तेमाल करती है। चाहे वो TFA (टीच फॉर अमेरिका) की तर्ज पर स्कूलों में काम कर रहा TFI (टीच फॉर इंडिया) हो या 'असर' (ASER) नाम से बच्चों की अकादमिक स्थिति की सालाना रपट निकालने वाला और स्कूलों में काम कर रहा 'प्रथम' हो या महिन्द्रा कम्पनी का 'नन्हीं कली' नाम से स्कूलों में चल रहा लड़कियों की शिक्षा को निशाना बनाता कार्यक्रम या Magic Bus के नाम से बच्चों के खेलकूद को लेकर काम कर रही संस्था, ये सभी अपने मालिकाना स्वरूप के अनुरूप इतना ही उद्देश्य रखते हैं कि बच्चे उतना पढ़-लिख लें कि इनके धंधे में कम पैसों मगर पूरे एहसान तले हाथ बँटा सकें। ग़ौर से देखने पर हम इन NGOs और उन कॉर्पोरेट-पूँजीवादी सेठों-विचारकों के संस्थानों के तार मिले पाते हैं जोकि खुलकर बोलते हैं कि सरकार को स्कूल नहीं चलाने चाहिए और शिक्षा को निजी हाथों में छोड़ देना चाहिए। कुछ छद्म-कल्याणकारी भाव दिखाते हुए CCS (सेंटर फॉर सिविल सोसाइटी) जैसे इनके अगुवा संस्थान यह भी कहते हैं कि सरकार को अगर फंड देना ही है तो वह उसे वाउचर के माध्यम से बच्चों को दे और फिर यह उनके अभिभावकों पर छोड़ दे कि वो किस निजी स्कूल में दाखिला लें, न कि खुद, सीधे स्कूलों पर खर्च करे। ('फंड चिल्ड्रन, नॉट स्कूल्स') ज़ाहिर है कि ऐसे में न स्कूल स्कूल रहेंगे, न शिक्षक शिक्षक, न विद्यार्थी विद्यार्थी। फिर शिक्षा की बात कौन करे? स्कूल कम्पनियों की तरह दुकान लगाएँगे, स्पर्धा करेंगे, प्रतिद्वंद्वी होंगे, शिक्षक कॉर्पोरेट अस्पतालों के डॉक्टरों की तरह रीढ़हीन होकर पेशे को व्यापारिक कुनीति के दलदल में धकेलने के आरोपी होंगे और विद्यार्थी खरीदार, ग्राहक। हमें न ऐसे दलाल शिक्षक बनना है और न ही अपने विद्यार्थियों, स्कूलों और समाज को इस घटिया, क्रूर, शोषणकारी व्यवस्था के सुपुर्द करना है। यह हमारे अस्तित्व की लड़ाई तो है ही, हमारी अस्मिता की लड़ाई भी है। 
                           अगर आज भगत सिंह हमारे बीच होते तो क्या वो किसी NGO के सदस्य बन जाते या खुद कोई NGO खोल लेते या फिर जनसंगठन और जनांदोलन के रास्ते क्राँति के मार्ग पर चलते? क्या वो दफ्तर में होते या फिर बस्तर में होते? क्या वो बस्तर में हैं?           

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