Saturday 9 April 2016

धर्मनिर्पेक्षता के सिद्धांत और मेरा अनुभव

अर्जुन 
 युवा कवि और विद्यार्थी 

धर्मनिर्पेक्षता के सिद्धांत को वर्तमान सरकार ने जिस क़दर नेस्तोनाबूत किया है, उसका अनुभव मैंने मुज़फ्फरनगर, दादरी आदि जगहों पर हुए दंगों से उभरी कराहटों में महसूस किया है। असहिष्णुता के माहौल को भी महसूस करने के लिए वर्तमान परिस्थितियों में किसी व्यक्ति विशेष को बहुत अधिक प्रयास करने की आवश्यकता नहीं है। नफरत और हिंसा से सरकार पाँव से लेकर सर तक जिस प्रकार भरी हुई है उसे आज देश के प्रत्येक कोने में महसूस किया जा रहा है। कहना न होगा कि यह इस असहिष्णुता के माहौल की ही उपज है जो मेरे जैसा युवा (जो कभी लेखन में रुचि नहीं लेता था और न लेने की सोचता था) आज अपने लेखन की शुरुआत सरकार विरोधी लेख से कर रहा है। कहते हैं कि व्यक्ति को उसके आसपास की परिस्थितियाँ निर्मित करती हैं। शायद माहौल मुझे ऐसा करने पर मजबूर कर रहा है। खैर, जब मैंने 'धर्मनिर्पेक्षता' से इस लेख का आरम्भ किया है तो यह भी बता दूँ कि अब से कुछ समय पहले तक मुझे समझ नहीं आता था कि इस देश के लिए 'धर्मनिर्पेक्ष' शब्द का प्रयोग क्यों किया गया था और कुछ लोग शुरु से ही लगातार भारतीयों में धर्मनिर्पेक्ष मूल्य विकसित करने के पक्षधर क्यों थे। लेकिन शायद अब मेरी कुछ प्रतिशत समझ पिछले कुछ सालों या महीनों के माहौल से बनी है, और उसे साझा करना चाहता हूँ। पहली बात तो जहाँ तक मुझे समझ आता है, इतिहास में अधिकतर लड़ाइयाँ और सबसे खतरनाक युद्ध - जिनमें प्रथम व द्वितीय विश्व-युद्ध भी शामिल हैं - उन लोगों के क्रियाकलापों का परिणाम रहे हैं जो धार्मिक रूप से बहुत ज़्यादा असहिष्णु रहे हैं। और अगर हम वर्तमान संदर्भों में भी देखें तो ISIS का अंतर्राष्ट्रीय चेहरा हो या अपने देश में दिल्ली, गुजरात में बड़े स्तर पर तथा हाल ही में दादरी, मुज़फ्फरनगर के दंगे, इनमें हमें धर्म के विश्वास व पहचान के तत्व साफ़ दिखाई देते हैं। 
धर्म से नज़दीकी कैसे लोगों की मानवता से दूरी बनाने में बल्कि मानवता के नरसंहार के रूप में किस प्रकार पुष्पित व पल्ल्वित हो रही है, यह आज की पीढ़ी के युवाओं के लिए शोचनीय प्रश्न है। 
अगर मैं इतिहास पर नज़र डालूँ तो मेरी आँखें कम-से-कम अभी तो ऐसी कोई लड़ाई, दंगा, युद्ध देख पाने में असमर्थ हैं जिसमें धर्मनिर्पेक्ष तथा नास्तिक लोगों ने मुख्य भूमिका निभाई हो। एक धर्मनिर्पेक्ष और नास्तिक व्यक्ति का निर्माण मानवता के सिद्धांतों को आधार बनाकर होता है। शायद इसीलिए वह व्यक्ति न तो समाज के लिए खतरा है और न ही समाज उसके लिए। मानवतावादी मूल्यों पर आधारित समाज का निर्माण जहाँ सभी को समान समझा जाता हो, स्त्री-पुरुष को केवल मानव की तरह देखा जाता हो, न कि ताक़तवर और कमज़ोर के रूप में, ऐसे समाज के निर्माण का दायित्व केवल धर्मनिर्पेक्ष और नास्तिक लोगों को ही दिया जा सकता है। और शायद इसी दूरदर्शिता से प्रेरित होकर संविधान निर्माताओं ने एक धर्मनिर्पेक्ष भारत की कल्पना की थी और प्रत्येक भारतीय में धर्मनिर्पेक्ष मूल्यों को विकसित करने की ज़िम्मेदारी शिक्षा व्यवस्था पर छोड़ी थी। लेकिन 90 के दशक के बाद बदले शिक्षा के चरित्र ने स्थिति को बद से बदतर बना दिया है, और कम-से-कम मुझे तो इसका अहसास अब होने लगा है। 
  
(अर्जुन शिक्षा के विद्यार्थी हैं और शिक्षा के विभिन्न मुद्दों पर लगातार सक्रिय रहते हैं। इन्होने कुछ समय प्राइवेट स्कूल में पढ़ाया भी है )

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